शुक्रवार, 3 मार्च 2017

साहित्य का श्रवण कुमार चला गया

कलम के जादूगर रामवृक्ष बेनीपुरी जी के सबसे छोटे बेटे डॉ महेंद्र बेनीपुरी नहीं रहे. सूचना मिली, तो सहसा विश्वास नहीं हुआ. 23 दिसंबर को बाबू जी (रामवृक्ष बेनीपुरी) की जयंती पर बेनीपुर में मुलाकात हुई थी. हंसता हुआ चेहरा. कहने लगे, इस बार तबियत की वजह से हमें आने से बच्चे रोक रहे थे, लेकिन हम चले आये. हमारी बाबू जी को लेकर प्रतिबद्धता है. पांच किताबें, जिनका फिर से प्रकाशन हुआ था, उनका लोकार्पण हुआ. हर साल की तरह जयंती समारोह में राजनीति से लेकर साहित्य जगत की हस्तियां जुटी थीं.
पूर्व केंद्रीय मंत्री रघुवंश प्रसाद सिंह विशेष तौर पर पहुंचे थे, जिनसे डॉ महेंद्र बेनीपुरी को विशेष उम्मीद थी कि वो बाबू जी के सपनों को साकार करने में राजनीति तौर पर आ रही परेशानियों को दूर करवायेंगे. रघुवंश बाबू ने ऐसा करना भी शुरू कर दिया है, लेकिन किसी पता था कि बाबू जी के प्रति समर्पित डॉ महेंद्र बेनीपुरी ऐसे चले जायेंगे. 2016 का जयंती समारोह उनके लिए आखिरी साबित होगा. इससे पहले बाबू जी की पुण्यतिथि पर वंशी पचड़ा (शिवहर) में कार्यक्रम हुआ था, जिसमें बेनीपुरी जी के नाम पर पुस्तकालय खुला था. इसकी शुरुआत करने के विशेष तौर पर गोवा की राज्यपाल डॉ मृदुला सिन्हा आयीं थीं. बड़ा समारोह हुआ. जाने का अवसर मिला था. डॉ महेंद्र बेनीपुरी बहुत प्रसन्न थे, लग रहा था, जैसे कोई बड़ा सपना साकार हो गया है.
बाबू जी की प्रकाशित व अप्रकाशित लगभग एक सौ कृतियों का फिर से प्रकाशन करवाया. उनका लोकार्पण भी हुआ. मुजफ्फरपुर से लेकर नागपुर और गोवा के राजभवन में. डॉ महेंद्र बेनीपुरी से जुड़े डॉ राजेश्वर कहते हैं कि वो साहित्य के श्रवण कुमार थे, जिन्होंने अपने बाबू जी के सपनों को साकार करने में कोई कोर कसर नहीं छोड़ी. वह दिन रात इसी काम में लगे रहते. कैसे बाबू जी ने जो सपने देखे थे, वो पूरा हो सकें. उनके नाम का स्मारक बांध के उस पार बने. बाबू जी बनायी घर रूपी आखिरी निशानी को कैसे संरक्षित किया जाये. रामवृक्ष पुरी की जीवनी लिख रहे डॉ संजय पंकज कहते हैं कि लगता है कि डॉ महेंद्र बेनीपुरी अभी किसी तरफ से आयेंगे और पूछने लगेंगे संजय भाई बाबू जी की जीवनी पर कितना काम हुआ.
बीती 15 फरवरी को डॉ महेंद्र बेनीपुरी ने डॉ संजय पंकज को आखिरी पत्र लिखा था, जिसमें उन्होंने बाबू जी की जीवनी लिखने के लिए 31 मार्च के डेटलाइन तय कर दी थी और इसके बाद फोन करके पूछते और कहते कि इस बीच आपको फेसबुक पर ज्यादा सक्रिय देख रहे हैं. फेसबुक पर कम सक्रिय रह कर काम पूरा कर दो, क्योंकि इसी साल पर 12 अगस्त को मेरे जन्मदिन पर बाबू जी की जीवनी का लोकापर्ण होना है. डॉ पंकज बताते हैं कि बाबू जी की जीवनी का लोकार्पण वो मेरे ही हाथों कराने की बात करते थे. कहते थे कि तुम ही इसके लिए सबसे उपयुक्त व्यक्ति हो.
डॉ महेंद्र बेनीपुरी जी से जुड़े रहे ब्रह्मानंद ठाकुर कहते हैं कि दस दिन पहले बात हुई थी, तब इस साल लोकार्पित रामवृक्ष बेनीपुरी जी की पुस्तकों को लेकर बात हुई थी. हमने कुछ पुस्तकों की मांग की थी, जिस पर डॉ महेंद्र बेनीपुरी जी ने हामी जतायी थी, लेकिन मुङो क्या पता था कि ये बात उनसे आखिरी होगी. उनका जाना बहुत दुख दे रहा है. वो अपने बाबू जी को लेकर जिस तरह से समर्पित रहे. वैसा कौन बेटा करेगा. उनके नाम पर कोई काम मुजफ्फरपुर के साथियों को जरूर करना चाहिये. इसके लिए प्लानिंग हो जानी चाहिये, ताकि काम की शुरुआत हो.
पांच साल पहले को वो दिन मुङो बहुत याद आ रहा है, जब डॉ महेंद्र बेनीपुरी जी से पहली बार बेनीपुर गांव में ही मुलाकात हुई थी. मौका रामवृक्ष बेनीपुरी के जयंती समारोह का था. पूरे परिवार के साथ आये थे. बहुत आत्मीयता से मिले थे. बाबू जी की स्मृतियों को लेकर अपनी चिंताएं जाहिर करने लगे. इसके बाद मुजफ्फ रपुर में मुलाकात हुई थी, तो उन्होंने बाबू जी की कई पुस्तकें पढ़ने को दी थी और कहा था कि इन्हें पढ़ोगे, तो बाबू जी को समझ जाओगे. इसके बाद जब भी आते, तब बात और मुलाकात होती थी. हर बार वो ऊर्जा व उत्साह से भरे दिखते. कोई कुछ कहता, तो कहते थे कि मुङो अभी बाबू जी के साहित्य पर काम करना है. कुछ दिन पहले फेसबुक पर भी लिखा था कि बाबू जी की जीवनी पर काम करना है. इस वजह से कुछ दिन फेसबुक से दूर रहूंगा.
सीतामढ़ी के सामाजिक कार्यकर्ता रामशरण अग्रवाल भी डॉ महेंद्र बेनीपुरी से जुड़े थे. हर साल बेनीपुर आते हैं. वो कहते हैं कि भले ही डॉ महेंद्र बेनीपुरी अब हमारे बीच में नहीं हैं, लेकिन उनकी जीवंतता हमेशा महसूस होती रहेगी. डॉ महेंद्र बेनीपुरी का जीवन देखा जाये, तो पूरी तरह से अपने बाबू जी के प्रति समर्पित थे. बाबू जी की इच्छा पर ही इन्होंने मेडिकल की पढ़ाई छोड़ कर जीव विज्ञान पढ़ा था और शहर के कॉलेज में ही प्रोफेसर बने. पहले एलएस और फिर आरडीएस, जहां से रिटायर हुये थे. अभी वह अपने बेटे के साथ फरीदाबाद में रह रहे थे. भले ही महानगर में रह रहे थे, लेकिन उनकी चिंता गांव को लेकर थी. जिससे भी बात होती थी. वह गांव के बारे में पूछते थे. बाबू जी के स्मारक की दिशा में क्या काम हो रहा है. इसका जिक्र करते थे.

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