बाबू बृजपाल सिंह का चेहरा ठीक से याद नहीं, बचपन के वो दिन थे, लेकिन हमारे गांव के सबसे प्रतिष्ठित व्यक्ति. रिटायरमेंट के बाद गांव में रहते थे. वैसे तो उन्होंने गांव में तीन पक्के मकान उस जमाने में बनवाये थे, लेकिन खुद एक मड़ही (छप्पर के नीचे) में रहते थे. दादी और घर के बुजुर्ग आपस में बात करते थे कि सुबह तीन घंटे पूजा करते हैं. हमेशा राम-नाम लेते हैं. उन्हीं लोगों से मैं ये बाते सुनता. बाबू साहब का घर ज्यादा दूर नहीं था, सो कभी-कभी खेलते-खेलते उनके दरवाजे तक भी चला जाता था. गांव के लोगों में उनका बड़ा सम्मान था. सब इज्जत देते थे, लेकिन बाबू साहब अपनी मड़ही से ज्यादा बाहर नहीं निकलते थे. कभी बहुत जरूरी होता था, तब ही बाहर जाते थे, जो लोग जाते, उनसे आत्मीयता और सरलता से बात करते.
गांव के लोग बताते कि वो बिना पढ़े हुये चीनी मिल की मशीनों के इंजीनियर थे. चंपारण से लेकर देहरादून तक चीनी मिल की मशीनों को बनाने के लिए जाते थे. गांव-जवार में जब कोई लड़का बड़ा होता, तो उसकी नौकरी के लिए अभिभावक बाबू साहब के पास जाते थे. बाबू साहब भी लोगों को निराश नहीं करते थे. यथा शक्ति, इलाके के दर्जनों लोगों को विभिन्न चीनी मिलों में काम पर लगवा दिया. ऐसे लोग हमारे बड़े होने तक काम कर रहे थे. अब वो लोग भी बूढ़े हो चले हैं. कई परिवार तो देहरादून में ही बस गये. पीढ़ियाँ बदलीं, लेकिन चीनी मिल में काम करने का सिलसिला अभी तक चल रहा है. इसे हम बाबू साहब का प्रताप ही कह सकते हैं.
वो फागुन का महीना ही था, लगभग 35 साल पहले. होली का त्योहार आनेवाला था. गांव में चर्चा हुई कि बाबू साहब की तबियत अब ज्यादा खराब है. उन्होंने बिस्तर पकड़ लिया था. बहुत कम बोल पाते थे. लोगों को देखते और इशारों में ही बात करते थे. बताते हैं कि होली के एक दिन पहले उनकी तबियत कुछ ठीक हुई, तो घर के लोगों को उम्मीद बंधी. होली का दिन अच्छे से बीता, लेकिन अगली सुबह उन्होंने अपने बेटे को बुलाया और कहा कि हमको कल ही जाना था, लेकिन हमने मना कर दिया कि हमारे बच्चों को त्योहार खराब हो जायेगा. इसलिए हम आज चले जायेंगे. ये सुनने के बाद उनके बेटे ने कहा कि कैसी बातें कर रहे हैं बाबू जी. हम लोग हैं, आप हमको छोड़ कर ऐसे नहीं जा सकते हैं, लेकिन बाबू साहब उस दिन उठे. नित्य क्रिया की. पूजा शुरू की और बिस्तर पर लेटे-लेटे ही राम-नाम लेने लगे. दिन का खाना खाया और उसके बाद सदा के लिए इस दुनिया से चले गये. बाबू साहब के अंतिम समय की चर्चा सालों गांव में होती रही. कैसे तपस्वी व्यक्ति थे वो. कैसे उन्होंने भगवान से साक्षात्कार किया होगा. कैसे उन्होंने अपनी मौत को एक दिन अपने तप के बल पर टाल दिया? ये बात, भले ही सुनने में असंभव जैसी लगती हो, लेकिन सत्य है. ऐसे थे, हमारे गांव के बाबू जी.
बाबू जी का प्रसंग इस वजह से याद आया कि हाल में अभिभावक तुल्य रामवृक्ष बेनीपुरी जी का अचानक निधन हुआ, तो तगड़ा सदमा लगा. उन्होंने अपने पिता व कलम के जादूगर रामवृक्ष बेनीपुरी जी की स्मृतियों को जिस तरह से संजोने का काम किया, वो कोई श्रवण कुमार ही कर सकता है, जिसमें देवतत्व हो. तीन-चार दिन पहले उनके भांजे महंत राजीव रंजन दास जी से बात होने लगी, तो वह बताने लगे कि जिस दिन बेनीपुरी जी का निधन हुआ, उससे एक दिन पहले उन्होंने अपने बेटे को बुला कर कैसे कहा कि तुम लोगों ने मेरी बहुत सेवा की, लेकिन अब मेरे जाने का समय आ गया है. उसके बाद वो 24 घंटे जीवित नहीं रहे. महंत राजीव रंजन दास इससे पहले 23 दिसंबर 2016 का प्रसंग भी बताते हैं, रामवृक्ष बेनीपुरी जी की जयंती थी. हम सब लोग जयंती समारोह में शामिल होने के लिए बेनीपुर गांव गये हुये थे. महेंद्र जी भी वहां थे, लेकिन महंत जी बांध पर पूर्व केंद्रीय मंत्री रघुवंश प्रसाद सिंह का इंतजार कर रहे थे. उनके आने में थोड़ा बिलंब हो रहा था, सो हम लोगों की वहां मुलाकात नहीं हो सकी थी, लेकिन जब रघुवंश बाबू बांध पर पहुंचे, तो बागमती पार करके महंथ जी उनके साथ बेनीपुर गांव पहुंचे थे. कहने लगे कि वहां बात हो रही थी. इसी बीच महेंद्र जी कहने लगे कि ये आखिरी बार हम बाबू जी (बेनीपुरी जी ) की जयंती में शामिल होने आये हैं. अगले साल हम नहीं होंगे.
महंत जी बताते हैं कि महेंद्र जी जो बात कह रहे थे वो इतनी जल्दी सत्य हो जायेगी, इसके बारे में हमने कभी सोचा नहीं था, लेकिन उन्हें इसका आभास रहा होगा. ये सुनने के बाद लगा कि हम लोग चाहे, जो सोंचे या कहें, लेकिन समाज में हम लोगों के बीच ऐसे लोग हैं, जो ऋषितुल्य हैं. सामाज में रहते हुये अपनी सरलता सो छाप छोड़ते रहते हैं. हम खुद को सौभाग्यशाली समझते हैं कि हमें ऐसे लोगों से मिलने और उन्हें देखने-सुनने का मौका मिला.
गांव के लोग बताते कि वो बिना पढ़े हुये चीनी मिल की मशीनों के इंजीनियर थे. चंपारण से लेकर देहरादून तक चीनी मिल की मशीनों को बनाने के लिए जाते थे. गांव-जवार में जब कोई लड़का बड़ा होता, तो उसकी नौकरी के लिए अभिभावक बाबू साहब के पास जाते थे. बाबू साहब भी लोगों को निराश नहीं करते थे. यथा शक्ति, इलाके के दर्जनों लोगों को विभिन्न चीनी मिलों में काम पर लगवा दिया. ऐसे लोग हमारे बड़े होने तक काम कर रहे थे. अब वो लोग भी बूढ़े हो चले हैं. कई परिवार तो देहरादून में ही बस गये. पीढ़ियाँ बदलीं, लेकिन चीनी मिल में काम करने का सिलसिला अभी तक चल रहा है. इसे हम बाबू साहब का प्रताप ही कह सकते हैं.
वो फागुन का महीना ही था, लगभग 35 साल पहले. होली का त्योहार आनेवाला था. गांव में चर्चा हुई कि बाबू साहब की तबियत अब ज्यादा खराब है. उन्होंने बिस्तर पकड़ लिया था. बहुत कम बोल पाते थे. लोगों को देखते और इशारों में ही बात करते थे. बताते हैं कि होली के एक दिन पहले उनकी तबियत कुछ ठीक हुई, तो घर के लोगों को उम्मीद बंधी. होली का दिन अच्छे से बीता, लेकिन अगली सुबह उन्होंने अपने बेटे को बुलाया और कहा कि हमको कल ही जाना था, लेकिन हमने मना कर दिया कि हमारे बच्चों को त्योहार खराब हो जायेगा. इसलिए हम आज चले जायेंगे. ये सुनने के बाद उनके बेटे ने कहा कि कैसी बातें कर रहे हैं बाबू जी. हम लोग हैं, आप हमको छोड़ कर ऐसे नहीं जा सकते हैं, लेकिन बाबू साहब उस दिन उठे. नित्य क्रिया की. पूजा शुरू की और बिस्तर पर लेटे-लेटे ही राम-नाम लेने लगे. दिन का खाना खाया और उसके बाद सदा के लिए इस दुनिया से चले गये. बाबू साहब के अंतिम समय की चर्चा सालों गांव में होती रही. कैसे तपस्वी व्यक्ति थे वो. कैसे उन्होंने भगवान से साक्षात्कार किया होगा. कैसे उन्होंने अपनी मौत को एक दिन अपने तप के बल पर टाल दिया? ये बात, भले ही सुनने में असंभव जैसी लगती हो, लेकिन सत्य है. ऐसे थे, हमारे गांव के बाबू जी.
बाबू जी का प्रसंग इस वजह से याद आया कि हाल में अभिभावक तुल्य रामवृक्ष बेनीपुरी जी का अचानक निधन हुआ, तो तगड़ा सदमा लगा. उन्होंने अपने पिता व कलम के जादूगर रामवृक्ष बेनीपुरी जी की स्मृतियों को जिस तरह से संजोने का काम किया, वो कोई श्रवण कुमार ही कर सकता है, जिसमें देवतत्व हो. तीन-चार दिन पहले उनके भांजे महंत राजीव रंजन दास जी से बात होने लगी, तो वह बताने लगे कि जिस दिन बेनीपुरी जी का निधन हुआ, उससे एक दिन पहले उन्होंने अपने बेटे को बुला कर कैसे कहा कि तुम लोगों ने मेरी बहुत सेवा की, लेकिन अब मेरे जाने का समय आ गया है. उसके बाद वो 24 घंटे जीवित नहीं रहे. महंत राजीव रंजन दास इससे पहले 23 दिसंबर 2016 का प्रसंग भी बताते हैं, रामवृक्ष बेनीपुरी जी की जयंती थी. हम सब लोग जयंती समारोह में शामिल होने के लिए बेनीपुर गांव गये हुये थे. महेंद्र जी भी वहां थे, लेकिन महंत जी बांध पर पूर्व केंद्रीय मंत्री रघुवंश प्रसाद सिंह का इंतजार कर रहे थे. उनके आने में थोड़ा बिलंब हो रहा था, सो हम लोगों की वहां मुलाकात नहीं हो सकी थी, लेकिन जब रघुवंश बाबू बांध पर पहुंचे, तो बागमती पार करके महंथ जी उनके साथ बेनीपुर गांव पहुंचे थे. कहने लगे कि वहां बात हो रही थी. इसी बीच महेंद्र जी कहने लगे कि ये आखिरी बार हम बाबू जी (बेनीपुरी जी ) की जयंती में शामिल होने आये हैं. अगले साल हम नहीं होंगे.
महंत जी बताते हैं कि महेंद्र जी जो बात कह रहे थे वो इतनी जल्दी सत्य हो जायेगी, इसके बारे में हमने कभी सोचा नहीं था, लेकिन उन्हें इसका आभास रहा होगा. ये सुनने के बाद लगा कि हम लोग चाहे, जो सोंचे या कहें, लेकिन समाज में हम लोगों के बीच ऐसे लोग हैं, जो ऋषितुल्य हैं. सामाज में रहते हुये अपनी सरलता सो छाप छोड़ते रहते हैं. हम खुद को सौभाग्यशाली समझते हैं कि हमें ऐसे लोगों से मिलने और उन्हें देखने-सुनने का मौका मिला.
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