(वरिष्ठ समाजवादी चिंतक सच्चिदानंद सिन्हा जी का सामयिक वार्ता में लेख. उसी से साभार.)
हैदराबाद में छात्र रोहित वेमुला की आत्महत्या को लेकर उठा विवाद और इसके तत्काल बाद जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय (जेएनयू) के कुछ छात्रों द्वारा कथित रूप से राष्ट्र विरोधी नारे लगाये गये. इस घटना पर उठे विवाद ने अचानक राष्ट्रप्रेम और राष्ट्रीय वफादारी के सवाल को व्यापक विवाद का मुद्दा बना दिया है. जेएनयू विवाद में पुलिस ने आनन-फानन में एक शिक्षक समेत कुछ छात्रों को हिरासत में लेकर उन पर राष्ट्रदोह का मुकदमा ठोक दिया और कुछ उत्साही वकीलों ने, जिन्हें संघ का समर्थक बताया जाता है, अदालत मामले को संज्ञान में ले, इसके पहले ही कोर्ट परिसर में ही अभियुक्तों को लप्पड़-थप्पड़ से उनके जुर्म की गंभीरता का एहसास करा दिया. इसके बाद कुछ जमातें लगातार जहां-तहां मार-पीट और दंगा-फसाद से अपनी राष्ट्रभक्ति का इजहार करने में संलग्न हैं. प्रशासन भी यथासंभव, राष्ट्रभक्ति के इस उफान में हस्तक्षेप से कतराता है. अगर राष्ट्रवाद के नाम पर होनेवाले फसाद में कानून-व्यवस्था पक्षाघात का शिकार हो रही हो और आम नागरिकों की अभिव्यक्ति की आजादी राष्ट्रभक्ति के उन्माद में निरस्त हो रही हो, तो इस राष्ट्रभक्ति के उत्स और औचित्य पर विचार करना लाजमी हो जाता है. इसलिए भी कि प्राय: युद्धों में राष्ट्रभक्ति के उत्स और औचित्य पर विचार होता है. इसलिए भी कि प्राय: राष्ट्रीय युद्धों में राष्ट्रभक्ति की ऐसी भवाना का उभार होता है, जिसे विवाद से परे माना जाता है.
प्रख्यात समाजशास्त्री इमिल दुरखाइम ने सामुदायिक व्यवहारों को दो श्रेणियों में बांटा था.
1- सैक्रेड (पवित्र)
2. प्रोफेन (लोकाचारी)
सैक्रेड से मतलब उन व्यवहारों से था, जो मानवेतर और उदात्त हैं. अत: उन्हें मानवीय कसौटियों पर आंका नहीं जा सकता. प्रोफेन हमारे दैनन्दिन के कार्यकलापों का क्षेत्र है, जिनका आकलन हम रोजना हानि-लाभ की कसौटियों से करते हैं. राष्ट्रवाद के अतिरेक का खतरा इस बात से पैदा होता है कि इसे भी सैक्रेड यानी मानवेतर धार्मिकता की कोटि में डाल दिया जाता है, जिससे हम इसे उसके सांसारिक परिणामों की कसौटी पर नहीं कस सकते, जैसे यह कथन..मेरा देश सही या गलत सर्वोच्च है. हम इसके सभी कार्यो में शरीक हैं, भले ही वह गलत भी हो. कार्लमार्क्स ने भी धर्म को लोगों के लिए अफीम कहा था. राष्ट्रीयता के पीछे यही भावना है, जिससे संसार राष्ट्रीय और अंतराष्ट्रीय युद्धों की भयावह त्रसदियों से गुजरता रहा है. अगर हम पिछले दो महायुद्धों पर गौर करें, जिनमें करोड़ों लोग मरे और इतने ही लोग अपंग हुए, तो इसकी सच्चई दिखेगी और इससे हासिल क्या हुआ, अंतहीन कटुता.
18वीं शताब्दी के पहले राष्ट्रीयता का यह भाव कहीं नहीं था. यूरोप में भी नहीं. भारत में तो राष्ट्र राज्य (नेशन-स्टेट) का यह भाव था ही नहीं. एक क्षेत्रीय भाव, तो दूसरी जगहों की तरह यहां भी व्याप्त था, जब हम क्षेत्रीय भाव की बात करते हैं, तो इस दिलचस्प हकीकत पर ध्यान रखना जरूरी है कि यह क्षेत्र भाव अधिकांश जीवों में यानी पक्षियों में, मछलियों में, कुत्ताें, बिल्लियों व भैसों आदि में पाया जाता है. कुत्ते, भैंस अदि मल-मूत्र से अधिकतर क्षेत्र का सीमांकन करते हैं. हम मनुष्य झंडे, पताका या बाड़े बनाकर, लेकिन इसके पीछे समान रूप से व्याप्त वह पशु प्रवृत्ति ही है, जिससे हम एक क्षेत्र पर अपना वर्चस्व प्रदर्शित करना चाहते हैं. इसमें कुछ भी उदात्त या विशिष्ट नहीं है, जिसमें हमारी मानवीयता की व्याप्ति हो. समग्रता में विचार करने पर हमारी गरिमा की दृष्टि से हमारे तोपों, बंदूकों, युद्धपोतों और युद्धक वायुयानों का कुत्ताें और भैसों के मलमूत्र से ज्यादा महत्व नहीं है, जिससे वो अपनी सीमा का दावा करते हैं. तटस्थ होकर विचार करने पर यही एहसास होता है कि ये सब तुच्छ पशु के बल के प्रदर्शन से ज्यादा कुछ भी नहीं है. पशुओं में कुछ पैंतरेबाजी और हल्के भिड़ंत से वर्चस्व कबूल कर लिया जाता है. इसके विपरीत मनुष्य अपनी दावेदारी के प्रदर्शन का ऐसा कैदी बन जाता है कि राष्ट्र के नाम पर विनाशकारी युद्धों में उलझ जाता है. अपनी हैसियत के हिसाब से भारत भी आजादी की अर्ध शताब्दी में ही तीन युद्ध में उलझ चुका है और सीमा पर की झड़पें तो रुटीन बन गयी हैं.
जारी..
हैदराबाद में छात्र रोहित वेमुला की आत्महत्या को लेकर उठा विवाद और इसके तत्काल बाद जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय (जेएनयू) के कुछ छात्रों द्वारा कथित रूप से राष्ट्र विरोधी नारे लगाये गये. इस घटना पर उठे विवाद ने अचानक राष्ट्रप्रेम और राष्ट्रीय वफादारी के सवाल को व्यापक विवाद का मुद्दा बना दिया है. जेएनयू विवाद में पुलिस ने आनन-फानन में एक शिक्षक समेत कुछ छात्रों को हिरासत में लेकर उन पर राष्ट्रदोह का मुकदमा ठोक दिया और कुछ उत्साही वकीलों ने, जिन्हें संघ का समर्थक बताया जाता है, अदालत मामले को संज्ञान में ले, इसके पहले ही कोर्ट परिसर में ही अभियुक्तों को लप्पड़-थप्पड़ से उनके जुर्म की गंभीरता का एहसास करा दिया. इसके बाद कुछ जमातें लगातार जहां-तहां मार-पीट और दंगा-फसाद से अपनी राष्ट्रभक्ति का इजहार करने में संलग्न हैं. प्रशासन भी यथासंभव, राष्ट्रभक्ति के इस उफान में हस्तक्षेप से कतराता है. अगर राष्ट्रवाद के नाम पर होनेवाले फसाद में कानून-व्यवस्था पक्षाघात का शिकार हो रही हो और आम नागरिकों की अभिव्यक्ति की आजादी राष्ट्रभक्ति के उन्माद में निरस्त हो रही हो, तो इस राष्ट्रभक्ति के उत्स और औचित्य पर विचार करना लाजमी हो जाता है. इसलिए भी कि प्राय: युद्धों में राष्ट्रभक्ति के उत्स और औचित्य पर विचार होता है. इसलिए भी कि प्राय: राष्ट्रीय युद्धों में राष्ट्रभक्ति की ऐसी भवाना का उभार होता है, जिसे विवाद से परे माना जाता है.
प्रख्यात समाजशास्त्री इमिल दुरखाइम ने सामुदायिक व्यवहारों को दो श्रेणियों में बांटा था.
1- सैक्रेड (पवित्र)
2. प्रोफेन (लोकाचारी)
सैक्रेड से मतलब उन व्यवहारों से था, जो मानवेतर और उदात्त हैं. अत: उन्हें मानवीय कसौटियों पर आंका नहीं जा सकता. प्रोफेन हमारे दैनन्दिन के कार्यकलापों का क्षेत्र है, जिनका आकलन हम रोजना हानि-लाभ की कसौटियों से करते हैं. राष्ट्रवाद के अतिरेक का खतरा इस बात से पैदा होता है कि इसे भी सैक्रेड यानी मानवेतर धार्मिकता की कोटि में डाल दिया जाता है, जिससे हम इसे उसके सांसारिक परिणामों की कसौटी पर नहीं कस सकते, जैसे यह कथन..मेरा देश सही या गलत सर्वोच्च है. हम इसके सभी कार्यो में शरीक हैं, भले ही वह गलत भी हो. कार्लमार्क्स ने भी धर्म को लोगों के लिए अफीम कहा था. राष्ट्रीयता के पीछे यही भावना है, जिससे संसार राष्ट्रीय और अंतराष्ट्रीय युद्धों की भयावह त्रसदियों से गुजरता रहा है. अगर हम पिछले दो महायुद्धों पर गौर करें, जिनमें करोड़ों लोग मरे और इतने ही लोग अपंग हुए, तो इसकी सच्चई दिखेगी और इससे हासिल क्या हुआ, अंतहीन कटुता.
18वीं शताब्दी के पहले राष्ट्रीयता का यह भाव कहीं नहीं था. यूरोप में भी नहीं. भारत में तो राष्ट्र राज्य (नेशन-स्टेट) का यह भाव था ही नहीं. एक क्षेत्रीय भाव, तो दूसरी जगहों की तरह यहां भी व्याप्त था, जब हम क्षेत्रीय भाव की बात करते हैं, तो इस दिलचस्प हकीकत पर ध्यान रखना जरूरी है कि यह क्षेत्र भाव अधिकांश जीवों में यानी पक्षियों में, मछलियों में, कुत्ताें, बिल्लियों व भैसों आदि में पाया जाता है. कुत्ते, भैंस अदि मल-मूत्र से अधिकतर क्षेत्र का सीमांकन करते हैं. हम मनुष्य झंडे, पताका या बाड़े बनाकर, लेकिन इसके पीछे समान रूप से व्याप्त वह पशु प्रवृत्ति ही है, जिससे हम एक क्षेत्र पर अपना वर्चस्व प्रदर्शित करना चाहते हैं. इसमें कुछ भी उदात्त या विशिष्ट नहीं है, जिसमें हमारी मानवीयता की व्याप्ति हो. समग्रता में विचार करने पर हमारी गरिमा की दृष्टि से हमारे तोपों, बंदूकों, युद्धपोतों और युद्धक वायुयानों का कुत्ताें और भैसों के मलमूत्र से ज्यादा महत्व नहीं है, जिससे वो अपनी सीमा का दावा करते हैं. तटस्थ होकर विचार करने पर यही एहसास होता है कि ये सब तुच्छ पशु के बल के प्रदर्शन से ज्यादा कुछ भी नहीं है. पशुओं में कुछ पैंतरेबाजी और हल्के भिड़ंत से वर्चस्व कबूल कर लिया जाता है. इसके विपरीत मनुष्य अपनी दावेदारी के प्रदर्शन का ऐसा कैदी बन जाता है कि राष्ट्र के नाम पर विनाशकारी युद्धों में उलझ जाता है. अपनी हैसियत के हिसाब से भारत भी आजादी की अर्ध शताब्दी में ही तीन युद्ध में उलझ चुका है और सीमा पर की झड़पें तो रुटीन बन गयी हैं.
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