रोजी-रोटी के सिलसिले में बड़ी आबादी को अपनी जड़ से उखड़ (गांव से विस्थापित) कर बाहर रहना पड़ता है. महानगरों की चकाचौध में गंवई अंदाज के ऐसे से लोग आसानी से मिल जायेंगे. मुजफ्फरपुर शहर में गांव की खुशबू मिल जाती है, क्योंकि यहां रहनेवाली बड़ी आबादी आसपास के गांवों की है, जो अपने गांवों से जुड़ी है, लेकिन हम जैसे लोग, जो अपने गांव से सैकड़ों किलोमीटर दूर हैं, उन्हें गांव की याद आती है.
ये याद तब और बढ़ जाती है, जब किसी को गांव जाते हुये दिख जाता है. हमारे एक मित्र हैं, कहते हैं कि मेरी सुबह गांव में होती है, क्योंकि मैं किसान हूं. सुबह उठते ही गांव का रुख करता हूं. हां, शाम भले ही शहर में हो, क्योंकि गांव में पढ़ाई के साधन नहीं है, सो बच्चों को पढ़ाने के लिए शहर में घर बनाना पड़ा, क्योंकि धरती मां से जुड़े रहने के साथ हमें बदलते समय के साथ भी चलना है, ताकि आनेवाली पीढ़ियां हमें उलाहना नहीं दे सकें कि हमने अपने लिये उन्हें शहर में नहीं पढ़ाया.
गांव और शहर में जो बुनियादी फर्क दिखता है. मेरी समझ से वो ये है कि यहां लोगों का एक-दूसरे से मतलब नहीं होता है, लोग अपने बगलवाले तक को कई बार नहीं जानते है कि उसका नाम क्या है और वो क्या करता है, जबकि गांव में ऐसा नहीं है. वहां लोग एक-दूसरे के बारे में जानते ही नहीं, उनके सुख-दुख में भी शामिल भी होते हैं. मशहूर शायर मुनव्वर राना ने इसे शिद्दत से महसूस किया, उनका एक शेर है..
तुम्हारे शहर सब मय्यत का कांधा नहीं देते,
हमारे गांव में छप्पर भी सब मिलकर उठाते हैं.
गांव और शहर का यही बदलाव हमें सोचने पर मजबूर करता है और उस गांव की याद दिलाता है, जहां पर इतनी जद्दोजहद नहीं है, जहां आपस में फरेब नहीं है. मक्कारी नहीं है. सब आपस में मिल कर रहते हैं. गांव की आबोहवा भी इतनी दूषित नहीं है, जितनी शहरों की है, क्योंकि यहां गाड़ियों का अंबार है. वायु से लेकर ध्वनि प्रदूषण तक की मार है, लेकिन गांव में पेड़-पौधों के बीच शुद्ध हवा मिलती है, जो जीवनदायिनी है, लेकिन विकास के जिस मॉडल पर हमारा समाज चल रहा है, उसमें शहरों पर निर्भरता लगातार बढ़ती जा रही है, जो गांव के लिए ठीक नहीं है.
ये याद तब और बढ़ जाती है, जब किसी को गांव जाते हुये दिख जाता है. हमारे एक मित्र हैं, कहते हैं कि मेरी सुबह गांव में होती है, क्योंकि मैं किसान हूं. सुबह उठते ही गांव का रुख करता हूं. हां, शाम भले ही शहर में हो, क्योंकि गांव में पढ़ाई के साधन नहीं है, सो बच्चों को पढ़ाने के लिए शहर में घर बनाना पड़ा, क्योंकि धरती मां से जुड़े रहने के साथ हमें बदलते समय के साथ भी चलना है, ताकि आनेवाली पीढ़ियां हमें उलाहना नहीं दे सकें कि हमने अपने लिये उन्हें शहर में नहीं पढ़ाया.
गांव और शहर में जो बुनियादी फर्क दिखता है. मेरी समझ से वो ये है कि यहां लोगों का एक-दूसरे से मतलब नहीं होता है, लोग अपने बगलवाले तक को कई बार नहीं जानते है कि उसका नाम क्या है और वो क्या करता है, जबकि गांव में ऐसा नहीं है. वहां लोग एक-दूसरे के बारे में जानते ही नहीं, उनके सुख-दुख में भी शामिल भी होते हैं. मशहूर शायर मुनव्वर राना ने इसे शिद्दत से महसूस किया, उनका एक शेर है..
तुम्हारे शहर सब मय्यत का कांधा नहीं देते,
हमारे गांव में छप्पर भी सब मिलकर उठाते हैं.
गांव और शहर का यही बदलाव हमें सोचने पर मजबूर करता है और उस गांव की याद दिलाता है, जहां पर इतनी जद्दोजहद नहीं है, जहां आपस में फरेब नहीं है. मक्कारी नहीं है. सब आपस में मिल कर रहते हैं. गांव की आबोहवा भी इतनी दूषित नहीं है, जितनी शहरों की है, क्योंकि यहां गाड़ियों का अंबार है. वायु से लेकर ध्वनि प्रदूषण तक की मार है, लेकिन गांव में पेड़-पौधों के बीच शुद्ध हवा मिलती है, जो जीवनदायिनी है, लेकिन विकास के जिस मॉडल पर हमारा समाज चल रहा है, उसमें शहरों पर निर्भरता लगातार बढ़ती जा रही है, जो गांव के लिए ठीक नहीं है.
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