हाल के दिनों में बिहार की सड़कों को लेकर बहस सी चल पड़ी है. ये उसी तर्ज है कि हमारी कमीज, तुम्हारी से ज्यादा साफ है. इसमें बहस में सूबे के सरकार के मंत्री तक शामिल हो गये और कहने लगे कि बिहार को बदनाम नहीं होने देंगे, जैसे बिहार की बदनामी सड़कों में ही समाहित है. उसके अलावा सभी जगह ऑल इज वेल है, लेकिन जब इसको लेकर मंत्री जी को आइना दिखाया गया, तो बात होने लगी कि ये केंद्र सरकार की सड़क है. रख-रखाव की जिम्मेवारी उसी की है, लेकिन सवाल ये है कि सड़क तो बिहार में बनी है. चल यहां के लोग रहे हैं और बाहर से जो लोग आ रहे हैं. वह भी परेशान हो रहे हैं. इस माहौल में बातें करना बेमानी जैसा है. हर साल जब बारिश का मौसम आता है, तो विरोध के रूप में सड़कों पर धान रोपने की घटनाएं आम सी हो जाती हैं. इस बार भी बारिश शुरू हो गयी है. सड़कों की बदहाली के मुद्दे पर विरोध शुरू हो गया है. बेतिया हो या बक्सर, तस्वीर ज्यादा अलग नहीं है. केवल सोचने और समझने का नजरिया है. हां, सड़कों की बदहाली को बिहार की बदनामी से न ही जोड़ा जेया, तो अच्छा होगा.
हम भी बात एक सड़क की ही करना चाहते हैं. कमोबेश सभी ग्रामीण सड़कों की स्थिति ऐसी ही है, लेकिन जिस सड़क से पिछले दिनों बार-बार गुजरना पड़ा. उसकी बात करता हूं. यह सड़क दरभंगा फोरलेन पर संगम घाट पुल से बूढ़ी गंडक नदी के बांध पर बनी है. बताते हैं कि दो साल पहले लंबे संघर्ष के बाद सड़क बनी. लगभग सात किलोमीटर लंबी सड़क का निर्माण हुआ, तो शिवहर व मीनापुर की दूरी 12 किलोमीटर घट गयी. इलाके के लोगों में हर्ष की लहर दौड़ गयी. सड़क से रोज लाखों का आना-जाना है. सैकड़ों की संख्या में ऑटो चलते हैं, लेकिन दो साल पूरा होते-होते सड़क में गड्ढे कि गड्ढे में सड़क की कहावत चरितार्थ होने लगी. यह सड़क पर पूरी तरह से टूट कर बिखर रही है. कई स्थानों पर ऐसा कि सड़क रह ही नहीं गयी है. स्थानीय लोगों ने मिट्टी डाल कर भरा है, ताकि वहां से गुजरा जा सके.
बारिश होते ही यह सड़क मौत का कुंआ नजर आने लगती है, क्योंकि सड़क पर पड़ी मिट्टी पानी की वजह से फिसलने लगती है और इस पर चलनेवाली गाड़ियों का नियंत्रण ड्राइवर के हाथ में नहीं रह जाता है. वह नियंत्रण सरकनेवाली मिट्टी के हाथों होता है. पानी के हिसाब से गाड़ियों से न्याय होता है. अगर पानी ज्यादा बरस गया, तो गाड़ियों की शामत, नहीं तो किसी तरह से पार होने की इजाजत. यही कहानी पूरी बारिश इस रोड पर रहती है. इस रोड पर कई गांव पड़ते हैं. इनमें कोठिया, मिठनसराय जैसे गांव प्रमुख हैं.
इस सड़क से एक बार जो गुजरता है. दूसरा गुजरने में उसे जान का खतरा लगने लगता है. पिछलवे दिनों लगभग आाधा दर्जन बार इस सड़क से जाना हुआ, लेकिन गांव का होने की वजह से मुङो कम डर लगा, जब गाड़ी डगमगाती थी, तो लगता था कि अब खाई में चले जायेंगे, लेकिन भगवान की कृपा रही. ऐसा नहीं हुआ. अपने एक साथी के साथ गया था, जब वापस आने की बारी आयी, तो कहने लगे कि कोई दूसरा रास्ता हो, तो उससे चलें. अब इस सड़क से जाने पर डर लगता है. मुङो हार कर उनकी बात माननी पड़ी और कई किलोमीटर का चक्कर काटते हुये जमालाबाद व झपहां के रास्ते शहर वापस आना पड़ा.
रास्ते में आते समय मैं यह सोच रहा था कि आखिर किस दौर में हम जी रहे हैं. सरकार रोड एंबुलेंस की बात करती है. रोड मेंटिनेंस पॉलिसी का ऐलान होता है, लेकिन कुछ भी काम नहीं आती है, जब सड़क बनाने का करार होता है, तो ठेकेदार को पांच साल तक सड़क की मरम्मत की जिम्मेवारी दी जाती है, लेकिन सड़क बनने के बाद कोई देखनेवाला नहीं होता है. रास्ते में बात करने लगा, तो मिठनसराय व कोठिया के ग्रामीण कहने लगे कि हम लोग भगवान भरोसे हैं. रोज किसी न किसी के दुर्घटनाग्रस्त होने का समाचार आता है, जिसकी अब आदत सी हो गयी है. हम लोगों के लिए इसके अलावा और रास्ता भी नहीं है. ऐसे में हम क्या कर सकते हैं. हमें, तो इससे चलना ही होगा?
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