मंगलवार, 14 मार्च 2017

नहीं सुनायी देती..बाबा हरिहरनाथ, सोनपुर में रंग लूटे..की गूंज


पेशे से शिक्षक रहे ब्रह्मानंद ठाकुर जी सामाजिक कार्यकर्ता भी हैं, जो हर मुद्दे पर बेबाकी से अपनी राय रखते हैं. रिटायरमेंट के बाद गांव में रह कर समाजसेवा और पत्रकारिता को समर्पित हैं. अपने बचपन की होली की यादें, उन्होंने प्रभात खबर के साथ शेयर कीं. 

ऐन होली के मौके पर भी गांवों में उदासी छायी है. कहीं कोई चहल-पहल नहीं. एक सन्नाटा- सा पसरा हुआ है आसपास में. सोचता हूं, हमारे त्योहार पर कहीं ग्लोबलाइजेशन का असर तो नहीं. आखिरकार कहां गुम हो गयी होली की उमंग. कैसे फीके हुये इसके रंग! ये सब सोचते हुये लौट जाता हूं अतीत में. हां, अतीत में लौटना, थोड़ी देर के लिए सुकून तो देता ही है. यह जानते हुये भी कि बीता लौटकर वापस नहीं आता है. हमारी जैसी उमर के लोग अतीतजीवी हो ही जाते हैं और अकसमात मुंह से निकल पड़ता है..कितने अच्छे थे वो दिन. तो बात उन दिनों की है, जब हम 10-12 साल के थे. मतलब अभी से 50 साल पहले, तब होली की धमक वसंत पंचमी के साथ ही सुनायी देने लगती थी. डंप पर नया चाम मढ़ा लिया जाता था. बक्से में बंद झाल बाहर निकाल ली जाती और रात में होली गाने का सिलसिला हमारे गांव में शुरू हो जाता था. कमोबेश हर गांव में ऐसा होता था. इसकी पूर्णाहुति होली के दिन चैत प्रतिपदा की रात गांव की सीमा पर बूढ़ी गंडक के किनारे स्थापित महादेव मंदिर पर..बम-बम भोले हो लाल, कहवां रंगोले पगड़िया. बाबा हरिहरनाथ सोनपुर में रंग लूटे..जैसे होली गीतों के साथ होती थी.
उस समय हमारे गांव के ज्यादातर बुजुर्गो की होली के गीत और जोगीरा पर अद्भुत पकड़ होती थी. उनके पास गीतों, कथाओं का खजाना हुआ करता था. उन्हीं से चलकर ये परंपरा, तब की नयी पीढ़ी तक पहुंची, जो आज बुजुर्ग होकर हासिये पर आ गयी है. अब वो न पहले वाले लोग बचे और न उनकी परंपरा रही. वंसत पंचमी से ही होली गाने की परंपरा के पीछे, जैसा कि तब लोग कहते थे कि चूंकि साल भर बाद ये त्योहार आता है, इसलिए जिंदगी की जद्दोजहद में अधिकांश गीत लोग भूल चुके होते हैं. इसलिए ये समय उनके अभ्यास का समय माना जाता था. रात में होली गानेवाली मंडली का जुटान किसी एक के दरवाजे पर होता था. गांव के लोग उसमें जुटते. 10-11 बजे रात तक होली गायी जाती, उसी समय यह निर्णय भी हो जाता था कि कल किसके दरवाजे पर जुटान होना है. एक महीने तक चलनेवाले इस कार्यक्रम में बड़े उत्साह से लोग भाग लेते थे. असली मजा हम लोगों को संवत (होलिका दहन के दिन) और उसके कल होकर होली के दिन आता था, तब आज की तरह गांव में खाना बनाने के लिए एलपीजी नहीं थी. इसलिए जलावन की कमी नहीं थी. लोग सालभर के लिए जलावन का जुगाड़ रखते थे. खेती भी वैसी ही थी और बाग बगीचे भी, जहां से पर्याप्त जलावन मिल जाता था. होलिका दहन के लिए जलावन जुटाने की जिम्मेवारी लकड़ो की टोली की हुआ करती थी.
हमारा गांव उस समय लगभग 70 घरों का था. दो-चार घरों से कुछ लड़के निकलते. किसी एक दरवाजे पर संवत के लिए जलावन मांगते, तो उस घर का एक लड़का भी साथ हो लेता था. इसी तरह लड़कों की टोली आगे बढ़ती रहती और इस अभियान में 30-40 लड़के जमा हो जाते थे. सभी एक साथ घूमते हुये जलावन एकत्र करते. उसका जगह-जगह ढेर लगाते जाते. जमा करने का काम जब पूरा हो जाता, तब उसे ढो कर तय स्थान पर पहुंचा दिया जाता था. लड़क थे, सो बैलगाड़ी हांकने, तो आता नहीं था. किसी दरवाजे से बैलगाड़ी (बिना बैल) मांग लेते. कविवर हरिवंश राय बच्च की कविता..युग का जुआ..की तर्ज पर दो मजबूत कद-काठी वाले बच्चे बैलगाड़ी का जुआ कंधे पर रख कर खीचते हुये आगे बढ़ते जाते और इस तरह जलावन को निर्धारित जगह पर पहुंचा दिया जाता.
हम लड़कों में अनुशासन इतना था कि जलावन मांगने में कहीं भी और कभी भी जोर-जबरदस्ती नहीं की जाती थी. सभी गांव वाले चाचा-बाबा होते थे. गांव से इकट्ठा जलावन का ढेर इतना हो जाता था कि उसे सिर उठा कर देखना पड़ता था. होलिका दहन का समय अक्सर देर रात में पड़ता था. हम में से ज्यादातर बच्चे सोये रहते थे, जिसकी वजह से जलावन की ढेर को इकट्ठा करने के बाद भी हम उसे जलते हुये नहीं देख पाते थे. तब यह मान्यता थी जिसके मां-पिता दोनों की मौत हो चुकी हो, वही संवत को जलायेगा. सो हमारे गांव के बिंदा चाचा, पूरे जीवन संवत जलाते रहे. लोग अपने घरों से पतली कमाची में पांच बड़ी को गूथ कर ले जाते थे और उसको जलती हुयी संवत में डालते थे. आज तक नहीं जान सका कि ऐसा करने का क्या कारण रहा होगा. संवत जलते ही डंप-झाल पर होली गाने का सिलसिला शुरू हो जाता था. इस तरह होली गीत से आधी रात की निस्तब्धता भंग होती थी, लेकिन लगता बड़ा सुखद था.
होली का दिन बड़ा उत्साह लेकर आता था. दिन चढ़ते ही कादो-माटी खेलने के लिए होड़ लग जाती थी, जो देखते ही बनता था. कीचड़ से तब-बतर लड़कों को पहचानना मुश्किल होता था. उस माहौल में अनुशासन न जाने कहां गायब हो जाता. उसका पता ही नहीं चलता, जो भी मिल जाये, उसका स्वागत कीचड़ से होता. कीचड़ न मिले, तो सड़कों की धूल ही सही. उनकी को इस दिन सामत ही आ जाती, जो उस दिन ससुराल में होते. बड़े प्रेम से उन्हें पकड़ कर गोबर-माटी से नहलाया जाता था और गांव के लोग खूब मजा लेते थे. मुङो याद नहीं इस मौके पर कभी किसी से कोई झगड़ा हुआ हो. कैसा प्रेम, भाईचारा और सौहाद्र्र था तब!
दोपहर बाद अचानक ये खेल स्वेच्छा से बंद हो जाता था. दोपहर के बाद नहाने के लिए हम लोग बूढ़ी गंडक की ओर रुख करते थे. स्नान के बाद होली गायन और रंग गुलाल लगाने का सिलसिला फिर से शुरू होता था. गांव भर बड़े बुजुर्ग होली गाने के मास्टर होते थे. उनमें से अब एक-दो लोग ही जीवित हैं. उन पुराने दिनों की याद अपने जेहन में संजोये. गांव में होली गाने की शुरुआत महावीर स्थान से होती थी. इसके बाद बारी-बारी से सभी के दरवाजे पर जाते थे. होली गाने की शुरुआत किसी गीत से हो, लेकिन अंत मंगलकारी गीत से होता था. ये क्रम देर रात तक चलता था और रात में शिवमंदिर पर जाकर पूरा होता था.

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