हाल के दिनों की तीन बड़ी घटनाएं, जिन्होंने समाज पर किसी न किसी रूप में असर डाला. सबसे लेटेस्ट घटना बक्सर के डीएम मुकेश पांडेय का आत्महत्या कर लेना. इसके जो कारण उन्होंने बताये हैं, उनके सामने आने के बाद जिस तरह से उनके ससुर का बयान आया है वो. मुकेश ने अपनी आत्महत्या की वजह पत्नी व माता-पिता के बीच संबंधों में कड़वाहट को बताया है. दूसरी घटना रेमंड कंपनी के मालिक का किराये के मकान में रहना. वजह बेटे की बेरुखी. तीसरी घटना अरबपति महिला का उसके पॉश इलाके के फ्लैट में कंकाल मिलना. उसकी मौत का पता तब चला, जब डॉलर कमा रहा बेटा, अमेरिका से सालभर बाद लौटा.
तीनों ही घटनाएं बजारबाद के बाद सामाजिक तानेबाने में आये बिखराव को बयान करती हैं. किस तरह से पद और प्रतिष्ठा होने के बाद भी लोग एकाकी हो जाते हैं. उनकी मदद को कोई नहीं होता है और कैसे उन्हें जीवन में परेशानियां उठानी पड़ती हैं. ऐसी तमाम घटनाएं समाज में हो रही होंगी. हो सकता है, जो इनसे भी भयावह हैं, लेकिन सामने नहीं आतीं. पिछले कई दिनों से लगातार ये घटनाएं जेहन में कहीं न कहीं घूम रही थीं. समाज की कड़वी हकीकत से रू-ब-रू करा रही थीं.
आखिर इस अंधी दौड़ में लोग किसके लिए यह सब कर रहे हैं, क्यों उन्हें समय पर होश आता है? क्या जीवन का असली उद्देश्य पैसा कमाना ही है? ऐसे अनगिनत सवाल? इसी क्रम में कुछ साल पहले की वरिष्ठ समाजवादी चिंतक सच्चिदा बाबू से हुई मुलाकात याद आयी. सच्चिदा बाबू वो व्यक्ति हैं, जो न्यूनतम जरूरतों में रहते हैं. ऐसा नहीं है कि वो आधुनिक सुख-सुविधाओं की चीजें नहीं रख सकते हैं, लेकिन वह इनका उपयोग नहीं करते हैं. बिजली कनेक्शन की जगह सोलर लाइट है. बिजली नहीं, तो पंखे का सवाल ही नहीं. गरमी की तपती दुपहरी में हम लोग पहुंचे थे, जिसमें वो बहुत की सुकून से थे. देश-समाज पर बताने लगे, तो इसी क्रम उन्होंने यूरोप से जुड़ी एक कहानी सुनायी, जिसमें विकास और उससे आयी समृद्धि से किस तरह से बेचैनी आती है, उसके बारे में बताया.
पॉश कालोनी में एक सपन्न परिवार रहता था, जिसके सभी सदस्यों के कमरे अलग थे. गाड़ियां अलग थीं. सबका घर आने-जाने का टाइम अलग था. सब अलग-अलग आते-जाते और अपने हिसाब से रहते थे. उस कोठी से कुछ ही दूर पर मजदूरों की एक झोपड़ी थी, जिसमें कई मजदूर रहते, जिनमें आपस में गजब का प्रेम. सुबह साथ में उठते, खाना बनाते, खाते और काम पर निकल जाते. शाम को वापस लौटते, तो मिल कर मनरंजन करते. खाना बनाते. खाते और सो जाते. किसी तरह का तनाव उनकी जिंदगी में नहीं था. इससे उलट संपन्न घर में तनाव ही तनाव. घर के सब सदस्य जब कभी भी मिलते, तो आपस में वाद-विवाद के और कुछ नहीं होता. झगड़े की वजह से कुछ ही देर में सब अलग हो जाते. घर के मुखिया को लगातार यह बात परेशान करती कि आखिर क्या वजह है, जो हमारे घर में लाख कोशिशों के बाद भी शांति नहीं है.
पड़ोस की झोपड़ी में मजदूरों के बीच प्रेम को देख कर वह प्रेरणा लेते. एक दिन उनसे नहीं रहा गया और वह झोपड़ी में पहुंच गये. वह सूत्र जानने के लिए जिससे मजदूर आपस में मिल कर खुश रह रहे थे. जीवन में कोई तनाव नहीं था. उनके बारे में सपन्न परिवार के मुखिया ने जाना और वापस अपने घर आ गये. उनके मन में लगातार उधेड़बुन चल रही थी. इसी बीच सोचने लगे. इतना अच्छे से झोपड़ी के लोग रहते हैं, क्यों न उनकी मदद की जाये, ताकि उनका जीवन स्तर भी कुछ ऊपर उठ सके. यही सोच कर उन्होंने कुछ सोना, मजदूरों को के दिया. इसके बाद मजदूरों की दिनचर्या बदल गयी. सोने के साथ झोपड़ी में समृद्धि आयी थी, लेकिन उनका सुकून और चैन धीरे-धीरे छिनने लगा. वजह वही सोना बना. सब मजदूर काम पर जाते, तो एक को झोपड़ी में रहना पड़ता. सोने की रखवाली के लिए. इसके बावजूद दूसरे मजदूरों में यह आशंका लगी रहती, कहीं, झोपड़ी में रुकनेवाला मजदूर बेइमानी नहीं कर ले. शाम का मनरंजन बंद हो गया, क्योंकि सब लौटते, तो एक-दूसरे को शक की निगाह से देखते. मजदूरों के बीच कभी-कभी किसी न किसी बात को लेकर झगड़ा भी होने लगा.
कहने का अर्थ यह कि समृद्धि अपने साथ किस तरह से एकाकीपन, आपस में विश्वास की कमी, एक-दूसरे को शक की निगाह से देखना, झगड़ा-लड़ाई, वह सब लेकर आयी, जिससे किसी व्यक्ति का सुकून छिन जाये. अभी हम लोग जिस समाज में रह रहे हैं. उसकी सच्चाई इससे अलग नहीं, बल्कि इससे भी ज्यादा कड़वी लगती है. कहते हैं कि हम मंगल गृह पर पहुंच गये, लेकिन अपने पड़ोस के फ्लैट में रहनेवाले व्यक्ति के बारे में नहीं जानते. हमने इस तरह से अपने को बना लिया है. सामाजिक सुरक्षा को ढाचा था, उस पर बड़ी चोट लगी है. प्राइवेसी के नाम पर. स्वतंत्रता के नाम पर और तमाम वजहे हैं, जिन पर समाज में बड़े पैमाने पर बहस की जरूरत है. मानव के विकास की यात्र की याद करें, तो शुरुआती दिनों से व्यक्ति समूह में रहते आये हैं, जिसमें हम सब एक-दूसरे से सुख-दुख के बारे में जानते रहे हैं, लेकिन विकास के बाद जब हम वर्तमान स्थिति में पहुंचे हैं, तो हमने खुद को अकेला बना लिया है. बच्चों को पिता पर विश्वास नहीं रह गया है. पति-पत्नी के रिश्तों की अहमियत नहीं रह गयी है. परिवार नाम की इकाई लगातार टूट रही है.
ऐसे में सवाल यह उठता है कि आखिर इसका हल क्या है? तो जानकार यही कहते हैं कि हमें फिर से अपनी जड़ों में लौटना होगा, तभी हम इन आधुनिक परेशानियों से बच सकते हैं. खुद को सेव कर सकते हैं. समाज को सेव कर सकते हैं.
तीनों ही घटनाएं बजारबाद के बाद सामाजिक तानेबाने में आये बिखराव को बयान करती हैं. किस तरह से पद और प्रतिष्ठा होने के बाद भी लोग एकाकी हो जाते हैं. उनकी मदद को कोई नहीं होता है और कैसे उन्हें जीवन में परेशानियां उठानी पड़ती हैं. ऐसी तमाम घटनाएं समाज में हो रही होंगी. हो सकता है, जो इनसे भी भयावह हैं, लेकिन सामने नहीं आतीं. पिछले कई दिनों से लगातार ये घटनाएं जेहन में कहीं न कहीं घूम रही थीं. समाज की कड़वी हकीकत से रू-ब-रू करा रही थीं.
आखिर इस अंधी दौड़ में लोग किसके लिए यह सब कर रहे हैं, क्यों उन्हें समय पर होश आता है? क्या जीवन का असली उद्देश्य पैसा कमाना ही है? ऐसे अनगिनत सवाल? इसी क्रम में कुछ साल पहले की वरिष्ठ समाजवादी चिंतक सच्चिदा बाबू से हुई मुलाकात याद आयी. सच्चिदा बाबू वो व्यक्ति हैं, जो न्यूनतम जरूरतों में रहते हैं. ऐसा नहीं है कि वो आधुनिक सुख-सुविधाओं की चीजें नहीं रख सकते हैं, लेकिन वह इनका उपयोग नहीं करते हैं. बिजली कनेक्शन की जगह सोलर लाइट है. बिजली नहीं, तो पंखे का सवाल ही नहीं. गरमी की तपती दुपहरी में हम लोग पहुंचे थे, जिसमें वो बहुत की सुकून से थे. देश-समाज पर बताने लगे, तो इसी क्रम उन्होंने यूरोप से जुड़ी एक कहानी सुनायी, जिसमें विकास और उससे आयी समृद्धि से किस तरह से बेचैनी आती है, उसके बारे में बताया.
पॉश कालोनी में एक सपन्न परिवार रहता था, जिसके सभी सदस्यों के कमरे अलग थे. गाड़ियां अलग थीं. सबका घर आने-जाने का टाइम अलग था. सब अलग-अलग आते-जाते और अपने हिसाब से रहते थे. उस कोठी से कुछ ही दूर पर मजदूरों की एक झोपड़ी थी, जिसमें कई मजदूर रहते, जिनमें आपस में गजब का प्रेम. सुबह साथ में उठते, खाना बनाते, खाते और काम पर निकल जाते. शाम को वापस लौटते, तो मिल कर मनरंजन करते. खाना बनाते. खाते और सो जाते. किसी तरह का तनाव उनकी जिंदगी में नहीं था. इससे उलट संपन्न घर में तनाव ही तनाव. घर के सब सदस्य जब कभी भी मिलते, तो आपस में वाद-विवाद के और कुछ नहीं होता. झगड़े की वजह से कुछ ही देर में सब अलग हो जाते. घर के मुखिया को लगातार यह बात परेशान करती कि आखिर क्या वजह है, जो हमारे घर में लाख कोशिशों के बाद भी शांति नहीं है.
पड़ोस की झोपड़ी में मजदूरों के बीच प्रेम को देख कर वह प्रेरणा लेते. एक दिन उनसे नहीं रहा गया और वह झोपड़ी में पहुंच गये. वह सूत्र जानने के लिए जिससे मजदूर आपस में मिल कर खुश रह रहे थे. जीवन में कोई तनाव नहीं था. उनके बारे में सपन्न परिवार के मुखिया ने जाना और वापस अपने घर आ गये. उनके मन में लगातार उधेड़बुन चल रही थी. इसी बीच सोचने लगे. इतना अच्छे से झोपड़ी के लोग रहते हैं, क्यों न उनकी मदद की जाये, ताकि उनका जीवन स्तर भी कुछ ऊपर उठ सके. यही सोच कर उन्होंने कुछ सोना, मजदूरों को के दिया. इसके बाद मजदूरों की दिनचर्या बदल गयी. सोने के साथ झोपड़ी में समृद्धि आयी थी, लेकिन उनका सुकून और चैन धीरे-धीरे छिनने लगा. वजह वही सोना बना. सब मजदूर काम पर जाते, तो एक को झोपड़ी में रहना पड़ता. सोने की रखवाली के लिए. इसके बावजूद दूसरे मजदूरों में यह आशंका लगी रहती, कहीं, झोपड़ी में रुकनेवाला मजदूर बेइमानी नहीं कर ले. शाम का मनरंजन बंद हो गया, क्योंकि सब लौटते, तो एक-दूसरे को शक की निगाह से देखते. मजदूरों के बीच कभी-कभी किसी न किसी बात को लेकर झगड़ा भी होने लगा.
कहने का अर्थ यह कि समृद्धि अपने साथ किस तरह से एकाकीपन, आपस में विश्वास की कमी, एक-दूसरे को शक की निगाह से देखना, झगड़ा-लड़ाई, वह सब लेकर आयी, जिससे किसी व्यक्ति का सुकून छिन जाये. अभी हम लोग जिस समाज में रह रहे हैं. उसकी सच्चाई इससे अलग नहीं, बल्कि इससे भी ज्यादा कड़वी लगती है. कहते हैं कि हम मंगल गृह पर पहुंच गये, लेकिन अपने पड़ोस के फ्लैट में रहनेवाले व्यक्ति के बारे में नहीं जानते. हमने इस तरह से अपने को बना लिया है. सामाजिक सुरक्षा को ढाचा था, उस पर बड़ी चोट लगी है. प्राइवेसी के नाम पर. स्वतंत्रता के नाम पर और तमाम वजहे हैं, जिन पर समाज में बड़े पैमाने पर बहस की जरूरत है. मानव के विकास की यात्र की याद करें, तो शुरुआती दिनों से व्यक्ति समूह में रहते आये हैं, जिसमें हम सब एक-दूसरे से सुख-दुख के बारे में जानते रहे हैं, लेकिन विकास के बाद जब हम वर्तमान स्थिति में पहुंचे हैं, तो हमने खुद को अकेला बना लिया है. बच्चों को पिता पर विश्वास नहीं रह गया है. पति-पत्नी के रिश्तों की अहमियत नहीं रह गयी है. परिवार नाम की इकाई लगातार टूट रही है.
ऐसे में सवाल यह उठता है कि आखिर इसका हल क्या है? तो जानकार यही कहते हैं कि हमें फिर से अपनी जड़ों में लौटना होगा, तभी हम इन आधुनिक परेशानियों से बच सकते हैं. खुद को सेव कर सकते हैं. समाज को सेव कर सकते हैं.
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