सूचना क्रांति के इस आधुनिक काल में मैं जब भी किसी शहर के मुख्य चौराहे से गुजरता हूं, जिसे ज्यादातर घंटा घर चौराहे के नाम से जाना जाता रहा है, जिन चौराहों के नाम अलग भी हैं. उन पर भी अंगरेजों के जमाने की घड़ी जरूर लगी है, लेकिन अब इन चौराहों की ज्यादातर शहरों में हालत पतली है. कम से कम घड़ी तो बंद ही पड़ी है. कोई पूछनेवाला नहीं. ये घंटाघर घर के उस बुजुर्ग की तरह हो गये हैं, जिनका नाम तो सब भुनाना चाहते हैं, लेकिन उसके लिए करना कोई नहीं चाहता है. हम जिस शहर मुजफ्फरपुर में रहते हैं. यहां के घंटाघर चौराहे का नाम टावर चौक है. यहां भी घड़ी लगी है. सालों से बंद है.
टावर चौक की दुर्दशा मुजफ्फरपुर में रहनेवालों और यहां आने-जानेवालों से छुपी नहीं है. नेता से लेकर अधिकारी तक सब जानते हैं, लेकिन कहीं से कुछ होता नहीं दिख रहा. साबरमती के संत राष्ट्रपिता बापू की मूर्ति लगी है, लेकिन बेहाल है. मूर्ति के चारों ओर लगा शीशा टूट चुका है. शहर के एक नेता जी ने कहा था कि हम शीशा बदलवा देंगे, लेकिन नेता जी का वादा, तो वादा ही रह गया. वो देखने तक नहीं आये.
टावर पर लगी घड़ी भी बेहाल है, लेकिन उसे अपनी बेहाली से ज्यादा उन वादों पर तरस आता है, जो टावर चौक को लेकर किये जाते रहे हैं. बंद होने के बाद भी घड़ी दिन में कम से कम दो बार सही समय बताती है, लेकिन इसका उद्धार जिनके कंधों पर है, वो वादों पर वादे कर रहे हैं, लेकिन दिन क्या, महीनों औ साल बीत रहे हैं, लेकिन उनका वादा सही साबित नहीं हो पा रहा है. यही टावर की पीड़ा है, क्योंकि इसे अपने हिसाब से सब लोग यूज करते हैं. गुगल पर सरैयागंज टावर, मुजफ्फरपुर सर्च करने पर पिन कोड के साथ पता आने लगा. पिन कोड और पता तो याद है, लेकिन हालत कैसी है, ये याद नहीं.
यह कैसी बिडंबना है, जब किसी की कोई मांग होती है, तो वह पुतला दहन से लेकर रोड जाम करने तक के लिए टावर चौक पर पहुंचता है, जब किसी को बड़ी उपलब्धि मिलती है, तो उसे जताने के लिए भी टावर चौक ही सहारा बनता है. याद है, जब पिछले बार भारत विश्वकप जीता था, चारों ओर से किस तरह से गाड़ियों पर हुड़दंग मचाते हुये लोग टावर चौक पर जमा हुये थे. आतिशबाजी हो रही थी. घंटों तक यह सिलसिला चलता रहा, लेकिन टावर चौक की अपनी चमक का क्या हुआ? क्या कोई याद करता है, उन वीर सपूतों को जिनके नाम इस पर खुद हैं, जिन्होंने युद्ध में अपने प्राण न्योछावर कर दिये. क्या हमारे पुरखों को याद करने का यही तरीका है.
जारी..अगली कड़ी में टावर चौक की घड़ी की जुबानी, उसकी कहानी.
टावर चौक की दुर्दशा मुजफ्फरपुर में रहनेवालों और यहां आने-जानेवालों से छुपी नहीं है. नेता से लेकर अधिकारी तक सब जानते हैं, लेकिन कहीं से कुछ होता नहीं दिख रहा. साबरमती के संत राष्ट्रपिता बापू की मूर्ति लगी है, लेकिन बेहाल है. मूर्ति के चारों ओर लगा शीशा टूट चुका है. शहर के एक नेता जी ने कहा था कि हम शीशा बदलवा देंगे, लेकिन नेता जी का वादा, तो वादा ही रह गया. वो देखने तक नहीं आये.
टावर पर लगी घड़ी भी बेहाल है, लेकिन उसे अपनी बेहाली से ज्यादा उन वादों पर तरस आता है, जो टावर चौक को लेकर किये जाते रहे हैं. बंद होने के बाद भी घड़ी दिन में कम से कम दो बार सही समय बताती है, लेकिन इसका उद्धार जिनके कंधों पर है, वो वादों पर वादे कर रहे हैं, लेकिन दिन क्या, महीनों औ साल बीत रहे हैं, लेकिन उनका वादा सही साबित नहीं हो पा रहा है. यही टावर की पीड़ा है, क्योंकि इसे अपने हिसाब से सब लोग यूज करते हैं. गुगल पर सरैयागंज टावर, मुजफ्फरपुर सर्च करने पर पिन कोड के साथ पता आने लगा. पिन कोड और पता तो याद है, लेकिन हालत कैसी है, ये याद नहीं.
यह कैसी बिडंबना है, जब किसी की कोई मांग होती है, तो वह पुतला दहन से लेकर रोड जाम करने तक के लिए टावर चौक पर पहुंचता है, जब किसी को बड़ी उपलब्धि मिलती है, तो उसे जताने के लिए भी टावर चौक ही सहारा बनता है. याद है, जब पिछले बार भारत विश्वकप जीता था, चारों ओर से किस तरह से गाड़ियों पर हुड़दंग मचाते हुये लोग टावर चौक पर जमा हुये थे. आतिशबाजी हो रही थी. घंटों तक यह सिलसिला चलता रहा, लेकिन टावर चौक की अपनी चमक का क्या हुआ? क्या कोई याद करता है, उन वीर सपूतों को जिनके नाम इस पर खुद हैं, जिन्होंने युद्ध में अपने प्राण न्योछावर कर दिये. क्या हमारे पुरखों को याद करने का यही तरीका है.
जारी..अगली कड़ी में टावर चौक की घड़ी की जुबानी, उसकी कहानी.
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