बुधवार, 15 मार्च 2017

क्या हम इनसे प्रेरणा नहीं ले सकते!

बहुत पुराना प्रसंग नहीं है. 2014 की बात है, तब भी अमर शहीद जुब्बा सहनी के परिजनों का मामला सामने आया था. परिवार के इकलौते कमाऊ सदस्य मुनिया के बेटे ने आत्महत्या कर ली थी. वो घर बनाने का काम करता था, लेकिन उससे इतने पैसे नहीं मिलते थे कि परिवार की दो जून की रोटी के साथ बच्चों को पढ़ाये और उनकी जरूरतें पूरी कर सके. देखा बच्ची बड़ी हो रही है, लेकिन उसकी ऐसी सामथ्र्य नहीं थी कि वो उसके हाथ पीले कर सकता. बताते हैं कि लोकलाज के डर से उसने फांसी लगा ली.
बात मुनिया की पोती की शादी की आयी, तब भी प्रभात खबर में खबर छपी. समाज के लोग आगे आये. मदद की और मुनिया की पोती की शादी हुई. ये खबर आयी, तो मुङो भी लगा कि शहीद के परिजनों की मदद होनी चाहिये. खबर छपने के अगले दिन शहर में व्यवसाय करनेवाले कुछ युवा मेरे पास आये कहने लगे कि हम परिवार की मदद करना चाहते हैं. हम कुछ कपड़े और पैसे उन्हें देना चाहते हैं. साथ ही वो लोग जो कहेंगे, हम मदद करेंगे. हमने जानकारी लेने के बाद उन लोगों का फोन नंबर उन्हें उपलब्ध करा दिया, जो शादी की तैयारियां देख रहे थे. मुजफ्फरपुर से युवाओं ने उस नंबर पर संपर्क साधा, तो उन लोगों ने कहा कि शादी के लिए जितनी मदद की जरूरत थी. वो मिल गयी है. अब और मदद नहीं चाहिये. आप लोग मदद देना चाहते हैं. इसके लिए धन्यवाद!
क्या हम आप ये सोच सकते हैं. इतनी सरलता. जिस परिवार में दो जून खाने के लिए रोटी नहीं है. वो ऐसा कर सकता है. क्या उन्हें अच्छे कपड़े पहनने की चाह नहीं लगती होगी? लेकिन उन्होंने कितनी सरलता से ना कर दिया. इसके बारे में हमें हाल में तब पता चला, जब मुनिया की तबियत बिगड़ी और फिर उसकी खबर को हम लोगों ने छापा, तो फिर उन युवाओं में से एक ने संपर्क किया और कहा कि हम मदद करना चाहते हैं. हमने पूछा, आप लोगों ने पिछले बार भी मदद की थी, तो वो कहने लगा कि उन्होंने मदद ली कहां थी. उन्होंने तो इनकार कर दिया था.

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