सोमवार, 3 अक्टूबर 2016

हम अपने देखने का नजरिया क्यों नहीं बदलते?

इसे सोच कहें या खराबी. हमारी लोगों की हर चीज में मीन-मेख निकालने की आदत सी हो गयी है. राजनीति तो हम, हर चीज में देखने लगे हैं, लेकिन क्या ये भी सच नहीं है कि राजनीति ही देश को दिशा दे रही है. उसी के आधार पर देश चल रहा है. हम भले ही राजनीतिज्ञों से नफरत करें, लेकिन सच्चई को झुठला सकते हैं क्या?
राजनीति और राजनीतिज्ञों पर टिप्पणी करने से पहले ये सोच लेना जरूरी होगा कि इसमें हमारा योगदान कितना है? हमने कैसे लोगों को आगे बढ़ाया है, जिन पर टिप्पणी करने की जरूरत पड़ रही है. बिहार में शराबबंदी का ऐलान हुआ, तो ज्यादातर लोगों ने इसे ऐतिहासिक बताया. अब जब छह माह पूरे हो चुके हैं, तो इसका बदलाव समाज के उस तबके पर साफ दिख रहा है, जो इससे सबसे ज्यादा प्रभावित था. ये तबका है, समाज के अंतिम पायदान के लोगों का, जो रोज मेहनत मजदूरी करते हैं, तो उन्हें दो जून की रोटी मिलती है. बंदी के बीच हाइकोर्ट का फैसला आया, तो ऐसे लोग सक्रिय हो गये, जो शराबबंदी में राजनीति देख रहे हैं. उन्हें लगा कि अच्छा मौका है, सरकार को घेरा जा सकता है, लेकिन सरकार ने नया कानून दो अक्तूबर से लागू कर दिया है. मुख्यमंत्री नीतीश कुमार संकल्प शक्ति दिखा रहे हैं. वो हर हाल में शराबबंदी के पक्ष में हैं. हाइकोर्ट के फैसले के खिलाफ सरकार सुप्रीम कोर्ट में चली गयी है.
बात हो रही है कि किसी पर फैसला थोपना नहीं चाहिये. उसकी मर्जी पर छोड़ना चाहिये कि उसे पीना है या नहीं, लेकिन इससे आगे बढ़ कर हमें उन परिवारों के बारे में क्यों नहीं सोचते, जहां शराब की वजह से चूल्हा जलने तक पर संकट था. वहां क्या राजनीति हो सकती है. कोई व्यक्ति दिन भर काम करता है. शाम को घर आते समय दिन भर की कमाई को पीने में गवां देता है. घर आकर पत्नी से खाना मांगता है. पत्नी तो कमाने जाती नहीं है, जो खाना लेकर आयेगी. खाना नहीं मिला, तो वो मारपीट पर उतारू हो जाता है. उसके बच्चे किस हालत में हैं. उन्होंने खाना खाया या नहीं. इसकी चिंता उसे नहीं होती है. तर्क-कुतर्क करनेवालों या तो ये चीजें नहीं दिखती हैं या फिर ये जान कर भी अनजान बनने की कोशिशा कर रहे हैं. वो अगर अपने देखने का नजरिया बदल लें, तो बहुत चीजें बदल जायेंगी. तब वो शायद इस स्तर पर विरोध भी नहीं करें.
आंखों देखी
लगभग दो साल पहले शाम के समय टहलने के लिए निकला था. उस दिन मार्निग वॉक नहीं हो पाया था. सो शाम को उसकी भरपाई करने की सोची. शाम के लगभग आठ बजने वाले थे. बूढ़ी गंडक के किनारे बांध पर पहुंचा, तो वहां जोर-जोर से आवाज आ रही थी. लगभग 20 साल का युवक अपनी पत्नी पर गुस्सा उतार रहा था. पत्नी किसी तरह से अंगीठी जलाने की कोशिश कर रही थी, ताकि वो कुछ बना सके. युवक नशे में धुत था. उसे ये नहीं सूझ रहा था कि वो क्या कह रहा है. उसकी सब बातें सुनने के बाद भी पत्नी इस यत्न में लगी थी कि घर में कुछ खाना बन जाये. आसपास के लोग कुछ कहते, तो अजीव से तर्क देकर उन्हें चुप कराने की कोशिश करता और फिर गुस्सा होकर पत्नी को भला-बुरा कहता. शराब बंदी के बाद ऐसे घरों की स्थिति बदली है. अब वहां वो शोर नहीं सुनायी देता, जो पहले था.

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