बुधवार, 19 जुलाई 2017

चौड़ी हुई सड़क तो मेरा गांव कट गया


जब भी मैं इन सड़कों से होकर गुजरता हूं, तो बचपन की कई कहानियां और किस्से याद आने लगते हैं. वह दिन भी याद आते हैं, जब रात में सात-आठ बजे अपने शहर रायबरेली से घर वापस लौटता था, तो साइकिल बीच सड़क से होकर चलाता था. बहुत कम ऐसा होता था, जब कोई ट्रक या बस आये और उसे रास्ता देना पड़े. रास्ता देने के मतलब था, पक्की सड़क से कच्ची पर उतरना. कोई साइकिल वाला तेज चलाते हुये आगे निकलता था, तो उससे कैसे आगे निकलना है. यह सोचने लगता था. पैडल पर पैर इतनी तेजी से अपने आप चलने लगते थे कि अगले एक-दो किलोमीटर में उससे आगे हो ही जाता था. मुङो याद नहीं कि गंगागंज से रायबरेली के बीच की सड़क पर कभी किसी साइकिल वाले ने मुङो पछाड़ा हो.
दोस्तों के साथ जब गुजरता था, तो गणित और विज्ञान के सूत्र दोहराना होता था. हां, लड़कपन की बातें तो होती ही थीं, तब सड़कों की अहमियत समझ में नहीं आती थी. उन पर चलना क्या होता है. शायद यह भी समझ में नहीं आता था, लेकिन उदारीकरण के बाद पूरी अवधारणा बदल गयी. प्रिय शायर मुनव्वर राना साहब से काफी बाद में मिलना हुआा, तो उन्होंने सड़कों को लेकर अपना दुख कुछ यों बयान किया..
मंजिल करीब आते ही एक पांव कट गया.
चौड़ी हुई सड़क तो मेरा गांव कट गया.
जब ये शेर सुना, तो सड़क होना क्या होता है और गांव कटना क्या होता है. यह भी समझ में आने लगा. अब वही गंगागंज और रायबरेली की सड़क फोरलेन हो गयी है, लेकिन जब भी गुजरता हूं, तो मन उदास हो जाता है. वजह वह एक लेन की सड़क जिसके किनारे हजारों की संख्या में पेड़ लगे थे. कहीं भी धूप नहीं लगती थी. उनके नीचे से गुजरते हुये सड़क हमसे बात करती थी. गर्मी में सुखद एहसास कराती थी. अब उस पर एक भी पेड़ नहीं रह गया है. निजर्न वीरान सड़क ही रह गयी है. जिस पर सौ और इससे ज्यादा की स्पीड में दौड़ती गाडियां ही गाड़ियां दिखती हैं.
मेरे चलने का तरीका भी बदल गया है. पहले साइकिल और तांगे से जाना होता था, लेकिन अब कम से कम मोटरसाइकिल तो होती ही है. छोटे भाई की जिद होती है कि ज्यादातर गाड़ी से चलूं, तो उसकी गाड़ी से ज्यादा गुजरना होता है. वह हमारे लिये छुट्टी भी ले लेता है. हम दोनों मिलकर दिन भर सड़कों पर चलते रहते हैं. इस गांव से उस गांव. इस ठांव से उस ठांव. हां, सड़कें दिन, तारीख, समय सब याद रखती और रखवाती भी हैं. यह इनकी खासियत है. 
उदारीकरण के बाद सड़कें तेजी से बनीं, तोजहां लोग घंटों में पहुंचते थे. वहां मिनटों में पहुंच रहे हैं. जिंदगी फास्ट हो गयी है, लेकिन बढ़ते वाहनों ने फिर हमें पीछे ढकेलना शुरू किया है. अब सड़कें चाहे जितनी बन रही हैं, लेकिन वाहन उन पर भारी पड़ रहे हैं. नतीजा जाम के रूप में सामने आ रहा है, जहां जाने में घंटे भर का समय लगता है. अगर जाम लग गया, तो कई घंटों में बदल जाता है. यह नये जमाने की परेशानी है, जो सड़कों ने नहीं पैदा की है. हमने पैदा की है और हमारी बनायी है. सड़कें तो हमें मंजिल तक पहुंचाती हैं. बिना भेदभाव.
सड़कों की बात चली, तो यह भी याद आता है, जैसे दिन और रात आता है. वैसे ही ये सड़कें भी हमारा साथ अच्छे में भी देती हैं और बुरे में भी. कभी हिसाब नहीं मांगती. हां, हमेशा हमारे हिसाब से खुद को एडजस्ट करती हैं और हमारे लिये रास्ता सुगम करती हैं. यह जिंदगी का तकाजा ही है कि अब हमारा जो कर्मक्षेत्र है. वहां कभी सड़कों को लेकर बहुत बातें होती थीं. बिहार में तब के मुखिया गांव के लोगों से कहते थे कि अगर सड़क बन जायेगी, तो चोर-डाकू गाड़ियों से आयेंगे. लूट कर चले जायेंगे, तुमको क्या मिलेगा. तुम ऐेसे ही ठीक हो. बिना सड़क के.
अब यहां की भी स्थिति बदल गयी है. गांव-गांव में सड़कें हैं और जिन्हें डराया जाता था. उन्हें ही सड़कों से सबसे ज्यादा फायदा हो रहा है. यह हम नहीं स्टडी कहती है. हालांकि सड़कों के रूप में हमने कंक्रीट को बढाया है, लेकिन इनसे राह कितनी आसान हुई है, यह भी देखना पड़ेगा. इसका मूल्याकंन फिर कभी. सड़कों पर और बात फिर. अभी के लिए बस इतना ही.

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