इलाहाबाद से जुड़ी वैसे तो तमाम यादे और किस्से हैं, लेकिन एक सबसे कॉमन वाक्य हम लोगों के बीच में था, जब किसी साथी से कुछ करने को कहा जाता और वो बहाना मार कर टालने की कोशिश करता, तो सब मिलकर यही कहते, काबे बकैती करबो..फिर प्यार से..दोस्त-दोस्त ना रहा..गीत गाया जाता था.
दोस्त, दोस्त ना रहा. दिन में दर्जनों बार सुनने को मिल जाता था, चाहे सब्जी लाने की बात हो या फिर कमरे से उठ कर चच्चू की दुकान पर चाय पीने की. एक हम लोगों के जिगरी भाइया थे. कहने को तो बीए में पढ़ते थे, लेकिन उम्र 30 के आसपास रही होगी, वो परीक्षा के समय ही दिखायी देते थे. 1992 में कल्याण सिंह ने नकल को लेकर कानून बना दिया था, जिसमें नकल करनेवाले छात्र की गिरफ्तारी हो जाती थी. बड़ा कड़ा कानून था. हमको याद है कि हम इंटर की परीक्षा दे रहे थे. अंतिम पेपर था गणित का, परीक्षा छूटने में पांच मिनट का समय बचा था. हम लोगों ने अपना ज्ञान कॉपी पर उतार कर परीक्षक को दे चुके थे. बात हो रही थी कि परीक्षा छूटने के बाद कहां जाना है, हमने पहले से सिनेमा का टिकट कटवा रखा था, क्योंकि जीवन में पहली बार हाल में सिनेमा देखने जा रहे थे. इसकी चर्चा कर रहा था, तभी कॉलेज के प्रिंसिपल आये और उन्होंने हमारे बगल के छात्र को पकड़ लिया. एक-दो चाटे जमा दिये, कॉपी ले ली और बाहर चले गये. चंद मिनटों में ही एक दारोगा जी आ गये और उस छात्र को अपने साथ लेकर चले गये.
हमारी फिल्म का मजा काफूर हो गया, लेकिन टिकट लिया था, सो हाल की ओर चल दिये, लेकिन दिमाग में वही चल रहा था. हां, बात जिगरी भाइया की हो रही थी. वो अचानक एक दिन अवतरित हुये. कहने लगे कि बीए पार्ट-टू का फार्म भरना है. सीधे गांव से आ रहा हूं. पिता जी ने एडमिशन के पैसे दिये थे छह सौ रुपये, लेकिन रास्ते में जबेली अच्छी छन रही थी, सो एक किलो जलेबी खा लिये. अब मीठा हुआ, तो नमकीन तो चाहिये ही. पंडित का मन कहां माननेवाला था, सो 10 गो समोसा भी खा लिये. पेट भर गया, तो फिर पान खाये. रास्ते में बस बड़ी देर रुकी थी, सो केला भी एक दर्जन खा लिये. अब एक सौ रुपये फीस में कम हो गया है. आप लोग जुगाड़ करो, नहीं तो कल फार्म भरने का अंतिम दिन है.
खैर, रुपयों पैसों का जुगाड़ हुआ, जिगरी भाइया का फॉर्म भरा गया. अब बारी परीक्षा देने की थी. परीक्षा शुरू हुई, तो एक दिन वो भी नकल करते धरा गये. तारीख थी 13 अगस्त 1994. पकड़े गये, तो जिगरी भाइया पहुंच गये जार्ज टाउन थाने की हवालात में. कमरे पर आने जाने की कोई टाइमिंग तो थी नहीं, इसलिए किसी को चिंता नहीं हुई, एक बार बात हुई. कहा गया कहीं गये होंगे, आ जायेंगे. खैर 13 बीत गयी, जब जिगरी भाइया नहीं आये, तो ये अनुमान लगाया गया कि गांव चले गये होंगे, क्योंकि अगली परीक्षा 16 अगस्त को थी. इसलिए सब निश्चिंत थे. इधर, जिगरी भाइया हवालात में. रविवार को छुट्टी थी. 15 को 15 अगस्त था. इसलिए छूटने की सूरत, तो 16 अगस्त को ही बन रही थी, जब मजिस्ट्रेट के सामने पेशी हो, तब बेल मिले.
बेल के बाद जब जिगरी भाइया कमरे पर आये, तो कहने लगे कि सबसे पहले नहायेंगे. सब पूछे काहे, तो कहने लगे कि पकड़ के ले गये. शाम को कुछ खाने को नहीं दिये. रात में एक दारोगा जी खूब शराब पीकर आये और हवालात के बाहर आकर खड़े हो गये. हम तीन लोग अंदर थे, तो वह बगल में खड़े सिपाही से कहने लगे कि तीनों प्यासे होंगे, सो प्यास बुझा देता हूं. पहले उन्होंने हवालात में पेशाब किया और फिर सिपाही से भी करवाया. पूरा छीटा शरीर पर पड़ा. भूख से हम वैसे परेशान थे. ऊपर से उस दारोगा जी ने पवित्र कर दिया. अगले दिन सुबह कुछ खाने को दिया और फिर बंद कर दिया. जिगरी भाइया बोले, वैसे ही हैं, तब से नहाये नहीं हैं. हम पहले नहा लें, तब खाना बने, नहीं तो सब गड़बड़ हो जायेगी. ऐसा था इलाहाबाद और ऐसे थे हमारे जिगरी भाइया. जाने अब कहां होंगे.
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