रविवार, 9 अप्रैल 2017

मैं उस मुजफ्फरपुर में रहता हूं..

मैं उस मुजफ्फरपुर में रहता हूं, जहां चंपारण यात्र के क्रम में मोहनदास करमचंद गांधी पहुंचे थे. तारीख 10 अप्रैल 1917 थी. अब कैलेंडर पूरा एक सौ साल आगे निकल चुका है. गांधी जी तो नहीं हैं, लेकिन उनके बताये रास्ते हैं. जिन पर चलने की बात हमारे बुजुर्ग करते हैं. बहुत ऐसे हैं, जो अभी उस रास्ते पर चल भी रहे हैं.
कल फिर से बघ्घी सजेगी. गांधी जी जिस बेला में मुजफ्फरपुर शहर पहुंचे थे. उसी बेला में उस यात्र को फिर से जिया जायेगा. तैयारियां चल रही हैं. प्रशासन से लेकर आम लोगों में उत्साह है, वो देखना और जानना चाहते हैं कि इतिहास का वह महत्वपूर्ण क्षण कैसे रहा होगा, जिसमें देश को आजाद कराने की नींव पड़ी थी. हमें भी इंतजार है. हम भी गवाह बनना चाहते हैं, उस पल के, जब गांधी जी आयेंगे और हमारे देश की तकदीर और तस्वीर बदलने की बात कहेंगे, लेकिन हम अब इससे कहीं आगे बढ़ चुके हैं.
हमारी तमन्ना है कि गांधी जी के जरिये यह भी बताया जाये कि आज हम जिस रास्ते पर चल रहे हैं. वह हमें कहां ले जायेगा. क्यों ये सवाल उन लोगों से सुनने को मिलता है कि समाज में गिरावट आयी है, जो गांधी जी को अपना सब कुछ मानते हैं. इससे तो साफ लगता है कि सौ सालों में हम बहुत बदल गये हैं? हम एक-दूसरे को देख और सुहा नहीं रहे हैं. भाईचारे में कमी की बात हो रही है. गांधी जी ने तब जिस शिक्षा में समाज के उन्नति की राह देखी थी. वह तो अब बड़े पैमाने पर मिल रही है. इसके बाद भी हम इतने छोटे क्यों होते जा रहे हैं. यह सवाल हमें सालता है, जब भी किसी से बात करता हूं, तो कहता है कि हम गांधी जी के रास्ते पर नहीं चल रहे हैं.
सौ सालों में भले ही बुनियादी सवाल बदल गये हैं, लेकिन मुद्दा अब भी शिक्षा बनी हुई है. अब गुणवत्तापूर्ण शिक्षा की बात हो रही है, तो क्या हमने अपनी शिक्षा के मूल्यों को इतना गिरा लिया है, जो अब उसमें गुणवत्ता डाले जाने की बात की जा रही है. ऐसे में उन किताब लिखनेवालों और उन शिक्षकों का क्या होगा? जिनसे समाज बदलाव की आस लगाये हुये है और वो खुद को समाज के बदलाव का वाहक भी बताते हैं? क्या हमें जो किताबें पढ़ाई जा रही हैं, उनमें कहीं कुछ कमी है या फिर उन्हें पढ़ानेवालों में? इसका जवाब जिनती जल्दी देश और समाज को मिल सके, मुङो लगता है कि उतना ही अच्छा होगा.
खैर, मैं कहां ऐसे सवालों में उलझ गया. अभी शुभ अवसर है. सौ साल बाद उन क्षणों को जीने का, जिन्हें हमारे पूर्वजों ने अविस्मणीय बना दिया. शायद, उन्हीं की बदौलत मैं आज यह लिख पाने की हिम्मत भी जुटा पा रहा हूं. जय हिंद!

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