बुधवार, 3 मई 2017

सरल होने का अपना मजा

फल आने पर वृक्ष झुक जाता है. ऐेसे ही जब कोई व्यक्ति सफलता की सीढ़ियां चढ़ता है, तो उसका व्यवहार और सरल होते जाना चाहिये. हमारे जितने भी महापुरुष हुये हैं, उनके जीवन को हम देखेंगे, तो यह पायेंगे. यही नहीं कोई भी व्यक्ति यदि सरलता से रहता है, तो उसे उसका मजा मिलता है, क्योंकि सरल होने का अपना अलग आनंद है. इसे वो लोग समझ नहीं सकते, जो थोड़ी-थोड़ी सी बात पर अकड़ने लगते हैं. अपने पद का रौब दिखाने लगते हैं. किसी को उसके पद और नाम से बुलाने लगते हैं. भला-बुरा कहने लगते हैं. अपनी पहुंच का हवाला देने लगते हैं या फिर अपना बल दिखाने लगते हैं.
यह चर्चा रामचरित मानस की कथा सुनने के बाद गांव के लोगों के बीच हो रही थी, तभी वहां से गुजर रहे घासी किसान को देख कर सब लोग उनकी ओर मुखातिब हो गये. घासी ऐसे व्यक्ति जिन्हें सिर्फ अपने काम से मतलब. कभी किसी का बुरा नहीं चाहा. अपने काम को ही अपना भगवान माना और उसी में दिन भर रमे रहते. गांव में कोई कुछ कहता, तो आसानी से सुन लेते. इससे कई बार उन्हें कष्ट भी उठाना पड़ता, लेकिन घासी कोई जवाब नहीं देते. वह अपने काम में लगे रहते. कई लोग उन्हें कायर समझते, तो कुछ लोग कहते, इतना चुप रहना भी ठीक नहीं. वह घासी को उकसाने की कोशिश करते, लेकिन वह कहता, हम क्या जानें मालिक. जिन्होंने ने कहा, वही जानें, क्यों कहा? हम इसमें क्या कहें, इतना कह कर घासी वहां से चला जाता और अपने काम में लग जाता.
घासी गांव के लोगों के सामने से गुजर गया, तो लोग आपस में चर्चा करने लगे. हम रामचरित मानस को सुन कर समझ रहे हैं, लेकिन उसमें जो कर्म का संदेश दिया गया है. उसे घासी सही मायनों में जी रहा है. वह अपने काम से काम रखता है. उसकी तरक्की भी हो रही है. खुद पढ़ा-लिखा नहीं है, लेकिन बच्चे पढ़ने में तेज हैं. वह भी पिता की तरह सिर्फ अपने काम पर ध्यान देते हैं. इधर-उधर नहीं करते, जब दूसरे बच्चे एक-दसूरे की निंदा में लगे रहते हैं, तो वह पढ़ रहे होते हैं. वह सही रूप में फलदार वृक्ष की भूमिका निभा रहे हैं, जो लगातार अपने कर्म में रमे रहते हैं. कभी अभिमान नहीं करते.

मंगलवार, 25 अप्रैल 2017

इन स्कूलों से सावधान, लेकिन जाएं कहां?

शर्मा जी की बेटी, पिछले चार दिनों से रोज सुबह उठते ही कहती, पापा मुङो इस स्कूल में नहीं पढ़ना है. वहां बहुत गलत पढ़ाया जाता है. मिस से कहते हैं, तो वह डांट देती हैं, लेकिन नेट पर चेक करते हैं, तो सही निकलता है. ऐसे में हम कैसे डॉक्टर बन पायेंगे. अगर हम ज्यादा दिन रहेंगे, तो मिस हमसे नाराज हो जायेंगी. पिछले साल, एक मिस कैसे नाराज हो गयी थीं, जिनको मैंने उनकी गलतियों को बारे में बता दिया था. उन्होंने इस साल भी मेरी सीट बदलवा दी है. परसों ही मेरी क्लास में आयी थीं और मेरी क्लास टीचर से कुछ देर बात की और फिर क्लास टीचर ने मेरी और मेरी सहेली गुड़िया की सीट बदल दी.
शर्मा जी, बेटी के इस सवालों से लगभग पक चुके थे. उन्हें समझ में नहीं आ रहा है कि वह बेटी को किस स्कूल में दाखिला दिलवा दें, क्योंकि जिस स्कूल में वह पढ़ती है. वह जिले का सबसे नामी स्कूल है. सालों से उसकी अलग पहचान है. वहां एडमिशन के लिए लोगों में मारामारी लगी रहती है. कितना अच्छा अनुशासन है स्कूल में. कोई भी बिना अनुशासन नहीं रह सकता है. पांच हजार से ज्यादा बच्चे स्कूल में पढ़ते हैं, लेकिन पास से गुजरने पर चूं तक नहीं सुनायी देती. वहां की मैडम शहर के बड़े-बड़े लोगों के बच्चों का एडमिशन लेने से मना कर देती है. अब ऐसे स्कूल से निकाल कर शर्मा जी अपनी बेटी को कहां डालें. यह बात उन्हें समझ में नहीं आ रही है. वह लगातार बेटी को समझा रहे हैं और कह रहे हैं कि हो सकता है कि एक मिस ने ऐसा कर दिया हो, लेकिन और मिस तो अच्छा पढ़ाती हैं. हम मिस से बात करेंगे, वह अपनी गलती सुधार लेंगी.
शर्मा जी ने जैसे ही मिस की बात की, बेटी कहने लगी, पापा आप उनसे बात भी मत करियेगा, नहीं तो मेरी शामत आ जायेगी. हमको वो फेल कर देंगी. पूरी क्लास के सामने बेइज्जती अलग से करेंगी. शर्मा जी की बेटी का तो यह केवल एक उदाहरण है. ऐसे सैकड़ों मामले रोज सामने आ रहे हैं. वह भी उन निजी स्कूलों के, जिनमें ज्यादातर अभिभावक अपने बच्चों को पढ़ाना चाहते हैं. सरकारी स्कूलों को छोड़ निजी स्कूलों का रुख करनेवाले अभिभावकों को यहां भी लगातार परेशानी ही ङोलनी पड़ रही है.
पिछले दिनों फेसबुक पर एक पोस्ट लिखी थी, जिसमें एक साथी ने कमेंट किया, निजी स्कूल कॉपी, किताब, ड्रेस और जूता-चप्पल बेचवाने के लिए हैं. अगर बच्चे को पढ़ाना है, तो घर में ट्यूशन लगवाइये. स्कूलों में पढ़ाई की अपेक्षा नहीं करें, वरना निराशा हाथ लगेगी.
एक और अभिभावक कहने लगे. सरकार डिजिटल इंडिया की बात कर रही है. निजी स्कूलों ने फीस वसूली में इसे लागू कर दिया है. वह डिजिटल माध्यम से फीस जमा हुई या नहीं. इसकी जानकारी लगातार अभिभावकों को देकर बेइज्जत करते रहते हैं, लेकिन उनका बच्च कैसा पढ़ रहा है. इसके बारे में अगर आप स्कूल में पता लगाने जायें, तब भी जानकारी नहीं मिलेगी.
निजी स्कूलों में नकेल कसने की बात सालों से हो रही है. हर साल एक बार शिक्षा विभाग के अधिकारी बैठक करते हैं, लेकिन इसके बाद हालात फिर पिछले साल जैसे ही रहते हैं. अभी तक किसी भी स्कूल में ड्रेस बिकनी बंद नहीं हुई. कॉपी-किताब का तो जैसे ठेका ले रखा है. एनसीइआरटी की जो किताब 50 से 100 रुपये में मिल जाती है, निजी प्रकाशन उसका दाम ही 400 से शुरू करते हैं. बुक की दुकान चलानेवाला कहता है कि इससे (एनसीइआरटी) कुछ नहीं होगा, स्कूल में तो ये किताब पढ़ाई जायेगी, लेकिन खरीदना आपको दोनों को है.
जारी..

मैं खुद को, खुद से बांट नहीं सकता.

मैं खुद को, खुद से बांट नहीं सकता.
ऐ मेरे मालिक, ऐ मेरे मौला.
जो कहता है, कहने दो.
मेरा कुछ होनेवाला है क्या?
मैं तो खुद जान नहीं सकता.

कल ही तो शरु हुआ, सफर अपना.
इतनी जल्दी, क्या खोना, क्या पाना?
कुछ अनुभव, तो कर लेने दो.
कुछ कड़वे घूट, तो पी लेने दो.

ऐसे क्या जल्दी, जाने-जाने की.
इतनी जल्दी उठ जाऊं मैं.
मैं वो खाट नहीं, हो सकता.
मैं खुद को, खुद से बांट नहीं सकता. 


शनिवार, 22 अप्रैल 2017

पढ़े-लिखों को ये क्या हो रहा है?

सत्य और अहिंसा के पुजारी बापू के चंपारण सत्याग्रह की 100वीं वर्षगांठ हम लोग मना रहे हैं. चंपारण इलाके का वासी होने की वजह से हमारी लोगों की जिम्मेवारी ज्यादा बनती है कि बापू के संदेशों को समङों और उन्हें आत्मसात करके अपने व्यवहार में लायें, लेकिन कुछ पढ़े-लिखे कहे जानेवाले लोगों को क्या हो गया है. बीते शुक्रवार को जैसे एसकेएमसीएच और एमआइटी में जैसी घटनाएं हुईं. वह हम सब पर सवाल खड़ें करती हैं. जाहिर सी बात है कि इसमें सब तो नहीं शामिल हैं, लेकिन जो चंद लोग इसमें हैं. वो भी डॉक्टर और इंजीनियर बनने की राह पर हैं. यह वह लोग हैं, जिन्हें समाज की सेवा करनी है. अगर आपके धैर्य और आत्मबल नहीं है, तो आप सेवा कैसे कर सकेंगे? आपको दूसरों को संभलना है और आपको संभालने के लिए पुलिस की जरूरत पड़े, तो इसे क्या कहेंगे? आपको तो ऐसा कर्म करना चाहिये कि पुलिस आपका सहयोग ले और समाज में जो गड़बड़ियां और हैं, उन्हें ठीक करे, लेकिन दोनों घटनाओं में हुआ, इसकी पूरा उल्टा.
एसकेएमसीएच को एम्स का दर्जा देने की मांग हो रही है. राजनेता से लेकर आम लोग जोर-शोर से ये आवाज उठा रहे हैं, लेकिन वहां हो क्या रहा है. कुछ डॉक्टर और एंबुलेंस चालकों की आपसी खीचतान में बात यहां तक पहुंच गयी. लोग एक-दूसरे के खून के प्यासे हो गये. एक-दूसरे पर टूट पड़े. डॉक्टरों ने जिस तरह से आम लोगों की पिटाई की, उसकी तस्वीर देख लग रहा था कि आखिर किस समाज में रह रहे हैं हम? क्या पढ़े-लिखे लोगों को ये शोभा देता है? अगर पढ़े-लिखे लोग ऐसा करेंगे, तो हम समाज को शिक्षित करने की बात क्यों करते हैं? इससे अच्छे तो अनपढ़ हैं, जिनके अंदर आपसी प्रेम होता है. अगर किसी ने कोई बात कह भी दी, तो वह उसे बड़ी अदब से टाल देते हैं? पर यहां को बिल्कुल इसका उल्टा हुआ? उन लोगों को पीटा गया, जिनका मूल घटना से कोई वास्ता नहीं था.
पांच एंबुलेंस फूंक दी गयीं. 20 गाड़ियों को तोड़ दिया गया. बाइक को जला दिया गया. कई बाइक व एसकेएमसीएच में तोड़फोड़ हुई. यह सब करके आखिर हम क्या संदेश देना चाहते हैं. क्या हम सत्य और अहिंसा के पुजारी को सौ साल बाद इस रूप में याद करेंगे? क्या उनके आदर्शो पर चलने की बात कहके हम ये करेंगे? यह नहीं चल सकता है, क्योंकि हिंसा से कोई हल नहीं निकलता है. हल तो बातचीत और आपसी सूझबूझ का ही नतीजा होता है. इस ओर हमें बढ़ना होगा, तभी बात बनेगी. हिंसा का जवाब हिंसा कभी नहीं हो सकता है?
दूसरी घटना एमआइटी के कुछ छात्रों से जुड़ी है. यहां सैकड़ों की संख्या में छात्र इंजीनियरिंग पढ़ते हैं. यहां के पढ़े छात्र देश में कई स्थानों पर बड़े पदों पर काम करते हैं. प्लेसमेंट एजेंसियां आती हैं, तो उन्हें यहां अच्छे काम करनेवाले मिलते हैं, लेकिन शहर के इस बड़े संस्थान की पहचान क्या बनी है? जब भी एमआइटी की बात होती है, तो हल्ला और हंगामा ही जेहन में आता है? यह अपने शहर के लोगों के मन में घर कर गया है? शुक्रवार को भी यहां ऐसा ही हुआ. कुछ छात्रों ने लक्ष्मी चौक के पंप पर पेट्रोल भरवाया और जब पैसे देने की बारी आयी, तो इनकार करने लगे. नोजलमैन आगे आया, तो उसको पीटना शुरू कर दिया. अपने कर्मचारी की रक्षा के लिए जब पंप मालिक पहुंचे, तो छात्रों ने बात सुने बिना उनको पीटना शुरू कर दिया.
एमआइटी के घटनाक्रम के दौरान ही आसपास के लोग इकट्ठा हो गये और पेट्रोल पंप पर पहुंचने लगे, लेकिन खुद को घिरता देख छात्र भाग गये. बाद में कॉलेज प्रबंधन को आगे आना पड़ा. आखिर जब किया कुछ छात्रों ने, तो कॉलेज प्रबंधन इसका खामियाजा क्यों भुगते? अब मामला जांच में है, जो भी छात्र दोषी पाये जायेंगे, उन पर कार्रवाई की बात कही जा रही है, लेकिन क्या कार्रवाई इस समस्या का हल है. हमें लगता है कि नहीं. कार्रवाई ऐसी होनी चाहिये, जिससे छात्रों की सोच बदल जाये और आगे से वो ऐसा करने की सोचें भी नहीं. यह हम उनका मन जीत कर कर सकते हैं. अगर हम उनके मन में सत्य और अहिंसा की बात भरने में कामयाब हो जायें, तो यह मंजर देखने को नहीं मिलेगा.

मंगलवार, 18 अप्रैल 2017

नीतीश कुमार की ये यात्रा कुछ अलग थी


18 अप्रैल 1917 को गांधी जी मोतिहारी की एसडीओ कोर्ट में पेश हुये थे, जहां उन्होंने अपना बचाव खुद किया था और चंपारण नहीं जाने के बारे में साफ तौर पर मजिस्ट्रेट को बताया था. जमानत लेने और जुर्माना भरने के इनकार कर दिया था, तब हार कर मजिस्ट्रेट को अपनी ओर से बांड भर कर बापू को छोड़ना पड़ा था और फैसले को 21 अप्रैल तक टाल दिया गया था. मंगलवार को 18 अप्रैल 2017 था. ठीक एक सौ साल बाद का दिन. मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने पहले से घोषणा कर रखी थी कि वह चंपारण शताब्दी वर्ष की याद में पदयात्रा करेंगे. चंद्रहिया से मोतिहारी शहर के गांधी मैदान तक की यात्रा होनी थी.
सुबह 7.25 बजे मुख्यमंत्री की गाड़ी चंद्रहिया के गांधी स्मृति उद्यान में पहुंची, जहां सुरक्षा के इंतजामों के बीच मुख्यमंत्री ने सर्वधर्म प्रार्थना सभा में भाग लिया. बापू की प्रतिमा पर माल्यार्पण किया. चंपा का पौधा लगाया और पदयात्रा पर रवाना हो गये. मुख्यमंत्री ने गांधी स्मृति उद्यान के बाहर जैसे ही कदम रखा. इतिहास में एक और अध्याय लिख गया प्रतीकों पर कब्जे व दावों की राजनीति के जमाने में क्या कोई राजनेता ऐसा करेगा? अप्रैल में जब सूरज का ताप दिन चढ़ने के साथ चढ़ता है. धूम में चलेगा. धूप में चलने के बाद भी उसके चेहरे पर शिकन नहीं होगी, क्या ऐसा होगा? ऐसे तमाम सवालों के साथ मैं भी पदयात्रा  में शामिल हुआ. मन में जो सवाल उठ रहे थे. उन्हें कसौटी पर परखने के लिए मुख्यमंत्री की पदयात्रा के आसपास होकर ही चलने लगा. एक-दो नहीं हजारों की संख्या में लोग साथ में चल दिये. सब के कदम गांधी मैदान की ओर आगे बढ़ रहे थे, लेकिन जैसे-जैसे रास्ता तय हो रहा था. लोग परेशान होते दिख रहे थे. कुछ विधायक व पूर्व विधायक सड़क के किनारे छांव की तलाश करने लगे. कुछ बैठ गये. पूछा गया, तो कहने लगे थक गये, तो बैठ गये. क्या करें?
मुख्यमंत्री नीतीश कुमार बिल्कुल सधे कदमों से लगातार आगे बढ़ रहे थे. उनके समर्थन में नारेबाजी होने लगी, तो उन्होंने तुरंत मना किया और नारेबाजी बंद करने की बात कही. मुख्यमंत्री ऐसे चल रहे थे, जैसे उनके मन में विचारों का सैलाब चल रहा हो. रास्ते में मिलनेवाले हर व्यक्ति का अभिभावन स्वीकार कर रहे थे. मुस्करा रहे थे. रास्ते में फूल की बारिश व अन्य किसी तरह का इंतजाम नहीं किया गया था. न ही किसी तरह की अन्य कोई व्यवस्था की गयी थी. कुछ स्थानों पर स्वास्थ्य विभाग की ओर से कैंप लगाये गये थे, जिनमें लोगों को मुफ्त इलाज हो रहा था. कुछ स्टॉल पानी व नीबू-पानी के लगे थे. इसके अलावा और कुछ नहीं था. हां, एक बात थी. सड़क के किनारे दोनों ओर लोग खड़े थे. बड़ी संख्या में. इनमें महिलाएं, बच्चे, बूढ़े-जवान सभी शामिल थे.
महिलाओं के हाथ में तख्ती थी, जिस पर शराबबंदी को सराहा गया था. लिखा था कि गांधी के सपने को बिहार ने शराबबंदी करके पूरा किया. ऐसे ही और स्लोगन लगाये लोग रास्ते में खड़े दिखे. इनसे लगा कि मुख्यमंत्री शराबबंदी के बाद नशाबंदी की जो बात कर रहे हैं, उनका संकल्प कुछ और मजबूत हुआ होगा. सुबह आठ बजे शुरू हुई यात्रा 9.20 बजे गांधी मैदान में लगी बापू की प्रतिमा पर आकर पूरी हुई, तो मुख्यमंत्री नीतीश कुमार एक बड़ी लकीर खीच चुके थे, जो उन्हें अन्य राजनेताओं से अलग करती है. यह पहली बार नहीं है, जो मुख्यमंत्री ने ऐसा करके खुद को और नेताओं से अलग साबित किया है. वो इससे पहले भी विभिन्न यात्राओं के जरिये लोगों के बीच जाते रहे हैं, जिनका व्यापक असर पूरे प्रदेश पर पड़ा है. इसकी चर्चा भी चाहे मुख्यमंत्री के प्रशंसक हों या विरोधी सब करते रहे हैं.

सोमवार, 17 अप्रैल 2017

मैथिली ठाकुर राइजिंग स्टार के फाइनल में पहुंची

मिथिला का इलाका हमेशा से उर्वर रहा है. यहां की प्रतिभाएं लगातार लोहा मनवाती आयी हैं. मधुबनी की बेटी मैथिली ठाकुर भी इसी कड़ी में हैं. 16 साल की मैथिली ठाकुर ने कलर्स चैनल के लाइव रियलिटी शो राइजिंग स्टार के फाइनल में अपनी जगह पक्की कर ली है. रविवार को हुये मुकाबले में मैथिली ने पहले पांच सेमीफाइनलिस्ट में अपनी गायकी से टॉप किया, तो इसके बाद उनका मुताबला आइटीबीपी में काम करनेवाले विक्रमजीत सिंह से हुआ, जिसमें विक्रमजीत को जनता से 61 फीसदी, जबकि मैथिली को 60 फीसदी वोट मिले, लेकिन शो के जजेज ने मैथिली को फाइलन का टिकट देने की घोषणा की, क्योंकि उनके पास किसी भी खिलाड़ी को परफार्मेस के आधार पर 21 फीसदी वोट देने का अधिकार है.
फाइनलिस्ट की घोषणा में जजो को दो में से किसी एक प्रतिभागी को ही वोट देने की बात कही गयी थी. इसी वजह से दोनों सेमीफाइनल में सबसे ज्यादा वोट पानेवाले खिलाड़ियों का मुकाबला हुअ, तो जजों ने मैथिली की गायकी पर मुहर लगायी. अब मैथिली का मुकाबला, अगले शनिवार को पांच सेमिफाइनलिस्ट में से सबसे ज्यादा मत पानेवाले के साथ होगा. रियलिटी शो का फाइनल अगले रविवार को होगा.
मधुबनी की रहनेवाली मैथिली ठाकुर का बैकग्राउंड क्लासिकल म्युजिक है. मैथिली के करियर को बनाने के लिए उनका परिवार दिल्ली शिफ्ट कर गया है. मैथिली के पिता उसका साथ देने के लिए मुंबई में ही हैं. उनका कारवां जिस तरह से बढ़ रहा है, उससे वह राइजिंग स्टार बनने की दौड़ में सबसे आगे नजर आती हैं.

आगे बढ़ने की जगह पीछे चला गया किसान, ठोस उपाय से होगा भला

नील किसानों की समस्या को लेकर सौ साल पहले बापू का चंपारण सत्याग्रह हुआ, जो अंगरेजों के दमनकारी नीतियों के खिलाफ ऐसा कारगर हुआ कि ब्रिटिश राज की नींव हिल गयी. आंदोलन के तीस साल के अंदर ही अंगरेजों ने भारत छोड़ दिया. स्वतंत्र भारत में नयी सरकार बनी. उसे देश को आगे बढ़ाने का रास्ता चुनना था. सरकार ने बड़ी परियोजनाओं के सहारे आगे बढ़ने का फैसला लिया और कई बड़े उद्योगों की स्थापना हुई, लेकिन इस सब कवायद में अपने देश की रीढ़ समझी जानेवाली कृषि कहीं पीछे छूट गयी.
कृषि पर आधारित चीनी मिलें बंद होने लगीं. चंपारण के गांधीवादी विनय कुमार सिंह कहते हैं कि पहले बिहार में 28 चीनी मिलें थीं. देश आजाद हुआ, तो इनकी संख्या 32 हो गयी, लेकिन अब ज्यादातर मिलें बंद हैं, जो चल रही हैं. वह भी घाटे में. ऐसे में हम आगे कहां बढ़े हैं. गन्ने की खेती चौपट हो गयी है. गेंहू-धान की स्थिति के बारे में सबको पता ही है. सरकार की ओर से क्रय केंद्र खोले जाने की बात होती है, लेकिन असली किसानों का इनका लाभ नहीं मिलता है. किसानों को बिचौलियों के हाथों ही अपना अनाज बेचना पड़ता है. रही बात सब्जी की खेती की, तो इसमें फायदा है, लेकिन किसान पूरे खेत में सब्जी ही नहीं बो सकता है. उसे अन्य फसलें भी तो चाहिये.
15 अप्रैल से गेंहू खरीद का समय शुरू हो गया है, लेकिन तय समय पर कहीं भी क्रय केंद्र खुलने का सामाचार नहीं आया है. यह पहली बार नहीं हो रहा है. ऐसा पहले भी होता रहा है. अमूनन क्रय केंद्र तब काम करना शुरू करते हैं, जब किसान अपने उत्पाद का सौदा बिचौलियों से कर चुका होता है. हमारी व्यवस्था की बड़ी खामियों में एक यह भी है. सरकार समर्थन मूल्य 14 सौ तय करती है, तो किसान को बिचौलिये 800-900 में ही उत्पाद बेचने को मजबूर करते हैं. मरता क्या न करता की तर्ज पर किसान जान-बूझ कर इनके चंगुल में फंसता है, क्योंकि उसके पास इसके अलावा कोई और चारा नहीं होता है.
चंपारण शताब्दी वर्ष पर यह सवाल उठाना इसलिए भी लाजमी हो जाता है, क्योंकि गांधी जी ने किसानों की लड़ाई ही लड़ी थी और उसमें जीत हासिल की थी, लेकिन आज किसान यही लड़ाई आजाद देश में व्यवस्था के खिलाफ लड़ रहे हैं. वह पानी, खाद से लेकर समर्थन मूल्य तक से जूझ रहे हैं. उन्हें इसका विकल्प सरकार की ओर से की बनायी जानेवाली पॉलिसी में दिखता है. किसान कहते हैं कि शताब्दी समारोह पर केंद्र व राज्य सरकार को मिल कर एक ऐसी स्कीम चलानी चाहिये, जिसकी पहुंच आम किसानों तक हो, ताकि उन्हें उसका सीधा लाभ मिल सके. चंपारण का किसान कहते हैं कि हम अब भी खुद को ठगा महसूस कर रहे हैं, क्योंकि सरकारों की ओर से शताब्दी वर्ष पर केवल कार्यक्रमों का आयोजन हो रहा है. हम लोगों के लिए कोई रोडमैप नहीं दिया जा रहा है, जिससे कि हमारी फायदा हो. अगर सरकार इसको अभी नहीं कर सकती है, तो उसे इस पर खुल कर बोलना चाहिये.

रविवार, 16 अप्रैल 2017

सोचने को मजबूर कर रही ये घटनाएं

हाल के दिनों में मुजफ्फरपुर व आसपास के इलाके में जो घटनाएं हो रही हैं, जो सोचने को मजबूर कर रही हैं. यह वही समय है, जब हम चंपारण सत्याग्रह की सौवीं वर्षगांठ मना रहे हैं, जिसमें सत्य और अहिंसा के बल पर बापू ने अंगरेजों को झुकने पर मजबूर कर दिया था, लेकिन बापू की प्रतीकात्मक यात्र के बीच हिंसा की कई घटनाएं हुईं, जो मन को दुखाती हैं.
15 अप्रैल की बात करें, तो पारू में ऐसी घटना हुई, तो लोगों के कम हो रहे सब्र का परिचय देती हैं. यहां एक बाइक से बकरी के बच्च कुचल गया. इसका परिणाम ये हुआ कि लोगों ने बाइक सवार की पीट-पीट कर जान ले ली. इसके बाद गुस्साये लोगों ने आरोपितों समेत दर्जनों की संख्या में झोपड़ियों को जला दिया. ये घटना बदले की कार्रवाई की वजह से बढ़ती चली गयी, जिसे काबू में करने के लिए कई थानों की पुलिस को मौके पर जाना पड़ा, तब जाकर हालत नियंत्रण में आयी.
ऐसे ही कुछ दिन पहले एके-47 से सरेआम दिन-दहाड़े एक ठेकेदार की हत्या कर दी गयी. वह भी उस इलाके में जहां कुछ ही देर में गोवा की राज्यपाल का कार्यक्रम होनेवाला था. राज्यपाल उसमें आनेवाली थीं, लेकिन इससे पहले ही घटना घट गयी. तब वहां की सुरक्षा व्यवस्था को लेकर सवाल उठाये गये थे. कहा गया था कि राज्यपाल जैसा वीआइपी होने के बाद भी इलाके की सुरक्षा के नाम पर खिलवाड़ हुआ.
इसके बाद की एक घटना का जिक्र करना चाहूंगा, जिसमें पुलिस ने रात के समय स्वचालित हथियार लेकर बिना प्लेट की गाड़ी से घूम रहे तीन अपराधियों को चिह्नित किया. उनका पीछा किया गया. एक जगह पर अपराधी पुलिस की गश्ती टीम से घिर गये, लेकिन उन्होंने स्वाचालित हथियार दिखाया, तो गश्ती टीम में शामिल एक पुलिसवाला जमीन पर गिर गया. इसके बाद बदमाश फरार होने में सफल हो गये. इस घटना के बाद आला पुलिस अधिकारी हरकत में आये और सभी अधिकारियों को ये संदेश भेजा गया कि ऐसी स्थिति नहीं चलेगी. पुलिस को धता बताकर अपराधी भाग रहे हैं. ऐसे में पुलिस व्यवस्था पर सवाल उठने लाजमी हैं. हमें मेहनत से काम करना होगा.
आला अधिकारियों की ओर से सख्ती के बाद पुलिस भी जागी है. अब एके-47 से लैश होकर जवान रात के समय गश्ती करने लगे हैं. गश्ती के लिए बड़े पुलिस अधिकारियों की ड्यूटी लगा दी गयी है. वह बारी के हिसाब से ड्यूटी पर रहेंगे.
पुलिस की इस कवायद का क्या फायदा होता है. ये तो आनेवाला समय बतायेगा, लेकिन जिस तरह से अपराध व अपराधियों के हौसले बुलंद हुये हैं. वह समाज के लिए अच्छा संकेत नहीं है. क्योंकि अभी एक घटना पर काबू नहीं पाया जाता कि दूसरी घटना हो जा रही हैं.

गांधी के नाम पर ये कुछ जमा नहीं?

मेरे मन में गांधी जी व उनके विचारों को लेकर अपार श्रद्धा है, जिसे मैं शब्दों में व्यक्त नहीं कर सकता, लेकिन गांधी जी के नाम पर शनिवार को मुजफ्फरपुर में जो हुआ, वो परेशान करनेवाला है. 10 अप्रैल से सौ साल पहले की गांधी जी की यात्र का सफल मंचन किया जा रहा था. इस मंचन में एक सोच दिख रही थी, समाज की बेहतरी की. लोगों का मानस बदलने की, लेकिन 15 अप्रैल को चंपारण के लिए रवाना होने से पहले ऐसा हुआ कि जो सबको स्तब्ध कर गया. पता चला कि अब नये गांधी विशेष ट्रेन से चंपारण जायेंगे. उन्हें मोतिहारी से भेजा गया है. अच्छा है भेजा गया, लेकिन इसमें एक समन्वय होता, तो ज्यादा अच्छा होता, ताकि किसी को खराब नहीं लगता, लेकिन आनन-फानन में ऐसा हुआ, जो गांधी जी के किरदार को सफलता पूर्वक निभा रहे थे. उन्हें दरकिनार करने की कोशिश थी ये, लेकिन उन्होंने कहा कि जो हुआ, उसका उन्हें तनिक भी अफसोस नहीं है.
वहीं, मुजफ्फरपुर से जो गांधी चंपारण के लिए विशेष ट्रेन से चले. उनका ड्रेस अलग था. वह लाठी के सहारे चल रहे थे. हाथ में गुजराती में अनुवाद की हुई गीता लिये चल रहे थे. गांधी दर्शन के बारे में पूछने पर जवाब कुछ अलग होते थे. साथ में बैठे व्यक्ति की ओर से समझाया जा रहा था. इसके उलट मोतिहारी के रास्ते में पड़नेवाले स्टेशनों पर लोगों की भीड़ बहुत ज्यादा था, जिनकी आंखों में एक उम्मीद थी. वह गांधी को देखना और मिलना चाहते थे. यह चाहत पूरे रास्ते में पड़नेवाले गांवों व कस्बों के लोगों में दिखी. सभी अपना काम छोड़ कर स्पेशल ट्रेन का इंतजार कर रहे थे. ट्रेन लगभग समय से चल रही थी और समय से कुछ ही मिनट लेट मोतिहारी पहुंची.
मोतिहारी स्टेशन पर ही रेलवे की प्रदर्शनी गांधी जी ने देखी और इसके बाद रेलवे के कार्यक्रम में शरीक हुये. इसके बाद खुली जीप में तिरंगा यात्र व गोरखबाबू के घर गये. यह मुजफ्फरपुर के उलट था, क्योंकि वहां पिछले पांच दिनों से गांधी जी बग्घी पर सवार होकर चल रहे थे. यह अंतर बहुत कुछ कह रहा था. हालांकि गांधी जी को लेकर नेताओं के अपने तर्क थे, लेकिन इनमें से कुछ ऐसे थे, जिन पर विश्वास नहीं हो रहा था.

मंगलवार, 11 अप्रैल 2017

आज जाकर इतिहास बोध हुआ?

पिछले पांच-छह साल में कितनी बार एलएस कॉलेज होकर गुजरा होउंगा, लेकिन ऐसा इतिहास बोध इससे पहले कभी नहीं हुआ. कई बार कार्यक्रमों में भी शामिल होने का मौका भी मिला. बाबू लंगट सिंह, राजेंद्र बाबू व महत्मा गांधी की प्रतिमाओं पर माल्र्याण का मौका भी मिला, लेकिन ऐसा कभी नहीं हुआ, जो 10 अप्रैल 2017 को हुआ. इतिहास जब अपने एक सौ साल पूरे होने पर खुद को दोहरा रहा था. जैसे ही गांधी का वेश धरे डॉ भोजनंदन व जेबी कृपलानी बने डॉ अरुण कुमार सिंह की बग्घी लंगट सिंह कॉलेज के परिसर में घुसी. पूरी तस्वीर सामने नाचने लगी.
सौ साल पहले जब गांधी एलएस कॉलेज पहुंचे थे, तब की तस्वीर अभी तक मैंने नहीं देखी, लेकिन आज की तस्वीर देख रहा हूं. उसे महसूस कर रहा हूं, जो लोग महापुरुषों के किरदार में हैं, उनके बारे में कुछ जानता हूं. उनका स्नेह मिलता रहा है. ऐसे में मुङो देखने और समझने की नयी दृष्टि मिलती है.
लंगट कॉलेज की एक-एक चीज से साक्षात्कार हो रहा है. वही, गांधी जी की प्रतिमा जिस पर माल्र्यापण करके कई बार मैं वापस आ चुका हूं, लेकिन अब अलग लग रही है. रोशनी से नहायी इस प्रतिमा को देखने से ऐसा लगता है, मानों इतिहास फिर से जीवंत हो उठा है. गांधी कूप, जिसे संरक्षित करने की कोशिश हुई है, उसे देख कर भी तरह-तरह के सवाल उठ रहे हैं. ऐसे ही कई और स्थान जो गांधी जी से जुड़े हैं. सब में अलग सी अनुभूति दिखती है. काश! ये जज्जा बना रहता है और अपनी विरासत से ऐसे ही मेरा साक्षात्कार होता रहता.

बापू, आपका सामना भी तो इन सड़कों से हुआ होगा!

सोमवार को मुजफ्फरपुर शहर में चंपारण सत्याग्रह के सौ साल पूरे होने पर इतिहास बना. हैरिटेज वॉक के बहाने गांधी जी की यात्र का सजीव चित्रण फिर से किया गया. गांधी बने डॉ भोजनंदन प्रसाद ट्रेन से मुजफ्फरपुर जंकशन पहुंचे. इसके बाद बग्घी के सहारे उन्हें शहर में लगभग पांच किलोमीटर जुलूस की शक्ल में घुमाया गया. इस बग्घी को घोड़ों की जगह एलएस कॉलेज के छात्र खीच रहे थे, जैसा कि सौ साल पहले भी किया गया था, लेकिन तब और अब की परिस्थिति बदली है. अब शहर को स्मार्ट सिटी में शामिल कराने की बात हो रही है, लेकिन शहर में सड़के ऐसी हैं कि कहीं भी दो-चार फुट समतल सड़क नहीं दिखती है.
सड़क पर उतरते ही परीक्षा शुरू हो जाती है. ऐसे में गांधी का काफिला लगभग पांच किलोमीटर दूर तक चला. इस दौरान कई जगहों पर जाम की वजह से काफिले को रोकना भी पड़ा, जबकि इसकी अगुवाई प्रशासन के जिम्मे थी, जिसके कारिंदे लोगों को सड़क के दोनों तरफ रोक रहे थे. बड़े पैमाने पर अधिकारी से लेकर कर्मचारी तक लगाये गये थे, जो ड्युटी बजा रहे थे. इसके बाद भी बापू को जाम में फंसने से नहीं रोक सके.
मैं कल्याणी चौक के पास काफिले में शामिल हुआ, तो लगा कि गांधी जी की बग्घी हिचकोले खा रही है, लेकिन इतिहास खुद को दोहरा रहा था. सो उस ओर ज्यादा ध्यान नहीं गया. पूरी ऊर्जा तो इतिहास का हिस्सा बनने में लगी थी, लेकिन एक आम शहरी होने की वजह से सड़क से गुजर रहे लोगों के बारे में सवाल भी उठ रहे थे. सवाल, वही बिजली, पानी और सड़क से संबंधित.

रविवार, 9 अप्रैल 2017

मैं उस मुजफ्फरपुर में रहता हूं..

मैं उस मुजफ्फरपुर में रहता हूं, जहां चंपारण यात्र के क्रम में मोहनदास करमचंद गांधी पहुंचे थे. तारीख 10 अप्रैल 1917 थी. अब कैलेंडर पूरा एक सौ साल आगे निकल चुका है. गांधी जी तो नहीं हैं, लेकिन उनके बताये रास्ते हैं. जिन पर चलने की बात हमारे बुजुर्ग करते हैं. बहुत ऐसे हैं, जो अभी उस रास्ते पर चल भी रहे हैं.
कल फिर से बघ्घी सजेगी. गांधी जी जिस बेला में मुजफ्फरपुर शहर पहुंचे थे. उसी बेला में उस यात्र को फिर से जिया जायेगा. तैयारियां चल रही हैं. प्रशासन से लेकर आम लोगों में उत्साह है, वो देखना और जानना चाहते हैं कि इतिहास का वह महत्वपूर्ण क्षण कैसे रहा होगा, जिसमें देश को आजाद कराने की नींव पड़ी थी. हमें भी इंतजार है. हम भी गवाह बनना चाहते हैं, उस पल के, जब गांधी जी आयेंगे और हमारे देश की तकदीर और तस्वीर बदलने की बात कहेंगे, लेकिन हम अब इससे कहीं आगे बढ़ चुके हैं.
हमारी तमन्ना है कि गांधी जी के जरिये यह भी बताया जाये कि आज हम जिस रास्ते पर चल रहे हैं. वह हमें कहां ले जायेगा. क्यों ये सवाल उन लोगों से सुनने को मिलता है कि समाज में गिरावट आयी है, जो गांधी जी को अपना सब कुछ मानते हैं. इससे तो साफ लगता है कि सौ सालों में हम बहुत बदल गये हैं? हम एक-दूसरे को देख और सुहा नहीं रहे हैं. भाईचारे में कमी की बात हो रही है. गांधी जी ने तब जिस शिक्षा में समाज के उन्नति की राह देखी थी. वह तो अब बड़े पैमाने पर मिल रही है. इसके बाद भी हम इतने छोटे क्यों होते जा रहे हैं. यह सवाल हमें सालता है, जब भी किसी से बात करता हूं, तो कहता है कि हम गांधी जी के रास्ते पर नहीं चल रहे हैं.
सौ सालों में भले ही बुनियादी सवाल बदल गये हैं, लेकिन मुद्दा अब भी शिक्षा बनी हुई है. अब गुणवत्तापूर्ण शिक्षा की बात हो रही है, तो क्या हमने अपनी शिक्षा के मूल्यों को इतना गिरा लिया है, जो अब उसमें गुणवत्ता डाले जाने की बात की जा रही है. ऐसे में उन किताब लिखनेवालों और उन शिक्षकों का क्या होगा? जिनसे समाज बदलाव की आस लगाये हुये है और वो खुद को समाज के बदलाव का वाहक भी बताते हैं? क्या हमें जो किताबें पढ़ाई जा रही हैं, उनमें कहीं कुछ कमी है या फिर उन्हें पढ़ानेवालों में? इसका जवाब जिनती जल्दी देश और समाज को मिल सके, मुङो लगता है कि उतना ही अच्छा होगा.
खैर, मैं कहां ऐसे सवालों में उलझ गया. अभी शुभ अवसर है. सौ साल बाद उन क्षणों को जीने का, जिन्हें हमारे पूर्वजों ने अविस्मणीय बना दिया. शायद, उन्हीं की बदौलत मैं आज यह लिख पाने की हिम्मत भी जुटा पा रहा हूं. जय हिंद!

शनिवार, 8 अप्रैल 2017

बापू ने पूछा, बड़े होकर क्या करोगे, मैंने कहा, सेवा

राष्ट्रपित महत्मा गांधी जी से जिन्होंने मुलाकात की हो. ऐसे कम ही लोग अब बचे हैं. इन्हीं में से एक हैं पूर्व मंत्री ब्रज किशोर सिंह, जो अब मोतिहारी में रहते हैं, लेकिन इनके गांव का नाम चैता है, जहां से इनका लगातार जुड़ाव बना हुआ है. गांधी जी के जीवन मूल्यों को समर्पित ब्रज बाबू अभी गांधी संग्रहालय के सचिव हैं और चंपारण शताब्दी वर्ष पर होनेवाले समारोह में सक्रिय रूप से भाग ले रहे हैं.
चंपारण में गांधी जी से जुड़ी 15 जगहों पर विशेष काम कर रहे हैं. सात अप्रैल को मुलाकात हुई, तो कहने लगे संग्रामपुर जाना है. वहां पर लोगों के साथ बैठक रखी है. काम करना है. जल्दी-जल्दी बात की और संग्रामपुर के लिए निकल गये. कहने लगे, 1947 की बात है. बापू पटना आये थे. उस समय मेरी कुछ समझ विकसित हो रही थी. मैंने अपने पिता से जिद की और कहा कि हमें बापू से मिलना है. वह हमें लेकर पटना गये. वहां मुलाकात हुई और हमने बापू को प्रणाम किया, तो वह मेरी ओर मुखातिब हुये. बोले, बड़े होकर क्या करोगे? मैंने उत्तर दिया, सेवा. इसके बाद उन्होंने मेरे सिर पर हाथ रख दिया.
ब्रज किशोर सिंह कहते हैं कि वो दिन और आज का दिन. बापू की बात हमें याद है. हम लगातार सेवा के काम में लगे हैं. वह कहते हैं कि सौ साल के पहले की स्थिति अलग थी. अबकि अलग है. शिक्षा पर विशेष जोर दिये जाने की जरूरत है. इससे ही बदलाव आयेगा. अगर हम लोग शिक्षा की हालत सुधार ले जाते हैं, तो सभी समस्याओं का हल हो जायेगा. हमें शताब्दी वर्ष पर इसका संकल्प लेना चाहिये. वह कहते हैं कि किसानों की स्थिति पहले से खराब हुई है. पिछले सात-आठ साल में प्रकृति की मार कृषि पर पड़ी है, लेकिन इसका कोई रास्ता निकलता नहीं दिख रहा है. सरकार की ओर से योजनाओं के नाम पर तमाम व्यवस्था की गयी है, लेकिन उनका लाभ असली किसानों तक नहीं पहुंच पाता है.

शुक्रवार, 7 अप्रैल 2017

यह बुलेट ट्रेन के जमाने की रेल है

राष्ट्रपिता महत्मा गांधी के नाम पर स्वच्छता अभियान चल रहा है. रेलवे में कुछ ज्यादा ही कमाल है. ट्विट करने पर चीजें दुरुस्त हो जाती हैं, लेकिन उस मुजफ्फरपुर से रक्सौल जानेवाली पैसेंजर ट्रेन को कोई पूछनेवाला नहीं है. जिस स्टेशन से ट्रेन पर सवार होकर महत्मा गांधी सौ साल पहले किसानों की उस सबसे बड़ी जंग को जीतने के लिए निकले थे, जिसे अंगरेजों ने तीन कठिया प्रथा का नाम दे रखा था. फिर से तैयारी चल रही है, चंद दिनों के बाद यात्र को फिर से जीवंत किया जायेगा. किरदार तैयारी कर रहे हैं, लेकिन रेलवे की पैसेंजर ट्रेन कई सवाल जेहन में खड़ा करने को मजबूर करती है. सुबह 9.45 बजे मुजफ्फरपुर स्टेशन के प्लेटफार्म नंबर पांच से खुलनेवाली ट्रेन में साफ-सफाई का आलम ये है कि इसमें ऐसी कोई जगह नहीं दिखती, जहां कूड़ा नहीं बिखरा हो. खिड़कियों पर पान की पीक और अन्य गंदगी लगती है कि सालों पुरानी है, लेकिन कोई देखनेवाला नहीं.
ट्रेन की हालत ऐसी है कि इससे हजारों की संख्या में वे लोग सफर करते हैं, जिन्हें विभिन्न जगहों पर ड्युटी के लिए जाना होता है. साथ ही ऐसे लोग भी जो कभी-कभार किसी प्रयोजन से ट्रेन का सफर करते हैं. ऐसा नहीं कि ट्रेन के पास समय नहीं है. मुजफ्फरपुर स्टेशन के प्लेटफॉर्म नंबर पांच पर यह रात के समय ही लग जाती है और घंटों खड़े रहने के बाद सुबह 9.45 बजे खुलने का समय है, लेकिन कम ही समय से खुल पाती है. दस बजे के बाद अमूमन स्टेशन से रवाना होती है. इसके बाद मोतिहारी, सुगौली जैसे महत्वपूर्ण स्टेशनों का सफर करते हुये सीमावर्ती स्टेशन रक्सौल पहुंचती है.
ट्रेन में नियमित यात्र करनेवाले यात्रियों का कहना है कि वह इसके आदी हो चुके हैं. कभी भी साफ-सफाई की ओर ध्यान नहीं दिया जाता है. लगता है कि इसकी ओर किसी का ध्यान नहीं है. ट्रेन जिस स्टेशनों से गुजरती है. उनकी भी हालत ज्यादा ठीक नहीं है. मोतीपुर स्टेशन पर ट्रेन को बीच की लाइन पर खड़ा कर दिया गया, जिससे यात्रियों को परेशानी हुई. महवल स्टेशन पर प्लेटफॉर्म का काम चल रहा है. इसकी वजह से गहरा गड्ढा खोदा गया है. उसी से होकर यात्रियों पर ट्रेन पर बैठना पड़ता है. इस क्रम में उन्हें चोट भी लगती है. ऐसे कई और स्टेशन व हॉल्ट हैं, जहां यात्री जान जोखिम में डाल कर ट्रेन में चढ़ते-उतरते हैं.

गुरुवार, 6 अप्रैल 2017

भाग-दो- निहत्था पैगंबर थे राष्ट्रपिता महत्मा गांधी

उस समय के बड़े स्कॉलर रहे एरिक ड्वॉस्चर ने ट्रॉवोस्की की जीवनी लिखी थी. प्रॉफेट आर्म, उस समय का जिक्र है, जब ट्रॉवोस्की सत्ता में था. वहां का रक्षा मंत्री था. क्रांति के समय सारी चीजों को वो चला रहा था. उसके बाद जब कि उसके हाथ से सत्ता चली गयी और बाद उसे देश से निकाला गया, तो उसी के जीवन पर ये था. वो भी चुनौती थी, क्या सचमुच में ऐसा है कोई बड़ा राजनेता होता है, तभी सफल हो पाता है, जब तक उसके हाथ में इतनी शक्ति होती है कि जबरदस्ती लोगों के ऊपर अपने नियम-कानून लागू करता है, तो ये उसका सार था. गांधी जी के साथ दूसरी स्थिति हो रही थी. चीनी क्रांति को सफलता मिली थी. रूस में भी क्रांति हुई. उसी से स्टॉनिल की सत्ता बनी, जो व्यवस्था बनी, समाजवादी थी या नहीं, ये विवाद का विषय था, लेकिन सत्ता बहुत ही मजबूत थी. इतनी मजबूत कि ब्रिटेन के खिलाफ दूसरे विश्वयुद्ध में एक बहुत बड़ी शक्ति रूस की थी, जिसकी वजह से पराजय हुई. इधर, भारत में गांधी जी के नेतृत्व में आजादी की लड़ाई चल रही थी. ये भी था कि जो बड़े-बड़े क्रांतिकारी नेता था, वो हिंसा के बल पर शासन कायम कर रहे थे. उसके विपरीत क्या गांधी जी जैसे आदमी को सफलता मिल सकती है. एक ये भी संदर्भ था. इस किताब को जब लिखा गया, तो उस समय संक्रमण काल था, जबकि दिखायी पड़ रहा था कि जिन क्रांतियों का बड़ा गुणगान हो रहा था. रूस व चीन की क्रांति, वो अपने उद्देश्य से पूरी तरह से भटक गयी थीं. रूस में तो बजाफ्ता 1980 आते-आते पूरी व्यवस्था बदल गयी थी, उसने पूरा पूंजीवाद कबूल कर लिया. चीन में भी माउत्से तुंग ने कोशिश की थी कि नये मूल्य स्थापित किये जायें, लेकिन माओ के मरने के दस साल के अंदर ही चीन दुनिया का सबसे सफल पूंजीवादी व्यवस्था वाला देश बन गया.
उसी पृष्ठभूमि में ये था कि गांधी जी, जिनके नाम पर इतना बड़ा दुनिया में प्रचार नहीं हुआ. इनकी कोई प्रशस्ति नहीं हुई, लेकिन कुल मिला करके उनके जो मूल्य थे. वो विस्थापित नहीं हुये. गांधी जी सफल नहीं हुये, उनके मॉडल पर हिन्दुस्तान नहीं चला, लेकिन जो कुछ विचार गांधी जी ने थे, वो अभी भी कायम है. दुनिया में बहुत सारे लोग गांधी जी की ओर देख रहे हैं. इन्हीं चीजों को लेकर ये पुस्तक लिखी गयी है. गांधी जी को अपने ही देश में आधिकारिक तौर पर तो एक तरह से खारिज ही कर दिया गया है, लेकिन गांधी जी की प्रासंगिकता भी देश में खत्म नहीं हुई है. ऐसे अभियान, जो मूलत: गांधी जी के विचारों के विपरीत हैं. उनको भी सफल बनाने के लिए गांधी जी का नाम लेने की कोशिश हो रही है. जैसे कि अभी स्वच्छता अभियान चलाया जा रहा है. इसके समर्थन में गांधी जी का नाम बार-बार लिया जाता है. हालांकि ये बहुत बड़ा धोखा है लोगों के साथ. स्वस्छता का मतलब सिर्फ इतना ही रह गया है कि आप घरों में शौचालय बनायें. क्या स्वच्छता का इतना ही मतलब होता है क्या?
गांधी जी स्वस्छता के बारे में जो सोचते थे. वो वही था क्या, जो आज किया जा रहा है. महत्मा गांधी ने अफ्रीका में दो बड़े फॉर्म बनाये थे. एक फिनिक्स फॉर्म था, जो शुरू में उन्होंने बनाया था. बाद में टॉलस्टाय फॉर्म बनाया था. दोनों जगह कुछ लोग कम्युन की जिंदगी बिताते थे. खुद खेती करते थे. सामूहिक लोगों का जीवन था. शौचालय की व्यवस्था के रूप में वहां था कि जो घर थे, उसके पास में एक-दो कट्ठा जमीन थी, जिसमें शौच के बाद लोग मिट्टी डाल देते थे. इस तरह से वहां कभी गंदगी नहीं फैलती थी. जारी..

बुधवार, 5 अप्रैल 2017

मुजफ्फरपुर में पहली बार दिखी ऐसी शोभायात्रा!

रामनवमी का पर्व धूमधाम से मनाया गया. मुजफ्फरपुर के आसपास के जिलों में बड़े पैमाने पर पर्व मनाये जाने की सूचना मिलती थी, लेकिन इस बार मुजफ्फरपुर में जिस तरह से सुबह से शाम तक शोभायात्रा निकलती रही, वो पहली बार देखने को मिला. पूरे दिन शहर में शोभा यात्राओं का दौर चलता रहा था. जय श्री राम के नारों से सारा शहर गूंजता रहा. शोभा यात्राओं का असर ये रहा कि शहर में जगह-जगह जाम लगा.
पिछले तीन दिन से जिस तरह से तैयारियां चल रही थीं. उससे साफ हो रहा था कि इस बार कैसी रामनवमी होनेवाली है. पूरे शहर में जगह-जगह भगवा पताका बांधी गयी थी. इसके लिए तीन दिन पहले से बाकायदा अभियान चल रहा था. युवा इस काम में लगे थे, जो मोटरसाइकिल पर पताका लगा कर तेजी से शहर का चक्कर लगा रहे थे. इन सबको इलाके के हिसाब से जिम्मेवारी दी गयी थी, ऐसा देखने से लगता है, क्योंकि कोई भी इलाका ऐसा नहीं दिखा, जहां पर भगवा पताकाएं नहीं लगायी गयी हों. शहर में जिस तरफ जाइये. पताकाएं देखने के मिल रही थीं. बुधवार की सुबह ही सिकंदरपुर इलाके से शोभायात्रा की शुरुआत हुई. इसमें संघ के साथ भाजपा से जुड़े लोग भी शामिल हुये.
भाजपा से जुड़े लोगों ने जब भव्य शोभा यात्र और तलवार आदि के साथ यात्रा में शामिल होने के संबंध में पूछा गया, तो इनका कहना था कि इस बार उत्साह ज्यादा है. लोग स्वत: स्फूर्त होकर ऐसा कर रहे हैं. शोभायात्रा में शामिल हो रहे हैं. वहीं, संघ से जुड़े लोग कह रहे थे कि इस बार आम लोगों में रामनवमी को लेकर ज्यादा उत्साह है. इसी का असर शोभायात्रा के दौरान देखने को मिला. शहर में रहनेवाले कुछ लोगों का कहना था कि पिछले लगभग दशक भर में ऐसा पहली बार हुआ है, जब इतने बड़े पैमाने पर रामनवमी पर शोभायात्रा निकली है. पहली भी यात्र निकलती थी, लेकिन वह सीमित होती थी. इस बार बड़ी यात्रा निकली है.
अन्य दलों के लोग इसके राजनीतिक मायने तलाश रहे हैं, लेकिन यह उनका मत हो सकता है. जिस तरह से रामनवमी को लेकर शहर में लोग सड़कों पर उतरे. वह अलग नजारा पेश कर रहा था. शोभा यात्राओं पर जगह-जगह फूलों की बारिश की जा रही थी. कहीं, ठंडाई का इंतजाम था, तो कहीं पर लोगों को प्रसाद खिलाया जा रहा था. माइक से एनाउंसमेंट हो रहा था, जो भक्त प्रसाद घर ले जाना चाहते हैं, तो वह प्रसाद ले भी जा सकते हैं.

मंगलवार, 4 अप्रैल 2017

निहत्था पैगंबर थे राष्ट्रपिता महत्मा गांधी

वरिष्ठ समाजवादी सच्चिदानंद सिन्हा ने अपनी किताब निहत्था पैगंबर के बारे में एलएस कॉलेज में व्याख्यान दिया. राष्ट्रपिता महत्मा गांधी की विचारधारा पर आधारित ये पुस्तक जल्दी ही बाजार में आनेवाली है. किताब में बताया गया है कि कैसे महत्मा गांधी की अहिंसावादी नीति ने देश को बदला और आजादी दिलायी. हथियारों पर आधारित क्रांतियों का जिक्र भी पुस्तक में किया गया है. इसी व्याख्यान के कुछ अंश हम क्रमवार आपके सामने रख रहे हैं.
ईश्वर है भी, तो नैतिकता की जरूरत कैसे स्थापित होती है? ये कैसे मालूम होता है कि जो कुछ भी नैतिक माना जा रहा है. वास्तव में वो ईश्वर की आवाज है. ओल्ड टेस्टामेंट की एक कहानी है, जिसमें अब्राहम अपने पुत्र का बध करता है. आवाज आती है ईश्वर से कि तुम पुत्र का बध करो, लेकिन सवाल है कि तब तय उसको करना है, जो आवाज आ रहा ही, वो ईश्वर की आवाज है या शैतान की आवाज है. वो कहते हैं की अंतत: हमको तय करना है कि क्या सही है, क्या गलत है? तो एक बहुत बड़ा प्रश्न नैतिकता के बारे में किया था कि नैतिकता का आधार क्या है? अगर कोई आधार नहीं है, तो कुछ भी करना जायज है. कुछ ने कहा कि आप जो कुछ भी करना चाहते हैं, सब कुछ ठीक है. आप पर नैतिक दोष नहीं लगाया जा सकता है. एक तो ये विवाद था. मेरे दिमाग में ये था, जिस समय पुस्तक लिख रहा था. दूसरी बात, उस समय बहुत बड़ी-बड़ी क्रांतियां हो चुकी थीं. उनके परिणाम सामने आ रहे थे. वियतनाम में क्रांति हो गयी थी. क्यूबा में क्रांति हो चुकी थी, तो क्रांति के जो नतीजे थे. उनके बारे में भी दुनिया भर में विवाद शुरू हो गया था कि क्या क्रांति वहीं जा रही है कि क्या, जो उसका लक्ष्य था या कहीं, दूसरी दिशा में जा रही है. इसमें स्थायित्व है क्या? बहुत सारी बातें हो रही थीं और उसी संदर्भ था कि गांधी जी ने अहिंसा की बात की, तो ये संभव है क्या? एक राजनीतिक विचारक था मैकियावैली. उसकी लिखी किताब..द प्रिंस..उस समय सबसे बड़ी किताब मानी जाती थी, तो उसने एक स्थापना दी. दुनिया में जितने भी सश मसीहा हुये हैं, वो सफल हुये हैं और जो नि:श मसीहा थे, वो सब असफल हुये हैं, तो एक सवाल ये भी था. दोनों चीजों को लेकर मैंने इस पर किताब लिखी. इस किताब के बारे में ज्यादा कुछ कहना मेरे लिये मुश्किल है, लेकिन जो मैकियावैली ने कहा था कि उसको मैं बताना चाहता हूं.
मैकियावैली कहता है कि जो अपने विचार में स्थिर नहीं रहते हैं. पैगंबर आता है. दुनिया को कुछ रास्ते बतलाता है. एक स्थिति के बाद जब लोग कमजोर पड़ने लगते हैं, उसके विचारों को लागू करने से कतराते हैं, तो अगर पैगंबर में शक्ति होती है, तो जबरदस्ती उनके ऊपर विचार थोप करके काम करवा लेता है. अगर वो कमजोर होता है, तो वह उसे लागू नहीं कर पाते हैं. इसलिए वो पैगंबर को हटा देते हैं. इसलिए उसने कहा कि दुनिया में जितनी सश पैगंबर हुये, वो तो सफल हुये, जो नि:श पैगंबर हुये. वो पराजित हुये. इसका एक और संदर्भ था. वो भी रूसी क्रांति के बैकग्राउंड में. रूसी क्रांति के बड़े नायक थे ट्रॉवोस्की. उनकी जीवनी तीन खंडों में है. जारी..

बुधवार, 22 मार्च 2017

आजादी के बाद पहली बार इस गांव में गये डीएम!

अमर शहीद जुब्बा सहनी के नाम पर राजनीतिक रोटियां दशकों से सेंकी जा रही हैं. कितने लोग शहीद का नाम लेकर बड़े नेता हो गये, लेकिन नाम लेने और हकीकत में क्या सच्चई है. ये शहीद के गांव जाने पर पता चलता है. शहीद जुब्बा सहनी का गांव मीनापुर प्रखंड मुख्यालय से सात किलोमीटर दूर चैनपुर टोले में हैं. इस टोले की हालत ऐसी है, जहां सिर्फ झोपड़ियां ही झोपड़ियां दिखेंगी. उनकी भी हालत ठीक नहीं. बिजली यहां लगभग पांच साल पहले आयी थी. उसकी निशानी मीटर, झोपड़ियों के बाहर लगे दिखते हैं. टोले में दो-तीन खंभे भी लगे हैं, लेकिन पूछते ही यहां के लोग असलियत बयान करने लगते हैं. कहते हैं कि हाल में खंभे लगे हैं. पहले बांस पर बिजली थी. खेतों में अभी बांस ही लगे हैं. उन्हीं के सहारे 11 हजार की लाइन दौड़ती है.
टोले को गांव का दरजा देने का एलान 15 साल पहले 2002 में हुआ था, लेकिन सरकारी फाइलों में ये एलान अभी दम तोड़ रहा है. यहां सरकारी योजनाओं की आंच नहीं पहुंचती हैं. यहां कुछ लोगों का राशन कार्ड बना है. वृद्धवस्था पेंशन मिलती है, लेकिन दोनों ही चीजें महीनों के इंतजार के बाद नसीब होती हैं. यहां के लोग कहते हैं कि राशन तो कभी पूरा मिला ही नहीं. कुछ न कुछ काट कर ही राशन दिया जाता है, जब ये लोग विरोध करते हैं, तो डीलर की ओर से धमकी दी जाती है. यहां के कुछ युवकों ने डीलर की धमकी भरी आवाज मोबाइल में रिकार्ड भी कर ली है. वह कहते हैं कि हम हक मांगते हैं, तो हमें इस तरह से डराया जाता है.
चैनपुर गांव के जुब्बा सहनी रहनेवाले थे. इसके अलावा इसी गांव के बांगुर सहनी भी स्वतंत्रता आंदोलन में शहीद हुये थे, लेकिन अब उनके घर की निशानी तक नहीं बची है. जुब्बा सहनी के परिवार में उनकी पतोहू मुनिया बची है, जिसकी तबियत हाल के दिनों में बहुत खराब थी. इसी की खबर जब प्रभात खबर ने प्रमुखता से छापी, तब प्रशासन की नींद टूटी. राज्य सरकार के निर्देश पर पहली बार डीएम मुजफ्फरपुर चैनपुर पहुंचे, तो उन्हें वहां पर कमियां ही कमियां नजर आयीं. डीएम ने जुब्बा सहनी के परिजनों को कई तरह की सरकारी सुविधाएं देने का एलान किया. इनमें मुनिया को उत्तराधिकार पेंशन देने की बात भी शामिल है.
इससे इतर अगर बात करें, तो इस टोले में जुब्बा सहनी की मूर्ति क्या. एक पोस्टर तक नहीं हैं. गांव के बुजुर्ग कहते हैं कि हम लोगों की लंबी उम्र बीत चुकी है, लेकिन हम लोगों ने कभी सुख नहीं देखा है. हमेशा परेशानी में ही रहे हैं. कोई सुधि लेने भी नहीं आता है. ये बताते हैं कि गांव में सरकारी योजनाओं का हाल खराब है. अभी तक किसी की उज्जवला योजना के तहत टोले में गैस का सिलेंडर नहीं मिला है. बिहार सरकार ने रेडियो देने की शुरुआत की थी. वो रोडियो भी नहीं नसीब हुआ है. तमाम तरह के बीमा की बात होती है, लेकिन यहां किसी का बीमा भी नहीं है. बुजुर्ग बताते हैं कि वह रैलियों में ही भाग लेने पटना गये हैं. इसके अलावा कभी प्रदेश की राजधानी तक नहीं पहुंचे हैं.
गांव में अभी भी इतनी गरीबी है कि बच्चे के बड़े होते ही उसे मजदूरी में लगा दिया जाता है, ताकि घर की रोटी चल सके. पढ़ने के लिए स्कूल नहीं है. पांच साल पहले जमीन भी सरकार को दी गयी, लेकिन स्कूल नहीं बन सका. सबसे नजदीक जो उर्दू स्कूल है, उसमें हिंदी के शिक्षक नहीं हैं. यहां का कोई बच्च पढ़ना चाहता है, तो उसे एक किलोमीटर दूर जाना पड़ता है. अगर किसी की तबियत खराब हो गयी, तो सात किलोमीटर चल कर मीनापुर जाना होगा. आसपास में किसी तरह की व्यवस्था नहीं है. गांव में जिस स्वास्थ्य कार्यकर्ता की बहाली है, वो कभी आता ही नहीं है. यहां के मुखिया बताते हैं कि हमने फोन किया, उसके बाद भी स्वास्थ्य कार्यकर्ता ने आना शुरू नहीं किया.
शहीद के टोले का हाल ये है कि यहां आजादी के सत्तर साल बाद पहला सरकारी चापाकल विधायक फंड से हाल में ही लगा है, वो भी तब जब प्रभात खबर में खबर छपी. उसके बाद आनन-फानन में चापाकल लगवाया गया. अब इसी का पानी पूरे मोहल्ले के लोग पीते हैं. जिला प्रशासन की ओर से कई तरह की घोषणाएं की गयी हैं, लेकिन अभी किसी पर काम शुरू नहीं हुआ है. सात निश्चय योजना के तहत मोहल्ले का विकास करने की बात हो रही है. राज्यसभा सांसद अनिल सहनी ने इसे गोद ले लिया है, लेकिन अभी तक यहां का दौरा तक नहीं किया है. विधायक का कहना है कि इस गांव को आदर्श गांव बनाया जाना चाहिये. इसकी मांग उन्होंने विधानसभा में की है, लेकिन सरकार की ओर से कुछ आश्वासन अभी तक नहीं दिया गया है.
हाल में 11 मार्च को जुब्बा सहनी का शहादत दिवस मनाया गया. राजधानी पटना में बड़ा समारोह हुआ, जिसमें मुख्यमंत्री नीतीश कुमार भी शामिल हुये थे. वहां मुख्यमंत्री ने कहा कि हम पटना में जुब्बा सहनी के नाम पर स्मारक बनायेंगे, लेकिन इस गांव के लोगों का कहना है कि पटना में स्मारक बनने से पहले सरकार को हमारी स्थिति को देख लेना चाहिये. गांव के मुखिया कहते हैं कि यही त्रसदी है. जमीन पर काम नहीं हो रहा है. यहां के लोग परेशान हैं.

शनिवार, 18 मार्च 2017

ऐसा रिस्पांस समाज के अंतिम व्यक्ति तक मिले, तब मानें सरकार!

मित्र विकास ठाकुर का सुबह फेसबुक पोस्ट पढ़ा. बड़ा सुकून देनेवाला लगा. उन्होंने लिखा था कि रात में दिल्ली से गरीबरथ एक्सप्रेस से चले. बच्चे के लिए दूध लेकर चले थे, लेकिन खराब हो गया. रेल मंत्रलय को ट्वीट किया और अगले स्टेशन तक दूध की व्यवस्था हो गयी. भूख से रो रहे बच्चे को सुकून मिला. इस मामले में लगा कि व्यवस्था काम कर रही है. इसके लिए सरकार और रेल मंत्रलय को बधाई भी देना चाहिये, लेकिन इसके साथ ही सवाल ये भी है कि अगर ऐसी ही व्यवस्था समाज के अंतिम व्यक्ति तक को मिले, तब समङिाये कि सरकार काम कर रही है.
पंचायत से लेकर बीडीओ, सीओ व तमाम अन्य सरकारी कार्यालयों तक जरूरतमंद चक्कर लगाते रहते हैं, लेकिन उनका काम नहीं होता है. योजनाओं के नाम पर तो अपने यहां झड़ी लगी है. हर चीज के लिए एक नहीं कई योजनाएं हैं, लेकिन उनका लाभ लेने की बारी आती है, तो किस तरह से दौड़ाया जाता है. मेरा व्यक्तिगत अनुभव है कि प्राकृतिक आपदा के समय सरकार फसल क्षति देती है. मैं मुजफ्फरपुर के कई प्रखंडों में घूमा हूं. किसानों से बात की है. ज्यादातर का यही कहना होता है कि हम लोग सरकारी मदद नहीं लेते हैं. इसके लिए कौन लगातार बीडीओ कार्यालय के चक्कर लगाये, जिनती बार दौड़ना पड़ता है. उतने अगर हम खेत पर मेहनत करेंगे, तो अगली फसल अच्छी हो जायेगी. जब भी कोई किसान अनुदान या नुकसान की भरपाई के लिए संबंधित कार्यालय जाता है, तो कभी बैठक की बात कह कर वापस कर दिया जाता है. कभी बताया जाता है कि साहब क्षेत्र के दौरे पर हैं और कभी कह दिया जाता है कि डीएम साहब की बैठक में भाग लेने के लिए जिला मुख्यालय गये हैं.
ऐसे जवाब सुन कर क्या कोई सही किसान बीडीओ ऑफिस के चक्कर लगाता रहेगा. जवाब शायद नहीं में होगा, क्योंकि किसान के पास इतना समय नहीं होता है कि वो खेती का काम छोड़ कर बीडीओ ऑफिस के चक्कर लगाता रहे. अभी अपने यहां धान खरीद का काम चल रहा है. पैक्सों को इसका जिम्मा दिया गया है, लेकिन हालत क्या है. मुजफ्फरपुर जिले की बात करें, तो दस फीसदी किसानों का भी रजिस्ट्रेशन नहीं हो पाया है. ये हाल तब है, जब धान खरीद का समय पूरा होने में मात्र 12 दिन बाकी बचे हैं. एसे में अंदाजा लगाया जा सकता है कि धान खरीद से किसको लाभ मिलेगा? मुङो लगता है कि उन किसानों को तो नहीं, जिन्होंने खून-पसीना बहा कर फसल तैयार की, क्योंकि फसल तैयार करने के दौरान इतना खर्च हो जाता है कि कटाई के बाद उन पर उपज को बेचने का दबाव रहता है, ताकि और काम कर सकें.
सवाल ये है कि यह स्थिति कब बदलेगी? क्या इसकी ओर कोई संवेदनशील होकर सोच रहा है? क्या वो अधिकारी जिन्हें जनता की सेवा के लिए सरकार भारी भरकम वेतन देती है. वो खुद को इसके लिए तैयार कर पाये हैं कि समाज के अंतिम व्यक्ति तक को जब कोई परेशानी होगी, तो वह उसकी मदद को आयेंगे. उसे समय पर मदद मिलेगी. अगर गंभीरता से हम लोग विचार करेंगे, तो शायद इसका भी उत्तर नहीं में ही मिलेगा.
ऐसे में हम तो यही कह सकते हैं कि यात्री सुविधाओं को लेकर जिस तरह से रेल मंत्रलय की ओर से हाल के दिनों में पहल की जा रही है, उससे उम्मीद की किरण जरूर दिखायी देती है. अगर तमाम महकमे चाहें, तो परेशानी सामने आने पर उसका समाधान कर सकते हैं. मुङो लगता है कि इससे अन्य विभागों को भी नसीहत लेने की जरूरत है, तब एक काम के लिए लोगों को बीडीओ, सीओ व अन्य सरकारी ऑफिसों में बार-बार चक्कर नहीं लगाना पड़ेगा.

शुक्रवार, 17 मार्च 2017

चुनाव जीत लिया, तो मुख्यमंत्री भी चुन लेंगे, आप क्यों परेशान हैं?

विरोध भी अजीब चीज है. दिल है कि मानता नहीं..की तर्ज पर बढ़े ही जाता है? उत्तर प्रदेश में चुनाव का नतीजा आया और भाजपा की अगुवाई वाले एनडीए ने बंपर जीत दर्ज की. इसके बाद मुख्यमंत्री पद को लेकर कयासों का दौर शुरू हो गया. राजनीति है, सब लोग कयास लगाते हैं. होना भी चाहिये, लेकिन कुछ ऐसे भी बुद्धिजीवी हैं, जो तरह-तरह के तर्को का सहारा ले दिन भर कुछ न कुछ गढ़ते रहते हैं. गोवा और मणिपुर का हवाला दे रहे हैं. वहां बना लिया, यहां क्यों नहीं बना पा रहे हैं. ऐसे राय दे रहे हैं, जैसे सरकार बनाने में इनकी राय ही मानी जायेगी. अगर भाई, आपकी राय के बिना चुनाव जीत लिया है, तो मुख्यमंत्री भी चुन लेंगे. इसमें आप क्यों परेशान हैं?
यह आप खुद के साथ भी करते होंगे, जो काम अर्जेट होता है. उसे जल्दी कर लिया जाता है. जिसमें आप खुद को सक्षम पाते हैं, उसे अपने हिसाब से करते हैं. ऐसा तरह-तरह की सलाह देनेवाले भी करते होंगे, लेकिन विरोध करते समय इसे भूल जाते हैं. ऐसे में सवाल उठता है कि क्या हमारा विरोध इतना सतही होना चाहिये? अगर विरोध ही करना है, तो ऐसे मुद्दों को लेकर हो, जिससे समाज का भला हो? शायद हम लोगों की ऐसी आदत अब नहीं रह गयी है.

बुधवार, 15 मार्च 2017

अब किसका दरवाजा खटखटाएं यजुआर के युवा?

परेशानी तो चार दशक पुरानी है, लेकिन मैं लगभग पांच साल से जान रहा हूं. पिछले एक साल से नजदीक से देख रहा हूं. यजुआर के युवा जिस तरह से अपने गांव बिजली लाने के लिए अभियान चलाये हुये हैं. कड़ी से कड़ी जोड़ कर इसे आगे बढ़ा रहे हैं. वह प्रेरणा देनावाला है, लेकिन व्यवस्था पर सवाल भी खड़े करता है.  इलाके से लेकर दिल्ली तक में गांव के युवा अपनी मांग को लेकर अधिकारियों से लेकर नेताओं तक से गुहार लगा चुके हैं. हर दरवाजे से उन्हें आश्वासन मिल रहा है, लेकिन काम आगे नहीं बढ़ रहा है. हाल में दिल्ली के जंतर-मंतर पर बिजली के लिए धरना-प्रदर्शन हुआ, तो उसमें नेताओं ने भी भागीदारी की. इसके बाद भी यजुआर में बिजली आने की किरण नहीं दिखायी पड़ रही है. ऐसे में सवाल उठता है कि अब किसका दरवाजा खटखटाएं यजुआर के युवा?
2020 तक सब गांवों को बिजली देने का दावा करनेवाली सरकारें यह बताने को तैयार नहीं हैं, जिस गांव में सत्तर के दशक में बिजली के तार खिच चुके हैं. उस गांव में 2017 में भी बिजली क्यों नहीं जल रही है? अगर नहीं जल रही है, तो इसके पीछे कारण क्या हैं और इसके लिए जिम्मेवार कौन है? उनके खिलाफ किस तरह की कार्रवाई की गयी है. अगर सरकार गांववालों को दोषी मानती है, तो उसके बारे में भी बताना चाहिये, ताकि उसके आगे का काम हो सके, लेकिन अब सिर्फ आश्वासन से काम नहीं चलेगा. सिंगल विंडो सिस्टम के जमाने में अगर सरकारी मशीनरी इस तरह का व्यवहार करेगी, तो उसकी महत्ता क्या रह जायेगी? क्या लोगों का विश्वास उसके ऊपर से नहीं उठेगा?
यजुआर के बिजली संघर्ष के बारे में पहली बार विकास ठाकुर ने बताया, जो दिल्ली में रहते हैं, लेकिन गांव में बिजली नहीं होने की कसक उन्हें सालती है. वह लगातार  इस दिशा में काम कर रहे हैं, ताकि जल्दी से जल्दी उनके गांव में भी खिंचे बिजली के तारों से करंट दौड़े. हाल में दिल्ली से मुजफ्फरपुर आये, तो मिलना हुआ. कहने लगे कि बिना गांव को साथ लिये हमारा आंदोलन सफल नहीं होगा. इसी वजह से गांव आया हूं. दिल्ली के जंतर-मंतर पर प्रदर्शन करना है. गांव के लोगों से बात करूंगा, तो उससे हमें आंदोलन को सही दिशा में ले जाने की प्रेरणा मिलेगी.
सोशल मीडिया से लेकर विभिन्न माध्यमों से यजुआर की बिजली की आवाज सामने आयी है, लेकिन जिन लोगों को इसे सुनना है, वह चुप्पी साधे हुये हैं. स्थानीय विधायक भी ग्रामीणों की भाषा बोलते हैं. कहते हैं कि हमने विधानसभा में मामला उठाया है, लेकिन इसके आगे क्या हो रहा है. इसकी जानकारी नहीं दे पाते हैं. विकास ठाकुर जैसे यजुआर के दर्जनों युवा हैं, जो अलग-अलग महानगरों में नौकरी करते हैं, लेकिन सबकी चिंता एक है कि गांव में बिजली कैसे आये. अभियान में शामिल युवाओं में से ज्यादातर उम्र भी उतनी नहीं है, जितने समय से यजुआर के साथ ज्यादती हो रही है. सिके बावजूद इन युवाओं में विश्वास दिखता है कि हमारे गांव में बिजली आयेगी. अन्य गांवों की तरह यजुआर की गलियां भी दूधिया लाइट से रोशन होंगी. बंद पड़ी पानी की टंकी चलेगी और घरों को टैब वाटर मिलेगा, लेकिन कब तक? इसी पर आकर सारी बात रुक जा रही है.
केंद्रीय ऊर्जा मंत्री का पत्र इनके पास है, जो उन्होंने राज्य सरकार को लिखा था, लेकिन राज्य सरकार की ओर से पहल नहीं हुई. कुछ माह पहले मुख्यमंत्री नीतीश कुमार दिल्ली गये थे, तो वहां वरिष्ठ पत्रकार मनीष ठाकुर ने उनका ध्यान इसकी ओर खीचा था. उस समय युवाओं को लगा था कि मुख्यमंत्री की ओर से इसकी घोषणा की जायेगी, लेकिन ऐसा नहीं हुआ. मुख्यमंत्री ने गांव के युवाओं को मिलने के लिए बुलाया, लेकिन अभी तक बात नहीं बनी. अगर यजुआर की बात करें, तो यह सूबे के सबसे बड़े गांव के रूप में शुमार होता है, लेकिन यहां बिजली का नहीं होना पूरी कहानी कहता है.
गांव के लोग अतीत पर गर्व करते हैं, जब तत्कालीन केंद्रीय मंत्री  ललित नारायण मिश्र के प्रभाव से यहां बिजली के खंभे गड़े थे. ट्रांसफार्मर लगा था. गांव में टंकी बनी थी. सड़कों का निर्माण हुआ था. एपीएचसी खुल गया था. यह गांव आदर्श गांवों में शुमार हो गया था. गांव में बिजली का खंभा, पोल, तार व ट्रांसफार्मर लगने के बाद भी बिजली केवल टेस्टिंग के लिए आयी. उसके बाद से आज तक बिजली के दर्शन नहीं हुये. बिजली नहीं है, तो टंकी से पानी कैसे मिलेगा, लेकिन टंकी पर सरकारी कर्मचारी की नियुक्ति जरूर है, जो केवल टंकी की रखवाली का काम कर रहा है.
एपीएचसी बंद हो गयी, जिसके बाद से यहां के ग्रामीण फिर से झोलाछाप डॉक्टरों के हवाले हो गये हैं. गांव की आबादी लगभग 40 हजार के आसपास है. इसके बाद भी ये दुर्दशा है. यहां के ग्रामीण बताते हैं कि सात साल पहले अधिकारियों की बड़ी टीम गांव आयी थी, उस समय लगा था कि दिन बहुरनेवाले हैं. 40 बिंदुओं से ज्यादा की रिपोर्ट बनी थी, लेकिन काम किसी पर नहीं हुआ. रिपोर्ट कहीं सरकारी फाइलों की शोभा बढ़ा रही होगी. गांव के लोगों की बेहतरी की खुशी कुछ दिनों में काफूर हो गयी और वह फिर से खुद को ठगा महसूस करने लगे, जो स्थिति अभी तक जारी है. यहां सवाल फिर से वही है, सरकार ने तमाम योजनाएं बनायी हैं, लेकिन कोई योजना यजुआर जैसे गांव पर क्यों नहीं लागू होती, जिससे यहां पर बिजली आ जाये?

क्या हम इनसे प्रेरणा नहीं ले सकते!

बहुत पुराना प्रसंग नहीं है. 2014 की बात है, तब भी अमर शहीद जुब्बा सहनी के परिजनों का मामला सामने आया था. परिवार के इकलौते कमाऊ सदस्य मुनिया के बेटे ने आत्महत्या कर ली थी. वो घर बनाने का काम करता था, लेकिन उससे इतने पैसे नहीं मिलते थे कि परिवार की दो जून की रोटी के साथ बच्चों को पढ़ाये और उनकी जरूरतें पूरी कर सके. देखा बच्ची बड़ी हो रही है, लेकिन उसकी ऐसी सामथ्र्य नहीं थी कि वो उसके हाथ पीले कर सकता. बताते हैं कि लोकलाज के डर से उसने फांसी लगा ली.
बात मुनिया की पोती की शादी की आयी, तब भी प्रभात खबर में खबर छपी. समाज के लोग आगे आये. मदद की और मुनिया की पोती की शादी हुई. ये खबर आयी, तो मुङो भी लगा कि शहीद के परिजनों की मदद होनी चाहिये. खबर छपने के अगले दिन शहर में व्यवसाय करनेवाले कुछ युवा मेरे पास आये कहने लगे कि हम परिवार की मदद करना चाहते हैं. हम कुछ कपड़े और पैसे उन्हें देना चाहते हैं. साथ ही वो लोग जो कहेंगे, हम मदद करेंगे. हमने जानकारी लेने के बाद उन लोगों का फोन नंबर उन्हें उपलब्ध करा दिया, जो शादी की तैयारियां देख रहे थे. मुजफ्फरपुर से युवाओं ने उस नंबर पर संपर्क साधा, तो उन लोगों ने कहा कि शादी के लिए जितनी मदद की जरूरत थी. वो मिल गयी है. अब और मदद नहीं चाहिये. आप लोग मदद देना चाहते हैं. इसके लिए धन्यवाद!
क्या हम आप ये सोच सकते हैं. इतनी सरलता. जिस परिवार में दो जून खाने के लिए रोटी नहीं है. वो ऐसा कर सकता है. क्या उन्हें अच्छे कपड़े पहनने की चाह नहीं लगती होगी? लेकिन उन्होंने कितनी सरलता से ना कर दिया. इसके बारे में हमें हाल में तब पता चला, जब मुनिया की तबियत बिगड़ी और फिर उसकी खबर को हम लोगों ने छापा, तो फिर उन युवाओं में से एक ने संपर्क किया और कहा कि हम मदद करना चाहते हैं. हमने पूछा, आप लोगों ने पिछले बार भी मदद की थी, तो वो कहने लगा कि उन्होंने मदद ली कहां थी. उन्होंने तो इनकार कर दिया था.

मंगलवार, 14 मार्च 2017

Gali-Gali: इलाहाबाद और दो साथियों का अंग्रेजी ज्ञान

Gali-Gali: इलाहाबाद और दो साथियों का अंग्रेजी ज्ञान: इलाहाबाद यूनिवर्सिटी को पूर्व का ऑक्सफोर्ड कहा जाता है. अब तो सैकड़ों की संख्या में निजी विश्वविद्यालय और तमाम तरह के तकनीकी संस्थान खुल गय...

हमारे-आपके बीच हैं देवता समान लोग

बाबू बृजपाल सिंह का चेहरा ठीक से याद नहीं, बचपन के वो दिन थे, लेकिन हमारे गांव के सबसे प्रतिष्ठित व्यक्ति. रिटायरमेंट के बाद गांव में रहते थे. वैसे तो उन्होंने गांव में तीन पक्के मकान उस जमाने में बनवाये थे, लेकिन खुद एक मड़ही (छप्पर के नीचे) में रहते थे. दादी और घर के बुजुर्ग आपस में बात करते थे कि सुबह तीन घंटे पूजा करते हैं. हमेशा राम-नाम लेते हैं. उन्हीं लोगों से मैं ये बाते सुनता. बाबू साहब का घर ज्यादा दूर नहीं था, सो कभी-कभी खेलते-खेलते उनके दरवाजे तक भी चला जाता था. गांव के लोगों में उनका बड़ा सम्मान था. सब इज्जत देते थे, लेकिन बाबू साहब अपनी मड़ही से ज्यादा बाहर नहीं निकलते थे. कभी बहुत जरूरी होता था, तब ही बाहर जाते थे, जो लोग जाते, उनसे आत्मीयता और सरलता से बात करते.
गांव के लोग बताते कि वो बिना पढ़े हुये चीनी मिल की मशीनों के इंजीनियर थे. चंपारण से लेकर देहरादून तक चीनी मिल की मशीनों को बनाने के लिए जाते थे. गांव-जवार में जब कोई लड़का बड़ा होता, तो उसकी नौकरी के लिए अभिभावक बाबू साहब के पास जाते थे. बाबू साहब भी लोगों को निराश नहीं करते थे. यथा शक्ति, इलाके के दर्जनों लोगों को विभिन्न चीनी मिलों में काम पर लगवा दिया. ऐसे लोग हमारे बड़े होने तक काम कर रहे थे. अब वो लोग भी बूढ़े हो चले हैं. कई परिवार तो देहरादून में ही बस गये. पीढ़ियाँ बदलीं, लेकिन चीनी मिल में काम करने का सिलसिला अभी तक चल रहा है. इसे हम बाबू साहब का प्रताप ही कह सकते हैं.
वो फागुन का महीना ही था, लगभग 35 साल पहले. होली का त्योहार आनेवाला था. गांव में चर्चा हुई कि बाबू साहब की तबियत अब ज्यादा खराब है. उन्होंने बिस्तर पकड़ लिया था. बहुत कम बोल पाते थे. लोगों को देखते और इशारों में ही बात करते थे. बताते हैं कि होली के एक दिन पहले उनकी तबियत कुछ ठीक हुई, तो घर के लोगों को उम्मीद बंधी. होली का दिन अच्छे से बीता, लेकिन अगली सुबह उन्होंने अपने बेटे को बुलाया और कहा कि हमको कल ही जाना था, लेकिन हमने मना कर दिया कि हमारे बच्चों को त्योहार खराब हो जायेगा. इसलिए हम आज चले जायेंगे. ये सुनने के बाद उनके बेटे ने कहा कि कैसी बातें कर रहे हैं बाबू जी. हम लोग हैं, आप हमको छोड़ कर ऐसे नहीं जा सकते हैं, लेकिन बाबू साहब उस दिन उठे. नित्य क्रिया की. पूजा शुरू की और बिस्तर पर लेटे-लेटे ही राम-नाम लेने लगे. दिन का खाना खाया और उसके बाद सदा के लिए इस दुनिया से चले गये. बाबू साहब के अंतिम समय की चर्चा सालों गांव में होती रही. कैसे तपस्वी व्यक्ति थे वो. कैसे उन्होंने भगवान से साक्षात्कार किया होगा. कैसे उन्होंने अपनी मौत को एक दिन अपने तप के बल पर टाल दिया? ये बात, भले ही सुनने में असंभव जैसी लगती हो, लेकिन सत्य है. ऐसे थे, हमारे गांव के बाबू जी.
बाबू जी का प्रसंग इस वजह से याद आया कि हाल में अभिभावक तुल्य रामवृक्ष बेनीपुरी जी का अचानक निधन हुआ, तो तगड़ा सदमा लगा. उन्होंने अपने पिता व कलम के जादूगर रामवृक्ष बेनीपुरी जी की स्मृतियों को जिस तरह से संजोने का काम किया, वो कोई श्रवण कुमार ही कर सकता है, जिसमें देवतत्व हो. तीन-चार दिन पहले उनके भांजे महंत राजीव रंजन दास जी से बात होने लगी, तो वह बताने लगे कि जिस दिन बेनीपुरी जी का निधन हुआ, उससे एक दिन पहले उन्होंने अपने बेटे को बुला कर कैसे कहा कि तुम लोगों ने मेरी बहुत सेवा की, लेकिन अब मेरे जाने का समय आ गया है. उसके बाद वो 24 घंटे जीवित नहीं रहे. महंत राजीव रंजन दास इससे पहले 23 दिसंबर 2016 का प्रसंग भी बताते हैं, रामवृक्ष बेनीपुरी जी की जयंती थी. हम सब लोग जयंती समारोह में शामिल होने के लिए बेनीपुर गांव गये हुये थे. महेंद्र जी भी वहां थे, लेकिन महंत जी बांध पर पूर्व केंद्रीय मंत्री रघुवंश प्रसाद सिंह का इंतजार कर रहे थे. उनके आने में थोड़ा बिलंब हो रहा था, सो हम लोगों की वहां मुलाकात नहीं हो सकी थी, लेकिन जब रघुवंश बाबू बांध पर पहुंचे, तो बागमती पार करके महंथ जी उनके साथ बेनीपुर गांव पहुंचे थे. कहने लगे कि वहां बात हो रही थी. इसी बीच महेंद्र जी कहने लगे कि ये आखिरी बार हम बाबू जी (बेनीपुरी जी ) की जयंती में शामिल होने आये हैं. अगले साल हम नहीं होंगे.
महंत जी बताते हैं कि महेंद्र जी जो बात कह रहे थे वो इतनी जल्दी सत्य हो जायेगी, इसके बारे में हमने कभी सोचा नहीं था, लेकिन उन्हें इसका आभास रहा होगा. ये सुनने के बाद लगा कि हम लोग चाहे, जो सोंचे या कहें, लेकिन समाज में हम लोगों के बीच ऐसे लोग हैं, जो ऋषितुल्य हैं. सामाज में रहते हुये अपनी सरलता सो छाप छोड़ते रहते हैं. हम खुद को सौभाग्यशाली समझते हैं कि हमें ऐसे लोगों से मिलने और उन्हें देखने-सुनने का मौका मिला.

नहीं सुनायी देती..बाबा हरिहरनाथ, सोनपुर में रंग लूटे..की गूंज


पेशे से शिक्षक रहे ब्रह्मानंद ठाकुर जी सामाजिक कार्यकर्ता भी हैं, जो हर मुद्दे पर बेबाकी से अपनी राय रखते हैं. रिटायरमेंट के बाद गांव में रह कर समाजसेवा और पत्रकारिता को समर्पित हैं. अपने बचपन की होली की यादें, उन्होंने प्रभात खबर के साथ शेयर कीं. 

ऐन होली के मौके पर भी गांवों में उदासी छायी है. कहीं कोई चहल-पहल नहीं. एक सन्नाटा- सा पसरा हुआ है आसपास में. सोचता हूं, हमारे त्योहार पर कहीं ग्लोबलाइजेशन का असर तो नहीं. आखिरकार कहां गुम हो गयी होली की उमंग. कैसे फीके हुये इसके रंग! ये सब सोचते हुये लौट जाता हूं अतीत में. हां, अतीत में लौटना, थोड़ी देर के लिए सुकून तो देता ही है. यह जानते हुये भी कि बीता लौटकर वापस नहीं आता है. हमारी जैसी उमर के लोग अतीतजीवी हो ही जाते हैं और अकसमात मुंह से निकल पड़ता है..कितने अच्छे थे वो दिन. तो बात उन दिनों की है, जब हम 10-12 साल के थे. मतलब अभी से 50 साल पहले, तब होली की धमक वसंत पंचमी के साथ ही सुनायी देने लगती थी. डंप पर नया चाम मढ़ा लिया जाता था. बक्से में बंद झाल बाहर निकाल ली जाती और रात में होली गाने का सिलसिला हमारे गांव में शुरू हो जाता था. कमोबेश हर गांव में ऐसा होता था. इसकी पूर्णाहुति होली के दिन चैत प्रतिपदा की रात गांव की सीमा पर बूढ़ी गंडक के किनारे स्थापित महादेव मंदिर पर..बम-बम भोले हो लाल, कहवां रंगोले पगड़िया. बाबा हरिहरनाथ सोनपुर में रंग लूटे..जैसे होली गीतों के साथ होती थी.
उस समय हमारे गांव के ज्यादातर बुजुर्गो की होली के गीत और जोगीरा पर अद्भुत पकड़ होती थी. उनके पास गीतों, कथाओं का खजाना हुआ करता था. उन्हीं से चलकर ये परंपरा, तब की नयी पीढ़ी तक पहुंची, जो आज बुजुर्ग होकर हासिये पर आ गयी है. अब वो न पहले वाले लोग बचे और न उनकी परंपरा रही. वंसत पंचमी से ही होली गाने की परंपरा के पीछे, जैसा कि तब लोग कहते थे कि चूंकि साल भर बाद ये त्योहार आता है, इसलिए जिंदगी की जद्दोजहद में अधिकांश गीत लोग भूल चुके होते हैं. इसलिए ये समय उनके अभ्यास का समय माना जाता था. रात में होली गानेवाली मंडली का जुटान किसी एक के दरवाजे पर होता था. गांव के लोग उसमें जुटते. 10-11 बजे रात तक होली गायी जाती, उसी समय यह निर्णय भी हो जाता था कि कल किसके दरवाजे पर जुटान होना है. एक महीने तक चलनेवाले इस कार्यक्रम में बड़े उत्साह से लोग भाग लेते थे. असली मजा हम लोगों को संवत (होलिका दहन के दिन) और उसके कल होकर होली के दिन आता था, तब आज की तरह गांव में खाना बनाने के लिए एलपीजी नहीं थी. इसलिए जलावन की कमी नहीं थी. लोग सालभर के लिए जलावन का जुगाड़ रखते थे. खेती भी वैसी ही थी और बाग बगीचे भी, जहां से पर्याप्त जलावन मिल जाता था. होलिका दहन के लिए जलावन जुटाने की जिम्मेवारी लकड़ो की टोली की हुआ करती थी.
हमारा गांव उस समय लगभग 70 घरों का था. दो-चार घरों से कुछ लड़के निकलते. किसी एक दरवाजे पर संवत के लिए जलावन मांगते, तो उस घर का एक लड़का भी साथ हो लेता था. इसी तरह लड़कों की टोली आगे बढ़ती रहती और इस अभियान में 30-40 लड़के जमा हो जाते थे. सभी एक साथ घूमते हुये जलावन एकत्र करते. उसका जगह-जगह ढेर लगाते जाते. जमा करने का काम जब पूरा हो जाता, तब उसे ढो कर तय स्थान पर पहुंचा दिया जाता था. लड़क थे, सो बैलगाड़ी हांकने, तो आता नहीं था. किसी दरवाजे से बैलगाड़ी (बिना बैल) मांग लेते. कविवर हरिवंश राय बच्च की कविता..युग का जुआ..की तर्ज पर दो मजबूत कद-काठी वाले बच्चे बैलगाड़ी का जुआ कंधे पर रख कर खीचते हुये आगे बढ़ते जाते और इस तरह जलावन को निर्धारित जगह पर पहुंचा दिया जाता.
हम लड़कों में अनुशासन इतना था कि जलावन मांगने में कहीं भी और कभी भी जोर-जबरदस्ती नहीं की जाती थी. सभी गांव वाले चाचा-बाबा होते थे. गांव से इकट्ठा जलावन का ढेर इतना हो जाता था कि उसे सिर उठा कर देखना पड़ता था. होलिका दहन का समय अक्सर देर रात में पड़ता था. हम में से ज्यादातर बच्चे सोये रहते थे, जिसकी वजह से जलावन की ढेर को इकट्ठा करने के बाद भी हम उसे जलते हुये नहीं देख पाते थे. तब यह मान्यता थी जिसके मां-पिता दोनों की मौत हो चुकी हो, वही संवत को जलायेगा. सो हमारे गांव के बिंदा चाचा, पूरे जीवन संवत जलाते रहे. लोग अपने घरों से पतली कमाची में पांच बड़ी को गूथ कर ले जाते थे और उसको जलती हुयी संवत में डालते थे. आज तक नहीं जान सका कि ऐसा करने का क्या कारण रहा होगा. संवत जलते ही डंप-झाल पर होली गाने का सिलसिला शुरू हो जाता था. इस तरह होली गीत से आधी रात की निस्तब्धता भंग होती थी, लेकिन लगता बड़ा सुखद था.
होली का दिन बड़ा उत्साह लेकर आता था. दिन चढ़ते ही कादो-माटी खेलने के लिए होड़ लग जाती थी, जो देखते ही बनता था. कीचड़ से तब-बतर लड़कों को पहचानना मुश्किल होता था. उस माहौल में अनुशासन न जाने कहां गायब हो जाता. उसका पता ही नहीं चलता, जो भी मिल जाये, उसका स्वागत कीचड़ से होता. कीचड़ न मिले, तो सड़कों की धूल ही सही. उनकी को इस दिन सामत ही आ जाती, जो उस दिन ससुराल में होते. बड़े प्रेम से उन्हें पकड़ कर गोबर-माटी से नहलाया जाता था और गांव के लोग खूब मजा लेते थे. मुङो याद नहीं इस मौके पर कभी किसी से कोई झगड़ा हुआ हो. कैसा प्रेम, भाईचारा और सौहाद्र्र था तब!
दोपहर बाद अचानक ये खेल स्वेच्छा से बंद हो जाता था. दोपहर के बाद नहाने के लिए हम लोग बूढ़ी गंडक की ओर रुख करते थे. स्नान के बाद होली गायन और रंग गुलाल लगाने का सिलसिला फिर से शुरू होता था. गांव भर बड़े बुजुर्ग होली गाने के मास्टर होते थे. उनमें से अब एक-दो लोग ही जीवित हैं. उन पुराने दिनों की याद अपने जेहन में संजोये. गांव में होली गाने की शुरुआत महावीर स्थान से होती थी. इसके बाद बारी-बारी से सभी के दरवाजे पर जाते थे. होली गाने की शुरुआत किसी गीत से हो, लेकिन अंत मंगलकारी गीत से होता था. ये क्रम देर रात तक चलता था और रात में शिवमंदिर पर जाकर पूरा होता था.

68 फीसदी जनता खिलाफ थी, तब आप क्यों नहीं बोले?

उत्तर प्रदेश के अप्रत्याशित नतीजों ने उन राजनीतिक पंडितों को सोचने पर मजबूर कर दिया है, जो कह रहे थे कि त्रिशंकु विधानसभा होगी. जोड़तोड़ का दौर चलेगा. भाजपा को सत्ता से बाहर रखने के लिए सपा-बसपा और कांग्रेस साथ आ जायेंगे, लेकिन चुनाव परिणाम ऐसे आये कि उनके इन दावों की हवा निकल गयी. चुनाव परिणाम के दिन ऐसे लोग दिन भर ये सोचने में व्यस्त रहे कि अब क्या करें और क्या कहें?
शाम तक जब आकड़ों की तस्वीर साफ हुई, तो पता चला कि भाजपा को 41 फीसदी वोट मिले हैं, तो कहने लगे कि ये पूरा जनादेश नहीं है. भले ही सीटें मिल गयी हैं, लेकिन भाजपा को ये नहीं भूलना चाहिये कि उसके खिलाफ 59 फीसदी लोगों ने वोट दिया है, जो अपने आप में वोटों का बहुमत है. ऐसा सवाल करनेवालों ने इससे पहले ये कभी नहीं कहा कि अखिलेश यादव 31-32 फीसदी लोगों का वोट प्राप्त करके ही पांच साल तक सत्ता में रहे, तब यह सवाल उठानेवाले कहां थे, इनका पता नहीं था. अब जब कुछ नहीं मिला, तो प्रतिशत का खेल खेलने लगे.
चूंकि ऐसे लोगों का एक अलग वर्ग होता है. वह विरोध करेंगे ही, चाहे जो भी हो, लेकिन विरोध करने से पहले यह भी सोचना चाहिये कि हम जो कह रहे हैं. वो तो उन लोगों पर भी लागू होता है. विरोध के नाम पर हम जिनका साथ देने को तैयार दिखते हैं. लोकतंत्र में संख्या बल की प्रमुख रही है. संख्या के बल पर ही सरकारें बनती और बिगड़ती रही हैं. अपने देश में लोकतंत्र की लगभग सात दशकों की यात्र के दौरान ऐसे बहुत से मौके आये हैं, जब कुछ वोटों से ही फैसला हुआ है. ऐसे में किस बात को सही माना जाना चाहिये. ये तय कर लेना चाहिये? क्योंकि वोट चाहे जिनते भी मिलें, लेकिन जिसको सीटों में बहुमत मिलेगा, सरकार तो उसी की बनेगी. यह क्या सत्य नहीं है?
अगर मैं ऐसा लिख रहा हूं, तो ये मत समझ लीजियेगा कि मैं किसी पार्टी का समर्थक हूं. मैं किसी पार्टी का समर्थक नहीं हूं. मैं केवल लोकतंत्र की उस तासीर का समर्थक खुद को मानता हूं, जिसमें संख्या बल को सवरेपरि माना गया है. हां, अगर ये सिस्टम खराब है और इसकी जगह पर कुछ और अच्छा हो सकता है, तो हमें उसी को अपनाना चाहिये. क्योंकि अगर हम उत्तर प्रदेश से सटे हुये बिहार राज्य के चुनाव परिणामों की बात करें, तो यहां गठबंधन के सहारे बहुमत मिला, तीन पार्टियां जुट गयीं, तब 43 फीसदी वोट आया. यानी यहां के भी 57 फीसदी लोगों ने सरकार के खिलाफ मत दिया था, जैसा कि विरोध के लिए कहा जा रहा है, लेकिन मैं इस मत का समर्थक नहीं हूं. यहां सरकार को अच्छा बहुमत मिला है. वह राज्य कर रही है, लेकिन इन आलोचकों ने इस सरकार पर कभी सवाल नहीं उठाये? आखिर ये कैसा विश्लेषण है, इस पर भी गौर करना चाहिये. केवल विरोध के लिए विरोध अच्छा नहीं होता है, मेरा सिर्फ यही कहना है.

सोमवार, 13 मार्च 2017

बड़ी मुश्किल है यार?

बड़ी कंपनी में काम करनेवाले राजेश का हाल बेहाल है. होली में तीन दिन की छुट्टी हो जाती, लेकिन संडे की वजह से एक दिन की छुट्टी मारी गयी. वैसे राजेश संडे को छुट्टी पर रहते हुये भी कंपनी के कामों पर ध्यान रखते हैं. एक्सपोर्ट और इम्पोर्ट का काम होने की वजह से सामान कब आयेगा और कब जायेगा. इसकी पूरी चिंता करने पड़ती है. इसकी वजह से कोई समय नहीं राजेश की ड्युटी का. सामान्य ड्यूटी के समय तो ऑफिस में रहना ही पड़ता है, क्योंकि पता नहीं कब बड़े सर तलब कर लें वीडियो कांफ्रेंसिंग पर. साथ ही अगर समय पर ऑफिस नहीं जायें, तो नीचे के कर्मचारी काम में लापरवाही कर देते हैं. बॉस राजेश ऑफिस में रहते हैं, तो काम अच्छा होता है, अगर किसी दिन नहीं आये, तो क्या-क्या सुनने को मिलता है कि फलां ने काम नहीं किया. फलां ऑफिस से खुद को काम के लिए निकल गया.
ऐसे में राजेश के सामने परेशानी ये है कि वो डॉक्टर की सलाह माने या फिर अपनी मंजिल को पाने के लिए रात-दिन की नींद और चैन त्यागे. क्योंकि डॉक्टर कहते हैं कि अगर रात में ज्यादा जगे, तो परेशानी होगी. नींद पूरी लेना जरूरी है. पूरी नींद लेते हैं, तो सुबह नौ से दस बज जाते हैं, तब तक ऑफिस जाने का समय हो जाता है. ऐसे में रोज की एक्सरसाइज छूट जाती है. एक्सरसाइज छूटी, तो पेट निकलने का खतरा और एक्सरसाइज करता है, तो ऑफिस समय से नहीं पहुंच पायेगा. इसी कसमकश में पिछले छह माह से राजेश की एक्सरसाइज छूट रही है, जिसका असर उसके शरीर पर दिखने लगा है, जो देखता है. कहता है, पहले से आप मोटे हो गये हैं. ये सुनते ही राजेश की परेशानी और बढ़ जाती है.
नोटबंदी के बाद कंपनी के परफारमेंस को लेकर चिंता अलग से, नगदी की परेशानी अब धीरे-धीरे दूर हो रही है, लेकिन पहले तो जुगाड़ और चिंता में ही दिन गुजरता था. किस देश से सामान आना है और कहां जाना है. इसकी ट्रैकिंग और मॉनिटरिंग दोनों की चिंता राजेश के जिम्मे ही है. ऐसे में वो घर के सदस्यों को कम समय दे पाता है. माता-पिता को लगता है कि बेटा बड़ा अधिकारी हो गया है, लेकिन उनसे बात तक नहीं कर पाता. इसी के बारे में सबसे बात करके माता-पिता तो संतोष कर लेते हैं, लेकिन पत्नी और बच्चों को लगता है कि पापा उन्हें समय नहीं दे पाते हैं. पत्नी को लगता है कि ड्यूटी के बाद समय पर घर नहीं आना, राजेश का बहाना है. वो कहीं किसी और समय देते हैं. इसको लेकर अलग से टशन चलती रहती है. राजेश की पत्नी ने शादी के साल ही परिवार के साथ वैष्णों देवी जाने की मन्नत मांगी थी, लेकिन 14 साल बीत गये, नहीं जा सके. जब भी प्लान बनाते हैं, तो कोई न कोई अर्जेट काम आ जाता है. मां के धाम की यात्र कैंसिंल हो जाती है, तब परिवार में यही होता है कि मां का बुलावा नहीं आया है, इस वजह से यात्र रोकनी पड़ी.
पहले राजेश बच्चों के पैरेंट्स-टीचर मीटिंग में चले जाते थे, लेकिन पिछले तीन साल से उसमें भी नहीं जा सके हैं. हाल में ही बच्चे के स्कूल के प्रिंसपल ने बुलाया था. बताया था कि बेटा कैसे पढ़ने से बच रहा है. बहाना करता है. स्कूल भी कम आता है. घर पर ध्यान देने की ताकीद कर रहे थे. कह रहे थे कि जब तक आप ध्यान नहीं देंगे. बेटा पढ़ेगा नहीं, चाहे कितने भी ट्यूशन लगवा दीजिये. प्रिंसपल के सामने बेटे को भला-बुरा कहके राजेश घर वापस आया, तो पत्नी पर गुस्सा दिखाने लगा, लेकिन पत्नी ने टका सा उत्तर दिया. हम क्या कर सकते हैं, आपका बेटा बड़ा हो गया है. अब मेरा कहना नहीं मानता है. आपसे तो बार-बार कह रहे हैं, ध्यान दीजिये, लेकिन आपको ऑफिस के काम से फुर्सत मिलेगी, तब ना आप किसी पर ध्यान दीजियेगा. आप तो केवल घर सोने के लिए आते हैं, क्या संडे, क्या मंडे. हर दिन काम. जारी..

शुक्रवार, 10 मार्च 2017

वोटरों का मापने का पैमाना एक्जिट पोल हैं क्या?

पिछले लगभग दो दशक से एक्जिट पोल का खेल चल रहा है. शुरू में जब ये कांसेप्ट आया था, तो कुछ स्थिति ठीक थी, लेकिन जब चैनलों की भरमार हुई और तरह-तरह के एक्जिट पोल शुरू हुये. इनको लेकर स्टिंग ऑपरेशन का दौर भी शुरू हुआ. कई चेहरे किस तरह से बेनकाब हुये, तब से एक्जिट पोल को लेकर भरोसा उठ सा गया है. भरोसा उठने के लिए केवल आकड़ों का घालमेल करनेवालों के चेहरे नहीं हैं, बल्कि स्थिति ये भी है कि मान लिया जाये, जहां घालमेल नहीं होता, वहां के नतीजे क्या सही निकलते हैं. पिछले चार-पांच चुनाव का देखें, तो एक-दो जगह ही ऐसा मिलता है, जहां एक्टिज पोल के नतीजे कुछ सही देखने को मिले हैं, बाकि में स्थिति तीन-तेरह वाली ही रही है.
ऐसे में एक्जिट पोल को चाव लेकर देखने और पढ़ने का मन अब नहीं होता है. हां, एक उत्सुकता जरूर रहती है कि चैनल वाले टीआरपी के लिए किस तरफ का रुख कर रहे हैं. सबके नतीजे लगभग साथ ही घोषित होते हैं, ज्यादातर की सीटें आसपास रहती हैं, जबकि कुछ में बड़ा अंतर रहता है. अब इसे क्या कहेंगे, बिहार का चुनाव हुये ज्यादा दिन नहीं हुये. हम लोग ग्राउंड जीरो पर स्थिति देख रहे थे. रंगे-पुते चैनलवाले और वालियां नेताओं के साथ आ रहे थे और यहां से ग्राउंड रिपोर्ट बता रहे थे. वह भी उन लोगों के फीडबैक से जिनका जमीन से कोई सरोकार नहीं? ऐसे में एक्जिट पोल क्या सही होंगे.
हवा-हवाई, तो हवा-हवाई ही रहेंगे. एक्जिट पोल में क्या-क्या नतीजे घोषित किये गये थे बिहार को लेकर और हुआ क्या? एक्जिट पोल के आधार पर सरकार भी बनवाने का काम शुरू हो गया था. कौन-किसके साथ जायेगा, तो सरकार बनने का आकड़ा पूरा हो जायेगा. यही अब सबसे ज्यादा मायने रखनेवाले प्रदेश उत्तर प्रदेश को लेकर किया जा रहा है. चैनलवालों ने अपने हिसाब से सीटों का पिटारा खोल दिया है. अब एक्जिट पोल का नाम भी बदल रहा है. अभी तक कवरेज को लेकर ही महा जैसे शब्दों का इस्तेमाल हो रहा था. अब एक्जिट पोल को लेकर भी इस तरह की बात हो रही है. ऐसे में सवाल ये उठता है कि जिन लोगों के मत के आधार पर इन एक्जिट पोल बनाया गया है. उन्हें क्या सही जानकारी मिली होगी?
अपने यहां का मतदाता जल्दी पत्ते नहीं खोलता है. मतदान केंद्र में वो किस दल को वोट देकर आया है, ये बताने से कम से कम कैमरे पर तो परहेज करता ही है. हां, अगर आप उससे घुल-मिल कर बात करेंगे, तो शायद सच्चई बोल दे. ये सच्चई बिहार चुनाव के दौरान दिख रही थी. हम लोग बात करते थे. कहते थे कि हवा निकलनेवाली है, लेकिन तब हम लोगों को शक की निगाह से देखा जाता है. कथित बुद्धिजीवी कहते थे कि जनता का क्या रुख है और ये क्या बात कर रहे हैं. कई बार खास राजनीतिक दलों से प्रभावित होने के बात हम लोगों के बारे में कह दी जाती थी, लेकिन नतीजा आया, तो क्या हुआ?
हां, एक बात और. यही उत्तर प्रदेश जिसका कल नतीजा आनेवाला है. लोकसभा चुनाव में यहां के एक्जिट पोल में क्या आया था और नतीजों में क्या हुआ? ये सब लोगों ने देखा, तब क्या किसी ने सोचा था कि भाजपा को 72 सीटें मिलेंगी, लेकिन जो लोग जनता के बीच में रहते हैं. उन्हें इस बात का एहसास जरूर था, लेकिन वो स्क्रीन पर नहीं दिख रहा था.

सोमवार, 6 मार्च 2017

केबीसी विनर सुशील कुमार ने प्रभात खबर के लिए लिखी हीरालाल के संघर्ष की कहानी

हीरालाल शर्मा के बारे में जब जानकारी हुई, तो उनसे मिलने के लिए शहर के रघुनाथपुर मोहल्ले जा पहुंचा. बातचीत के दौरान लगा कि कुछ मदद करनी चाहिये, तो मैंने पूछ लिया, लेकिन हीरालाल बोले, भैया हमारी आंखें कमजोर हैं. हाथ नहीं. उनकी इसी बात ने मुङो प्रभावित किया. मेरे अंदर उनके बारे में और जानने की जिज्ञासा हुई.
पढ़ाई के प्रति हीरालाल (27) में गजब का जज्बा है. परिवार की स्थिति ऐसी नहीं है कि इन्हें पढ़ने का खर्च मिले. सो हीरालाल महीने में 23 दिन पढ़ाई करते हैं और सात दिन दिहाड़ी (मजदूरी) पर काम करते हैं. इसमें ज्यादातर इन्हें ईंट ढोने का काम मिलता है. इससे जो पैसा मिलता है. उससे पहले अपने बूढ़े माता-पिता के लिए महीने भर का राशन खरीदते हैं. उसके बाद कापी-किताब और फिर अपने व भाइयों के खाने का राशन. कमरे का किराया भी देना पड़ता है. इस संघर्ष के बाद भी हीरालाल खुश हैं.
एमए तक पढ़ाई कर चुके हीरालाल नौकरी के लिए तैयारी कर रहे हैं. इसके लिए रोज शाम को मोतिहारी जिला स्कूल मैदान में एकत्र होनेवाले प्रतियोगी छात्रों के बीच जाते हैं. वहां आपस में प्रश्नोत्तर करते हैं. मेधावी हीरालाल अन्य छात्रों के चहेते हैं. वह शहर में मैथ व रिजनिंग की तैयारी करवानेवाले शिक्षक सुबोध कुमार के यहां पढ़ने जाते हैं. सुबोध को जब हीरालाल के बारे में पता चला, तो उन्होंने इनकी फीस माफ कर दी और जरूरी किताबें भी ला कर दीं. वह कहते हैं कि हीरालाल जिस लगन से तैयारी कर रहे हैं. उनका सेलेक्शन जल्दी ही कहीं हो जायेगा.
वहीं, हीरालाल भी उस दिन का इंतजार कर रहे हैं, जब संघर्षो के बीच पढ़ कर आगे बढ़ने का परिणाम नौकरी के रूप में उन्हें मिले. मेरी कई बार हीरालाल से मुलाकात हुई, लेकिन मैंने कभी उन्हें निराश नहीं देखा. किराये के कमरे में तीन बाइ छह की चौकी पर तीनों भाई रहते हैं. इनका छोटे भाई सुनील कुमार भी प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी कर रहे हैं, जबकि सबसे छोटे भाई प्रदीप ने इस बार इंटर की परीक्षा दी है.
खुद के बल पर आगे बढ़ रहे हीरालाल की स्थिति ऐसी नहीं है कि रोज हरी सब्जी व दाल खा सकें. रात में अक्सर नमक-मिर्च के साथ रोटी खाते हैं और सुबह में आलू का चोखा व भात बनता है. उसी से तीनों भाइयों का पेट भरता है. सप्ताह में एक दिन सब्जी बनती है. यह बताते हुये हीरालाल निराश नहीं होते. कहते हैं कि हमारे हाथ ठीक हैं. इसलिए खर्चा चलाने के लिए दिहाड़ी करते हैं. भगवान ने आंखें में ही दोष दे दिया. इस वजह से ठीक से देख नहीं पाता हूं. अगर आंखें, ठीक होतीं, तो मैं बच्चों को ट्यूशन पढ़ा लेता.
हीरालाल इतने सरल और मृदुभाषी हैं कि हर बार इनसे कुछ नयी जानकारी मिलती है. इस दौरान कई बार लगता है कि हम सबको हीरालाल के बारे में क्यों जानना चाहिये? इसका उत्तर मैं कई बार खुद से ढूढने की कोशिश करता रहा. लगा कि हीरालाल के संघर्ष की कहानी अगर सबके सामने आये, तो इनके समाज में और जो स्वाभिमानी युवा हैं. उन्हें संघर्ष करने का बल मिलेगा.
हीरालाल मूलरूप से पश्चिम चंपारण में योगापट्टी के सिसवाकुटी गांव के रहनेवाले हैं, लेकिन 2001 में गंडक में आयी बाढ़ इनका घर बहा ले गयी. इसके बाद परिवार विस्थापित हो गया और शनिचरी में दूसरे के जमीन पर झोपड़पट्टी बना कर रहने लगा. विस्थापित परिवार की दो जून की रोटी मजदूरी से चलने लगी. इसी दौरान हीरालाल ने तय किया कि मजदूरी के साथ वह पढ़ाई भी करेंगे. मजदूरी के साथ पढ़ाई शुरू की. मैट्रिक, इंटर, राजनीति शा में स्नातक व स्नातकोत्तर किया. छोटे भाइयों को भी पढ़ा रहे हैं.

रविवार, 5 मार्च 2017

ईदगाह के हामिद की तरह लग रहा था वो

कलम के सिपाही प्रेमचंद्र की कहानी ईदगाह बचपन में पढ़ी थी. हामिद का किरदार मन में बस गया. मेरे क्या, जिसने भी कहानी पढ़ी होगी, उसे याद होगा. 2011 की ठंडक से हम लोगों ने शहर के लोगों के सहयोग से कंबल वितरण शुरू किया. सर्द रातों में शहर के विभिन्न मोहल्लों व प्रमुख स्थानों पर घूम-घूम कर देखना. कोई ऐसा तो नहीं है, जो सर्द रात में बिना बिना कंबल के सो रहा है. हम लोग लोगों को देखते और उन्हें कंबल ओढ़ा देते. ये सिलसिला अब तक चल रहा है, लेकिन 2012 में कंबल बांटने के दौरान दिसंबर महीने के आखिरी सप्ताह में एक ऐसा वाकया हुआ, जो पूरी तरह से मन-मष्तिस्क पर अंकित हो गया. बीच-बीच में वो प्रेरणा देता रहता है.
सर्द रात में उस दिन कंबल बांटने हम लोग थोड़ी देर से निकले और कई स्थानों पर गये. इससे काफी देर हो गयी. रात बारह बजे के बाद हम लोग मुजफ्फरपुर जंकशन पहुंचे और वहां प्लेटफार्म नंबर दो की ओर बढ़े. कुछ जरूरतमंद मिले. कंबल दिया गया. इसके बाद हम लोग वापस घर के लिए निकल रहे थे, तभी लगभग दस साल का बच्च दिखा, जिसके बदन पर शर्ट और शर्ट के अंदर कुछ गरम कपड़ा. एक हाथ में चाय का बर्तन और दूसरे में झोला, जिसमें शायद कुल्हड़ व प्लास्टिक के कप रहे होंगे. छोटे बच्चे को देखते ही मुङो लगा कि इसे भी कंबल देना चाहिये. साथ गये लोगों से कहा, तुरंत कंबल आ गया.
कंबल बांटने में साथ गये विमल छापड़िया ने उसकी ओर कंबल बढ़ाया, तो बच्चे ने कंबल लेने से मना कर दिया. कहने लगा कि मेरे घर में कई कंबल हैं, जो हमारे माता-पिता ओढ़ते हैं. हम तो चाय बेचने आये हैं. अभी थोड़ी देर में ट्रेन आयेगी वापस हाजीपुर चले जायेंगे और घर में जाकर सो जायेंगे. कंबल बांटने के दौरान का ये पहला वाकया था, जब किसी ने मदद लेने से इनकार किया था. बच्चे का हौसला देख कर अच्छा लगा. दमकता चेहरा. मुझसे नहीं रहा गया. मुङो ये लगा कि मैं कहूं तो शादय कंबल ले लेगा.
मैंने कहा, तो कहने लगा कि कंबल लूंगा, तो मेरे सामान का वजन बढ़ जायेगा. फिर हम सामान संभालेंगे कि कंबल. कंबल के साथ हम चाय कैसे बेच पायेंगे. हमको तो अपने पिता के इलाज के लिए पैसे कमाने हैं. हम चाय बेच कर पैसे ले जायेंगे, तब इलाज होगा ना. इस पर हम सब लोग ये जानने को उत्सुक हो गये, आखिर क्या परिस्थिति है, जो इतनी सर्द रात में इतना छोटा बच्च अपने घर से पचास से ज्यादा किलोमीटर दूर स्टेशन पर चाय बेचने के लिए आया है.
हम लोगों को बच्चे से बात करता देख, आसपास के कई और लोग भी आ गये. बच्च कहने लगा कि हम रोज यह काम करते हैं. रात में आते हैं और इधर से जो ट्रेन मिलती है. उससे वापस हाजीपुर चले जाते हैं. दिन में काम करने जाते हैं. शाम के समय घर से चाय लेकर चलते हैं और देर रात तक बेच कर वापस चले जाते हैं. मेरी मां घर में पिता की सेवा करती हैं, क्योंकि वह बीमारी के कारण उठ नहीं पाते हैं. पहले काम करते थे, लेकिन अचानक बीमारी ने घेरा और वह बेड पर पड़ गये. ऐसे में हम अपने परिवार को नहीं संभालेंगे, तो कौन दूसरा मदद करेगा.
दस साल का बच्च वह किसी से मदद भी लेने को तैयार नहीं दिख रहा था. कह रहा था कि मेरे पापा हैं. हम मेहनत करके उनका इलाज करायेंगे. हम पढ़ने के साथ काम करते हैं. चाय बेचते हैं और कड़ी मेहनत करनी पड़ेगी, तो करेंगे. उसकी बातें सुन कर लग रहा था कि आखिर परिस्थिति ने इसे समय से पहले कितना मेच्योर कर दिया है. कैसे इसे खुद के कर्म पर भरोसा है. क्या इस बच्चे की तरह हम सब लोग कर सकते हैं? विभिन्न क्षेत्रों में, जो जहां हैं और जिस काम में है. अगर ऐसा हो, तो अपना देश बदल जायेगा.

अमर शहीद के नाम पर सम्मान मिला, खाने को दो जून की रोटी नहीं!

अमर शहीद जुब्बा सहनी के नाम के सहारे राजनीतिक दल दशकों से चुनावी वैतरणी पार करते रहे हैं, लेकिन कभी किसी दल ने ये नहीं सोचा कि आखिर शहीद के परिजनों का क्या हाल है? जब काम पड़ता है, तो नेता हाजिर हो जाते हैं और हमदर्दी जताते हुये शहीद की पतोहू मुनिया देवी का सम्मान कर देते. महीनों से जुब्बा सहनी की पतोहू मुनिया देवी बीमार थी. हालत बिगड़ी तो 15 दिन पहले उसने खाना छोड़ दिया, लेकिन किसी नेता ने मुनिया की सुधि नहीं ली.
मुनिया के बीमार होने व खाना छोड़ देने संबंधी खबर जब प्रभात खबर में प्रमुखता से छपी, तब भी नेता नहीं जागे. निषाद विकास मोर्चा के सन ऑफ मल्लाह मुकेश सहनी आगे आये. उन्होंने मुनिया को मुजफ्फरपुर के निजी नर्सिग होम में भर्ती करवाया. इसके बाद बेहतर इलाज के लिए  पटना भिजवाया. अब मुनिया के इलाज की उम्मीद बंधी हैं. प्राथमिक इलाज के दौरान जो बात सामने आयी. उसमें मुनिया की हालत बिगड़ने के पीछे मुख्य वजह समय से खाना नहीं मिलने का रहा, जिसकी वजह से शरीर में खून की कमी हो गयी और उसने बिस्तर पकड़ लिया. लगभग 70 साल की मुनिया की देखभाल उसकी बहू गीता कुमारी करती है, जो गांव में लोगों के यहां मजदूरी करती. इससे जो पैसे मिलते. वो घर के सदस्यों के खाने में ही चले जाते. मुनिया का इलाज कैसे हो, परिवार के सामने यही संकट था.
पोता गया कुमार कमाने के लिए बनारस गया था, जहां उसे दिहाड़ी का काम मिला, लेकिन दादी की तबियत के बारे में सुना, तो वापस गांव चला आया. दादी की सेवा करने लगा. गीता देवी की चार बेटियां हैं. वह भी दादी की सेवा में लगी थीं, लेकिन घर की माली हालत ऐसी नहीं थी कि उन्हें इलाज के लिए अस्पताल तक जा सकें. घर में जो आता था, उससे केवल एक टाइम का खाना बनता था. अगर बचता था, तो दूसरे टाइम में खाना होता था, नहीं तो भूखे ही घर के सदस्यों को सोना पड़ता था.
मुनिया व उसके परिजनों का हाल सामने आने के बाद चार मार्च को डीएम धर्मेद्र सिंह चैनपुर पहुंचे. मुनिया के दरवाजे पहुंच कर ग्रामीणों से पूरी जानकारी ली. इसके बाद मुनिया की बहू गीता को फोन करके उसके इलाज के बारे में जानकारी ली. डीएम ने मुनिया को स्वतंत्रता सेनानी उत्तराधिकारी पेंशन दिलाने की बात कही. साथ ही गीता देवी को विधवा पेंशन और उनकी बच्चियों का दाखिला आवासीय विद्यालय में कराने का निर्देश दिया. डीएम ने गया कुमार को भी कौशल विकास के तहत ट्रेनिंग दिलाने की बात कही और उसे गांव में ही रोजगार देने का निर्देश अपने मातहत अधिकारियों को दिया.
डीएम ने कहा कि मुनिया के इलाज पर जो खर्च आयेगा, उसे भी प्रशासन उठाने के लिए तैयार है. डीएम पहुंचे, तो मुनिया के घर नेताओं के पहुंचने का सिलसिला भी शुरू हो गया. राजद से जुड़े शिवचंद्र राय पहुंचे. कहने लगे कि हम मुनिया के लिए मुख्यमंत्री नीतीश कुमार से मिलेंगे. विधायक रविवार को मुनिया के घर पर जायेंगे. वो कह रहे हैं, हम मुनिया के दरवाजे पर चापाकल लगवायेंगे. इन सब घोषणाओं के बीच चैनपुर के ग्रामीण प्रभात खबर का शुक्रिया कर रहे हैं. कह रहे हैं. अगर प्रभात खबर के जरिये सामाचार सामने नहीं आया होता, तो मुनिया का बचना मुश्किल था, क्योंकि वह खाना नहीं खाने की वजह से बिल्कुल सूख चुकी थी.
अमर शहीद जुब्बा सहनी की बात करें, तो उन्होंने आजादी की लड़ाई के दौरान जिस दिलेरी से साथियों को बचाने के लिए अपने सिर पर अंगरेज दारोगा की हत्या का इल्जाम लिया, वो साधारण नहीं था. क्योंकि हत्या के आरोपित को फांसी मिलनी तय थी और वही हुआ. 11 मार्च 1944 को जुब्बा सहनी को भागलपुर सेंट्रल जेल में फांसी की सजा दी गयी थी. उस परिवार की पतोहू मुनिया इस हाल में रहे? उसके पास खाने को दो जून की रोटी नहीं हो? वह भी तब देश में खाने की सुरक्षा का कानून पास है?

शुक्रवार, 3 मार्च 2017

साहित्य का श्रवण कुमार चला गया

कलम के जादूगर रामवृक्ष बेनीपुरी जी के सबसे छोटे बेटे डॉ महेंद्र बेनीपुरी नहीं रहे. सूचना मिली, तो सहसा विश्वास नहीं हुआ. 23 दिसंबर को बाबू जी (रामवृक्ष बेनीपुरी) की जयंती पर बेनीपुर में मुलाकात हुई थी. हंसता हुआ चेहरा. कहने लगे, इस बार तबियत की वजह से हमें आने से बच्चे रोक रहे थे, लेकिन हम चले आये. हमारी बाबू जी को लेकर प्रतिबद्धता है. पांच किताबें, जिनका फिर से प्रकाशन हुआ था, उनका लोकार्पण हुआ. हर साल की तरह जयंती समारोह में राजनीति से लेकर साहित्य जगत की हस्तियां जुटी थीं.
पूर्व केंद्रीय मंत्री रघुवंश प्रसाद सिंह विशेष तौर पर पहुंचे थे, जिनसे डॉ महेंद्र बेनीपुरी को विशेष उम्मीद थी कि वो बाबू जी के सपनों को साकार करने में राजनीति तौर पर आ रही परेशानियों को दूर करवायेंगे. रघुवंश बाबू ने ऐसा करना भी शुरू कर दिया है, लेकिन किसी पता था कि बाबू जी के प्रति समर्पित डॉ महेंद्र बेनीपुरी ऐसे चले जायेंगे. 2016 का जयंती समारोह उनके लिए आखिरी साबित होगा. इससे पहले बाबू जी की पुण्यतिथि पर वंशी पचड़ा (शिवहर) में कार्यक्रम हुआ था, जिसमें बेनीपुरी जी के नाम पर पुस्तकालय खुला था. इसकी शुरुआत करने के विशेष तौर पर गोवा की राज्यपाल डॉ मृदुला सिन्हा आयीं थीं. बड़ा समारोह हुआ. जाने का अवसर मिला था. डॉ महेंद्र बेनीपुरी बहुत प्रसन्न थे, लग रहा था, जैसे कोई बड़ा सपना साकार हो गया है.
बाबू जी की प्रकाशित व अप्रकाशित लगभग एक सौ कृतियों का फिर से प्रकाशन करवाया. उनका लोकार्पण भी हुआ. मुजफ्फरपुर से लेकर नागपुर और गोवा के राजभवन में. डॉ महेंद्र बेनीपुरी से जुड़े डॉ राजेश्वर कहते हैं कि वो साहित्य के श्रवण कुमार थे, जिन्होंने अपने बाबू जी के सपनों को साकार करने में कोई कोर कसर नहीं छोड़ी. वह दिन रात इसी काम में लगे रहते. कैसे बाबू जी ने जो सपने देखे थे, वो पूरा हो सकें. उनके नाम का स्मारक बांध के उस पार बने. बाबू जी बनायी घर रूपी आखिरी निशानी को कैसे संरक्षित किया जाये. रामवृक्ष पुरी की जीवनी लिख रहे डॉ संजय पंकज कहते हैं कि लगता है कि डॉ महेंद्र बेनीपुरी अभी किसी तरफ से आयेंगे और पूछने लगेंगे संजय भाई बाबू जी की जीवनी पर कितना काम हुआ.
बीती 15 फरवरी को डॉ महेंद्र बेनीपुरी ने डॉ संजय पंकज को आखिरी पत्र लिखा था, जिसमें उन्होंने बाबू जी की जीवनी लिखने के लिए 31 मार्च के डेटलाइन तय कर दी थी और इसके बाद फोन करके पूछते और कहते कि इस बीच आपको फेसबुक पर ज्यादा सक्रिय देख रहे हैं. फेसबुक पर कम सक्रिय रह कर काम पूरा कर दो, क्योंकि इसी साल पर 12 अगस्त को मेरे जन्मदिन पर बाबू जी की जीवनी का लोकापर्ण होना है. डॉ पंकज बताते हैं कि बाबू जी की जीवनी का लोकार्पण वो मेरे ही हाथों कराने की बात करते थे. कहते थे कि तुम ही इसके लिए सबसे उपयुक्त व्यक्ति हो.
डॉ महेंद्र बेनीपुरी जी से जुड़े रहे ब्रह्मानंद ठाकुर कहते हैं कि दस दिन पहले बात हुई थी, तब इस साल लोकार्पित रामवृक्ष बेनीपुरी जी की पुस्तकों को लेकर बात हुई थी. हमने कुछ पुस्तकों की मांग की थी, जिस पर डॉ महेंद्र बेनीपुरी जी ने हामी जतायी थी, लेकिन मुङो क्या पता था कि ये बात उनसे आखिरी होगी. उनका जाना बहुत दुख दे रहा है. वो अपने बाबू जी को लेकर जिस तरह से समर्पित रहे. वैसा कौन बेटा करेगा. उनके नाम पर कोई काम मुजफ्फरपुर के साथियों को जरूर करना चाहिये. इसके लिए प्लानिंग हो जानी चाहिये, ताकि काम की शुरुआत हो.
पांच साल पहले को वो दिन मुङो बहुत याद आ रहा है, जब डॉ महेंद्र बेनीपुरी जी से पहली बार बेनीपुर गांव में ही मुलाकात हुई थी. मौका रामवृक्ष बेनीपुरी के जयंती समारोह का था. पूरे परिवार के साथ आये थे. बहुत आत्मीयता से मिले थे. बाबू जी की स्मृतियों को लेकर अपनी चिंताएं जाहिर करने लगे. इसके बाद मुजफ्फ रपुर में मुलाकात हुई थी, तो उन्होंने बाबू जी की कई पुस्तकें पढ़ने को दी थी और कहा था कि इन्हें पढ़ोगे, तो बाबू जी को समझ जाओगे. इसके बाद जब भी आते, तब बात और मुलाकात होती थी. हर बार वो ऊर्जा व उत्साह से भरे दिखते. कोई कुछ कहता, तो कहते थे कि मुङो अभी बाबू जी के साहित्य पर काम करना है. कुछ दिन पहले फेसबुक पर भी लिखा था कि बाबू जी की जीवनी पर काम करना है. इस वजह से कुछ दिन फेसबुक से दूर रहूंगा.
सीतामढ़ी के सामाजिक कार्यकर्ता रामशरण अग्रवाल भी डॉ महेंद्र बेनीपुरी से जुड़े थे. हर साल बेनीपुर आते हैं. वो कहते हैं कि भले ही डॉ महेंद्र बेनीपुरी अब हमारे बीच में नहीं हैं, लेकिन उनकी जीवंतता हमेशा महसूस होती रहेगी. डॉ महेंद्र बेनीपुरी का जीवन देखा जाये, तो पूरी तरह से अपने बाबू जी के प्रति समर्पित थे. बाबू जी की इच्छा पर ही इन्होंने मेडिकल की पढ़ाई छोड़ कर जीव विज्ञान पढ़ा था और शहर के कॉलेज में ही प्रोफेसर बने. पहले एलएस और फिर आरडीएस, जहां से रिटायर हुये थे. अभी वह अपने बेटे के साथ फरीदाबाद में रह रहे थे. भले ही महानगर में रह रहे थे, लेकिन उनकी चिंता गांव को लेकर थी. जिससे भी बात होती थी. वह गांव के बारे में पूछते थे. बाबू जी के स्मारक की दिशा में क्या काम हो रहा है. इसका जिक्र करते थे.

सोमवार, 27 फ़रवरी 2017

जब गवाही देने के लिए कठघरे में खड़े हुये भगवान....और जज साहब बन गये बाबा

चपरासी बोला, वही बताओ.
मंदिर पर चपरासी पहुंचा, तो पुजारी बाहर बैठे थे. चापरासी ने पूछा, रघुनाथ जी का मंदिर यही है.
पुजारी ने कहा- हां.
चपरासी ने सम्मन आगे बढ़ा दिया, लो ये. पुजारी जी समझ गये. मन ही मन सोचने लगे कि जब भगवान ने मंगा ही लिया है, तो हम क्यों मना करें. हस्ताक्षर, पुजारी ने कर दिये.
चपरासी समझा, यही रघुनाथ जी होंगे.
पुजारी जी ने सम्मन रघुनाथ जी के चरणों में रख दिया और आंखों में आंसू भर कर बोले प्रभु. आपको पोशाक कई बार आयी होगी. भोग लगाने के लिए तरह-तरह के पदार्थ आये होंगे. अभूषण कई बार भक्त लेकर आये होंगे, लेकिन सम्मन पहली बार आया होगा. पर भक्त जो न करें, सो थोड़ा है.
प्रभु उस दीन का आपके अलावा और कोई नहीं है. वो आपके अलावा किसी को जानता ही नहीं है. उसकी लाज आपके हाथ में है.
पुजारी ने केवट से कहा- तुमने क्यों लिखा दिया, रघुनाथ जी का नाम? केवट बोला कोई झूठ लिखा दिया है. हमारे रघुनाथ जी सदा हमारे साथ थे.
केवट तो यही कहे..हरि बिन संकट कौन निवारे..साधन हीन मलीन, दीन मैं.
 जाऊं केहि के द्वारे. या अनाथ की लाज आज, रघुनाथ जी हाथ तुम्हारे.
हरि बिन संकट कौन निवारे.
दीन दयाल सुनी जब ते, तब ते मन में कछु ऐसी बसी है. देऊ कहां और जाऊं कहा, बस तेरी ही नाम की फेट कसी है. तेरो ही आसरो, बस एक मलूक. नहीं प्रभु सो कोई औरो जसी है.
ये हो मुरारी पुकारी कहौं, अब मेरी हंसी में, तेरी हंसी है. हरि बिन संकट कौन..हरि बिन संकट कौन निवारे.
कहीं नहीं गया केवट, किसी को जानता ही नहीं रामजी के अलावा. तारीख के एक दिन पहले ही केवट से बोले, तुम आ ही जाओ, ताकि समय से पहुंच जाओ.
रघुनाथ जी की, तो रघुनाथ जी ही जानें.
केवट रघुनाथ जी के चरणों प्रणाम करके चला गया.
दूसरे दिन पुजारी जी सुबह जल्दी जगे. भगवान की आरती पूजा की और नया व पहनाया. भोग लगाया. उनको लग रहा था कि आज भगवान पहली बार बाहर जा रहे हैं. कपड़े अच्छे पहनावें. रोन लगे पुजारी जी. भाव की तो बात है.
प्रभु आपको, जो पोशाक अच्छी लगे, वही पहनकर जाना, लेकिन जाना जरूर. उसका कोई नहीं आपके अलावा.
उधर, केवट पहुंचा, सेठ जी भी पहुंच गये.
जज साहब ने पूछा- केवट तुम्हारे गवाह रघुनाथ जी कहां हैं?
केवट ने कहा- साहब, यहीं कहीं होंगे. वह तो सब जगह रहते हैं.
जज साहब फिर केवट की बात समझ नहीं पाये.
चपरासी को आदेश दिया- आवाज लगाओ.
चपरासी ने आवाज लगाना शुरू किया- रघुनाथ हाजिर हों, रघुनाथ हाजिर हों..रघुनाथ हाजिर हों.
तीन बार चपरासी ने ऐसे जो आवाज लगायी, तो उसने देखा कि एक बूढ़ा आदमी हाथ में लकड़ी पकड़े, कमर झुकी हुई. हाथ से इशारा किया.
रघुनाथ हाजिर है, ऐसे तीन नारे जो लगाये हैं.
चाल लटपटी सी एक वृद्ध की झुकी सी देह.
दुपटी फटी सी शीश बांधे, धर धाये हैं.
हाथ माहे छड़ी पड़ी, तुलसी की हिये माल.
माथे पर रोली चारू, चंदन चढ़ाये हैं.
साहब के सामने विनीत चपरासी साथ.
आज रघुनाथ जी गवाह बन आये हैं.
भगवान गवाह बन कर आ गये. जज साहब ने देखा. सेठ जी देख कर चौक गये. ये कौन आ गया.
जज साहब ने पूछा- आप थे वहां.
रघुनाथ जी ने कहा- हां, केवट ने रुपया दिया है.
जज ने पूछा- इसका प्रमाण.
रघुनाथ जी बोले- हां, इन्होंने रसीद भी लिख ली थी. सेठ जी को यहीं रखा जाये. इनके मकान की सामनेवाली बैठक के सामनेवाली दीवार पर तीन आलमारियां हैं. उसकी बीच वाली अलमारी में बही रखी है, 32 नंबर की. उसी में रसीद अभी तक सुरक्षित रखी है.
सर्वातरयामी भगवान से क्या छुप सकता है? सिपाही भेजे गये. बही और रसीद मिल गयी. सेठ जी को दंडित होना पड़ा.
केवट, बाइज्जत बरी हुआ. रघुनाथ जी गायब हो गये, क्योंकि काम तो हो ही गया था.
अब जज साबह ने सोचा, इतने दिन हो गये फैसला सुनाते. पर ऐसा गवाह आज तक नहीं पहुंचा.
केवट से अकेले में पूछा- ये रघुनाथ जी कहां रहते हैं.
केवट बोला- जहां हम रहते हैं.
जज बोले- तुम कहां रहते हो.
केवट बोला- जहां रघुनाथ जी रहते हैं.
जज साहब बोले- हम समङो नहीं, तुम लोग एक ही जगह, एक ही गांव के रहनेवाले हो.
केवट बोला- हां, हुजूर, आपको कैसे समझायें. आप तो पढ़े-लिखे हो. पढ़े-लिखों को समझाना. बहुत कठिन है. भक्ति और भगवान की बात.
जज साहब बोले- ये हैं कौन?
केवट बोला- हुजूर ये वो हैं, जिनका मंदिर है.
जज साहब बोले- इन्होंने मंदिर बनवाया है. देखने से तो नहीं लग रहे थे कि कोई इतने बड़े संपन्न आदमी होंगे, जिन्होंने मंदिर बनवाया होगा. पुजारी भी नहीं लग रहे थे.
केवट बोला- हुजूर, ये वही हैं, जो मंदिर में बैठे हुये हैं.
अब तो जज साहब ने चपरासी को बुलाया- चपरासी कांपने लगा. कहने लगा- हुजूर ये वो आदमी नहीं था, जिसने हस्ताक्षर किये थे.
इसके बाद जज साहब ने गांव में पता लगाया, तो भाव विह्वल हो गये. अपने बंगले पर आये और रोने लगे.
लोगों ने रोने का कारण पूछा- तो जज साहब रोते हुये बोले-
शिव सारद, नारद, शेष गणोश, के नहीं ध्यान में आते रहे. सोइ आज विनीत अदालत में केवटा के गवाह कहाते रहे.
लोग बोले- अरे तो इसमें, रोने की क्या बात है. खुश होना चाहिये कि दर्शन हो गये. चले गये, तो वे, तो जाते ही.
जज साहब साहब बोले- सुख धो के उतर्स दिये को भयो. दुख नाहिंन, जो तज जाते रहे.
लोग बोले- तो, ये रो क्यों रहे हो?
तो जज साहब ने बड़ी भाव भरी बात कही. बोले- आज बड़ी गलती हो गयी.
कुरसी पर बना जज बैठा रहा. जगदीश खड़े समझाते रहे.
कुरसी पर जज बना बैठा रहा, जिनकी अदालत में सबको उपस्थित होना पड़ता है. वे भगवान खड़े-खड़े गवाही देते रहे. ऐसा वैराग्य हुआ. उसी दिन पद से इस्तीफा दे दिया. वृंदावन आ गये. साधु जीवन बिताया. अक्सर खड़े रहते. कहते, भगवान, खड़े रहे और मैं बैठा रहा. अब तो खड़े रहना ही अच्छा है. मंदिर में जाते, तो अंदर नहीं. बाहर से ही दरवाजे की धूल सिर पर चढ़ा लेते. कोई कहता - अंदर क्यों नहीं जाते, तो कहते, मैं उन्हें मुंह दिखाने लायक नहीं हूं. मुझसे जो अपराध हुआ.
केवट के कारण भगवान गवाह बने. क्या था केवट में?
सबकै ममता ताग बटोरी, मम पद मनहि बांध बर डोरी. अस सज्जन मम उर बस कैसे. लोभी हृदय बसै धन जैसे.
ये सज्जन की दूसरी परिभाषा है.
राजेश्वरानंद जी के प्रवचन से

 

जब गवाही देने के लिए कठघरे में खड़े हुये भगवान

भगवान हमारे हैं और हमारे का, हमें भरोसा है. राम जी हैं. एक बात सुनाऊं मैं, ममता की बात सुनाऊं.
वृंदावन में एक महत्मा घूमते थे, जिन्हें देख कर लोग कहते थे कि जज साहब आ रहे हैं. जज साहब आ रहे हैं. तीस साल पुरानी घटना है. एक संत से किसी पूछा कि इन्हें जज साहब क्यों कहते हैं?
तो संत ने कहा कि अब साधु हो गये हैं. पहले जज थे. पुराना नाम अभी भी चल रहा है.
उसने पूछा, साधु क्यों हुये?
संत ने कहा,दक्षिण भारत में एक छोटी सी जगह थी. लोक अदालत की तरह, वहां ये जज थे. वहां एक गांव में बड़ा सीधा सरल आदमी रहता था. नाम था भोला. भोला नाम तो लोगों ने रख दिया था, लेकिन वो था भी बिल्कुल भोला. वो राम जी के अलावा किसी को जानता ही नहीं था. गांव में रघुनाथ जी का मंदिर था. भोला केवट जाति का था. सामान्य परिस्थिति थी. गांव का कोई भी व्यक्ति उससे पूछता, भोले वो बात कैसी है, तो भोला बोलता था कि रघुनाथ जी जानें, मैं तो कुछ नहीं जानता.
भोला के दो बेटे और एक बेटी. बेटी विवाह के योग्य हुई, तो बेटों ने कहा कि पिता जी यहां के जो धनी सेठ हैं, उनसे रुपया ले लिया जाय. विवाह के बाद हम लोग कमा कर रुपया चुका देंगे.
केवट गया, सेठ जी ने ब्याज की सामान्य दर तय की. लिखा-पढ़ी हुई, रुपया ले आये. बेटी का विवाह हुआ. बेटी विदा हुई ससुराल को. केवट ने घर छोड़ दिया और गांव में ही रघुनाथ के मंदिर में रहने लगा. सबकै ममता ताग बटोरी. मम पद मनहि बांधि बर डोरी.
इधर, केवट के बेटों ने काम करना शुरू किया और रुपया कमाया. पिता को दिया. भोला रुपया लेकर सेठ जी को वापस करने पहुंच गया. सेठ ने रुपया ले लिया. रसीद बना दी कि पाइ-पाइ से पैसा मिला. केवट को रसीद दे दी और कहा कि केवट पढ़ो, क्या लिखा है?
केवट बोला, सेठ जी, रघुनाथ जी जाने मैं तो कुछ नहीं जानता. क्या लिखा है. इस पर सेठ जी के मन में पाप आया कि इससे दुबारा पैसा लिया जा सकता है. सेठ जी ने कहा कि ये कागज हमें दे दो और तुम जाकर पानी ले आओ.
केवट पानी लेने गया, तो सेठ जी ने वो रसीद अपने पास रख ली. फाड़ते तो शक होता. एक कागज पर कुछ ऐसे ही लिख कर केवट को दे दिया. केवट कागज लेकर मंदिर आ गया. उसने रसीद रघुनाथ जी चरणों में चढ़ाकर, अपने कमरे में रख दी.
इधर, सेठ जी ने मुकदमा कर दिया कि भोला ने रुपया लिया. वापस नहीं दे रहा है. मांगने पर कहता है कि मैंने रुपया चुका दिया है. अदालत में केवट को जाना पड़ा, वही जज जो महत्मा हो गये थे. उन्होंने सुनवाई शुरू की. केवट से पूछा, तुमने सेठ से रुपया लिया था?
केवट ने कहा- हां.
चुका दिया- हां.
इसका प्रमाण- केवट ने वही कागज जज साहब के आगे बढ़ा दिया, जो सेठ जी ने दिया था.
जज बोले- ये कोई सबूत नहीं है. इसमें कुछ लिखा ही नहीं.
केवट रोने लगा. दयालु हृदय जज साहब ने कहा कि रोओ मत. तुमने जब सेठ जी को रुपया रुपया दिया था, तो तुम्हारे और सेठ जी के बीच में कोई तीसरा था?
केवट की जो आदत थी. स्वभाव था. उसी भाव से बोला. सत्य कहता हूं जज साहब. मैंने जब सेठ जी को रुपया दिया था, तो मेरे और सेठ के बीच में रघुनाथ जी के अलावा और कोई तीसरा नहीं था.
केवट की बात सुन कर जज साहब बोले- ठीक है. तुम जाओ. अगली तारीख पर
आना.
जज साहब ने सोचा कि रघुनाथ कोई केवट के गांव का रहनेवाला आदमी होगा. उन्होंने अपने खर्चे से रघुनाथ के नाम पर सम्मन जारी कर दिया.
चपरासी पूरे गांव में सम्मन लिये घूमे. उस गांव में रघुनाथ नाम का कोई आदमी ही नहीं थी. चपरासी परेशान हो गया. इसी दौरान एक व्यक्ति ने कहा कि गांव में रघुनाथ नाम का कोई नहीं है, लेकिन रघुनाथ जी का एक मंदिर जरूर है. जारी.. 
(राजेश्वरानंद जी के प्रवचन से)

रविवार, 26 फ़रवरी 2017

सत्य ही शिव है

महाशिवरात्रि के पर्व पर देवाधिदेव महादेव की बारात निकली. उनकी बारात में कौन-कौन शामिल होता है, ये बताने की बात नहीं है. लोक जीवन में रह कर हम सब जानते हैं, लेकिन कई बार होता ये है कि लोग शिव भगवान के बारातियों की आड़ लेकर अपने दुगरुणों का बचाव करने की कोशिश करते हैं, इसको लेकर तरह-तरह के तर्क देते हैं, लेकिन यह भूल जाते हैं कि सत्य का दूसरा नाम ही शिव है. शिव तत्व की जरूरत हम लोगों को हमेशा होती है. रोजमर्रा से लेकर लोक जीवन तक में, लेकिन अभी समाज में जो स्थिति देखने को मिलती है. वह इसके ठीक विपरीत है.
हम शिव की पूजा करते हैं. उन्हें खुश करने के लिए लाख जतन करते हैं, लेकिन जिस सत्य को उनका रूप माना गया है. उसी का साथ छोड़ देते हैं. ऐसे में हमें समझना चाहिये कि शिव कैसे आपके साथ हो सकते हैं. आप शिव को कैसे अपने साथ होने की बात कर सकते हैं? क्यों जब सत्य की शिव है, तो असत्य का साथ तो शिव देंगे नहीं. यह सामान्य सी बात हमें समझ लेनी चाहिये और लोक जीवन में उसी के मुताबिक काम करना चाहिये. शिव को लेकर लिखना सरल नहीं है, क्योंकि उनका जितना व्यापाक रूप है और वह जितना सरल हैं. उनका विस्तार उनता ही अधिक है. ऐसे में उनके बारे में कुछ कहना या लिखना कम से कम हम जैसे लोगों की बात नहीं है.
इसके बाद भी हम उसी सरलता की बात कर रहे हैं, जो शिव को पसंद है. शिव तत्व में शामिल है. वह है सत्य. सत्य का साथ हमें हमेशा देना चाहिये. उसके साथ खड़े रहना चाहिये, तभी शिव के साथ हम रहेंगे, चाहे हम जो भी काम करते हों, लेकिन सत्य का साथ हमेशा बनाये रखना चाहिये. यही आज के दिन में सबसे जरूरी है. इसका विस्तार अगर आप देखना चाहते हैं, तो सत्य का साथ दीजिये. अपने आप में सब चीजें दिखने लगेंगी और फिर अपने बारे में भी जान जायेंगे. जय शिव.

सोमवार, 20 फ़रवरी 2017

उन घरों में शिक्षा की रोशनी फैला रहे केबीसी विनर सुशील कुमार, जहां अब तक अंधेरा था

कौन बनेगा करोड़पति में पांच करोड़ जीतनेवाले सुशील कुमार को आप देखेंगे, तो प्रभावित हुये बिना  नहीं रह पायेंगे. 2011 में केबीसी जीतने के बाद और अब के सुशील में आपको ज्यादा फर्क महसूस नहीं होगा. वो पहले से ज्यादा सरल हो गये हैं. बड़ी गर्मजोशी के साथ मिलते हैं. केबीसी में जीतने के बाद रातोंरात देश-दुनिया में नाम कमानेवाले सुशील लगातार अपने मिशन पर काम कर रहे हैं. वो जो काम करते हैं, उसके बारे में ज्यादा लोगों को नहीं बताते हैं, लेकिन लगातार उनका काम चलता रहता है. उनके सामाजिक कामों में एक काम यह भी है कि वो मुशहर समाज के एक सौ से ज्यादा बच्चों को पढ़ा रहे हैं. इसके लिए उन्होंने बाकायदा शिक्षक रख रखा है. खुद लगातार बच्चों की प्रगति पर नजर रखते हैं.
यह समाज के उस अंतिम पायदान के बच्चे हैं, जहां सरकारी शिक्षा की रोशनी भी नहीं पहुंची है, लेकिन सुशील के प्रयास से इन बच्चों को न सिर्फ अक्षर ज्ञान हुआ है, बल्कि बच्चे फर्राटे से पढ़ने लगे हैं और बेहतर भविष्य का सपना भी देख रहे हैं. बच्चों को पढ़ाने के अलावा समाज की बेहतरी के लिए कई और काम सुशील कर रहे हैं, लेकिन उनके बारे में ज्यादा शोर नहीं करते हैं कि जब समानता की बात होती है, तो सबको शिक्षा का अधिकार है, लेकिन दुर्भाग्य से ऐसा नहीं हो पाता है. समाज में एक तबका ऐसा भी है, जहां बच्चे बड़े होने के साथ काम में लगा दिये जाते हैं. वो मजदूरी आदि करके घर को चलाने में सहयोग करने लगते हैं. कई जगहों पर पढ़ाई का माहौल नहीं होने की वजह से भी बच्चे पढ़ने नहीं जाते हैं.
हाल में सुशील जी से मिलना हुआ, तो भविष्य की योजनाओं के बारे में चर्चा हुई, तो कहने लगे कि एक और बस्ती के बच्चों को हम पढ़ाना चाहते हैं. इसके लिए काम कर रहे हैं. साथ ही वह मुंबई में रह कर भी काम कर रहे हैं. उनकी भावी योजनाओं में कई चीजें हैं, जिनका खुलासा वो नहीं करते हैं, लेकिन कहते हैं कि जब कुछ हो जायेगा, तो बताना ज्यादा अच्छा रहेगा. अभी हम केवल तैयारी में जुटे हैं.

अंधकार है प्रकाश के अहमियत की वजह

हमारा जीवन उतार-चढ़ाव से भरा है. जैसे दिन और रात. अगर दिन में सूरज की चमक से हम प्रकाशित रहते हैं, तो रात में चंद्रमा प्रकाश के साथ शीतलता भी प्रदान करता है, लेकिन रात में अमाश्वया की रात ऐसी होती है, जब घुप्प अंधेरा रहता है. कहीं कुछ सूझता नहीं है, लेकिन इसी अंधकार में अगर दूर भी कहीं रोशनी टिमटिमा रही होती है, तो वह दिख जाती है. हम सब जानते हैं, रात के समय आकाश में तारे हमें कितनी दूर होने के बाद भी कितना स्पष्ट रूप से दिखायी पड़ते हैं. कई बार लगता है कि हम उनसे संवाद कर रहे हैं यानि अंधकार ही वह वजह है, जिससे हमें प्रकाश की अहमियत का पता चलता है.
ऐसे ही हमारा जीवन भी है. अगर हम अपने जीवन में देखें, तो जब भी कठिन समय आया है. उसी समय किसी न किसी बड़े काम की नीव पड़ी होती है, जो आपको जीवनभर का आनंद देता है. ऐसी  घटनाएं सबके साथ होती है, लेकिन हमें इन्हें समझना और महसूस करना चाहिये. हमें जीवन के अंधकार यानि खराब समय का भी वैसे ही स्वागत करना चाहिये, जैसे हम प्रकाश के आने का करते हैं. अगर हम इसे समझ ले जाते हैं और इस सिद्धांत पर काम करते हैं, तो कोई वजह नहीं है, जो हमें परेशान कर सकती है. 
जारी

शुक्रवार, 17 फ़रवरी 2017

आंदोलन की राह पर यजुआर के युवा

यजुआर के युवा फिर आंदोलन की राह पर हैं. वजह है, उनके गांव में बिजली जैसी मूलभूत सुविधा का नहीं होना. गांव में बिजली आये, इसके लिए यहां के युवा सालों से अपनी आवाज बुलंद कर रहे हैं. मुख्यमंत्री नीतीश कुमार तक अपनी बात पहुंचा चुके हैं. मुख्यमंत्री ने आश्वासन दिया है, लेकिन क्या इस पर काम होगा, ये बड़ा सवाल अभी बना हुआ है, क्योंकि सालों पहले गांव में विकास की पहल हुई थी, मुजफ्फरपुर से अधिकारियों का अमला यजुआर गांव पहुंचा था. तब भी बिजली का सवाल था, लेकिन उस पर कोई काम नहीं हुआ.
गौरवशाली अतीत वाले यजुआर गांव में 40 साल पहले पोल-तार लगे थे. शायद वही, इस गांव के वर्तमान के लिए अभिशाप बन गया. तार खिचे, ट्रांसफारमर लगे, तो सरकारी फाइलों में चढ़ गया कि गांव में बिजली है, लेकिन बिजली का दर्शन गांव के लोगों को हुआ नहीं. पोल-तार और ट्रांसफारमर अब भी लगा है, लेकिन किस काम का. ये बात नेता से लेकर अधिकारी तक सब मानते हैं. इसके बाद भी फाइल में चढ़ी बात कैसे नहीं बदली जा रही है. ये बड़ा सवाल है?
यह शायद उस कहावत का जीता-जागता उदाहरण है, जो जंगल में रहनेवाले जानवरों से जुड़ी हैं. जिसमें कहा जाता है कि जंगल में एक दिन जानवर तेजी से भाग रहे थे. उनके साथ ऊंट भी भागा चला जा रहा था. रास्ते में किसी ने पूछ लिया कि ऊंट भाई आप क्यों भाग रहे हैं, तो उसने कहा कि सरकारी कर्मचारियों की टोली जंगल में बिल्लियों को पकड़ने आयी है. हम इसलिए भाग रहे हैं. कहीं, बिल्ली समझ कर हमें भी पकड़ लिया, तो हमें दशकों ये साबित करने में लग जायेंगे कि मैं बिल्ली नहीं ऊंट हूं.
लगभग आठ माह पहले मेरा भी यजुआर जाना हुआ था. आने-जाने के दौरान चचरी पुल के साथ जिस तरह का सफर रहा, उससे पता चल गया कि कैसे वहां के लोग रह रहे हैं. प्रखंड कार्यालय जाने के लिए उन्हें किस तरह से जद्दोजहद करनी पड़ती है. गांव में टंकी बनी है. कर्मचारी की नियुक्ति है, लेकि बिजली के बिना पानी सप्लाई नहीं होती है. चालीस साल पहले जो पाइप लगी थी, उससे पानी सप्लाई हुये बिना ही जंग खा गया है. पहले गांव में अतिरिक्त स्वास्थ्य केंद्र था, जहां पर डॉक्टर रहते थे, लेकिन अब यह भी खंडहर हो गया है. 40 हजार से ज्यादा की आबादी वाले यजुआर की हालत सुनने और देखने के बाद सहसा विश्वास नहीं होता है, लेकिन हकीकत यही है.
एक क्लिक पर देश-दुनिया तक समाचार पहुंचने के जमाने में यजुआर जैसे जागरूक गांव की ऐसी स्थिति परेशान करती है. ये परेशानी नाहक नहीं है. यजुआर गांव से ही औराई के विधायक की जीत और हार का रास्ता निकलता है. जिसके पक्ष में यहां वोट पड़ता है, उसका विधानसभा पहुंचना तय माना जाता है. ऐसे ही लोकसभा चुनाव में भी यहां के वोटर अच्छा-खासा अंतर पैदा करते हैं. यही वजह है कि सांसद अजय निषाद ने यहां की एक पंचायत को गोद लिया है, लेकिन पंचायत के लोग कहते हैं कि जब घोषणा हुई थी, तब उम्मीद जगी थी, लेकिन अब हमारी उम्मीद टूट चुकी है.
पूर्व विधायक रामसूरत राय, जो इस समय भाजपा के जिलाध्यक्ष भी हैं. कहते हैं कि हमने गांव में बिजली लाने की बहुत कोशिश की, लेकिन कामयाब नहीं हो सका. ऐसे ही अन्य जन प्रतिनिधि भी दुहाई देते हैं, लेकिन इस सबका खामियाजा गांव के लोगों को ही भुगतना पड़ रहा है.



 

बुधवार, 1 फ़रवरी 2017

गंगेया के लोगों ने बागमती पर खुद बना लिया पीपा पुल

लगभग साल भर पहले गंगेया जाना हुआ था, तब बांस के पुल था, जिससे गुजरते समय अच्छे-अच्छे लोग हनुमान चलीसा का पाठ करने लग रहे थे. हम भी उन्हीं में शामिल थे. उस समय गांव में एक कार्यक्रम था. मुंबई से अभिभावक समान अनुराग चतुव्रेदी सर आये थे. उन्हीं के साथ गांव देखने का मौका मिला. आधा गांव बागमती इस पार और आधा, उस पार. बड़ी विकट स्थिति में रह रहे थे गांववाले.
चर्चा चली, तो वहां के लोगों ने बताया कि वर्तमान सांसद से लेकर अधिकारियों व विधायकों से हम लोगों ने कई बार गुहार लगायी, लेकिन आश्वासन ही देते रहे हैं. बाढ़ के समय पुल बह जाता है, तो गांव के लोगों की परेशानियां और बढ़ जाती हैं. गंगेया के लोग किस स्थिति भयावह हालत में रह रहे थे. ये वहां जाने के बाद ही महसूस होता है. बांस के चचरी पुल को पार करना किसी बड़ी जंग को जीतने जैसा लगता था. ऐसे में सोच सकते हैं, जो ग्रामीण रोज कई बार इस पुल से आते-जाते होंगे, उनका क्या होता होगा, जब हम पुल पार कर रहे थे, उसी दौरान एक मां अपने बच्चे के साथ जा रही थी, जो खुद से ज्यादा बच्चे को लेकर परेशान थी, क्योंकि बच्च छोटा था और मां के हाथ में राशन का झोला था, जिससे वह बच्चे को उठा नहीं सकती थी. ऐसे में वह लोगों से मिन्नतें कर रही थी कि किसी तरह उसके बच्चे को पार करवा दें.
खैर, गंगेया गांव के वापस आया, तो कई दिन तक वहां खास कर पुल से गुजरने की स्मृति कौंधती रही. लगा कि जब इतनी परेशानी है, तो इसका समाधान क्यों नहीं होता. कई लोगों से बात की, लेकिन किसी ने संतोषजनक जवाब नहीं दिया. इसी बीच गंगेया के रहनेवाले क्रांति प्रकाश जी का न्योता मिला. पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी को 1977 के चुनाव में हरानेवाले राजनारायण की जयंती मना रहे थे. मुलाकात हुई, तो गांव के चचरी पुल की चर्चा की. कहने लगे, जल्दी ही दुख दूर होनेवाला है. गांव के लोग ही आपस में मिल कर पीपा पुल बना रहे हैं. इसके लिए बैठक हो चुकी है और कुछ लाख रुपये भी एकत्र हो चुके हैं. सुन कर बड़ा सुकून मिला.
बीती 24 जनवरी को जानकारी मिली कि पुल तैयार है और लोगों का आवागमन शुरू हो गया है. गांव के लोगों ने 12 लाख रुपये इकट्ठा करके पुल का निर्माण कराया है, जब पुल से गुजरते लोगों की तस्वीरें देखीं, तो काफी सुकून मिला. अब गंगेया के लोगों को हिचकोले नहीं खाने होंगे. साथ ही गांव में आनेवाले लोगों को पहले जैसी त्रसदी नहीं ङोलनी पड़ेगी. गंगेया के लोगों को इस साहसपूर्ण काम के लिए बहुत बधाई!

इस बार फिर चौकायेगा उत्तर प्रदेश ?

यूपी समेत पांच राज्यों में विधानसभा चुनाव की धूम है. प्रचार चरम पर है. पहले चरण का चुनाव चार फरवरी को होना है, जिसके लिए दो फरवरी को चुनाव प्रचार बंद हो जायेगा. इससे पहले लंबे राजनीतिक ड्रामे से गुजरे यूपी के वोटर इस बार क्या करेंगे, ये सवाल सबके जेहन में घूम रहा है. प्रदेश में घूम-घूम कर सव्रेक्षण कर रहे विभिन्न मीडिया हाउस अलग-अलग तरह की हवा बना रहे हैं. कोई भाजपा की पूर्ण बहुमत की सरकार बना रहा है, तो कोई अखिलेश की फिर से ताजपोशी कर रहा है. ऐसे में ये देखना दिलचस्प होगा कि वोटर का मत क्या इस मीडिया हाउस के सव्रेक्षणों से मेल खाता है या फिर नहीं, क्योंकि इससे पहले 2007 व 2012 के यूपी चुनावों में ऐसे सव्रेक्षण करनेवालों को बुरी तरह से मुंह की खानी पड़ी थी. इस बार जो हालात दिख रहे हैं, वो तो कुछ और कहानी कह रहे हैं, लेकिन ऐसा लगता है कि जमीनी हकीकत को हम देखना नहीं चाहते हैं.
गठबंधन के शोर में भले ही किसी की आवाज कम सुनायी दे रही हो, लेकिन वोटर सब देख रहे हैं और उन्हें किधर जाना है. शायद उन्होंने मन बना लिया है और वो उस दिशा में आगे बढ़ चुके हैं. ऐसे में सवाल उठता है कि क्या सव्रेक्षण करनेवालों के सामने ये हकीकत नहीं है. साल से कुछ ज्यादा पहले बिहार चुनाव हुये थे. उस दौरान किस तरह का शोर था, लेकिन नतीजे कैसे आये, ये सबको पता है. यही नहीं मतगणनावाले दिन किस तरह से भाजपा के लोगों ने सुबह जश्न मनाना शुरू कर दिया था, लेकिन चंद मिनट में ही इनके पांवों की थिरकन रुक गयी थी, जो दावे कर रहे थे, उनके मुंह पर सील लग गयी और वह छुपते फिरने लगे.
अगर राजनीतिक हालात की बात करें, तो यूपी-बिहार बहुत ज्यादा अलग नहीं हैं. हां, वोटरों की संख्या के आधार पर भले ही कुछ भेद-विभेद किया जा सकता है, लेकिन ताशीर एक जैसी ही है. अब ऐसे में चुनाव बहुत रोचक बन गया है.