शिवहर को बिहार के सबसे पिछड़े इलाकों में माना जाता है. यहां का मुख्य चौराहा जीरो माइल, इसी के आसपास तक चुनावी रौनक बिखरी दिखती है. आसपास की बिल्डिंगों में विभिन्न प्रत्याशियों ने कार्यालय बना रखा है, जिनमें लगे लाउडस्पीकर की कानफोड़ आवाज मुख्य चौराहे तक गूंजती है. धूल उड़ाते वाहन यहां के विकास की सच्चई को बयान करते हैं. किसी अनुमंडल के मुख्य चौराहे पर यहां से ज्यादा भीड़ दिखती है. कहने को तो दशकों पहले शिवहर को जिला बना दिया गया, लेकिन वहां वह सुविधाएं नहीं आयीं, जो एक जिले के लिए जरूरी होती हैं. खैर इन पर बात फिर कभी, लेकिन चुनाव का गणित यहां पर बड़ा दिलचस्प दिखा.
जिन मुद्दों पर लोकसभा का चुनाव लड़ा गया था. उनकी कुछ गूंज सुनायी देती है, लेकिन जाति के आधार पर वोटरों को बांटने की कोशिश ज्यादा नजर आती है. विभिन्न दलों व संगठनों से जुड़े लोग इसी जुगत में लगे दिखे कि वो अपनी जाति के लोगों को कैसे किसी विशेष प्रत्याशी के पक्ष में गोलबंद करें. इसके लिए दूसरे दल के प्रत्याशियों का भय दिखाया जा रहा था. कहीं अनजान और कहीं परचित बन कर मैंने भी इस खेल को देखा, लेकिन सच्चाई यही है. दी जाती है लोकतंत्र की दुहाई, जिसमें धर्म निरपेक्षता की बात होती है, लेकिन जमीन पर धर्म का ही सबसे ज्यादा सहारा लिया जाता है.
माओवाद प्रभावित शिवहर में सबकुछ ठीक नहीं दिखता है. यहां की फिजां में अजीब सा सन्नाटा हकीकत को बयान करता है कि लोग किस तरह से डरे-सहमे रहते हैं. कोई भी हल्की सी जरूरत होती है, तो यहां के लोगों को या तो मुजफ्फरपुर या फिर सीतामढ़ी का रुख करना पड़ता है. एक ढंग का अस्पताल तक यहां पर नहीं है. रेल यहां पर आयी नहीं है. एक भी डिग्री कॉलेज यहां नहीं है, जिससे उच्च शिक्षा के लिए यहां के छात्र-छात्रओं को मुजफ्फरपुर का रुख करना पड़ता है, जो लोग संपन्न हैं, उनके बच्चे बड़े शहरों में पढ़ने के लिए चले जाते हैं. डिग्री कॉलेज से लेकर रेलवे तक का मुद्दा यहां हर चुनाव में उठता है, लेकिन उस पर काम नहीं होता. बजट दर बजट पेश होता जा रहा है. हर बजट में शिवहर के लोग सोचते हैं कि हमारे यहां रेलवे लाइन की घोषणा होगी, लेकिन अभी तक नहीं हो पाया है.
ये मुद्दे भले ही बड़े हैं, लेकिन समाज में गोलबंदी दिखती है. वो उसी ओर जाने की बात करता है, जो उसकी जमात से जुड़े हैं और उन तक पहुंच रहे हैं. वोट का मौके पर बड़े मुद्दे गौड़ हो जाते हैं. ऐसा अन्य स्थानों पर भी देखने को मिला, लेकिन शिवहर में इस पर चर्चा हो रही थी.
जारी..
जिन मुद्दों पर लोकसभा का चुनाव लड़ा गया था. उनकी कुछ गूंज सुनायी देती है, लेकिन जाति के आधार पर वोटरों को बांटने की कोशिश ज्यादा नजर आती है. विभिन्न दलों व संगठनों से जुड़े लोग इसी जुगत में लगे दिखे कि वो अपनी जाति के लोगों को कैसे किसी विशेष प्रत्याशी के पक्ष में गोलबंद करें. इसके लिए दूसरे दल के प्रत्याशियों का भय दिखाया जा रहा था. कहीं अनजान और कहीं परचित बन कर मैंने भी इस खेल को देखा, लेकिन सच्चाई यही है. दी जाती है लोकतंत्र की दुहाई, जिसमें धर्म निरपेक्षता की बात होती है, लेकिन जमीन पर धर्म का ही सबसे ज्यादा सहारा लिया जाता है.
माओवाद प्रभावित शिवहर में सबकुछ ठीक नहीं दिखता है. यहां की फिजां में अजीब सा सन्नाटा हकीकत को बयान करता है कि लोग किस तरह से डरे-सहमे रहते हैं. कोई भी हल्की सी जरूरत होती है, तो यहां के लोगों को या तो मुजफ्फरपुर या फिर सीतामढ़ी का रुख करना पड़ता है. एक ढंग का अस्पताल तक यहां पर नहीं है. रेल यहां पर आयी नहीं है. एक भी डिग्री कॉलेज यहां नहीं है, जिससे उच्च शिक्षा के लिए यहां के छात्र-छात्रओं को मुजफ्फरपुर का रुख करना पड़ता है, जो लोग संपन्न हैं, उनके बच्चे बड़े शहरों में पढ़ने के लिए चले जाते हैं. डिग्री कॉलेज से लेकर रेलवे तक का मुद्दा यहां हर चुनाव में उठता है, लेकिन उस पर काम नहीं होता. बजट दर बजट पेश होता जा रहा है. हर बजट में शिवहर के लोग सोचते हैं कि हमारे यहां रेलवे लाइन की घोषणा होगी, लेकिन अभी तक नहीं हो पाया है.
ये मुद्दे भले ही बड़े हैं, लेकिन समाज में गोलबंदी दिखती है. वो उसी ओर जाने की बात करता है, जो उसकी जमात से जुड़े हैं और उन तक पहुंच रहे हैं. वोट का मौके पर बड़े मुद्दे गौड़ हो जाते हैं. ऐसा अन्य स्थानों पर भी देखने को मिला, लेकिन शिवहर में इस पर चर्चा हो रही थी.
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