सोमवार, 27 फ़रवरी 2017

जब गवाही देने के लिए कठघरे में खड़े हुये भगवान....और जज साहब बन गये बाबा

चपरासी बोला, वही बताओ.
मंदिर पर चपरासी पहुंचा, तो पुजारी बाहर बैठे थे. चापरासी ने पूछा, रघुनाथ जी का मंदिर यही है.
पुजारी ने कहा- हां.
चपरासी ने सम्मन आगे बढ़ा दिया, लो ये. पुजारी जी समझ गये. मन ही मन सोचने लगे कि जब भगवान ने मंगा ही लिया है, तो हम क्यों मना करें. हस्ताक्षर, पुजारी ने कर दिये.
चपरासी समझा, यही रघुनाथ जी होंगे.
पुजारी जी ने सम्मन रघुनाथ जी के चरणों में रख दिया और आंखों में आंसू भर कर बोले प्रभु. आपको पोशाक कई बार आयी होगी. भोग लगाने के लिए तरह-तरह के पदार्थ आये होंगे. अभूषण कई बार भक्त लेकर आये होंगे, लेकिन सम्मन पहली बार आया होगा. पर भक्त जो न करें, सो थोड़ा है.
प्रभु उस दीन का आपके अलावा और कोई नहीं है. वो आपके अलावा किसी को जानता ही नहीं है. उसकी लाज आपके हाथ में है.
पुजारी ने केवट से कहा- तुमने क्यों लिखा दिया, रघुनाथ जी का नाम? केवट बोला कोई झूठ लिखा दिया है. हमारे रघुनाथ जी सदा हमारे साथ थे.
केवट तो यही कहे..हरि बिन संकट कौन निवारे..साधन हीन मलीन, दीन मैं.
 जाऊं केहि के द्वारे. या अनाथ की लाज आज, रघुनाथ जी हाथ तुम्हारे.
हरि बिन संकट कौन निवारे.
दीन दयाल सुनी जब ते, तब ते मन में कछु ऐसी बसी है. देऊ कहां और जाऊं कहा, बस तेरी ही नाम की फेट कसी है. तेरो ही आसरो, बस एक मलूक. नहीं प्रभु सो कोई औरो जसी है.
ये हो मुरारी पुकारी कहौं, अब मेरी हंसी में, तेरी हंसी है. हरि बिन संकट कौन..हरि बिन संकट कौन निवारे.
कहीं नहीं गया केवट, किसी को जानता ही नहीं रामजी के अलावा. तारीख के एक दिन पहले ही केवट से बोले, तुम आ ही जाओ, ताकि समय से पहुंच जाओ.
रघुनाथ जी की, तो रघुनाथ जी ही जानें.
केवट रघुनाथ जी के चरणों प्रणाम करके चला गया.
दूसरे दिन पुजारी जी सुबह जल्दी जगे. भगवान की आरती पूजा की और नया व पहनाया. भोग लगाया. उनको लग रहा था कि आज भगवान पहली बार बाहर जा रहे हैं. कपड़े अच्छे पहनावें. रोन लगे पुजारी जी. भाव की तो बात है.
प्रभु आपको, जो पोशाक अच्छी लगे, वही पहनकर जाना, लेकिन जाना जरूर. उसका कोई नहीं आपके अलावा.
उधर, केवट पहुंचा, सेठ जी भी पहुंच गये.
जज साहब ने पूछा- केवट तुम्हारे गवाह रघुनाथ जी कहां हैं?
केवट ने कहा- साहब, यहीं कहीं होंगे. वह तो सब जगह रहते हैं.
जज साहब फिर केवट की बात समझ नहीं पाये.
चपरासी को आदेश दिया- आवाज लगाओ.
चपरासी ने आवाज लगाना शुरू किया- रघुनाथ हाजिर हों, रघुनाथ हाजिर हों..रघुनाथ हाजिर हों.
तीन बार चपरासी ने ऐसे जो आवाज लगायी, तो उसने देखा कि एक बूढ़ा आदमी हाथ में लकड़ी पकड़े, कमर झुकी हुई. हाथ से इशारा किया.
रघुनाथ हाजिर है, ऐसे तीन नारे जो लगाये हैं.
चाल लटपटी सी एक वृद्ध की झुकी सी देह.
दुपटी फटी सी शीश बांधे, धर धाये हैं.
हाथ माहे छड़ी पड़ी, तुलसी की हिये माल.
माथे पर रोली चारू, चंदन चढ़ाये हैं.
साहब के सामने विनीत चपरासी साथ.
आज रघुनाथ जी गवाह बन आये हैं.
भगवान गवाह बन कर आ गये. जज साहब ने देखा. सेठ जी देख कर चौक गये. ये कौन आ गया.
जज साहब ने पूछा- आप थे वहां.
रघुनाथ जी ने कहा- हां, केवट ने रुपया दिया है.
जज ने पूछा- इसका प्रमाण.
रघुनाथ जी बोले- हां, इन्होंने रसीद भी लिख ली थी. सेठ जी को यहीं रखा जाये. इनके मकान की सामनेवाली बैठक के सामनेवाली दीवार पर तीन आलमारियां हैं. उसकी बीच वाली अलमारी में बही रखी है, 32 नंबर की. उसी में रसीद अभी तक सुरक्षित रखी है.
सर्वातरयामी भगवान से क्या छुप सकता है? सिपाही भेजे गये. बही और रसीद मिल गयी. सेठ जी को दंडित होना पड़ा.
केवट, बाइज्जत बरी हुआ. रघुनाथ जी गायब हो गये, क्योंकि काम तो हो ही गया था.
अब जज साबह ने सोचा, इतने दिन हो गये फैसला सुनाते. पर ऐसा गवाह आज तक नहीं पहुंचा.
केवट से अकेले में पूछा- ये रघुनाथ जी कहां रहते हैं.
केवट बोला- जहां हम रहते हैं.
जज बोले- तुम कहां रहते हो.
केवट बोला- जहां रघुनाथ जी रहते हैं.
जज साहब बोले- हम समङो नहीं, तुम लोग एक ही जगह, एक ही गांव के रहनेवाले हो.
केवट बोला- हां, हुजूर, आपको कैसे समझायें. आप तो पढ़े-लिखे हो. पढ़े-लिखों को समझाना. बहुत कठिन है. भक्ति और भगवान की बात.
जज साहब बोले- ये हैं कौन?
केवट बोला- हुजूर ये वो हैं, जिनका मंदिर है.
जज साहब बोले- इन्होंने मंदिर बनवाया है. देखने से तो नहीं लग रहे थे कि कोई इतने बड़े संपन्न आदमी होंगे, जिन्होंने मंदिर बनवाया होगा. पुजारी भी नहीं लग रहे थे.
केवट बोला- हुजूर, ये वही हैं, जो मंदिर में बैठे हुये हैं.
अब तो जज साहब ने चपरासी को बुलाया- चपरासी कांपने लगा. कहने लगा- हुजूर ये वो आदमी नहीं था, जिसने हस्ताक्षर किये थे.
इसके बाद जज साहब ने गांव में पता लगाया, तो भाव विह्वल हो गये. अपने बंगले पर आये और रोने लगे.
लोगों ने रोने का कारण पूछा- तो जज साहब रोते हुये बोले-
शिव सारद, नारद, शेष गणोश, के नहीं ध्यान में आते रहे. सोइ आज विनीत अदालत में केवटा के गवाह कहाते रहे.
लोग बोले- अरे तो इसमें, रोने की क्या बात है. खुश होना चाहिये कि दर्शन हो गये. चले गये, तो वे, तो जाते ही.
जज साहब साहब बोले- सुख धो के उतर्स दिये को भयो. दुख नाहिंन, जो तज जाते रहे.
लोग बोले- तो, ये रो क्यों रहे हो?
तो जज साहब ने बड़ी भाव भरी बात कही. बोले- आज बड़ी गलती हो गयी.
कुरसी पर बना जज बैठा रहा. जगदीश खड़े समझाते रहे.
कुरसी पर जज बना बैठा रहा, जिनकी अदालत में सबको उपस्थित होना पड़ता है. वे भगवान खड़े-खड़े गवाही देते रहे. ऐसा वैराग्य हुआ. उसी दिन पद से इस्तीफा दे दिया. वृंदावन आ गये. साधु जीवन बिताया. अक्सर खड़े रहते. कहते, भगवान, खड़े रहे और मैं बैठा रहा. अब तो खड़े रहना ही अच्छा है. मंदिर में जाते, तो अंदर नहीं. बाहर से ही दरवाजे की धूल सिर पर चढ़ा लेते. कोई कहता - अंदर क्यों नहीं जाते, तो कहते, मैं उन्हें मुंह दिखाने लायक नहीं हूं. मुझसे जो अपराध हुआ.
केवट के कारण भगवान गवाह बने. क्या था केवट में?
सबकै ममता ताग बटोरी, मम पद मनहि बांध बर डोरी. अस सज्जन मम उर बस कैसे. लोभी हृदय बसै धन जैसे.
ये सज्जन की दूसरी परिभाषा है.
राजेश्वरानंद जी के प्रवचन से

 

जब गवाही देने के लिए कठघरे में खड़े हुये भगवान

भगवान हमारे हैं और हमारे का, हमें भरोसा है. राम जी हैं. एक बात सुनाऊं मैं, ममता की बात सुनाऊं.
वृंदावन में एक महत्मा घूमते थे, जिन्हें देख कर लोग कहते थे कि जज साहब आ रहे हैं. जज साहब आ रहे हैं. तीस साल पुरानी घटना है. एक संत से किसी पूछा कि इन्हें जज साहब क्यों कहते हैं?
तो संत ने कहा कि अब साधु हो गये हैं. पहले जज थे. पुराना नाम अभी भी चल रहा है.
उसने पूछा, साधु क्यों हुये?
संत ने कहा,दक्षिण भारत में एक छोटी सी जगह थी. लोक अदालत की तरह, वहां ये जज थे. वहां एक गांव में बड़ा सीधा सरल आदमी रहता था. नाम था भोला. भोला नाम तो लोगों ने रख दिया था, लेकिन वो था भी बिल्कुल भोला. वो राम जी के अलावा किसी को जानता ही नहीं था. गांव में रघुनाथ जी का मंदिर था. भोला केवट जाति का था. सामान्य परिस्थिति थी. गांव का कोई भी व्यक्ति उससे पूछता, भोले वो बात कैसी है, तो भोला बोलता था कि रघुनाथ जी जानें, मैं तो कुछ नहीं जानता.
भोला के दो बेटे और एक बेटी. बेटी विवाह के योग्य हुई, तो बेटों ने कहा कि पिता जी यहां के जो धनी सेठ हैं, उनसे रुपया ले लिया जाय. विवाह के बाद हम लोग कमा कर रुपया चुका देंगे.
केवट गया, सेठ जी ने ब्याज की सामान्य दर तय की. लिखा-पढ़ी हुई, रुपया ले आये. बेटी का विवाह हुआ. बेटी विदा हुई ससुराल को. केवट ने घर छोड़ दिया और गांव में ही रघुनाथ के मंदिर में रहने लगा. सबकै ममता ताग बटोरी. मम पद मनहि बांधि बर डोरी.
इधर, केवट के बेटों ने काम करना शुरू किया और रुपया कमाया. पिता को दिया. भोला रुपया लेकर सेठ जी को वापस करने पहुंच गया. सेठ ने रुपया ले लिया. रसीद बना दी कि पाइ-पाइ से पैसा मिला. केवट को रसीद दे दी और कहा कि केवट पढ़ो, क्या लिखा है?
केवट बोला, सेठ जी, रघुनाथ जी जाने मैं तो कुछ नहीं जानता. क्या लिखा है. इस पर सेठ जी के मन में पाप आया कि इससे दुबारा पैसा लिया जा सकता है. सेठ जी ने कहा कि ये कागज हमें दे दो और तुम जाकर पानी ले आओ.
केवट पानी लेने गया, तो सेठ जी ने वो रसीद अपने पास रख ली. फाड़ते तो शक होता. एक कागज पर कुछ ऐसे ही लिख कर केवट को दे दिया. केवट कागज लेकर मंदिर आ गया. उसने रसीद रघुनाथ जी चरणों में चढ़ाकर, अपने कमरे में रख दी.
इधर, सेठ जी ने मुकदमा कर दिया कि भोला ने रुपया लिया. वापस नहीं दे रहा है. मांगने पर कहता है कि मैंने रुपया चुका दिया है. अदालत में केवट को जाना पड़ा, वही जज जो महत्मा हो गये थे. उन्होंने सुनवाई शुरू की. केवट से पूछा, तुमने सेठ से रुपया लिया था?
केवट ने कहा- हां.
चुका दिया- हां.
इसका प्रमाण- केवट ने वही कागज जज साहब के आगे बढ़ा दिया, जो सेठ जी ने दिया था.
जज बोले- ये कोई सबूत नहीं है. इसमें कुछ लिखा ही नहीं.
केवट रोने लगा. दयालु हृदय जज साहब ने कहा कि रोओ मत. तुमने जब सेठ जी को रुपया रुपया दिया था, तो तुम्हारे और सेठ जी के बीच में कोई तीसरा था?
केवट की जो आदत थी. स्वभाव था. उसी भाव से बोला. सत्य कहता हूं जज साहब. मैंने जब सेठ जी को रुपया दिया था, तो मेरे और सेठ के बीच में रघुनाथ जी के अलावा और कोई तीसरा नहीं था.
केवट की बात सुन कर जज साहब बोले- ठीक है. तुम जाओ. अगली तारीख पर
आना.
जज साहब ने सोचा कि रघुनाथ कोई केवट के गांव का रहनेवाला आदमी होगा. उन्होंने अपने खर्चे से रघुनाथ के नाम पर सम्मन जारी कर दिया.
चपरासी पूरे गांव में सम्मन लिये घूमे. उस गांव में रघुनाथ नाम का कोई आदमी ही नहीं थी. चपरासी परेशान हो गया. इसी दौरान एक व्यक्ति ने कहा कि गांव में रघुनाथ नाम का कोई नहीं है, लेकिन रघुनाथ जी का एक मंदिर जरूर है. जारी.. 
(राजेश्वरानंद जी के प्रवचन से)

रविवार, 26 फ़रवरी 2017

सत्य ही शिव है

महाशिवरात्रि के पर्व पर देवाधिदेव महादेव की बारात निकली. उनकी बारात में कौन-कौन शामिल होता है, ये बताने की बात नहीं है. लोक जीवन में रह कर हम सब जानते हैं, लेकिन कई बार होता ये है कि लोग शिव भगवान के बारातियों की आड़ लेकर अपने दुगरुणों का बचाव करने की कोशिश करते हैं, इसको लेकर तरह-तरह के तर्क देते हैं, लेकिन यह भूल जाते हैं कि सत्य का दूसरा नाम ही शिव है. शिव तत्व की जरूरत हम लोगों को हमेशा होती है. रोजमर्रा से लेकर लोक जीवन तक में, लेकिन अभी समाज में जो स्थिति देखने को मिलती है. वह इसके ठीक विपरीत है.
हम शिव की पूजा करते हैं. उन्हें खुश करने के लिए लाख जतन करते हैं, लेकिन जिस सत्य को उनका रूप माना गया है. उसी का साथ छोड़ देते हैं. ऐसे में हमें समझना चाहिये कि शिव कैसे आपके साथ हो सकते हैं. आप शिव को कैसे अपने साथ होने की बात कर सकते हैं? क्यों जब सत्य की शिव है, तो असत्य का साथ तो शिव देंगे नहीं. यह सामान्य सी बात हमें समझ लेनी चाहिये और लोक जीवन में उसी के मुताबिक काम करना चाहिये. शिव को लेकर लिखना सरल नहीं है, क्योंकि उनका जितना व्यापाक रूप है और वह जितना सरल हैं. उनका विस्तार उनता ही अधिक है. ऐसे में उनके बारे में कुछ कहना या लिखना कम से कम हम जैसे लोगों की बात नहीं है.
इसके बाद भी हम उसी सरलता की बात कर रहे हैं, जो शिव को पसंद है. शिव तत्व में शामिल है. वह है सत्य. सत्य का साथ हमें हमेशा देना चाहिये. उसके साथ खड़े रहना चाहिये, तभी शिव के साथ हम रहेंगे, चाहे हम जो भी काम करते हों, लेकिन सत्य का साथ हमेशा बनाये रखना चाहिये. यही आज के दिन में सबसे जरूरी है. इसका विस्तार अगर आप देखना चाहते हैं, तो सत्य का साथ दीजिये. अपने आप में सब चीजें दिखने लगेंगी और फिर अपने बारे में भी जान जायेंगे. जय शिव.

सोमवार, 20 फ़रवरी 2017

उन घरों में शिक्षा की रोशनी फैला रहे केबीसी विनर सुशील कुमार, जहां अब तक अंधेरा था

कौन बनेगा करोड़पति में पांच करोड़ जीतनेवाले सुशील कुमार को आप देखेंगे, तो प्रभावित हुये बिना  नहीं रह पायेंगे. 2011 में केबीसी जीतने के बाद और अब के सुशील में आपको ज्यादा फर्क महसूस नहीं होगा. वो पहले से ज्यादा सरल हो गये हैं. बड़ी गर्मजोशी के साथ मिलते हैं. केबीसी में जीतने के बाद रातोंरात देश-दुनिया में नाम कमानेवाले सुशील लगातार अपने मिशन पर काम कर रहे हैं. वो जो काम करते हैं, उसके बारे में ज्यादा लोगों को नहीं बताते हैं, लेकिन लगातार उनका काम चलता रहता है. उनके सामाजिक कामों में एक काम यह भी है कि वो मुशहर समाज के एक सौ से ज्यादा बच्चों को पढ़ा रहे हैं. इसके लिए उन्होंने बाकायदा शिक्षक रख रखा है. खुद लगातार बच्चों की प्रगति पर नजर रखते हैं.
यह समाज के उस अंतिम पायदान के बच्चे हैं, जहां सरकारी शिक्षा की रोशनी भी नहीं पहुंची है, लेकिन सुशील के प्रयास से इन बच्चों को न सिर्फ अक्षर ज्ञान हुआ है, बल्कि बच्चे फर्राटे से पढ़ने लगे हैं और बेहतर भविष्य का सपना भी देख रहे हैं. बच्चों को पढ़ाने के अलावा समाज की बेहतरी के लिए कई और काम सुशील कर रहे हैं, लेकिन उनके बारे में ज्यादा शोर नहीं करते हैं कि जब समानता की बात होती है, तो सबको शिक्षा का अधिकार है, लेकिन दुर्भाग्य से ऐसा नहीं हो पाता है. समाज में एक तबका ऐसा भी है, जहां बच्चे बड़े होने के साथ काम में लगा दिये जाते हैं. वो मजदूरी आदि करके घर को चलाने में सहयोग करने लगते हैं. कई जगहों पर पढ़ाई का माहौल नहीं होने की वजह से भी बच्चे पढ़ने नहीं जाते हैं.
हाल में सुशील जी से मिलना हुआ, तो भविष्य की योजनाओं के बारे में चर्चा हुई, तो कहने लगे कि एक और बस्ती के बच्चों को हम पढ़ाना चाहते हैं. इसके लिए काम कर रहे हैं. साथ ही वह मुंबई में रह कर भी काम कर रहे हैं. उनकी भावी योजनाओं में कई चीजें हैं, जिनका खुलासा वो नहीं करते हैं, लेकिन कहते हैं कि जब कुछ हो जायेगा, तो बताना ज्यादा अच्छा रहेगा. अभी हम केवल तैयारी में जुटे हैं.

अंधकार है प्रकाश के अहमियत की वजह

हमारा जीवन उतार-चढ़ाव से भरा है. जैसे दिन और रात. अगर दिन में सूरज की चमक से हम प्रकाशित रहते हैं, तो रात में चंद्रमा प्रकाश के साथ शीतलता भी प्रदान करता है, लेकिन रात में अमाश्वया की रात ऐसी होती है, जब घुप्प अंधेरा रहता है. कहीं कुछ सूझता नहीं है, लेकिन इसी अंधकार में अगर दूर भी कहीं रोशनी टिमटिमा रही होती है, तो वह दिख जाती है. हम सब जानते हैं, रात के समय आकाश में तारे हमें कितनी दूर होने के बाद भी कितना स्पष्ट रूप से दिखायी पड़ते हैं. कई बार लगता है कि हम उनसे संवाद कर रहे हैं यानि अंधकार ही वह वजह है, जिससे हमें प्रकाश की अहमियत का पता चलता है.
ऐसे ही हमारा जीवन भी है. अगर हम अपने जीवन में देखें, तो जब भी कठिन समय आया है. उसी समय किसी न किसी बड़े काम की नीव पड़ी होती है, जो आपको जीवनभर का आनंद देता है. ऐसी  घटनाएं सबके साथ होती है, लेकिन हमें इन्हें समझना और महसूस करना चाहिये. हमें जीवन के अंधकार यानि खराब समय का भी वैसे ही स्वागत करना चाहिये, जैसे हम प्रकाश के आने का करते हैं. अगर हम इसे समझ ले जाते हैं और इस सिद्धांत पर काम करते हैं, तो कोई वजह नहीं है, जो हमें परेशान कर सकती है. 
जारी

शुक्रवार, 17 फ़रवरी 2017

आंदोलन की राह पर यजुआर के युवा

यजुआर के युवा फिर आंदोलन की राह पर हैं. वजह है, उनके गांव में बिजली जैसी मूलभूत सुविधा का नहीं होना. गांव में बिजली आये, इसके लिए यहां के युवा सालों से अपनी आवाज बुलंद कर रहे हैं. मुख्यमंत्री नीतीश कुमार तक अपनी बात पहुंचा चुके हैं. मुख्यमंत्री ने आश्वासन दिया है, लेकिन क्या इस पर काम होगा, ये बड़ा सवाल अभी बना हुआ है, क्योंकि सालों पहले गांव में विकास की पहल हुई थी, मुजफ्फरपुर से अधिकारियों का अमला यजुआर गांव पहुंचा था. तब भी बिजली का सवाल था, लेकिन उस पर कोई काम नहीं हुआ.
गौरवशाली अतीत वाले यजुआर गांव में 40 साल पहले पोल-तार लगे थे. शायद वही, इस गांव के वर्तमान के लिए अभिशाप बन गया. तार खिचे, ट्रांसफारमर लगे, तो सरकारी फाइलों में चढ़ गया कि गांव में बिजली है, लेकिन बिजली का दर्शन गांव के लोगों को हुआ नहीं. पोल-तार और ट्रांसफारमर अब भी लगा है, लेकिन किस काम का. ये बात नेता से लेकर अधिकारी तक सब मानते हैं. इसके बाद भी फाइल में चढ़ी बात कैसे नहीं बदली जा रही है. ये बड़ा सवाल है?
यह शायद उस कहावत का जीता-जागता उदाहरण है, जो जंगल में रहनेवाले जानवरों से जुड़ी हैं. जिसमें कहा जाता है कि जंगल में एक दिन जानवर तेजी से भाग रहे थे. उनके साथ ऊंट भी भागा चला जा रहा था. रास्ते में किसी ने पूछ लिया कि ऊंट भाई आप क्यों भाग रहे हैं, तो उसने कहा कि सरकारी कर्मचारियों की टोली जंगल में बिल्लियों को पकड़ने आयी है. हम इसलिए भाग रहे हैं. कहीं, बिल्ली समझ कर हमें भी पकड़ लिया, तो हमें दशकों ये साबित करने में लग जायेंगे कि मैं बिल्ली नहीं ऊंट हूं.
लगभग आठ माह पहले मेरा भी यजुआर जाना हुआ था. आने-जाने के दौरान चचरी पुल के साथ जिस तरह का सफर रहा, उससे पता चल गया कि कैसे वहां के लोग रह रहे हैं. प्रखंड कार्यालय जाने के लिए उन्हें किस तरह से जद्दोजहद करनी पड़ती है. गांव में टंकी बनी है. कर्मचारी की नियुक्ति है, लेकि बिजली के बिना पानी सप्लाई नहीं होती है. चालीस साल पहले जो पाइप लगी थी, उससे पानी सप्लाई हुये बिना ही जंग खा गया है. पहले गांव में अतिरिक्त स्वास्थ्य केंद्र था, जहां पर डॉक्टर रहते थे, लेकिन अब यह भी खंडहर हो गया है. 40 हजार से ज्यादा की आबादी वाले यजुआर की हालत सुनने और देखने के बाद सहसा विश्वास नहीं होता है, लेकिन हकीकत यही है.
एक क्लिक पर देश-दुनिया तक समाचार पहुंचने के जमाने में यजुआर जैसे जागरूक गांव की ऐसी स्थिति परेशान करती है. ये परेशानी नाहक नहीं है. यजुआर गांव से ही औराई के विधायक की जीत और हार का रास्ता निकलता है. जिसके पक्ष में यहां वोट पड़ता है, उसका विधानसभा पहुंचना तय माना जाता है. ऐसे ही लोकसभा चुनाव में भी यहां के वोटर अच्छा-खासा अंतर पैदा करते हैं. यही वजह है कि सांसद अजय निषाद ने यहां की एक पंचायत को गोद लिया है, लेकिन पंचायत के लोग कहते हैं कि जब घोषणा हुई थी, तब उम्मीद जगी थी, लेकिन अब हमारी उम्मीद टूट चुकी है.
पूर्व विधायक रामसूरत राय, जो इस समय भाजपा के जिलाध्यक्ष भी हैं. कहते हैं कि हमने गांव में बिजली लाने की बहुत कोशिश की, लेकिन कामयाब नहीं हो सका. ऐसे ही अन्य जन प्रतिनिधि भी दुहाई देते हैं, लेकिन इस सबका खामियाजा गांव के लोगों को ही भुगतना पड़ रहा है.



 

बुधवार, 1 फ़रवरी 2017

गंगेया के लोगों ने बागमती पर खुद बना लिया पीपा पुल

लगभग साल भर पहले गंगेया जाना हुआ था, तब बांस के पुल था, जिससे गुजरते समय अच्छे-अच्छे लोग हनुमान चलीसा का पाठ करने लग रहे थे. हम भी उन्हीं में शामिल थे. उस समय गांव में एक कार्यक्रम था. मुंबई से अभिभावक समान अनुराग चतुव्रेदी सर आये थे. उन्हीं के साथ गांव देखने का मौका मिला. आधा गांव बागमती इस पार और आधा, उस पार. बड़ी विकट स्थिति में रह रहे थे गांववाले.
चर्चा चली, तो वहां के लोगों ने बताया कि वर्तमान सांसद से लेकर अधिकारियों व विधायकों से हम लोगों ने कई बार गुहार लगायी, लेकिन आश्वासन ही देते रहे हैं. बाढ़ के समय पुल बह जाता है, तो गांव के लोगों की परेशानियां और बढ़ जाती हैं. गंगेया के लोग किस स्थिति भयावह हालत में रह रहे थे. ये वहां जाने के बाद ही महसूस होता है. बांस के चचरी पुल को पार करना किसी बड़ी जंग को जीतने जैसा लगता था. ऐसे में सोच सकते हैं, जो ग्रामीण रोज कई बार इस पुल से आते-जाते होंगे, उनका क्या होता होगा, जब हम पुल पार कर रहे थे, उसी दौरान एक मां अपने बच्चे के साथ जा रही थी, जो खुद से ज्यादा बच्चे को लेकर परेशान थी, क्योंकि बच्च छोटा था और मां के हाथ में राशन का झोला था, जिससे वह बच्चे को उठा नहीं सकती थी. ऐसे में वह लोगों से मिन्नतें कर रही थी कि किसी तरह उसके बच्चे को पार करवा दें.
खैर, गंगेया गांव के वापस आया, तो कई दिन तक वहां खास कर पुल से गुजरने की स्मृति कौंधती रही. लगा कि जब इतनी परेशानी है, तो इसका समाधान क्यों नहीं होता. कई लोगों से बात की, लेकिन किसी ने संतोषजनक जवाब नहीं दिया. इसी बीच गंगेया के रहनेवाले क्रांति प्रकाश जी का न्योता मिला. पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी को 1977 के चुनाव में हरानेवाले राजनारायण की जयंती मना रहे थे. मुलाकात हुई, तो गांव के चचरी पुल की चर्चा की. कहने लगे, जल्दी ही दुख दूर होनेवाला है. गांव के लोग ही आपस में मिल कर पीपा पुल बना रहे हैं. इसके लिए बैठक हो चुकी है और कुछ लाख रुपये भी एकत्र हो चुके हैं. सुन कर बड़ा सुकून मिला.
बीती 24 जनवरी को जानकारी मिली कि पुल तैयार है और लोगों का आवागमन शुरू हो गया है. गांव के लोगों ने 12 लाख रुपये इकट्ठा करके पुल का निर्माण कराया है, जब पुल से गुजरते लोगों की तस्वीरें देखीं, तो काफी सुकून मिला. अब गंगेया के लोगों को हिचकोले नहीं खाने होंगे. साथ ही गांव में आनेवाले लोगों को पहले जैसी त्रसदी नहीं ङोलनी पड़ेगी. गंगेया के लोगों को इस साहसपूर्ण काम के लिए बहुत बधाई!

इस बार फिर चौकायेगा उत्तर प्रदेश ?

यूपी समेत पांच राज्यों में विधानसभा चुनाव की धूम है. प्रचार चरम पर है. पहले चरण का चुनाव चार फरवरी को होना है, जिसके लिए दो फरवरी को चुनाव प्रचार बंद हो जायेगा. इससे पहले लंबे राजनीतिक ड्रामे से गुजरे यूपी के वोटर इस बार क्या करेंगे, ये सवाल सबके जेहन में घूम रहा है. प्रदेश में घूम-घूम कर सव्रेक्षण कर रहे विभिन्न मीडिया हाउस अलग-अलग तरह की हवा बना रहे हैं. कोई भाजपा की पूर्ण बहुमत की सरकार बना रहा है, तो कोई अखिलेश की फिर से ताजपोशी कर रहा है. ऐसे में ये देखना दिलचस्प होगा कि वोटर का मत क्या इस मीडिया हाउस के सव्रेक्षणों से मेल खाता है या फिर नहीं, क्योंकि इससे पहले 2007 व 2012 के यूपी चुनावों में ऐसे सव्रेक्षण करनेवालों को बुरी तरह से मुंह की खानी पड़ी थी. इस बार जो हालात दिख रहे हैं, वो तो कुछ और कहानी कह रहे हैं, लेकिन ऐसा लगता है कि जमीनी हकीकत को हम देखना नहीं चाहते हैं.
गठबंधन के शोर में भले ही किसी की आवाज कम सुनायी दे रही हो, लेकिन वोटर सब देख रहे हैं और उन्हें किधर जाना है. शायद उन्होंने मन बना लिया है और वो उस दिशा में आगे बढ़ चुके हैं. ऐसे में सवाल उठता है कि क्या सव्रेक्षण करनेवालों के सामने ये हकीकत नहीं है. साल से कुछ ज्यादा पहले बिहार चुनाव हुये थे. उस दौरान किस तरह का शोर था, लेकिन नतीजे कैसे आये, ये सबको पता है. यही नहीं मतगणनावाले दिन किस तरह से भाजपा के लोगों ने सुबह जश्न मनाना शुरू कर दिया था, लेकिन चंद मिनट में ही इनके पांवों की थिरकन रुक गयी थी, जो दावे कर रहे थे, उनके मुंह पर सील लग गयी और वह छुपते फिरने लगे.
अगर राजनीतिक हालात की बात करें, तो यूपी-बिहार बहुत ज्यादा अलग नहीं हैं. हां, वोटरों की संख्या के आधार पर भले ही कुछ भेद-विभेद किया जा सकता है, लेकिन ताशीर एक जैसी ही है. अब ऐसे में चुनाव बहुत रोचक बन गया है.

रविवार, 13 नवंबर 2016

विकास, आपकी शहादत पर हमें गर्व है

मधुबनी के झंझारपुर अनुमंडल के रैयाम गांव के रहनेवाले विकास कुमार मिश्र की चर्चा आज हर जुबान पर है. मिथिलांचल के साथ पूरा देश उन पर गर्व कर रहा है. बीएसएफ में जवान विकास जब अक्तूबर महीने में दशहरा के समय में गांव आये थे, तब परिजनों समेत किसी ग्रामीण को इस बात का आभास तक नहीं था कि यह उनकी अंतिम छुट्टी साबित होगी. दिल्ली में रहनेवाले तीन भाइयों से मिले, तो चार भाइयों की सर्किल पूरी हो गयी. सभी ने साथ बैठ कर खाना खाया.
विकास अपने परिवार में सबसे छोटे थे. उनसे बड़ी दो बहने और तीन भाई थे. सबकी शादी हो चुकी है और सब अपने परिवार के साथ सेटल हैं. भाई दिल्ली में रह कर निजी कंपनियों में काम करते हैं, जबकि बहनें अपनी ससुराल में. पिता का स्वर्गवास हो चुका है, सो घर में केवल मां रहती हैं, जिनकी देखभाल के लिए अभी विकास की बहन आयी हुई थी, क्योंकि मां इंद्रा देवी को हृदय की बीमारी है. इसी की चिंता विकास को सबसे ज्यादा थी. अपनी अंतिम छुट्टी में वो मां को लेकर काफी चिंतित थे. वह छुट्टी से वापस जाने से पहले मां की दवाइयां ला कर गये थे और वादा किया था कि इस बार जब घर आऊंगा, तो घर का काम पूरा करा दूंगा, क्योंकि फूस का घर अच्छा नहीं लगता.
जम्मू-कश्मीर के पुंछ में पोस्टिंग के बाद भी रोज मां को फोन करते थे और उनका हाल लेते थे. बस एक ही ताकीद करते थे कि मां समय से खाना और दवाई खाना, ताकि ठीक रहे. बहन से भी कुछ दिन और घर में रहने की गुजारिश की थी, जिस पर बहन मान गयी थी. बीते बुधवार को सुबह मां का हाल लिया और बहन से बात की, तब भी घर बनाने की बात दोहरायी. बताया, कैसे सीमा पर तनाव ज्यादा और लगातार पाकिस्तान की ओर से गोलीबारी की जाती है, जिसका वो लोग माकूल जवाब देते हैं. ये बात हुये कुछ घंटे ही बीते थे कि दिन में लगभग चार बजे उनके जख्मी होने की खबर घर में आयी और थोड़ी देर बाद ही उनकी शहादत की बात भी कही गयी. सहसा किसी को विश्वास नहीं हो रहा था.
शाम तक ये बात झंझारपुर समेत पूरे जिले व देश में फैल चुकी थी. विकास के घर पर सैकड़ों लोग जमा थे. मां-बहन को विश्वास नहीं हो रहा था, जिस बेटे व भाई से कुछ घंटे पहले ही बात हुई थी. इतनी अच्छी बातें कर रहा था. वह अब इस दुनिया में नहीं है. दिल्ली में विकास के भाई ने कहा कि मेरा भाई इस दुनिया से नहीं जा सकता. छठ के दिन ही पांच बार उससे बात हुई थी. ऐसा कैसे हो सकता है, लेकिन ऐसा हो चुका था. विकास ने देश की रक्षा करते हुये शहादत दे दी थी. शनिवार की सुबह जब विकास का पार्थिव शरीर पहुंचा, तो हजारों की संख्या में आसपास के लोग जुटे. उन्हें राजकीय सम्मान से अंतिम विदाई दी गयी. रैय्याम गांव के मध्य विद्यालय के पास ही उनका अंतिम संस्कार हुआ, जिस जगह पर अंतिम संस्कार हुआ. वहां ख़ड़े होने तक की जगह नहीं थी. सब लोग विकास को याद कर रहे थे. उनकी बहादुरी की बाद कर रहे थे.
विकास के सम्मान में नारे लगा रहे थे. पाकिस्तान को कायराना हरकत पर लागत दे रहे थे. इन सबके बीच मां इंद्रा देवी की चीख सबको परेशान कर रही थी. बहनें भाई को याद कर रही थीं. बड़े भाइयों को अपने छोटे भाई की शहादत पर गम था, साथ में गर्व भी, क्योंकि विकास देश की सरहदों की रक्षा करते हुये शहीद हुये हैं. यही चर्चा गांव के हर बच्चे-बच्चे में है. रैयाम गांव पहले से भी सैनिकों का गांव रहा है. यहां के लगभग पचास परिवारों के लाल देश की सेवा कर रहे हैं. विकास हमें भी आपकी शहादत पर गर्व है. आपकी शहादत को देश हमेशा याद रखेगा.

गुरुवार, 3 नवंबर 2016

अखिर, ये राष्ट्रवाद कितना पुराना है?

(वरिष्ठ समाजवादी चिंतक सच्चिदानंद सिन्हा जी का सामयिक वार्ता में लेख. उसी से साभार.)

हैदराबाद में छात्र रोहित वेमुला की आत्महत्या को लेकर उठा विवाद और इसके तत्काल बाद जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय (जेएनयू) के कुछ छात्रों द्वारा कथित रूप से राष्ट्र विरोधी नारे लगाये गये. इस घटना पर उठे विवाद ने अचानक राष्ट्रप्रेम और राष्ट्रीय वफादारी के सवाल को व्यापक विवाद का मुद्दा बना दिया है. जेएनयू विवाद में पुलिस ने आनन-फानन में एक शिक्षक समेत कुछ छात्रों को हिरासत में लेकर उन पर राष्ट्रदोह का मुकदमा ठोक दिया और कुछ उत्साही वकीलों ने, जिन्हें संघ का समर्थक बताया जाता है, अदालत मामले को संज्ञान में ले, इसके पहले ही कोर्ट परिसर में ही अभियुक्तों को लप्पड़-थप्पड़ से उनके जुर्म की गंभीरता का एहसास करा दिया. इसके बाद कुछ जमातें लगातार जहां-तहां मार-पीट और दंगा-फसाद से अपनी राष्ट्रभक्ति का इजहार करने में संलग्न हैं. प्रशासन भी यथासंभव, राष्ट्रभक्ति के इस उफान में हस्तक्षेप से कतराता है. अगर राष्ट्रवाद के नाम पर होनेवाले फसाद में कानून-व्यवस्था पक्षाघात का शिकार हो रही हो और आम नागरिकों की अभिव्यक्ति की आजादी राष्ट्रभक्ति के उन्माद में निरस्त हो रही हो, तो इस राष्ट्रभक्ति के उत्स और औचित्य पर विचार करना लाजमी हो जाता है. इसलिए भी कि प्राय: युद्धों में राष्ट्रभक्ति के उत्स और औचित्य पर विचार होता है. इसलिए भी कि प्राय: राष्ट्रीय युद्धों में राष्ट्रभक्ति की ऐसी भवाना का उभार होता है, जिसे विवाद से परे माना जाता है.
प्रख्यात समाजशास्त्री इमिल दुरखाइम ने सामुदायिक व्यवहारों को दो श्रेणियों में बांटा था.
1- सैक्रेड (पवित्र)
2. प्रोफेन (लोकाचारी)
सैक्रेड से मतलब उन व्यवहारों से था, जो मानवेतर और उदात्त हैं. अत: उन्हें मानवीय कसौटियों पर आंका नहीं जा सकता. प्रोफेन हमारे दैनन्दिन के कार्यकलापों का क्षेत्र है, जिनका आकलन हम रोजना हानि-लाभ की कसौटियों से करते हैं. राष्ट्रवाद के अतिरेक का खतरा इस बात से पैदा होता है कि इसे भी सैक्रेड यानी मानवेतर धार्मिकता की कोटि में डाल दिया जाता है, जिससे हम इसे उसके सांसारिक परिणामों की कसौटी पर नहीं कस सकते, जैसे यह कथन..मेरा देश सही या गलत सर्वोच्च है. हम इसके सभी कार्यो में शरीक हैं, भले ही वह गलत भी हो. कार्लमार्क्‍स ने भी धर्म को लोगों के लिए अफीम कहा था. राष्ट्रीयता के पीछे यही भावना है, जिससे संसार राष्ट्रीय और अंतराष्ट्रीय युद्धों की भयावह त्रसदियों से गुजरता रहा है. अगर हम पिछले दो महायुद्धों पर गौर करें, जिनमें करोड़ों लोग मरे और इतने ही लोग अपंग हुए, तो इसकी सच्चई दिखेगी और इससे हासिल क्या हुआ, अंतहीन कटुता.
18वीं शताब्दी के पहले राष्ट्रीयता का यह भाव कहीं नहीं था. यूरोप में भी नहीं. भारत में तो राष्ट्र राज्य (नेशन-स्टेट) का यह भाव था ही नहीं. एक क्षेत्रीय भाव, तो दूसरी जगहों की तरह यहां भी व्याप्त था, जब हम क्षेत्रीय भाव की बात करते हैं, तो इस दिलचस्प हकीकत पर ध्यान रखना जरूरी है कि यह क्षेत्र भाव अधिकांश जीवों में यानी पक्षियों में, मछलियों में, कुत्ताें, बिल्लियों व भैसों आदि में पाया जाता है. कुत्ते, भैंस अदि मल-मूत्र से अधिकतर क्षेत्र का सीमांकन करते हैं. हम मनुष्य झंडे, पताका या बाड़े बनाकर, लेकिन इसके पीछे समान रूप से व्याप्त वह पशु प्रवृत्ति ही है, जिससे हम एक क्षेत्र पर अपना वर्चस्व प्रदर्शित करना चाहते हैं. इसमें कुछ भी उदात्त या विशिष्ट नहीं है, जिसमें हमारी मानवीयता की व्याप्ति हो. समग्रता में विचार करने पर हमारी गरिमा की दृष्टि से हमारे तोपों, बंदूकों, युद्धपोतों और युद्धक वायुयानों का कुत्ताें और भैसों के मलमूत्र से ज्यादा महत्व नहीं है, जिससे वो अपनी सीमा का दावा करते हैं. तटस्थ होकर विचार करने पर यही एहसास होता है कि ये सब तुच्छ पशु के बल के प्रदर्शन से ज्यादा कुछ भी नहीं है. पशुओं में कुछ पैंतरेबाजी और हल्के भिड़ंत से वर्चस्व कबूल कर लिया जाता है. इसके विपरीत मनुष्य अपनी दावेदारी के प्रदर्शन का ऐसा कैदी बन जाता है कि राष्ट्र के नाम पर विनाशकारी युद्धों में उलझ जाता है. अपनी हैसियत के हिसाब से भारत भी आजादी की अर्ध शताब्दी में ही तीन युद्ध में उलझ चुका है और सीमा पर की झड़पें तो रुटीन बन गयी हैं.
जारी..

बुधवार, 2 नवंबर 2016

क्या बात है, मुजफ्फरपुर में 7डी थियेटर!

आधुनिक सुख-सुविधाओं पर अपना ज्यादा विश्वास नहीं है, लेकिन जब बात होती है, तो जानने समझने की कोशिश जरूर करता हूं. पिछले छह साल से मैं दो बार ही सिनेमा हाल में गया हूं. वह भी एक बार पूरा सिनेमा देखा था, दूसरी बार बीच में वापस चला आया. सिनेमा हाल के मामले में कभी मुजफ्फरपुर का नाम हुआ करता था. इसे प्रदेश की सांस्कृतिक राजधानी के तौर पर प्रचारित किया जाता है. यहां कई सिनेमा हाल थे, जो अब भी देखने को मिल जाते हैं, लेकिन इनमें से ज्यादातर बंद हो चुके हैं. गिने-चुने हाल ही चालू हालत में हैं.
एक-दो सिनेमा हाल के बारे में बताते हैं कि हाल के महीनों में उनकी व्यवस्था ठीक हुई है, लेकिन कभी जाने का मौका नहीं मिला, न ही मन हुआ, लेकिन दो नवंबर को शाम के समय सड़क पर टहल रहा था. उसी दौरान एक बिल्डिंग के कुछ बच्चे 7डी थियेटर की बात कर रहे थे. कह रहे थे कि अपने शहर में नया सिनेमा हाल खुल गया है, जिसमें पिक्चर देखने का अनुभव बिल्कुल अलग है. बच्चे आपस में चर्चा कर रहे थे कि उनके परचित लोग वहां गये थे. वह सिनेमा देख कर आये हैं. हाल के अंदर उन्हें कई तरह के अनुभव हुये.
जैसे अगर पानी बरस रहा है, तो लगता है कि सिनेमा देखनेवाला भी भीग रहा है. अगर स्क्रीन पर सांप चल रहा है, तो लगेगा कि सांप आपके पास से होकर गुजर रहा है. अगर स्क्रीन पर बर्फ गिर रही है, तो आपको इस बात का एहसास होगा कि आप बर्फबारी के बीच में बैठे हुये हैं. ये बिल्कुल नये तरह के अनुभव के बारे में बच्चे बात कर रहे थे, तो मैं भी उनकी बातों का सुनने लगा. उनमें कुछ बच्चे कह रहे थे कि मैं भी हाल में पिक्चर देखने जाऊंगा. मैंने अपने पापा को इसके बारे में बताया है. वो हम लोगों को वहां ले जाने के लिए तैयार हैं.
7डी थियेटर क्या होता है? इससे अभी तक मैं भी अनजान हूं. सही कहूं, तो मुङो तो ये भी पता नहीं चल पाया था कि शहर में 7डी थियेटर खुल गया है. हां, ये जरूर सुनता था कि द ग्रैंड माल में जल्दी ही थियेटर खुलनेवाला है. दो बार वहां जाना हुआ, तो नोएडा, गाजियाबाद व दिल्ली के मालों की याद आयी. बस फूड कोर्ट व थियेटर की कमी खल रही थी. अगर थियेटर चालू हो गया है. वह भी 7डी, तो अच्छा है. मैं भी कोशिश करूंगा कि वहां जाकर सिनेमा देखूं, क्योंकि ये मेरे लिये भी नया अनुभव होगा.

चुनाव यात्रा - आठ- रास्ते से हट जाओ भारत के भविष्य

पिछले साल इन दिनों वोटिंग का दौर जारी था. उसी के साथ जारी थी मेरी चुनाव यात्र भी. उत्तर बिहार के विभिन्न जिलों में घूमने के बाद उस शहर के मिजाज को देखने और समझने की बारी थी, जिसमें मैं रहता हूं. इसके लिए मैं ऑफिस की गाड़ी छोड़ दी. रिक्शे व टेंपो का सहारा लिया. कुछ दूर टेंपो से यात्र की, तो उसमें मनमानी देखने को मिली. एक ही जगह जाने के एक टेंपो वाले पांच रुपये लिये, जबकि दूसरे ने दस रुपये, जब मैंने प्रतिवाद करने की कोशिश की, तो कहने लगा कि महंगाई का जमाना है, मैंने जो किराया बताया है, वो तो देना ही पड़ेगा. खैर, मैंने दस रुपये देकर किसी तरह से उससे मुक्ति पायी, लेकिन इसके साथ एक सबक भी. शहर में टेंपो को लेकर जो चर्चा होती है, वो अनायास नहीं है.
अब भी टेंपो वालों को देखता हूं, तो वह दिन याद आ जाता है, लेकिन उस यात्र के बाद मैंने तय किया और अब महीने में कम से दो-तीन बार टेंपो से जरूर चलता हूं. इसके अलावा पैदल चलना, तो मुङो खूब भाता है. कई किलोमीटर तक मैं चल सकता हूं. ये आदत मुङो बचपन से पड़ी, जब पढ़ने के लिए हम लोगों को पांच किलोमीटर पैदल जाना पड़ता था. खेत की मेड़ों से होते हुये. हम लोगों में ये होड़ रहती थी कि कौन एक घंटा से कम समय में स्कूल पहुंचता है, बच्चे थे. दौड़ते हुये जाते थे, तो 45 मिनट लगता था. कभी-कभी आराम से चलने पर एक घंटा पांच मिनट. खैर ये दूरी हम लोगों को रोज तय करनी होती थी. अगर किसी दिन साइकिल पर बैठ कर जाने को मिल जाता था, तो हम इसे अपना सौभाग्य मानते थे. इसकी बात फिर कभी. मुजफ्फरपुर शहर में भी मैं खूब पैदल चलने की कोशिश करता हूं. कई बार परचित लोग रास्ते में मिल जाते थे, तो वह अपनी गाड़ी से छोड़ देने की बात करते हैं, तो उन्हें विनम्रता से मना करने का मन होता है, लेकिन कई बार ऐसा नहीं कर पाता हूं.
चुनाव की फिजां का पता लगाने के लिए मैं कई किलोमीटर पैदल भी चला. एक जगह इच्छा हुई रिक्शे से चलता हूं. रिक्शेवाले से बिना किराया तय किये मैं बैठ गया और वो चलने लगा. कुछ ही दूर आगे बढ़ा था कि कुछ छात्र बीच सड़क से लेकर किनारे तक फैले हुये जा रहे थे. सब आपस में बात करने में मशगूल थे. पीछे से रिक्शेवाले ने दो तीन बार घंटी बजायी, जब इसका असर छात्रों पर नहीं हुआ, तो कहने लगा कि जरा किनारे हट जाओ भारत के भविष्य. रिक्शेवाले के मुंह से ऐसी बात सुन कर मुङो आश्चर्य हुआ. मुझसे नहीं रहा गया. मैंने उससे पूछा, तो कहने लगा कि और क्या कहूं. ये सब भविष्य ही तो हैं, जो हमारे आपके बाद देश को आगे बढ़ायेंगे. अगर इन्हें चोट लग जायेगी, तो मुङो अच्छा नहीं लगेगा. इसीलिए बोल दिया. आप जानते ही हैं कि अभी चुनाव का समय चल रहा है. पूरे शहर की स्थिति देख ही रहे होंगे. मैं अनजान बन कर उसकी बात सुन रहा था. अचानक रिक्शवाला पारंपरिक गीत गाने लगा, तभी हम अपने गंतव्य पर थे. हमने 20 का नोट उसे पकड़ाया, तो प्रसन्न हुआ और आगे बढ़ गया, लेकिन मेरी चुनावी तलाश अभी पूरी नहीं हुई थी.
जारी..

रविवार, 30 अक्टूबर 2016

खुदा करे की हमेशा चिराग जलते रहें

मोहब्बतों की महक से दिमाग जलते रहें, खुदा करे की हमेशा चिराग जलते रहें.

देर शाम हमारे प्यारे शायर मुनव्वर राना साहब के इस पैगाम के साथ जब दिवाली की मुबारकबाद आयी, तो दिनभर से मन में चल रहे सवाल थोड़ी देर के लिए ठहर गये और मैं इस शेर के अर्थ गढ़ने में लग गया. इसी क्रम में अग्रज डॉ संजय पंकज की वो बात याद आयी, जो उन्होंने कल ही शहीदों के नाम कवि सम्मेलन के दौरान कही थी. ये बात तो मैं कई बार सुन चुका था, लेकिन वर्तमान समय में मौजूं हैं कि सूर्य जब अस्त होने जा रहा था, तो उसे चिंता हुई कि अब घोर अंधकार इस धरा पर छा जायेगा. ऐसे में मेरे होने की सर्थकता क्या होगी, तब सूर्य से एक दीये ने कहा कि आप निश्चिंत होकर अस्त हो सकते हैं सूर्य देवता, क्योंकि जब तक आप सुबह फिर से दस्तक नहीं देंगे, तब तक मैं अपने प्रकाश से इस धरती किसी कोने को ही सही, लेकिन प्रकाशित करता रहूंगा.
हमेशा चिराग जलने का मतलब, उस निरंतरता से लगता है, जिसे हम अमरत्व कहते और समझते हैं. ये हमें पीढ़ी दर पीढ़ी आगे बढ़ने की प्रेरणा देता है, क्योंकि समय के साथ चीजें बदलती हैं. धरती का स्वर्ग कहे जानेवाले कश्मीर की हालत पर नजर जाती है, तो तीन दशक पहले का वो समय याद आता है, जब वहां शांति थी. कैसे देश-विदेश की सैलानी उस पावन भूमि पर जाते थे. खैर सैलानियों के आने-जाने का सिलसिला तो अभी भी नहीं थमा है, लेकिन हालात बदलने से कम जरूर हुआ है. हाल के सालों की बात करें, तो इस साल सीमा पर जितना तनाव है, वैसा नहीं था. तनावपूर्ण माहौल के बीच दिवाली आयी है. बीते दिनों में हमने भारत मां के तीन वीर सपूतों को खोया है. सीमा का ये तनाव भी हमें सोचने को मजबूर करता है कि क्या हम आपस में मिल कर नहीं रह सकते. 1947 से पहले जो हमारे अपने थे, जमीन पर रेखाएं खिचने के बाद हमारे सबसे बड़े दुश्मन हो गये हैं. आतंकवाद की खेती उन्हीं जगहों पर होने लगी है, जिन पर कभी हमारे पूर्वज गर्व करते रहे होंगे. ये समय का ही चक्र है, लेकिन जीवन उस दीये के समान हमेशा चल रहा है, जिसमें अंधकार को भगाने की शक्ति है. दीपक जलते हुये चारों ओर उजाला फैलाता है, लेकिन अपने नीचे उस अंधकार को समेट लेता है.
हम जिस इलाके में काम करते हैं, वहां के रहनेवाले बीएसएफ के जवान जितेंद्र सिंह की चिता की आग अभी ठंडी नहीं पड़ी होगी. 24 घंटे पहले उस वीर शहीद का हमने अंतिम संस्कार होते देखा है. कैसा जन-सैलाब उमड़ा था रक्सौल के सिसवा गांव में तिलावे नदी के किनारे. किस तरह से पति को खोनेवाले जितेंद्र की पत्नी अपने बच्चों को भी बीएसएफ में भेजने की बात कह रही थीं. आखिर कोई बात तो है इस देश की मिट्टी में, जिसमें एक पत्नी अपने पति की जलती हुई चिता के सामने यह कहती है. यहां मुङो फिर वही चिराग की बात याद आती है कि वो लगातार जलता रहे. इस दिवाली अपने घर पर चिराग तो जलते हुये देख रहा हूं, लेकिन पर्व का वो उत्साह नहीं है.
कल के कवि सम्मेलन के दौरान दो कवियत्रियां थीं, जो खुद शिक्षक हैं, नाम दोनों का एक हैं पूनम, लेकिन उपनाम में सिंह और सिन्हा का फर्क है. दोनों के बच्चे देश की सीमा की निगहबानी में लगे हैं, जब वो कविता पाठ कर रही थीं, तो उनके शब्दों में वह भाव दिख रहे थे. इससे यह भी महसूस करने की कोशिश कर रहा था कि वो मां क्या सोचती होगी, जिसका बेटा देश की रक्षा के लिए सरहद पर तैनात है. 

शनिवार, 29 अक्टूबर 2016

थप्पड़ ने दो अधिकारियों को पहुंचाया जेल!


बिहार में पिछले छह साल से काम कर रहा हूं. एक साथ एक अनुमंडल के दो बड़े अधिकारियों की गिरफ्तारी एक साथ होती नहीं देखी थी, लेकिन 27 अक्तूबर 2016 को सीमावर्ती जयनगर के एसडीओ गुलाम मुस्तफा व डीएसपी चंदनपुरी को निगरानी की टीम ने एक साथ गिरफ्तार कर लिया. दोनों पर अवैध पटाखों को रखने की एवज में रिश्वत लेने का आरोप लगा. आरोप लगानेवाला जयनगर का ही ट्रांसपोर्टर है. दोनों अधिकारियों के पीछे ट्रांसपोर्टर क्यों पड़ा और उसने निगरानी का सहारा कैसे लिया? इसके बारे में जो जानकारी सामने आयी है, जिसकी चर्चा जयनगर के बाजार में हो रही है, उसके मुताबिक लगभग 20 दिन पहले जब जिले के एसपी को पटाखा लदा ट्रक जयनगर आने की सूचना मिली थी, तो जयनगर पुलिस ने ट्रांसपोर्टर के यहां छापेमारी की थी. इसके बाद एसपी के निर्देश पर शाम के समय एसडीओ व डीएसपी भी ट्रांसपोर्टर के यहां पहुंचे थे. इसके बाद ही मामले के सेलेटमेंट की बात हुई थी, जो चर्चा है, उसके मुताबिक दो लाख में मामला तय हुआ था.
रिश्वत की रकम तय होने के बाद ट्रांसपोर्टर के यहां काजू-किसमिस व मिठाई मिलने की बात कही गयी. इसके बाद ट्रांसपोर्टर की बारी थी, उसे दोनों अधिकारियों के यहां रिश्वत की रकम पहुंचानी थी, लेकिन किन्ही कारणों ने उसने रुपये नहीं पहुंचाये. इसी दौरान एक अधिकारी ने बिचौलिये के जरिये ट्रांसपोर्टर को अपने आवास पर बुलाया था और रुपयों के लिए दबाव बनाया. ट्रांसपोर्टर के जवाब से खफा अधिकारी ने उसको थप्पड़ जड़ दिया. बिचौलिये के सामने थप्पड़ खाने से ट्रांसपोर्टर तिलमिला गया और उसने सबक सिखाने की ठानी.
ट्रांसपोर्टर ने निगरानी टीम से संपर्क साधा, तो पहले मामले की सच्चई का पता लगाया गया. पुष्टि होने के बाद दोनों को रंगेहाथ गिरफ्तार करने की रणनीति बनायी गयी. इसी के तहत ट्रांसपोर्टर व उसके भाई को दोनों अधिकारियों के यहां रिश्वत की रकम लेकर भेजा गया, जिन्हें निगरानी की टीम ने रंगेहाथ दबोच लिया, जिस समय एसडीओ को पकड़ा गया, वो अपने आवास पर चाय पी रहे थे, जबकि डीएसपी पत्नी व बच्चे के साथ आवास के बाहर लॉन में बैठे थे. इसी दौरान वहां के चेंबर के सचिव पवन को भी गिरफ्तार किया गया. पवन पर बिचौलिये के रूप में काम करने का आरोप है. 

शुक्रवार, 28 अक्टूबर 2016

शहादत को सलाम- बेटी से किया वादा अब कभी पूरा नहीं कर पायेंगे जीतेंद्र


रक्सौल जैसे सीमावर्ती क्षेत्र से निकल कर बीएसएफ (बॉर्डर सिक्योरिटी फोर्स) में शामिल हुये जीतेंद्र कुमार सिंह को सेवा में 23 साल पूरे होनेवाले थे. 20 साल की नौकरी पर रिटायरमेंट मिलनेवाला था, लेकिन तीन साल का एक्सटेंशन ले लिया, ताकि देश की सेवा कर सकें. हाल के महीनों में जब सीमा  पर तनाव बढ़ा, तो जीतेंद्र को आनेवाले दिनों का आभास हो गया था. पाक की नापाक हरकतों से वो सरहद की सुरक्षा करते हुये रोज रू-ब-रू होते थे. सामने से पाक रेंजर्स कब फायरिंग शुरू कर दें. कब मोटर्र से गोले दागने लगें, कोई भरोसा नहीं रहता.
इधर, जितेंद्र का परिवार रक्सौल के जिस घर में रहता है. वह टीन का है. उसमें केवल एक छोटी से कोठरी बनी है, जो उनके पिता लक्ष्मी सिंह ने बनवायी थी. लक्ष्मी सिंह अब इस दुनिया में नहीं हैं. जितेंद्र के एक भाई हैं, जो अलग रहते हैं. मां-पत्नी व तीन बच्चे इसी टीन शेड में गुजारा कर रहे हैं. डेढ़ माह पहले जितेंद्र घर आये थे. बच्चों ने बहुत दबाव डाला था कि पापा घर बनवा लो, तब कहने लगे कि अगले साल मार्च में रिटायर होना है, तभी घर बनवायेंगे. अच्छा घर बनाना है. इसके बाद ड्यूटी पर गये, तो वहां के हालात के बारे में घरवालों को बताते थे. सप्ताह भर पहले फोन किया था, तब बच्चों से कहा था कि यहां सीमा पर हालात ठीक नहीं है. पता नहीं कब कौन शिकार हो जाये, पता नहीं है. उन्होंने अपनी बड़ी बेटी से कहा था कि बेटा अगर हम शहीद हो जायेंगे, तो तुम लोग रोना नहीं.
26 अक्तूबर की रात पाकिस्तान की ओर से की गयी फायरिंग में जीतेंद्र जख्मी हुये और जब तक उन्हें अस्पताल ले जाया जाता, वो शहीद हो चुके थे. इधर, रक्सौल में जीतेंद्र का परिवार दिवाली की तैयारी में लगा था. पत्नी मोतिहारी में पढ़नेवाले बेटे को स्कूल के हॉस्टल से वापस लाने के लिए सुबह ही निकल गयी थी. बड़ी बेटी घर पर थी, जबकि छोटी स्कूल गयी थी. दिन में लगभग 11 बजे जब रक्सौल के लोगों को जीतेंद्र की शहादत की बात पता चली, तो वह उनके आवास पर इकट्ठा होने लगे, तब उनकी बेटी को किसी अनहोनी की आशंका हो गयी थी. कुछ ही देर में उसे इस बात का पता चल गया कि अब पापा इस दुनिया में नहीं हैं. वो शहीद हो चुके हैं.
जीतेंद्र के घर पर जो आ रहा था, उनके घर की हालत देख कर परेशान हो रहा था. किस हालात में हमारे देश की रक्षा करनेवाले जवान का परिवार रहता है. इसकी बात चली, तो बेटी बोल पड़ी कि पापा पिछली बार आये थे, तब कह कर गये थे कि मार्च में घर आयेंगे, तो अच्छा सा घर बनवायेंगे, तब तक तुम लोग इसी में किसी तरह से रहो, लेकिन अब पापा नहीं हैं. हमारे लिए घर कौन बनायेगा. ये कह कर वो जोर-जोर से रोने लगी, तो वहां मौजूद सैकड़ों की संख्या में लोगों की आंखें नम हो गयीं. सरकारी हुक्म लेकर पहुंचे अधिकारियों ने भी जब जीतेंद्र के घर की हालात देखी, तो वह भी परेशान हो उठे.
जीतेंद्र ने वतन की राह में अपनी जान कुर्बान कर दी, उनकी चर्चा सीमावर्ती रक्सौल में रहनेवाले हर व्यक्ति की जुबान पर है. वह कैसे देश के बारे में सोचते थे. इसकी झलक हमें उनके अंतिम फोन से मिलती है, जिसमें उन्होंने कहा था कि अगर हम शहीद हो गये, तो रोना नहीं. आखिर जीतेंद्र ने देश के लिए सबसे बड़ा बलिदान दिया है. अब हमारी बारी है कि हम उनके जज्बे व शहादत का सम्मान करें.

इलाहाबाद स्मरण..प्यासे होंगे, लाओ पानी पिला देते हैं


इलाहाबाद से जुड़ी वैसे तो तमाम यादे और किस्से हैं, लेकिन एक सबसे कॉमन वाक्य हम लोगों के बीच में था, जब किसी साथी से कुछ करने को कहा जाता और वो बहाना मार कर टालने की कोशिश करता, तो सब मिलकर यही कहते, काबे बकैती करबो..फिर प्यार से..दोस्त-दोस्त ना रहा..गीत गाया जाता था. 
दोस्त, दोस्त ना रहा. दिन में दर्जनों बार सुनने को मिल जाता था, चाहे सब्जी लाने की बात हो या फिर कमरे से उठ कर चच्चू की दुकान पर चाय पीने की. एक हम लोगों के जिगरी भाइया थे. कहने को तो बीए में पढ़ते थे, लेकिन उम्र 30 के आसपास रही होगी, वो परीक्षा के समय ही दिखायी देते थे. 1992 में कल्याण सिंह ने नकल को लेकर कानून बना दिया था, जिसमें नकल करनेवाले छात्र की गिरफ्तारी हो जाती थी. बड़ा कड़ा कानून था. हमको याद है कि हम इंटर की परीक्षा दे रहे थे. अंतिम पेपर था गणित का, परीक्षा छूटने में पांच मिनट का समय बचा था. हम लोगों ने अपना ज्ञान कॉपी पर उतार कर परीक्षक को दे चुके थे. बात हो रही थी कि परीक्षा छूटने के बाद कहां जाना है, हमने पहले से सिनेमा का टिकट कटवा रखा था, क्योंकि जीवन में पहली बार हाल में सिनेमा देखने जा रहे थे. इसकी चर्चा कर रहा था, तभी कॉलेज के प्रिंसिपल आये और उन्होंने हमारे बगल के छात्र को पकड़ लिया. एक-दो चाटे जमा दिये, कॉपी ले ली और बाहर चले गये. चंद मिनटों में ही एक दारोगा जी आ गये और उस छात्र को अपने साथ लेकर चले गये.
हमारी फिल्म का मजा काफूर हो गया, लेकिन टिकट लिया था, सो हाल की ओर चल दिये, लेकिन दिमाग में वही चल रहा था. हां, बात जिगरी भाइया की हो रही थी. वो अचानक एक दिन अवतरित हुये. कहने लगे कि बीए पार्ट-टू का फार्म भरना है. सीधे गांव से आ रहा हूं. पिता जी ने एडमिशन के पैसे दिये थे छह सौ रुपये, लेकिन रास्ते में जबेली अच्छी छन रही थी, सो एक किलो जलेबी खा लिये. अब मीठा हुआ, तो नमकीन तो चाहिये ही. पंडित का मन कहां माननेवाला था, सो 10 गो समोसा भी खा लिये. पेट भर गया, तो फिर पान खाये. रास्ते में बस बड़ी देर रुकी थी, सो केला भी एक दर्जन खा लिये. अब एक सौ रुपये फीस में कम हो गया है. आप लोग जुगाड़ करो, नहीं तो कल फार्म भरने का अंतिम दिन है.
खैर, रुपयों पैसों का जुगाड़ हुआ, जिगरी भाइया का फॉर्म भरा गया. अब बारी परीक्षा देने की थी. परीक्षा शुरू हुई, तो एक दिन वो भी नकल करते धरा गये. तारीख थी 13 अगस्त 1994. पकड़े गये, तो जिगरी भाइया पहुंच गये जार्ज टाउन थाने की हवालात में. कमरे पर आने जाने की कोई टाइमिंग तो थी नहीं, इसलिए किसी को चिंता नहीं हुई, एक बार बात हुई. कहा गया कहीं गये होंगे, आ जायेंगे. खैर 13 बीत गयी, जब जिगरी भाइया नहीं आये, तो ये अनुमान लगाया गया कि गांव चले गये होंगे, क्योंकि अगली परीक्षा 16 अगस्त को थी. इसलिए सब निश्चिंत थे. इधर, जिगरी भाइया हवालात में. रविवार को छुट्टी थी. 15 को 15 अगस्त था. इसलिए छूटने की सूरत, तो 16 अगस्त को ही बन रही थी, जब मजिस्ट्रेट के सामने पेशी हो, तब बेल मिले.
बेल के बाद जब जिगरी भाइया कमरे पर आये, तो कहने लगे कि सबसे पहले नहायेंगे. सब पूछे काहे, तो कहने लगे कि पकड़ के ले गये. शाम को कुछ खाने को नहीं दिये. रात में एक दारोगा जी खूब शराब पीकर आये और हवालात के बाहर आकर खड़े हो गये. हम तीन लोग अंदर थे, तो वह बगल में खड़े सिपाही से कहने लगे कि तीनों प्यासे होंगे, सो प्यास बुझा देता हूं. पहले उन्होंने हवालात में पेशाब किया और फिर सिपाही से भी करवाया. पूरा छीटा शरीर पर पड़ा. भूख से हम वैसे परेशान थे. ऊपर से उस दारोगा जी ने पवित्र कर दिया. अगले दिन सुबह कुछ खाने को दिया और फिर बंद कर दिया. जिगरी भाइया बोले, वैसे ही हैं, तब से नहाये नहीं हैं. हम पहले नहा लें, तब खाना बने, नहीं तो सब गड़बड़ हो जायेगी. ऐसा था इलाहाबाद और ऐसे थे हमारे जिगरी भाइया. जाने अब कहां होंगे.

गुरुवार, 27 अक्टूबर 2016

इलाहाबाद और दो साथियों का अंग्रेजी ज्ञान

इलाहाबाद यूनिवर्सिटी को पूर्व का ऑक्सफोर्ड कहा जाता है. अब तो सैकड़ों की संख्या में निजी विश्वविद्यालय और तमाम तरह के तकनीकी संस्थान खुल गये हैं. इसके बाद भी यहां पढ़ाई का क्रेज कम नहीं हुआ है. हजारों की संख्या में छात्र अब भी दूर-दराज के जिलों और गांवों से यहां पढ़ने आते हैं. उनके मन में ये हसरत होती है कि वो अच्छा इंसान बन कर इलाहाबाद से निकलेंगे. इलाहाबाद की धरती का भी क्या कहना? आजादी से पहले किस तरह से यहां की भूमिका थी, वो जग-जाहिर है. यहीं पर वो ऐतिहासिक आनंद भवन है, जिसे देश के पहले प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू के पिता मोतीलाल नेहरू ने बनवाया था. बड़े वकील थे. साथ में बड़े नेता भी. खैर, इससे संबंधित प्रसंग फिर कभी.
मैं भी इलाहाबाद में रहा और पढ़ा. वहां के गलियों के ताप को महसूस किया. किस तरह की छटपटाहट गांव से आनेवाले छात्रों को होती है. कैसे वो जल्दी से जल्दी अपने माता-पिता के सपने को पूरा करना चाहते हैं. इसके लिए सुबह पढ़ाई से होती है, तो रात में सिर पर किताब रखे ही नींद आती है. रात के किसी पहर में आंख खुलती है, तो किताब को सिरहाने रखने की आदत सी बन जाती है. इस पढ़ाई के बीच वो छटपटाहट भी रहती है, जो हमे समाज में अच्छे इंसान के रूप में स्थापित करने की होती है. हां, एक बात और. इलाहाबादी लड़कों की अंगरेजी कुछ खास नहीं होती है. इसी से संबंधित एक किस्सा मुङो भी सुनाया गया, जब मैं इलाहाबाद पढ़ने के लिए जा रहा था. उसका मकसद शायद ये रहा होगा कि हम मन लगाकर पढ़ें, ताकि ये स्थिति नहीं बने, जो इस कहानी में दो दोस्तों की हुई. कहानी ऐसी याद हुई कि मैं बार-बार अपने साथियों को सुनाता हूं.
यूपी के किसी सुदूर गांव से दो मित्र (हरखू और रामसेवक) पढ़ने के लिए इलाहाबाद आये. दोनों को इलाहाबाद में रहते हुये एक साल से ज्यादा हो गया. एक दिन दोनों यूनिवर्सिटी रोड से किताबों की खोज में गुजर रहे थे. इसी बीच बगल से दो छात्र अंगरेजी में बात करते हुये गुजरे, तो हरखू ने रामसेवक से कहा कि हम दोनों को आये एक साल से ज्यादा हो गया यार, लेकिन हम तो अंगरेजी तक नहीं सीख पाये हैं. कंपटीशन क्या.. पास करेंगे. अंगरेजी की बात चली, तो रामसेवक भी सन्न. कहने लगे, ऐसी बात कैसे कर दी यार. हम भी अंगरेजी बोलेंगे और अगले ही छड़ दोनों ने अंगरेजी में बात करने का फैसला कर लिया और तय हुआ कि अब कोई भी बात होगी, तो अंगरेजी में, नहीं तो आपस में बात होगी ही नहीं.
अच्छे खासे हरखू और रामसेवक किताब खरीदने आये थे, लेकिन अंगरेजी ने दोनों के बीच कचरा कर दिया. अब आये, तब तो बोले ना. दोनों एक-दूसरे की शकल देखते हुये सड़क के किनारे चले जा रहे थे. पूरी यूनिवर्सिटी का चक्कर लगा लिया. आनंद भवन से होते हुये सोबतियाबाग भी पहुंच गये, लेकिन एक शब्द बात नहीं हुई. इसी बीच में राम सेवक को बीड़ी की तलब लगी, लेकिन बोले, तो कैसे बोले. अंगरेजी में कुछ सूझ नहीं रहा था. किसी तरह से तलब को काबू में करते हुये चले जा रहे थे. दोनों मित्र एक-दूसरे का मुंह देखते और आगे बढ़े चले जा रहे थे. थोड़ी ही देर में संगम के किनारे. लेटे हुये हनुमान जी के मंदिर के पास. हाथ जोड़ कर दोनों ने खुद को ज्ञान देने की कामना संकट मोचक हनुमान जी से की. शायद हनुमान जी ही कोई रास्ता सुझा दें. अब हनुमान जी अपने दर से कैसे खाली जाने देते दोनों को, सो रामसेवक को तरकीब सूझी.
मन ही मन सोचने लगे कि अब बोलेंगे, तो अंगरेजी में ही चाहे जो हो, यहां कौन हरखू अंगरेजी का ज्ञाता है. जैसे हम, वैसे वह भी तो है. है तो हमारे गांव का ही. बीड़ी की तलब अलग से. कुछ ही देर में रामसेवक ने हरखू को रोका और इशारा किया, लेकिन हरखू ने समझ कर भी इशारे को नहीं समझने का नाटक किया, तो रामसेवक से नहीं रहा गया. रामसेवक की तरह हरखू को भी बीड़ी की तलब लगी हुई थी, लेकिन वो किसी तरह से खुद को संभाल रहा था, लेकिन राम सेवक से नहीं रहा गया. बोल पड़ा.
रामसेवक- बीड़ी इज..?
हरखू- इज.
रामसेवक- मासिच इज.
हरखू- इज.
रामसेवक- देन फायर.
बीड़ी जलते ही दोनों मित्रों से सुट्टा मारना शुरू कर दिया और उसके धुएं के साथ इनकी अंगरेजी बोलने की कसम भी कहीं आसमान में उड़ गये. दोनों आपस में हंसते-बोलते बतियाते. संगम तट से फिर सोहबतियाबाग अपने कमरे की ओर आगे बढ़ लिये.

बुधवार, 26 अक्टूबर 2016

चुनाव यात्रा-8- शिवहर के जीरो माइल पर वोट की होड़

शिवहर को बिहार के सबसे पिछड़े इलाकों में माना जाता है. यहां का मुख्य चौराहा जीरो माइल, इसी के आसपास तक चुनावी रौनक बिखरी दिखती है. आसपास की बिल्डिंगों में विभिन्न प्रत्याशियों ने कार्यालय बना रखा है, जिनमें लगे लाउडस्पीकर की कानफोड़ आवाज मुख्य चौराहे तक गूंजती है. धूल उड़ाते वाहन यहां के विकास की सच्चई को बयान करते हैं. किसी अनुमंडल के मुख्य चौराहे पर यहां से ज्यादा भीड़ दिखती है. कहने को तो दशकों पहले शिवहर को जिला बना दिया गया, लेकिन वहां वह सुविधाएं नहीं आयीं, जो एक जिले के लिए जरूरी होती हैं. खैर इन पर बात फिर कभी, लेकिन चुनाव का गणित यहां पर बड़ा दिलचस्प दिखा.
जिन मुद्दों पर लोकसभा का चुनाव लड़ा गया था. उनकी कुछ गूंज सुनायी देती है, लेकिन जाति के आधार पर वोटरों को बांटने की कोशिश ज्यादा नजर आती है. विभिन्न दलों व संगठनों से जुड़े लोग इसी जुगत में लगे दिखे कि वो अपनी जाति के लोगों को कैसे किसी विशेष प्रत्याशी के पक्ष में गोलबंद करें. इसके लिए दूसरे दल के प्रत्याशियों का भय दिखाया जा रहा था. कहीं अनजान और कहीं परचित बन कर मैंने भी इस खेल को देखा, लेकिन सच्चाई यही है. दी जाती है लोकतंत्र की दुहाई, जिसमें धर्म निरपेक्षता की बात होती है, लेकिन जमीन पर धर्म का ही सबसे ज्यादा सहारा लिया जाता है.
माओवाद प्रभावित शिवहर में सबकुछ ठीक नहीं दिखता है. यहां की फिजां में अजीब सा सन्नाटा हकीकत को बयान करता है कि लोग किस तरह से डरे-सहमे रहते हैं. कोई भी हल्की सी जरूरत होती है, तो यहां के लोगों को या तो मुजफ्फरपुर या फिर सीतामढ़ी का रुख करना पड़ता है. एक ढंग का अस्पताल तक यहां पर नहीं है. रेल यहां पर आयी नहीं है. एक भी डिग्री कॉलेज यहां नहीं है, जिससे उच्च शिक्षा के लिए यहां के छात्र-छात्रओं को मुजफ्फरपुर का रुख करना पड़ता है, जो लोग संपन्न हैं, उनके बच्चे बड़े शहरों में पढ़ने के लिए चले जाते हैं. डिग्री कॉलेज से लेकर रेलवे तक का मुद्दा यहां हर चुनाव में उठता है, लेकिन उस पर काम नहीं होता. बजट दर बजट पेश होता जा रहा है. हर बजट में शिवहर के लोग सोचते हैं कि हमारे यहां रेलवे लाइन की घोषणा होगी, लेकिन अभी तक नहीं हो पाया है.
ये मुद्दे भले ही बड़े हैं, लेकिन समाज में गोलबंदी दिखती है. वो उसी ओर जाने की बात करता है, जो उसकी जमात से जुड़े हैं और उन तक पहुंच रहे हैं. वोट का मौके पर बड़े मुद्दे गौड़ हो जाते हैं. ऐसा अन्य स्थानों पर भी देखने को मिला, लेकिन शिवहर में इस पर चर्चा हो रही थी.
जारी..

चमेला कुटीर-4- तब छह आने में किलोभर मिलती थी दाल

1960 से हम अभी 56 साल आगे बढ़े हैं, लेकिन मंहगाई कितने गुना आगे बढ़ी है. इसका अंजादा सच्चिदाबाबू की उस डायरी से लगा सकते हैं, जो उन्हें घर की सफाई के दौरान मिली. उसमें 1960 का हिसाब लिखा है. डायरी का जिक्र करते हुये सच्चिदा बाबू कहते हैं कि तब छह आने में एक किलो दाल मिलती थी. कपड़ा धोने का साबुन आठ आने में मिलता था. टमाटर दो आने में किलो भर मिल जाता था. एक पाव मक्खन बीस आने का आता था. किरोसिन ढाई आने का लीटर था. अब इन चीजों की क्या कीमत है. बताने की जरूरत नहीं है. खास कर दाल का क्या हाल हुआ है. अभी भी दाल 120-140 रुपये किलो तक में बिक रही है. ऐसे में हमने कैसा विकास किया है, कहने की जरूरत नहीं है. महंगाई का विकास जरूर हुआ है.
2012 में सच्चिदा बाबू से बात की थी, तो उन्होंने बताया था कि किस तरह से बढ़ती जनसंख्या भारत जैसे देशों के लिए परेशानी का सबब है, लेकिन विकसित देशों के साथ ये बात नहीं है. वहां की आबादी नियंत्रित है. अपने देश में मध्यम वर्ग है, जो सोचता है कि ज्यादा बच्चे होंगे, तो उसके लालन-पालन में परेशानी होगी, लेकिन गरीब व मजूदरों के सामने ये समस्या नहीं है. वे सोचते हैं कि हमारे यहां जितने ज्यादा लोग होंगे, उतना अच्छा रहेगा. सच्चिदा बाबू कहते हैं कि अपने देश में भविष्य को लेकर कोई योजना नहीं है, जबकि विकसित देशों को आप देख सकते हैं कि वहां की आबादी या तो स्थिर है या फिर घट रही है.
सच्चिदा बाबू पानी संकट के बारे में भी अगाह करते हैं. उनका कहना है कि पानी, वो भी पीने का लायक मीठा पानी, इसकी लगातार कमी हो रही है, जबकि मानव से लेकर पशुओं तक के लिए पानी जरूरी है, लेकिन अत्यधिक दोहन की वजह से पीने का पानी लगातार घट रहा है. अब जटिल रासायनिक प्रक्रिया से पानी को साफ करना पड़ता है, तो पीने लायक होता है, लेकिन इस तक गरीब लोगों की पहुंच नहीं है. वो बोतल बंद पानी नहीं खरीद सकते हैं. इससे इतर अगर हम सच्चिदा बाबू की जीवन शैली की बात करें, तो उनके खपरैल के घर में प्रकृति के अनुरूप व्यवस्था है, जब सूर्य उत्तरायण होते हैं, तो गर्मी पड़ती है. उसके ताप से बचने के लिए पेड़ों की छांव चाहिये, सो सच्चिदा बाबू के आवास के उत्तर में पेड़ हैं, जबकि सूर्य के दक्षिणायण होने पर सर्दी पड़ती है, तो सूर्य की गर्मी अच्छी लगती है. सच्चिदा बाबू के आवास पर भी दक्षिण की ओर खाली है. उधर पेड़ नहीं हैं. घर में बिजली नहीं है, तो फैन की बात ही नहीं है, लेकिन गर्मी के दिनों में भी वह आराम से रहते हैं. उनके आवास में बिना पंखा बैठना अच्छा लगता है.
जारी..

इस एनएच पर एक बार जायेंगे, तो दुबारा हिम्मत नहीं करेंगे!

उत्तर बिहार की सड़कें-दो
मोतिहारी-रक्सौल एनएच. कहने को तो ये सड़क अंतरराष्ट्रीय सीमा तक जाती है. इससे होकर नेपाल के लिए रसद का बड़े पैमाने पर सामान जाता है. बड़े ट्रक इससे 24 घंटे गुजरते हैं, लेकिन पिछले आठ साल से ये सड़क बन रही है, लेकिन अभी तक पूरी नहीं हो सकी. अगर इससे आप एक बार गुजरे, तो दुबारा जाने की हिम्मत नहीं जुटा पायेंगे. इसके बावजूद लोग इससे आते-जाते हैं, क्योंकि उनके पास कोई विकल्प नहीं है. अंतरराष्ट्रीय सीमा से लगनेवाली इस सड़क की कहानी भी रहस्यों से भरी है, क्योंकि इस पर कोई भी सरकारी आदेश काम नहीं करता.
केंद्रीय मंत्री से लेकर स्थानीय सांसद तक की ओर से चेतावनी पर चेतावनी दी गयी, लेकिन सड़क बनानेवाली कंपनी ज्यों की त्यों बनी हुई है. याद कीजिये, पिछले साल अप्रैल का महीना, तब भूकंप आया था, जिसमें नेपाल में बड़े पैमाने पर क्षति हुई थी. उस समय रक्सौल में बेसकैंप बना था. केंद्रीय पेट्रोलियम मंत्री धर्मेद्र प्रधान कैंप को देखने आये और जब वो इस सड़क से गुजरने लगे, तो उन्हें विश्वास नहीं हुआ. रास्ते से ही केंद्रीय भूतल परिवहन मंत्री नितिन गडकरी को फोन लगाकर सड़क की शिकायत करने लगे. उसी समय केंद्रीय मंत्री ने कहा कि अगले तीन महीने में ये सड़क मोटरेबुल हो जायेगी, अगर नहीं हुई, तो कंपनी पर कार्रवाई होगी. इसके बाद केंद्र सरकार के अधिकारी भी मोतिहारी आये. सड़क की हालत देखने के बाद बैठक की और समय सीमा तय की, लेकिन उसका भी पालन होता नहीं दिख रहा है. इसका जिक्र मैं इसलिए यहां कर रहा हूं, क्योंकि ये हाल में उठाये गये ऐसे कदम हैं, जिनका असर होना चाहिये था, लेकिन नहीं हुआ.
52 किलोमीटर लंबी इस सड़क से गुजरना आसान काम नहीं है. मुजफ्फरपुर से पिपराकोठी तक फोरलेन सड़क के बाद जब आप टू-लेन सड़क पर जायेंगे, तो कुछ दूर तक हालत ठीक है, लेकिन इसकी बानगी शुरू से ही मिलने लगती है. मोतिहारी शहर पार करने के साथ ही आपकी परेशानी भी बढ़ जायेगी. इस पर परेशान होने से कुछ नहीं होनेवाला. इस पर आप हनुमान चलीसा का पाठ करें या फिर ईष्ट को याद करें, इससे आपके मन को शांति मिलेगी, लेकिन परेशानी कम होनेवाली नहीं है. आपको हिचकोले खाती सड़क पर परीक्षा देते ही जाना पड़ेगा. पिछली बार जब मैं इस सड़क से गुजरा था, तो साढ़े तीन घंटे रक्सौल पहुंचने में लगे थे. अभी का पता नहीं, लेकिन इससे गुजरनेवाले लोगों का कहना है कि गाड़ी के बजाय बाइक से जाने पर कम समय लगता है.
चालक जब इस सड़क से गुजरते हैं, तो उनका कहना होता है कि इस सड़क से गुजरते हुये हमें खेत में गाड़ी चलाने का अहसास होता है. कई जगह तो स्थिति ऐसी है, जहां चालकों की हिम्मत भी जवाब दे जाती है. जगह-जगह खराब गाड़ियां सड़क की हकीकत बयान करती हैं. इससे गुजरनेवाले कितने लोग बीमार हुये होंगे, इसका आकड़ा तो मेरे पास नहीं है, लेकिन यह मैं जरूर कह सकता हूं कि अगर आप इस सड़क से गुजरते हैं, तो कम से कम उस दिन काम करने की स्थिति में तो नहीं रह जायेंगे. मन-मिजाज दोनों इस पर थक जाता है. 2013 में इस सड़क को लेकर रक्सौल में बड़ा आंदोलन हुआ था, उस समय केंद्र में कांग्रेस के नेतृत्व वाली सरकार थी, तब स्थानीय सांसद डॉ संजय जायसवाल ने सड़क को लेकर धरना दिया था, लेकिन समय के साथ केंद्र की सरकार भी बदल गयी, लेकिन इस सड़क की तकदीर व तस्वीर नहीं बदली. डॉ संजय जायसवाल अब भी इस इलाके के सांसद हैं.