नील किसानों की समस्या को लेकर सौ साल पहले बापू का चंपारण सत्याग्रह हुआ, जो अंगरेजों के दमनकारी नीतियों के खिलाफ ऐसा कारगर हुआ कि ब्रिटिश राज की नींव हिल गयी. आंदोलन के तीस साल के अंदर ही अंगरेजों ने भारत छोड़ दिया. स्वतंत्र भारत में नयी सरकार बनी. उसे देश को आगे बढ़ाने का रास्ता चुनना था. सरकार ने बड़ी परियोजनाओं के सहारे आगे बढ़ने का फैसला लिया और कई बड़े उद्योगों की स्थापना हुई, लेकिन इस सब कवायद में अपने देश की रीढ़ समझी जानेवाली कृषि कहीं पीछे छूट गयी.
कृषि पर आधारित चीनी मिलें बंद होने लगीं. चंपारण के गांधीवादी विनय कुमार सिंह कहते हैं कि पहले बिहार में 28 चीनी मिलें थीं. देश आजाद हुआ, तो इनकी संख्या 32 हो गयी, लेकिन अब ज्यादातर मिलें बंद हैं, जो चल रही हैं. वह भी घाटे में. ऐसे में हम आगे कहां बढ़े हैं. गन्ने की खेती चौपट हो गयी है. गेंहू-धान की स्थिति के बारे में सबको पता ही है. सरकार की ओर से क्रय केंद्र खोले जाने की बात होती है, लेकिन असली किसानों का इनका लाभ नहीं मिलता है. किसानों को बिचौलियों के हाथों ही अपना अनाज बेचना पड़ता है. रही बात सब्जी की खेती की, तो इसमें फायदा है, लेकिन किसान पूरे खेत में सब्जी ही नहीं बो सकता है. उसे अन्य फसलें भी तो चाहिये.
15 अप्रैल से गेंहू खरीद का समय शुरू हो गया है, लेकिन तय समय पर कहीं भी क्रय केंद्र खुलने का सामाचार नहीं आया है. यह पहली बार नहीं हो रहा है. ऐसा पहले भी होता रहा है. अमूनन क्रय केंद्र तब काम करना शुरू करते हैं, जब किसान अपने उत्पाद का सौदा बिचौलियों से कर चुका होता है. हमारी व्यवस्था की बड़ी खामियों में एक यह भी है. सरकार समर्थन मूल्य 14 सौ तय करती है, तो किसान को बिचौलिये 800-900 में ही उत्पाद बेचने को मजबूर करते हैं. मरता क्या न करता की तर्ज पर किसान जान-बूझ कर इनके चंगुल में फंसता है, क्योंकि उसके पास इसके अलावा कोई और चारा नहीं होता है.
चंपारण शताब्दी वर्ष पर यह सवाल उठाना इसलिए भी लाजमी हो जाता है, क्योंकि गांधी जी ने किसानों की लड़ाई ही लड़ी थी और उसमें जीत हासिल की थी, लेकिन आज किसान यही लड़ाई आजाद देश में व्यवस्था के खिलाफ लड़ रहे हैं. वह पानी, खाद से लेकर समर्थन मूल्य तक से जूझ रहे हैं. उन्हें इसका विकल्प सरकार की ओर से की बनायी जानेवाली पॉलिसी में दिखता है. किसान कहते हैं कि शताब्दी समारोह पर केंद्र व राज्य सरकार को मिल कर एक ऐसी स्कीम चलानी चाहिये, जिसकी पहुंच आम किसानों तक हो, ताकि उन्हें उसका सीधा लाभ मिल सके. चंपारण का किसान कहते हैं कि हम अब भी खुद को ठगा महसूस कर रहे हैं, क्योंकि सरकारों की ओर से शताब्दी वर्ष पर केवल कार्यक्रमों का आयोजन हो रहा है. हम लोगों के लिए कोई रोडमैप नहीं दिया जा रहा है, जिससे कि हमारी फायदा हो. अगर सरकार इसको अभी नहीं कर सकती है, तो उसे इस पर खुल कर बोलना चाहिये.
कृषि पर आधारित चीनी मिलें बंद होने लगीं. चंपारण के गांधीवादी विनय कुमार सिंह कहते हैं कि पहले बिहार में 28 चीनी मिलें थीं. देश आजाद हुआ, तो इनकी संख्या 32 हो गयी, लेकिन अब ज्यादातर मिलें बंद हैं, जो चल रही हैं. वह भी घाटे में. ऐसे में हम आगे कहां बढ़े हैं. गन्ने की खेती चौपट हो गयी है. गेंहू-धान की स्थिति के बारे में सबको पता ही है. सरकार की ओर से क्रय केंद्र खोले जाने की बात होती है, लेकिन असली किसानों का इनका लाभ नहीं मिलता है. किसानों को बिचौलियों के हाथों ही अपना अनाज बेचना पड़ता है. रही बात सब्जी की खेती की, तो इसमें फायदा है, लेकिन किसान पूरे खेत में सब्जी ही नहीं बो सकता है. उसे अन्य फसलें भी तो चाहिये.
15 अप्रैल से गेंहू खरीद का समय शुरू हो गया है, लेकिन तय समय पर कहीं भी क्रय केंद्र खुलने का सामाचार नहीं आया है. यह पहली बार नहीं हो रहा है. ऐसा पहले भी होता रहा है. अमूनन क्रय केंद्र तब काम करना शुरू करते हैं, जब किसान अपने उत्पाद का सौदा बिचौलियों से कर चुका होता है. हमारी व्यवस्था की बड़ी खामियों में एक यह भी है. सरकार समर्थन मूल्य 14 सौ तय करती है, तो किसान को बिचौलिये 800-900 में ही उत्पाद बेचने को मजबूर करते हैं. मरता क्या न करता की तर्ज पर किसान जान-बूझ कर इनके चंगुल में फंसता है, क्योंकि उसके पास इसके अलावा कोई और चारा नहीं होता है.
चंपारण शताब्दी वर्ष पर यह सवाल उठाना इसलिए भी लाजमी हो जाता है, क्योंकि गांधी जी ने किसानों की लड़ाई ही लड़ी थी और उसमें जीत हासिल की थी, लेकिन आज किसान यही लड़ाई आजाद देश में व्यवस्था के खिलाफ लड़ रहे हैं. वह पानी, खाद से लेकर समर्थन मूल्य तक से जूझ रहे हैं. उन्हें इसका विकल्प सरकार की ओर से की बनायी जानेवाली पॉलिसी में दिखता है. किसान कहते हैं कि शताब्दी समारोह पर केंद्र व राज्य सरकार को मिल कर एक ऐसी स्कीम चलानी चाहिये, जिसकी पहुंच आम किसानों तक हो, ताकि उन्हें उसका सीधा लाभ मिल सके. चंपारण का किसान कहते हैं कि हम अब भी खुद को ठगा महसूस कर रहे हैं, क्योंकि सरकारों की ओर से शताब्दी वर्ष पर केवल कार्यक्रमों का आयोजन हो रहा है. हम लोगों के लिए कोई रोडमैप नहीं दिया जा रहा है, जिससे कि हमारी फायदा हो. अगर सरकार इसको अभी नहीं कर सकती है, तो उसे इस पर खुल कर बोलना चाहिये.
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