रविवार, 13 नवंबर 2016

विकास, आपकी शहादत पर हमें गर्व है

मधुबनी के झंझारपुर अनुमंडल के रैयाम गांव के रहनेवाले विकास कुमार मिश्र की चर्चा आज हर जुबान पर है. मिथिलांचल के साथ पूरा देश उन पर गर्व कर रहा है. बीएसएफ में जवान विकास जब अक्तूबर महीने में दशहरा के समय में गांव आये थे, तब परिजनों समेत किसी ग्रामीण को इस बात का आभास तक नहीं था कि यह उनकी अंतिम छुट्टी साबित होगी. दिल्ली में रहनेवाले तीन भाइयों से मिले, तो चार भाइयों की सर्किल पूरी हो गयी. सभी ने साथ बैठ कर खाना खाया.
विकास अपने परिवार में सबसे छोटे थे. उनसे बड़ी दो बहने और तीन भाई थे. सबकी शादी हो चुकी है और सब अपने परिवार के साथ सेटल हैं. भाई दिल्ली में रह कर निजी कंपनियों में काम करते हैं, जबकि बहनें अपनी ससुराल में. पिता का स्वर्गवास हो चुका है, सो घर में केवल मां रहती हैं, जिनकी देखभाल के लिए अभी विकास की बहन आयी हुई थी, क्योंकि मां इंद्रा देवी को हृदय की बीमारी है. इसी की चिंता विकास को सबसे ज्यादा थी. अपनी अंतिम छुट्टी में वो मां को लेकर काफी चिंतित थे. वह छुट्टी से वापस जाने से पहले मां की दवाइयां ला कर गये थे और वादा किया था कि इस बार जब घर आऊंगा, तो घर का काम पूरा करा दूंगा, क्योंकि फूस का घर अच्छा नहीं लगता.
जम्मू-कश्मीर के पुंछ में पोस्टिंग के बाद भी रोज मां को फोन करते थे और उनका हाल लेते थे. बस एक ही ताकीद करते थे कि मां समय से खाना और दवाई खाना, ताकि ठीक रहे. बहन से भी कुछ दिन और घर में रहने की गुजारिश की थी, जिस पर बहन मान गयी थी. बीते बुधवार को सुबह मां का हाल लिया और बहन से बात की, तब भी घर बनाने की बात दोहरायी. बताया, कैसे सीमा पर तनाव ज्यादा और लगातार पाकिस्तान की ओर से गोलीबारी की जाती है, जिसका वो लोग माकूल जवाब देते हैं. ये बात हुये कुछ घंटे ही बीते थे कि दिन में लगभग चार बजे उनके जख्मी होने की खबर घर में आयी और थोड़ी देर बाद ही उनकी शहादत की बात भी कही गयी. सहसा किसी को विश्वास नहीं हो रहा था.
शाम तक ये बात झंझारपुर समेत पूरे जिले व देश में फैल चुकी थी. विकास के घर पर सैकड़ों लोग जमा थे. मां-बहन को विश्वास नहीं हो रहा था, जिस बेटे व भाई से कुछ घंटे पहले ही बात हुई थी. इतनी अच्छी बातें कर रहा था. वह अब इस दुनिया में नहीं है. दिल्ली में विकास के भाई ने कहा कि मेरा भाई इस दुनिया से नहीं जा सकता. छठ के दिन ही पांच बार उससे बात हुई थी. ऐसा कैसे हो सकता है, लेकिन ऐसा हो चुका था. विकास ने देश की रक्षा करते हुये शहादत दे दी थी. शनिवार की सुबह जब विकास का पार्थिव शरीर पहुंचा, तो हजारों की संख्या में आसपास के लोग जुटे. उन्हें राजकीय सम्मान से अंतिम विदाई दी गयी. रैय्याम गांव के मध्य विद्यालय के पास ही उनका अंतिम संस्कार हुआ, जिस जगह पर अंतिम संस्कार हुआ. वहां ख़ड़े होने तक की जगह नहीं थी. सब लोग विकास को याद कर रहे थे. उनकी बहादुरी की बाद कर रहे थे.
विकास के सम्मान में नारे लगा रहे थे. पाकिस्तान को कायराना हरकत पर लागत दे रहे थे. इन सबके बीच मां इंद्रा देवी की चीख सबको परेशान कर रही थी. बहनें भाई को याद कर रही थीं. बड़े भाइयों को अपने छोटे भाई की शहादत पर गम था, साथ में गर्व भी, क्योंकि विकास देश की सरहदों की रक्षा करते हुये शहीद हुये हैं. यही चर्चा गांव के हर बच्चे-बच्चे में है. रैयाम गांव पहले से भी सैनिकों का गांव रहा है. यहां के लगभग पचास परिवारों के लाल देश की सेवा कर रहे हैं. विकास हमें भी आपकी शहादत पर गर्व है. आपकी शहादत को देश हमेशा याद रखेगा.

गुरुवार, 3 नवंबर 2016

अखिर, ये राष्ट्रवाद कितना पुराना है?

(वरिष्ठ समाजवादी चिंतक सच्चिदानंद सिन्हा जी का सामयिक वार्ता में लेख. उसी से साभार.)

हैदराबाद में छात्र रोहित वेमुला की आत्महत्या को लेकर उठा विवाद और इसके तत्काल बाद जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय (जेएनयू) के कुछ छात्रों द्वारा कथित रूप से राष्ट्र विरोधी नारे लगाये गये. इस घटना पर उठे विवाद ने अचानक राष्ट्रप्रेम और राष्ट्रीय वफादारी के सवाल को व्यापक विवाद का मुद्दा बना दिया है. जेएनयू विवाद में पुलिस ने आनन-फानन में एक शिक्षक समेत कुछ छात्रों को हिरासत में लेकर उन पर राष्ट्रदोह का मुकदमा ठोक दिया और कुछ उत्साही वकीलों ने, जिन्हें संघ का समर्थक बताया जाता है, अदालत मामले को संज्ञान में ले, इसके पहले ही कोर्ट परिसर में ही अभियुक्तों को लप्पड़-थप्पड़ से उनके जुर्म की गंभीरता का एहसास करा दिया. इसके बाद कुछ जमातें लगातार जहां-तहां मार-पीट और दंगा-फसाद से अपनी राष्ट्रभक्ति का इजहार करने में संलग्न हैं. प्रशासन भी यथासंभव, राष्ट्रभक्ति के इस उफान में हस्तक्षेप से कतराता है. अगर राष्ट्रवाद के नाम पर होनेवाले फसाद में कानून-व्यवस्था पक्षाघात का शिकार हो रही हो और आम नागरिकों की अभिव्यक्ति की आजादी राष्ट्रभक्ति के उन्माद में निरस्त हो रही हो, तो इस राष्ट्रभक्ति के उत्स और औचित्य पर विचार करना लाजमी हो जाता है. इसलिए भी कि प्राय: युद्धों में राष्ट्रभक्ति के उत्स और औचित्य पर विचार होता है. इसलिए भी कि प्राय: राष्ट्रीय युद्धों में राष्ट्रभक्ति की ऐसी भवाना का उभार होता है, जिसे विवाद से परे माना जाता है.
प्रख्यात समाजशास्त्री इमिल दुरखाइम ने सामुदायिक व्यवहारों को दो श्रेणियों में बांटा था.
1- सैक्रेड (पवित्र)
2. प्रोफेन (लोकाचारी)
सैक्रेड से मतलब उन व्यवहारों से था, जो मानवेतर और उदात्त हैं. अत: उन्हें मानवीय कसौटियों पर आंका नहीं जा सकता. प्रोफेन हमारे दैनन्दिन के कार्यकलापों का क्षेत्र है, जिनका आकलन हम रोजना हानि-लाभ की कसौटियों से करते हैं. राष्ट्रवाद के अतिरेक का खतरा इस बात से पैदा होता है कि इसे भी सैक्रेड यानी मानवेतर धार्मिकता की कोटि में डाल दिया जाता है, जिससे हम इसे उसके सांसारिक परिणामों की कसौटी पर नहीं कस सकते, जैसे यह कथन..मेरा देश सही या गलत सर्वोच्च है. हम इसके सभी कार्यो में शरीक हैं, भले ही वह गलत भी हो. कार्लमार्क्‍स ने भी धर्म को लोगों के लिए अफीम कहा था. राष्ट्रीयता के पीछे यही भावना है, जिससे संसार राष्ट्रीय और अंतराष्ट्रीय युद्धों की भयावह त्रसदियों से गुजरता रहा है. अगर हम पिछले दो महायुद्धों पर गौर करें, जिनमें करोड़ों लोग मरे और इतने ही लोग अपंग हुए, तो इसकी सच्चई दिखेगी और इससे हासिल क्या हुआ, अंतहीन कटुता.
18वीं शताब्दी के पहले राष्ट्रीयता का यह भाव कहीं नहीं था. यूरोप में भी नहीं. भारत में तो राष्ट्र राज्य (नेशन-स्टेट) का यह भाव था ही नहीं. एक क्षेत्रीय भाव, तो दूसरी जगहों की तरह यहां भी व्याप्त था, जब हम क्षेत्रीय भाव की बात करते हैं, तो इस दिलचस्प हकीकत पर ध्यान रखना जरूरी है कि यह क्षेत्र भाव अधिकांश जीवों में यानी पक्षियों में, मछलियों में, कुत्ताें, बिल्लियों व भैसों आदि में पाया जाता है. कुत्ते, भैंस अदि मल-मूत्र से अधिकतर क्षेत्र का सीमांकन करते हैं. हम मनुष्य झंडे, पताका या बाड़े बनाकर, लेकिन इसके पीछे समान रूप से व्याप्त वह पशु प्रवृत्ति ही है, जिससे हम एक क्षेत्र पर अपना वर्चस्व प्रदर्शित करना चाहते हैं. इसमें कुछ भी उदात्त या विशिष्ट नहीं है, जिसमें हमारी मानवीयता की व्याप्ति हो. समग्रता में विचार करने पर हमारी गरिमा की दृष्टि से हमारे तोपों, बंदूकों, युद्धपोतों और युद्धक वायुयानों का कुत्ताें और भैसों के मलमूत्र से ज्यादा महत्व नहीं है, जिससे वो अपनी सीमा का दावा करते हैं. तटस्थ होकर विचार करने पर यही एहसास होता है कि ये सब तुच्छ पशु के बल के प्रदर्शन से ज्यादा कुछ भी नहीं है. पशुओं में कुछ पैंतरेबाजी और हल्के भिड़ंत से वर्चस्व कबूल कर लिया जाता है. इसके विपरीत मनुष्य अपनी दावेदारी के प्रदर्शन का ऐसा कैदी बन जाता है कि राष्ट्र के नाम पर विनाशकारी युद्धों में उलझ जाता है. अपनी हैसियत के हिसाब से भारत भी आजादी की अर्ध शताब्दी में ही तीन युद्ध में उलझ चुका है और सीमा पर की झड़पें तो रुटीन बन गयी हैं.
जारी..

बुधवार, 2 नवंबर 2016

क्या बात है, मुजफ्फरपुर में 7डी थियेटर!

आधुनिक सुख-सुविधाओं पर अपना ज्यादा विश्वास नहीं है, लेकिन जब बात होती है, तो जानने समझने की कोशिश जरूर करता हूं. पिछले छह साल से मैं दो बार ही सिनेमा हाल में गया हूं. वह भी एक बार पूरा सिनेमा देखा था, दूसरी बार बीच में वापस चला आया. सिनेमा हाल के मामले में कभी मुजफ्फरपुर का नाम हुआ करता था. इसे प्रदेश की सांस्कृतिक राजधानी के तौर पर प्रचारित किया जाता है. यहां कई सिनेमा हाल थे, जो अब भी देखने को मिल जाते हैं, लेकिन इनमें से ज्यादातर बंद हो चुके हैं. गिने-चुने हाल ही चालू हालत में हैं.
एक-दो सिनेमा हाल के बारे में बताते हैं कि हाल के महीनों में उनकी व्यवस्था ठीक हुई है, लेकिन कभी जाने का मौका नहीं मिला, न ही मन हुआ, लेकिन दो नवंबर को शाम के समय सड़क पर टहल रहा था. उसी दौरान एक बिल्डिंग के कुछ बच्चे 7डी थियेटर की बात कर रहे थे. कह रहे थे कि अपने शहर में नया सिनेमा हाल खुल गया है, जिसमें पिक्चर देखने का अनुभव बिल्कुल अलग है. बच्चे आपस में चर्चा कर रहे थे कि उनके परचित लोग वहां गये थे. वह सिनेमा देख कर आये हैं. हाल के अंदर उन्हें कई तरह के अनुभव हुये.
जैसे अगर पानी बरस रहा है, तो लगता है कि सिनेमा देखनेवाला भी भीग रहा है. अगर स्क्रीन पर सांप चल रहा है, तो लगेगा कि सांप आपके पास से होकर गुजर रहा है. अगर स्क्रीन पर बर्फ गिर रही है, तो आपको इस बात का एहसास होगा कि आप बर्फबारी के बीच में बैठे हुये हैं. ये बिल्कुल नये तरह के अनुभव के बारे में बच्चे बात कर रहे थे, तो मैं भी उनकी बातों का सुनने लगा. उनमें कुछ बच्चे कह रहे थे कि मैं भी हाल में पिक्चर देखने जाऊंगा. मैंने अपने पापा को इसके बारे में बताया है. वो हम लोगों को वहां ले जाने के लिए तैयार हैं.
7डी थियेटर क्या होता है? इससे अभी तक मैं भी अनजान हूं. सही कहूं, तो मुङो तो ये भी पता नहीं चल पाया था कि शहर में 7डी थियेटर खुल गया है. हां, ये जरूर सुनता था कि द ग्रैंड माल में जल्दी ही थियेटर खुलनेवाला है. दो बार वहां जाना हुआ, तो नोएडा, गाजियाबाद व दिल्ली के मालों की याद आयी. बस फूड कोर्ट व थियेटर की कमी खल रही थी. अगर थियेटर चालू हो गया है. वह भी 7डी, तो अच्छा है. मैं भी कोशिश करूंगा कि वहां जाकर सिनेमा देखूं, क्योंकि ये मेरे लिये भी नया अनुभव होगा.

चुनाव यात्रा - आठ- रास्ते से हट जाओ भारत के भविष्य

पिछले साल इन दिनों वोटिंग का दौर जारी था. उसी के साथ जारी थी मेरी चुनाव यात्र भी. उत्तर बिहार के विभिन्न जिलों में घूमने के बाद उस शहर के मिजाज को देखने और समझने की बारी थी, जिसमें मैं रहता हूं. इसके लिए मैं ऑफिस की गाड़ी छोड़ दी. रिक्शे व टेंपो का सहारा लिया. कुछ दूर टेंपो से यात्र की, तो उसमें मनमानी देखने को मिली. एक ही जगह जाने के एक टेंपो वाले पांच रुपये लिये, जबकि दूसरे ने दस रुपये, जब मैंने प्रतिवाद करने की कोशिश की, तो कहने लगा कि महंगाई का जमाना है, मैंने जो किराया बताया है, वो तो देना ही पड़ेगा. खैर, मैंने दस रुपये देकर किसी तरह से उससे मुक्ति पायी, लेकिन इसके साथ एक सबक भी. शहर में टेंपो को लेकर जो चर्चा होती है, वो अनायास नहीं है.
अब भी टेंपो वालों को देखता हूं, तो वह दिन याद आ जाता है, लेकिन उस यात्र के बाद मैंने तय किया और अब महीने में कम से दो-तीन बार टेंपो से जरूर चलता हूं. इसके अलावा पैदल चलना, तो मुङो खूब भाता है. कई किलोमीटर तक मैं चल सकता हूं. ये आदत मुङो बचपन से पड़ी, जब पढ़ने के लिए हम लोगों को पांच किलोमीटर पैदल जाना पड़ता था. खेत की मेड़ों से होते हुये. हम लोगों में ये होड़ रहती थी कि कौन एक घंटा से कम समय में स्कूल पहुंचता है, बच्चे थे. दौड़ते हुये जाते थे, तो 45 मिनट लगता था. कभी-कभी आराम से चलने पर एक घंटा पांच मिनट. खैर ये दूरी हम लोगों को रोज तय करनी होती थी. अगर किसी दिन साइकिल पर बैठ कर जाने को मिल जाता था, तो हम इसे अपना सौभाग्य मानते थे. इसकी बात फिर कभी. मुजफ्फरपुर शहर में भी मैं खूब पैदल चलने की कोशिश करता हूं. कई बार परचित लोग रास्ते में मिल जाते थे, तो वह अपनी गाड़ी से छोड़ देने की बात करते हैं, तो उन्हें विनम्रता से मना करने का मन होता है, लेकिन कई बार ऐसा नहीं कर पाता हूं.
चुनाव की फिजां का पता लगाने के लिए मैं कई किलोमीटर पैदल भी चला. एक जगह इच्छा हुई रिक्शे से चलता हूं. रिक्शेवाले से बिना किराया तय किये मैं बैठ गया और वो चलने लगा. कुछ ही दूर आगे बढ़ा था कि कुछ छात्र बीच सड़क से लेकर किनारे तक फैले हुये जा रहे थे. सब आपस में बात करने में मशगूल थे. पीछे से रिक्शेवाले ने दो तीन बार घंटी बजायी, जब इसका असर छात्रों पर नहीं हुआ, तो कहने लगा कि जरा किनारे हट जाओ भारत के भविष्य. रिक्शेवाले के मुंह से ऐसी बात सुन कर मुङो आश्चर्य हुआ. मुझसे नहीं रहा गया. मैंने उससे पूछा, तो कहने लगा कि और क्या कहूं. ये सब भविष्य ही तो हैं, जो हमारे आपके बाद देश को आगे बढ़ायेंगे. अगर इन्हें चोट लग जायेगी, तो मुङो अच्छा नहीं लगेगा. इसीलिए बोल दिया. आप जानते ही हैं कि अभी चुनाव का समय चल रहा है. पूरे शहर की स्थिति देख ही रहे होंगे. मैं अनजान बन कर उसकी बात सुन रहा था. अचानक रिक्शवाला पारंपरिक गीत गाने लगा, तभी हम अपने गंतव्य पर थे. हमने 20 का नोट उसे पकड़ाया, तो प्रसन्न हुआ और आगे बढ़ गया, लेकिन मेरी चुनावी तलाश अभी पूरी नहीं हुई थी.
जारी..

रविवार, 30 अक्टूबर 2016

खुदा करे की हमेशा चिराग जलते रहें

मोहब्बतों की महक से दिमाग जलते रहें, खुदा करे की हमेशा चिराग जलते रहें.

देर शाम हमारे प्यारे शायर मुनव्वर राना साहब के इस पैगाम के साथ जब दिवाली की मुबारकबाद आयी, तो दिनभर से मन में चल रहे सवाल थोड़ी देर के लिए ठहर गये और मैं इस शेर के अर्थ गढ़ने में लग गया. इसी क्रम में अग्रज डॉ संजय पंकज की वो बात याद आयी, जो उन्होंने कल ही शहीदों के नाम कवि सम्मेलन के दौरान कही थी. ये बात तो मैं कई बार सुन चुका था, लेकिन वर्तमान समय में मौजूं हैं कि सूर्य जब अस्त होने जा रहा था, तो उसे चिंता हुई कि अब घोर अंधकार इस धरा पर छा जायेगा. ऐसे में मेरे होने की सर्थकता क्या होगी, तब सूर्य से एक दीये ने कहा कि आप निश्चिंत होकर अस्त हो सकते हैं सूर्य देवता, क्योंकि जब तक आप सुबह फिर से दस्तक नहीं देंगे, तब तक मैं अपने प्रकाश से इस धरती किसी कोने को ही सही, लेकिन प्रकाशित करता रहूंगा.
हमेशा चिराग जलने का मतलब, उस निरंतरता से लगता है, जिसे हम अमरत्व कहते और समझते हैं. ये हमें पीढ़ी दर पीढ़ी आगे बढ़ने की प्रेरणा देता है, क्योंकि समय के साथ चीजें बदलती हैं. धरती का स्वर्ग कहे जानेवाले कश्मीर की हालत पर नजर जाती है, तो तीन दशक पहले का वो समय याद आता है, जब वहां शांति थी. कैसे देश-विदेश की सैलानी उस पावन भूमि पर जाते थे. खैर सैलानियों के आने-जाने का सिलसिला तो अभी भी नहीं थमा है, लेकिन हालात बदलने से कम जरूर हुआ है. हाल के सालों की बात करें, तो इस साल सीमा पर जितना तनाव है, वैसा नहीं था. तनावपूर्ण माहौल के बीच दिवाली आयी है. बीते दिनों में हमने भारत मां के तीन वीर सपूतों को खोया है. सीमा का ये तनाव भी हमें सोचने को मजबूर करता है कि क्या हम आपस में मिल कर नहीं रह सकते. 1947 से पहले जो हमारे अपने थे, जमीन पर रेखाएं खिचने के बाद हमारे सबसे बड़े दुश्मन हो गये हैं. आतंकवाद की खेती उन्हीं जगहों पर होने लगी है, जिन पर कभी हमारे पूर्वज गर्व करते रहे होंगे. ये समय का ही चक्र है, लेकिन जीवन उस दीये के समान हमेशा चल रहा है, जिसमें अंधकार को भगाने की शक्ति है. दीपक जलते हुये चारों ओर उजाला फैलाता है, लेकिन अपने नीचे उस अंधकार को समेट लेता है.
हम जिस इलाके में काम करते हैं, वहां के रहनेवाले बीएसएफ के जवान जितेंद्र सिंह की चिता की आग अभी ठंडी नहीं पड़ी होगी. 24 घंटे पहले उस वीर शहीद का हमने अंतिम संस्कार होते देखा है. कैसा जन-सैलाब उमड़ा था रक्सौल के सिसवा गांव में तिलावे नदी के किनारे. किस तरह से पति को खोनेवाले जितेंद्र की पत्नी अपने बच्चों को भी बीएसएफ में भेजने की बात कह रही थीं. आखिर कोई बात तो है इस देश की मिट्टी में, जिसमें एक पत्नी अपने पति की जलती हुई चिता के सामने यह कहती है. यहां मुङो फिर वही चिराग की बात याद आती है कि वो लगातार जलता रहे. इस दिवाली अपने घर पर चिराग तो जलते हुये देख रहा हूं, लेकिन पर्व का वो उत्साह नहीं है.
कल के कवि सम्मेलन के दौरान दो कवियत्रियां थीं, जो खुद शिक्षक हैं, नाम दोनों का एक हैं पूनम, लेकिन उपनाम में सिंह और सिन्हा का फर्क है. दोनों के बच्चे देश की सीमा की निगहबानी में लगे हैं, जब वो कविता पाठ कर रही थीं, तो उनके शब्दों में वह भाव दिख रहे थे. इससे यह भी महसूस करने की कोशिश कर रहा था कि वो मां क्या सोचती होगी, जिसका बेटा देश की रक्षा के लिए सरहद पर तैनात है. 

शनिवार, 29 अक्टूबर 2016

थप्पड़ ने दो अधिकारियों को पहुंचाया जेल!


बिहार में पिछले छह साल से काम कर रहा हूं. एक साथ एक अनुमंडल के दो बड़े अधिकारियों की गिरफ्तारी एक साथ होती नहीं देखी थी, लेकिन 27 अक्तूबर 2016 को सीमावर्ती जयनगर के एसडीओ गुलाम मुस्तफा व डीएसपी चंदनपुरी को निगरानी की टीम ने एक साथ गिरफ्तार कर लिया. दोनों पर अवैध पटाखों को रखने की एवज में रिश्वत लेने का आरोप लगा. आरोप लगानेवाला जयनगर का ही ट्रांसपोर्टर है. दोनों अधिकारियों के पीछे ट्रांसपोर्टर क्यों पड़ा और उसने निगरानी का सहारा कैसे लिया? इसके बारे में जो जानकारी सामने आयी है, जिसकी चर्चा जयनगर के बाजार में हो रही है, उसके मुताबिक लगभग 20 दिन पहले जब जिले के एसपी को पटाखा लदा ट्रक जयनगर आने की सूचना मिली थी, तो जयनगर पुलिस ने ट्रांसपोर्टर के यहां छापेमारी की थी. इसके बाद एसपी के निर्देश पर शाम के समय एसडीओ व डीएसपी भी ट्रांसपोर्टर के यहां पहुंचे थे. इसके बाद ही मामले के सेलेटमेंट की बात हुई थी, जो चर्चा है, उसके मुताबिक दो लाख में मामला तय हुआ था.
रिश्वत की रकम तय होने के बाद ट्रांसपोर्टर के यहां काजू-किसमिस व मिठाई मिलने की बात कही गयी. इसके बाद ट्रांसपोर्टर की बारी थी, उसे दोनों अधिकारियों के यहां रिश्वत की रकम पहुंचानी थी, लेकिन किन्ही कारणों ने उसने रुपये नहीं पहुंचाये. इसी दौरान एक अधिकारी ने बिचौलिये के जरिये ट्रांसपोर्टर को अपने आवास पर बुलाया था और रुपयों के लिए दबाव बनाया. ट्रांसपोर्टर के जवाब से खफा अधिकारी ने उसको थप्पड़ जड़ दिया. बिचौलिये के सामने थप्पड़ खाने से ट्रांसपोर्टर तिलमिला गया और उसने सबक सिखाने की ठानी.
ट्रांसपोर्टर ने निगरानी टीम से संपर्क साधा, तो पहले मामले की सच्चई का पता लगाया गया. पुष्टि होने के बाद दोनों को रंगेहाथ गिरफ्तार करने की रणनीति बनायी गयी. इसी के तहत ट्रांसपोर्टर व उसके भाई को दोनों अधिकारियों के यहां रिश्वत की रकम लेकर भेजा गया, जिन्हें निगरानी की टीम ने रंगेहाथ दबोच लिया, जिस समय एसडीओ को पकड़ा गया, वो अपने आवास पर चाय पी रहे थे, जबकि डीएसपी पत्नी व बच्चे के साथ आवास के बाहर लॉन में बैठे थे. इसी दौरान वहां के चेंबर के सचिव पवन को भी गिरफ्तार किया गया. पवन पर बिचौलिये के रूप में काम करने का आरोप है. 

शुक्रवार, 28 अक्टूबर 2016

शहादत को सलाम- बेटी से किया वादा अब कभी पूरा नहीं कर पायेंगे जीतेंद्र


रक्सौल जैसे सीमावर्ती क्षेत्र से निकल कर बीएसएफ (बॉर्डर सिक्योरिटी फोर्स) में शामिल हुये जीतेंद्र कुमार सिंह को सेवा में 23 साल पूरे होनेवाले थे. 20 साल की नौकरी पर रिटायरमेंट मिलनेवाला था, लेकिन तीन साल का एक्सटेंशन ले लिया, ताकि देश की सेवा कर सकें. हाल के महीनों में जब सीमा  पर तनाव बढ़ा, तो जीतेंद्र को आनेवाले दिनों का आभास हो गया था. पाक की नापाक हरकतों से वो सरहद की सुरक्षा करते हुये रोज रू-ब-रू होते थे. सामने से पाक रेंजर्स कब फायरिंग शुरू कर दें. कब मोटर्र से गोले दागने लगें, कोई भरोसा नहीं रहता.
इधर, जितेंद्र का परिवार रक्सौल के जिस घर में रहता है. वह टीन का है. उसमें केवल एक छोटी से कोठरी बनी है, जो उनके पिता लक्ष्मी सिंह ने बनवायी थी. लक्ष्मी सिंह अब इस दुनिया में नहीं हैं. जितेंद्र के एक भाई हैं, जो अलग रहते हैं. मां-पत्नी व तीन बच्चे इसी टीन शेड में गुजारा कर रहे हैं. डेढ़ माह पहले जितेंद्र घर आये थे. बच्चों ने बहुत दबाव डाला था कि पापा घर बनवा लो, तब कहने लगे कि अगले साल मार्च में रिटायर होना है, तभी घर बनवायेंगे. अच्छा घर बनाना है. इसके बाद ड्यूटी पर गये, तो वहां के हालात के बारे में घरवालों को बताते थे. सप्ताह भर पहले फोन किया था, तब बच्चों से कहा था कि यहां सीमा पर हालात ठीक नहीं है. पता नहीं कब कौन शिकार हो जाये, पता नहीं है. उन्होंने अपनी बड़ी बेटी से कहा था कि बेटा अगर हम शहीद हो जायेंगे, तो तुम लोग रोना नहीं.
26 अक्तूबर की रात पाकिस्तान की ओर से की गयी फायरिंग में जीतेंद्र जख्मी हुये और जब तक उन्हें अस्पताल ले जाया जाता, वो शहीद हो चुके थे. इधर, रक्सौल में जीतेंद्र का परिवार दिवाली की तैयारी में लगा था. पत्नी मोतिहारी में पढ़नेवाले बेटे को स्कूल के हॉस्टल से वापस लाने के लिए सुबह ही निकल गयी थी. बड़ी बेटी घर पर थी, जबकि छोटी स्कूल गयी थी. दिन में लगभग 11 बजे जब रक्सौल के लोगों को जीतेंद्र की शहादत की बात पता चली, तो वह उनके आवास पर इकट्ठा होने लगे, तब उनकी बेटी को किसी अनहोनी की आशंका हो गयी थी. कुछ ही देर में उसे इस बात का पता चल गया कि अब पापा इस दुनिया में नहीं हैं. वो शहीद हो चुके हैं.
जीतेंद्र के घर पर जो आ रहा था, उनके घर की हालत देख कर परेशान हो रहा था. किस हालात में हमारे देश की रक्षा करनेवाले जवान का परिवार रहता है. इसकी बात चली, तो बेटी बोल पड़ी कि पापा पिछली बार आये थे, तब कह कर गये थे कि मार्च में घर आयेंगे, तो अच्छा सा घर बनवायेंगे, तब तक तुम लोग इसी में किसी तरह से रहो, लेकिन अब पापा नहीं हैं. हमारे लिए घर कौन बनायेगा. ये कह कर वो जोर-जोर से रोने लगी, तो वहां मौजूद सैकड़ों की संख्या में लोगों की आंखें नम हो गयीं. सरकारी हुक्म लेकर पहुंचे अधिकारियों ने भी जब जीतेंद्र के घर की हालात देखी, तो वह भी परेशान हो उठे.
जीतेंद्र ने वतन की राह में अपनी जान कुर्बान कर दी, उनकी चर्चा सीमावर्ती रक्सौल में रहनेवाले हर व्यक्ति की जुबान पर है. वह कैसे देश के बारे में सोचते थे. इसकी झलक हमें उनके अंतिम फोन से मिलती है, जिसमें उन्होंने कहा था कि अगर हम शहीद हो गये, तो रोना नहीं. आखिर जीतेंद्र ने देश के लिए सबसे बड़ा बलिदान दिया है. अब हमारी बारी है कि हम उनके जज्बे व शहादत का सम्मान करें.

इलाहाबाद स्मरण..प्यासे होंगे, लाओ पानी पिला देते हैं


इलाहाबाद से जुड़ी वैसे तो तमाम यादे और किस्से हैं, लेकिन एक सबसे कॉमन वाक्य हम लोगों के बीच में था, जब किसी साथी से कुछ करने को कहा जाता और वो बहाना मार कर टालने की कोशिश करता, तो सब मिलकर यही कहते, काबे बकैती करबो..फिर प्यार से..दोस्त-दोस्त ना रहा..गीत गाया जाता था. 
दोस्त, दोस्त ना रहा. दिन में दर्जनों बार सुनने को मिल जाता था, चाहे सब्जी लाने की बात हो या फिर कमरे से उठ कर चच्चू की दुकान पर चाय पीने की. एक हम लोगों के जिगरी भाइया थे. कहने को तो बीए में पढ़ते थे, लेकिन उम्र 30 के आसपास रही होगी, वो परीक्षा के समय ही दिखायी देते थे. 1992 में कल्याण सिंह ने नकल को लेकर कानून बना दिया था, जिसमें नकल करनेवाले छात्र की गिरफ्तारी हो जाती थी. बड़ा कड़ा कानून था. हमको याद है कि हम इंटर की परीक्षा दे रहे थे. अंतिम पेपर था गणित का, परीक्षा छूटने में पांच मिनट का समय बचा था. हम लोगों ने अपना ज्ञान कॉपी पर उतार कर परीक्षक को दे चुके थे. बात हो रही थी कि परीक्षा छूटने के बाद कहां जाना है, हमने पहले से सिनेमा का टिकट कटवा रखा था, क्योंकि जीवन में पहली बार हाल में सिनेमा देखने जा रहे थे. इसकी चर्चा कर रहा था, तभी कॉलेज के प्रिंसिपल आये और उन्होंने हमारे बगल के छात्र को पकड़ लिया. एक-दो चाटे जमा दिये, कॉपी ले ली और बाहर चले गये. चंद मिनटों में ही एक दारोगा जी आ गये और उस छात्र को अपने साथ लेकर चले गये.
हमारी फिल्म का मजा काफूर हो गया, लेकिन टिकट लिया था, सो हाल की ओर चल दिये, लेकिन दिमाग में वही चल रहा था. हां, बात जिगरी भाइया की हो रही थी. वो अचानक एक दिन अवतरित हुये. कहने लगे कि बीए पार्ट-टू का फार्म भरना है. सीधे गांव से आ रहा हूं. पिता जी ने एडमिशन के पैसे दिये थे छह सौ रुपये, लेकिन रास्ते में जबेली अच्छी छन रही थी, सो एक किलो जलेबी खा लिये. अब मीठा हुआ, तो नमकीन तो चाहिये ही. पंडित का मन कहां माननेवाला था, सो 10 गो समोसा भी खा लिये. पेट भर गया, तो फिर पान खाये. रास्ते में बस बड़ी देर रुकी थी, सो केला भी एक दर्जन खा लिये. अब एक सौ रुपये फीस में कम हो गया है. आप लोग जुगाड़ करो, नहीं तो कल फार्म भरने का अंतिम दिन है.
खैर, रुपयों पैसों का जुगाड़ हुआ, जिगरी भाइया का फॉर्म भरा गया. अब बारी परीक्षा देने की थी. परीक्षा शुरू हुई, तो एक दिन वो भी नकल करते धरा गये. तारीख थी 13 अगस्त 1994. पकड़े गये, तो जिगरी भाइया पहुंच गये जार्ज टाउन थाने की हवालात में. कमरे पर आने जाने की कोई टाइमिंग तो थी नहीं, इसलिए किसी को चिंता नहीं हुई, एक बार बात हुई. कहा गया कहीं गये होंगे, आ जायेंगे. खैर 13 बीत गयी, जब जिगरी भाइया नहीं आये, तो ये अनुमान लगाया गया कि गांव चले गये होंगे, क्योंकि अगली परीक्षा 16 अगस्त को थी. इसलिए सब निश्चिंत थे. इधर, जिगरी भाइया हवालात में. रविवार को छुट्टी थी. 15 को 15 अगस्त था. इसलिए छूटने की सूरत, तो 16 अगस्त को ही बन रही थी, जब मजिस्ट्रेट के सामने पेशी हो, तब बेल मिले.
बेल के बाद जब जिगरी भाइया कमरे पर आये, तो कहने लगे कि सबसे पहले नहायेंगे. सब पूछे काहे, तो कहने लगे कि पकड़ के ले गये. शाम को कुछ खाने को नहीं दिये. रात में एक दारोगा जी खूब शराब पीकर आये और हवालात के बाहर आकर खड़े हो गये. हम तीन लोग अंदर थे, तो वह बगल में खड़े सिपाही से कहने लगे कि तीनों प्यासे होंगे, सो प्यास बुझा देता हूं. पहले उन्होंने हवालात में पेशाब किया और फिर सिपाही से भी करवाया. पूरा छीटा शरीर पर पड़ा. भूख से हम वैसे परेशान थे. ऊपर से उस दारोगा जी ने पवित्र कर दिया. अगले दिन सुबह कुछ खाने को दिया और फिर बंद कर दिया. जिगरी भाइया बोले, वैसे ही हैं, तब से नहाये नहीं हैं. हम पहले नहा लें, तब खाना बने, नहीं तो सब गड़बड़ हो जायेगी. ऐसा था इलाहाबाद और ऐसे थे हमारे जिगरी भाइया. जाने अब कहां होंगे.

गुरुवार, 27 अक्टूबर 2016

इलाहाबाद और दो साथियों का अंग्रेजी ज्ञान

इलाहाबाद यूनिवर्सिटी को पूर्व का ऑक्सफोर्ड कहा जाता है. अब तो सैकड़ों की संख्या में निजी विश्वविद्यालय और तमाम तरह के तकनीकी संस्थान खुल गये हैं. इसके बाद भी यहां पढ़ाई का क्रेज कम नहीं हुआ है. हजारों की संख्या में छात्र अब भी दूर-दराज के जिलों और गांवों से यहां पढ़ने आते हैं. उनके मन में ये हसरत होती है कि वो अच्छा इंसान बन कर इलाहाबाद से निकलेंगे. इलाहाबाद की धरती का भी क्या कहना? आजादी से पहले किस तरह से यहां की भूमिका थी, वो जग-जाहिर है. यहीं पर वो ऐतिहासिक आनंद भवन है, जिसे देश के पहले प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू के पिता मोतीलाल नेहरू ने बनवाया था. बड़े वकील थे. साथ में बड़े नेता भी. खैर, इससे संबंधित प्रसंग फिर कभी.
मैं भी इलाहाबाद में रहा और पढ़ा. वहां के गलियों के ताप को महसूस किया. किस तरह की छटपटाहट गांव से आनेवाले छात्रों को होती है. कैसे वो जल्दी से जल्दी अपने माता-पिता के सपने को पूरा करना चाहते हैं. इसके लिए सुबह पढ़ाई से होती है, तो रात में सिर पर किताब रखे ही नींद आती है. रात के किसी पहर में आंख खुलती है, तो किताब को सिरहाने रखने की आदत सी बन जाती है. इस पढ़ाई के बीच वो छटपटाहट भी रहती है, जो हमे समाज में अच्छे इंसान के रूप में स्थापित करने की होती है. हां, एक बात और. इलाहाबादी लड़कों की अंगरेजी कुछ खास नहीं होती है. इसी से संबंधित एक किस्सा मुङो भी सुनाया गया, जब मैं इलाहाबाद पढ़ने के लिए जा रहा था. उसका मकसद शायद ये रहा होगा कि हम मन लगाकर पढ़ें, ताकि ये स्थिति नहीं बने, जो इस कहानी में दो दोस्तों की हुई. कहानी ऐसी याद हुई कि मैं बार-बार अपने साथियों को सुनाता हूं.
यूपी के किसी सुदूर गांव से दो मित्र (हरखू और रामसेवक) पढ़ने के लिए इलाहाबाद आये. दोनों को इलाहाबाद में रहते हुये एक साल से ज्यादा हो गया. एक दिन दोनों यूनिवर्सिटी रोड से किताबों की खोज में गुजर रहे थे. इसी बीच बगल से दो छात्र अंगरेजी में बात करते हुये गुजरे, तो हरखू ने रामसेवक से कहा कि हम दोनों को आये एक साल से ज्यादा हो गया यार, लेकिन हम तो अंगरेजी तक नहीं सीख पाये हैं. कंपटीशन क्या.. पास करेंगे. अंगरेजी की बात चली, तो रामसेवक भी सन्न. कहने लगे, ऐसी बात कैसे कर दी यार. हम भी अंगरेजी बोलेंगे और अगले ही छड़ दोनों ने अंगरेजी में बात करने का फैसला कर लिया और तय हुआ कि अब कोई भी बात होगी, तो अंगरेजी में, नहीं तो आपस में बात होगी ही नहीं.
अच्छे खासे हरखू और रामसेवक किताब खरीदने आये थे, लेकिन अंगरेजी ने दोनों के बीच कचरा कर दिया. अब आये, तब तो बोले ना. दोनों एक-दूसरे की शकल देखते हुये सड़क के किनारे चले जा रहे थे. पूरी यूनिवर्सिटी का चक्कर लगा लिया. आनंद भवन से होते हुये सोबतियाबाग भी पहुंच गये, लेकिन एक शब्द बात नहीं हुई. इसी बीच में राम सेवक को बीड़ी की तलब लगी, लेकिन बोले, तो कैसे बोले. अंगरेजी में कुछ सूझ नहीं रहा था. किसी तरह से तलब को काबू में करते हुये चले जा रहे थे. दोनों मित्र एक-दूसरे का मुंह देखते और आगे बढ़े चले जा रहे थे. थोड़ी ही देर में संगम के किनारे. लेटे हुये हनुमान जी के मंदिर के पास. हाथ जोड़ कर दोनों ने खुद को ज्ञान देने की कामना संकट मोचक हनुमान जी से की. शायद हनुमान जी ही कोई रास्ता सुझा दें. अब हनुमान जी अपने दर से कैसे खाली जाने देते दोनों को, सो रामसेवक को तरकीब सूझी.
मन ही मन सोचने लगे कि अब बोलेंगे, तो अंगरेजी में ही चाहे जो हो, यहां कौन हरखू अंगरेजी का ज्ञाता है. जैसे हम, वैसे वह भी तो है. है तो हमारे गांव का ही. बीड़ी की तलब अलग से. कुछ ही देर में रामसेवक ने हरखू को रोका और इशारा किया, लेकिन हरखू ने समझ कर भी इशारे को नहीं समझने का नाटक किया, तो रामसेवक से नहीं रहा गया. रामसेवक की तरह हरखू को भी बीड़ी की तलब लगी हुई थी, लेकिन वो किसी तरह से खुद को संभाल रहा था, लेकिन राम सेवक से नहीं रहा गया. बोल पड़ा.
रामसेवक- बीड़ी इज..?
हरखू- इज.
रामसेवक- मासिच इज.
हरखू- इज.
रामसेवक- देन फायर.
बीड़ी जलते ही दोनों मित्रों से सुट्टा मारना शुरू कर दिया और उसके धुएं के साथ इनकी अंगरेजी बोलने की कसम भी कहीं आसमान में उड़ गये. दोनों आपस में हंसते-बोलते बतियाते. संगम तट से फिर सोहबतियाबाग अपने कमरे की ओर आगे बढ़ लिये.

बुधवार, 26 अक्टूबर 2016

चुनाव यात्रा-8- शिवहर के जीरो माइल पर वोट की होड़

शिवहर को बिहार के सबसे पिछड़े इलाकों में माना जाता है. यहां का मुख्य चौराहा जीरो माइल, इसी के आसपास तक चुनावी रौनक बिखरी दिखती है. आसपास की बिल्डिंगों में विभिन्न प्रत्याशियों ने कार्यालय बना रखा है, जिनमें लगे लाउडस्पीकर की कानफोड़ आवाज मुख्य चौराहे तक गूंजती है. धूल उड़ाते वाहन यहां के विकास की सच्चई को बयान करते हैं. किसी अनुमंडल के मुख्य चौराहे पर यहां से ज्यादा भीड़ दिखती है. कहने को तो दशकों पहले शिवहर को जिला बना दिया गया, लेकिन वहां वह सुविधाएं नहीं आयीं, जो एक जिले के लिए जरूरी होती हैं. खैर इन पर बात फिर कभी, लेकिन चुनाव का गणित यहां पर बड़ा दिलचस्प दिखा.
जिन मुद्दों पर लोकसभा का चुनाव लड़ा गया था. उनकी कुछ गूंज सुनायी देती है, लेकिन जाति के आधार पर वोटरों को बांटने की कोशिश ज्यादा नजर आती है. विभिन्न दलों व संगठनों से जुड़े लोग इसी जुगत में लगे दिखे कि वो अपनी जाति के लोगों को कैसे किसी विशेष प्रत्याशी के पक्ष में गोलबंद करें. इसके लिए दूसरे दल के प्रत्याशियों का भय दिखाया जा रहा था. कहीं अनजान और कहीं परचित बन कर मैंने भी इस खेल को देखा, लेकिन सच्चाई यही है. दी जाती है लोकतंत्र की दुहाई, जिसमें धर्म निरपेक्षता की बात होती है, लेकिन जमीन पर धर्म का ही सबसे ज्यादा सहारा लिया जाता है.
माओवाद प्रभावित शिवहर में सबकुछ ठीक नहीं दिखता है. यहां की फिजां में अजीब सा सन्नाटा हकीकत को बयान करता है कि लोग किस तरह से डरे-सहमे रहते हैं. कोई भी हल्की सी जरूरत होती है, तो यहां के लोगों को या तो मुजफ्फरपुर या फिर सीतामढ़ी का रुख करना पड़ता है. एक ढंग का अस्पताल तक यहां पर नहीं है. रेल यहां पर आयी नहीं है. एक भी डिग्री कॉलेज यहां नहीं है, जिससे उच्च शिक्षा के लिए यहां के छात्र-छात्रओं को मुजफ्फरपुर का रुख करना पड़ता है, जो लोग संपन्न हैं, उनके बच्चे बड़े शहरों में पढ़ने के लिए चले जाते हैं. डिग्री कॉलेज से लेकर रेलवे तक का मुद्दा यहां हर चुनाव में उठता है, लेकिन उस पर काम नहीं होता. बजट दर बजट पेश होता जा रहा है. हर बजट में शिवहर के लोग सोचते हैं कि हमारे यहां रेलवे लाइन की घोषणा होगी, लेकिन अभी तक नहीं हो पाया है.
ये मुद्दे भले ही बड़े हैं, लेकिन समाज में गोलबंदी दिखती है. वो उसी ओर जाने की बात करता है, जो उसकी जमात से जुड़े हैं और उन तक पहुंच रहे हैं. वोट का मौके पर बड़े मुद्दे गौड़ हो जाते हैं. ऐसा अन्य स्थानों पर भी देखने को मिला, लेकिन शिवहर में इस पर चर्चा हो रही थी.
जारी..

चमेला कुटीर-4- तब छह आने में किलोभर मिलती थी दाल

1960 से हम अभी 56 साल आगे बढ़े हैं, लेकिन मंहगाई कितने गुना आगे बढ़ी है. इसका अंजादा सच्चिदाबाबू की उस डायरी से लगा सकते हैं, जो उन्हें घर की सफाई के दौरान मिली. उसमें 1960 का हिसाब लिखा है. डायरी का जिक्र करते हुये सच्चिदा बाबू कहते हैं कि तब छह आने में एक किलो दाल मिलती थी. कपड़ा धोने का साबुन आठ आने में मिलता था. टमाटर दो आने में किलो भर मिल जाता था. एक पाव मक्खन बीस आने का आता था. किरोसिन ढाई आने का लीटर था. अब इन चीजों की क्या कीमत है. बताने की जरूरत नहीं है. खास कर दाल का क्या हाल हुआ है. अभी भी दाल 120-140 रुपये किलो तक में बिक रही है. ऐसे में हमने कैसा विकास किया है, कहने की जरूरत नहीं है. महंगाई का विकास जरूर हुआ है.
2012 में सच्चिदा बाबू से बात की थी, तो उन्होंने बताया था कि किस तरह से बढ़ती जनसंख्या भारत जैसे देशों के लिए परेशानी का सबब है, लेकिन विकसित देशों के साथ ये बात नहीं है. वहां की आबादी नियंत्रित है. अपने देश में मध्यम वर्ग है, जो सोचता है कि ज्यादा बच्चे होंगे, तो उसके लालन-पालन में परेशानी होगी, लेकिन गरीब व मजूदरों के सामने ये समस्या नहीं है. वे सोचते हैं कि हमारे यहां जितने ज्यादा लोग होंगे, उतना अच्छा रहेगा. सच्चिदा बाबू कहते हैं कि अपने देश में भविष्य को लेकर कोई योजना नहीं है, जबकि विकसित देशों को आप देख सकते हैं कि वहां की आबादी या तो स्थिर है या फिर घट रही है.
सच्चिदा बाबू पानी संकट के बारे में भी अगाह करते हैं. उनका कहना है कि पानी, वो भी पीने का लायक मीठा पानी, इसकी लगातार कमी हो रही है, जबकि मानव से लेकर पशुओं तक के लिए पानी जरूरी है, लेकिन अत्यधिक दोहन की वजह से पीने का पानी लगातार घट रहा है. अब जटिल रासायनिक प्रक्रिया से पानी को साफ करना पड़ता है, तो पीने लायक होता है, लेकिन इस तक गरीब लोगों की पहुंच नहीं है. वो बोतल बंद पानी नहीं खरीद सकते हैं. इससे इतर अगर हम सच्चिदा बाबू की जीवन शैली की बात करें, तो उनके खपरैल के घर में प्रकृति के अनुरूप व्यवस्था है, जब सूर्य उत्तरायण होते हैं, तो गर्मी पड़ती है. उसके ताप से बचने के लिए पेड़ों की छांव चाहिये, सो सच्चिदा बाबू के आवास के उत्तर में पेड़ हैं, जबकि सूर्य के दक्षिणायण होने पर सर्दी पड़ती है, तो सूर्य की गर्मी अच्छी लगती है. सच्चिदा बाबू के आवास पर भी दक्षिण की ओर खाली है. उधर पेड़ नहीं हैं. घर में बिजली नहीं है, तो फैन की बात ही नहीं है, लेकिन गर्मी के दिनों में भी वह आराम से रहते हैं. उनके आवास में बिना पंखा बैठना अच्छा लगता है.
जारी..

इस एनएच पर एक बार जायेंगे, तो दुबारा हिम्मत नहीं करेंगे!

उत्तर बिहार की सड़कें-दो
मोतिहारी-रक्सौल एनएच. कहने को तो ये सड़क अंतरराष्ट्रीय सीमा तक जाती है. इससे होकर नेपाल के लिए रसद का बड़े पैमाने पर सामान जाता है. बड़े ट्रक इससे 24 घंटे गुजरते हैं, लेकिन पिछले आठ साल से ये सड़क बन रही है, लेकिन अभी तक पूरी नहीं हो सकी. अगर इससे आप एक बार गुजरे, तो दुबारा जाने की हिम्मत नहीं जुटा पायेंगे. इसके बावजूद लोग इससे आते-जाते हैं, क्योंकि उनके पास कोई विकल्प नहीं है. अंतरराष्ट्रीय सीमा से लगनेवाली इस सड़क की कहानी भी रहस्यों से भरी है, क्योंकि इस पर कोई भी सरकारी आदेश काम नहीं करता.
केंद्रीय मंत्री से लेकर स्थानीय सांसद तक की ओर से चेतावनी पर चेतावनी दी गयी, लेकिन सड़क बनानेवाली कंपनी ज्यों की त्यों बनी हुई है. याद कीजिये, पिछले साल अप्रैल का महीना, तब भूकंप आया था, जिसमें नेपाल में बड़े पैमाने पर क्षति हुई थी. उस समय रक्सौल में बेसकैंप बना था. केंद्रीय पेट्रोलियम मंत्री धर्मेद्र प्रधान कैंप को देखने आये और जब वो इस सड़क से गुजरने लगे, तो उन्हें विश्वास नहीं हुआ. रास्ते से ही केंद्रीय भूतल परिवहन मंत्री नितिन गडकरी को फोन लगाकर सड़क की शिकायत करने लगे. उसी समय केंद्रीय मंत्री ने कहा कि अगले तीन महीने में ये सड़क मोटरेबुल हो जायेगी, अगर नहीं हुई, तो कंपनी पर कार्रवाई होगी. इसके बाद केंद्र सरकार के अधिकारी भी मोतिहारी आये. सड़क की हालत देखने के बाद बैठक की और समय सीमा तय की, लेकिन उसका भी पालन होता नहीं दिख रहा है. इसका जिक्र मैं इसलिए यहां कर रहा हूं, क्योंकि ये हाल में उठाये गये ऐसे कदम हैं, जिनका असर होना चाहिये था, लेकिन नहीं हुआ.
52 किलोमीटर लंबी इस सड़क से गुजरना आसान काम नहीं है. मुजफ्फरपुर से पिपराकोठी तक फोरलेन सड़क के बाद जब आप टू-लेन सड़क पर जायेंगे, तो कुछ दूर तक हालत ठीक है, लेकिन इसकी बानगी शुरू से ही मिलने लगती है. मोतिहारी शहर पार करने के साथ ही आपकी परेशानी भी बढ़ जायेगी. इस पर परेशान होने से कुछ नहीं होनेवाला. इस पर आप हनुमान चलीसा का पाठ करें या फिर ईष्ट को याद करें, इससे आपके मन को शांति मिलेगी, लेकिन परेशानी कम होनेवाली नहीं है. आपको हिचकोले खाती सड़क पर परीक्षा देते ही जाना पड़ेगा. पिछली बार जब मैं इस सड़क से गुजरा था, तो साढ़े तीन घंटे रक्सौल पहुंचने में लगे थे. अभी का पता नहीं, लेकिन इससे गुजरनेवाले लोगों का कहना है कि गाड़ी के बजाय बाइक से जाने पर कम समय लगता है.
चालक जब इस सड़क से गुजरते हैं, तो उनका कहना होता है कि इस सड़क से गुजरते हुये हमें खेत में गाड़ी चलाने का अहसास होता है. कई जगह तो स्थिति ऐसी है, जहां चालकों की हिम्मत भी जवाब दे जाती है. जगह-जगह खराब गाड़ियां सड़क की हकीकत बयान करती हैं. इससे गुजरनेवाले कितने लोग बीमार हुये होंगे, इसका आकड़ा तो मेरे पास नहीं है, लेकिन यह मैं जरूर कह सकता हूं कि अगर आप इस सड़क से गुजरते हैं, तो कम से कम उस दिन काम करने की स्थिति में तो नहीं रह जायेंगे. मन-मिजाज दोनों इस पर थक जाता है. 2013 में इस सड़क को लेकर रक्सौल में बड़ा आंदोलन हुआ था, उस समय केंद्र में कांग्रेस के नेतृत्व वाली सरकार थी, तब स्थानीय सांसद डॉ संजय जायसवाल ने सड़क को लेकर धरना दिया था, लेकिन समय के साथ केंद्र की सरकार भी बदल गयी, लेकिन इस सड़क की तकदीर व तस्वीर नहीं बदली. डॉ संजय जायसवाल अब भी इस इलाके के सांसद हैं.

मंगलवार, 25 अक्टूबर 2016

एनएच-104 आपको तिलमिला देगा

उत्तर बिहार की सड़कें-एक
सीतामढ़ी से शिवहर की दूरी 25 किलोमीटर है. फोरलेन के जमाने में इसे तय करने में 25 से 30 मिनट का समय लगता, लेकिन अगर आप ये सोच कर इस पर चलेंगे, तो आपको निराशा के साथ खीझ भी होगी, क्योंकि ये दूरी पूरी करने में लगभग दो घंटे का समय लगेगा. पहले तो सीतामढ़ी की की सकरी सड़कें आपकी परीक्षा लेंगी, जब आप शहर से बाहर आयेंगे, तो कुछ दूर डबल लेन रोड मिलेगी, जिस पर अपकी गाड़ी हवा से बात करने जैसी स्पीड ले लेगी, लेकिन ये स्थिति कुछ ही मिनटों में खत्म हो जायेगी. आपका सामना एनएच-104 कही जानेवाली सिंगल रोड से होगा, जो दोनों ओर से टूटी है, सड़क के बीच में गड्ढे हैं. दो जिलों को जोड़नेवाली इस सड़क पर वाहनों का दबाव है, जिसकी वजह से लगातार धूल उड़ती रहती है. अगर आप बाइक से हैं, तो धूल से नहा जायेंगे. कार से जा रहे हैं, तो हिचकोले लेती सड़क  आपके धैर्य की परीक्षा लेनी शुरू कर देगी.
25 अक्तूबर 2015 को जब दिन में मैं इस रोड गुजर रहा था, तो तमाम सवाल एक साथ मन में आने लगे. सबसे पहला यही कि इस सड़क से आने का फैसला क्यों किया? पहले पता करके क्यों नहीं चला? फिर हर साल सरकार सैकड़ों किलोमीटर सड़क बनाने की बात करती है, लेकि एनएच ही सिंगल रहे, तो क्या? इससे पहले बेतिया से बगहा के सिंगल एनएच पर धैर्य की परीक्षा दे चुका हूं. डेढ़ घंटे का सफर छह घंटे में तय किया था, क्योंकि गन्ना लदे टैक्ट्रर-ट्रालियां लगातार डरा रही थीं. पूरे रास्ते में राम-राम करते ही बीता. किसी तरह जब पार हुआ था, तब जाकर सुकून मिला था. आज दूसरी बार ऐसा हो रहा था.
रास्ते में बताया गया कि यह सड़क टू-लेन बन रही है. कहीं-कहीं पर काम शुरू हो गया है. कुछ जगह पर मिट्टी भराई का काम हो रहा है, जो दिख भी रहा था, लेकिन सवाल ये है कि अब तक इसका काम क्यों नहीं हुआ? क्या शिवहर-सीतामढ़ी जिलों के साथ ऐसा व्यवहार ठीक है? अगर नहीं, तो वे सब सुविधाएं क्यों नहीं इन जिलों (खास कर शिवहर) को मिल रहीं, जो अन्य जिलों में हैं. अभी तक यहां कोई डिग्री कॉलेज नहीं खुल सका है. इसके लिए लंबा आंदोलन चला है. अखबार के जरिये हम लोगों ने भी लंबे समय तक ये बात उठायी है, तब जाकर डिग्री कॉलेज की घोषणा हुई है. रेल लाइन शिवहर तक अभी नहीं आयी है. ऐसी और तमाम सुविधाएं हैं, जो यहां पर नहीं हैं, जिनको गिनाने लगूंगा, तो एक लंबी लिस्ट होगी, लेकिन ये सड़क जो परीक्षा ले रही थी, वो और गंभीर होती जा रही थी, क्योंकि रास्ता कटने के बजाय लंबा होता जा रहा था.
घंटा भर बीता, तो पता किया, पता चला अभी 12 किलोमीटर और जाना है. स्पीड ब्रेकर जैसी इस सड़क पर मनमाना राग भी देखने को मिला. एक जगह बीच सड़क पर दो ट्रक खड़े थे, जिनके चालकों का कहना था कि आपको बगल के रास्ते से जाना होगा. हम ट्रक सड़क से नहीं हटायेंगे, कुछ ही देर में वाहनों की लंबी लाइन लगने लगी और जब कुछ वाहन चालकों ने कहा कि हम तो सड़क से ही जायेंगे, तब ट्रक चालकों का दिल पसीजा और उन्होंने जाने का रास्ता दिया. सड़क के किनारे जो बाजार हैं. वहां पर दुकानों में खुले में रखा सामान देख कर आश्चर्य हो रहा था और सवाल उठ रहा था कि इसे कौन खाता होगा, क्योंकि मैंने रास्ते में एक जगह पानी की बोतल ली, जिस पर कई पर्त धूल जमा थी? उसका पानी पीने की हिम्मत नहीं हुई. जैसे-तैसे उसे रख लिया, क्योंकि पैसा चुकाया था, सो फेंक भी नहीं सकता था, लेकिन इसके साथ इस इलाके में रहनेवाले लोगों के बारे में सोच रहा था. कैसी परेशानी ये लोग ङोलते होंगे? इन्हीं सवालों के बीच जब ये पता चला कि शिवहर अब पांच किलोमीटर दूर रह गया है, तो थोड़ा संतोष हुआ कि अब मंजिल पर पहुंचनेवाला हूं, लेकिन तब तक डेढ़ घंटे का समय निकल चुका है. जिनते उत्साह और जोश के साथ सीतामढ़ी से चला था, वो ठंडा पड़ चुका था.

यजुआर-गंगेया- क्या, आप भी हैरान-परेशान हुये साहब?

क्या आप भी हैरान-परेशान हुये साहब? ये सवाल कल देर रात (24 अक्तूबर 2016) को उस समय मन में आया, जब फेसबुक पर देखा कि भाजपा के प्रदेश अध्यक्ष मंगल पांडेय ने उन दो पुलों (कटरा के पीपा पुल व बसघट्टा के जमींदोज पुल) से गुजरते हुये तस्वीर पोस्ट की है, जिनका जिक्र मैंने अपनी 23 अक्तूबर की पोस्ट..ये तो अलग देश जैसा है महराज..में किया था. भाजपा प्रदेश अध्यक्ष के साथ जिलाध्यक्ष व इसी क्षेत्र के पूर्व विधायक रामसूरत राय भी थे. हमें, लगता है कि रामसूरत राय ने यहां की दुश्वारियों की चर्चा जरूर अपने प्रदेश अध्यक्ष से की होगी, क्योंकि वो भी उसी जमात का हिस्सा हैं, जिससे यहां की जनता न्याय मांग रही है. भले ही विपक्ष में हैं, लेकिन लंबा समय ऐसा भी बीता है, जब वो पक्ष में थे. तब शायद इस गली कभी नहीं आये होंगे.
जिस अंदाज में मंगल पांडेय जी की तस्वीरें देखने को मिलीं, उससे भी कई सवाल उपजे, लेकिन उनका जिक्र फिर कभी. अभी इसी इलाके की दुश्वारियों की बात. उस स्थान जहां से भाजपा के प्रदेश अध्यक्ष मंगल पांडेय जी गुजरे, वहां से बमुश्किल डेढ़ से दो किलोमीटर दूर है गंगेया. यह धरती भी बड़ी उर्वरा है. यहां जन्म लेनेवाले लोग देश-दुनिया में इलाके का नाम रोशन कर रहे हैं, लेकिन अपने गांव को त्रसदी से मुक्ति का इंतजार इन्हें भी है.
गांव की स्थिति ये है कि यहां बीच गांव से बागमती गुजरती है, जो गांव को दो भागों में बांटती है, जो बागमती के इस पार हैं, उनकी दुश्वारियां तो कुछ कम हैं, क्योंकि उन्हें हर बार उस चचरी पुल को नहीं पार करना पड़ता है, जिसे पार करते समय तमाम देवी-देवता याद आने लगते हैं. कुछ लोग हनुमान चालिसा का पाठ करने लगते हैं. कैसे हम सही-सलामत इस पार से उस पार चले जायें. इसी साल मेरा भी जाना हुआ, तो मैंने भी यही अनुभव किया और जितने लोग साथ थे, सब यही बात कह रहे थे. से समस्या हाल-फिलहाल की नहीं है दशकों पुरानी है, लेकिन अब तक कोई व्यवस्था नहीं हो सकी. बागमती की किनारे बसे घरों पर बारिश के दिनों में कटाव का संकट रहता है.
यहां के लोग कैसे रहते हैं, क्योंकि ये वो नदी है, जिसमें बिना बारिश ही बाढ़ आती है, क्योंकि बारिश नेपाल में होगी और बाढ़ यहां आ जायेगी, देखते ही देखते सरकार की ओर से बनायी गयी चमचमाती सड़क कई फुट पानी में डूब जाती है, तब यहां सरकारी पर्यटन शुरू होता है. बड़े-बड़े साहब सव्रे को पहुंचते हैं. सड़क पर भरे पानी के बीच खड़े होते हैं, तो फोटो फोटो खिचता है. बताया जाता है कि साहब ने पानी के बीच जाकर लोगों का हाल जाना और जल्दी से जल्दी राहत बांटने का निर्देश दिया है. यही हर साल होता आ रहा है.
हाल में गंगेया के लोगों ने भी पीपा पुल बनाने का फैसला लिया है. इसके लिए कोई सरकारी मदद नहीं दी जा रही है. गांव के लोगों ने ही चंदा करके पुल बनाने का काम शुरू किया है. क्या सरकारी मदद से पुल नहीं बन सकता है? क्या यहां आनेवाले सरकार के नुमाइंदों व जन प्रतिनिधियों को ये नहीं लगता है कि लोगों को सहूलियत मिले? शायद नहीं, अगर लगता, तो अब से सालों पहले यहां पीपा पुल बन चुका होता और जिस तरह से अन्य चीजों में सरकारी कर्मचारियों की तैनाती होती है. उसी तरह से उस पुल के रख-रखाव में वो लगा दिये जाते, तब यहां के लोगों को आभास होता कि हम भी इसी प्रदेश और जिले के रहनेवाले हैं. हमारा ख्याल रखा जाता है, लेकिन यहां हमारी व्यवस्था कोसों पिछड़ी नजर आती है.
गंगेया से लेकर पहसौल बाजार, नगवारा व यजुआर तक, भले ही दुश्वारियां हैं, लेकिन निजी व्यवस्था यहां सरकारी पर भारी नजर आती है. नगवारा के लोग बताते हैं कि यहां कभी-कभी बीडीओ और सीओ साहब आते हैं और खानापूर्ति करके चले जाते हैं. सबसे बड़ी समस्या यहां बिजली की है, लेकिन इसके बीच भी बदलते समय में यहां निजी कंपनियां सक्रिय हैं. उनका इकबाल सरकार से ज्यादा नजर आता है. नगवारा और यजुआर दोनों में दो-दो मोबाइल टावर लगे हैं, जो जनरेटर से चलते हैं. 24 घंटे यहां के लोगों को नेटवर्क उपलब्ध कराते हैं. बिना फायदे के तो कंपनियां टावर ऐसे गांवों में लगायेंगी नहीं, यह तो मानी हुई बात है. ऐसे में सवाल ये उठता है कि क्या सरकारी व्यवस्था को भी ऐसे ही नहीं सोचना चाहिये? और सुविधाएं मुहैय्या करानी चाहिये. इस मर्म को प्रदेश के विपक्षी दल भाजपा के अध्यक्ष समझ सके या नहीं. ये तो वही बता सकते हैं, लेकिन यहां की जनता की तरह हम भी यही उम्मीद करते हैं कि उन्होंने व्यवस्था देखी है, तो शायद कुछ करें. जिस दिन यहां के लिए काम होगा. हमें भी बहुत खुशी होगी.

सोमवार, 24 अक्टूबर 2016

चमेला कुटीर-3- इस आंदोलन का कुछ नहीं होगा

बात 2011-12 की है, जब दिल्ली में अन्ना के जनलोकपाल बिल आंदोलन का जोर था. पूरा देश उसी के रंग में रंगा नजर आ रहा था. जंतर-मंतर नया इतिहास लिखने को तैयार था. वहां से नये प्रतिमान निकल रहे थे. लोग सोच रहे थे कि देश में बड़ा बदलाव होगा और जनलोकपाल बिल भ्रष्टाचार को खत्म कर देनेवाला साबित होगा और देश नयी राह पर चल पड़ेगा, जो वर्तमान से बिल्कुल अलग होगा. इस बीच के दो प्रसंग याद आते हैं, एक पटना में एक रिटायर्ड अधिकारी है, जो कई राज्यों में बड़े पद पर रह चुके हैं और फिर राजनीति में हाथ आजमाया और वहां भी सफल हुये.
दिल्ली में अन्ना के आंदोलन का जोर चल रहा था. वो अधिकारी अपने केबिन में बैठ कर टीवी देखते हुये विश्लेषण कर रहे थे कि इसका कुछ नहीं होना है, क्योंकि मैं व्यवस्था का हिस्सा रहा हूं दशकों तक. वो कहने लगे कि अभी जिस समय यह आंदोलन चल रहा है. उसी समय सही और गलत दोनों काम चल रहे होंगे. जो जिम्मेवार लोग यह काम कर रहे होंगे, वो अपने किये को पूरी तरह से कानूनी साबित कर सकते हैं, चाहे सही हो या गलत.
दूसरा प्रसंग चमेला कुटीर का है. आंदोलन के दौरान ही सच्चिदा बाबू से मिलना हुआ. अनायास ही मेरे मुंह से सवाल निकल पड़ा. अन्ना आंदोलन का क्या होगा? बहुत जोर है, पूरे देश में, तब सच्चिदा बाबू ने भी कहा था कि इस आंदोलन का कुछ होनेवाला नहीं है. कुछ दिन में यह अपने आप शांत हो जायेगा और जो लोग अभी इसके साथ दिख रहे हैं, वो अपने काम में लग जायेंगे. तब दोनों प्रसंग सुनने में अटपटे लग रहे थे, लेकिन आनेवाले सालों में क्या हुआ. ये सबके सामने है.
सच्चिदा बाबू ने अपनी बात के साथ ठोस वजह भी बतायी. कहने लगे कि अन्ना के आंदोलन के साथ देश की जनता पूरी तरह से नहीं है, क्योंकि वह जानती नहीं है कि आखिर अन्ना का उद्देश्य क्या है. अगर आंदोलन चलाना ही था, तो अन्ना को पहले देश के लोगों को तैयार करना चाहिये थे. उनके बीच जाना चाहिये था और लोगों के मन को बदलना चाहिये था. इसके लिए उन्हें सालों का समय लगेगा, लोगों के बीच जाने और बात करने में. जब जनमत तैयार हो जाये, तो आप आंदोलन करिये, वो सफल होगा, केवल दिल्ली में कुछ हजार और लाख लोगों के जुटने से कुछ नहीं होगा. अपना देश बहुत बड़ा और विविधता भरा है.
सच्चिदा बाबू ने आजादी की लड़ाई के दौरान सत्य और अंहिसा के बल पर देश में जनमत को तैयार करनेवाले राष्ट्रपिता महत्मा गांधी का हवाला भी दिया. गांधी जी वह आंदोलनों के पहले किस तरह से पूरे देश की यात्र करते थे. लोगों को अपने उद्देश्य के बारे में बताते थे, तब गांधी जी के एक आह्वान पर करोड़ों लोग कुछ भी करने को तैयार हो जाते थे. अन्ना आंदोलन किस तरह से आगे बढ़ा और उसका क्या हश्र हुआ, इसके बारे में यहां ज्यादा चर्चा नहीं, लेकिन सच्चिदा बाबू की सोच उस समय ही बिल्कुल स्पष्ट थी कि क्या होनेवाला है.
जारी..

रविवार, 23 अक्टूबर 2016

ये तो अलग देश जैसा है महराज

मुजफ्फरपुर बिहार के बड़े जिलों में शामिल हैं. राजधानी पटना के बाद मुजफ्फरपुर, भागलपुर व गया का नंबर आता है. बड़े आंदोलनों व सांस्कृतिक विरासत का गवाह रहा है अपना मुजफ्फरपुर, लेकिन अब जरा फिजा बदली हुई है. पहाड़ जैसी अच्छाइयों (नेकियों) के बीच एक कोना ऐसा भी है, जो परेशान करता है. सोचने को मजबूर करता है कि आज जब हम मिशन मार्क्‍स के जमाने में जी रहे हैं, तब किसी गांव में जाने में ऐसी त्रसदी का सामना करना पड़े. खुद को सर्वशक्तिमान बतातेवाली सरकार का तेज जहां फेल हो जाता है. निजी व्यवस्था से गुजरना पड़ता है, चाहे सांसद, विधायक हों या फिर आला अधिकारी. जनता का तो कहना ही क्या? सबको को उसी घाट उतरना पड़ता है. ये कोना है कटरा प्रखंड की 11 पंचायतों का, जो बागमती नदी के उस पार पड़ती हैं. कटरा प्रखंड मुख्यालय से कुछ सौ मीटर दूर पर ही बागमती बहती है और यहीं से फिजां बदल जाती है.
प्रखंड मुख्यालय पार करने के बाद ही लगता है कि हम किसी और जगह आ गये हैं. अगर आपके साथ स्थानीय लोग हैं, तो वह दबी जुबान से बतायेंगे कि ये जो दो पुल देख रहे हैं. इनके लिए खून बहा है. वर्चस्व की लड़ाई का गवाह बने हैं दोनों. वजह, इनसे सैकड़ों की संख्या में लोगों का आना-जाना होता है, जिससे मोटी कमाई होती है और यही कमाई खून-खराबे की वजह बनी, लेकिन हमारी सर्वशक्तिमान सत्ता कुछ नहीं कर पायी. मूकदर्शक जैसी बनी रही. हालात जैसे के तैसे हैं. अब भी लोग पैसा चुका कर इनसे पार होते हैं. यह कुछ सौ मीटर का इलाका है. इसे पार करते हैं फिर से सरकार का वर्चस्व कायम होता दिखता है. बसघट्टा के पास चमचमाती सड़क आपका स्वागत करती है, लेकिन वह भी ज्यादा दूर नहीं.
अगर कटरा की ओर से जाते समय आप दाहिने हाथ गये, तो गंगेया व अन्य पंचायतों के बीच से गुजरती चमचमाती सड़क के दोनों किनारों पर बदहाली देखने को मिलेहगी और अगर आप युजआर व अन्य पंचायतों के रास्ते का रुख करते हैं, तो बागमती की उपधारा पर बने उस ऐतिहासिक पुल के दर्शन होंगे, जो उद्घाटन के पहले ही जमींदोज हो गया. तीन साल से उसी अवस्था में है. यहां भी सरकारी इकबाल सोया नजर आता है, क्योंकि पुल दो खंड में बंटा है, जिस पर तीन चचरी बना कर रास्ता बना वसूली जारी है, लेकिन कोई देखनेवाला नहीं है. आप रसूखवाले हैं, तो चचरी पर बैठे लोग आपका स्वागत करेंगे और जाने का रास्ता देंगे, लेकिन आप आम नागरिक हैं, तो आप से अच्छी खासी रकम वसूली जायेगी, जिसे दिये बिना आप आगे कदम नहीं रख सकते हैं.
इसे कौन सा दौर कहें समझ में नहीं आता, लेकिन हकीकत यही है कि यहां भी हमारी व्यवस्था का इकबाल धूमिल नजर आता है. कठिनाइयों के बीच लोगों का आना-जाना जारी है. इनके होठों पर मुस्कान की जगह अनदेखी की दस्तान रहती है, जिसे सुनने के लिए रुकियेगा, तो घंटों निकल जायेंगे, लेकिन उनकी बात पूरी नहीं होगी. बागमती पार की पंचायतों से निकले युवा देश से लेकर दुनिया तक में आपना नाम रोशन कर रहे हैं, लेकिन हालात देख कर अपने पैतृक स्थान पर आने से कतराते हैं. इन्हें देश के बड़े महानगरों में अपने आशियाने बना लिये हैं. ये हम नहीं यहां के लोग कहते हैं, लेकिन हाल के सालों में इन्हीं में से कुछ ऐसे युवाओं की टोली निकली है, जिसने हालात बदलने की ठानी है. वह राजनीति में रसूख रखनेवाले हर उस दरवाजे पर जा रही है, जहां से उसे न्याय की उम्मीद दिखती है. इसके लिए अभियान जारी है, बिना रुके और बिना थके काम हो रहा है, लेकिन नतीजे के नाम पर कुछ नहीं दिख रहा है, क्योंकि व्यवस्था में ऐसी लोच है, जिसके आगे सब पानी भरते नजर आते हैं.
पढ़ता था, तो एक बार हमारे कॉलेज में आंदोलन हो रहा था. छात्र उग्र थे, वो क्लास नहीं चलने दे रहे थे, तब हमारे प्राचार्य ने कहा था कि आप बच्चे हैं. अभी जिंदगी की शुरुआत हो रही है. हम लोग नहीं चाहते हैं कि आप पर कार्रवाई हो. हम जानते हैं कि आप अच्छे हैं, आप लोग चंद लोगों के बहकावे में आकर क्लास बंद करवा दे रहे हैं. अगर आपके खिलाफ एक बार लिखा-पढ़ी हो गयी, तो सालों दौड़ते रहियेगा अपनी बेगुनाही साबित करने के लिए, लेकिन कुछ नहीं होगा. आप अच्छे हैं, ये साबित करने में लंबा अरसा बीत जायेगा. इसलिए हमें कार्रवाई के लिए मजबूर मत कीजिये. ये बात हम इसलिए कह रहे हैं, क्योंकि बागमती पार की यजुआर गांव की यही कहानी है. यहां लगभग तीन दशक पहले बिजली के खंभे गड़े थे और लाइन खिची थी, तब सरकारी कागजों पर लिख दिया गया कि गांव का विद्युतीकरण हो चुका है, लेकिन गांव में टेस्टिंग के अलावा एक दिन भी बिजली नहीं जली, लेकिन लिखा-पढ़ी इस गांव के लिए परेशानी का सबब बन गयी. यहां के लोगों की परेशानी की जड़ वो सरकारी कागज बने हुये हैं, जिनमें विद्युतीकरण की बात लिख दी गयी है, जबकि हकीकत ये है कि इस परेशानी का भुगतान सरकार को भी करना पड़ रहा है, क्योंकि गांव में बनी दो आलीशान टंकियों से तीन दशक बाद भी पानी का सप्लाई बिन बिजली शुरू नहीं हो सकी है. लाखों रुपये की बरबादी हो चुकी है. गांव में जो सप्लाई की पाइप बिछायी गयी थी, वो खराब हो चुकी है, लेकिन कहानी वहीं आकर रुक जाती है कि गांव का विद्युतीकरण हो चुका है.
आखिर ये कौन सी व्यवस्था है? क्या कोई अधिकारी वहां जाकर रिपोर्ट नहीं दे सकता है कि गांव में बिजली नहीं है. बताते हैं कि सालों पहले अधिकारियों का पूरा अमला गया था गांव में. बड़ी बातें व घोषणाएं हुई थीं, लेकिन नतीजे के तौर पर कुछ नहीं निकला. लिखा-पढ़ी के नये कागजात शायद पुराने कागजों के सामने कमजोर पड़ गये होंगे. गांव उसी स्थिति में है. उन हजारों-लाखों लोगों का क्या कसूर है, जो इन पंचायतों में रहते हैं. क्या उन्हें इन सरकारी कागजों से कुछ हासिल होगा, जो उनके आगे बढ़ने की राह में रोड़ा है. कैसे ये व्यवस्था बदलेगी? किस तरह से इन पंचायतों में नया सवेरा आयेगा. ये सवाल मेरे भी मन में उभरा, जब इस साल जून के महीने में मैं पहली बार इस इलाके में आया. सुनता बहुत दिनों से था, लेकिन आंखों से देखने को इस साल मिला.
जैसे-जैसे मैं इन पंचायतों की ओर बढ़ रहा था, वैसे-वैसे सवाल और गहरे होते जा रहे थे. यहां आप गाड़ी से नहीं जा सकते हैं. पैदल, साइकिल और मोटरसाइकिल ही सहारा है. शाम ढलने के बाद जब वापस रहा था, तो मन में सवालों और यहां रहनेवाले लोगों की जिजिविषा के सिवाय कुछ नहीं था. ये सवाल अब भी हमें परेशान करते हैं और जब सोचता हूं, तो बेचैनी बढ़ जाती है. फिर व्यवस्था के सवालों के मकड़जाल में फंस जाता हूं और मेरी सोच मेरा साथ छोड़ देती है.

शनिवार, 22 अक्टूबर 2016

सर, मेरे गांव में बिजली आ जाये और मैं कुछ नहीं चाहता

रोज की तरह मैं शाम के दफ्तर में आकर बैठा था. इसी बीच सूचना अयी कि एक छात्र आपसे मिलना चाहता है. मैंने अन्य लोगों की तरह उसे भी बुला लिया, कुछ ही क्षणों में वह मेरे सामने था. वह सामने आते ही रोने लगा. मैंने इससे पहले उसे कभी नहीं देखा था. ऐसे में मुङो लगा कि मैंने क्या कर दिया, जो वह इस तरह से रो रहा है. कुछ देर रोने के बाद बाद उसने सांसों पर काबू करने की कोशिश् की और सिसकियां लेते हुये बोला, सर, मेरे गांव में आप बिजली लगवा दीजिये. बस हम और कुछ नहीं चाहते हैं. हम दौड़ते-दौड़ते थक चुके हैं. हम सीतामढ़ी के रुन्नीसैदपुर इलाके के रैन शंकर और रैन विष्णु के रहनेवाले हैं. हमारा गांव अब भी ढिबरी के युग में जी रहा है. हम लोगों को पढ़ाई में बड़ी समस्या होती है.
छात्र जब कुछ शांत हुआ, तो हमने बैठने के लिए कहा और तफसील से पूरी बात बताने को कहा, साथ ही अपनी सीमा भी बतायी कि हम आपकी समस्या को अखबार में छाप सकते हैं और कुछ नहीं कर पायेंगे. इस पर उसने कहा कि आप बस इस खबर को लोगों तक पहुंचा दें, मेरा नाम दें या नहीं, लेकिन आपके जरिये हमारी समस्या समाज के सामने आ जायेगी, तो हो सकता है कि बिजली विभाग के अधिकारी भी देखें और वो हमारे गांव में बिजली लगाने की दिशा में काम करें. इसके बाद उक्त छात्र ने बिजली के लिए अपने संघर्ष की पूरी कहानी बतायी कि वह किस तरह से लगातार अपने गांव में बिजली लाने के लिए संघर्ष कर रहा है. कितनी बार सीतामढ़ी में बिजली विभाग के अधिकारियों के यहां चक्कर लगा चुका है, लेकिन आश्वासन के अलावा उसे कुछ नहीं मिला.
उक्त छात्र से बात करते हुये मुङो तिरहुत कमिश्नर की वो टिप्पणी याद आयी, जो उन्होंने अपने सरकारी ब्लॉग पर रुन्नीसैदपुर इलाके का दौरा करने के बाद लिखी थी, जिसमें उन्होंने वहां बह कर आनेवाले चीनी मिल के काले पानी की समस्या का जिक्र किया था. वहां की स्थिति तरह से भयावह है, इसकी बात की थी. इसके बाद में जब हमने छात्र से पूछा, तो उसका कहना था कि हम उसी इलाके के रहनेवाले हैं. हम लोगों पर दोहरी मार पड़ रही है.
खैर, छात्र की बात सुनने के बाद खुद को रोक नहीं सका, उससे ही नंबर लेकर गांव के मुखिया से बात की, तो वह भी कहने लगे कि हम लोग लगातार प्रयास कर रहे हैं, लेकिन कुछ नहीं हो पा रहा है. हमारी पंचायत को बिजली चाहिये. यह कैसे होगा, समझमें नहीं आ रहा है. गांव के मुखिया ने भी छात्र के बिजली के लिए संघर्ष की बात बतायी और कहा कि वो बीएड करके किसी निजी स्कूल में काम कर रहा है. मुजफ्फरपुर में रहता है, लेकिन गांव में बिजली को लेकर सजग है, क्योंकि वह चाहता है कि गांव में रोशनी रहेगी, तो बच्चे पढ़ लेगें, उन्हें परेशानी का सामना नहीं करना पाड़ेगा. इससे हमारा भविष्य भी उज्जवल होगा. अब जब हर घर-बिजली और पानी की बात सात निश्चय में हो रही है, तो मन में ये सवाल उठ रहा है कि क्या रैन शंकर में बिजली आ जायेगी?

शुक्रवार, 21 अक्टूबर 2016

चमेला कुटीर-2-हमने काम नहीं किया, तो पुरस्कार क्यों लेंगे?

सच्चिदा बाबू से एक बार मिलना हुआ, तो उसके बाद मन में सवालों का जाल था. आखिर इस समय में जब सब लोग सुख-सुविधाओं के लिए कुछ भी करने को तैयार हैं. रिश्ते दरक रहे हैं. ऐसे में कोई व्यक्ति सारी सुख-सुविधाओं को छोड़ कर कैसे पूरा जीवन बिताने का संकल्प कर लेता है और उसी में रम जाता है. सच्चिदा बाबू जैसे उदाहरण विरले ही देखने को मिलते हैं. इसके साथ उनका मौलिक चिंतन, जो दो दशक पहले ही ये भांप लेता है कि आनेवाले सालों में भारतीय राजनीति की दिशा क्या होगी. कैसे एक पार्टी का शासन खत्म हो जायेगा और संयुक्त सरकारें आयेंगी. सच्चिदा बाबू ने इस पर किताब लिखी, तब शायद लोगों को लगा होगा कि ये होनेवाला नहीं है, लेकिन 1989 के बाद भारतीय राजनीति में संयुक्त सरकारें ही हकीकत बन गयीं, जो अब तक जारी हैं.
अमेरिका और यूरोप के देश किस तरह से दुनियाभर के प्राकृतिक संसाधनों पर राज करते हैं. कैसे उन्होंने दूसरे देशों को अपना उपनिवेश बना लिया है. वहां उत्पादित होनेवाली प्राकृतिक चीजों को अपने यहां ले जा रहे हैं. ऐसे ही अगर देश की बात करें, तो वहां भी कुछ शहरों तक ही समृद्धि सिमट कर रह गयी है. सारे देश के प्राकृतिक संसाधन का प्रयोग चंद लोगों के हाथों में चला जाता है. कैसे वो उसका दोहन करते हैं. इससे स्थानीय स्तर पर कैसे लोगों का विस्थापन होता है, उस पर जिनका हक होता है, उन्हें किस तरह से परेशननियों का सामना करना पड़ता है. इस दर्द को सच्चिदा बाबू ने अपनी किताब इंटरनल कॉलोनी में लिखा है. बात शुरू होने पर वह बताते हैं कि आज विश्व के सामने किस तरह का संकट खड़ा है. हम कैसे ऐसा कचरे का ढेर इकट्ठा कर रहे हैं, जो सदियों तक नहीं नष्ट होगा. इससे आनेवाली पीढ़ियों को हम कौन सा वातावरण देकर जायेंगे. कैसे हम अपने आप को नष्ट करने की दिशा में आगे बढ़ रहे हैं.
पहले शौचालय, फिर देवालय पर अभी खूब बात हो रही है. सरकार हर साल शौचालय बनाने का लक्ष्य तय कर रही है, लेकिन शौचालय में लगनेवाली सीट खराब होने पर क्या आसानी से नष्ट हो जायेगी. ये सवाल सच्चिदा बाबू करते हैं. कहते हैं, सरकार की बात सही है, लेकिन इसके लिए राष्ट्रपिता महत्मा गांधी के बताये रास्ते का अनुशरण करना चाहिये. गांधी जी गड्ढा खोद कर शौच करने और फिर उसे मिट्टी से ढक देने की बात कहते थे. इससे गंदगी भी नहीं फैलेगी और हम ऐसा कचरा भी नहीं पैदा करेंगे, जो नष्ट नहीं हो सके. ऐसे ही ऊर्जा पर आधारित अर्थव्यवस्था की बात, जिसमें तेल और कोयले की जरूरत होती है. दोनों ही हमें जमीन से मिलते हैं. इनका एक भंडार है. अगर ये भंडार खत्म हो गया, तो क्या होगा. इस पर भी चिंतन की जरूरत है. सच्चिदा बाबू कहते हैं कि कैसे हम सूर्य के सहारे अपनी ऊर्जा की जरूरतों को पूरा कर सकते हैं.
एक मुलाकात को बाद बार-बार मनिका जाने की इच्छा होती है, जब मौका मिलता है, तब चला भी जाता हूं, लेकिन कम हो पाता है. मुङो लगता है कि लगभग तीन साल पहले की बात होगी. रात के समय एक समाचार आया, जिसमें साहित्य से जुड़े कुछ लोगों को सम्मानित करने का फैसला बिहार सरकार ने लिया था. उसमें सच्चिदा बाबू का नाम था. दादा साहेब फाल्के अवार्ड के लिए. हमने सच्चिदा बाबू के पड़ोसी जगत जी को फोन लगाया और कहा कि बात करवा दें. कुछ देर बाद सच्चिदा बाबू लाइन पर थे. हमने कहा कि ये हमारे लोगों के लिए खुशी की खबर हो सकती है, लेकिन आपके लिए नहीं, क्योंकि मैं जानता हूं कि आप जब ये सूचना सुनेंगे, तो आपकी क्या प्रतिक्रिया होगी, लेकिन मुङो लगा कि बताना जरूरी है. जैसे ही मैंने पुरस्कार के बारे में जानकारी दी, तो सच्चिदा बाबू ने कहा कि मैंने साहित्य में काम किया ही नहीं है, तो यह पुरस्कार कैसे ले सकता हूं.
जारी..

गुरुवार, 20 अक्टूबर 2016

काशी तेरी महिमा न्यारी

हाल में काशी (बनारस) जाना हुआ. इससे पहले भी बनारस होकर कई बार गुजरा था, लेकिन ज्यादा देर तक शहर में रुका नहीं था. छात्र जीवन में इलाहाबाद से दो बार बनारस आया था, तब पिताजी के लिए दवा लेने के सिलसिले में आता था और तुरंत वापस चला जाता था. अभी तक गंगा जी के दर्शन व विव प्रसिद्ध बनारस हिंदू विश्वविद्यालय को घूमने को देखने का मौका नहीं मिला था. इस बार मौका था. पास में लगभग छह घंटे का समय था. रात में लगभग दो बजे ट्रेन पहुंची, तो सोचा कि आसपास के किसी होटल में कुछ घंटे का आराम कर लिया जाये, लेकिन परीक्षार्थियों की भीड़ की वजह से कहीं जगह नहीं मिली, तो वापस रेलवे स्टेशन पर ही आना पड़ा. वहां भी पैर रखने की जगह नहीं थी. हजारों की संख्या में छात्र इधर-उधर घूम रहे थे.
स्टेशन की छत तक पर छात्रों की भीड़ थी. जिसे जहां जगह मिल रही थी, वहीं सोने की कोशिश कर रहा था. चलने तक रास्ता नहीं था. काफी मशक्कत के बाद हम उच्च श्रेणी वेटिंग हाल तक पहुंचे, जहां थोड़ी राहत थी. कुछ कुर्सियां खाली थीं. सो आराम करने का मौका मिला, हालांकि इस कवायद में रात के साढ़े तीन बज चुके थे. कुर्सी पर ही थोड़ी देर झपकी लेने के बाद सुबह पांच बजे मां गंगा और काशी विश्वानाथ मंदिर के दर्शन की तमन्ना लिये निकले पड़ा. सड़क पर ऑटो मिला, जिसने सीधे गंगा घाट तक पहुंचा दिया, तब तक सुबह हो चुकी थी. बड़ी संख्या में सैलानियों के घाटों पर आने का सिलसिला शुरू हो चुका था.
सुबह-ए-बनारस के बारे में बार-बार सुनता था, लेकिन अब खुद ही रू-ब-रू था. विदेशी सैलानी नावों के जरिये गंगा की सैर कर रहे थे, तो हमने गंगा स्नान का फैसला लिया. कुछ ही मिनट में दरभंगा घाट के सामने मां गंगा की गोद में उतर गया. लगभग आधे घंटे तक स्नान के बाद निकला. लंबे समय के बाद तैरने का अनुभव मिला. शरीर भारी होने के वजह से अब पहले जैसे नहीं तैर पा रहा था. इसकी ग्लानि हो रही थी, क्योंकि पास में स्थानीय लोग भी स्नान कर रहे थे, जो खूब तैर रहे थे. स्नान के बाद नाव से सैर भी की और सब घाट और उनकी विशेषताएं जानने को मिलीं. हरिश्चंद्र घाट के सामने पहुंचा, तो वो कहानियां याद आने लगीं, जो हमारी दादी-नानी बचपन में सुनाती थीं.
इन सभी को जोड़ने लगा, तो लगा कि कैसे रहे होंगे हरिश्चंद्र, किस तरह से जीवन में सत्य बोलने की परीक्षा दी होगी, लेकिन डिगे नहीं. अब होता, तो क्या होता? तमाम तरह के सवाल मन में आ रहे थे. वर्तमान स्थिति में सत्य की राह पर चलनेवाले को किस तरह से टारगेट किया जाता है. वो भी सामने घूमने लगा. मैं व्यक्तिगत तौर पर ऐसे कई लोगों को जानता हूं, जिन्हें सत्य बोलने की सजा भुगतनी पड़ रही है. मणिकर्णिका घाट पर पहुंचा, तो वह दृश्य याद आ गये, जो टीवी में काम करने के दिनों में वीडियो फुटेज के रूप में सामने आते थे, जिनमें जीवन और मरण साथ-साथ दिखता था.
यहीं वह घाट हैं, जो गंगा-जमुनी तहजीब के पोशक भारत रत्न बिसमिल्ला खां की बांसुरी का गवाह बनते थे. यहीं पंडित राजन-साजन मिश्र का आना-जाना होता है. पंडित छन्नू लाल मिश्र को भी यहां गाते देखा है, लेकिन इन सबसे इतर सुबह का समय बनारस के घाटों पर अद्भुत था. स्नान व नाव से सैर के बाद हम काशी विश्वनाथ मंदिर की ओर बढ़े, लेकिन दर्शन नहीं कर सके. बाबा से वादा किया कि अगली बार आना होगा, तो दर्शन को आऊंगा. बाहर से ही प्रणाम हो गया. इसके बाद निकल गये बीएचयू की ओर.
बीएचयू में जो देखा, उसे शब्दों में बयान करना मेरे लिए कठिन है, क्योंकि यहां एक ऐसे युगदृष्टा के सपने दिख रहे थे, जो शायद अपने देश की शिक्षा व्यवस्था को बहुत उन्नत बनाना चाहता था. उसकी परिकल्पना में ऐसा हरा-भरा कैंपस और इतनी अच्छी यूनिवर्सिटी, जहां हर विभाग का अपनी व्यवस्था. मन खुश हो गया. ऑटोवाला स्थानीय था, तो उसने पूरी जानकारी भी दी. वो हमे यूनिवर्सिटी कैंपस के विश्वनाथ मंदिर ले गया. क्या मंदिर और कैसे बनाया गया है. देख कर मन प्रसन्न हुआ. यहां बाबा का आशीर्वाद लिया और मंदिर के बाहर ही बनारसी नाश्ते का भी लुत्फ उठाया. छक के खाया और बाबा की जय-जय करते हुये आगे बढ़ गया.

सादगी देखनी है तो चमेला कुटीर आइये

(किस्त-एक)
मुशहरी से दो से तीन किलोमीटर दूर मनिका गांव में चमेला कुटीर. यही वरिष्ठ चिंतक व समाजवादी लेखक सच्चिदानंद सिन्हा जी का आवास है. अगर किसी को सादगी देखनी है, तो सच्चिदा बाबू के यहां आना चाहिये. जीवन के 86 बसंत पूरा कर चुके सच्चिदा बाबू पूरी गर्मजोशी से अपने यहां आनेवालों का स्वागत करते हैं. देश-दुनिया के क्या हालात हैं. हम कहां जा रहे हैं और हमें कहां जाना चाहिये. इस पर स्पष्ट दृष्टि से बात रखते हैं.
सच्चिदा बाबू की बातों और उनके रहन-सहन में कोई अंतर नहीं हैं, जो वो कहते हैं, वो करते भी हैं. घर में बिजली का कनेक्शन नहीं है. सोलर लाइट के सहारे घर में उजाला होता है, जो दिन में चाजिर्ग के लिए लॉन में रखीं होती हैं. सच्चिदा बाबू के घर में बिजली नहीं, तो टीवी भी नहीं है. न ही आधुनिक सुख-सुविधा की कोई वस्तु है. देश-दुनिया के समाचार जानने के लिए रेडियो जरूर है.
सच्चिदा बाबू के यहां उतनी ही चीजे हैं, जितने से काम चल सके. ऐसा नहीं है कि सच्चिदा बाबू सब चीजें नहीं रख सकते हैं. वो सब-कुछ रख सकते हैं, लेकिन जिस विचारधारा पर वो चलते हैं, उसे उन्होंने अपने जीवन भी उतारा है. तीन दशक से ज्यादा से इसी स्थान पर रह रहे हैं. इससे पहले दिल्ली रहते थे और उससे भी पहले मुंबई. दर्जनों ऐसी किताबें लिखी हैं. समाज जिनका अनुशरण करे, तो बेहतर बन सकता है, लेकिन अभी विकास की अंधी दौड़ में सच्चिदा बाबू जैसे महान विचार वाले लोगों की दिखाये रास्ते पर बात नहीं हो रही है, लेकिन मुङो लगता है कि लंबे समय समय के लिए इनका बताया रास्ता ही सही है.
सच्चिदा बाबू से पहले मुलाकात 2011 में तब हुई, जब हमारे हमारे वरिष्ठों की ओर से कहा गया कि उनका एक इंटरव्यू करना है, तब मैं शहर में नया था और यहां के बारे में ज्यादा जानकारी नहीं थी, लेकिन अपने साथियों से एक-दो बार सच्चिदा बाबू के बारे में सुना था. उस समय एस्बेस्टस फैक्ट्री का मुद्दा चल रहा था, जिसके लगने से किस तरह से परेशानी हो सकती है. इसके बारे में सच्चिदा बाबू ने लेख लिखा था. उसमें मौलिक चीजों उठायी गयी थीं.
जब हम सच्चिदा बाबू के सामने पहुंचे, तो सहसा विश्वास नहीं हो रहा था. थोड़ा समय खुद को यह समझाने में लगा कि कोई महान व्यक्ति ऐसे भी रह सकता है. सच्चिदा बाबू से देश-समाज और वर्तमान परिस्थितियों को लेकर लंबी बात-चीत हुई, जिसमें उन्होंने बताया कि हम मशीनीकरण के कारण किस तरह से परेशानी की ओर बढ़ रहे हैं.
जारी..

चुनाव यात्रा-7- पहाड़ी नदी के किनारे वोट की बात

मोतिहारी के बाद हम बेतिया में थे और हमने तय किया कि उन इलाकों में जाना चाहिये, जहां असली भारत बसता है. भारत-नेपाल सीमा पर बसे मंगुराहा हम इसी लोभ में पहुंचे, जहां एक ओर खुला आकाश और दूर-दूर तक फैली रेत, जिस पर उगी कुछ जंगली झाड़ियां और दूसरी ओर पहाड़, जिसका कुछ हिस्सा भारत और बाकी नेपाल में आता है. पहाड़ के साथ लगा घना जंगल, जिसमें बाघ समेत विभिन्न जंगली जानवरों के रहने की बात बतायी गयी. शाम ढलने के साथ मवेशियों के साथ ग्रामीण अपने घरों का रुख करने लगे. गोधूलि बेला के समय हम पहाड़ी नदी के किनारे खड़े थे. वहां इक्के-दुक्के लोग ही दिख रहे थे, लेकिन लोगों का आना-जाना जारी.
नदी के किनारे कुछ बच्चे खेल रहे थे, तो कुछ लोग पीने का पानी लेने के लिए आये हुये थे. इसी दौरान एक वृद्ध साइकिल से पहुंचे. उन्होंने साइकिल के हैंडिल में दो बड़ी बोतलें लटका रखीं थी. कहने लगे रात के पीने का पानी लेने के लिए नदी आये हुये हैं. पिछले पचास साल से ये नदी का पानी पी रहे हैं. इन्हें कोई बीमारी नहीं हुई. एक बेटा बाहर कमाता है, जबकि दूसरा सीआरपीएफ में जवान है. हम लोग मिले, तो चुनाव पर बात होने लगी. कहने लगे कि देखिये दोनों गंठबंधनों का जोर है. हर नेता की ओर से हमारे गांव में प्रचार किया जा रहा है. महागंठबंधनवाले का प्रचार ज्यादा है, लेकिन जीतेगा कौन, यह तो सब जानते हैं. प्रचार करने से क्या होगा?
मंगुराहा के आस-पास सभी राजनीतिक दलों के प्रत्याशियों ने अपना कार्यालय बना रखा था, जहां बजनेवाले लाउडस्पीकरों से चुनाव का एहसास हो रहा था. बाकी जगह पर शांति थी. हां, जब कभी प्रत्याशी या प्रत्याशी के समर्थक सड़क से जुगरते, तो लगता कि चुनाव प्रचार चल रहा है. वैसे लोगों में चुनाव को लेकर कोई खास उत्साह नहीं दिख रहा था. सब अपने काम में व्यस्त थे. यहां के लोगों की नेताओं से मांग भी नहीं है. जिनता है, उतने में संतुष्ट होनेवाले लोग. किसी की शिकायत भी नहीं करते. बस अपनी धुन में मस्त.
जारी..

बुधवार, 19 अक्टूबर 2016

चुनाव यात्रा-6- जिन्न नहीं निकलेगा, देख लीजियेगा

मोतिहारी में चाय पर चुनाव चर्चा के बाद बारी शहर के गणमान्य लोगों से मुलाकात की थी. पहले से तय था, सो सब लोग सुबह की सैर के बाद इकट्ठा हो गये थे. लगातार बुलावा आ रहा था. व्यापारी, डॉक्टर, इंजीनियर, सामाजिक संगठनों से जुड़े कुछ लोग और कुछ पूर्व अधिकारी थे. बातचीत का सिलसिला शुरू हुआ, तो ऐसी चर्चा की ओर हम लोग बढ़ने लगे, जो चाय की दुकान के ठीक उलट थी. ये शहर का ऐसा तबका था, जो जनमत की बात कर रहा था, लेकिन उसका आधार नहीं दिख रहा था. बातचीत के दौरान ही एक व्यापारी बोल पड़े, अभी चाहे जो विरोध हो, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की एक सभा होगी और माहौल बदल जायेगा. हम जानते हैं ना.
बातचीत के दौरान कहा गया कि कोई जिन्न इस बार ईवीएम से नहीं निकलनेवाला है. पहले से रिजल्ट तय है, वही सामने आयेगा. इस दौरान हमारे सवालों को विपक्षी करार दिया गया, जबकि ये ऐसे सवाल थे, जिन्हें चुनाव में दरकिनार नहीं किया जा सकता था. खैर बातचीत पूरी हुई और हम आगे बढ़ने को तैयार थे. हमारा अगला पड़ाव बेतिया का था, लेकिन हम कुछ और देर मोतिहारी की चुनावी फिजां को देखना चाहते थे. इसके लिए हम पैदल ही मोतीझील के किनारे टहलने लगे. इस समय तक झील के बीच की सड़क के दोनों किनारे दुकानें सज गयी थीं फुटपाथ पर. तमाम तरह की चीजें इन दुकानों पर मिल रही थीं. इसी बीच हमने एक दुकानदार से पूछ दिया कि चुनाव में वोट देना है. कहने लगा कि वोट तो देंगे, लेकिन अभी से काहे परेशान हों, जब आयेगा, तब देखेंगे, जबसे बड़े हुये हैं वोट देते आ रहे हैं, लेकिन हमारे जीवन में कोई बदलाव नहीं आया है. ऐसे वोट का मेरे लिए कोई मायने नहीं है, लेकिन कर्तव्य है, तो उसे निभाऊंगा जरूर.
खैर कर्तव्य निभाने के बीच चारों तरफ से अतिक्रमण की श्किार मोतीझील पर नजर पड़ी, तो हमारे साथी कहने लगे कि ये फिर चुनावी मुद्दा है. इसको सुंदर बनाने की बात अरसे से चल रही है, लेकिन अभी तक कोई काम नहीं हुआ है. हर बार लगता है कि हमारे शहर में ऐसा काम होगा, जिसे देखने के लिए देश-दुनिया से लोग आयेंगे, लेकिन हर बार हम लोग ठगे से रह जाते हैं. मोतीझील का इलाका बड़ा लंबा था, लेकिन लगातार सिकुड़ता जा रहा है. लोगों ने घर बना लिये हैं. सरकार की ओर से घोषणाएं होती हैं, लेकिन काम नहीं होता है. मोतीझील के पानी में जलकुंभी और किनारे पर डाला गया शहर का कूड़ा बहकर बीच में आ गये थे. दोनों आपस में मिल कर एक ऐसा माहौल तैयार कर रहे थे, जिसे देख कर भय लग रहा था.
बातचीत के दौरान हम फ्लैशबैक में चले गये, जब मार्च-अप्रैल के महीने में कवि सम्मेलन हुआ था, तब कवियों ने कहा था, शहर के लोगों के सामने. आपकी मोतीझील बहुत प्यारी है, लेकिन उसकी हालत बहुत खराब है. अगर कभी आप लोग स्वच्छता अभियान चलायें, तो हमें बुलाइयेगा, हम श्रमदान करने अपने खर्च से आयेंगे, क्योंकि हम चाहते हैं कि मोतीझील फिर से शहर की शान बनें. कवियों ने मोतीझील के पुराने किस्से सुने थे. इससे इतना प्रभावित थे, लेकिन चुनाव में मोतीझील मजह एक मुद्दा थी, जो अब भी मुद्दा ही बनी हुई है.
जारी..

मंगलवार, 18 अक्टूबर 2016

यूपी चुनाव- जितना कांग्रेस मजबूत होगी, उतना भाजपा को नुकसान

उत्तर प्रदेश में अगले साल चुनाव होने हैं, जिसको लेकर पिछले कुछ महीनों से गहमा-गहमी है. सत्ताधारी समाजवादी पार्टी में परिवार का मनमुटाव सड़क पर आ गया है, जिसके किस्से आम हैं. इसमें राजनीति भी देखी जा रही है, कैसे और किस पर सरकार की नकामी का दोष मढ़ें, ये भी बात हो रही है. कहा जा रहा है कि फेस सेविंग की तरकीब निकाली गयी है. अंदरखाने में सब ठीक है. क्या है, ये कह पाना मुश्किल लगता है, लेकिन जो बात मैं कहना चाहता हूं. वो साफ और स्पष्ट है, जिससे बहुत से लोग सहमत व असहमत हो सकते हैं, लेकिन ये मेरा मत है.
उत्तर प्रदेश की स्थितियों को देखते हुये मुङो लगता है कि भाजपा अभी तक मजबूत दिख रही है, लेकिन कांग्रेस की ओर से भी लगातार प्रयास किये जा रहे हैं. खाट सभा की भले ही आलोचना हुई हो, लेकिन इससे पार्टी चर्चा में आयी है. हालांकि गन्ने की फैक्ट्री लगाने के राहुल गांधी के बयान ने पार्टी की साख को बट्टा जरूर लगाया गया है, लेकिन इससे निगेटिव प्रचार पार्टी को मिला है. कांग्रेस लोगों के बीच में चर्चा का विषय बन रही है, जो दल उत्तर प्रदेश में लगभग तीन दशक से सत्ता से दूर है. उसके विधायकों की संख्या दहाई से शुरुआती अकड़ों तक ही पहुंच पाती हैं. वो चर्चा में रहे, तो ये उसके नेताओं को लिए अच्छी बात है, हालांकि उत्तर प्रदेश को लेकर क्या विजन कांग्रेस का है, इसको स्पष्ट तौर पर बताना होगा. पार्टी की ओर से संगठन में जिस तरह के बदलाव किये गये हैं और दिल्ली की मुख्यमंत्री शीला दीक्षित को जिस तरह से चेहरा बनाया गया है, वो वोट बैंक को मजबूत करने की दिशा में उठाया गया कदम भर लगता है, क्योंकि ये कांग्रेस के नीति निर्माता भी जानते हैं कि उन्हें अपने दम पर सत्ता नहीं मिलनेवाली है.
सवाल ये है कि अगर कांग्रेस मजबूत होगी, तो नुकसान किसको होगा. इसका सीधा और साफ उत्तर है कि इससे सबसे ज्यादा असर भाजपा पर पड़ेगा, जो लोकसभा वाली सफलता यूपी में दोहराने की चाहत रखती है, हालांकि ये होता नहीं दिख रहा है, लेकिन जो अभी से देखने को मिल रहा है, उससे साफ लगता है कि भाजपा अन्य दलों से आगे रहेगी. इसके संकेत हाल में आये सव्रे में मिले हैं, जिनमें भाजपा को सबसे बड़ी पार्टी के रूप में दिखाया गया है.
इसे इस तरह से कह सकते हैं कि 2014 में भाजपा को समाज के सभी वर्गो का वोट मिला था, जिससे उसने उम्मीद से भी ज्यादा सीटें हासिल की थीं. यूपी ने ही उसे केंद्र में स्पष्ट बहुमत दिलाया था. नहीं तो कहा जा रहा था कि बिना समर्थन भाजपा अपने दम पर सरकार नहीं बना पायेगी, लेकिन यूपी के नतीजों ने सभी सव्रे को फेल कर दिया था.
यूपी की सत्ता के और दो दावेदारों में सत्ताधारी समाजवादी पार्टी व बहुजन समाज पार्टी हैं. दोनों का अपना वोट बैंक है. इन्हें वो वोट मिलने ही हैं, लेकिन केवल अपने वोट बैंक से दोनों दलों का काम नहीं चलेगा. ऐसे में इन्हें किसी न किसी स्तर पर अपने वोट बैंक से हट कर भी वोट चाहिये होगा. उसका इंतजाम ये पार्टियां किस तरह से कर पाती हैं, यही सबसे दिलचस्प है, क्योंकि इन्हें मालूम है कि जिनके वोट इन्हें चाहिये, वो अब झांसे में आनेवाले नहीं हैं. दोनों ही दलों ने इन वोटों के सहारे पिछले दस सालों में सत्ता का सुख ले चुके हैं. समाजवादी पार्टी अभी सत्ता में है ही.
2007 के चुनाव की ओर आपको ले जाना चाहेंगे, तब बसपा को बहुमत मिला था. तत्कालीन मुख्यमंत्री मुलायम सिंह राजभवन में त्यागपत्र देकर निकले थे. राजभवन के बाहर पत्रकारों ने उनसे हार की वजह पूछी थी, तो उन्होंने कहा था कि हम कहां हारे हैं, हार तो भाजपा की हुई है. हमारे तो वोट बढ़ गये हैं. अगर भाजपा को उसके वोट मिल जाते, तो आज हम फिर से सत्ता में होते, तब मुलायम सिंह का संदेश बिल्कुल स्पष्ट था. उसी संदेश के सहारे 2012 के चुनाव में बसपा से भी बड़ा बहुमत समाजवादी पार्टी को अकेले मिला था, लेकिन 2014 आते-आते स्थिति ऐसी बदली कि प्रदेश की सत्ता से कोसों दूर रहनेवाली भाजपा केंद्र की सत्ता में यूपी के सहारे पूरे बहुमत के साथ आयी.
अब 2017 की तैयारी में कांग्रेस जितना आगे बढ़ेगी, भाजपा को उतना ही नुकसान होगा, क्योंकि दोनों का वोट बैंक एक है और अगर कांग्रेस वोट काटती है, तो भाजपा की सत्ता की सीढ़ी चढ़ने की लालसा पर ब्रेक लग सकता है.
 

चुनाव यात्रा-5- मोतिहारी, चाय दुकान और चुनाव चर्चा

चुनाव के दौरान ही दुर्गा पूजा और दशहरा त्योहार था. छुट्टी के बाद भी हम चुनाव यात्रा पर थे और गंतव्य था, राष्ट्रपिता महत्मा गांधी की कर्मभूमि चंपारण नवमी की शाम में हम मोतिहारी पहुंच चुके थे. सड़कों और पंडालों में मानो पूरा शहर उमड़ पड़ा था. देर-रात तक गहमा-गहमी जारी थी. पंडालों में नेताओं के चाहनेवाले सक्रिय थे, जो वहां आनेवाले श्रद्धालुओं को वोट बैंक के रूप में देख रहे थे. सेवा कर रहे थे. ये ध्यान रख रहे थे कि सबको प्रसाद मिले और सब पंडित जी से आशीर्वाद ले लें और जब लोग पंडाल के बाहर निकलते थे, तो हाथ जोड़ कर अभिभावदन जरूर करते थे. इसके आगे, तो वोटर अपने समझदार हैं ही. एक-दो स्थानों पर हम लोगों को ही ऐसा ही अनुभवन मिला.
एक स्थान पर तो लोग जान कर गये कि हम पत्रकार हैं, तो वह पीछे हो लिये कि किसी तरह की समस्या नहीं हो. सब ठीक से देख लें. बार-बार मना करने के बाद भी ये कह कर जाने को तैयार नहीं थे कि मेरा सौभाग्य है कि आप लोग मेरे शहर में आये हैं. खैर कुछ देर लगी, लेकिन उन लोगों को हम लोगों ने वापस जाने को राजी कर लिया और अपने साथियों से भी ये कहते हुये विदा ली कि सुबह जल्दी उठ कर शहर का माहौल देखना है. अखबार में देर रात तक काम होता है, सो सुबह देख से उठने की आदत है, लेकिन मोतिहारी शहर का चुनावी माहौल देखने के लिए सुबह पांच बजे ही उठ गया. जल्दी से तैयार होकर हम सड़क पर थे. हमारे होटल के पास ही वो चाय की दुकान थी, जहां पर चुनावी चर्चा सुबह के समय होती थी.
सुबह की सैर से लौटते हुये हम चाय की दुकान पर रुके थे. इसी बीच आसपास लोगों का जमावड़ा शुरू हो गया. सुबह के लगभग सवा छह बजे होंगे. चाय पर चर्चा को जुटे लोग एक दिन पहले नवमी की गहमा-गहमी की समीक्षा और नेताओं के भाषणों पर चर्चा कर रहे थे. इस समय तक राहुल गांधी की चंपारण में सभा हो चुकी थी, जिसमें खास भीड़ नहीं उमड़ी थी. अरेराज की सभा थी वह, जहां बमुश्किल दो-तीन हजार लोग रहे होंगे. अपने रटे-रटाये 15 मिनट के भाषण के बाद जब राहुल गांधी ने सभी प्रत्याशियों से मंच पर आने को कहा, तो केवल एक ही प्रत्याशी पहुंचा, क्योंकि वह भी उनके दल का, जो स्थानीय प्रत्याशी था. इसके अलावा अन्य प्रत्याशी सभा में पहुंचे ही नहीं थे. बाद में एक और प्रत्याशी के आने की चर्चा हुई थी. इसी के साथ सभा समन्न हो गयी थी. चाय की दुकान पर उसकी चर्चा हो रही थी.
चर्चा के बीच प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, मुख्यमंत्री नीतीश कुमार और राजद अध्यक्ष लालू प्रसाद यादव पर फोकस था. स्थानीय समस्याओं को भी लोग तरजीह दे रहे थे, लेकिन इनकी चर्चा का कोई राजनीतिक मायने मेरी समझ से निकलना ठीक नहीं था, क्योंकि इनमें से ज्यादातर किसी न किसी दल से जुड़े थे. जारी..

सोमवार, 17 अक्टूबर 2016

हम निगेटिव बात नहीं करते हैं

लगभग साढ़े पांच साल पहले जब मुजफ्फरपुर आया था, तो सबसे पहले किसी व्यक्ति के यहां जाना हुआ था, तो वो हैं डॉ गोपाल जी त्रिवेदी, पूर्व कुलपति पूसा विश्वविद्यालय. शहर के शोर-शराबे से दूर डॉ त्रिवेदी रिटायर होने के बाद अपने पैतृक गांव में रहते हैं. वहीं, पर उन्नत खेती करवाते हैं और 85 साल की उम्र में भी इतना सक्रिय रहते हैं, उतना शायद ही कोई युवा रह सके.
बंदरा प्रखंड के मतलूपुर गांव में डॉ त्रिवेदी का आवास है. पेड़-पौधों से घिरे उनके घर से चंद कदम की दूरी पर ही बाबा खगेश्वर नाथ का पुरातन मंदिर है, जिसके विकास के लिए डॉ त्रिवेदी लगातार काम कर रहे हैं. पहली बार मुलाकात हुई, तो रविवार का दिन था. सुबह ही युवा साथी अविनाश के साथ उनके आवास पर पहुंच गया. अविनाश ने ही डॉ त्रिवेदी के बारे में बताया था और कहा था कि आपको उनसे मिलना चाहिये. इसी के बाद हम इतनी बड़ी हस्ती के सामने थे. बड़े ही आत्मीय ढंग से  डॉ त्रिवेदी हम लोगों से मिले. इसके बाद गांव-समाज और खेती पर प्रमुख रूप से बात हुई.
डॉ त्रिवेदी ने बताया कि वह गांव में रहते हैं और यहीं पर लोगों को खेती के प्रति प्रोत्साहित करते हैं. पेड़ लगाने का अभियान भी वो बड़े पैमाने पर चला रहे हैं. बातचीत के दौरान उन्होंने कहा कि हम कभी निगेटिव बात नहीं करते हैं. गांव के कई लोग आते हैं, जो एक-दूसरे के बारे में बात करना चाहते हैं, लेकिन हम उन्हें शुरुआत में ही रोक देते हैं. कहते हैं कि अगर कोई अच्छी बात हो, तो करो, नहीं तो ये सुनने का समय मेरे पास नहीं है. पहली मुलाकात में ही डॉ त्रिवेदी की जो छाप मन पर बनी, वो समय के साथ और गहरी होती गयी. डॉ त्रिवेदी की जो बात मुङो सबसे अच्छी लगती है, उसमें उनका पॉजिटिव बात करना सबसे महत्वपूर्ण हैं. अभी डॉ त्रिवेदी मक्का का उत्पादन अपने यहां कैसे बढ़े और कैसे हम मक्का उत्पादन में अमेरिका को पीछें छोड़ दें, इस पर काम कर रहे हैं. वो मक्का की खेती करने के लिए लोगों को प्रोत्साहित करते हैं. गांव में रह कर वो खेती की मूक क्रांति को अंजाम दे रहे हैं.

चुनाव यात्रा-4-अंदाज से तय हो गया था अंजाम

आज (17 अक्तूबर) जिस अंदाज में केंद्रीय मंत्री नितिन गडकरी का हेलीकॉप्टर एलएस कॉलेज मैदान में तय समय से डेढ़ घंटे के बाद उतरता दिखायी दिया, तो सहसा पिछले साल के चुनाव की याद आ गयी. भाजपा की ओर से चुनाव यात्रा के लिए डेढ़ दर्जन से ज्यादा हेलीकॉप्टर शायद किराये पर लिये गये थे, जिनसे एनडीए के नेता विभिन्न इलाकों में प्रचार के लिए निकलते थे. अमूमन हवाई यात्र के मामले में शांत रहनेवाली मुजफ्फरपुर की फिजा में उस समय कोलाहल सुनायी देता था. नेताओं की सभाएं भी उनकी जाति के बाहुल्य वाले इलाके में लगायी जाती थीं, जहां वो जाति धर्म से ऊपर उठ कर वोट करने की मांग लोगों से करते थे.
मुख्यमंत्री नीतीश कुमार व राजद अध्यक्ष लालू प्रसाद की धुंआधार सभाएं हो रही थीं, जिसमें वो केंद्र सरकार को ललकारते थे. केंद्रीय नेता इनकी ओर से उठाये गये सवालों के जवाब देते थे, जबकि ये नेता प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की ओर से उठाये जानेवाले सवालों के जवाब अपनी सभाओं में दे रहे थे. इसी बीच प्रधानमंत्री की सीतामढ़ी में रैली हुई, रैली में पहली बार प्रधानमंत्री ने बिहार के विकास के लिए छह सूत्री फामरूले का एलान किया था, जिसमें बिजली, सड़क व स्वास्थ्य शामिल था. अपने अंदाज में प्रधानमंत्री लोगों से पूछते थे कि बिजली आयी या नहीं, जबकि जमीनी हकीकत ये थी कि बिजली लगातार रह रही थी. ऐसे ही सड़क के मामले में सवाल करते, तो नीचे खड़े लोग उनकी हां में हां मिलाते थे, लेकिन जमीनी हकीकत ये थी कि प्रधानमंत्री योजना से ही ज्यादातर गांवों में सड़कें बनी हैं. ऐसे में लोग सभा के दौरान ही विरोध करने लगते थे. सीतामढ़ी की सभा में ही एक चौकीदार ने प्रधानमंत्री के भाषण के दौरान इधर-उधर बोलना शुरू किया, तो हम लोग उससे पूछ बैठे, तो उसका कहना था कि हम नेपाल के सीमावर्ती इलाके से आये हैं. हमारे यहां सड़क भी है और बिजली भी, हाल के सालों में दोनों की स्थिति बेहतर हुई है, तो प्रधानमंत्री की ओर से ये कैसे बोला जा रहा है.
उसका कहना था कि प्रधानमंत्री उन मुद्दों पर बात क्यों नहीं करते हैं, जो उन्होंने लोकसभा चुनाव के दौरान उठाये थे. उसका कहना था कि उन मुद्दों को बीच में ही नहीं छोड़ा जा सकता है, जिन पर एक पार्टी चुनाव लड़ी और जीत कर सत्ता में आयी. चाहे किसानों की खेती पर लागत और उसमें होनेवाले फायदे का मुद्दा हो या फिर अच्छे दिनों के वादे का मुद्दा. प्रधानमंत्री के बताना चाहिये कि वो अपना वादा कब तक पूरा करेंगे. एक चौकीदार की ओर से उठाये जा रहे इन सवालों को सुन कर हम दंग थे, तभी मुङो चुनाव के अंजाम भी साफ दिखायी पड़ने लगा था, लेकिन जब भी मैं किसी से इसके बारे में बात करता था, तो उसका कहना होता था कि आप लोग सरकार के पक्ष की बात कर रहे हैं. ऐसा होने नहीं जा रहा है. जारी..

शराबबंदी को राष्ट्रीय मुद्दा बनायेंगे नीतीश, मोदी का विकल्प बनेंगे

रविवार को छुट्टी के दिन जब गोवा में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ब्रिक्स सम्मेलन में पड़ोसी देश पाकिस्तान को आतंकवाद से बाज आने की नसीहत दे रहे थे, लगभग उसी समय बिहार के राजगीर में जदयू की राष्ट्रीय कार्यकारिणी मुख्यमंत्री नीतीश कुमार को आधिकारिक तौर पर पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष का काम सौप रही थी. हालांकि इस पद पर नीतीश कुमार अब भी हैं, लेकिन ये कार्यकारिणी इसलिए भी महत्वपूर्ण थी, क्योंकि शराबबंदी पर चल रहे मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के अभियान के बीच इसे बुलाया गया है.
बैठक के दौरान 2019 में होनेवाले लोकसभा चुनाव की तैयारी पर चर्चा हुई और अब पार्टी ने मुख्यमंत्री नीतीश कुमार को खुल कर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के विकल्प के तौर पर 2019 में उतारने का फैसला कर लिया है. इसके लिए मुद्दा शराबबंदी को बनाया जायेगा. शराबबंदी के सहारे मुख्यमंत्री नीतीश कुमार, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को दो साल बाद होनेवाले चुनाव में चुनौती देते नजर आयेंगे. इसके लिए जदयू की ओर से एक राष्ट्रीय गंठबंधन की परिकल्पना की गयी है, जिसकी बागडोर नीतीश कुमार के हाथों में होगी. इसे बनाने की जिम्मेवारी भी मुख्यमंत्री नीतीश कुमार को ही सौंपी गयी है.
मुख्यमंत्री नीतीश कुमार अगले चुनाव में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के विकल्प के तौर पर सामने आयेंगे. इसकी बात अरसे से होती रही है, लेकिन अब वो खुल कर सामने आ गये हैं. पार्टी अध्यक्ष के रूप में फिर से ताजपोशी के बाद मुख्यमंत्री नीतीश कुमार किस तरह से आगे बढ़ते हैं और आनेवाले महीनों में सात निश्चय को लेकर कैसे प्रदेश में काम होता है, ये भी महत्वपूर्ण होगा, क्योंकि इस समय प्रदेश में विकास के कामों में शिथिलता की बात लगातार हो रही है. कहा जा रहा है कि विकास के काम पहले जैसे पटरी पर थे. अब उनकी स्पीड पर ब्रेक लगा है. इसके लिए लोग गंठबंधन में बदलाव का भी सवाल उठा रहे हैं, लेकिन मुख्यमंत्री ने फिर से पूरे प्रदेश के दौरे की योजना बनायी है, जिसमें सात निश्चयों पर बात होगी. ऐसे में इससे क्या निकलता है और अपनी इमेज को राष्ट्रीय बनाने के लिए वो किस तरह से आगे बढ़ते हैं, ये देखना भी दिलचस्प होगा.

फुटपाथ पर नयी दुकान और वो खिलखिलाते चेहरे


ठंड की आहट के साथ सूरज देवता अब थोड़ा पहले ही अस्त हो जाते हैं और साढ़े पांच बजे के बाद लगता है कि शाम ढल गयी. इसी ढली शाम के समय मैं घर से ऑफिस के लिए निकला, तो घर के पास मोड पर जो दृश्य दिखे, वो अपने आप में अद्भुत थे.
गाड़ी बाहर गयी थी, सो पैदल ही ऑफिस जाने का फैसला लिया. घर से लगभग सौ मीटर आगे बढ़ा था, तभी सड़क किनारे नयी झोपड़ी पर निगाह पड़ी. दो युवक झोपड़ी को सजाने में लगे थे. अंदर में नयी बेंच और पेंट की हुई टीन के जालीवाली छोटी अलमारी कहानी कह रही थी कि दुकान लगाने की तैयारी है. देखने से दोनों भाई लग रहे थे. एक भाई बांस की फट्टी से झोपड़ी का दरवाजा बनाने में लगा था, तो दूसरा हाथ पंखा से हवा कर रहा था, दोनों आपस में बात करते हुये प्रसन्न हो रहे थे, जैसे मुद्दतों से देखा हुआ, उनका सपना पूरा हुआ है.
दोनों की निश्छल हंसी देख कर बचपन के दिन याद आ गये. कैसे गांव में जब कोई मेहमान आता था, तो खुशियां फूट पड़ती थीं. गर्मी के दिनों में दो-तीन लोग हाथ पंखा लेकर सेवा में लग जाते थे. पंखा चलाने के साथ हाल-चाल होता था. मेहमान के बार-बार मना करने के बाद भी पंखा बंद नहीं होता था. कहते थे कि हम थकते नहीं हैं और मुस्कराते हुये पंखा झलने की स्पीड बढ़ जाती थी. ये था हमारे सत्कार का तरीका, लेकिन अब सबकुछ कितना बदल गया है.
सुविधाओं के साथ हमने अपनी खुशियों का तरीका भी बदल लिया है. उस तरह से खिलखिला के हंस भी नहीं पाते हैं, जैसे बचपन में होता था, लेकिन सड़क के किनारे झोपड़ी लगा कर आनेवाले जीवन के सपने बुन रहे दो भाई जिस तरह से आपस में बात करके हंस रहे थे. उसमें कई संदेश छुपे लगे. अगर हम लोग भी ऐसे प्रसन्न रहना फिर से सीख लें, तो शायद जो कष्ट हैं, वो छूमंतर हो जायेंगे, लेकिन सवाल ये भी उठता है कि आखिर बचपन का ये हुनर कैसे हमसे दूर हो गया? क्यों हम ऐसे हो गये? क्या हम फिर से पहले जैसे नहीं हो सकते? इन्हीं सवालों के उधेड़ बुन में ऑफिस के रास्ते आगे बढ़ने लगा. रास्ते में स्टेशन पड़ा, तो जीवन कैसे चलता है. इसका एहसास हुआ, क्योंकि एक साथ कई ट्रेनों के बारे में बताया जा रहा था कि कौन सी ट्रेन किस प्लेटफॉर्म नंबर पर आनेवाली है.
ट्रेन की एनाउंसमेंट व यात्रियों की चहल-पहल के बीच मन में वही सवाल घूम रहा था और उत्तर की तलाश कर रहा था. इसी बीच दो ऐसे व्यक्ति दिखायी दिये, जो ट्रेन पकड़ने के लिए स्टेशन पर आये हुये थे, इनके चेहरों पर परदेश जाने का दर्द दिख रहा था. ये आपस में परिवार व माता-पिता को लेकर बात रहे थे. कह रहे थे कि अगर मजबूरी नहीं होती, तो कौन घर छोड़ के बाहर जाता?

सोमवार, 10 अक्टूबर 2016

शहर में गांव को तलाशता मन

रोजी-रोटी के सिलसिले में बड़ी आबादी को अपनी जड़ से उखड़ (गांव से विस्थापित) कर बाहर रहना पड़ता है. महानगरों की चकाचौध में गंवई अंदाज के ऐसे से लोग आसानी से मिल जायेंगे. मुजफ्फरपुर शहर में गांव की खुशबू मिल जाती है, क्योंकि यहां रहनेवाली बड़ी आबादी आसपास के गांवों की है, जो अपने गांवों से जुड़ी है, लेकिन हम जैसे लोग, जो अपने गांव से सैकड़ों किलोमीटर दूर हैं, उन्हें गांव की याद आती है.
ये याद तब और बढ़ जाती है, जब किसी को गांव जाते हुये दिख जाता है. हमारे एक मित्र हैं, कहते हैं कि मेरी सुबह गांव में होती है, क्योंकि मैं किसान हूं. सुबह उठते ही गांव का रुख करता हूं. हां, शाम भले ही शहर में हो, क्योंकि गांव में पढ़ाई के साधन नहीं है, सो बच्चों को पढ़ाने के लिए शहर में घर बनाना पड़ा, क्योंकि धरती मां से जुड़े रहने के साथ हमें बदलते समय के साथ भी चलना है, ताकि आनेवाली पीढ़ियां हमें उलाहना नहीं दे सकें कि हमने अपने लिये उन्हें शहर में नहीं पढ़ाया.
गांव और शहर में जो बुनियादी फर्क दिखता है. मेरी समझ से वो ये है कि यहां लोगों का एक-दूसरे से मतलब नहीं होता है, लोग अपने बगलवाले तक को कई बार नहीं जानते है कि उसका नाम क्या है और वो क्या करता है, जबकि गांव में ऐसा नहीं है. वहां लोग एक-दूसरे के बारे में जानते ही नहीं, उनके सुख-दुख में भी शामिल भी होते हैं. मशहूर शायर मुनव्वर राना ने इसे शिद्दत से महसूस किया, उनका एक शेर है..
तुम्हारे शहर सब मय्यत का कांधा नहीं देते,
हमारे गांव में छप्पर भी सब मिलकर उठाते हैं.
गांव और शहर का यही बदलाव हमें सोचने पर मजबूर करता है और उस गांव की याद दिलाता है, जहां पर इतनी जद्दोजहद नहीं है, जहां आपस में फरेब नहीं है. मक्कारी नहीं है. सब आपस में मिल कर रहते हैं. गांव की आबोहवा भी इतनी दूषित नहीं है, जितनी शहरों की है, क्योंकि यहां गाड़ियों का अंबार है. वायु से लेकर ध्वनि प्रदूषण तक की मार है, लेकिन गांव में पेड़-पौधों के बीच शुद्ध हवा मिलती है, जो जीवनदायिनी है, लेकिन विकास के जिस मॉडल पर हमारा समाज चल रहा है, उसमें शहरों पर निर्भरता लगातार बढ़ती जा रही है, जो गांव के लिए ठीक नहीं है.

रविवार, 9 अक्टूबर 2016

मां की कृपा ऐसे ही बरसती रहे

महासप्तमी यानी शनिवार के दिन दोपहर बाद दो बजे जब बादल उमड़-घुमड़ कर आसमान में घिरे और बारिश शुरू हुई, तो लगा कि इस बार पूजा में श्रद्धालुओं को परेशानी होगी. शनिवार रात और शुक्रवार की सुबह से लेकर दोपहर बाद तक लगातार हल्की बारिश लोगों को निराश कर रही थी, लेकिन मां ने चमत्कार किया और तीन बजे के बाद मौसम खुलने लगा, चार बजे तक धूप खिल चुकी थी.
काम के सिलसिले में शहर से बाहर था, लौटते समय रास्ते में धूप के साथ छोटी-छोटी दुकानें सजती देखीं, तो मेरे साथी ने कहा कि अब देखिये, छोटे दुकानदारों के चेहरे खिलने लगे हैं. इन्होंने बड़ी तन्मयता से तैयारी कर रखी होगी मेले के, लेकिन जिस तरह की बारिश थोड़ी देर पहले तक हो रही थी, उससे इन लोगों के चेहरे मुरझाये रहे होंगे, लेकिन मां ने इनकी सुन ली और अब इनकी तैयारी का फल मिलेगा.
शाम पांच बजे तक शहर की सड़कों पर ज्यादा भीड़ नहीं थी, लेकिन सात बजते-बजते सड़कों पर जन सैलाब उमड़ पड़ा और पूरा शहर मेलामय हो गया. रंग-बिरंगी रोशनी की बीच सजी छोटी-छोटी दुकानें सुकून दिला रही थीं और बचपन की याद भी, लेकिन अब और तब में एक अंतर था. तब मेले में पेट्रोमैक्स से रोशनी की जाती थी. उसी की रोशनी के बीच देर रात तक मेला चलता था. अब तो बिजली रहती है और चीजें पहले से सरल हो गयी हैं. जय मां.

शनिवार, 8 अक्टूबर 2016

शराबबंदी का संदेश, ये तरीका भी अच्छा है

महासप्तमी में मां की पूजा के साथ पूजा पंडालों के पट खुल गये श्रद्धालु मां के दर्शन कर रहे हैं. अभी थोड़ी देर पहले एक तस्वीर देखने को मिली सीमांचल के इलाके पूर्णिया की, जिसकी चर्चा पहले से काफी रही है, लेकिन इस बात की चर्चा सुखद है. यहां के एक पूजा पंडाल में शराबबंदी का संदेश दिया गया था. कैसे शराब हमारे लिये नुकसानदायक है, इसके बारे में चित्रों के जरिये बताया गया है.
पूजा पंडाल के जरिये ऐसा संदेश दिये जाने के अपने मायने हैं, क्योंकि मेरा ये मानना है कि शराबबंदी का फैसला बिहार सरकार ने एक बड़ी आबादी को ध्यान में रखते हुये लिया है. बदली हुई परिस्थितियों में पूजा पंडाल के जरिये इस संदेश के अपने मायने हैं. याद करिये आज से छह माह पहले का समय जब प्रदेश में शराबबंदी लागू नहीं थी. शाम होते ही सड़कों से चलना मुश्किल होता था. सड़कों के किनारे ही मोटरसाइकिलों पर चलती-फिरती शराब की दुकानें सज जातीं. ठेलों के जरिये भी पीने-पिलाने का काम शुरू हो जाता था. इसके बाद लड़ाई-झगड़ा मारपीट और सड़क दुर्घटना आम बात थी.
शराब के नशे में लोग एक-दूसरे से लड़ते और देख लेने की बात करने लगते थे. अब कहेंगे कि इसको रोकने के लिए प्रशासन तो था, तो प्रशासन की भी एक सीमा थी. वह काम करता था, लेकिन सब जगह तो व्याप्त नहीं हो सकता, लेकिन शराबबंदी के बाद हालात बदल गये. अब उन स्थानों को देख कर अच्छा लगता है कि जहां पर पहले शराब बिकती थी. वहां कहीं दूध बिक रहा है, तो कहीं होटल खुल गया है. लोग परिवार के साथ खाना खाने आ रहे हैं.
बात पूर्णिया के पूजा पंडाल की हो रही थी. यहां पर पंडाल में शराबबंदी के साथ बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ का संदेश भी दिया जा रहा है. बेटियों को पढ़ाने और उनको आगे बढ़ाने को लेकर हम लोग कितने सजग हैं. ये कहने की जरूरत नहीं है, क्योंकि अगर ऐसा होता, तो इस श्लोगन की जरूरत सरकार को नहीं पड़ती. इसके अलावा यहां पर उड़ी हमले में शहीद देश के 18 वीर सपूतों को श्रद्धांजलि भी दी जा रही है.

जय मां


चुनाव यात्रा- 3: जोर है और जोर रहेगा

बस यात्रा भी चुनाव कवरेज में अहम रही. मुजफ्फरपुर से समस्तीपुर जाने के दौरान दो एक बस बदलनी पड़ी. मुजफ्फरपुर की सीमा तक एक बसे ने ले जाकर उतार दिया. बस में इतनी भीड़ कुछ कहते नहीं बन रहा था किसी तरह बोनट पर जगह मिली और यात्र शुरू हुई. बस के आगे बढ़ते ही चुनाव पर चर्चा शुरू समीकरण बनने और बिगड़ने की बात होने लगी. एक मास्टर साहब कहने लगे, आप लोग जितना गुड़ा-भाग लगा लीजिये. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का एक दौरा होगा, रुख बदल जायेगा. मास्टर साहब के इतना बोलते ही एक महिला शिक्षिका ने कहा, 2014 बीत गया है. ये लोकसभा नहीं विधानसभा का चुनाव है. कहां हैं आप. क्या हुआ है, पिछले 17 महीने में आप बतायेंगे. दाल का क्या दाम है? सब्जी किस भाव में मिल रही है? तेल का दाम कहां जा रहा है? किसान कैसे परेशान हो रहा है? कहां पर सुधार हुआ है?
सवालों की झड़ी के बीच बस में सवारियों का जोर भी बढ़ता जा रहा था. गेट पर तीन-चार लोग लटके हुये थे, जिनके बैग घूमते-फिरते हमारे पास आ गये और उन्हें संभालने के जिम्मेवारी हमको मिल गयी, क्योंकि हम बोनट के पास थे. खलासी ने कहा कि अभी धरिये, जब उतरने लगेंगे, तो बढ़ा दीजियेगा. बस में हम नये थे, बाकी लगभग सब लोग एक-दूसरे के परिचित थे, जिनका लगभग रोज इसी बस से आना जाना होता था, क्योंकि बस स्कूल टाइम से जा रही है. मुङो भी समस्तीपुर पहुंचने की जल्दी थी, क्योंकि तत्कालीन जल संसाधन मंत्री विजय चौधरी के क्षेत्र सरायरंजन को देखने की ललक थी, जहां को लेकर तमाम तरह के कयास लगाये जा रहे थे.
इधर, शिक्षिका के सवालों से तिलमिलाए मास्टर जी कहने लगे ऐसे थोड़े हो जाता है, समय लगता है. इतना पुराना रोग है. ऐसे ठीक हो जायेगा. काम हो रहा है, कुछ साल लगेंगे सुधार में, तब असर दिखेगा. एतना जल्दी नतीजा पर नहीं पहुंचना चाहिये. अभी कुछ समय दीजिये. बताइये ना कि जब से भाजपा से गंठबंधन टूटा है, बिहार का क्या हाल हुआ है? यहां की बात काहे नहीं करती हैं? यहां का भी तो देखना होगा, इसको ऐसे थोड़े छोड़ा जा सकता है. यह तो देखना पड़ेगा और जो आप कह रही हैं ना, देखियेगा, जोर रहा है और जोर रहेगा.
जारी..

शुक्रवार, 7 अक्टूबर 2016

सर, हम तो अपनों के साथ हैं..ये कुछ भी कहें

चुनाव यात्रा के दौरान गांव-गली, खेत-खलिहान में जाने का मौका मिला. इस दौरान मुजफ्फरपुर के सकरा इलाके में पहुंचा, तो वहां की सड़कों पर किसी तरह की हलचल नहीं दिख रही थी. प्रत्याशियों के चुनाव कार्यालय के पास लाउडस्पीकरों से ही चुनाव के माहौल का एहसास हो रहा था और कहीं पर कोई सुगबुगाहट नहीं दिख रही थी. खेतों में किसान काम कर रहे थे.
सकरा इलाके में बैगन चौक है. मैंने पहली बार किसी सब्जी के नाम पर किसी चौक का नाम सुना, तो सुखद आश्चर्य हुआ था. यहां मैं पहले भी आ चुका हूं, तब बताया गया था कि यहां बैगन एक-दो रुपये किलो मिलता है, जो बाजार में पहुंचते-पहुंचते दस रुपये तक पहुंच जाता है. यानी तीस किलोमीटर की यात्र तय करने पर जो सब्जी दो रुपये किलो थी, वो दस रुपये किलो हो गयी. यह अंतर आखिर किसकी जेब में जाता है, क्योंकि किसान को तो वही दो रुपये मिले, जिसमें उसने खेत से बैगन को बेचा, जाहिर बता है कि इसमें बिचौलियों को बड़ा हिस्सा मिलता है. इसी को कम करने की बात दशकों से हो रही है, लेकिन ये हो नहीं पा रहा है. अब भी बदस्तूर जारी है.
बैगन चौक के पास ही एक पिता-पुत्र खेत से सब्जी निकालने में जुटे थे. दस बोरे सब्जी इन्होंने तैयार कर रखी थी. गाड़ी का इंतजार हो रहा था कि वो आये और उसे शहर की बाजार भेज दिया जाये. इसी बीच दोनों से बात शुरू हुई, तो कहने लगे कि पास में एक स्वयं सेवी संगठन का ऑफिस है. वहां पर और लोग हैं, जिनसे हम बात कर सकते हैं. हम पिता-पुत्र के साथ हो लिये और स्वयं सेवी संगठन के दफ्तर में पहुंच गये, जहां पहले से पांच-सात लोग बैठे थे. चुनाव पर चर्चा शुरू हुई, तो किसान केंद्र से लेकर राज्य सरकार के कामकाज पर बात होने लगी. इसी बीच किसान की ओर से कहा गया कि हमारे लिए कौन है. कहा गया था कि लागत का डेढ़ गुना मिलेगा, लेकिन अभी कुछ हुआ है क्या? इस पर एनजीओ से जुड़े लोगों ने प्रतिवाद किया और कहने लगे कि समय देना चाहिये, ये कोई जादू की छड़ी नहीं, जो तुरंत हो जायेगा. इसमें समय लगेगा. सरकार सिस्टम को सुधारने में लगी है, आनेवाले कुछ सालों में इसका जमीन पर असर दिखेगा. इस पर बहस शुरू हुई, तो बात आगे बढ़ती जा रही थी. इसी बीच किसान के बेटे ने धीरे से कहा कि बात चाहे, जो हो हम तो अपनी जाति के साथ हैं. आप लोग कहते रहिये, हम तो वोट उसी को देंगे, जो हमारी जाति का है.
किसान के बेटे की ये बात चुनाव की बहस की उस तासीर से हट कर थी, जिस पर बात हो रही थी, क्योंकि लोग आदर्श स्थिति की बात कर रहे थे, लेकिन उस युवक ने मन की बात कह दी, जो कहीं तक सामाजिक ढाचे में फिट बैठती थी. मुङो भी इस समय तक इसका आभास हो चुका था कि चुनाव किस दिशा में जानेवाला है, क्योंकि इस तरह की बातें पहले भी सामने आती रही हैं और जमीनी हकीकत भी मुङो यही लगती है.
जारी 

हाइकोर्ट के फैसले पर सुप्रीम कोर्ट की रोक

बिहार में शराबबंदी कानून को लेकर पटना हाइकोर्ट ने जो फैसला दिया था. सुप्रीम कोर्ट ने उस पर रोक लगा दी है. हाइकोर्ट ने कानून को रद्द करने का फैसला सुनाया था, उसी दिन बिहार सरकार ने इसको सुप्रीम कोर्ट में चुनौती देने की बात कही थी. इसके बाद बिहार सरकार ने मामले पर सुप्रीम कोर्ट का रुख किया था.
आज सुनवाई करते हुये सुप्रीम कोर्ट ने हाइकोर्ट के फैसले पर रोक लगा दी है. इसे बिहार सरकार के लिए बड़ी राहत के रूप में देखा जा रहा है, क्योंकि मुख्यमंत्री नीतीश कुमार का कहना है कि वो हर हाल में शराबबंदी के पक्ष में हैं. इसको लेकर हर तरह का कदम उठाने को तैयार हैं. प्रदेश में शराबबंदी का नया कानून दो अक्तूबर से लागू हो गया है, जो पहले के कानून से ज्यादा कड़ा है. इस कानून को लेकर सवाल उठाये गये थे, जिस पर मुख्यमंत्री का कहना है कि वो विपक्ष की ओर से आनेवाले संसोधनों पर बात करने के लिए तैयार हैं. मुख्यमंत्री ने इसको लेकर कुछ सवाल भी उठाये थे, जिन पर विपक्ष से सुझाव मांगे थे. अब विपक्ष का काम है कि वो सरकार के सामने अपने सुझाव रखे, ताकि उसकी जो आशंकाएं हैं, उन्हें दूर करने की दिशा में काम हो सके.
पांच अप्रैल को जब प्रदेश में पूर्ण शराबबंदी लागू हुई थी. उस समय विपक्ष ने मुख्यमंत्री के कदम की सराहना की थी. उसने मुख्यमंत्री नीतीश कुमार को इसके लिए बधाई भी दी थी. प्रदेश में लगभग हर तरफ से शराबबंदी का स्वागत हुआ था. इसके नतीजे भी छह माह में आने लगे हैं. कितने परिवारों में खुशियां फिर से लौट आयी हैं.

गुरुवार, 6 अक्टूबर 2016

चुनाव यात्रा और छोटी लाइन का सफर

2015 में इन दिनों बिहार में विधानसभा चुनाव के प्रचार की धूम थी. कयासों का दौर जारी था. इस बीच ग्राउंड रिपोर्ट के लिए मैं भी जिलों का दौरा कर रहा था. कभी बस पर सवार होकर जाता, तो कभी लोकल ट्रेन का सफर. इस बीच सबसे यादगार सफर झंझारपुर से सकरी तक छोटी लाइन की ट्रेन का रहा. लगभग 17 किलोमीटर की दूरी छोटी लाइन की ट्रेन ने दो घंटे में तय किया. इस दौरान शाम हुई, तो ट्रेन में घुप्प अंधेरा छा गया, लेकिन ट्रेन में चहल-पहल कम नहीं थी. हमने जिन परिवारों से बात की थी, उनमें एक ऐसा परिवार था, जो गंगा स्नान के लिए जा रहा था. उसके घर में किसी का निधन हुआ था. द्वादसा के बाद पूरा परिवार गंगा स्नान के सफर पर था. उन लोगों ने जमीनी हकीकत बयान की थी.
झंझारपुर से ट्रेन खुलने के कुछ देर बाद ही वो पुल भी देखने को मिला, जिसको पहले तस्वीरों में देखता था, जहां पर रेल पुल पर वाहन भी दौड़ते हैं, लोग पैदल चलते हैं. जैसे ही ट्रेन आती वाहन रुक जाते. ऐसे ही मेरी भी ट्रेन ने इस पुल को पास किया. पुल के एक छोर से दूसरे छोर पर ट्रेन पहुंची, तो वहां पर वाहनों की लाइन लग गयी थी. पुल क्रास होते ही वाहन पुल पर दौड़ने लगे. मुङो इसका थोड़ा नजारा देखने को मिला, क्योंकि ट्रेन के डिब्बे से ज्यादा नहीं दिख रहा था. हमारे पास ही दो भाई बैठे थे, जो झंझारपुर में पढ़ाई करते थे. वहां हास्टल में रहते थे. गांव जा रहे थे. दोनों के पास कॉपी-किताबों से भरा बैग था. इनके पित झंझारपुर में ही एसडीओ ऑफिस में काम करते हैं, उन्होंने डेरा (घर) भी झंझारपुर में बना रखा था, लेकिन दोनों बच्चों को पढ़ने के लिए हॉस्टल में डाल रखा था, ताकि उनकी पढ़ाई बाधित नहीं हो.
झंझारपुर स्टेशन से सकरी की यात्र कई मामलों में अविस्मरणीय रही. झंझारपुर स्टेशन इस रेलखंड के प्रमुख स्टेशनों में है, लेकिन यहां ज्यादा भीड़भाड़ नहीं है. स्टेशन के बाहर परंपरागत रूप से नाई जमीन पर अपनी दुकान सजाये बैठे हैं, जहां ईंट पर बैठ कर बाल और दाढ़ी बनायी जाती है. पास में कुछ रिक्शे हैं. स्टेशन परिसर में सब्जी की कुछ दुकानें भी दिख जायेंगी. पूरा गंवई नजारा, लेकिन पास की बाजार में भीड़ रहती है. झंझारपुर को कोसी क्षेत्र का प्रवेश द्वार भी कहा जाता है, यहां की बाजार देखने से पुरानी लगती है. दूर-दूर से लोग यहां खरीदारी को आते हैं. आवागमन का ज्यादा साधन यहां नहीं है या तो अपनी सवारी या फिर छोटी लाइन की ट्रेन का सफर.
बाढ़ का असर भी इस इलाके पर बहुत जल्दी होता है. जल्दी कोसी और कमला बलान का पानी यहां तबाही मचाना शुरू कर देता है. ट्रेन परिचालन बंद हो जाता है. इस सबसे अलग पिछले विधानसभा चुनाव में माहौल की बात करें, तो मुङो यहीं पर रेल यात्र के दौरान ये लगा था कि माहगंठबंधन की सरकार बन जायेगी. एनडीए गंठबंधन की चर्चा भले ही हो, लेकिन उसकी सरकार बननेवाली नहीं है. इस बात की चर्चा जब मैंने अपने परचितों से की, तो उन्होंने परिहास किया, लेकिन जब परिणाम आया, तो सभी स्तब्ध थे. मुङो अपने अनुमान की पुष्टि होते देख कर अच्छा लग रहा था, क्योंकि जनता का जो मूड था, वो साफ तौर पर दिखायी दे रहा था, लेकिन उसे समझने के लिए कोई तैयार नहीं था.
..जारी.

बुधवार, 5 अक्टूबर 2016

ये भी कोई बात है महराज

देखो, आपके दल के एक-दो नेता जो बात कर रहे हैं. वो देश के लिए ठीक नहीं है. ये भी कोई बात है महराज, जो मन में अये, वो बोलने लगे. सेना की कार्रवाई का सबूत मांग रहे हैं. आखिर हो क्या गया है उनको? आप लोग भी है विरोध नहीं करते. शहर के नुक्कड़ पर ये कहते हुये सत्तापक्ष के एक नेता ने विपक्ष के साथी पर तंज कसा, तो विपक्षी दल का नेता उन्हें देखता रह गया. बिना कुछ बोले बातें सुनता रहा. कुछ देर के बाद जब नहीं रहा गया, तो कहने लगा कि हमारे नेता ने तो पहले ही कार्रवाई की सराहना की है. आप कहां की बात कर रहे हैं. हम तो सरकार के साथ हैं, देश के साथ हैं, जो होगा हम तो देश की ही बात करेंगे. हमारे जवानों ने ऐसा दर्द दिया है कि पड़ोसी को कुछ कहते नहीं बन रहा है. अब संयुक्त अधिवेशन बुला रहा है. अगर सजिर्कल स्ट्राइक नहीं हुआ है, तो पड़ोसी को इतनी मिर्ची क्यों लगी है. उसको चुप रहना चाहिये, दुनिया समझ जायेगी, लेकिन इस बार घाव गंभीर है, जो रह-रह कर दर्द दे रहा है. उससे रहा नहीं जा रहा है.
पक्ष के नेताओं के बीच ये बात चल ही रही थी, तभी आसपास कुछ लोग और जुट गये और कहने लगे कि अब तो चश्मदीदों तक के बयान अखबार में आ गये हैं. कैसे सजिर्कल स्ट्राइक हुआ है, वो आंखों देखी हाल बता रहे हैं. कह रहे हैं कि स्ट्राइक के अगले दिन सुबह के समय ट्रक से शव ढोये गये हैं. कैसे और किस जगह पर सेना ने कार्रवाई की है. इसके बारे में भी बता रहे हैं, अब क्या सबूत चाहिये? इससे भी बड़ी बात हो सकती है क्या? सब तो साफ हो गया है कि गाल बजाने से कुछ थोड़े होनेवाला है. हम लोग सही ट्रैक पर जा रहे हैं. ऐसे ही जवाब पहले भी दिया जाना चाहिये थे, तब इतनी हिम्मत नहीं पड़ती. नुक्कड़ की इस बात की तरह पूरे शहर में पड़ोसी देश के साथ रिश्तों में आयी तल्खी पर हर जगह बात हो रही है. सब जगह देश और देशभक्ति का जज्बा दिख रहा है. लोग देश को ऊपर बता कुछ भी कर गुजरने की बात कह रहे हैं. जय हिन्द. 

इतना अविश्वास ठीक नहीं

भारत की ओर से किये गये सजिर्कल स्ट्राइक को लेकर सरकार पर अविश्वास जताना और उससे सबूत मांगने की बात ऐसे हालात में क्या उचित है, जो अभी भारत-पाकिस्तान के बीच बने हुये हैं. उन बड़बोले नेताओं को इसके बारे में समझना चाहिये, देश क्या चाहता है. यहां के लोग क्या चाहते हैं, आखिर ये देश का सवाल है.
गांव में एक कहावत है, जिस पत्तल में खाना, उसी में छेद करना. क्या हमारे देश के कुछ माननीयों के लिए उचित है. भारत सरकार अगर कह रही है, कार्रवाई हुई है, तो भारतीय होने के नाते हमें उस पर विश्वास करना चाहिये. इस मामले में बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार का स्टैंड शुरू से साफ रहा है. उन्होंने पहले ही दिन स्पष्ट कर दिया था कि भले ही केंद्र सरकार के साथ उनके मतभेद हों, लेकिन देश के सवाल पर वह सरकार के साथ हैं और वो लगातार इस बात को दोहराते आ रहे हैं, लेकिन कुछ नेता ऐसे हैं, जो सरकार पर ही सवाल उठा रहे हैं. ऐसा करके वो क्या कहना चाह रहे हैं. अपने देश की सरकार पर सवाल उठा कर क्या वो प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से पाकिस्तान का पक्ष मजबूत करने का काम नहीं कर रहे हैं. इस पर विचार की जरूरत है.
एक शहरी होने के नाते भले ही हमे जानने का अधिकार है कि क्या हो रहा है, लेकिन किस परिस्थिति में हम ये जानने की कोशिश कर रहे हैं. इसके बारे में भी समझना होगा. भारत-पाकिस्तान पड़ोसी हैं. अब से कुछ दशकों पहले एक ही थे, लेकिन बंटवारे के बाद से स्थितियां अलग हो गयीं. हमें जमीनी हकीकत को समझ कर उस पर आगे बढ़ना चाहिये. सोशल साइट्स पर इसको लेकर तमाम तरह की बातें हो रही हैं, लेकिन मेरा भी प्रख्यात अभिनेता नाना पाटकर की तरह यही मानना है कि देश सवरेपरि है. उसके बाद ही कुछ और आता है. कौन क्या कह रहा है, अभी इस पर ध्यान नहीं देना चाहिये. शायद सरकार यही कर रही है. जय हिन्द!

साधना करो, व्यक्तित्व निखर जायेगा


नवरात्र का समय है. मां की साधना में पूरा देश जुटा है. कोई पूरे नवरात्र व्रत है, तो कोई रोज मंदिरों में मां की पूजा के लिए जा रहा है. मां की पूजा का तरीका अलग हो सकता है, लेकिन सभी मां की कृपा चाहते हैं. अपनी साधना से मां को प्रसन्न करना चाहते हैं, ताकि उनकी मनकामना पूरी हो. साधना में शक्ति होती है. ये उन सभी लोगों को पता है, जो मां में विश्वास रखते हैं. मुनव्वर राना का एक शेर है..
मुङो बस इसलिए बहार अच्छी लगती है,
कि ये भी मां की तरह खुशगवाह लगती है.
कहने को ये बात कही जाती है कि सब दिन भगवान के हैं, किसी विशेष दिन पूजा क्या करनी, लेकिन कुछ खास दिन होते हैं, जिन्हें हमारे पूर्वजों ने तय कर रखा है. ये हमे आनेवाले समय के लिए तैयार करते हैं. हाल में ही देश के एक महानगर में जाना हुआ, जहां कॉलेज के साथी से मुलाकात हुई. उनसे फोन पर लगातार बात होती रहती थी. लगभग साल भर पहले की बात है, तब मैंने उनसे साधना की बात की थी. विपश्यना के बारे में बताया था. मुङो एक विपश्यना केंद्र में जाने का मौका मिला था. वहां से शिक्षक से बात करने का मौका मिला था. उनसे काफी चीजें सीखने को मिली थीं. मन था कि दस दिन की विशेष साधना मैं भी करूं, लेकिन कर नहीं सका. इससे पहले विश्वयना के बारे में तब जाना था, जब दिल्ली में काम करता था. वहां हमारे चैनल में वरिष्ठ पद पर काम करनेवाले एक व्यक्ति की भतीजी का यूपीएससी में पहली बार में सेलेक्शन हुआ था.
यूपीएससी में चयनित छात्र से जब मिलने का मौका मिला, तो उन्होंने बताया कि मेरी सफलता का राज साधना में है. मैं विपश्यना करती हूं. यूपीएससी का साक्षात्कार देने के पहले मैं विपश्यना को गयी थी, तब से मन में था. मैं जब ज्यादा परेशान होता हूं, तो स्वामी सत्यानंद के योगनिद्रा का अभ्यास करता हूं. बहुत फायदा होता है, लेकिन बात मित्र की हो रही थी. उन्हें जब मैंने विपश्यना के बारे में बताया तो उन्होंने इंटरनेट पर सर्च करना शुरू किया और जल्द ही मुंबई में जाकर विपश्यना में शामिल हो गये. दस दिन बाद लौटे तो उनकी बोली-बानी बदली हुई थी. उनमें पहले से काफी बदलाव था. कहने लगे कि जीने का मकसद मिल गया है. अब जिंदगी पहले से आसान हो गयी है.
साल भर पूरा हुआ, तो वह फिर से विपश्यना में जाने को तैयार हैं, आज ही उन्होंने दोबारा साधना शुरू की. साधना में जाने से पहले फोन कर कहने लगे कि साधना में बड़ी शक्ति होती है. मुङो लगता है कि हर साल साधना का अभ्यास गुरु के जरिये करना चाहिये. इसी वजह से मैं फिर से साधना पर जा रहा हूं. मुङो लगता है कि इस बार मैं और अच्छा इंसान होकर बाहर निकलूंगा. मेरे मित्र ने जिस तरह से साधना पर विश्वास जताया और दिखाया. उससे मुङो भी लगता है कि उन्हें और बेहतर इंसान होने से कोई रोक नहीं सकता है. ओइम्.

सोमवार, 3 अक्टूबर 2016

हम अपने देखने का नजरिया क्यों नहीं बदलते?

इसे सोच कहें या खराबी. हमारी लोगों की हर चीज में मीन-मेख निकालने की आदत सी हो गयी है. राजनीति तो हम, हर चीज में देखने लगे हैं, लेकिन क्या ये भी सच नहीं है कि राजनीति ही देश को दिशा दे रही है. उसी के आधार पर देश चल रहा है. हम भले ही राजनीतिज्ञों से नफरत करें, लेकिन सच्चई को झुठला सकते हैं क्या?
राजनीति और राजनीतिज्ञों पर टिप्पणी करने से पहले ये सोच लेना जरूरी होगा कि इसमें हमारा योगदान कितना है? हमने कैसे लोगों को आगे बढ़ाया है, जिन पर टिप्पणी करने की जरूरत पड़ रही है. बिहार में शराबबंदी का ऐलान हुआ, तो ज्यादातर लोगों ने इसे ऐतिहासिक बताया. अब जब छह माह पूरे हो चुके हैं, तो इसका बदलाव समाज के उस तबके पर साफ दिख रहा है, जो इससे सबसे ज्यादा प्रभावित था. ये तबका है, समाज के अंतिम पायदान के लोगों का, जो रोज मेहनत मजदूरी करते हैं, तो उन्हें दो जून की रोटी मिलती है. बंदी के बीच हाइकोर्ट का फैसला आया, तो ऐसे लोग सक्रिय हो गये, जो शराबबंदी में राजनीति देख रहे हैं. उन्हें लगा कि अच्छा मौका है, सरकार को घेरा जा सकता है, लेकिन सरकार ने नया कानून दो अक्तूबर से लागू कर दिया है. मुख्यमंत्री नीतीश कुमार संकल्प शक्ति दिखा रहे हैं. वो हर हाल में शराबबंदी के पक्ष में हैं. हाइकोर्ट के फैसले के खिलाफ सरकार सुप्रीम कोर्ट में चली गयी है.
बात हो रही है कि किसी पर फैसला थोपना नहीं चाहिये. उसकी मर्जी पर छोड़ना चाहिये कि उसे पीना है या नहीं, लेकिन इससे आगे बढ़ कर हमें उन परिवारों के बारे में क्यों नहीं सोचते, जहां शराब की वजह से चूल्हा जलने तक पर संकट था. वहां क्या राजनीति हो सकती है. कोई व्यक्ति दिन भर काम करता है. शाम को घर आते समय दिन भर की कमाई को पीने में गवां देता है. घर आकर पत्नी से खाना मांगता है. पत्नी तो कमाने जाती नहीं है, जो खाना लेकर आयेगी. खाना नहीं मिला, तो वो मारपीट पर उतारू हो जाता है. उसके बच्चे किस हालत में हैं. उन्होंने खाना खाया या नहीं. इसकी चिंता उसे नहीं होती है. तर्क-कुतर्क करनेवालों या तो ये चीजें नहीं दिखती हैं या फिर ये जान कर भी अनजान बनने की कोशिशा कर रहे हैं. वो अगर अपने देखने का नजरिया बदल लें, तो बहुत चीजें बदल जायेंगी. तब वो शायद इस स्तर पर विरोध भी नहीं करें.
आंखों देखी
लगभग दो साल पहले शाम के समय टहलने के लिए निकला था. उस दिन मार्निग वॉक नहीं हो पाया था. सो शाम को उसकी भरपाई करने की सोची. शाम के लगभग आठ बजने वाले थे. बूढ़ी गंडक के किनारे बांध पर पहुंचा, तो वहां जोर-जोर से आवाज आ रही थी. लगभग 20 साल का युवक अपनी पत्नी पर गुस्सा उतार रहा था. पत्नी किसी तरह से अंगीठी जलाने की कोशिश कर रही थी, ताकि वो कुछ बना सके. युवक नशे में धुत था. उसे ये नहीं सूझ रहा था कि वो क्या कह रहा है. उसकी सब बातें सुनने के बाद भी पत्नी इस यत्न में लगी थी कि घर में कुछ खाना बन जाये. आसपास के लोग कुछ कहते, तो अजीव से तर्क देकर उन्हें चुप कराने की कोशिश करता और फिर गुस्सा होकर पत्नी को भला-बुरा कहता. शराब बंदी के बाद ऐसे घरों की स्थिति बदली है. अब वहां वो शोर नहीं सुनायी देता, जो पहले था.