रविवार, 23 अक्टूबर 2016

ये तो अलग देश जैसा है महराज

मुजफ्फरपुर बिहार के बड़े जिलों में शामिल हैं. राजधानी पटना के बाद मुजफ्फरपुर, भागलपुर व गया का नंबर आता है. बड़े आंदोलनों व सांस्कृतिक विरासत का गवाह रहा है अपना मुजफ्फरपुर, लेकिन अब जरा फिजा बदली हुई है. पहाड़ जैसी अच्छाइयों (नेकियों) के बीच एक कोना ऐसा भी है, जो परेशान करता है. सोचने को मजबूर करता है कि आज जब हम मिशन मार्क्‍स के जमाने में जी रहे हैं, तब किसी गांव में जाने में ऐसी त्रसदी का सामना करना पड़े. खुद को सर्वशक्तिमान बतातेवाली सरकार का तेज जहां फेल हो जाता है. निजी व्यवस्था से गुजरना पड़ता है, चाहे सांसद, विधायक हों या फिर आला अधिकारी. जनता का तो कहना ही क्या? सबको को उसी घाट उतरना पड़ता है. ये कोना है कटरा प्रखंड की 11 पंचायतों का, जो बागमती नदी के उस पार पड़ती हैं. कटरा प्रखंड मुख्यालय से कुछ सौ मीटर दूर पर ही बागमती बहती है और यहीं से फिजां बदल जाती है.
प्रखंड मुख्यालय पार करने के बाद ही लगता है कि हम किसी और जगह आ गये हैं. अगर आपके साथ स्थानीय लोग हैं, तो वह दबी जुबान से बतायेंगे कि ये जो दो पुल देख रहे हैं. इनके लिए खून बहा है. वर्चस्व की लड़ाई का गवाह बने हैं दोनों. वजह, इनसे सैकड़ों की संख्या में लोगों का आना-जाना होता है, जिससे मोटी कमाई होती है और यही कमाई खून-खराबे की वजह बनी, लेकिन हमारी सर्वशक्तिमान सत्ता कुछ नहीं कर पायी. मूकदर्शक जैसी बनी रही. हालात जैसे के तैसे हैं. अब भी लोग पैसा चुका कर इनसे पार होते हैं. यह कुछ सौ मीटर का इलाका है. इसे पार करते हैं फिर से सरकार का वर्चस्व कायम होता दिखता है. बसघट्टा के पास चमचमाती सड़क आपका स्वागत करती है, लेकिन वह भी ज्यादा दूर नहीं.
अगर कटरा की ओर से जाते समय आप दाहिने हाथ गये, तो गंगेया व अन्य पंचायतों के बीच से गुजरती चमचमाती सड़क के दोनों किनारों पर बदहाली देखने को मिलेहगी और अगर आप युजआर व अन्य पंचायतों के रास्ते का रुख करते हैं, तो बागमती की उपधारा पर बने उस ऐतिहासिक पुल के दर्शन होंगे, जो उद्घाटन के पहले ही जमींदोज हो गया. तीन साल से उसी अवस्था में है. यहां भी सरकारी इकबाल सोया नजर आता है, क्योंकि पुल दो खंड में बंटा है, जिस पर तीन चचरी बना कर रास्ता बना वसूली जारी है, लेकिन कोई देखनेवाला नहीं है. आप रसूखवाले हैं, तो चचरी पर बैठे लोग आपका स्वागत करेंगे और जाने का रास्ता देंगे, लेकिन आप आम नागरिक हैं, तो आप से अच्छी खासी रकम वसूली जायेगी, जिसे दिये बिना आप आगे कदम नहीं रख सकते हैं.
इसे कौन सा दौर कहें समझ में नहीं आता, लेकिन हकीकत यही है कि यहां भी हमारी व्यवस्था का इकबाल धूमिल नजर आता है. कठिनाइयों के बीच लोगों का आना-जाना जारी है. इनके होठों पर मुस्कान की जगह अनदेखी की दस्तान रहती है, जिसे सुनने के लिए रुकियेगा, तो घंटों निकल जायेंगे, लेकिन उनकी बात पूरी नहीं होगी. बागमती पार की पंचायतों से निकले युवा देश से लेकर दुनिया तक में आपना नाम रोशन कर रहे हैं, लेकिन हालात देख कर अपने पैतृक स्थान पर आने से कतराते हैं. इन्हें देश के बड़े महानगरों में अपने आशियाने बना लिये हैं. ये हम नहीं यहां के लोग कहते हैं, लेकिन हाल के सालों में इन्हीं में से कुछ ऐसे युवाओं की टोली निकली है, जिसने हालात बदलने की ठानी है. वह राजनीति में रसूख रखनेवाले हर उस दरवाजे पर जा रही है, जहां से उसे न्याय की उम्मीद दिखती है. इसके लिए अभियान जारी है, बिना रुके और बिना थके काम हो रहा है, लेकिन नतीजे के नाम पर कुछ नहीं दिख रहा है, क्योंकि व्यवस्था में ऐसी लोच है, जिसके आगे सब पानी भरते नजर आते हैं.
पढ़ता था, तो एक बार हमारे कॉलेज में आंदोलन हो रहा था. छात्र उग्र थे, वो क्लास नहीं चलने दे रहे थे, तब हमारे प्राचार्य ने कहा था कि आप बच्चे हैं. अभी जिंदगी की शुरुआत हो रही है. हम लोग नहीं चाहते हैं कि आप पर कार्रवाई हो. हम जानते हैं कि आप अच्छे हैं, आप लोग चंद लोगों के बहकावे में आकर क्लास बंद करवा दे रहे हैं. अगर आपके खिलाफ एक बार लिखा-पढ़ी हो गयी, तो सालों दौड़ते रहियेगा अपनी बेगुनाही साबित करने के लिए, लेकिन कुछ नहीं होगा. आप अच्छे हैं, ये साबित करने में लंबा अरसा बीत जायेगा. इसलिए हमें कार्रवाई के लिए मजबूर मत कीजिये. ये बात हम इसलिए कह रहे हैं, क्योंकि बागमती पार की यजुआर गांव की यही कहानी है. यहां लगभग तीन दशक पहले बिजली के खंभे गड़े थे और लाइन खिची थी, तब सरकारी कागजों पर लिख दिया गया कि गांव का विद्युतीकरण हो चुका है, लेकिन गांव में टेस्टिंग के अलावा एक दिन भी बिजली नहीं जली, लेकिन लिखा-पढ़ी इस गांव के लिए परेशानी का सबब बन गयी. यहां के लोगों की परेशानी की जड़ वो सरकारी कागज बने हुये हैं, जिनमें विद्युतीकरण की बात लिख दी गयी है, जबकि हकीकत ये है कि इस परेशानी का भुगतान सरकार को भी करना पड़ रहा है, क्योंकि गांव में बनी दो आलीशान टंकियों से तीन दशक बाद भी पानी का सप्लाई बिन बिजली शुरू नहीं हो सकी है. लाखों रुपये की बरबादी हो चुकी है. गांव में जो सप्लाई की पाइप बिछायी गयी थी, वो खराब हो चुकी है, लेकिन कहानी वहीं आकर रुक जाती है कि गांव का विद्युतीकरण हो चुका है.
आखिर ये कौन सी व्यवस्था है? क्या कोई अधिकारी वहां जाकर रिपोर्ट नहीं दे सकता है कि गांव में बिजली नहीं है. बताते हैं कि सालों पहले अधिकारियों का पूरा अमला गया था गांव में. बड़ी बातें व घोषणाएं हुई थीं, लेकिन नतीजे के तौर पर कुछ नहीं निकला. लिखा-पढ़ी के नये कागजात शायद पुराने कागजों के सामने कमजोर पड़ गये होंगे. गांव उसी स्थिति में है. उन हजारों-लाखों लोगों का क्या कसूर है, जो इन पंचायतों में रहते हैं. क्या उन्हें इन सरकारी कागजों से कुछ हासिल होगा, जो उनके आगे बढ़ने की राह में रोड़ा है. कैसे ये व्यवस्था बदलेगी? किस तरह से इन पंचायतों में नया सवेरा आयेगा. ये सवाल मेरे भी मन में उभरा, जब इस साल जून के महीने में मैं पहली बार इस इलाके में आया. सुनता बहुत दिनों से था, लेकिन आंखों से देखने को इस साल मिला.
जैसे-जैसे मैं इन पंचायतों की ओर बढ़ रहा था, वैसे-वैसे सवाल और गहरे होते जा रहे थे. यहां आप गाड़ी से नहीं जा सकते हैं. पैदल, साइकिल और मोटरसाइकिल ही सहारा है. शाम ढलने के बाद जब वापस रहा था, तो मन में सवालों और यहां रहनेवाले लोगों की जिजिविषा के सिवाय कुछ नहीं था. ये सवाल अब भी हमें परेशान करते हैं और जब सोचता हूं, तो बेचैनी बढ़ जाती है. फिर व्यवस्था के सवालों के मकड़जाल में फंस जाता हूं और मेरी सोच मेरा साथ छोड़ देती है.

1 टिप्पणी:

  1. बिद्वान वही जो दूसरों की पिरा समझे,आप बिना किसी भेद भाव के हमारे क्षेत्र की तकलीफ को उन प्रशासन और सरकार तक पाहुंचाने का प्रयास कर रहे है ,पर पता नही कब उनकी कुम्भकरन नींद खत्म होगी ! पर अब हम लोग लोगों के बीच जनजागरन चलायेगे कि बिधानसभा में हमारा प्रतिनिधी किसी पार्टी से हो या निर्दलीय पर हो हमारे इसी बंचित पंचायत से, क्योंकि पैराशुट जनप्रतिनिधी के कारण इस क्षेत्र का यह दुर्दशा है ! सभी युवा को दलगत भावना से उपर उठने के लिये प्रेरित करना होगा ! आप को पुनाह कोटि कोटि धन्यवाद आपके प्रयासों के लिये और हमारे जख्मों को ताजा रखने के लिये !

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