इलाहाबाद यूनिवर्सिटी को पूर्व का ऑक्सफोर्ड कहा जाता है. अब तो सैकड़ों की संख्या में निजी विश्वविद्यालय और तमाम तरह के तकनीकी संस्थान खुल गये हैं. इसके बाद भी यहां पढ़ाई का क्रेज कम नहीं हुआ है. हजारों की संख्या में छात्र अब भी दूर-दराज के जिलों और गांवों से यहां पढ़ने आते हैं. उनके मन में ये हसरत होती है कि वो अच्छा इंसान बन कर इलाहाबाद से निकलेंगे. इलाहाबाद की धरती का भी क्या कहना? आजादी से पहले किस तरह से यहां की भूमिका थी, वो जग-जाहिर है. यहीं पर वो ऐतिहासिक आनंद भवन है, जिसे देश के पहले प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू के पिता मोतीलाल नेहरू ने बनवाया था. बड़े वकील थे. साथ में बड़े नेता भी. खैर, इससे संबंधित प्रसंग फिर कभी.
मैं भी इलाहाबाद में रहा और पढ़ा. वहां के गलियों के ताप को महसूस किया. किस तरह की छटपटाहट गांव से आनेवाले छात्रों को होती है. कैसे वो जल्दी से जल्दी अपने माता-पिता के सपने को पूरा करना चाहते हैं. इसके लिए सुबह पढ़ाई से होती है, तो रात में सिर पर किताब रखे ही नींद आती है. रात के किसी पहर में आंख खुलती है, तो किताब को सिरहाने रखने की आदत सी बन जाती है. इस पढ़ाई के बीच वो छटपटाहट भी रहती है, जो हमे समाज में अच्छे इंसान के रूप में स्थापित करने की होती है. हां, एक बात और. इलाहाबादी लड़कों की अंगरेजी कुछ खास नहीं होती है. इसी से संबंधित एक किस्सा मुङो भी सुनाया गया, जब मैं इलाहाबाद पढ़ने के लिए जा रहा था. उसका मकसद शायद ये रहा होगा कि हम मन लगाकर पढ़ें, ताकि ये स्थिति नहीं बने, जो इस कहानी में दो दोस्तों की हुई. कहानी ऐसी याद हुई कि मैं बार-बार अपने साथियों को सुनाता हूं.
यूपी के किसी सुदूर गांव से दो मित्र (हरखू और रामसेवक) पढ़ने के लिए इलाहाबाद आये. दोनों को इलाहाबाद में रहते हुये एक साल से ज्यादा हो गया. एक दिन दोनों यूनिवर्सिटी रोड से किताबों की खोज में गुजर रहे थे. इसी बीच बगल से दो छात्र अंगरेजी में बात करते हुये गुजरे, तो हरखू ने रामसेवक से कहा कि हम दोनों को आये एक साल से ज्यादा हो गया यार, लेकिन हम तो अंगरेजी तक नहीं सीख पाये हैं. कंपटीशन क्या.. पास करेंगे. अंगरेजी की बात चली, तो रामसेवक भी सन्न. कहने लगे, ऐसी बात कैसे कर दी यार. हम भी अंगरेजी बोलेंगे और अगले ही छड़ दोनों ने अंगरेजी में बात करने का फैसला कर लिया और तय हुआ कि अब कोई भी बात होगी, तो अंगरेजी में, नहीं तो आपस में बात होगी ही नहीं.
अच्छे खासे हरखू और रामसेवक किताब खरीदने आये थे, लेकिन अंगरेजी ने दोनों के बीच कचरा कर दिया. अब आये, तब तो बोले ना. दोनों एक-दूसरे की शकल देखते हुये सड़क के किनारे चले जा रहे थे. पूरी यूनिवर्सिटी का चक्कर लगा लिया. आनंद भवन से होते हुये सोबतियाबाग भी पहुंच गये, लेकिन एक शब्द बात नहीं हुई. इसी बीच में राम सेवक को बीड़ी की तलब लगी, लेकिन बोले, तो कैसे बोले. अंगरेजी में कुछ सूझ नहीं रहा था. किसी तरह से तलब को काबू में करते हुये चले जा रहे थे. दोनों मित्र एक-दूसरे का मुंह देखते और आगे बढ़े चले जा रहे थे. थोड़ी ही देर में संगम के किनारे. लेटे हुये हनुमान जी के मंदिर के पास. हाथ जोड़ कर दोनों ने खुद को ज्ञान देने की कामना संकट मोचक हनुमान जी से की. शायद हनुमान जी ही कोई रास्ता सुझा दें. अब हनुमान जी अपने दर से कैसे खाली जाने देते दोनों को, सो रामसेवक को तरकीब सूझी.
मन ही मन सोचने लगे कि अब बोलेंगे, तो अंगरेजी में ही चाहे जो हो, यहां कौन हरखू अंगरेजी का ज्ञाता है. जैसे हम, वैसे वह भी तो है. है तो हमारे गांव का ही. बीड़ी की तलब अलग से. कुछ ही देर में रामसेवक ने हरखू को रोका और इशारा किया, लेकिन हरखू ने समझ कर भी इशारे को नहीं समझने का नाटक किया, तो रामसेवक से नहीं रहा गया. रामसेवक की तरह हरखू को भी बीड़ी की तलब लगी हुई थी, लेकिन वो किसी तरह से खुद को संभाल रहा था, लेकिन राम सेवक से नहीं रहा गया. बोल पड़ा.
रामसेवक- बीड़ी इज..?
हरखू- इज.
रामसेवक- मासिच इज.
हरखू- इज.
रामसेवक- देन फायर.
बीड़ी जलते ही दोनों मित्रों से सुट्टा मारना शुरू कर दिया और उसके धुएं के साथ इनकी अंगरेजी बोलने की कसम भी कहीं आसमान में उड़ गये. दोनों आपस में हंसते-बोलते बतियाते. संगम तट से फिर सोहबतियाबाग अपने कमरे की ओर आगे बढ़ लिये.
मैं भी इलाहाबाद में रहा और पढ़ा. वहां के गलियों के ताप को महसूस किया. किस तरह की छटपटाहट गांव से आनेवाले छात्रों को होती है. कैसे वो जल्दी से जल्दी अपने माता-पिता के सपने को पूरा करना चाहते हैं. इसके लिए सुबह पढ़ाई से होती है, तो रात में सिर पर किताब रखे ही नींद आती है. रात के किसी पहर में आंख खुलती है, तो किताब को सिरहाने रखने की आदत सी बन जाती है. इस पढ़ाई के बीच वो छटपटाहट भी रहती है, जो हमे समाज में अच्छे इंसान के रूप में स्थापित करने की होती है. हां, एक बात और. इलाहाबादी लड़कों की अंगरेजी कुछ खास नहीं होती है. इसी से संबंधित एक किस्सा मुङो भी सुनाया गया, जब मैं इलाहाबाद पढ़ने के लिए जा रहा था. उसका मकसद शायद ये रहा होगा कि हम मन लगाकर पढ़ें, ताकि ये स्थिति नहीं बने, जो इस कहानी में दो दोस्तों की हुई. कहानी ऐसी याद हुई कि मैं बार-बार अपने साथियों को सुनाता हूं.
यूपी के किसी सुदूर गांव से दो मित्र (हरखू और रामसेवक) पढ़ने के लिए इलाहाबाद आये. दोनों को इलाहाबाद में रहते हुये एक साल से ज्यादा हो गया. एक दिन दोनों यूनिवर्सिटी रोड से किताबों की खोज में गुजर रहे थे. इसी बीच बगल से दो छात्र अंगरेजी में बात करते हुये गुजरे, तो हरखू ने रामसेवक से कहा कि हम दोनों को आये एक साल से ज्यादा हो गया यार, लेकिन हम तो अंगरेजी तक नहीं सीख पाये हैं. कंपटीशन क्या.. पास करेंगे. अंगरेजी की बात चली, तो रामसेवक भी सन्न. कहने लगे, ऐसी बात कैसे कर दी यार. हम भी अंगरेजी बोलेंगे और अगले ही छड़ दोनों ने अंगरेजी में बात करने का फैसला कर लिया और तय हुआ कि अब कोई भी बात होगी, तो अंगरेजी में, नहीं तो आपस में बात होगी ही नहीं.
अच्छे खासे हरखू और रामसेवक किताब खरीदने आये थे, लेकिन अंगरेजी ने दोनों के बीच कचरा कर दिया. अब आये, तब तो बोले ना. दोनों एक-दूसरे की शकल देखते हुये सड़क के किनारे चले जा रहे थे. पूरी यूनिवर्सिटी का चक्कर लगा लिया. आनंद भवन से होते हुये सोबतियाबाग भी पहुंच गये, लेकिन एक शब्द बात नहीं हुई. इसी बीच में राम सेवक को बीड़ी की तलब लगी, लेकिन बोले, तो कैसे बोले. अंगरेजी में कुछ सूझ नहीं रहा था. किसी तरह से तलब को काबू में करते हुये चले जा रहे थे. दोनों मित्र एक-दूसरे का मुंह देखते और आगे बढ़े चले जा रहे थे. थोड़ी ही देर में संगम के किनारे. लेटे हुये हनुमान जी के मंदिर के पास. हाथ जोड़ कर दोनों ने खुद को ज्ञान देने की कामना संकट मोचक हनुमान जी से की. शायद हनुमान जी ही कोई रास्ता सुझा दें. अब हनुमान जी अपने दर से कैसे खाली जाने देते दोनों को, सो रामसेवक को तरकीब सूझी.
मन ही मन सोचने लगे कि अब बोलेंगे, तो अंगरेजी में ही चाहे जो हो, यहां कौन हरखू अंगरेजी का ज्ञाता है. जैसे हम, वैसे वह भी तो है. है तो हमारे गांव का ही. बीड़ी की तलब अलग से. कुछ ही देर में रामसेवक ने हरखू को रोका और इशारा किया, लेकिन हरखू ने समझ कर भी इशारे को नहीं समझने का नाटक किया, तो रामसेवक से नहीं रहा गया. रामसेवक की तरह हरखू को भी बीड़ी की तलब लगी हुई थी, लेकिन वो किसी तरह से खुद को संभाल रहा था, लेकिन राम सेवक से नहीं रहा गया. बोल पड़ा.
रामसेवक- बीड़ी इज..?
हरखू- इज.
रामसेवक- मासिच इज.
हरखू- इज.
रामसेवक- देन फायर.
बीड़ी जलते ही दोनों मित्रों से सुट्टा मारना शुरू कर दिया और उसके धुएं के साथ इनकी अंगरेजी बोलने की कसम भी कहीं आसमान में उड़ गये. दोनों आपस में हंसते-बोलते बतियाते. संगम तट से फिर सोहबतियाबाग अपने कमरे की ओर आगे बढ़ लिये.
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