मैं निराशावादी कभी नहीं रहा और भगवान से प्रार्थना करता हूं, आगे के जीवन में भी ऐसा मौका कभी नहीं आये, लेकिन जीवन में कुछ ऐसे पल आते हैं, जो लंबी समय तक सोचने को मजबूर करते हैं. आज शिक्षक दिवस है. हम सब शिक्षकों का सम्मान कर रहे हैं. अपनी तरह से आदर दे रहे हैं. अपने गुरुओं के बारे में सोशल साइट्स से लेकर बधाई संदेशों तक में बता रहे हैं. गुरु को गोविंद (भगवान) से बड़ा कह रहे हैं. यह सही भी है, हम लोग जिस राह पर हैं और जो भी हैं, वो उन गुरुओं की वजह से ही जिन्होंने हमें इस लायक बनाया है, लेकिन समाज की कड़वी हकीकत ये भी है कि पिछले तीन दशकों में समाज में बहुत चीजें बदली भी हैं. उनसे गुरु-शिष्य का रिश्ता भी अछूता नहीं रहा है. आगे मैं जिस वाकये का जिक्र करने जा रहा हूं, वो सभी गुरुओं के लिए नहीं है. बड़ी संख्या में ऐसे शिक्षक आज भी हैं, जो अपने वसूलों पर चलते हैं. उन्हीं की थाती की दुहाई हम देते हैं.
तीन साल पहले की घटना है. मैं गांव, एक पारिवारिक आयोजन में गया हुआ था, जहां मुङो प्राइमरी में शिक्षा देनेवाले कई शिक्षक मौजूद थे. परंपरा और स्वभाव के मुताबिक सभी शिक्षकों का पैर छूकर आशीर्वाद ले रहा था. इसी दौरान एक शिक्षक से बात होने लगी. पूछने लगे, कब आये? क्या कर रहे हो? शिक्षक के साथ बात चल ही रही थी. इसी बीच एक युवा छात्र, जो हमसे लगभग 15 साल छोटा होगा, पास में आया, उसने जेब से पान मसाले की पुड़िया निकाली, फाड़ी और शिक्षक की ओर बढ़ा दिया. गुरु-शिष्य परंपरा में मैं पहली बार ऐेसा नजारा देख रहा था. मुङो तो अपनी आखों पर विश्वास नहीं हो रहा था. शिक्षक भी हमें देख रहे थे. वह भी कुछ बोलने की स्थिति में नहीं थे. लगभग 30 सेकेंड तक हम सब एक-दूसरे को देखते रहे.
खामौशी के बीच हम में से पहली आवाज उसी छात्र की गूंजी, जिसने पुड़िया फाड़ कर शिक्षक की ओर बढ़ायी थी. कहने लगा, भैया, हमारा-गुरुजी का चलता है. यह सुनते ही गुरुजी भी थोड़ा सहज हुये और उन्होंने पुड़िया अपने हाथ में ले ली. हम तीनों की आपस में कोई बात होती, इसी बीच किसी ने मुङो आवाज दी, मैं उसकी ओर मुखातिब हो गया, लेकिन मन में कई सवाल उठ रहे थे, जिनके जवाब मुङो नहीं सूझ रहे थे.
हां, एक बार-बार मन में जरूर आ रही थी. वह यह कि जब हमने स्कूल में पढ़ना शुरू किया था, तो वह स्कूल प्राइवेट (निजी) था. ईंट की छोटी-छोटी दीवारें और उस पर छप्पर रखा था. हमारे शिक्षक निजी नौकरी कर रहे थे. समय से स्कूल आते-जाते और पढ़ाते थे, लेकिन जब उन्हें पुड़िया फाड़ कर दी जा रही थी, तो स्कूल को मान्यता मिल चुकी थी. वहां छप्पर की जगह कंक्रीट की छतें थीं. हमारे समय में तीन छप्पर थे, लेकिन अब वहां दो मंजिला भवन में लगभग पचास क्लास रूम होंगे.
शिक्षक को सैकड़ों नहीं, हजारों रुपये का वेतन मिल रहा होगा. मुङो लगता है कि जितना समय यह परिवर्तन होने में लगा, उतने ही समय में गुरु-शिष्य के रिश्तों में भी बदलाव भी आया. हम लोग पढ़ते थे, तो पुड़िया नाम की चीज नहीं थी, लेकिन उदारीकरण के बाद बड़े पैमाने पर बदलाव हुये. हम सब बजार के हवाले हो गये. किसी विद्वान ने कहा है कि बजार में मानवीय रिश्तों, दया, करुणा और संवेदना की जगह नहीं है. वह टारगेट ओरियंटेड होता है, जिसमें मूल्य (दाम) ही सबकुछ तय करता है. हमारे गुरु-शिष्य परंपरा को भी शायद बाजार की ही नजर लगी है.
तीन साल पहले की घटना है. मैं गांव, एक पारिवारिक आयोजन में गया हुआ था, जहां मुङो प्राइमरी में शिक्षा देनेवाले कई शिक्षक मौजूद थे. परंपरा और स्वभाव के मुताबिक सभी शिक्षकों का पैर छूकर आशीर्वाद ले रहा था. इसी दौरान एक शिक्षक से बात होने लगी. पूछने लगे, कब आये? क्या कर रहे हो? शिक्षक के साथ बात चल ही रही थी. इसी बीच एक युवा छात्र, जो हमसे लगभग 15 साल छोटा होगा, पास में आया, उसने जेब से पान मसाले की पुड़िया निकाली, फाड़ी और शिक्षक की ओर बढ़ा दिया. गुरु-शिष्य परंपरा में मैं पहली बार ऐेसा नजारा देख रहा था. मुङो तो अपनी आखों पर विश्वास नहीं हो रहा था. शिक्षक भी हमें देख रहे थे. वह भी कुछ बोलने की स्थिति में नहीं थे. लगभग 30 सेकेंड तक हम सब एक-दूसरे को देखते रहे.
खामौशी के बीच हम में से पहली आवाज उसी छात्र की गूंजी, जिसने पुड़िया फाड़ कर शिक्षक की ओर बढ़ायी थी. कहने लगा, भैया, हमारा-गुरुजी का चलता है. यह सुनते ही गुरुजी भी थोड़ा सहज हुये और उन्होंने पुड़िया अपने हाथ में ले ली. हम तीनों की आपस में कोई बात होती, इसी बीच किसी ने मुङो आवाज दी, मैं उसकी ओर मुखातिब हो गया, लेकिन मन में कई सवाल उठ रहे थे, जिनके जवाब मुङो नहीं सूझ रहे थे.
हां, एक बार-बार मन में जरूर आ रही थी. वह यह कि जब हमने स्कूल में पढ़ना शुरू किया था, तो वह स्कूल प्राइवेट (निजी) था. ईंट की छोटी-छोटी दीवारें और उस पर छप्पर रखा था. हमारे शिक्षक निजी नौकरी कर रहे थे. समय से स्कूल आते-जाते और पढ़ाते थे, लेकिन जब उन्हें पुड़िया फाड़ कर दी जा रही थी, तो स्कूल को मान्यता मिल चुकी थी. वहां छप्पर की जगह कंक्रीट की छतें थीं. हमारे समय में तीन छप्पर थे, लेकिन अब वहां दो मंजिला भवन में लगभग पचास क्लास रूम होंगे.
शिक्षक को सैकड़ों नहीं, हजारों रुपये का वेतन मिल रहा होगा. मुङो लगता है कि जितना समय यह परिवर्तन होने में लगा, उतने ही समय में गुरु-शिष्य के रिश्तों में भी बदलाव भी आया. हम लोग पढ़ते थे, तो पुड़िया नाम की चीज नहीं थी, लेकिन उदारीकरण के बाद बड़े पैमाने पर बदलाव हुये. हम सब बजार के हवाले हो गये. किसी विद्वान ने कहा है कि बजार में मानवीय रिश्तों, दया, करुणा और संवेदना की जगह नहीं है. वह टारगेट ओरियंटेड होता है, जिसमें मूल्य (दाम) ही सबकुछ तय करता है. हमारे गुरु-शिष्य परंपरा को भी शायद बाजार की ही नजर लगी है.
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