शनिवार, 18 मार्च 2017

ऐसा रिस्पांस समाज के अंतिम व्यक्ति तक मिले, तब मानें सरकार!

मित्र विकास ठाकुर का सुबह फेसबुक पोस्ट पढ़ा. बड़ा सुकून देनेवाला लगा. उन्होंने लिखा था कि रात में दिल्ली से गरीबरथ एक्सप्रेस से चले. बच्चे के लिए दूध लेकर चले थे, लेकिन खराब हो गया. रेल मंत्रलय को ट्वीट किया और अगले स्टेशन तक दूध की व्यवस्था हो गयी. भूख से रो रहे बच्चे को सुकून मिला. इस मामले में लगा कि व्यवस्था काम कर रही है. इसके लिए सरकार और रेल मंत्रलय को बधाई भी देना चाहिये, लेकिन इसके साथ ही सवाल ये भी है कि अगर ऐसी ही व्यवस्था समाज के अंतिम व्यक्ति तक को मिले, तब समङिाये कि सरकार काम कर रही है.
पंचायत से लेकर बीडीओ, सीओ व तमाम अन्य सरकारी कार्यालयों तक जरूरतमंद चक्कर लगाते रहते हैं, लेकिन उनका काम नहीं होता है. योजनाओं के नाम पर तो अपने यहां झड़ी लगी है. हर चीज के लिए एक नहीं कई योजनाएं हैं, लेकिन उनका लाभ लेने की बारी आती है, तो किस तरह से दौड़ाया जाता है. मेरा व्यक्तिगत अनुभव है कि प्राकृतिक आपदा के समय सरकार फसल क्षति देती है. मैं मुजफ्फरपुर के कई प्रखंडों में घूमा हूं. किसानों से बात की है. ज्यादातर का यही कहना होता है कि हम लोग सरकारी मदद नहीं लेते हैं. इसके लिए कौन लगातार बीडीओ कार्यालय के चक्कर लगाये, जिनती बार दौड़ना पड़ता है. उतने अगर हम खेत पर मेहनत करेंगे, तो अगली फसल अच्छी हो जायेगी. जब भी कोई किसान अनुदान या नुकसान की भरपाई के लिए संबंधित कार्यालय जाता है, तो कभी बैठक की बात कह कर वापस कर दिया जाता है. कभी बताया जाता है कि साहब क्षेत्र के दौरे पर हैं और कभी कह दिया जाता है कि डीएम साहब की बैठक में भाग लेने के लिए जिला मुख्यालय गये हैं.
ऐसे जवाब सुन कर क्या कोई सही किसान बीडीओ ऑफिस के चक्कर लगाता रहेगा. जवाब शायद नहीं में होगा, क्योंकि किसान के पास इतना समय नहीं होता है कि वो खेती का काम छोड़ कर बीडीओ ऑफिस के चक्कर लगाता रहे. अभी अपने यहां धान खरीद का काम चल रहा है. पैक्सों को इसका जिम्मा दिया गया है, लेकिन हालत क्या है. मुजफ्फरपुर जिले की बात करें, तो दस फीसदी किसानों का भी रजिस्ट्रेशन नहीं हो पाया है. ये हाल तब है, जब धान खरीद का समय पूरा होने में मात्र 12 दिन बाकी बचे हैं. एसे में अंदाजा लगाया जा सकता है कि धान खरीद से किसको लाभ मिलेगा? मुङो लगता है कि उन किसानों को तो नहीं, जिन्होंने खून-पसीना बहा कर फसल तैयार की, क्योंकि फसल तैयार करने के दौरान इतना खर्च हो जाता है कि कटाई के बाद उन पर उपज को बेचने का दबाव रहता है, ताकि और काम कर सकें.
सवाल ये है कि यह स्थिति कब बदलेगी? क्या इसकी ओर कोई संवेदनशील होकर सोच रहा है? क्या वो अधिकारी जिन्हें जनता की सेवा के लिए सरकार भारी भरकम वेतन देती है. वो खुद को इसके लिए तैयार कर पाये हैं कि समाज के अंतिम व्यक्ति तक को जब कोई परेशानी होगी, तो वह उसकी मदद को आयेंगे. उसे समय पर मदद मिलेगी. अगर गंभीरता से हम लोग विचार करेंगे, तो शायद इसका भी उत्तर नहीं में ही मिलेगा.
ऐसे में हम तो यही कह सकते हैं कि यात्री सुविधाओं को लेकर जिस तरह से रेल मंत्रलय की ओर से हाल के दिनों में पहल की जा रही है, उससे उम्मीद की किरण जरूर दिखायी देती है. अगर तमाम महकमे चाहें, तो परेशानी सामने आने पर उसका समाधान कर सकते हैं. मुङो लगता है कि इससे अन्य विभागों को भी नसीहत लेने की जरूरत है, तब एक काम के लिए लोगों को बीडीओ, सीओ व अन्य सरकारी ऑफिसों में बार-बार चक्कर नहीं लगाना पड़ेगा.

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