शुक्रवार, 7 अक्टूबर 2016

सर, हम तो अपनों के साथ हैं..ये कुछ भी कहें

चुनाव यात्रा के दौरान गांव-गली, खेत-खलिहान में जाने का मौका मिला. इस दौरान मुजफ्फरपुर के सकरा इलाके में पहुंचा, तो वहां की सड़कों पर किसी तरह की हलचल नहीं दिख रही थी. प्रत्याशियों के चुनाव कार्यालय के पास लाउडस्पीकरों से ही चुनाव के माहौल का एहसास हो रहा था और कहीं पर कोई सुगबुगाहट नहीं दिख रही थी. खेतों में किसान काम कर रहे थे.
सकरा इलाके में बैगन चौक है. मैंने पहली बार किसी सब्जी के नाम पर किसी चौक का नाम सुना, तो सुखद आश्चर्य हुआ था. यहां मैं पहले भी आ चुका हूं, तब बताया गया था कि यहां बैगन एक-दो रुपये किलो मिलता है, जो बाजार में पहुंचते-पहुंचते दस रुपये तक पहुंच जाता है. यानी तीस किलोमीटर की यात्र तय करने पर जो सब्जी दो रुपये किलो थी, वो दस रुपये किलो हो गयी. यह अंतर आखिर किसकी जेब में जाता है, क्योंकि किसान को तो वही दो रुपये मिले, जिसमें उसने खेत से बैगन को बेचा, जाहिर बता है कि इसमें बिचौलियों को बड़ा हिस्सा मिलता है. इसी को कम करने की बात दशकों से हो रही है, लेकिन ये हो नहीं पा रहा है. अब भी बदस्तूर जारी है.
बैगन चौक के पास ही एक पिता-पुत्र खेत से सब्जी निकालने में जुटे थे. दस बोरे सब्जी इन्होंने तैयार कर रखी थी. गाड़ी का इंतजार हो रहा था कि वो आये और उसे शहर की बाजार भेज दिया जाये. इसी बीच दोनों से बात शुरू हुई, तो कहने लगे कि पास में एक स्वयं सेवी संगठन का ऑफिस है. वहां पर और लोग हैं, जिनसे हम बात कर सकते हैं. हम पिता-पुत्र के साथ हो लिये और स्वयं सेवी संगठन के दफ्तर में पहुंच गये, जहां पहले से पांच-सात लोग बैठे थे. चुनाव पर चर्चा शुरू हुई, तो किसान केंद्र से लेकर राज्य सरकार के कामकाज पर बात होने लगी. इसी बीच किसान की ओर से कहा गया कि हमारे लिए कौन है. कहा गया था कि लागत का डेढ़ गुना मिलेगा, लेकिन अभी कुछ हुआ है क्या? इस पर एनजीओ से जुड़े लोगों ने प्रतिवाद किया और कहने लगे कि समय देना चाहिये, ये कोई जादू की छड़ी नहीं, जो तुरंत हो जायेगा. इसमें समय लगेगा. सरकार सिस्टम को सुधारने में लगी है, आनेवाले कुछ सालों में इसका जमीन पर असर दिखेगा. इस पर बहस शुरू हुई, तो बात आगे बढ़ती जा रही थी. इसी बीच किसान के बेटे ने धीरे से कहा कि बात चाहे, जो हो हम तो अपनी जाति के साथ हैं. आप लोग कहते रहिये, हम तो वोट उसी को देंगे, जो हमारी जाति का है.
किसान के बेटे की ये बात चुनाव की बहस की उस तासीर से हट कर थी, जिस पर बात हो रही थी, क्योंकि लोग आदर्श स्थिति की बात कर रहे थे, लेकिन उस युवक ने मन की बात कह दी, जो कहीं तक सामाजिक ढाचे में फिट बैठती थी. मुङो भी इस समय तक इसका आभास हो चुका था कि चुनाव किस दिशा में जानेवाला है, क्योंकि इस तरह की बातें पहले भी सामने आती रही हैं और जमीनी हकीकत भी मुङो यही लगती है.
जारी 

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