बुधवार, 8 सितंबर 2021

एक खुद्दार प्रेमी- जिसने प्यार की खातिर साइकिल से की 11 हजार किलोमीटर की यात्रा

 उड़ीसा के कांधापाड़ा गांव में आदिवासी परिवार में जन्में पीके महानंदिया अब दुनिया के लिए जाने-माने पेंटर हैं, जिनकी बनायी पेंटिंग्स यूनिसेफ के ग्रीटिंग कार्ड्स और दुनियाभर में लगनेवाले प्रदर्शनियों में लगती हैं. वो स्वीडिश सरकार के कला- संस्कृति विभाग के एडवाइजर हैं. अब स्वीडिश नागरिक हैं, लेकिन 1949 में जन्में इस जन्मजात कलाकार के जीवन के शुरुआती साल कठिनाइयों भरे रहे हैं. वो दलित आदिवासी परिवार में जन्मे. पिता पोस्ट मास्टर की सामान्य नौकरी करते थे. साथ में ज्योतिषी भी थे, जिन्होंने अपने बेटे का भविष्य पहले ही बांच दिया था. उसकी शादी किसी विदेशी और अमीर महिला से होगी, जो व्रश्चिक राशि की होगी, बड़े परिवार के ताल्लुक रखती होगी, जिसका अपना स्टेट होगा, लेकिन ये सब कैसे होगा, इसकी जानकारी पीके महानंदिया को नहीं थी.

बचपन में जब गांव के स्कूल में पढ़ना शुरू किया, तो उन्हें सामान्य बच्चों से अलग बैठाया जाता था, क्योंकि वो आदिवासी दलित परिवार से आते थे. बच्चे उनसे बात नहीं करते थे. बार-बार उन्हें परेशान होना पड़ता था, लेकिन महानंदिया का हाथ रेखा चित्र बनाने में सिद्ध होता चला गया. 1971 में उड़ीसा सरकार ने उनका दाखिला कॉलेज ऑफ आर्ट्स दिल्ली में कराया दिया था, लेकिन परेशानी यहां भी कम नहीं हुई. महानंदिया को कहने को स्कॉलरशिप मिली, लेकिन एक भी पैसा उन तक नहीं पहुंचा, सो उन्होंने लोगों का स्केच बनाकर जीवन यापन शुरू कर दिया. वो दिल्ली के कनॉट प्लेस इलाके में शाम के समय स्केच बनाते थे, जिससे उनका जीवन चल रहा था. कई बार उन्हें सड़क के किनारे ही रहना पड़ता था.
स्कॉलरशिप का पैसा नहीं मिलने से उन्हें फीस देने में भी दिक्कत होती थी, लेकिन किसे पता था कि अछूत महानंदिया की किस्मत बदलनेवाली है. वो कनॉट प्लेस में जिन दिनों स्केच बनाते थे. उसी दौरान सोवियत यूनियन की पहली अंतरिक्ष यात्री वेलेंटिना ट्रास्कोवा भारत के दौरे पर आयीं, जिसका स्केच बनाकर महानंदिया ने भेंट किया, जो अगले दिन के सारे अखबारों में छपा, जिसके बाद महानंदिया की चर्चा पूरे देश में होने लगी. इसी बीच तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के यहां से बुलावा आया, तो महानंदिया प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी का स्केच बनाने पहुंचे, जिसके बाद उनकी और चर्चा होने लगी.
बात 1975 की है, जब स्वीडन की छात्रा वॉन शेडिन अपने दोस्तों के साथ गर्मी की छुट्टियां बिताने के लिए भारत आयीं. जब वो कनॉट प्लेस में घूम रहीं थीं, तो सीधे पीके महानंदिया के पास पहुंची और उनसे अपना स्केच बनाने के लिए कहा. कुछ मिनट में महानंदिया ने वॉन शेडिन का स्केच बना दिया, जिससे वो खासी प्रभावित हुईं, इसके बाद वो अगले दिन फिर से स्केच बनवाने के लिए महानंदिया के पास पहुंच गयीं, जिस पर महानंदिया के अपने पिता की भविष्यवाणी याद आयी और उन्होंने वॉन शेडिन के सामने वो बात रखीं और उनसे जानकारी ली, जिस पर सभी चीजें वहीं निकलीं, जो उनके पिता ने बतायी थीं. इसके बाद महानंदिया ने वॉन शेडिन से कहा कि आपके साथ हमारी शादी होगी.
महानंदिया की कही हुई बात वॉन शेडिन के दिल में बैठ गयी और अगले कुछ दिन में ही दोनों की शादी हो गयी. महानंदिया से शादी के कुछ दिन बाद शेडिन का वीजा खत्म हुआ, तो वो आगे की पढ़ाई के लिए वापस स्वीडन लौट गयीं, लेकिन महानंदिया के साथ चिट्ठियों के जरिये संपर्क बना रहा. 1977 में शेडिन की पढ़ाई पूरी हुई, जिसकी जानकारी उन्होंने महानंदिया को दी, जिस पर महानंदिया ने स्वीडन जाने का फैसला कर लिया. कहते हैं कि शेडिन ने उन्हें फ्लाइट की टिकट ऑफर की, लेकिन उन्होंने मना कर दिया.
अपने प्यार से मिलने के लिए उन्होंने एक ऐसा रास्ता चुना, जिसने उनके जद्दोजहद को इतिहास के पन्नों में दर्ज कर दिया. महानंदिया ने दिल्ली में अपना सारा सामान बेंच दिया, जिससे उन्हें तब 12 सौ रुपये मिले. इसके बाद उन्होंने 80 रुपये में सेकेंड हैंड साइकिल खरीदी और स्वीडन के लिए निकल पड़े. लगभग छह माह के संघर्ष भरे रास्ते से वो स्वीडन पहुंच गये, लेकिन अब समस्या ये थी कि उनके पास स्वीडन का वीसा नहीं था, सो इमिग्रेशन अधिकारियों ने उन्हें रोक लिया. उन्होंने अपना मैरेज सार्टिफिकेट दिखाया, लेकिन स्वीडिश अधिकारियों को विश्वास नहीं हो रहा था कि महानंदिया इंडिया से स्वीडन तक ऐसे यात्रा करके आ सकते हैं.
किसी तरह से महानंदिया ने अपनी पत्नी से संपर्क साधा, जिसके बाद उनकी स्वीडन में इंट्री हुई. इसके बाद से उनका जीवन बदल गयी. अब उनकी उम्र 72 साल हो चुकी है. उनके दो बच्चे हैं. वो स्वीडन ही नहीं दुनिया के बड़े चित्रकारों में गिने जाते हैं. 46 सालों ने पत्नी और परिवार के साथ स्वीडन में रह रहे हैं. उन्हें वहां के कला एवं संस्कृति मंत्रालय का सलाहकार बनाया गया है. वो इंडिया आते रहते हैं. 2012 में उड़ीसा के संस्कृित उत्कल यूनिवर्सिटी की ओर से डॉक्टरेट की उपाधि भी दी गयी.


सोमवार, 14 सितंबर 2020

ऊपर मोटी नार, नीचे पतरे कक्का

प्रसंग है एक नवयुवती छज्जे पर बैठी है, वह उदास है, उसकी मुख मुद्रा देखकर लग रहा है कि जैसे वह छत से कूदकर आत्महत्या करने वाली है। विभिन्न कवियों से अगर इस पर लिखने को कहा जाता तो वो कैसे लिखते- 
 
गुलजार....
वो बरसों पुरानी ईमारत
शायद
आज कुछ गुफ्तगू करना चाहती थी
कई सदियों से उसकी छत से
कोई कूदा नहीं था.
और आज
उस तंग हालात
परेशां
स्याह आँखों वाली
उस
लड़की ने
ईमारत के सफ़े
जैसे खोल ही दिए
आज फिर कुछ बात होगी
सुना है ईमारत खुश बहुत है।
 
हरिवंश राय बच्चन...
किस उलझन से क्षुब्ध आज
निश्चय यह तुमने कर डाला
घर चौखट को छोड़ त्याग
चड़ बैढीं तुम चौथा माला
अभी समय है, जीवन सुरभित
पान करो इस का बाला
ऐसे कूद के मरने पर तो
नहीं मिलेगी मधुशाला
 
प्रसून जोशी...
जिंदगी की तोड़ कर
मरोड़ कर
गुल्लकों को फोड़ कर
क्या हुआ जो जा रही हो
सोहबतों को छोड़ कर।
 
हन्नी सिंह....
कूद जा डार्लिंग क्या रखा है
जिंजर चाय बनाने में
यो यो की तो सीडी बज री
डिस्को में हरयाणे में
रोना धोना बंद!
तू कर ले डांस हनी के गाने में
रॉक एंड रोल करेंगे कुड़िये
फार्म हाउस के तहखाने में !!
 
रहीम...
रहिमन कभउँ न फांदिये छत ऊपर दीवार
हल छूटे जो जन गिरें फूटै और कपार
तुलसी...
छत चढ़ नारी उदासी कोप व्रत धारी
कूद ना जा री दुखारी
सैन्य समेत अबहिन आवत होइहैं रघुरारी
कबीर....
कबीरा देखि दुःख आपने कूदिंह छत से नार
तापे संकट ना कटे , खुले नरक का द्वार''
 
मैथिली शरण गुप्त-
अट्टालिका पर एक रमिणी अनमनी सी है अहो
किस वेदना के भार से संतप्त हो देवी कहो?
धीरज धरो संसार में, किसके नही है दुर्दिन फिरे
हे राम! रक्षा कीजिए, अबला न भूतल पर गिरे।
 
काका हाथरसी-
गोरी बैठी छत पर, कूदन को तैयार
नीचे पक्का फर्श है, भली करे करतार
भली करे करतार,न दे दे कोई धक्का
ऊपर मोटी नार, नीचे पतरे कक्का
कह काका कविराय, अरी मत आगे बढना
उधर कूदना मेरे ऊपर मत गिर पडना।
 
श्याम नारायण पांडे
ओ घमंड मंडिनी, अखंड खंड मंडिनी
वीरता विमंडिनी, प्रचंड चंड चंडिनी
सिंहनी की ठान से, आन बान शान से
मान से, गुमान से, तुम गिरो मकान से
तुम डगर-डगर गिरो, तुम नगर-नगर गिरो
तुम गिरो अगर गिरो, शत्रु पर मगर गिरो।
 
गोपाल दास नीरज
हो न उदास रूपसी, तू मुस्काती जा
मौत में भी जिन्दगी के कुछ फूल खिलाती जा
जाना तो हर एक को है, एक दिन जहान से
जाते जाते मेरा, एक गीत गुनगुनाती जा।
 
राम कुमार वर्मा
हे सुन्दरी तुम मृत्यु की यूँ बॉट मत जोहो।
जानता हूँ इस जगत का
खो चुकि हो चाव अब तुम
और चढ़ के छत पे भरसक
खा चुकि हो ताव अब तुम
उसके उर के भार को समझो।
जीवन के उपहार को तुम ज़ाया ना खोहो,
हे सुन्दरी तुम मृत्यु की यूँ बाँट मत जोहो।


गुरुवार, 4 जून 2020

मुनादी- कविता- महान संपादक- धर्मवीर भारती की कलम से. जेपी पर लिखी थी.


खलक खुदा का, मुलुक बाश्शा का
हुकुम शहर कोतवाल का...
हर खासो-आम को आगह किया जाता है
कि खबरदार रहें
और अपने-अपने किवाड़ों को अन्दर से
कुंडी चढा़कर बन्द कर लें
गिरा लें खिड़कियों के परदे
और बच्चों को बाहर सड़क पर न भेजें
क्योंकि
एक बहत्तर बरस का बूढ़ा आदमी अपनी कांपती कमजोर आवाज में
सड़कों पर सच बोलता हुआ निकल पड़ा है !
शहर का हर बशर वाकिफ है
कि पच्चीस साल से मुजिर है यह
कि हालात को हालात की तरह बयान किया जाए
कि चोर को चोर और हत्यारे को हत्यारा कहा जाए
कि मार खाते भले आदमी को
और असमत लुटती औरत को
और भूख से पेट दबाये ढांचे को
और जीप के नीचे कुचलते बच्चे को
बचाने की बेअदबी की जाय !
जीप अगर बाश्शा की है तो
उसे बच्चे के पेट पर से गुजरने का हक क्यों नहीं ?
आखिर सड़क भी तो बाश्शा ने बनवायी है !
बुड्ढे के पीछे दौड़ पड़ने वाले
अहसान फरामोशों ! क्या तुम भूल गये कि बाश्शा ने
एक खूबसूरत माहौल दिया है जहां
भूख से ही सही, दिन में तुम्हें तारे नजर आते हैं
और फुटपाथों पर फरिश्तों के पंख रात भर
तुम पर छांह किये रहते हैं
और हूरें हर लैम्पपोस्ट के नीचे खड़ी
मोटर वालों की ओर लपकती हैं
कि जन्नत तारी हो गयी है जमीं पर;
तुम्हें इस बुड्ढे के पीछे दौड़कर
भला और क्या हासिल होने वाला है ?
आखिर क्या दुश्मनी है तुम्हारी उन लोगों से
जो भलेमानुसों की तरह अपनी कुरसी पर चुपचाप
बैठे-बैठे मुल्क की भलाई के लिए
रात-रात जागते हैं;
और गांव की नाली की मरम्मत के लिए
मास्को, न्यूयार्क, टोकियो, लन्दन की खाक
छानते फकीरों की तरह भटकते रहते हैं...
तोड़ दिये जाएंगे पैर
और फोड़ दी जाएंगी आंखें
अगर तुमने अपने पांव चल कर
महल-सरा की चहारदीवारी फलांग कर
अन्दर झांकने की कोशिश की !
क्या तुमने नहीं देखी वह लाठी
जिससे हमारे एक कद्दावर जवान ने इस निहत्थे
कांपते बुड्ढे को ढेर कर दिया ?
वह लाठी हमने समय मंजूषा के साथ
गहराइयों में गाड़ दी है
कि आने वाली नस्लें उसे देखें और
हमारी जवांमर्दी की दाद दें
अब पूछो कहां है वह सच जो
इस बुड्ढे ने सड़कों पर बकना शुरू किया था ?
हमने अपने रेडियो के स्वर ऊंचे करा दिये हैं
और कहा है कि जोर-जोर से फिल्मी गीत बजायें
ताकि थिरकती धुनों की दिलकश बलन्दी में
इस बुड्ढे की बकवास दब जाए !
नासमझ बच्चों ने पटक दिये पोथियां और बस्ते
फेंक दी है खड़िया और स्लेट
इस नामाकूल जादूगर के पीछे चूहों की तरह
फदर-फदर भागते चले आ रहे हैं
और जिसका बच्चा परसों मारा गया
वह औरत आंचल परचम की तरह लहराती हुई
सड़क पर निकल आयी है।
ख़बरदार यह सारा मुल्क तुम्हारा है
पर जहां हो वहीं रहो
यह बगावत नहीं बर्दाश्त की जाएगी कि
तुम फासले तय करो और
मंजिल तक पहुंचो
इस बार रेलों के चक्के हम खुद जाम कर देंगे
नावें मंझधार में रोक दी जाएंगी
बैलगाड़ियां सड़क-किनारे नीमतले खड़ी कर दी जाएंगी
ट्रकों को नुक्कड़ से लौटा दिया जाएगा
सब अपनी-अपनी जगह ठप !
क्योंकि याद रखो कि मुल्क को आगे बढ़ना है
और उसके लिए जरूरी है कि जो जहाँ है
वहीं ठप कर दिया जाए !
बेताब मत हो
तुम्हें जलसा-जुलूस, हल्ला-गूल्ला, भीड़-भड़क्के का शौक है
बाश्शा को हमदर्दी है अपनी रियाया से
तुम्हारे इस शौक को पूरा करने के लिए
बाश्शा के खास हुक्म से
उसका अपना दरबार जुलूस की शक्ल में निकलेगा
दर्शन करो !
वही रेलगाड़ियाँ तुम्हें मुफ्त लाद कर लाएंगी
बैलगाड़ी वालों को दोहरी बख्शीश मिलेगी
ट्रकों को झण्डियों से सजाया जाएगा
नुक्कड़ नुक्कड़ पर प्याऊ बैठाया जाएगा
और जो पानी माँगेगा उसे इत्र-बसा शर्बत पेश किया जाएगा
लाखों की तादाद में शामिल हो उस जुलूस में
और सड़क पर पैर घिसते हुए चलो
ताकि, वह खून जो इस बुड्ढे की वजह से
बहा, वह पूंछा जाए !
बाश्शा सलामत को खूनखराबा पसन्द नहीं !

बुधवार, 3 जून 2020

जीवन में आनंद तब तक रहता है, जब तक हम उसे भोगने की स्थिति में रहते हैं

सिकंदर उस जल की तलाश में था, जिसे पीने से मानव अमर हो जाते हैं.!
काफी दिनों तक दुनिया में भटकने के पश्चात आखिरकार उस ने वह जगह पा ही ली, जहां उसे अमृत की प्राप्ति हो। उसके सामने ही अमृत जल बह रहा था, वह अंजलि में अमृत को लेकर पीने के लिए झुका ही था कि तभी एक बुढा व्यक्ति जो उस गुफा के भीतर बैठा था, जोर से बोला, रुक जा, यह भूल मत करना...!’
बड़ी दुर्गति की अवस्था में था वह बूढा ! सिकंदर ने कहा, ‘तू रोकने वाला कौन...?’
बूढे ने उत्तर दिया, ..मैं अमृत की तलाश में था और यह गुफा मुझे भी मिल गई थी !, मैंने यह अमृत पी लिया !
अब मैं मर नहीं सकता, पर मैं अब मरना चाहता हूँ... ! देख लो मेरी हालत...अंधा हो गया हूँ, पैर गल गए हैं, देखो...अब मैं चिल्ला रहा हूं...चीख रहा हूं...कि कोई मुझे मार डाले, लेकिन मुझे मारा भी नहीं जा सकता !
अब प्रार्थना कर रहा हूं, परमात्मा से कि प्रभु मुझे मौत दे !
सिकंदर चुपचाप गुफा से बाहर वापस लौट आया, बिना अमृत पिए !
सिकंदर समझ चुका था कि जीवन का आनंद, उस समय तक ही रहता है, जब तक हम उसे भोगने की स्थिति में होते हैं! इसलिए स्वास्थ्य की रक्षा कीजिये ! जितना जीवन मिला है,उस जीवन का भरपूर आनंद लीजिये ! हमेशा खुश रहिये। दुनिया में सिकंदर कोई नहीं, वक्त ही सिकंदर है।

ज़िन्दगी के सफ़र में कौन भला साथ निभाता है

ज़िन्दगी के सफ़र में कौन भला साथ निभाता है
कल तुम भी चले जाओगे साथ छोड़ कर
पर रह जाओगे थोड़ा-थोड़ा मेरी यादों में
एल्बम की तस्वीरों में
उड़ते पंक्षियों की उड़ानों में
खिलते फूलों की मुस्कुराहट में

ज़िन्दगी के सफ़र में तुमसे बिछड़ना नियति है
लेकिन रह जाओगे तुम मेरी सांसों में
सुने-अनसुने गीतों की धुन में
रुनझुन करती बारिश की बूंदों में
मंदिर मस्जिद से आती पाक आवाज़ों में
हाथ की आड़ी-तिरछी रेखाओं में
माना ज़िन्दगी है बेबस, उसके अख्तियार में कुछ नहीं है,
लेकिन तेरे मेरे प्यार की उम्र ज़िन्दगी से परे है, खूबसूरत है...

मंगलवार, 12 नवंबर 2019

हे मुरलीधर, छलिया मोहन....हमतो तुमको दिल दे बैठे

हे मुरलीधर, छलिया मोहन.... हम भी तुमको दिल दे बैठे।
 गम पहले से ही कम तो न थे, इक और मुसीबत ले बैठे।।
 दिल कहता है तुम सुंदर हो, आंखें कहतीं है दिखलाओ।
 तुम मिलते नहीं हो आकर के, हम कैसे कहें देखो ये बैठे।।
हे मुरलीधर, छलिया मोहन, हम तुमको दिल दे बैठे।।

 महिमा सुन के हैरान हैं हम, तुम मिल जाओ तो चैन मिले।

मन खोजके भी तुम्हे पाता नहीं, तुम हो की उसी मन में बैठे।।
राजेश्वर राजा राम तुम्ही,  प्रभु योगेश्वर घनश्याम तुम्ही।
 धनुधारी बने कभी मुरली बजा, जमुना तट निर्जन में बैठे।।
 गम पहले ही क्या कम थे, इक और मुसीबत ले बैठे।
हे मुरलीधर छलिया मोहन, हम भी तुमको दिल दे बैठे।।

रविवार, 27 अक्तूबर 2019

भूख के खिलाफ रिषिकेश का जंग

अगर मन में विश्वास हो और काम करने का हौसला हो, तो मुश्किलें भी रास्ता छोड़ देती हैं. कुछ ऐसा ही हुआ है पटना के युवा रिषेकेश कुमार सिंह के साथ, जो कम उम्र में ही समाज सेवा में लग गये हैं. ज्ञानशाला के नाम से ऐसे बच्चों का स्कूल चलाते हैं, जिनका कोई सहारा नहीं है. साथ ही रोटी बैंक, जिसके सहारे हर रात राजधानी पटना की सड़कों पर उतरते हैं और उन लोगों को भोजन पहुंचाते हैं, जिन्हें रिषिकेश और उनकी टीम खाना नहीं पहुंचाये, तो उन्हें भूखे ही रात काटनी पड़े. ये सिलसिला लगभग दो साल से ज्यादा से बदस्तूर जारी है.
रिषिकेश लोगों के बीच जाते हैं और उन्हें अपने अभियान के बारे में बताते हैं, तो लोग खुशी-खुशी उससे जुड़ जाते हैं. कुछ लोग ऐसे हैं, जो नियमित रिषिकेश की मदद करते हैं. घर में खाना बनवाते हैं और उन्हें देते हैं, जबकि कुछ ऐसे हैं, जो पैसे देकर होटल से खाना पैक करवा कर रिषिकेश को देते हैं, जबकि कई ऐसे लोग हैं, जो अपने जन्मदिन या किसी परिजन के जन्मदिन पर रोटी बैंक को खाना देते हैं. ऐसे लोग भी हैं, जो अपने पूर्वजों की की जयंती और पुण्यतिथि पर भूखों का खाना खिलाते हैं. रिषिकेश को जैसे ही फोन आता है, वो और उनकी टीम खाना कलेक्ट करने पहुंच जाते हैं. पटना के मोस्ट वीआईपी इलाके गांधी मैदान और इसके आसपास के इलाके में जाते हैं, जहां ऐसे लोगों की खोज करते हैं, जो बेसहारा सड़क पर रात बिताते हैं. ऐसे लोगों को चिह्नित करने के बाद रिषिकेश और उनकी टीम उन्हें खाना देती है.
ठंडक हो या बारिश. गर्मी हो या तूफान...रिषिकेश और उनके साथियों का अभियान नहीं रुकता है. हाल में जब पटना में जल जमाव हुआ, तब भी पानी जमा होने के बाद भी रिषिकेश अपनी टीम के सदस्यों के साथ बेसहारा लोगों का पेट भरते रहे. बारिश के बीच निकलते और खुद की परवाह किये बिना ऐसे लोगों को खाना पहुंचाते. रिषिकेश के पास पटना के बेसहारा लोगों के बारे में पूरी जानकारी है. कौन और कहां रहता है. कैसे चलता है. उसके साथ किस तरह की समस्या है. वो सब रिषिकेश जानते हैं. ऐसे लोग रात के समय रिषिकेश का इंतजार करते रहते हैं, क्योंकि उन्हें विश्वास है, कुछ भी हो जाये, उनके लिए खाना लानेवाला नहीं रुकेगा. वो उनके लिए खाना लेकर किसी भी हालत में पहुंचेगा.
 

शनिवार, 26 अक्तूबर 2019

आओ मिलकर रोशन करें सबकी जिंदगी

सदियों से या यूं कहें पीढ़ी दर पीढ़ी, ये जद्दोजहद चल रही है, सब सुखी हों, संपन्न हों, ताकि सामाज रामराज्य की परिकल्पना की ओर आगे बढ़े, लेकिन जैसे हाथ की पांचों उंगलियां बराबर नहीं होती हैं, वैसे ही समाज में सबकी स्थिति एक जैसी नहीं रहती है. कभी कोई अभाव में, तो कोई प्रभाव में, तो कभी इसका उल्टा दिखता है. मुझे लगता है कि ये सिलसिला चलता जा रहा है और पीढ़ियां खपती जा रही हैं. रोशनी का महापर्व दीपावली में फिर से सारा जग रोशन है, लेकिन मुझे याद उस वृद्ध की आ रही है, जिनसे दो दिन पहले एक चौराहे पर भेंट हुई थी. अपने एक साथी के साथ पार्क में शाम की सैर करने के बाद लौट रहा था, तभी डिवाइटर पार करते समय एक आवाज आयी. प्लीज, इनकी मदद करिये, ताकि इनको सड़के के पार ले जाया जा सके.
नजरें, जैसे ही आवाज की ओर गयीं. पूरी शरीर सिहरन से कांप उठा. एक व्यक्ति पटना की व्यस्ततम सड़क पर घिसटता हुआ, चल रहा था. दो लोग उठाने की कोशिश कर रहे थे, लेकिन कामयाब नहीं हो सके. इसके बीच मोटर-गाड़ियों के गुजरने का सिलसिला बदरस्तूर जारी था, लेकिन किसी के पास इतना वक्त नहीं, जो ऐसे व्यक्ति के बारे में जाने, जो खुद चल नहीं सकता, लेकिन हांड़-मांस का बना, हम लोगों जैसा ही है. लगभग 5 मिनट की जद्दोजहद के बाद घिटते हुये वो व्यक्ति सड़क के किनारे आये, तो एक जिस युवती ने मदद की आवाज लगायी थी, उसने कुछ कहा और हाथ में कुछ दिया, जिसके बाद वो निकल गयी. इसके बाद उस व्यक्ति ने अपनी जेब से सुर्ती का पैकेट निकाला और मुंह में सुर्ती रखते हुये बगल में रखे बैग से प्लास्टिक का बोरा निकाला और उसे पैर से ओढ़ लिया और सिर के नीचे झोला रख कर लेट गये.
ये पूरी स्थिति देख कर मैं हथप्रभ था. मन में तरह-तरह के सवाल चल रहे थे. हमारे साथी का कहना था कि हम लोग आगे बढ़ते हैं, लेकिन हमारे कदम एक कदम आगे और दो कदम पीछे हो रहे थे. मैं समझ नहीं पा रहा था कि कैसे सड़क के किनारे इनकी रात कटेगी. इसी उधेड़ बुन में लगा हुआ था. तभी देवदूत की तरह एक युवक आया, जिसके हाथ में खाने के पैकेट और पानी की बोतल थी, जिसमें उस व्यक्ति को खाने का पैकेज पकड़ाया और पानी की बोतल थमा दी. मैं खुद को नहीं रोक पाया और उससे पूछ लिया, कैसे आपको इनके बारे में जानकारी है, तो उसने बताया, हम लंबे समय में इनके लिए रात का खाना लेकर आते हैं और ये घिसट कर चलते हैं. जिस स्थान पर हैं, इसी के आसपास ही रहते हैं.
युवक कहने लगा कि मरता, क्या न करता वाली स्थिति है. अगर कुछ व्यवस्था होती, तो ये ऐसे थोड़े ही रहते. सड़क के किनारे, अब तो दिनोंदिन इनकी स्थिति खराब हो रही है, लेकिन सबका मालिक एक ही है, भगवान, जिनकी कृपा बनी रहे. मुझे युवक की बातें देवदूत की तरह लग रही थीं. इसके साथ थोड़ा ढांढस भी मिला. कोई तो देखनेवाला है. अब जब दिवाली की तैयारी चल रही है, तो हमारे दिमाग में उस व्यक्ति की तस्वीर ही लगातार घूम रही है, उसका आज का दिन कैसे कट रहा होगा. रोशनी से नहाई सड़क के किनारे किस तरह से उसकी आवाज कोई सुन रहा होगा, या फिर वही फरिस्ता युवक उनके लिए रात का खाना लेकर आया होगा और पानी की बोतल- खाने का डिब्बा पकड़ा कर गया होगा. ये सब ऐसे सवाल हैं, जो दिमाग से निकल नहीं रहे हैं. मन बार-बार यही कह रहा है कि काश किसी के साथ ऐसा नहीं होता या फिर हम ऐसी स्थिति में पहुंच जाते, तो ऐसे लोगों के लिए कुछ कर सकते. ईश्वर ऐसा दिन लाये, जब इन जैसे लाचारों को सोचने की जरूरत नहीं पड़े. इनकी जिंदगी में रंग खुद- ब- खुद घुल जाएं. जिंदगी बदरंग नहीं रहे. अपनी बात मशहूर शायर मुनव्वर राना के एक शेर से खत्म करना चाहूंगा.

दुनिया तेरी रौनक से मैं ऊब रहा हूं.
तू चांद मुझे कहती थीं, मैं डूब रहा हूं.


मंगलवार, 20 नवंबर 2018

सर्दी से बचने का देसी और घरेलू नुस्खा

सर्दियों की शुरुआत हो गयी है. ऐसे में बहुत सारे लोगों को सर्दी की समस्या हो जाती है. नाक जाम हो जाती है. नाक जाम ही नहीं हो, इसके लिए सीधा और सरल इलाज है, जो हमारे गांव में अाजमाया जाता था और हमने भी आजमाया है. शुद्ध सरसों का तेल लें और सुबह उठने के बाद हथेली में सरसों (कड़ुआ तेल) तेल लेकर नाक में एक तरफ उंगली से बंद करें और दूसरी ओर से तेज सांस लेकर तेल नाक में सुड़क लें और ऐसा ही दूसरी तरफ से करें. इसे गांव की भाषा में नाक में तेल डालना कहते हैं. इससे किसी भी तरह की सर्दी होगी. कितनी भी नाक जमी होगी, तुरंत राहत मिलेगी. ऐसा आप दो-तीन दिन तक कर लेते हैं, तो आपको सर्दी से पूरी तरह से राहत मिल जायेगी. इससे होठों और चेहरे का रुखापन भी दूर होता है. बिना सर्दी के भी ये नुस्खा आप आजमा सकते हैं. इससे आपको सर्दी नहीं होगी.


शुक्रवार, 14 सितंबर 2018

धन-मन का करीब का रिश्ता होता है

जैसा अन्न...वैसा मन...ये कहावत भारतीय समाज में आम है, ये पढ़ने और समझने में जितनी सरल है. इसके अर्थ उतने ही व्यापक हैं. इसे समझने के लिए एक उदाहरण महाभारत काल से....महाभारत का युद्ध समाप्त हो चुका था...पितामह भीष्म वाणों की शैय्या पर लेटे हुये थे...वो सूर्य के उत्तरायण होने का इंतजार कर रहे थे, ताकि अपने प्राण त्याग सकें. इस दौरान रोज पांडव उनके पास जाते थे और पितामह उन्हें नीति की बातें बताते थे, लेकिन इस दौरान द्रौपदी पितामह के नीति वचन सुनने के लिए नहीं जाती थीं. इससे श्रीकृष्ण को चिंता हुई, तो उन्होंने एक दिन द्रौपदी से कहा कि पितामह के पास वो भी चलें. द्रौपदी श्रीकृष्ण की बात कैसे काट सकती थीं, वो तैयार हो गयीं. पांडवों के साथ द्रौपदी पितामह भीष्म के पास पहुंच गयीं.
पितामह ने उस दिन पांडवों को राज्य चलाने की नियम और नीतियां बता रहे थे. इसी दौरान उन्होंने कहा कि जो राजा अपने राज्य में अन्याय होता देखता है, उसका पौरुष क्षीर्ण हो जाता है. इसलिए राजा को अन्याय न करना चाहिये और न होते हुये देखना चाहिये. इस पर द्रौपदी ने पितामह से सवाल किया. कहा- पितामह जिस दिन मेरा चीर हरण हो रहा था, उस दिन आपने क्या किया था? विशेष बात ये थी कि पितामह से कोई सवाल नहीं करता था, वो जो कहते थे, पांडव उसे चुपचाप सुनते थे, लेकिन द्रौपदी का सवाल सुनकर सब लोग सन्न रह गये, लेकिन पितामह ने उन्हें जो उत्तर दिया, वो अपने आप में गौर करनेवाला है. पितामह भीष्म ने कहा कि बेटी द्रौपदी उस समय मैं पाप का अन्य खाता था, इस वजह से मेरा मन भी गंदा हो गया था...इससे साफ है कि जो इंसान गलत तरीके से कमाये धन का उपयोग खुद पर और अपने बच्चों के लिए करता है. उसका गलत असर उसके और उसके बच्चों पर पड़ता है. ऐसे उदाहरण अगर आप अपने आसपास देखेंगे, तो जरूर मिल जायेंगे. इसलिए धन और मन का बहुत करीब का रिश्ता होता है. खुद के श्रम से कमाये हुए धन पर ही विश्वास करें, गलत तरीके से अगर आप धन कमायेंगे और उसे अपने और परिवार के प्रयोग में लायेंगे, तो उसका नतीजा भी वैसा ही होगा और इसके लिए पूरे तौर पर उत्तरदायी आप ही होंगे.

शुक्रवार, 24 अगस्त 2018

अब बड़ा भाई भी नहीं !

राजनीति भी बहुत अजीब है, समझने की कोशिश करो, तो उलझन बढ़ती जाती है. अगर उलझनों को सुलझाने की कोशिश करो, तो सिरा मिलता ही नहीं है. कुछ चीजों के मकसद और मायने बहुत साफ होते हैं और दिखते हैं, लेकिन जो होता है, कहते वो दिखता है और जो दिखता है. वो होता नहीं है. शायद यही राजनीति है. राजनीति में कब कौन सा दल, कौन सा दांव चलेगा, जिससे कितने लोग चित होंगे. इस सबका अंदाजा लगाकर ही दांव चला जाता है, लेकिन कुछ लोग समझ पाते हैं, ज्यादा लोग समझने में अनाड़ी ही साबित होते हैं. अगर अपनी बात करूं, तो अनाड़ी कह सकते हैं.
बात ज्यादा पुरानी नहीं है...बिहार में जदयू के नेताओं में 2019 के सीट बंटवारे को लेकर अजीब सी बेचैनी थी. लगता है कि अब फैसला हो ही जाना है. धमकी से लेकर क्या-क्या हो रहा था. भाजपा के नेता बचाव की मुद्रा में थे और कह रहे थे कि समय आने पर सब तय हो जायेगा. जदयू के साथ रिश्ता पुराना है, लेकिन जदयू के नेता मानने को तैयार नहीं. कभी कहें कि बड़े भाई तो हमी हैं. हमारी ही चलेगी, यह दुहाई चल ही थी. इसी बीच भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह का बिहार दौरा हुआ और सीएम नीतीश कुमार से मुलाकात हुई.
बाद में पता चला कि एक महीने में सबकुछ फाइनल हो जायेगा. इसके बाच नेताओं की बयान रूपी तलवारें फिर से म्यान में वापस चली गयीं. अब महीना बीत गया है. दूसरा महीना भी आधा बीत चुका है, लेकिन अभी तक स्थिति साफ नहीं हुई है. ऐसे में सीटों को लेकर बेचैनी बढ़ी है, लेकिन इस बार जाहिर करने का इरादा नहीं है. अब तो जदयू के नेता खुद को बड़ा भाई मानने को भी तैयार नहीं है. कहते हैं कि इन बातों का कोई मायने नहीं है. सीट का बंटवारा समय पर हो जायेगा. अभी बहुत समय है. आखिर इसका क्या मतलब निकाला जाना चाहिये. कौन दल क्या दांव चल रहा है. भाजपा नेता अब भी पुराना बयान ही दुहरा रहे हैं. क्या अब जल्दी नहीं है.

मंगलवार, 1 मई 2018

लहसुलन खाएं, खुद को सेहतमंद बनाएं

लहसुन का प्रयोग अमूमन हर रसोईघर में होता है. छौक लगाने और ग्रेवी बनाने में अक्सर इसका इस्तेमाल होता है, तेल और मसाले में जब लहसुन पकता है, तो अपने कई मूल गुण खो देता है, लेकिन लहसुन का प्रयोग अगर खाली पेट किया जाये, तो हमारे शरीर के लिए इसके फायदे ही फायदे हैं. नुकसान कुछ भी नहीं. इसलिए, ये सलाह है कि कई बीमारियों से बचने या फिर उनके असर को कम करने के लिए लहसुन का प्रयोग करें.
लहसुन औषधीय और पोषक तत्वों से भरपूर है. इसमें बिटामिन बी 1, बी 6 और सी होती है. साथ ही मैगनीसिय और कैल्शियम जैसे कई खनिज भी पाये जाते हैं, जो हमारे शरीर के लिए फायदेमंद हैं. अगर आप सुबह खाली पेट लहसुन का खाते हैं, तो यह आपकी सेहत के लिए रामबाण जैसा है. आपको लहसुन के कुछ ऐसे फायदों के बारे में बताते हैं, जो कॉमन हैं, लेकिन लगातार इनके बारे में जानते रहना चाहिये और खाली पेट लहसुन का इस्तेमाल करते रहना चाहिये.

लहसुन हमारे दिल की रक्षा के लिए एक अच्छा आहार है, जो स्ट्रोक की संभावनाओं को कम करता है. धमनियों में रक्त जमा होने को रोकने में मददगार होता है. खून को पतला करना है, जिससे उसका सर्कुलेशन अच्छा बना रहता है. कोलेस्ट्राल को कंट्रोल करता है. साथ ही दिल की बीमारियों से भी हम लोगों को बचाता है.

लहसुन खाने से उच्च रक्तचाप नियंत्रण में रहता है. इसीलिए जो लोग उच्च रक्तचाप से पीड़ित हैं. उनको रोज सुबह खाली पेट लहसुन खाने की सलाह दी जाती है. इसकी वजह यह है कि लहसुन ब्लड सर्कुलेशन को सही रखने में काफी मददगार होता है.

पानी उबालकर उसमें कुछ लहसुन की कलियां डाल दें. गुनगुना रहने पर ये पानी पीयें, काफी फायदा होगा. कब्ज और डायरिया से आराम मिलेगा. साथ ही इससे अापके शरीर में जहरीले तत्व भी निकल जायेंगे.

खाली पेट लहसुन खाने से हाजमा भी ठीक रहता है. इससे भूख भी खुलकर लगती है. ये गठिया और उसके लक्षणवाले लोगों को भी फायदा करता है. इसलिए अगर आपको जोड़ों का दर्द है, तो खाली पेट नियमित रूप से लहसुन खाने की आदत डालिये. ये आपके लिए बहुत फायदेमंद रहेगा.

खाली पेट लहसुन खाने से टेंशन भी दूर रहता है. ऐसा माना जाता है कि जिस तरह का जीवन हम लोग जी रहे हैं. उसमें व्यक्ति अक्सर मानसिक टेंशन से गुजरता है, जिससे हमारे पेट में ऐसे कुछ एसिड बनने लगते हैं, जिनसे हमें घबराहट होने लगती है, जिसे लहसुन दूर कर देता है.

लहसुन एंटीबैक्टीरियल और दर्द निवारक भी माना जाता है. अगर किसी के दांत में दर्द है, तो उसमें एक दो कली लहसुन को पीस कर उसी दांत पर रखना चाहिये, जो दर्द हो रहा है. इससे राहत मिलेगी. खाली पेट लहसुन खाने से नसों की झनझनाहट में भी आराम मिलता है.

लहसुन श्वांस संबंधी बीमारियों में फायदा करता है. यह हमारी रोग प्रतिरोधक क्षमता को भी बढ़ाता है. लहसुन में एंटी फंगल तत्व पाये जाते हैं, जो हमें फायदा करते हैं. इसके अलावा और भी तमाम फायदे सुबह के समय लहसुन खाने से होते हैं. मैं, तो यही कहूंगा पर व्यक्ति अपने किचेन में रहनेवाले लहसुन के बारे में जाने और निरोग रहे.


गुरुवार, 8 फ़रवरी 2018

डिजिटल इंडिया की महाबस यात्रा

इंडिया में जब सब कुछ डिजिटल हुआ जा रहा है। सरकार से लेकर आम आदमी तक। चारों तरफ हरियाली ही हरियाली है। 12 करोड़ आबादी में 6.50 करोड़ मोबाइल। दुहाई पर दुहाई। बलिहारी पर बलिहारी। मोबाइल से पंखा, बिजली और एसी चलाने और बुझाने की तकनीकि का गुणगान। बलिहारी जा रहे हैं। तरक्की हो रही है। पकौड़ा छानने की तकनीकि पर भी बहस जारी है। ई पकौड़ा वाले कभी पटना से मुजफ्फरपुर तक बिहार सरकार की बस का सफर कर लें। सब भूत उतर जायेगा। सड़क फोर लेन और बस बिना लेनवाली। चढ़ते ही लगेगा कहां आ गये। डिजिटल का भूत, स्वच्छता की सौगंध, न्यू इंडिया का सपना बसवा की हालत तोड़ के रख देती है। धूल में सनी फ़टी हुई गद्दी। खिड़कियों को मात देते शीशे। ठंडी में शीशों के बीच बदन को चीरनेवाली हवा। सबका आंनद मन को मदमस्त कर देता है। टिकट का नंबर आयेगा, तो सुविधा के मुताबिक रिचार्ज करनेवाला मामला आ जाता है। 70 रुपये सरकारी किराया है। सो बात उससे शुरू हो और जितने में पट जाये। रोज जानेवालों का काम 30 में भी चल जाता है। कोई 50, कोई 40 और कोई 60 देकर इस बात में मगन रहता है कि हमने 30, हमने 40 रुपये बचा लिये। प्राइवेट में जाते तो 90 रुपये लग जाते। कुछ लोग ऐसे भी रहते हैं, जो पूरा टिकट का दाम इस आशा में देते हैं कि सरकार के पास पैसा जायेगा, तो बस का दिन सुधरेगा, वो रास्ते भर टिकट मांगते रह जाते हैं। जैसे पैसा लेनेवाला दिखता है टिकट की गुहार लगाते है। वो आश्वासन देकर ओझल हो जाता है। कहता है कि पैसा लिये हैं, तो टिकट जरूर देंगे। ओरिजनल टिकट मिलेगा। बस कुछ देर इंतजार करिये। यह इंतजार यात्रा खत्म होने तक का होता है, जो लोग जिद करके टिकट मांगते हैं, उनको उतरते समय पुरानी तारीख का टिकट पकड़ा कर जल्दी उतरने को कह दिया जाता है। ऐसा डिजिटल प्रयोग कि आप दिनभर सोचते रहिये। यह आज से नहीं सालों से जारी है।
एक सच्ची घटना बताते हैं। 2013 की बात है। रांची से एक गुरु जी आये और अपनी बहन से मिलने सीतामढ़ी चले गये। लौटने लगे, यो सरकारी बस दिखी। उसी में बैठ लिये। वामपंथी गुरु जी ने सोचा कि सरकार का कुछ फायदा करा देते हैं। पैसा दिया और टिकट की जिद पर अड़ गये। बार-बार टिकट की जिद, लेकिन टिकट नहीं मिला। मुजफ्फरपुर में उतरे, तो वही पुरानी डेटवाला टिकट थमा दिया गया। कहा गया ले लीजिये टिकट, रास्ते भर जान खा लिया। गुरुजी भी ज़िद्दी, तारीख पढ़ते ही फिर पलट कर लौटे शिकायत करने लगे, पुराना डेट है। सरकार को नुकसान पहुंचाया जा रहा है। नया टिकट दो, लेकिन इस बार गुरुजी को सरिया के उत्तर मिल गया, तो वह तिलमिला गये। इसी बीच मे अगवानी के लिए हम बस स्टैंड पहुंचे, तो गुरुजी ने बड़े कूल अंदाज में कहा कि एरिया मैनेजर का ऑफिस जानते हो। मैंने कहा कि हां। कहने लगे, चलो मिलना है, जरूरी बात करनी है। मुझको लगा कि गुरुजी के पुराने परिचित होंगे, लेकिन एरिया मैनेजर के सामने जाते ही गुरुजी फट पड़े। मैनेजर साहब हंस रहे थे, लेकिन गुरुजी का दर्द सुनकर सीरियस होने का नाटक करने लगे। घंटी बजी, आदेशपाल आया। कुछ देर बस का स्टॉप सामने था। देखते ही गुरुजी ने पहचान लिया। गुरुजी कुछ कहते, उससे पहले ही वो दुखड़ा रोने लगा। मौका ही नहीं मिलता टिकट काटने का। बस चलायें की टिकट काटें। मैनेजर साहब ने बात सुनी और सजा के रूप में एक के बदले पांच टिकट गुरुजी को खुश करने के लिए कटवा दिये। हम चुपचाप पूरी कहानी देख रहे थे। टिकट काटने के बाद स्टाप ने कहा कि अब तो ठीक है, हम जाएं। वो फ़टे हुए टिकट लेकर वापस जाने लगा, तो गुरुजी जोर से चिल्लाये, अरे ये फिर यही टिकट सवारियों को दे देगा। एरिया मैनेजर ने टिकट लेकर फाड़ दिया, तो बस कर्मचारी पूरे फार्म में आ गया। चाबी फेंक दी और चिल्लाते हुए बाहर निकल गया। मैनेजर साहब मनाने की मुद्रा में आ गये, लेकिन सामने गुरुजी थे, सो कहने लगे कि गलती पर मैं किसी को माफ नहीं करता। मुझे लगा कि एपिसोड पूरा हो चुका है अब चलना चाहिए। गुरुजी को लेकर वहां से डिजिटल सोच की तरह आगे बढ़ गया।

शनिवार, 21 अक्तूबर 2017

300 सौ बीमारियों को रोकता है सहजन

बचपन में घर में सहजन की सब्जी बनती, तो मैं खाने से मना कर देता था. लोगों को खाते देख अच्छा नहीं लगता था, क्योंकि उसका रेसा अच्छा नहीं लगता था. घर के लोग कहते बहुत फायदा करता है, तो लगता कि ऐसे ही कह रहे होंगे. इसके बाद जब पढ़ाई के दौरान कभी ऐेसा मौका नहीं आया. चूंकि सहजन अच्छा नहीं लगता था, इसलिए बाद के दिनों में भी मैंने इसे अपनी सब्जी में शामिल नहीं किया, लेकिन कुछ साल पहले बंदरा में पूसा विवि के पूर्व कुलपति डॉ गोपाल जी त्रिवेदी के यहां जाना हुआ. बिहार सरकार के कृषि सलाहकार डॉ मंगला राय का दौरा था. ाह बंदरा में डॉ त्रिवेदी के निर्देशन में बने मछली तालाबों को देखने आये थे. साथ ही उन्हें धान की पैदावार देखने भी जाना था.
इस दौरान सैकड़ों किसानों से उन्हें रू-ब-रू होते देखा. वह किसानों के सवालों का जवाब बहुत सहज होकर दे रहे थे. इसी दौरान उन्होंने कहा, हमने बिहार सरकार को दो प्रस्ताव दिये हैं. पहला, जहां सालों भर पानी भरा रहता है. वहां मछली का जीरा डाला जाये. दूसरा, सरकारी जमीन और सड़कों के किनारे सहजन के पौधे लगाये जायें. इन्हें किसी के हाथों नीलाम नहीं किया जाये. आसपास जो लोग रहते हैं. वह इनका उपयोग करें. इससे कुपोषण की समस्या तेजी से दूर होगी. इसी दौरान मैंने उनसे सहजन के फायदों के बारे में जानना चाहा, तो उन्होंने कहा कि कोई एक फायदा हो, तो बतायें. सहजन तो हम लोगों के लिए भगवान का वरदान है.
डॉ मंगला राय की बातों का सिलसिला लगातार चलता रहा. इसी दौरान सहजन के पत्ताें की पकौड़ी खाने को मिली. बाद के दिनों में डॉ त्रिवेदी ने सहजन के गुणों के संबंधित बिहार सरकार की पुस्तिका भी पढ़ने के लिए दी, जिससे सहजन के गुणों की चर्चा की गयी थी. पुस्तिका पढ़ कर लगा कि हम सहजन के बारे में कुछ नहीं जानते थे. इसके बाद इंटरनेट व अन्य माध्यमों से सहजन के गुणों के बारे में पढ़ा, तो लगा कि सचमुच यह हम लोगों के लिए भगवान का वरदान है. हाल में फिर डॉ त्रिवेदी से मुलाकात हुई, तो उन्होंने सहजन के फायदों की बात बतायी. हालांकि अभी तक मेरी आदत नहीं बदल पायी है. मेरे सब्जी के थैले में सहजन अभी तक कम ही जगह बना पाया है, लेकिन इसके जो फायदे हैं. उससे लगता है कि इसे अपने खाने में शामिल करना जरूरी है, ताकि कई तरह के रोगों से बचा जा सके.
बिहार और उत्तर प्रदेश में सार्वजनिक स्थानों पर बड़ी संख्या में सहजन के पेड़ लगे मिल जाते हैं, लेकिन मध्य प्रदेश में सरकार इसकी खेती को बढ़ावा दे रही है. वहां के किसान सहजन की खेती कर मुनाफा कमा रहे हैं. एक एकड़ में सालाना एक लाख तक का फायदा होता है. एक बार खेती के बाद चार साल तक इसकी फसल होती है. सहजन के अंगरेजी में ड्रमस्टिक कहते हैं. अपने यहां इसे मुनगा, सेंजन आदि नामों से जाना जाता है.
सहजन में 92 तरह के मल्टीविटामिन, 46 तरह के एंटी ऑक्सीडेंट, 36 तरह के दर्द निवारक और 18 तरह के एमिनो एसिड होते हैं, जो कुपोषण से लड़ने में सबसे ज्यादा कारगर होते हैं. इसके फल के साथ फूल, पत्तियां, छाल व जड़ में भी औषधीय गुण होते हैं. इसके नियमित सेवन से दिल, लीवर, ट्यूमर, डायबिटीज जैसी बीमारियों में फायदा होता है. गर्भवती महिलाओं को सहजन के प्रयोग की सलाह दी जाती है. इससे प्रसव के दौरान होनेवाली परेशानियां कम होती हैं.
सहिजन के नियमित इस्तेमाल से विटामिन-सी की कमी नहीं होती है. तमाम तरह की छोटी-मोटी बीमारियों से बचाव होता है. इसका सूप बना कर भी पिया जाता है. पत्ताें को उबाल कर उसका पानी भी पी सकते हैं. जुकाम होने पर इसके पत्ताें को पानी में उबाल कर भाप लेने से फायदा मिलता है. इसमें जिंक, आयरन, कैल्शियम, मैग्नीसिमय व सीलियम होता है. दक्षिण भारत के व्यंजनों में इसका खूब इस्तेमाल होता है. साथ ही आयुव्रेदिक दवाइयां भी बनती हैं.

शनिवार, 30 सितंबर 2017

वो अस्सी के हैं, तो आप भी...

पूर्व वित्त मंत्री यशवंत सिन्हा ने सरकार की अर्थनीत को लेकर सवाल उठाये और केंद्रीय वित्त मंत्री अरुण जेटली को निशाने पर लिया, तो भाजपा के अंदर ही बड़ी बहस शुरू हो गयी. हालांकि ये सवाल पहले से विपक्ष व व्यापारिक प्रतिष्ठानों की ओर से उठाये जाते रहे हैं, लेकिन तब सरकार अपने बचाव में अलग-अलग तर्क पेश करती रही है. अब जब अपने घर के अंदर से ही आवाज आयी, तो सामने आये देश के गृहमंत्री राजनाथ सिंह, जिन्होंने ऑल इज वेल कह कर चीजों को संभालने की कोशिश की, लेकिन तीर कमान से निकल चुका था, सो अरुण जेटली ने नाम तो नहीं लिया, लेकिन पूर्व वित्त मंत्री यशवंत सिन्हा पर निशाना साध डाला. कहने लगे कि अस्सी साल की उम्र में काम ढूंढ रहे हैं. और तमाम बातें वित्त मंत्री ने कहीं. वित्त मंत्री जब यह बातें कह रहे थे, तब शायद उन्हें इस बात का एहसास नहीं था कि वह अभी भले की किसी उम्र के हों, लेकिन बढ़ तो अस्सी की ओर ही रहे हैं. एक न एक दिन वह भी अस्सी के होंगे और अस्सी के उम्र के काम मांगना क्या गुनाह है क्या? इससे पहले पेट्रोल-डीजल के दाम बढ़ने को लेकर जो बयान वित्त मंत्री का आया था, वो भी आपने सुना ही होगा.
भाजपा के घर के अंदर से उठी इस आावाज के शांत होने की जगह बढ़ते जाने की आशंका है, क्योंकि वित्त मंत्री अरुण जेटली के सवाल का जबाव बड़े जोरदार ढंग से यशवंत सिन्हा ने दे दिया है. कहा है कि अगर हम काम मांगते, तो आप वहां नहीं होते. भाजपा के पूर्व और वर्तमान वित्त मंत्री के बीच इस तल्खी का क्या देश के लोगों को फायदा हो रहा है? व्यक्तिगत तौर पर सवाल उठाने से क्या समस्याओं को समाधान हो जायेगा? क्या जीएसटी का रिटर्न भरने के लिए परेशान रहनेवाले व्यापारियों की समस्या सुलझ जायेगी? क्या पेट्रोल-डीजल के दामों में इन बयानों का असर पड़ेगा? शायद नहीं, तो फिर इस बयानबाजी के क्या मायने निकालने चाहिये. आज कुछ लोगों से बात हो रही थी, तो उनका कहना था कि हर सेक्टर से निराशा का माहौल है. इसका असर अपने लोक उत्सवों तक पर पड़ रहा है. इस बार की पूजा में वैसी भीड़ नहीं देखने को मिली, जो पिछले सालों में होती रही है.
सोशल मीडिया पर जीएसटी को ब्लू ह्वेल गेम का भारतीय वजर्न कहा जा रहा है. ऐसे भी मैसेज देखने को मिल रहे हैं, जिसमें हाल-चाल की जगह लोग जीएसटी रिटर्न की बात करते दिखते हैं. अभी दुर्गा पूजा में एक मैसेज आया, जिसमें मां से जीएसटी रिटर्न दाखिल करने की बुद्धि देने की बात कही गयी है. अगर ऐसे मैसेज और बातें आम लोगों के बीच हो रही हैं, तो संकेत अच्छे नहीं हैं.

सोमवार, 25 सितंबर 2017

समाज को बनानेवाली खबरें

बेतिया व बेगूसराय से समाज को राह दिखानेवाली ऐसी दो खबरें पांच दिनों में आयी हैं, जिनकी इस समय समाज को बड़ी जरूरत है. 20 सितंबर को बेतिया के साठी प्रखंड के धमौरा गांव से समाचार आया कि  वहां की पूजा कमेटी में 10 सदस्य हिंदू हैं, तो दस मुस्लिम भी शामिल हैं. यही नहीं एक तारीख को मोहर्रम के दौरान निकलनेवाली जुलूस की तैयारियों में हिंदू समाज के लोग जुड़े हैं. यानी मुस्लिम दुर्गापूजा का इंतजाम कर रहे हैं. कैसे पूजा होगी, कहां पंडाल बनेगा. मां को क्या भोग लगेगा. पूजा के बाद कितने लोगों को प्रसाद खिलाया जायेगा भंडारा में, तो हिंदू समाज के लिए मोहर्रम में मातम मनाते नजर आयेंगे. यह गंगा जमुनी तहजीब का ऐसा नमूना है, जिसे हमारी पीढ़ियां सीचती आयी हैं और इसे अब हमारी पीढ़ी आागे बढ़ा रही है.
यहां सुबह होते ही धमौरा पंचायत के पूर्व मुखिया जाकिर गुलाब यह चिंता करना शुरू कर देते हैं कि माईस्थान की सफाई कैसे होगी. पंडाल कब तैयार हो जायेगा. वहीं, पूजा समिति के अध्यक्ष देवेंद्र कुमार झा की चिंता इस बात की है कि मोहर्रम के दौरान निकलनेवाले जुलूस में किसी तरह की कोर-कसर नहीं रह जाये.
हाल के सालों में जिस तरह से धार्मिक असहिष्णुता की बात होती रही है. वैसे में धमौरा के लोगों का प्रयास भले ही छोटा हो, लेकिन इसका संदेश बहुत बड़ा है. धमौरा की तरह ही बेगूसराय की किरोड़ीमल गजानंद दुर्गा पूजा समिति के 24 सदस्यों में 17 मुस्लिम समुदाय के लोग हैं यानी समिति में इन लोगों का बहुमत है. किरोड़ीमल में बीते 97 साल से पूजा हो रही है. यहां मंदिर से पचास मीटर की दूरी पर मस्जिद है, जहां पांचों वक्त की नमाज होती है, जब नवाज का समय होता है, तो मंदिर में होनेवाली पूजा का लाउडस्पीकर बंद कर दिया जाता है. यह भाईचारे और आपसी एकता की मिसाल है. इसके लिए किसी सरकारी या प्रशासनिक आदेश की जरूरत नहीं है. यह यहां के लोग खुद कर रहे हैं.

जब जिसे चाहिये बुरा कहिये, इससे आसान कोई काम नहीं

आज जब चारों ओर सच और झूठ को लेकर ऐसी हवा बनी हुई है कि इसमें अंतर कर पाना मुश्किल हो रहा है. आप किसी चीज को समझने की कोशिश करते हैं, तब तक उसके पक्ष में दो-चार ऐसी बातें आ जाती हैं, जो आपको परेशान करने लगती हैं. सोशल मीडिया के इस जमाने में जब एक-दूसरे को बुरा साबित करने की होड़ लगी हुई है. ऐसे में असलम साबरी को सुनना सुहाना लगता है. वह कहते हैं, जब जिसे चाहिये बुरा कहिये, इससे आसान कोई काम नहीं. सचमुच, किसी को बुरा कहने से आसान कोई काम नहीं है. ऐसा उन लोगों के लिए है, जो झूठ की खेती करते हैं. उसी को जीते हैं. आज हमारे आसपास ये आम हो चला है.
हर सक्षम हाथ में स्मार्ट फोन है. न्यू मीडिया का जमाना है. फेसबुक, ट्विटर, इंस्टाग्राम जैसी सोशल साइट्स हैं, जो आपके संदेश को देश-दुनिया तक पलक झपकते ही पहुंचाती हैं. अब हर आदमी पत्रकार है. अपनी मनमर्जी का पत्रकार, जो चाहे वो कहे और जो चाहे वो लिखे. हां, सोशल साइट्स के कुछ पाबंदियां लगानी जरूर शुरू की हैं, लेकिन हम जिस चीज की बात कर रहे हैं, अभी शायद वह उनके दायरे में नहीं आयी है और लगता है कि आयेगी भी नहीं.
बचपन में एक कहावत सुनता था कि दूसरे के बारे में उतना ही बोलना चाहिये, जितना आप सुन सकें, लेकिन यहां मामला उसका पूरा उल्टा है. यहां आप दूसरे के बारे में चाहे जितना बोल दें. मनगढंत चीजें ही तो कहनी हैं. आपकी कल्पना की उड़ान जितनी ज्यादा है, आप उतना सामनेवाले को धिक्कार सकते हैं. उसकी बुराई कर सकते हैं. यह हो रहा है, ऐसा करने में हम सब ये भूल जाते हैं कि हम कहां खड़े हैं. अगर मान लीजिये कि कोई गलत कह रहा है और कर रहा है, तो हमारा क्या काम है, क्या हम भी वैसे ही बन जायें या फिर हम अपने आपको उससे दूर रखें.
अगर मान लीजिये, किसी ने आपको भला-बुरा कहा, तो आप भी उसके बारे में वही कहेंगे, तो ऐसे में आपमें और उसमें अंतर क्या रह जायेगा. अगर हम ऐसी बातों में पड़ेंगे, तो शायद वह लक्ष्य हमसे दूर हो जायेगा, जिसके लिए हम काम कर रहे हैं. हमें पिछले एक-डेढ़ दशक पहले की महान क्रिकेटर भारत रत्न सचिन तेंदुलकर के बयान याद आते हैं, जब भी उनके खेल को लेकर आलोचना की जाती थी, तो वह उसका जबाव अपने कर्म (बल्ले) से देते थे, जब शतक जड़ देते थे, तो आलोचक अपने आप उनके फैन हो जाते थे. मुङो लगता है कि हमको किसी को बुरा कहने से अच्छा होगा कि हम अपने कर्म से यह साबित करें कि हमारी स्थिति क्या है? इससे माकूल और कोई जबाव नहीं होगा.

रविवार, 24 सितंबर 2017

स्वच्छता का अपमान नहीं करें जनाब!

प्रधानमंत्री बनने के बाद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने स्वच्छता को अभियान और जीवनचर्या में ढालने की मुहिम शुरू की, लेकिन यह मुहिम चंद ऐसे लोगों के कारण कभी-कभी हास्यास्पद बन जाती है, जो स्वच्छता के नाम पर दिखावा करने लगते हैं. भले ही यह फोटो खिचवाने के लिए किया जाता हो, लेकिन इसका संदेश सही नहीं जाता है. यह क्यों होता है, इस पर विचार किये जाने की जरूरत है, क्योंकि स्वच्छता का अपमान नहीं होना चाहिये.
हाल में एक तस्वीर देखने को मिली, जिसमें स्वच्छता अभियान चला रहे 25 से 30 में से पांच लोगों के हाथ में झाड़ थी और साफ करने के लिए फर्श पर केवल दो पत्तियां थीं, लेकिन लग रहा था कि सभी लोग कठिन परिश्रम कर रहे हैं, क्योंकि ऐसा पोज उन्होंने बना रखा था. यह करके समाज को आखिर हम क्या संदेश देना चाहते हैं? अगर आपको सही में स्वच्छता अभियान चलाना है, तो ऐसी जगहों का चुनाव करना चाहिये, जहां सही में गंदगी है. वहां अगर काम हो, तो लोगों को फायदा होगा और अगर कूड़े की वजह से कोई सार्वजनिक स्थान गंदा हो गया था, तो वह साफ हो जायेगा. इससे होगा ये कि लोग वहां पर गंदगी करने से पहले सोचेंगे.
दूसरी बात. सुबह के समय जब शहर में निकलिये, तो सफाई कर्मचारी कई स्थानों पर झाडू़ लगाते मिलते हैं. इनमें से कई लोग ऐसे होते हैं, जो कूड़ा उठाने के डर से झाड़ से सफाई तो करते हैं, लेकिन सड़क का कूड़ा धीरे से नाली में गिरा देते हैं और यह करते हुये आगे बढ़ते जाते हैं. सवाल है, क्या ऐसे सफाई कर्मी स्वच्छता को मुहिम के रूप में आगे बढ़ा रहे हैं.
हम उत्तर बिहार में रहते हैं. यहां के ज्यादातर जिलों में कूड़ा डंपिंग का स्थान नहीं है. शहरों से जो कूड़ा निकलता है. वह जैसे-तैसे सड़कों के किनारे डाला जाता है, जहां पर स्थान चयनित है. वहां पर कूड़ा पहुंच नहीं पाता है. ऐसे में हो क्या रहा है. इस पर विचार होना चाहिये. हम एक जगह के कूड़े से दूसरी जगह पर गंदगी कर रहे हैं. ऐसे और तमाम उदाहरण हैं, जिनके बारे में हम बात कर सकते हैं, लेकिन इस सबके के बीच महत्वपूर्ण ये है कि अगर हम स्वच्छता की बात करते हैं, तो हमको इसका भागीदार होना होगा. अपने घर से ही सही स्वच्छता को बढ़ाना होगा. अगर यह हम करते हैं, तो हम स्वच्छता के सपने को साकार कर सकेंगे, क्योंकि कोई भी सरकार बिना जन सहयोग के ऐसा नहीं कर सकती है.

शुक्रवार, 22 सितंबर 2017

केबीसी विनर सुशील बनेंगे शिक्षक!

केबीसी-पांच में पांच करोड़ का जैकपॉट जीत कर देश ही नहीं दुनिया में नाम करनेवाले सुशील कुमार ऐसे संवेदनशील इंसान हैं, जो दूसरे के दर्द को नहीं देख सकते. वह बिना बताये कितने लोगों की मदद करते रहते हैं. इसका अंदाजा शायद हम और आप नहीं लगा सकते हैं. इसके बारे में वह ज्यादा बात भी नहीं करना चाहते, जब कोई बात होती है, तो अपनी तारीफ पर वह चुप्पी साध लेते हैं और फिर बात बदल देते हैं. इससे वह कैसे इंसान हैं, इसका अंदाजा लग जाता है. सुशील भाई को टीइटी में सफलता मिली है. इसकी बधाई संबंधी पोस्ट मैं सुबह ही सोशल मीडिया पर लिख चुका हूं, लेकिन मुङो लगा कि उनकी इस सफलता पर इससे इतर भी कुछ लिखना चाहिये, क्योंकि वह जिस तरह से इंसान हैं. वैसा होना साधरण बात नहीं है. कहा जाता है कि साधरण बने रहना बहुत मुश्किल है, लेकिन सुशील भाई ने साधरण को साध रखा है. वह लगातार साधारण बने हुये हैं.
टीइटी में सफलता पर उन्हें चारों ओर से बधाई मिल रही है. ज्यादातर लोग उनसे शिक्षक बनने की बात कह रहे हैं. ऐसा इसलिए है, क्योंकि सुशील भाई ने अभी तक तय नहीं किया है कि वह नौकरी ज्वाइन करेंगे या नहीं, लेकिन मुङो लगता है कि लोगों के आग्रह पर वह जरूर विचार कर रहे होंगे और कोई बेहतर फैसला लेंगे.
मेरा जब भी मोतिहारी जाना होता है. अक्सर सुशील भाई से मुलाकात होती है. इस दौरान वह जिस आत्मीयता से मिलते हैं और बात करते हैं. वह अपने आप में अलग होती है. कुछ माह पहले मैं एक बैठक के सिलसिले में मोतिहारी गया था, तब उनसे मुलाकात हुई थी. काफी देर तक बातें होती रहीं. हम चाहते थे वह हमारे साथ थोड़ी देर और रहें, लेकिन उन्होंने विनम्र अनुरोध किया कि हमें जाना है. कुछ जरूरी काम है. मैंने पूछा, तो कहने लगे कि पत्नी ने कहा है, इसलिए मैंने टीइटी परीक्षा देने का फैसला लिया है. उसी की तैयारी कर रहा हूं. अब परीक्षा देना है, तो पढ़ना होगा. उन्होंने जिस सलीके से यह बात कही, मैं उन्हें रोक नहीं सका. उसके बाद दो बार और मुलाकात हुई. एक दिन मैं उनकी सितार क्लास में भी गया था, उनके गुरु के घर जहां, वह सीखते हैं. वह बेहतर सितार बजाने की चाहत भी रखते हैं. हालांकि मेरे हिसाब से वह अभी भी बेहतर प्रस्तुति देने लगे हैं.
सामाजिक बदलाव के लिए तो वह लगातार काम करते रहते हैं, जहां भी जरूरत होती है. वहां मौजूद रहते हैं. हाल में बाढ़ आयी, तो प्रभावितों की मदद में वह आगे आये. खुद प्रभावित इलाके में जाकर लोगों की मदद की. ऐसे कितने ही उदाहरण हैं, जिन्हें गिनाने में लंबा समय लगेगा. हां, एक बात और. सुशील कुमार ने समाज के आर्थिक रूप से कमजोर परिवार के एक सौ से ज्यादा बच्चों की पढ़ाई का जिम्मा उठा रखा है, जिनकी पढ़ाई का पूरा इंतजाम वह कर रहे हैं. 

गुरुवार, 21 सितंबर 2017

बात साधारण, लेकिन नतीजा असाधारण

बचपन में गांव में रामायण की कथा होती थी. एक महराज जी आते थे. लकदक कपड़े पहनते और बड़े नियम और संयम से रहते थे. पूरे नवरात्र कथा होती थी. दशहरा के दिन कथा का समापन होता था. बड़ी भीड़ उमड़ती थी. कथा सुननेवालों में महिलाओं व बच्चों की संख्या ज्यादा होती थी. मां की वजह से मुङो भी जाना पड़ता, क्योंकि तब तक मुझमे रामायण पढ़ने और कथा सुनने की ललक जग चुकी थी. गांव में कहीं भी रामायण का पाठ होता, तो वहां मैं जरूर जाता. अपने नंबर का इंतजार करता और रामायण का पाठ करने के बाद ही घर लौटता था. कई बार देर-रात हो जाती थी, जिसकी वजह से घर में डांट भी पड़ती, लेकिन वह मंजूर था.
हां, तो बात पंडित जी और रामयण की कथा की हो रही थी. रामायण के प्रसंग सुनाने के साथ वह हारमोनियम के साथ सुंदर भक्ति गीत भी सुनाते थे और किस्से-कहानियां भी बीच-बीच में कहते थे. उनके किस्से कहानियां कहने का अंदाज निराला था. एकता में शक्ति की कहानी, जो हम लोगों को स्कूल में पढ़ाई गयी, वह पंडित जी से भी सुनने को मिलती. वह बताते कि कैसे एक गांव में बड़ा व्यापारी रहता था, जिसने पूरे जीवन भर मेहनत करके बड़ा व्यापार करना शुरू किया, लेकिन इसी बीच वह बूढ़ा हो गया. उसका पूरा जीवन व्यापार को बढ़ाने में लग गया, लेकिन व्यापारी इस बात से परेशान था कि उसके पांच पुत्रों में से किसी की आपस में नहीं बनती थी. सब एक-दूसरे की खिलाफत करते. इससे व्यापारी की चिंता बढ़ती गयी, उसे यह लगता कि हमारी मृत्यु के बाद इतने बड़े व्यापार का क्या होगा?
व्यापारी लगातार परेशान रहने लगा, जिससे बीमार हो गया. उसे लगा कि वह अब नहीं बचेगा, तो उसने अपने पांचों बच्चों को एक दिन अपने पास बुलाया. पांचों बच्चे आये, लेकिन किसी की एक-दूसरे से बात नहीं हुई. बीमारी व्यापारी की चिंता और बढ़ गयी. इसी बीच उसने अपने पलंग (बेड) के पास से एक मोटी रस्सी निकाली और पांचों बच्चों की ओर बढ़ाते हुये कहा कि इस रस्सी को तोड़ सकते हो. इस पर उसके बच्चों ने कहा कि इसमें क्या है? अभी तोड़ देते हैं. एक-एक कर पांचों बच्चों ने प्रयास किया. पूरी ताकत लगायी, लेकिन रस्सी नहीं टूटी. इसके बाद व्यापारी ने कहा कि अब पांचों लोग मिल कर रस्सी को तोड़ दो. इसके बाद मन न होने के बाद भी पांचों ने मिल कर रस्सी को तोड़ने का प्रयास किया, लेकिन सफल नहीं हुये.
बच्चों की हालत देख, व्यापारी ने कहा कि रुक जाओ, तुम लोग इसे तोड़ नहीं सकते हो. इसके बाद उसने रस्सी ली और उसकी पांच लड़ियां अलग कर दीं और हर बेटे को एक-एक लड़ी दे दी. फिर क्या था. सभी बेटों ने कुछ ही सेकेंड में रस्सी को कई जगहों से तोड़ दिया. यह देखते ही व्यापारी ने कहा कि तुम लोगों को यहां बुलाने का मकसद पूरा हो गया. अब मेरी बात ध्यान से सुनो. जैसे रस्सी की पांचों लड़ियां एक में पिरोई हुई थीं, तो तुम में से पांचों लोग मिल कर उसे नहीं तोड़ सके, लेकिन उन्हें अलग कर दिया गया, तो तुम सबने कुछ ही देर में उन्हें तोड़ दिया. ऐसे ही अपना परिवार भी है. अगर तुम लोग मिल कर रहोगे, तो तुम्हें कोई पराजित नहीं कर सकता. तुम्हे आगे बढ़ने से नहीं रोक सकता. तुम अडिग लगातार आगे बढ़ते जाओगे, लेकिन फूट पड़ी, तो सब लोग कमजोर हो जाओगे.
पिता की बात सुन कर व्यापारी के पांचों बेटों को अपने किये पर पछतावा हुआ और उन्होंने उसी समय से साथ रहने का फैसला कर लिया, ताकि पिता के व्यापार को नयी उचाइंयों तक ले जा सकें. इस कहानी का मकसद ये है कि अगर हम किसी परिवार या संस्थान में एकता के साथ रहते हैं, तो हमें कोई भी डिगा नहीं सकता, लेकिन एकता में अगर दरार पड़ने लगी, तो फिर परेशानी से कोई बचा नहीं सकता. इस कहानी को सुनने के बहुत दिनों के बाद जब उच्च शिक्षा को प्राप्त कर रहा था, तो वैशाली का का इतिहास पढ़ने को मिला, जिसमें यह था कि किस तरह से यहां के लोग एकमत होकर फैसले करते थे. यही वजह थी कि वैशाली उस समय अजेय राज्य बन गया था, लेकिन जैसे ही एकता में ददार पड़ी, स्थितियां बदल गयीं.

सोमवार, 18 सितंबर 2017

ऐसी कोशिश बदल सकती हैं गांवों की तस्वीर

दरभंगा जिला मुख्यालय से बेनीपट्टी जानेवाली रोड लगभग 15 किलोमीटर दूर पिंचारूच गांव हैं. देश के अन्य गांवों की तरह यह भी है, लेकिन यहां जो मुहिम चल रही है. वह इसे अन्य गांवों से अलग करती है. गांव में प्राथमिक विद्यालय में पढ़नेवाले छात्रों को हिंदी और अंगरेजी बोलना सिखाया जाता है. इसके उत्साहजनक परिणाम सामने आ रहे हैं. वह बच्चे जो पहले मिड-डे मील के लिए स्कूल आते थे. अब पढ़ने के लिए स्कूल में आते हैं. छोटे-छोटे बच्चे हिंदी और अंगरेजी में फर्राटे से बोलते हैं. कविताएं सुनाते हैं, कहानियां पढ़ते हैं. गीत गाते हैं. यह बच्चे समाज के उस वर्ग से आते हैं, जिसे हम पिछड़ा के नाम से जानते हैं. गांव में यह प्रयोग शुरू हुआ मद्रास आइआइटी में प्रोफेसर रहे श्रीश चौधरी की पहल पर, जो सेवानिवृत्ति के बाद मथुरा की जीएलए यूनिवर्सिटी में सलाहकार के पद पर काम कर रहे हैं, लेकिन गांव से उनका संपर्क लगातार बना हुआ है.
श्रीश चौधरी की पहल पर गांव में अस्पताल बनाने का काम चल रहा है. वह कहते हैं कि जब मैं गांव आता था, तो यहां की पढ़ाई की स्थिति देख कर सोच में पड़ जाता था. इस दौरान मेरे मन में लगातार यह चलता रहता था कि क्या किया जाये, ताकि बच्चों में कम से कम हिंदी और अंगरेजी बोलने की क्षमता आए. इसी दौरान मेरे मन में यह विचार आया, जिसके बारे में मैंने गांव के बड़े-बुजुर्गो से बात की. इसके बाद प्लान तैयार हुआ.
प्लान बनने के बाद ग्रामीणों ने जिला प्रशासन के अधिकारियों के मुलाकात की. ग्रामीणों ने जब अपनी बात जिलाधिकारी के सामने रखी, तो उन्होंने सहर्ष गांव के स्कूल में छुट्टी के बाद एक घंटे और पढ़ाई का आदेश् दे दिया. इसी एक घंटे में प्राइमरी के बच्चों को हिंदी और अंगरेजी सिखाने का काम शुरू हुआ, वह भी बिना किसी फीस के. इसमें मदद गांव के लोगों और मद्रास आाइआइटी ने की.
बच्चों को पढ़ाने का जिम्मा गांव के सेवानिवृत्त बुजुर्गो, उच्च शिक्षा प्राप्त कर रहे छात्र-छात्रओं और ऐसी बहुओं को दिया गया, जो उच्च शिक्षा प्राप्त हैं. इन्हें पढ़ाने की एवज में एक घंटे का सौ रुपये दिया जाता है. इससे पढ़ाई करनेवाले छात्रों की आर्थिक मदद भी हो जाती है. साथ ही पढ़ाने से उनका ज्ञान भी बढ़ रहा है.
24 अक्तूबर 2016 को इस प्रयोग के दस महीने पूरे होने पर एक समारोह का आयोजन हुआ, जिसमें कई नामचीन हस्तियां आयीं. इनमें दरभंगा के तत्कालीन कमिश्नर, एसडीओ व पटना से कई अधिकारी शामिल हुए. 70 मिनट के समारोह के दौरान प्राइमरी के इन बच्चों ने ऐसे कार्यक्रम पेश किये, जिसने देखा, वह देखता रह गया. हिंदी, अंगरेजी और संस्कृत में ड्रामा से लेकर कविता व कहानी पाठ तक शामिल था. गांव में इस प्रयोग के डेढ़ साल हो गये हैं. पिंडारूच के लोग आसपास के गांवों के स्कूलों में भी यह प्रयोग करना चाहते हैं.
पिंचारूड में जो प्रयोग हो रहा है. आनेवाले दिनों में इसका असर देखने को मिलेगा, जब यह बच्चे प्राइमरी के बाद उच्च कक्षाओं में जायेंगे. ऐेसे ही प्रयोग अन्य स्कूलों में हों, तो इससे गांव में शिक्षा की स्थिति बदल सकती है, हिंदी और अंगरेजी में बोलनेवाले से बच्चों की ङिाझक खुलेगी और उनके लिए सफलता की राह खुलेगी. 

गुरुवार, 14 सितंबर 2017

केबीसी-नौ- गांधी जी से जुड़ा था एक करोड़ का सवाल

जेडी (यू) के यू का मतलब नहीं जाननेवाले बीरेश चौधरी केबीसी-नौ के पहले 50 लाख रुपये जीतनेवाले खिलाड़ी बन गये हैं. शुरुआती दौर में ही ऑडियंस पोल के जरिये जेडी (यू) के यूनाटेड का उत्तर देनेवाले बीरेश चौधरी के सामने एक करोड़ का सवाल भी आसान नहीं था. यह सवाल सत्य और अहिंसा के पुजारी महत्मा गांधी से संबंधित था. सवाल था, मेरे सत्य के प्रयोग के मुताबिक कृष्ण शंकर पांडया ने गांधी जी को क्या पढ़ने को कहा, इसका सही जवाब था, संस्कृत. यह जबाव बीरेश को नहीं मालूम था. इस समय उनके पास कोई लाइफ लाइन भी नहीं थी. ऐसे में उन्होंने गेम छोड़ने का फैसला लिया.
इससे पहले 50 लाख का सवाल भी आसान नहीं था. यह सवाल था 1951 के पहले आम चुनाव में किस कंपनी ने बैलेट बॉक्स बनाये थे. इसका सही जवाब था गोदरेज. इसका जवाब देने के साथ बीरेश 50 लाख रुपये जीत गये. इसके बाद वह रोमांचक दौर आया, जब उनसे 15वां सवाल किया गया और वो एक करोड़ की राशि जीतने के करीब थे, लेकिन ऐसा नहीं कर पाये. पेशे से शिक्षक बीरेश के माता-पिता साथ में आये थे, जब उनके हॉट सीट पर बैठने का मौका मिला, तो केवल वही एक ऐसे प्रतिभागी थे, जिनसे फास्टेस्ट फिंगर फस्ट का सही जवाब दिया था. इसके अलावा और कोई प्रतिभागी इसका सही जवाब नहीं दे सका था. यह जबाव देने में उन्हें आाठ सेकेंड का समय लगा था.

रविवार, 10 सितंबर 2017

स्वामी विवेकानंद का ऐतिहासिक भाषण, जिसके 125 साल पूरे

अमेरिका के शिकागो में विश्व धर्म सम्मेलन में स्वामी विवेकानंद का ऐतिहासिक भाषण, जिसके 11 सितंबर 2017 को 125 साल पूरे हो रहे हैं.
अमेरिका के बहनों और भाइयों
आपके इस स्नेहपूर्ण और जोरदार स्वागत से मेरा हृदय प्रसन्नता से भर गया है. मैं आपको दुनिया की सबसे प्रचीन संत परंपरा की ओर से धन्यवाद देता हूं. मैं आपको सभी धर्मो की जननी की तरफ से धन्यवाद कहूंगा और सभी जाति, संप्रदाय के लाखों-करोड़ों हिन्दुओं की तरफ के आपके प्रति कृतज्ञता व्यक्त करता हूं.
मेरा धन्यवाद उन वक्ताओं के लिए भी है, जिन्होंने इस मंच से यह कहा कि दुनिया में सहनशीलता का विचार सुदूर पूरब के देशों से फैला है. मुङो गर्व है कि मैं एक ऐसे धर्म से हूं, जिसने दुनिया को सहनशीलता और सार्वभौमिकता ग्रहण करने का पाठ पढ़ाया है. हम सिर्फ सार्वभौमिक सहनशीलता में विश्वास नहीं रखते, बल्कि हम विश्व के सभी धर्मो को सत्य के रूप में स्वीकार करते हैं. मुङो बेहद गर्व है कि मैं एक ऐसे देश से हूं, जिसने इस धरती के सभी देशों और धर्मो के अस्वस्थ और अत्याचारित लोगों को शरण दी है.
मुङो यह बताते हुये बहुत गर्व हो रहा है कि हमने अपने हृदय से उन इजराइलियों की स्मृतियां संभाल कर रखी हैं, जिनके धर्म स्थलों को रोमन हमलावरों ने तोड़ कर नष्ट कर दिया था और तब उन्होंने दक्षिण भारत में शरण ली थी. मुङो गर्व इस बात का है कि मैं एक ऐसे धर्म से हूं, जिसने महान पारसी धर्म के लोगों को शरण दी और अभी भी उन्हें प्यार से पाल-पोस रहा है.
भाइयों, मैं आपको एक श्लोक की कुछ पंक्तियां सुनाना चाहूंगा, जिसे मैंने बचपन से स्मरण किया और दोहराया है और जो करोड़ों लोगों द्वारा हर दिन दोहराया जाता है.
रुचीनां वैचित्र्याटृजुकुटिलनानापथजुषाम्
नृणामेको गम्यस्त्वमसि पयसामवर्ण इव.
(जैसे विभिन्न नदियां अलग-अलग �ोतों से निकल कर समुद्र में मिल जाती हैं. ठीक उसी प्रकार अलग-अलग रुचि के अनुसार विभिन्न टेढ़-मेढ़ अथवा सीधे रास्ते जानेवाले लोग अंत में भगवान में ही आकर मिल जाते हैं)
यह सभी जो अभी तक के सर्वश्रेष्ठ पवित्र सम्मेलनों में से एक है. स्वत: ही गीता के इस अद्भुत उपदेश का प्रतिपादन एवं जगत के प्रति उसकी घोषणा करती है.
ये यथा मां प्रपद्यन्ते तांस्तथैव भजाम्यहम्
मम वत्र्मानुवर्तन्ते मनुष्या: पार्थ सर्वश:
(जो कोई मेरी ओर आता है, वह चाहे किसी प्रकार का हो. मैं उसको प्राप्त होता हूं. लोग अलग-अलग रास्तों द्वारा प्रयत्न करते हुए अंत में मेरी ओर आते हैं.)
सांप्रदायिकता, हठधर्मिता और इसके भयानक वंशज लंबे समय से पृथ्वी को अपने शिकंजे में जकड़े हुये हैं. इन्होंने पृथ्वी को हिंसा से भर दिया है. कितनी ही बार यह भूमि खून से लाल हुई है. कितनी ही सभ्यताओं को विनाश हुआ है और न जाने कितने देश नष्ट हुये हैं. अगर ये भयानक दैत्य नहीं होते, तो आज मानव सभ्यता कहीं ज्यादा उन्नत होती, लेकिन अब समय पूरा हो चुका है.
मुङो पूरी उम्मीद है कि आज इस सम्मेलन का शंखनाद सभी हठधर्मिताओं, हर तरह के क्लेश, चाहे वो तलवार से हों या कलम से. सभी मनुष्यों के बीच की दुर्भावनाओं का विनाश करेगा.

मंगलवार, 5 सितंबर 2017

पुड़िया फाड़ कर देते हुये छात्र बोला, हमारा- गुरुजी का चलता है

मैं निराशावादी कभी नहीं रहा और भगवान से प्रार्थना करता हूं, आगे के जीवन में भी ऐसा मौका कभी नहीं आये, लेकिन जीवन में कुछ ऐसे पल आते हैं, जो लंबी समय तक सोचने को मजबूर करते हैं. आज शिक्षक दिवस है. हम सब शिक्षकों का सम्मान कर रहे हैं. अपनी तरह से आदर दे रहे हैं. अपने गुरुओं के बारे में सोशल साइट्स से लेकर बधाई संदेशों तक में बता रहे हैं. गुरु को गोविंद (भगवान) से बड़ा कह रहे हैं. यह सही भी है, हम लोग जिस राह पर हैं और जो भी हैं, वो उन गुरुओं की वजह से ही जिन्होंने हमें इस लायक बनाया है, लेकिन समाज की कड़वी हकीकत ये भी है कि पिछले तीन दशकों में समाज में बहुत चीजें बदली भी हैं. उनसे गुरु-शिष्य का रिश्ता भी अछूता नहीं रहा है. आगे मैं जिस वाकये का जिक्र करने जा रहा हूं, वो सभी गुरुओं के लिए नहीं है. बड़ी संख्या में ऐसे शिक्षक आज भी हैं, जो अपने वसूलों पर चलते हैं. उन्हीं की थाती की दुहाई हम देते हैं.
तीन साल पहले की घटना है. मैं गांव, एक पारिवारिक आयोजन में गया हुआ था, जहां मुङो प्राइमरी में शिक्षा देनेवाले कई शिक्षक मौजूद थे. परंपरा और स्वभाव के मुताबिक सभी शिक्षकों का पैर छूकर आशीर्वाद ले रहा था. इसी दौरान एक शिक्षक से बात होने लगी. पूछने लगे, कब आये? क्या कर रहे हो? शिक्षक के साथ बात चल ही रही थी. इसी बीच एक युवा छात्र, जो हमसे लगभग 15 साल छोटा होगा, पास में आया, उसने जेब से पान मसाले की पुड़िया निकाली, फाड़ी और शिक्षक की ओर बढ़ा दिया. गुरु-शिष्य परंपरा में मैं पहली बार ऐेसा नजारा देख रहा था. मुङो तो अपनी आखों पर विश्वास नहीं हो रहा था. शिक्षक भी हमें देख रहे थे. वह भी कुछ बोलने की स्थिति में नहीं थे. लगभग 30 सेकेंड तक हम सब एक-दूसरे को देखते रहे.
खामौशी के बीच हम में से पहली आवाज उसी छात्र की गूंजी, जिसने पुड़िया फाड़ कर शिक्षक की ओर बढ़ायी थी. कहने लगा, भैया, हमारा-गुरुजी का चलता है. यह सुनते ही गुरुजी भी थोड़ा सहज हुये और उन्होंने पुड़िया अपने हाथ में ले ली. हम तीनों की आपस में कोई बात होती, इसी बीच किसी ने मुङो आवाज दी, मैं उसकी ओर मुखातिब हो गया, लेकिन मन में कई सवाल उठ रहे थे, जिनके जवाब मुङो नहीं सूझ रहे थे.
 हां, एक बार-बार मन में जरूर आ रही थी. वह यह कि जब हमने स्कूल में पढ़ना शुरू किया था, तो वह स्कूल प्राइवेट (निजी) था. ईंट की छोटी-छोटी दीवारें और उस पर छप्पर रखा था. हमारे शिक्षक निजी नौकरी कर रहे थे. समय से स्कूल आते-जाते और पढ़ाते थे, लेकिन जब उन्हें पुड़िया फाड़ कर दी जा रही थी, तो स्कूल को मान्यता मिल चुकी थी. वहां छप्पर की जगह कंक्रीट की छतें थीं. हमारे समय में तीन छप्पर थे, लेकिन अब वहां दो मंजिला भवन में लगभग पचास क्लास रूम होंगे.
शिक्षक को सैकड़ों नहीं, हजारों रुपये का वेतन मिल रहा होगा. मुङो लगता है कि जितना समय यह परिवर्तन होने में लगा, उतने ही समय में गुरु-शिष्य के रिश्तों में भी बदलाव भी आया. हम लोग पढ़ते थे, तो पुड़िया नाम की चीज नहीं थी, लेकिन उदारीकरण के बाद बड़े पैमाने पर बदलाव हुये. हम सब बजार के हवाले हो गये. किसी विद्वान ने कहा है कि बजार में मानवीय रिश्तों, दया, करुणा और संवेदना की जगह नहीं है. वह टारगेट ओरियंटेड होता है, जिसमें मूल्य (दाम) ही सबकुछ तय करता है. हमारे गुरु-शिष्य परंपरा को भी शायद बाजार की ही नजर लगी है.

मंगलवार, 29 अगस्त 2017

वह आता, दो टूक कलेजे के करता पछताता

वह आता, दो टूक कलेजे के करता पछताता, पथ पर आता.
पेट-पीठ दोनों मिल कर हैं एक, चल रहा लकुटिया टेक.

महाकवि सूर्यकांत त्रिपाठी निराला की ये पंक्तियां बरसों पहले स्कूल के दिनों में पढ़ीं, तब से मानस में रच-बस गयीं. समय-समय पर स्मरण आता रहता, कभी गांव की यात्र के दौरान, तो कभी शहर की शोर भरी भीड़ के बीच, जिसमें कोई किसी को सुनने को तैयार नहीं. लगभग एक दशक के बाद आयी बाढ़ की विभीषिका ने हम पत्रकारों का काम भी बढ़ा दिया. अहले सुबह से लेकर देर रात तक कहां क्या हुआ कि तलाश में. बीते शनिवार रात की रात लगभग दो बजे काम खत्म करके घर जाने को हुआ, तो साथियों ने कहा कि साथ में चाय पीये बहुत दिन हो गया. चलते हैं, सब मिल कर चाय पीयेंगे और फिर अपने घरों को जायेंगे. सब साथ रेलवे स्टेशन रोड पर पहुंचे. चाय का आर्डर हुआ और हम लोग आपस में बात करने लगे. इसी बीच रामअशीष महतो, उम्र सत्तर के पार रही होगी. हम लोगों के पास आये. कुछ देर तक खड़े रहे. उनको देखते ही निराला जी कविता शिद्दत के याद आने लगी. बात करने की हिम्मत नहीं जुटा सका. कुछ देर तक रुकने के बाद, वह सड़क के पार गये और एक रिक्शा का हैंडिल पकड़ कर खड़े हो गये.
कुछ देर तक एकटक रामअशीष को देखता रहा. नहीं रहा गया, तो एक साथी से कहा कि उन्हें बुला लें. स्वाभिमानी रामअशीष पहले तो आने को तैयार नहीं हुये, लेकिन जब साथी ने बताया कि हम लोगों को कुछ बात करनी है, तो पास आये. बात शुरू हुई, तो कहने लगे, बेटा मुंबई में कमाता है. मेरे पास पोता रहता है. घर बाढ़ के पानी में दह गया, तो मंदिर में शरण लिये हैं. रात में रिक्शा चलाते हैं, तो खाना होता है. पोता मंदिर में सोता है, तो हम किराये पर रिक्शा लेते हैं. 35 रुपये रिक्शा का देना होता है. बाकी, जो बचे वो मेरा.
रामअशीष की काया ऐसी, जो निराला जी की कविता को भी मात दे रही. पेट और पीठ ऐसे मिले हुये, देख कर खुद अफसोस हो रहा था. कैसे समाज में हम रहते हैं. कहने लगे, शाम को खाना हुआ. होटल में पूड़ी-सब्जी खाया. बहुत कहने पर चाय पीने को तैयार हुये. बिस्कुट भी खाया. मैं लगातार रामअशीष को देख रहा था. उनसे कुछ और कहने और बोलने की हिम्मत नहीं जुटा पा रहा था. हमारे साथियों के सवाल भी लगा कि खत्म हो चुके हैं. चाय पीने के बाद वह धीरे से सड़क के पार गये और रिक्शे का हैंडिल पकड़ कर खड़े हो गये. शरीर पर एक धोती और फटा हुआ चप्पल छोड़ कर कुछ भी नहीं. भारी मन से मैं और मेरे साथी अपने घरों के लिए निकल गये, लेकिन रामअशीष की याद स्मृति से नहीं जा रही. निराला जी की कविता बार-बार समाज की हकीकत का एहसास कराती है. क्या हम और हमारा समाज इतना बेबस है? आखिर इस तस्वीर को कैसे बदला जा सकेगा? ऐसे तमाम अनगिनत और अनुरत्तरित सवाल.

शनिवार, 26 अगस्त 2017

सतुआ-नमक को भी मोहताज जिंदगी

मुजफ्फरपुर समेत उत्तर बिहार में बाढ़ और बांध टूटने से जो हालात बने हैं, उन्होंने आदमी और जानवर के बीच के फर्क को मिटा दिया है. सैकड़ों लोग अब तक अपनी जान परेशानी के पानी (कभी पानी को उत्सव माना जाता था) में गवां चुके हैं. रोज ये आकड़ा बढ़ता जा रहा है, जो लोग बचे हैं. उनका हाल भी ठीक नहीं है. हजारों घर दह गये हैं. लाखों जिंदगियां सड़क और बांध के सहारे जीने को मजूबर हैं, जब आप इनके बीच जाइयेगा, तो आपको इनके दर्द का एहसास होगा. सरकार की ओर से राहत और बचाव की बात होती है, लेकिन ये शब्द कैसे अर्थहीन हो जाते हैं. इनको देखना है, तो कभी रुन्नीसैदपुर के पास बागमती के तटबंध पर चले जाइयेगा या मन करे, तो मुजफ्फरपुर के बेला औद्योगिक क्षेत्र के बगल से गुजरनेवाली तिरहुत नहर के बांध पर जिंदगी बिता रहे लोगों से पूछ लीजियेगा. बहुत आसानी से पता चल जायेगा.
जो लोग त्रसदी का शिकार हो रहे हैं. इनका क्या कुसूर था. बस यही ना कि इनमें से कुछ लोग कभी बांध के अंदर के गांवों में रहते थे और बांध बना, तो उसके बाहर आ गये. अब गांव नदी के पास है, तो कहां जाएंगे, लेकिन उनसे सवाल नहीं हो रहा है, जिनके जिम्मे इन बांधों की मरम्मत का जिम्मा है, जिसके नाम पर हर साल करोड़ों का वारा - न्यारा होता है. वो लोग तो देखने तक नहीं आये, जिन्हें इसकी जिम्मेवारी दी गयी है. आखिर किस समाज में रह रहे हैं हम. कैसे हम खुद को विज्ञान के युग का होने का दंभ भरते हैं. बांध पर जिन लोगों को जिंदगी तबाह हो रही है. उनमें से ज्यादातर के पास कुछ नहीं बचा है. पन्नी के नीचे जिंदगी है. बच्चों को बचाने की जद्दोजहद है और टकटकी लगाये निगाहें. कोई मदद के लिए आयेगा, तो सुबह और रात का खाना होगा. खाना भी क्या, कभी चूड़ा-गुड़, तो कभी खिचड़ी. दाल, चावल, रोटी और सब्जी, तो नसीब नहीं है.
बच्चे दिनभर बांध पर खेलते रहते हैं. पास में नदी और छोटे-छोटे गड्ढों में भरा पानी. चिलचिलाती धूप में बच्चे परेशान होते हैं, तो नहाने के लिए चले जाते हैं. इस दौरान भी हादसे हो रहे हैं. 14 अगस्त की सुबह जब बागमती का बांध टूटा था, तो उसके पांच घंटे बाद भादाडीह की सोगारथ को एसडीआरएफ के लोग बचा कर लाये, तो वह खूब रो रही थी. कुछ बर्तन व बच्चों के साथ उसे बाहर लाया गया था. घर में मवेशियों को बचा कर रखा था, उन्हें नहीं ला सकी. इसीलिए परेशान थी, क्योंकि मवेशी उसकी कमाई का जरिया थे, जिनकी जलसमाधि हो गयी होगी. घर का और सामान भी बागमती की धारा ने लील लिया.
मुशहरी इलाके की रहनेवाली रंजन देवी का दर्द भी ऐसे ही है. पति कमाने के लिए महीने भर पहले पंजाब गये, तो तीन बच्चों के साथ रंजन घर में अकेली बचीं. उन्हीं पर बच्चों के पालन-पोषण की जिम्मेदारी. पानी आया, घर डूब गया, तो गांव के स्कूल में बच्चों के साथ शरण ली. छह दिन तक वहां रहीं. खाने को मोहताज हुईं, तो गांव के स्कूल से आरजू- मिन्नत कर नाव के सहारे मुशहरी पहुंची, जैसे ही नाव किनारे लगी, तो रंजन व उसके बच्चों की हालत देख कर लोग खुद को गमगीन होने से नहीं रोक सके. साढ़े तीन साल की शिवानी दूध के लिए तड़प रही थी, तो पांच और सात के बच्चे खाने की खातिर. रंजन के लिए यहां से शिविर का सफर आसान नहीं था, लेकिन वह किसी तरह तिरहुत नहर के बांध पर पहुंची, जहां रहने की जद्दोजहद शुरू हुई.
सोगारथ व रंजन जैसी कहानियां एक नहीं, अनेक हैं. बस, आप इन जगहों पर पहुंच जाइये. आप अपना दुख भूल जायेंगे. हां, अगर आप इन जगहों पर जा रहे हैं, तो अपनी क्षमता के मुताबिक राहत का कुछ सामान जरूर लेकर जायें. पता नहीं किस जरूरतमंद के काम आ जाये, जिससे उसकी जिंदगी की सांस कुछ और बढ़ जायें, क्योंकि इन कैंप व बाढ़ प्रभावित इलाकों से रोज जो मौत की सूचनाएं आती हैं. वह मन को झकझोरनेवाली हैं. मुजफ्फरपुर शहर से सटे धीरनपट्टी गया था. वहां के लोगों ने बताया कि एक बच्च गेंहू पिसवाने के लिए चक्की पर गया था. रास्ते में सांप ने डस लिया, जिससे उसकी मौत हो गयी. औराई से खबर आयी कि गर्भवती दुखनी की परेशानी बढ़ी, तो गांव के लोग नाव खोजने लगे. नाव नहीं मिली. इससे दुखनी, इस दुनिया से चल बसी.

गुरुवार, 24 अगस्त 2017

मादापुर में चलती है जेपी की ग्रामसभा

चंपारण सत्याग्रह के शताब्दी वर्ष में गांव- ग्रामसभाओं को और सशक्त बनाने पर बात हो रही है. ऐसे में गांधी जी के सपने को मादापुर की ग्रामसभा साकार कर रही है. इसकी स्थापना लोकनायक जय प्रकाश नारायण (जेपी) ने अस्सी के दशक में की थी, जब वो नक्सल उन्मूलन अभियान के तहत मुजफ्फरपुर प्रवास पर आये थे. मुशहरी अंचल के विभिन्न गांव में रहते हुये जेपी ने छह और ग्रामसभाएं स्थापित की थीं. अगर बिहार की बात करें, तो ऐसी कुल 52 ग्रामसभाओं की स्थापना लोकनायक की ओर से की गयी थीं. अन्य ग्रामस्पभाओं ने काम करना बंद कर दिया, लेकिन मादापुर में लगातार काम हो रहा है. यह ग्रामसभा पंचायती ग्राम व्यवस्था से अलग काम करते हुये मादापुर के लोगों को सस्ते दर पर सामान उपलब्ध करा रही है. जनकल्याण के काम कर रही है.
मुजफ्फरपुर से सरैया रोड पर मादापुर गांव छह किलोमीटर दूर है. पांच किलोमीटर मुख्य सड़क पर और एक किलोमीटर संपर्क पथ पर चलना पड़ता है. गांव तक अच्छी सड़क है. गांव में पक्के और साफ सुथरे मकान दिखते हैं, जो यहां के संपन्न होने का संकेत देते हैं. कुछ ही दूर आगे जाने पर बड़ा तालाब है, जो ग्रामसभा का है. इससे सटा हुआ मंदिर भी है. ग्रामसभा की तीन बार से अध्यक्ष  बन रहीं बंदना शर्मा कहती हैं कि मुख्यत: तालाब की आय से हमारी ग्रामसभा चलती है. तालाब के एक ओर बंदना शर्मा का घर है, तो दूसरी ओर कोषाध्यक्ष उमेश पांडेय का मकान. उमेश पांडेय टेलीफोन विभाग के कर्मचारी रहे हैं.
उमेश पांडेय के दरवाजे पर बड़ी दलान है. इससे जुड़े कमरे में ग्रामसभा का सामान है. इनके पास कड़ाही, भगोना, दरी, जाजिम. पंखा से लेकर शामियाना और 150 कुर्सियां भी हैं. दरी का किराया दस रुपये हैं, तो शामियाना सौ रुपये में मिलता है. मासांहारी खाने का सेट अलग है. ग्रामसभा का अपना बैंक एकाउंट है, जिसमें बर्तनों के किराये व तालाब में मछली पालन से मिलनेवाला पैसा जमा किया जाता है. इसका बैलेंस लाखों में है. गर्व से यह बात कोषाध्यक्ष उमेश पांडेय बताते हैं.
ग्रामसभा से जुड़े लोग कहते हैं कि समझदारी से ही हम लोग इसको चला रहे हैं, नहीं तो पूरे प्रदेश में दूसरी ग्रामसभा नहीं चल रही है. यह पूछने पर गांव के मुखिया और सरपंच का विरोध नहीं होता है, तो यह लोग बोल पड़ते हैं. हम उनके सहयोग के लिए हैं, विरोध के लिए नहीं. 2001 में पंचायत चुनाव से पहले हमारी ग्रामसभा को सरकारी मदद भी मिलती थी और भी अधिकार थे, लेकिन चुनाव के बाद हमारे अधिकार समाप्त कर दिये गये, जिसके लिए हाइकोर्ट में केस चल रहा है. ग्रामसभा के मंत्री पीर मोहम्मद हैं, जो सिंचाई विभाग में काम करते थे. रिटायर होने के बाद गांव में रहने लगे. पीर मोहम्मद कहते हैं कि यह अलग चीज है. इससे लोगों को फायदा है.
जेपी की ओर से स्थापित ग्रामसभा के पास पंचायतों जैसे संवैधानिक अधिकार नहीं है, लेकिन यह काम के बल पर अपनी पहचान बनाये हुये है. मादापुर गांव की मुख्य सड़क दो साल में ही टूट गयी है. इसको लेकर ग्रामसभा के सदस्यों में आक्रोश है. इनका कहना है कि हम लोगों ने निर्माण के समय ही इसका काम रुकवा दिया था. शिक्षक रहे नागेश्वर बैठा कहते हैं कि शिक्षा का स्तर लगातार गिरता जा रहा है. यह केवल मेरे गांव की बात नहीं है. पूरे प्रदेश की यही हालत है.
ग्रामसभा की अध्यक्ष बंदना शर्मा व कोषाध्यक्ष उमेश पांडेय गांव दिखाते हैं. कहते हैं कि ग्रामसभा केवल किराये पर ही देने का काम नहीं करती है. गांव के लोगों की मदद भी करते हैं. अगर कोई बीमार होता है या फिर कोई अन्य जरूरत पड़ती है, तब भी हम आर्थिक मदद देते हैं. समय-समय पर होनेवाली ग्रामसभा में पंचायत के चुने हुये प्रतिनिधि भी शामिल होते हैं, जो ग्रामसभा के फैसलों को लागू कराने में मदद करते हैं.
दो साल पर होनेवाला ग्रामसभा का चुनाव हाथ उठा कर होता है. इसके लिए राज्य स्तर से भूदान कमेटी के सदस्य पर्यवेक्षक के तौर पर आते हैं. बैठक में सदस्यों का नाम पुकारा जाता है, सब लोग हाथ उठाते हैं, तो उसे शामिल कर लिया जाता है. अगर हाथ नहीं उठते हैं, तो फिर उस पर विचार नहीं किया जाता है. कोषाध्यक्ष उमेश पांडेय कहते हैं कि गांव में होनेवाली छोटी घटनाओं को हम लोग ग्रामसभा के जरिये ही सुलझा लेते हैं, जब भी कोई घटना होती है, तो हम लोग बैठते हैं और फैसला करते हैं, जिसे सब लोग मानते हैं. अगर किसी मामले में गांव में पुलिस आ भी जाती है, तो वह हम लोगों से संपर्क करती है. हमारी कोशिश होती है कि गांव का मामला आपसी सहमति से ही सुलझ जाये. 2009 से गांव का मामला  दर्ज नहीं हुआ है.
स्किल डेवलपमेंट की चर्चा अभी जोरों पर है, लेकिन मादापुर गांव में ग्रासभा की ओर से इसका प्रयोग लगभग दस साल पहले किया गया था, जब ग्रामीणों को आर्थिक मदद दी गयी थी और उन्हें अपनी पसंद का काम करने की छूट दी गयी थी, ताकि वह आत्मनिर्भर बन सकें, लेकिन यह प्रयोग पूरी तरह से सफल नहीं हो पाया था.

शुक्रवार, 18 अगस्त 2017

बाढ़ नियंत्रण का कांसेप्ट ही गलत

बाढ़ नियंत्रण का कांसेप्ट ही गलत है. इसकी जगह बाढ़ प्रबंधन का काम होना चाहिये. नदियों को अविरल बहने देना चाहिये और जहां अवरोध हो, उसे हटाना चाहिये. यह बेसिक कांसेप्ट अपनाया जाना चाहिये. नदियों पर तटबंध बनाना कहीं से भी उचित नहीं है. यह सुरक्षा का भ्रम पैदा करते हैं. एक बात और जो मैं कहना चाहता हूं. दरअसल, हम लोग जिस इलाके में रहते हैं. वहां हिमालय से आनेवाली नदियां बहती हैं. यह पूरा इलाका इन्हीं नदियों की मिट्टी से बना है. पहले यहां समुद्र था. इसको समझना होगा कि हिमाचल दुनिया का सबसे नया पहाड़ है, जो बनने की प्रक्रिया में है. इसकी ऊंचाई हर साल कुछ सेंटीमीटर बढ़ जाती है, जिससे हिमालय क्षेत्र में हलचल होती रहती है. इसकी वजह से साल में सैकड़ों भूकंप भी आते हैं, इनमें कुछ बड़े भूकंप होते हैं, जो हमें पता चलते हैं, जबकि कई भूकंप ऐसे होते हैं, जिनके बारे में हम जान नहीं पाते हैं, लेकिन इन्हें संबंधित विभाग रिकार्ड करते हैं.
भूकंप की वजह से हिमालय में भूस्खलन (लैंडस्लाइड) होता है, जिसकी मिट्टी नदियों के जरिये मैदान तक आती है. मैं कह रहा था कि हिमालय की मिट्टी से अपने इलाके का निर्माण हुआ है. इसको समझना जरूरी है. भूगर्भ शाी निर्माण की इस प्रक्रिया को पैंजिया कहते हैं. आपको पता होगा कि धरती 12 बड़े टुकड़ों में बंटी है. इसके बीच समुद्र है. एक बात और आप सुनते और देखते होंगे कि कहीं खुदाई की जाती है, तो दो-ढाई हजार साल पुरानी बुद्ध की मूर्तियां व बुद्ध काल के अवशेष मिलते हैं. ऐसा इसलिए होता है कि क्योंकि तब से अब तक में मिट्टी की परत इतनी चढ़ गयी है. यह निर्माण की प्रक्रिया लगभग 12 लाख साल से जारी है, जो लाखों साल और जारी रहेगी.
हिमालय से आनेवाली मिट्टी को सबसे दुनिया में सबसे उपजाऊ माना गया है. इसके अलावा अमेरिका के मिसिसिपी घाटी की मिट्टी को भी सबसे उपजाऊ की श्रेणी में रखा गया है. आप सोचिये, इस साल बागमती का तटबंध चार जगह टूटा है. इससे पहले भी यह 58 बार टूट चुका है. बीत्ी 26 जुलाई को पटना में जल संसाधन विभाग की बैठक हुई थी, जिसमें बांधों को लेकर चर्चा की गयी थी, तब इंजीनियरों ने कहा था कि रख-रखाव के अभाव में तटबंध टूटते हैं, लेकिन हम लोग काम कर रहे हैं, जिसकी वजह से 2009 के बाद तटबंध नहीं टूटे हैं, तब मैंने कहा था कि 2009 के बाद ज्यादा बाढ़ ही नहीं आयी, तो बांध कैसे टूटता. इस बार बाढ़ आयी, तो देखिये कैसे बांध टूटे.
हम केवल बागमती की बात करें, तो यह अपने साथ हर साल लगभग एक करोड़ टन उपजाऊ मिट्टी लेकर आती है. पहले ये मिट्टी बाढ़ के साथ पूरे इलाके में फैल जाती थी, जिससे खेतों की उर्वरा शक्ति बढ़ जाती थी, लेकिन बांध बनने के बाद ये मिट्टी नदी के पेट में ही रह जाती है, जिससे वो ऊंचा होता जा रहा है. कई स्थानों पर नदी का पेट काफी उथला हो गया है. यही वजह है कि जब पानी आता है, तो बांध पर दबाव बढ़ जाता है और वह टूट जाता है. शुक्र मनाइये इस बार गंगा नदी में पानी ज्यादा नहीं है, क्योंकि यूपी, उत्तराखंड के इलाके में ज्यादा बारिश नहीं हुई है. अगर बारिश हुई होती, तो क्या होता. गंगा में जब पानी बढ़ता है, तो वह बिहार की नदियों पर दबाव बनाता है. भगवान की कृपा थी कि इस बार ऐसा नहीं है, नहीं तो स्थिति और भयावह होती.
हमारा साफ तौर पर कहना और मानना है कि बाढ़ नियंत्रण नहीं, बाढ़ प्रबंधन का इंतजाम किया जाना चाहिये, क्योंकि बाढ़ नियंत्रण एक भ्रम से ज्यादा कुछ नहीं है. हमारी हजारों साल की परंपरा रही है. नदी की धार खुद अपना रास्ता तय कर लेती है. तमाम किंवदंतियां, लोक कथाएं हैं, जो बाढ़ से संबंधित हैं. हमारे पूर्वज बाढ़ आने पर उत्सव मनाते थे. नाचते थे, झूमते थे, गाते थे. रेणु अब से कुछ दशक पहले रिपोर्टिग कर रहे थे. उस दौरान वह बाढ़ की कवरेज करने के लिए मुसहरों के इलाके में गये, तो वहां नृत्य हो रहा था. पास में जल रही आग पर भुट्टे भूने जा रहे थे. मुसहर समाज बाढ़ आने का जश्न मना रहा था. गांव में कहावत थी, बाढ़े जीली, सुखाड़े मरलीं. मिथिलांचल में कहावत है, आयल बलान, तो बनल दलान. गयल बलान, तो टूटल दलान. हमें इन कहावतों से सबक लेना होगा. नदियों को अविरल बहने देना होगा, तभी हम सुरक्षित रह पायेंगे.
हां, एक बात और बाढ़ के दौरान कई जगहों पर सड़क बह जाती है और जब बाढ़ का पानी उतरता है, तो सड़क को फिर से बना दिया जाता है. मेरा कहना है कि जब इंजीनियरों को यह पता है कि वहां पर बाढ़ से कटाव हुआ है. सड़क बही है, तो उन्हें वहां सड़क की जगह पुल का निर्माण करना चाहिये, ताकि अगली बार जब बाढ़ आये, तो वहां सड़क पर दबाव नहीं पड़े. इसके साथ हमें बड़े तालाब बनाने की प्रक्रिया फिर शुरू करनी चाहिये. पहले अपने इलाके में बड़े तालाब थे, अब तालाबों के लिए जो काम हो रहा है. वो किस तरह से कागजी है, ये किसी से छुपा नहीं है.
(अनिल प्रकाश, राष्ट्रीय संयोजक, गंगा मुक्ति आंदोलन ने शैलेंद्र से बातचीत में बताया)

बुधवार, 16 अगस्त 2017

टूटा बांध, आया सैलाब

नदियों को बांधने का प्लान जिसने भी बनाया होगा, उसने शायद इस तरह की विभीषिका के बारे में नहीं सोचा होगा, अगर बांध टूट जाये, तो क्या होता है. आप देख सकते हैं. सीतामढ़ी के रुन्नीसैदपुर में बागमती का बांध टूटा, तो क्या किस तरह से पानी उन इलाकों को फैलने लगा, जिन्हें सुरक्षित बता दिया गया था. बांध की मरम्मत के नाम पर खर्च होनेवाले करोड़ों रुपयों पर भी सवाल उठने लगा है.
https://www.youtube.com/watch?v=RujYScbZkOQ

रविवार, 13 अगस्त 2017

हाल की तीन घटनाओं से लें सबक

हाल के दिनों की तीन बड़ी घटनाएं, जिन्होंने समाज पर किसी न किसी रूप में असर डाला. सबसे लेटेस्ट घटना बक्सर के डीएम मुकेश पांडेय का आत्महत्या कर लेना. इसके जो कारण उन्होंने बताये हैं, उनके सामने आने के बाद जिस तरह से उनके ससुर का बयान आया है वो. मुकेश ने अपनी आत्महत्या की वजह पत्नी व माता-पिता के बीच संबंधों में कड़वाहट को बताया है. दूसरी घटना रेमंड कंपनी के मालिक का किराये के मकान में रहना. वजह बेटे की बेरुखी. तीसरी घटना अरबपति महिला का उसके पॉश इलाके के फ्लैट में कंकाल मिलना. उसकी मौत का पता तब चला, जब डॉलर कमा रहा बेटा, अमेरिका से सालभर बाद लौटा.
तीनों ही घटनाएं बजारबाद के बाद सामाजिक तानेबाने में आये बिखराव को बयान करती हैं. किस तरह से पद और प्रतिष्ठा होने के बाद भी लोग एकाकी हो जाते हैं. उनकी मदद को कोई नहीं होता है और कैसे उन्हें जीवन में परेशानियां उठानी पड़ती हैं. ऐसी तमाम घटनाएं समाज में हो रही होंगी. हो सकता है, जो इनसे भी भयावह हैं, लेकिन सामने नहीं आतीं. पिछले कई दिनों से लगातार ये घटनाएं जेहन में कहीं न कहीं घूम रही थीं. समाज की कड़वी हकीकत से रू-ब-रू करा रही थीं.
आखिर इस अंधी दौड़ में लोग किसके लिए यह सब कर रहे हैं, क्यों उन्हें समय पर होश आता है? क्या जीवन का असली उद्देश्य पैसा कमाना ही है? ऐसे अनगिनत सवाल? इसी क्रम में कुछ साल पहले की वरिष्ठ समाजवादी चिंतक सच्चिदा बाबू से हुई मुलाकात याद आयी. सच्चिदा बाबू वो व्यक्ति हैं, जो न्यूनतम जरूरतों में रहते हैं. ऐसा नहीं है कि वो आधुनिक सुख-सुविधाओं की चीजें नहीं रख सकते हैं, लेकिन वह इनका उपयोग नहीं करते हैं. बिजली कनेक्शन की जगह सोलर लाइट है. बिजली नहीं, तो पंखे का सवाल ही नहीं. गरमी की तपती दुपहरी में हम लोग पहुंचे थे, जिसमें वो बहुत की सुकून से थे. देश-समाज पर बताने लगे, तो इसी क्रम उन्होंने यूरोप से जुड़ी एक कहानी सुनायी, जिसमें विकास और उससे आयी समृद्धि से किस तरह से बेचैनी आती है, उसके बारे में बताया.
पॉश कालोनी में एक सपन्न परिवार रहता था, जिसके सभी सदस्यों के कमरे अलग थे. गाड़ियां अलग थीं. सबका घर आने-जाने का टाइम अलग था. सब अलग-अलग आते-जाते और अपने हिसाब से रहते थे. उस कोठी से कुछ ही दूर पर मजदूरों की एक झोपड़ी थी, जिसमें कई मजदूर रहते, जिनमें आपस में गजब का प्रेम. सुबह साथ में उठते, खाना बनाते, खाते और काम पर निकल जाते. शाम को वापस लौटते, तो मिल कर मनरंजन करते. खाना बनाते. खाते और सो जाते. किसी तरह का तनाव उनकी जिंदगी में नहीं था. इससे उलट संपन्न घर में तनाव ही तनाव. घर के सब सदस्य जब कभी भी मिलते, तो आपस में वाद-विवाद के और कुछ नहीं होता. झगड़े की वजह से कुछ ही देर में सब अलग हो जाते. घर के मुखिया को लगातार यह बात परेशान करती कि आखिर क्या वजह है, जो हमारे घर में लाख कोशिशों के बाद भी शांति नहीं है.
पड़ोस की झोपड़ी में मजदूरों के बीच प्रेम को देख कर वह प्रेरणा लेते. एक दिन उनसे नहीं रहा गया और वह झोपड़ी में पहुंच गये. वह सूत्र जानने के लिए जिससे मजदूर आपस में मिल कर खुश रह रहे थे. जीवन में कोई तनाव नहीं था. उनके बारे में सपन्न परिवार के मुखिया ने जाना और वापस अपने घर आ गये. उनके मन में लगातार उधेड़बुन चल रही थी. इसी बीच सोचने लगे. इतना अच्छे से झोपड़ी के लोग रहते हैं, क्यों न उनकी मदद की जाये, ताकि उनका जीवन स्तर भी कुछ ऊपर उठ सके. यही सोच कर उन्होंने कुछ सोना, मजदूरों को के दिया. इसके बाद मजदूरों की दिनचर्या बदल गयी. सोने के साथ झोपड़ी में समृद्धि आयी थी, लेकिन उनका सुकून और चैन धीरे-धीरे छिनने लगा. वजह वही सोना बना. सब मजदूर काम पर जाते, तो एक को झोपड़ी में रहना पड़ता. सोने की रखवाली के लिए. इसके बावजूद दूसरे मजदूरों में यह आशंका लगी रहती, कहीं, झोपड़ी में रुकनेवाला मजदूर बेइमानी नहीं कर ले. शाम का मनरंजन बंद हो गया, क्योंकि सब लौटते, तो एक-दूसरे को शक की निगाह से देखते. मजदूरों के बीच कभी-कभी किसी न किसी बात को लेकर झगड़ा भी होने लगा.
कहने का अर्थ यह कि समृद्धि अपने साथ किस तरह से एकाकीपन, आपस में विश्वास की कमी, एक-दूसरे को शक की निगाह से देखना, झगड़ा-लड़ाई, वह सब लेकर आयी, जिससे किसी व्यक्ति का सुकून छिन जाये. अभी हम लोग जिस समाज में रह रहे हैं. उसकी सच्चाई इससे अलग नहीं, बल्कि इससे भी ज्यादा कड़वी लगती है. कहते हैं कि हम मंगल गृह पर पहुंच गये, लेकिन अपने पड़ोस के फ्लैट में रहनेवाले व्यक्ति के बारे में नहीं जानते. हमने इस तरह से अपने को बना लिया है. सामाजिक सुरक्षा को ढाचा था, उस पर बड़ी चोट लगी है. प्राइवेसी के नाम पर. स्वतंत्रता के नाम पर और तमाम वजहे हैं, जिन पर समाज में बड़े पैमाने पर बहस की जरूरत है. मानव के विकास की यात्र की याद करें, तो शुरुआती दिनों से व्यक्ति समूह में रहते आये हैं, जिसमें हम सब एक-दूसरे से सुख-दुख के बारे में जानते रहे हैं, लेकिन विकास के बाद जब हम वर्तमान स्थिति में पहुंचे हैं, तो हमने खुद को अकेला बना लिया है. बच्चों को पिता पर विश्वास नहीं रह गया है. पति-पत्नी के रिश्तों की अहमियत नहीं रह गयी है. परिवार नाम की इकाई लगातार टूट रही है.
ऐसे में सवाल यह उठता है कि आखिर इसका हल क्या है? तो जानकार यही कहते हैं कि हमें फिर से अपनी जड़ों में लौटना होगा, तभी हम इन आधुनिक परेशानियों से बच सकते हैं. खुद को सेव कर सकते हैं. समाज को सेव कर सकते हैं.

शनिवार, 29 जुलाई 2017

मुजफ्फरपुर के पास विकास का अच्छा मौका

यह संयोग ही है कि 72 घंटे पहले प्रदेश में सत्ता बदली, तो नयी सरकार बनने की औपचारिकताएं पूरी होने लगीं. इसी बीच मुजफ्फरपुर से नगर से विधायक सुरेश शर्मा को मंत्री बनाने जाने की मांग भी जोर होने लगी. नीतीश कुमार ने मुख्यमंत्री पद की शपथ भी नहीं ली थी. इधर, सुरेश शर्मा को मंत्री बनाये जाने को लेकर सोशल मीडिया से लेकर राजनीतिक गलियारों में चर्चाओं ने जोर पकड़ लिया. जातीय समीकरण बैठाया जाने लगा, लेकिन शर्मा जी जिस तरह से के नेता हैं और बड़े नेताओं से उनके जैसे संबंध हैं. उसको लेकर उनकी दावेदारी लगभग तय मानी जा रही थी. मौजूदा समय में पर्यटन विभाग की समिति के सभापति तो हैं ही. अब मंत्री पद की शपथ लेने जा रहे हैं.
पूरा घटनाक्रम जिस तरह से चला. वह अपने आप में बिल्कुल अलग रहा. शुक्रवार की शाम को जब शर्मा जी पटना से दिल्ली के लिए रवाना हुये, तो यह माना जाने लगा कि वह मंत्री बनने जा रहे हैं, क्योंकि भाजपा के कोटे से मंत्री बननेवाले ज्यादातर विधायकों को दिल्ली तलब कर लिया गया था. शनिवार की सुबह से चर्चाएं हो रही थीं, लेकिन दोपहर आते-आते इस पर मुहर लग गयी. मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने खुद फोन किया और इसके बाद राजभवन से औपचारिक रूप से न्योता आ गया.
यह बात तो शर्मा जी के मंत्री बनने की रही, लेकिन मुजफ्फरपुर जिला खासकर शहर पिछले 12 सालों में जिन हालात में है. हम 2005 में राज्य में सत्ता परिवर्तन के बाद की बात कर रहे हैं. वह किसी से छुपा नहीं है. शहर का सही तरह से विकास नहीं हो रहा है. इसका मलाल शर्मा जी को भी रहा है. हालांकि वह साल में दो-तीन बार दिल्ली का चक्कर लगा कर केंद्रीय मंत्रियों से शहर के लिए गुहार लगाते रहे हैं, लेकिन अब खुद मंत्री बन गये हैं. ऐमे में शहर को उनसे विकास की उम्मीदे हैं, क्योंकि अपना शहर स्मार्ट सिटी में भी आ गया है. इस सबसे बड़ा यह है कि अब निगम में भी जदयू के प्रभाव वाले लोगों की नगर सरकार चल रही है. ऐसे में भाजपा-जदयू के साथ आने से एक अच्छा गठजोड़ भी बन गया है. केंद्र में भाजपा की सरकार है, तो प्रदेश में भाजपा की भागीदारीवाली सरकार. मुजफ्फरपुर नगर निगम में भाजपा की सहयोगी जदयू की प्रभुत्ववाली नगर सरकार. ऐसे में नगर का विकास होगा. यह आशा शहर के लोग लगाये बैठे हैं, क्योंकि अब विकास के रास्ते में कहीं भी बाधा नहीं दिखायी पड़ रही है.
शर्मा जी जब से विधायक हैं, तब से नगर निगम में उनके प्रभुत्ववाली सरकार नहीं रहने का मलाल भी उन्हें रहा है. वह लगातार इसके लिए प्रयास भी करते रहे हैं. इस बार के निगम चुनाव में भी उन्होंने खुल कर समर्थन किया था, लेकिन मेयर में उनके समर्थनवाले प्रत्याशी को जीत नहीं मिल सकी थी, लेकिन अब स्थिति बदल गयी है. ऐसे में शहर के लोग कह रहे हैं कि यहां पर मूलभूत सुविधाओं के दिशा में काम होगा. शहर में जाम, पार्किग, शौचालय जैसी समस्याओं का समाधान होगा. साथ ही स्मार्ट सिटी बनने की दिशा में अपना शहर आगे बढ़ेगा.

शुक्रवार, 28 जुलाई 2017

मैं बिहार की सबसे बड़ी पंचायत हूं

मैं बिहार विधानसभा हूं. आजादी के बाद से मैंने बहुत से मंजर देखे हैं. उन नेताओं को भी देखा, सुना और समझा है, जिनको आधार बना कर आज के नेता राजनीति करते हैं, लेकिन अभी जिस तरह का परिवर्तन दिख रहा है. उसे देख कर मैं भी हैरान हूं. हां, हैरान हूं, लेकिन उतना नहीं, जितना आप सोच-समझ रहे हैं, क्योंकि दो 2005 से पहले हमारा क्या हाल हो रहा था. वह तो आपने भी देखा होगा. खैर, कहां हम अतीत में जा रहे हैं. अभी हमारे यहां जो चल रहा है. उसी पर बात करते हैं.
वह सरकार जो दिन पहले तक अस्तित्व में थी. वह भूतकाल की हो गयी है. ऐेसा नहीं हुआ कि चुनाव हो गया है और उसमें कोई हारा और जीता है. यह तो सिद्धांतों की दुहाई देकर हार और जीत तय की गयी है. उन चुने हुये राजनेताओं के बीच में, जिन्हें लगभग दो साल पहले प्रदेश की जनता ने चुना था, जिसे हम लोकतांत्रिक प्रक्रिया कहते हैं, लेकिन इस समय मेरे अंदर मिक्स फीलिंग है, क्योंकि जब महागठबंधन बना था, तो इसे बेमेल कहा जा रहा था. उस दौरान इसी में शामिल कई नेता हमारे परिसर में आते थे और कहते थे कि नीतीश जी ने ये सही नहीं किया. भले ही वह सिद्धांत की बात कर रहे हैं, लेकिन हमारा साथ तो 17 साल पुराना था. हम उनसे मिले हैं, जिनके खिलाफ हमें जनता ने जिताया था और प्रचंड बहुमत दिया था. अब समय का चक्र घूम गया है. वही, लोग जो 17 साल तक साथ थे. लगभग दो साल बिछड़ने के बाद फिर से एक हो गये हैं. हालांकि इस दौरान दोनों ने एक-दूसरे की जमकर आलोचना की. डीएनए तक में दोष देखा था, लेकिन अब राज्यहित की दुहाई दी जा रही है.
राज्यहित की दुहाई के बीच हमारे प्रांगण में वह नजारा दिख रहा है, जो आनेवाले दिनों में स्वाभाविक हो जायेगा, लेकिन अभी हमारे लिये नया है. तेजस्वी और तेज प्रताप, जो कल तक वीआइपी रास्ते के जरिये हमारे यहां आया करते थे. आज उन्होंने वह आम रास्ता चुना है, जिससे होकर विधायक आते-जाते हैं. राजद के विधायक, जो कल तक गठबंधन को अटूट बता रहे थे. वही, अब नीतीश कुमार को मौकापरस्त बता रहे हैं. अपने आलाकमान की हां, में हां और उनकी बातों को दोहरा रहे हैं, लेकिन मेरे अंदर जो चल रहा है. वो इससे कहीं ज्यादा है. तोड़फोड़ की आवाज भी आ रही है. उसका क्या होता है, यह तो मैं नहीं कह सकता, लेकिन यह हो रहा है.
समय बढ़ने और बदलने के साथ का यह तालमेल भी देखना और सुनना है, क्योंकि मेरा निर्माण भी इसीलिए हुआ था कि बिहार की उस महान जनता का सम्मान हो, जो अपने बीच से लोगों को चुन कर हमारे यहां भेजती है. हां, ये बात और है कि चुनाव के बाद, वही लोग उस जनता के कम ही रह जाते हैं, जिन्होंने उन्हें चुनाव होता है. यह मैं कल भी देख रही थी और आज भी देख रही हूं. चुनाव से पहले वह सबके रहते हैं, लेकिन चुनाव के बाद केवल अपनों के रह जाते हैं. शायद आज जो नजारा बदला दिख रहा है. इसके मूल में भी यही है.

गुरुवार, 27 जुलाई 2017

जो आज साहिब-ए-मसनद हैं, कल नहीं होंगे, किरायेदार हैं..

प्रसिद्ध शायर राहत इंदौरी ने अपने एक शेर के जरिये राजनीति पर जबरदस्त टिप्पणी की है..
जो आज साहिब-ए-मसनद हैं, कल नहीं होंगे.
किरायेदार हैं, जाती मकान थोड़ी है.
सभी का खून है, शामिल यहां की मिट्टी में
किसी के बाप का हिन्दुस्तान थोड़ी है.
पिछले लगभग 24 घंटों में बिहार ने कुछ ऐसा ही मंजर देखा है, जो कल तक सत्ता में थे. आज नहीं हैं. राजद और कांग्रेस बिहार की सत्ता से बाहर हो चुके हैं. ये आज की कड़वी सच्चई है. 2015 के चुनाव से पहले जब यह महागठजोड़ बना था, तो कयास लगाये जा रहे थे कि मोदी की लहर में यह बह जायेगा, लेकिन बिहार ने भाजपा को ऐेसा सबक मिला, जो पार्टी को लगातार परेशान कर रहा था. राजनीति के माहिर खिलाड़ी लालू प्रसाद ने चुनाव के दौरान ही ऐसा दांव मारा कि भाजपा चारों खाने चित हो गयी.
चुनाव के बाद जो हालात बने और जिस तरह से नयी सरकार का गठन हुआ. उस समय से ही कयासों का दौर शुरू हो गया. राजद में शामिल कई नेताओं पर जिस तरह से राज्य सरकार की ओर से कार्रवाई शुरू हुई, तभी यह तय हो गया था कि सरकार चाहे जो हो, अपना कार्यकाल पूरा नहीं कर सकेगी. पहले से चारा घोटाले में कानूनी दांव-पेच में उलङो लालू यादव और उनके परिवार पर जब इन्कमटैक्स, इडी और सीबीआइ ने शिकंजा कसना शुरू किया, तो स्थितियां रातोंरात बदल गयीं. बिहार में अटूट कहे जानेवाले गठबंधन की चूलें हिलने लगीं.
लालू प्रसाद की कानूनी मजबूरी देखिये, जब सीबीआइ के आरोपों को लेकर नीतीश कुमार इस्तीफा देने राजभवन पहुंचे, तो वह रांची में चारा घोटाले के मामले में पेशी के लिए निकलने की तैयारी कर रहे थे. आनन-फानन में पत्रकारों से बात की और कुछ समय परिवार के साथ बिताने के बाद रांची के लिए सड़क के रास्ते निकल गये, लेकिन राजनीति में माहिर लालू ने समय का उपयोग किया. वो अपने साथ पत्रकारों को लेकर रांची के लिए निकले, जिनसे रास्ते में बात करते रहे और मुख्यमंत्री नीतीश कुमार पर निशाना साधते रहे. साथ ही केंद्र की भाजपा सरकार विशेष कर प्रधानमंत्री मोदी व भाजपा अध्यक्ष अमित शाह उनके निशाने पर रहे.
रांची के रास्ते में जाते समय लालू को हाव-भाव वैसे नहीं थे, जिनके लिए वो जाने जाते हैं. सभी सवालों का बड़ी ही विनम्रता व सधे ढंग से जवाब दे रहे थे. साथ ही लगातार घटनाक्रम पर भी नजर रखे हुये थे. पटना में क्या हो रहा है, इसकी पल-पल की जानकारी ले रहे थे. मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने आधी रात को सरकार बनाने का दावा पेश किया, तो उप मुख्यमंत्री रहे तेजस्वी यादव भी राजभवन पहुंच गये. वह लालू के अंदाज में ही नीतीश कुमार पर निशाना साध रहे थे. इससे पहले तेजस्वी ने कभी भी नीतीश कुमार के खिलाफ खुल कर नहीं बोला था. वह सधे हुये राजनेता के रूप में बोल रहे थे.
रांची में पेशी के बाद लालू प्रसाद ने पत्रकारों से बात की, तो उन्होंने महत्मा गांधी से लेकर जेपी, लोहिया, 74 का आंदोलन सब आया. लगभग सवा घंटे तक वह पत्रकारों से सामने अपनी बात रखते रहे. इस दौरान वह कई मौकों पर पुराने रंग में भी दिखे. अपने अंदाज में जदयू व भाजपा के नेताओं पर निशाना साधा. साथ ही बसपा की मुखिया बहन मायावती को फिर राज्यसभा में भेजने का न्योता दिया. लालू की राजनीति में यह जरूर देखने को मिला है. उन्होंने तमाम लोगों का भला किया है. याद कीजिये, रामविलास पासवान, जब कोई साथ नहीं था, तो राजद सुप्रीमो लालू प्रसाद ने ही साथ दिया था. 2014 के चुनाव में हार के बाद नीतीश के सामने जब कोई रास्ता नहीं था, तो लालू प्रसाद ने ही बढ़ कर हाथ थामा था. ऐसे तमाम उदाहरण हैं, जिनमें लालू यादव राजनीतिक तौर पर एहसान करते रहे हैं, लेकिन चारा घोटाले के आरोपों के बाद लालू जिस राजनीति का प्रतीक बने. वह उन्हें लगातार बेचैन करती रही है. अब सीबीआइ, इडी और इनकम टैक्स के शिकंजे ने उनके परिवार के लिए ऐसी मुश्किलें खड़ी की हैं, जो आनेवाले सालों में उनका पीछा नहीं छोड़ेगीं.