सोमवार, 17 अक्टूबर 2016

फुटपाथ पर नयी दुकान और वो खिलखिलाते चेहरे


ठंड की आहट के साथ सूरज देवता अब थोड़ा पहले ही अस्त हो जाते हैं और साढ़े पांच बजे के बाद लगता है कि शाम ढल गयी. इसी ढली शाम के समय मैं घर से ऑफिस के लिए निकला, तो घर के पास मोड पर जो दृश्य दिखे, वो अपने आप में अद्भुत थे.
गाड़ी बाहर गयी थी, सो पैदल ही ऑफिस जाने का फैसला लिया. घर से लगभग सौ मीटर आगे बढ़ा था, तभी सड़क किनारे नयी झोपड़ी पर निगाह पड़ी. दो युवक झोपड़ी को सजाने में लगे थे. अंदर में नयी बेंच और पेंट की हुई टीन के जालीवाली छोटी अलमारी कहानी कह रही थी कि दुकान लगाने की तैयारी है. देखने से दोनों भाई लग रहे थे. एक भाई बांस की फट्टी से झोपड़ी का दरवाजा बनाने में लगा था, तो दूसरा हाथ पंखा से हवा कर रहा था, दोनों आपस में बात करते हुये प्रसन्न हो रहे थे, जैसे मुद्दतों से देखा हुआ, उनका सपना पूरा हुआ है.
दोनों की निश्छल हंसी देख कर बचपन के दिन याद आ गये. कैसे गांव में जब कोई मेहमान आता था, तो खुशियां फूट पड़ती थीं. गर्मी के दिनों में दो-तीन लोग हाथ पंखा लेकर सेवा में लग जाते थे. पंखा चलाने के साथ हाल-चाल होता था. मेहमान के बार-बार मना करने के बाद भी पंखा बंद नहीं होता था. कहते थे कि हम थकते नहीं हैं और मुस्कराते हुये पंखा झलने की स्पीड बढ़ जाती थी. ये था हमारे सत्कार का तरीका, लेकिन अब सबकुछ कितना बदल गया है.
सुविधाओं के साथ हमने अपनी खुशियों का तरीका भी बदल लिया है. उस तरह से खिलखिला के हंस भी नहीं पाते हैं, जैसे बचपन में होता था, लेकिन सड़क के किनारे झोपड़ी लगा कर आनेवाले जीवन के सपने बुन रहे दो भाई जिस तरह से आपस में बात करके हंस रहे थे. उसमें कई संदेश छुपे लगे. अगर हम लोग भी ऐसे प्रसन्न रहना फिर से सीख लें, तो शायद जो कष्ट हैं, वो छूमंतर हो जायेंगे, लेकिन सवाल ये भी उठता है कि आखिर बचपन का ये हुनर कैसे हमसे दूर हो गया? क्यों हम ऐसे हो गये? क्या हम फिर से पहले जैसे नहीं हो सकते? इन्हीं सवालों के उधेड़ बुन में ऑफिस के रास्ते आगे बढ़ने लगा. रास्ते में स्टेशन पड़ा, तो जीवन कैसे चलता है. इसका एहसास हुआ, क्योंकि एक साथ कई ट्रेनों के बारे में बताया जा रहा था कि कौन सी ट्रेन किस प्लेटफॉर्म नंबर पर आनेवाली है.
ट्रेन की एनाउंसमेंट व यात्रियों की चहल-पहल के बीच मन में वही सवाल घूम रहा था और उत्तर की तलाश कर रहा था. इसी बीच दो ऐसे व्यक्ति दिखायी दिये, जो ट्रेन पकड़ने के लिए स्टेशन पर आये हुये थे, इनके चेहरों पर परदेश जाने का दर्द दिख रहा था. ये आपस में परिवार व माता-पिता को लेकर बात रहे थे. कह रहे थे कि अगर मजबूरी नहीं होती, तो कौन घर छोड़ के बाहर जाता?

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