मंगलवार, 18 अप्रैल 2017

नीतीश कुमार की ये यात्रा कुछ अलग थी


18 अप्रैल 1917 को गांधी जी मोतिहारी की एसडीओ कोर्ट में पेश हुये थे, जहां उन्होंने अपना बचाव खुद किया था और चंपारण नहीं जाने के बारे में साफ तौर पर मजिस्ट्रेट को बताया था. जमानत लेने और जुर्माना भरने के इनकार कर दिया था, तब हार कर मजिस्ट्रेट को अपनी ओर से बांड भर कर बापू को छोड़ना पड़ा था और फैसले को 21 अप्रैल तक टाल दिया गया था. मंगलवार को 18 अप्रैल 2017 था. ठीक एक सौ साल बाद का दिन. मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने पहले से घोषणा कर रखी थी कि वह चंपारण शताब्दी वर्ष की याद में पदयात्रा करेंगे. चंद्रहिया से मोतिहारी शहर के गांधी मैदान तक की यात्रा होनी थी.
सुबह 7.25 बजे मुख्यमंत्री की गाड़ी चंद्रहिया के गांधी स्मृति उद्यान में पहुंची, जहां सुरक्षा के इंतजामों के बीच मुख्यमंत्री ने सर्वधर्म प्रार्थना सभा में भाग लिया. बापू की प्रतिमा पर माल्यार्पण किया. चंपा का पौधा लगाया और पदयात्रा पर रवाना हो गये. मुख्यमंत्री ने गांधी स्मृति उद्यान के बाहर जैसे ही कदम रखा. इतिहास में एक और अध्याय लिख गया प्रतीकों पर कब्जे व दावों की राजनीति के जमाने में क्या कोई राजनेता ऐसा करेगा? अप्रैल में जब सूरज का ताप दिन चढ़ने के साथ चढ़ता है. धूम में चलेगा. धूप में चलने के बाद भी उसके चेहरे पर शिकन नहीं होगी, क्या ऐसा होगा? ऐसे तमाम सवालों के साथ मैं भी पदयात्रा  में शामिल हुआ. मन में जो सवाल उठ रहे थे. उन्हें कसौटी पर परखने के लिए मुख्यमंत्री की पदयात्रा के आसपास होकर ही चलने लगा. एक-दो नहीं हजारों की संख्या में लोग साथ में चल दिये. सब के कदम गांधी मैदान की ओर आगे बढ़ रहे थे, लेकिन जैसे-जैसे रास्ता तय हो रहा था. लोग परेशान होते दिख रहे थे. कुछ विधायक व पूर्व विधायक सड़क के किनारे छांव की तलाश करने लगे. कुछ बैठ गये. पूछा गया, तो कहने लगे थक गये, तो बैठ गये. क्या करें?
मुख्यमंत्री नीतीश कुमार बिल्कुल सधे कदमों से लगातार आगे बढ़ रहे थे. उनके समर्थन में नारेबाजी होने लगी, तो उन्होंने तुरंत मना किया और नारेबाजी बंद करने की बात कही. मुख्यमंत्री ऐसे चल रहे थे, जैसे उनके मन में विचारों का सैलाब चल रहा हो. रास्ते में मिलनेवाले हर व्यक्ति का अभिभावन स्वीकार कर रहे थे. मुस्करा रहे थे. रास्ते में फूल की बारिश व अन्य किसी तरह का इंतजाम नहीं किया गया था. न ही किसी तरह की अन्य कोई व्यवस्था की गयी थी. कुछ स्थानों पर स्वास्थ्य विभाग की ओर से कैंप लगाये गये थे, जिनमें लोगों को मुफ्त इलाज हो रहा था. कुछ स्टॉल पानी व नीबू-पानी के लगे थे. इसके अलावा और कुछ नहीं था. हां, एक बात थी. सड़क के किनारे दोनों ओर लोग खड़े थे. बड़ी संख्या में. इनमें महिलाएं, बच्चे, बूढ़े-जवान सभी शामिल थे.
महिलाओं के हाथ में तख्ती थी, जिस पर शराबबंदी को सराहा गया था. लिखा था कि गांधी के सपने को बिहार ने शराबबंदी करके पूरा किया. ऐसे ही और स्लोगन लगाये लोग रास्ते में खड़े दिखे. इनसे लगा कि मुख्यमंत्री शराबबंदी के बाद नशाबंदी की जो बात कर रहे हैं, उनका संकल्प कुछ और मजबूत हुआ होगा. सुबह आठ बजे शुरू हुई यात्रा 9.20 बजे गांधी मैदान में लगी बापू की प्रतिमा पर आकर पूरी हुई, तो मुख्यमंत्री नीतीश कुमार एक बड़ी लकीर खीच चुके थे, जो उन्हें अन्य राजनेताओं से अलग करती है. यह पहली बार नहीं है, जो मुख्यमंत्री ने ऐसा करके खुद को और नेताओं से अलग साबित किया है. वो इससे पहले भी विभिन्न यात्राओं के जरिये लोगों के बीच जाते रहे हैं, जिनका व्यापक असर पूरे प्रदेश पर पड़ा है. इसकी चर्चा भी चाहे मुख्यमंत्री के प्रशंसक हों या विरोधी सब करते रहे हैं.

सोमवार, 17 अप्रैल 2017

मैथिली ठाकुर राइजिंग स्टार के फाइनल में पहुंची

मिथिला का इलाका हमेशा से उर्वर रहा है. यहां की प्रतिभाएं लगातार लोहा मनवाती आयी हैं. मधुबनी की बेटी मैथिली ठाकुर भी इसी कड़ी में हैं. 16 साल की मैथिली ठाकुर ने कलर्स चैनल के लाइव रियलिटी शो राइजिंग स्टार के फाइनल में अपनी जगह पक्की कर ली है. रविवार को हुये मुकाबले में मैथिली ने पहले पांच सेमीफाइनलिस्ट में अपनी गायकी से टॉप किया, तो इसके बाद उनका मुताबला आइटीबीपी में काम करनेवाले विक्रमजीत सिंह से हुआ, जिसमें विक्रमजीत को जनता से 61 फीसदी, जबकि मैथिली को 60 फीसदी वोट मिले, लेकिन शो के जजेज ने मैथिली को फाइलन का टिकट देने की घोषणा की, क्योंकि उनके पास किसी भी खिलाड़ी को परफार्मेस के आधार पर 21 फीसदी वोट देने का अधिकार है.
फाइनलिस्ट की घोषणा में जजो को दो में से किसी एक प्रतिभागी को ही वोट देने की बात कही गयी थी. इसी वजह से दोनों सेमीफाइनल में सबसे ज्यादा वोट पानेवाले खिलाड़ियों का मुकाबला हुअ, तो जजों ने मैथिली की गायकी पर मुहर लगायी. अब मैथिली का मुकाबला, अगले शनिवार को पांच सेमिफाइनलिस्ट में से सबसे ज्यादा मत पानेवाले के साथ होगा. रियलिटी शो का फाइनल अगले रविवार को होगा.
मधुबनी की रहनेवाली मैथिली ठाकुर का बैकग्राउंड क्लासिकल म्युजिक है. मैथिली के करियर को बनाने के लिए उनका परिवार दिल्ली शिफ्ट कर गया है. मैथिली के पिता उसका साथ देने के लिए मुंबई में ही हैं. उनका कारवां जिस तरह से बढ़ रहा है, उससे वह राइजिंग स्टार बनने की दौड़ में सबसे आगे नजर आती हैं.

आगे बढ़ने की जगह पीछे चला गया किसान, ठोस उपाय से होगा भला

नील किसानों की समस्या को लेकर सौ साल पहले बापू का चंपारण सत्याग्रह हुआ, जो अंगरेजों के दमनकारी नीतियों के खिलाफ ऐसा कारगर हुआ कि ब्रिटिश राज की नींव हिल गयी. आंदोलन के तीस साल के अंदर ही अंगरेजों ने भारत छोड़ दिया. स्वतंत्र भारत में नयी सरकार बनी. उसे देश को आगे बढ़ाने का रास्ता चुनना था. सरकार ने बड़ी परियोजनाओं के सहारे आगे बढ़ने का फैसला लिया और कई बड़े उद्योगों की स्थापना हुई, लेकिन इस सब कवायद में अपने देश की रीढ़ समझी जानेवाली कृषि कहीं पीछे छूट गयी.
कृषि पर आधारित चीनी मिलें बंद होने लगीं. चंपारण के गांधीवादी विनय कुमार सिंह कहते हैं कि पहले बिहार में 28 चीनी मिलें थीं. देश आजाद हुआ, तो इनकी संख्या 32 हो गयी, लेकिन अब ज्यादातर मिलें बंद हैं, जो चल रही हैं. वह भी घाटे में. ऐसे में हम आगे कहां बढ़े हैं. गन्ने की खेती चौपट हो गयी है. गेंहू-धान की स्थिति के बारे में सबको पता ही है. सरकार की ओर से क्रय केंद्र खोले जाने की बात होती है, लेकिन असली किसानों का इनका लाभ नहीं मिलता है. किसानों को बिचौलियों के हाथों ही अपना अनाज बेचना पड़ता है. रही बात सब्जी की खेती की, तो इसमें फायदा है, लेकिन किसान पूरे खेत में सब्जी ही नहीं बो सकता है. उसे अन्य फसलें भी तो चाहिये.
15 अप्रैल से गेंहू खरीद का समय शुरू हो गया है, लेकिन तय समय पर कहीं भी क्रय केंद्र खुलने का सामाचार नहीं आया है. यह पहली बार नहीं हो रहा है. ऐसा पहले भी होता रहा है. अमूनन क्रय केंद्र तब काम करना शुरू करते हैं, जब किसान अपने उत्पाद का सौदा बिचौलियों से कर चुका होता है. हमारी व्यवस्था की बड़ी खामियों में एक यह भी है. सरकार समर्थन मूल्य 14 सौ तय करती है, तो किसान को बिचौलिये 800-900 में ही उत्पाद बेचने को मजबूर करते हैं. मरता क्या न करता की तर्ज पर किसान जान-बूझ कर इनके चंगुल में फंसता है, क्योंकि उसके पास इसके अलावा कोई और चारा नहीं होता है.
चंपारण शताब्दी वर्ष पर यह सवाल उठाना इसलिए भी लाजमी हो जाता है, क्योंकि गांधी जी ने किसानों की लड़ाई ही लड़ी थी और उसमें जीत हासिल की थी, लेकिन आज किसान यही लड़ाई आजाद देश में व्यवस्था के खिलाफ लड़ रहे हैं. वह पानी, खाद से लेकर समर्थन मूल्य तक से जूझ रहे हैं. उन्हें इसका विकल्प सरकार की ओर से की बनायी जानेवाली पॉलिसी में दिखता है. किसान कहते हैं कि शताब्दी समारोह पर केंद्र व राज्य सरकार को मिल कर एक ऐसी स्कीम चलानी चाहिये, जिसकी पहुंच आम किसानों तक हो, ताकि उन्हें उसका सीधा लाभ मिल सके. चंपारण का किसान कहते हैं कि हम अब भी खुद को ठगा महसूस कर रहे हैं, क्योंकि सरकारों की ओर से शताब्दी वर्ष पर केवल कार्यक्रमों का आयोजन हो रहा है. हम लोगों के लिए कोई रोडमैप नहीं दिया जा रहा है, जिससे कि हमारी फायदा हो. अगर सरकार इसको अभी नहीं कर सकती है, तो उसे इस पर खुल कर बोलना चाहिये.

रविवार, 16 अप्रैल 2017

सोचने को मजबूर कर रही ये घटनाएं

हाल के दिनों में मुजफ्फरपुर व आसपास के इलाके में जो घटनाएं हो रही हैं, जो सोचने को मजबूर कर रही हैं. यह वही समय है, जब हम चंपारण सत्याग्रह की सौवीं वर्षगांठ मना रहे हैं, जिसमें सत्य और अहिंसा के बल पर बापू ने अंगरेजों को झुकने पर मजबूर कर दिया था, लेकिन बापू की प्रतीकात्मक यात्र के बीच हिंसा की कई घटनाएं हुईं, जो मन को दुखाती हैं.
15 अप्रैल की बात करें, तो पारू में ऐसी घटना हुई, तो लोगों के कम हो रहे सब्र का परिचय देती हैं. यहां एक बाइक से बकरी के बच्च कुचल गया. इसका परिणाम ये हुआ कि लोगों ने बाइक सवार की पीट-पीट कर जान ले ली. इसके बाद गुस्साये लोगों ने आरोपितों समेत दर्जनों की संख्या में झोपड़ियों को जला दिया. ये घटना बदले की कार्रवाई की वजह से बढ़ती चली गयी, जिसे काबू में करने के लिए कई थानों की पुलिस को मौके पर जाना पड़ा, तब जाकर हालत नियंत्रण में आयी.
ऐसे ही कुछ दिन पहले एके-47 से सरेआम दिन-दहाड़े एक ठेकेदार की हत्या कर दी गयी. वह भी उस इलाके में जहां कुछ ही देर में गोवा की राज्यपाल का कार्यक्रम होनेवाला था. राज्यपाल उसमें आनेवाली थीं, लेकिन इससे पहले ही घटना घट गयी. तब वहां की सुरक्षा व्यवस्था को लेकर सवाल उठाये गये थे. कहा गया था कि राज्यपाल जैसा वीआइपी होने के बाद भी इलाके की सुरक्षा के नाम पर खिलवाड़ हुआ.
इसके बाद की एक घटना का जिक्र करना चाहूंगा, जिसमें पुलिस ने रात के समय स्वचालित हथियार लेकर बिना प्लेट की गाड़ी से घूम रहे तीन अपराधियों को चिह्नित किया. उनका पीछा किया गया. एक जगह पर अपराधी पुलिस की गश्ती टीम से घिर गये, लेकिन उन्होंने स्वाचालित हथियार दिखाया, तो गश्ती टीम में शामिल एक पुलिसवाला जमीन पर गिर गया. इसके बाद बदमाश फरार होने में सफल हो गये. इस घटना के बाद आला पुलिस अधिकारी हरकत में आये और सभी अधिकारियों को ये संदेश भेजा गया कि ऐसी स्थिति नहीं चलेगी. पुलिस को धता बताकर अपराधी भाग रहे हैं. ऐसे में पुलिस व्यवस्था पर सवाल उठने लाजमी हैं. हमें मेहनत से काम करना होगा.
आला अधिकारियों की ओर से सख्ती के बाद पुलिस भी जागी है. अब एके-47 से लैश होकर जवान रात के समय गश्ती करने लगे हैं. गश्ती के लिए बड़े पुलिस अधिकारियों की ड्यूटी लगा दी गयी है. वह बारी के हिसाब से ड्यूटी पर रहेंगे.
पुलिस की इस कवायद का क्या फायदा होता है. ये तो आनेवाला समय बतायेगा, लेकिन जिस तरह से अपराध व अपराधियों के हौसले बुलंद हुये हैं. वह समाज के लिए अच्छा संकेत नहीं है. क्योंकि अभी एक घटना पर काबू नहीं पाया जाता कि दूसरी घटना हो जा रही हैं.

गांधी के नाम पर ये कुछ जमा नहीं?

मेरे मन में गांधी जी व उनके विचारों को लेकर अपार श्रद्धा है, जिसे मैं शब्दों में व्यक्त नहीं कर सकता, लेकिन गांधी जी के नाम पर शनिवार को मुजफ्फरपुर में जो हुआ, वो परेशान करनेवाला है. 10 अप्रैल से सौ साल पहले की गांधी जी की यात्र का सफल मंचन किया जा रहा था. इस मंचन में एक सोच दिख रही थी, समाज की बेहतरी की. लोगों का मानस बदलने की, लेकिन 15 अप्रैल को चंपारण के लिए रवाना होने से पहले ऐसा हुआ कि जो सबको स्तब्ध कर गया. पता चला कि अब नये गांधी विशेष ट्रेन से चंपारण जायेंगे. उन्हें मोतिहारी से भेजा गया है. अच्छा है भेजा गया, लेकिन इसमें एक समन्वय होता, तो ज्यादा अच्छा होता, ताकि किसी को खराब नहीं लगता, लेकिन आनन-फानन में ऐसा हुआ, जो गांधी जी के किरदार को सफलता पूर्वक निभा रहे थे. उन्हें दरकिनार करने की कोशिश थी ये, लेकिन उन्होंने कहा कि जो हुआ, उसका उन्हें तनिक भी अफसोस नहीं है.
वहीं, मुजफ्फरपुर से जो गांधी चंपारण के लिए विशेष ट्रेन से चले. उनका ड्रेस अलग था. वह लाठी के सहारे चल रहे थे. हाथ में गुजराती में अनुवाद की हुई गीता लिये चल रहे थे. गांधी दर्शन के बारे में पूछने पर जवाब कुछ अलग होते थे. साथ में बैठे व्यक्ति की ओर से समझाया जा रहा था. इसके उलट मोतिहारी के रास्ते में पड़नेवाले स्टेशनों पर लोगों की भीड़ बहुत ज्यादा था, जिनकी आंखों में एक उम्मीद थी. वह गांधी को देखना और मिलना चाहते थे. यह चाहत पूरे रास्ते में पड़नेवाले गांवों व कस्बों के लोगों में दिखी. सभी अपना काम छोड़ कर स्पेशल ट्रेन का इंतजार कर रहे थे. ट्रेन लगभग समय से चल रही थी और समय से कुछ ही मिनट लेट मोतिहारी पहुंची.
मोतिहारी स्टेशन पर ही रेलवे की प्रदर्शनी गांधी जी ने देखी और इसके बाद रेलवे के कार्यक्रम में शरीक हुये. इसके बाद खुली जीप में तिरंगा यात्र व गोरखबाबू के घर गये. यह मुजफ्फरपुर के उलट था, क्योंकि वहां पिछले पांच दिनों से गांधी जी बग्घी पर सवार होकर चल रहे थे. यह अंतर बहुत कुछ कह रहा था. हालांकि गांधी जी को लेकर नेताओं के अपने तर्क थे, लेकिन इनमें से कुछ ऐसे थे, जिन पर विश्वास नहीं हो रहा था.

मंगलवार, 11 अप्रैल 2017

आज जाकर इतिहास बोध हुआ?

पिछले पांच-छह साल में कितनी बार एलएस कॉलेज होकर गुजरा होउंगा, लेकिन ऐसा इतिहास बोध इससे पहले कभी नहीं हुआ. कई बार कार्यक्रमों में भी शामिल होने का मौका भी मिला. बाबू लंगट सिंह, राजेंद्र बाबू व महत्मा गांधी की प्रतिमाओं पर माल्र्याण का मौका भी मिला, लेकिन ऐसा कभी नहीं हुआ, जो 10 अप्रैल 2017 को हुआ. इतिहास जब अपने एक सौ साल पूरे होने पर खुद को दोहरा रहा था. जैसे ही गांधी का वेश धरे डॉ भोजनंदन व जेबी कृपलानी बने डॉ अरुण कुमार सिंह की बग्घी लंगट सिंह कॉलेज के परिसर में घुसी. पूरी तस्वीर सामने नाचने लगी.
सौ साल पहले जब गांधी एलएस कॉलेज पहुंचे थे, तब की तस्वीर अभी तक मैंने नहीं देखी, लेकिन आज की तस्वीर देख रहा हूं. उसे महसूस कर रहा हूं, जो लोग महापुरुषों के किरदार में हैं, उनके बारे में कुछ जानता हूं. उनका स्नेह मिलता रहा है. ऐसे में मुङो देखने और समझने की नयी दृष्टि मिलती है.
लंगट कॉलेज की एक-एक चीज से साक्षात्कार हो रहा है. वही, गांधी जी की प्रतिमा जिस पर माल्र्यापण करके कई बार मैं वापस आ चुका हूं, लेकिन अब अलग लग रही है. रोशनी से नहायी इस प्रतिमा को देखने से ऐसा लगता है, मानों इतिहास फिर से जीवंत हो उठा है. गांधी कूप, जिसे संरक्षित करने की कोशिश हुई है, उसे देख कर भी तरह-तरह के सवाल उठ रहे हैं. ऐसे ही कई और स्थान जो गांधी जी से जुड़े हैं. सब में अलग सी अनुभूति दिखती है. काश! ये जज्जा बना रहता है और अपनी विरासत से ऐसे ही मेरा साक्षात्कार होता रहता.

बापू, आपका सामना भी तो इन सड़कों से हुआ होगा!

सोमवार को मुजफ्फरपुर शहर में चंपारण सत्याग्रह के सौ साल पूरे होने पर इतिहास बना. हैरिटेज वॉक के बहाने गांधी जी की यात्र का सजीव चित्रण फिर से किया गया. गांधी बने डॉ भोजनंदन प्रसाद ट्रेन से मुजफ्फरपुर जंकशन पहुंचे. इसके बाद बग्घी के सहारे उन्हें शहर में लगभग पांच किलोमीटर जुलूस की शक्ल में घुमाया गया. इस बग्घी को घोड़ों की जगह एलएस कॉलेज के छात्र खीच रहे थे, जैसा कि सौ साल पहले भी किया गया था, लेकिन तब और अब की परिस्थिति बदली है. अब शहर को स्मार्ट सिटी में शामिल कराने की बात हो रही है, लेकिन शहर में सड़के ऐसी हैं कि कहीं भी दो-चार फुट समतल सड़क नहीं दिखती है.
सड़क पर उतरते ही परीक्षा शुरू हो जाती है. ऐसे में गांधी का काफिला लगभग पांच किलोमीटर दूर तक चला. इस दौरान कई जगहों पर जाम की वजह से काफिले को रोकना भी पड़ा, जबकि इसकी अगुवाई प्रशासन के जिम्मे थी, जिसके कारिंदे लोगों को सड़क के दोनों तरफ रोक रहे थे. बड़े पैमाने पर अधिकारी से लेकर कर्मचारी तक लगाये गये थे, जो ड्युटी बजा रहे थे. इसके बाद भी बापू को जाम में फंसने से नहीं रोक सके.
मैं कल्याणी चौक के पास काफिले में शामिल हुआ, तो लगा कि गांधी जी की बग्घी हिचकोले खा रही है, लेकिन इतिहास खुद को दोहरा रहा था. सो उस ओर ज्यादा ध्यान नहीं गया. पूरी ऊर्जा तो इतिहास का हिस्सा बनने में लगी थी, लेकिन एक आम शहरी होने की वजह से सड़क से गुजर रहे लोगों के बारे में सवाल भी उठ रहे थे. सवाल, वही बिजली, पानी और सड़क से संबंधित.

रविवार, 9 अप्रैल 2017

मैं उस मुजफ्फरपुर में रहता हूं..

मैं उस मुजफ्फरपुर में रहता हूं, जहां चंपारण यात्र के क्रम में मोहनदास करमचंद गांधी पहुंचे थे. तारीख 10 अप्रैल 1917 थी. अब कैलेंडर पूरा एक सौ साल आगे निकल चुका है. गांधी जी तो नहीं हैं, लेकिन उनके बताये रास्ते हैं. जिन पर चलने की बात हमारे बुजुर्ग करते हैं. बहुत ऐसे हैं, जो अभी उस रास्ते पर चल भी रहे हैं.
कल फिर से बघ्घी सजेगी. गांधी जी जिस बेला में मुजफ्फरपुर शहर पहुंचे थे. उसी बेला में उस यात्र को फिर से जिया जायेगा. तैयारियां चल रही हैं. प्रशासन से लेकर आम लोगों में उत्साह है, वो देखना और जानना चाहते हैं कि इतिहास का वह महत्वपूर्ण क्षण कैसे रहा होगा, जिसमें देश को आजाद कराने की नींव पड़ी थी. हमें भी इंतजार है. हम भी गवाह बनना चाहते हैं, उस पल के, जब गांधी जी आयेंगे और हमारे देश की तकदीर और तस्वीर बदलने की बात कहेंगे, लेकिन हम अब इससे कहीं आगे बढ़ चुके हैं.
हमारी तमन्ना है कि गांधी जी के जरिये यह भी बताया जाये कि आज हम जिस रास्ते पर चल रहे हैं. वह हमें कहां ले जायेगा. क्यों ये सवाल उन लोगों से सुनने को मिलता है कि समाज में गिरावट आयी है, जो गांधी जी को अपना सब कुछ मानते हैं. इससे तो साफ लगता है कि सौ सालों में हम बहुत बदल गये हैं? हम एक-दूसरे को देख और सुहा नहीं रहे हैं. भाईचारे में कमी की बात हो रही है. गांधी जी ने तब जिस शिक्षा में समाज के उन्नति की राह देखी थी. वह तो अब बड़े पैमाने पर मिल रही है. इसके बाद भी हम इतने छोटे क्यों होते जा रहे हैं. यह सवाल हमें सालता है, जब भी किसी से बात करता हूं, तो कहता है कि हम गांधी जी के रास्ते पर नहीं चल रहे हैं.
सौ सालों में भले ही बुनियादी सवाल बदल गये हैं, लेकिन मुद्दा अब भी शिक्षा बनी हुई है. अब गुणवत्तापूर्ण शिक्षा की बात हो रही है, तो क्या हमने अपनी शिक्षा के मूल्यों को इतना गिरा लिया है, जो अब उसमें गुणवत्ता डाले जाने की बात की जा रही है. ऐसे में उन किताब लिखनेवालों और उन शिक्षकों का क्या होगा? जिनसे समाज बदलाव की आस लगाये हुये है और वो खुद को समाज के बदलाव का वाहक भी बताते हैं? क्या हमें जो किताबें पढ़ाई जा रही हैं, उनमें कहीं कुछ कमी है या फिर उन्हें पढ़ानेवालों में? इसका जवाब जिनती जल्दी देश और समाज को मिल सके, मुङो लगता है कि उतना ही अच्छा होगा.
खैर, मैं कहां ऐसे सवालों में उलझ गया. अभी शुभ अवसर है. सौ साल बाद उन क्षणों को जीने का, जिन्हें हमारे पूर्वजों ने अविस्मणीय बना दिया. शायद, उन्हीं की बदौलत मैं आज यह लिख पाने की हिम्मत भी जुटा पा रहा हूं. जय हिंद!

शनिवार, 8 अप्रैल 2017

बापू ने पूछा, बड़े होकर क्या करोगे, मैंने कहा, सेवा

राष्ट्रपित महत्मा गांधी जी से जिन्होंने मुलाकात की हो. ऐसे कम ही लोग अब बचे हैं. इन्हीं में से एक हैं पूर्व मंत्री ब्रज किशोर सिंह, जो अब मोतिहारी में रहते हैं, लेकिन इनके गांव का नाम चैता है, जहां से इनका लगातार जुड़ाव बना हुआ है. गांधी जी के जीवन मूल्यों को समर्पित ब्रज बाबू अभी गांधी संग्रहालय के सचिव हैं और चंपारण शताब्दी वर्ष पर होनेवाले समारोह में सक्रिय रूप से भाग ले रहे हैं.
चंपारण में गांधी जी से जुड़ी 15 जगहों पर विशेष काम कर रहे हैं. सात अप्रैल को मुलाकात हुई, तो कहने लगे संग्रामपुर जाना है. वहां पर लोगों के साथ बैठक रखी है. काम करना है. जल्दी-जल्दी बात की और संग्रामपुर के लिए निकल गये. कहने लगे, 1947 की बात है. बापू पटना आये थे. उस समय मेरी कुछ समझ विकसित हो रही थी. मैंने अपने पिता से जिद की और कहा कि हमें बापू से मिलना है. वह हमें लेकर पटना गये. वहां मुलाकात हुई और हमने बापू को प्रणाम किया, तो वह मेरी ओर मुखातिब हुये. बोले, बड़े होकर क्या करोगे? मैंने उत्तर दिया, सेवा. इसके बाद उन्होंने मेरे सिर पर हाथ रख दिया.
ब्रज किशोर सिंह कहते हैं कि वो दिन और आज का दिन. बापू की बात हमें याद है. हम लगातार सेवा के काम में लगे हैं. वह कहते हैं कि सौ साल के पहले की स्थिति अलग थी. अबकि अलग है. शिक्षा पर विशेष जोर दिये जाने की जरूरत है. इससे ही बदलाव आयेगा. अगर हम लोग शिक्षा की हालत सुधार ले जाते हैं, तो सभी समस्याओं का हल हो जायेगा. हमें शताब्दी वर्ष पर इसका संकल्प लेना चाहिये. वह कहते हैं कि किसानों की स्थिति पहले से खराब हुई है. पिछले सात-आठ साल में प्रकृति की मार कृषि पर पड़ी है, लेकिन इसका कोई रास्ता निकलता नहीं दिख रहा है. सरकार की ओर से योजनाओं के नाम पर तमाम व्यवस्था की गयी है, लेकिन उनका लाभ असली किसानों तक नहीं पहुंच पाता है.

शुक्रवार, 7 अप्रैल 2017

यह बुलेट ट्रेन के जमाने की रेल है

राष्ट्रपिता महत्मा गांधी के नाम पर स्वच्छता अभियान चल रहा है. रेलवे में कुछ ज्यादा ही कमाल है. ट्विट करने पर चीजें दुरुस्त हो जाती हैं, लेकिन उस मुजफ्फरपुर से रक्सौल जानेवाली पैसेंजर ट्रेन को कोई पूछनेवाला नहीं है. जिस स्टेशन से ट्रेन पर सवार होकर महत्मा गांधी सौ साल पहले किसानों की उस सबसे बड़ी जंग को जीतने के लिए निकले थे, जिसे अंगरेजों ने तीन कठिया प्रथा का नाम दे रखा था. फिर से तैयारी चल रही है, चंद दिनों के बाद यात्र को फिर से जीवंत किया जायेगा. किरदार तैयारी कर रहे हैं, लेकिन रेलवे की पैसेंजर ट्रेन कई सवाल जेहन में खड़ा करने को मजबूर करती है. सुबह 9.45 बजे मुजफ्फरपुर स्टेशन के प्लेटफार्म नंबर पांच से खुलनेवाली ट्रेन में साफ-सफाई का आलम ये है कि इसमें ऐसी कोई जगह नहीं दिखती, जहां कूड़ा नहीं बिखरा हो. खिड़कियों पर पान की पीक और अन्य गंदगी लगती है कि सालों पुरानी है, लेकिन कोई देखनेवाला नहीं.
ट्रेन की हालत ऐसी है कि इससे हजारों की संख्या में वे लोग सफर करते हैं, जिन्हें विभिन्न जगहों पर ड्युटी के लिए जाना होता है. साथ ही ऐसे लोग भी जो कभी-कभार किसी प्रयोजन से ट्रेन का सफर करते हैं. ऐसा नहीं कि ट्रेन के पास समय नहीं है. मुजफ्फरपुर स्टेशन के प्लेटफॉर्म नंबर पांच पर यह रात के समय ही लग जाती है और घंटों खड़े रहने के बाद सुबह 9.45 बजे खुलने का समय है, लेकिन कम ही समय से खुल पाती है. दस बजे के बाद अमूमन स्टेशन से रवाना होती है. इसके बाद मोतिहारी, सुगौली जैसे महत्वपूर्ण स्टेशनों का सफर करते हुये सीमावर्ती स्टेशन रक्सौल पहुंचती है.
ट्रेन में नियमित यात्र करनेवाले यात्रियों का कहना है कि वह इसके आदी हो चुके हैं. कभी भी साफ-सफाई की ओर ध्यान नहीं दिया जाता है. लगता है कि इसकी ओर किसी का ध्यान नहीं है. ट्रेन जिस स्टेशनों से गुजरती है. उनकी भी हालत ज्यादा ठीक नहीं है. मोतीपुर स्टेशन पर ट्रेन को बीच की लाइन पर खड़ा कर दिया गया, जिससे यात्रियों को परेशानी हुई. महवल स्टेशन पर प्लेटफॉर्म का काम चल रहा है. इसकी वजह से गहरा गड्ढा खोदा गया है. उसी से होकर यात्रियों पर ट्रेन पर बैठना पड़ता है. इस क्रम में उन्हें चोट भी लगती है. ऐसे कई और स्टेशन व हॉल्ट हैं, जहां यात्री जान जोखिम में डाल कर ट्रेन में चढ़ते-उतरते हैं.

गुरुवार, 6 अप्रैल 2017

भाग-दो- निहत्था पैगंबर थे राष्ट्रपिता महत्मा गांधी

उस समय के बड़े स्कॉलर रहे एरिक ड्वॉस्चर ने ट्रॉवोस्की की जीवनी लिखी थी. प्रॉफेट आर्म, उस समय का जिक्र है, जब ट्रॉवोस्की सत्ता में था. वहां का रक्षा मंत्री था. क्रांति के समय सारी चीजों को वो चला रहा था. उसके बाद जब कि उसके हाथ से सत्ता चली गयी और बाद उसे देश से निकाला गया, तो उसी के जीवन पर ये था. वो भी चुनौती थी, क्या सचमुच में ऐसा है कोई बड़ा राजनेता होता है, तभी सफल हो पाता है, जब तक उसके हाथ में इतनी शक्ति होती है कि जबरदस्ती लोगों के ऊपर अपने नियम-कानून लागू करता है, तो ये उसका सार था. गांधी जी के साथ दूसरी स्थिति हो रही थी. चीनी क्रांति को सफलता मिली थी. रूस में भी क्रांति हुई. उसी से स्टॉनिल की सत्ता बनी, जो व्यवस्था बनी, समाजवादी थी या नहीं, ये विवाद का विषय था, लेकिन सत्ता बहुत ही मजबूत थी. इतनी मजबूत कि ब्रिटेन के खिलाफ दूसरे विश्वयुद्ध में एक बहुत बड़ी शक्ति रूस की थी, जिसकी वजह से पराजय हुई. इधर, भारत में गांधी जी के नेतृत्व में आजादी की लड़ाई चल रही थी. ये भी था कि जो बड़े-बड़े क्रांतिकारी नेता था, वो हिंसा के बल पर शासन कायम कर रहे थे. उसके विपरीत क्या गांधी जी जैसे आदमी को सफलता मिल सकती है. एक ये भी संदर्भ था. इस किताब को जब लिखा गया, तो उस समय संक्रमण काल था, जबकि दिखायी पड़ रहा था कि जिन क्रांतियों का बड़ा गुणगान हो रहा था. रूस व चीन की क्रांति, वो अपने उद्देश्य से पूरी तरह से भटक गयी थीं. रूस में तो बजाफ्ता 1980 आते-आते पूरी व्यवस्था बदल गयी थी, उसने पूरा पूंजीवाद कबूल कर लिया. चीन में भी माउत्से तुंग ने कोशिश की थी कि नये मूल्य स्थापित किये जायें, लेकिन माओ के मरने के दस साल के अंदर ही चीन दुनिया का सबसे सफल पूंजीवादी व्यवस्था वाला देश बन गया.
उसी पृष्ठभूमि में ये था कि गांधी जी, जिनके नाम पर इतना बड़ा दुनिया में प्रचार नहीं हुआ. इनकी कोई प्रशस्ति नहीं हुई, लेकिन कुल मिला करके उनके जो मूल्य थे. वो विस्थापित नहीं हुये. गांधी जी सफल नहीं हुये, उनके मॉडल पर हिन्दुस्तान नहीं चला, लेकिन जो कुछ विचार गांधी जी ने थे, वो अभी भी कायम है. दुनिया में बहुत सारे लोग गांधी जी की ओर देख रहे हैं. इन्हीं चीजों को लेकर ये पुस्तक लिखी गयी है. गांधी जी को अपने ही देश में आधिकारिक तौर पर तो एक तरह से खारिज ही कर दिया गया है, लेकिन गांधी जी की प्रासंगिकता भी देश में खत्म नहीं हुई है. ऐसे अभियान, जो मूलत: गांधी जी के विचारों के विपरीत हैं. उनको भी सफल बनाने के लिए गांधी जी का नाम लेने की कोशिश हो रही है. जैसे कि अभी स्वच्छता अभियान चलाया जा रहा है. इसके समर्थन में गांधी जी का नाम बार-बार लिया जाता है. हालांकि ये बहुत बड़ा धोखा है लोगों के साथ. स्वस्छता का मतलब सिर्फ इतना ही रह गया है कि आप घरों में शौचालय बनायें. क्या स्वच्छता का इतना ही मतलब होता है क्या?
गांधी जी स्वस्छता के बारे में जो सोचते थे. वो वही था क्या, जो आज किया जा रहा है. महत्मा गांधी ने अफ्रीका में दो बड़े फॉर्म बनाये थे. एक फिनिक्स फॉर्म था, जो शुरू में उन्होंने बनाया था. बाद में टॉलस्टाय फॉर्म बनाया था. दोनों जगह कुछ लोग कम्युन की जिंदगी बिताते थे. खुद खेती करते थे. सामूहिक लोगों का जीवन था. शौचालय की व्यवस्था के रूप में वहां था कि जो घर थे, उसके पास में एक-दो कट्ठा जमीन थी, जिसमें शौच के बाद लोग मिट्टी डाल देते थे. इस तरह से वहां कभी गंदगी नहीं फैलती थी. जारी..

बुधवार, 5 अप्रैल 2017

मुजफ्फरपुर में पहली बार दिखी ऐसी शोभायात्रा!

रामनवमी का पर्व धूमधाम से मनाया गया. मुजफ्फरपुर के आसपास के जिलों में बड़े पैमाने पर पर्व मनाये जाने की सूचना मिलती थी, लेकिन इस बार मुजफ्फरपुर में जिस तरह से सुबह से शाम तक शोभायात्रा निकलती रही, वो पहली बार देखने को मिला. पूरे दिन शहर में शोभा यात्राओं का दौर चलता रहा था. जय श्री राम के नारों से सारा शहर गूंजता रहा. शोभा यात्राओं का असर ये रहा कि शहर में जगह-जगह जाम लगा.
पिछले तीन दिन से जिस तरह से तैयारियां चल रही थीं. उससे साफ हो रहा था कि इस बार कैसी रामनवमी होनेवाली है. पूरे शहर में जगह-जगह भगवा पताका बांधी गयी थी. इसके लिए तीन दिन पहले से बाकायदा अभियान चल रहा था. युवा इस काम में लगे थे, जो मोटरसाइकिल पर पताका लगा कर तेजी से शहर का चक्कर लगा रहे थे. इन सबको इलाके के हिसाब से जिम्मेवारी दी गयी थी, ऐसा देखने से लगता है, क्योंकि कोई भी इलाका ऐसा नहीं दिखा, जहां पर भगवा पताकाएं नहीं लगायी गयी हों. शहर में जिस तरफ जाइये. पताकाएं देखने के मिल रही थीं. बुधवार की सुबह ही सिकंदरपुर इलाके से शोभायात्रा की शुरुआत हुई. इसमें संघ के साथ भाजपा से जुड़े लोग भी शामिल हुये.
भाजपा से जुड़े लोगों ने जब भव्य शोभा यात्र और तलवार आदि के साथ यात्रा में शामिल होने के संबंध में पूछा गया, तो इनका कहना था कि इस बार उत्साह ज्यादा है. लोग स्वत: स्फूर्त होकर ऐसा कर रहे हैं. शोभायात्रा में शामिल हो रहे हैं. वहीं, संघ से जुड़े लोग कह रहे थे कि इस बार आम लोगों में रामनवमी को लेकर ज्यादा उत्साह है. इसी का असर शोभायात्रा के दौरान देखने को मिला. शहर में रहनेवाले कुछ लोगों का कहना था कि पिछले लगभग दशक भर में ऐसा पहली बार हुआ है, जब इतने बड़े पैमाने पर रामनवमी पर शोभायात्रा निकली है. पहली भी यात्र निकलती थी, लेकिन वह सीमित होती थी. इस बार बड़ी यात्रा निकली है.
अन्य दलों के लोग इसके राजनीतिक मायने तलाश रहे हैं, लेकिन यह उनका मत हो सकता है. जिस तरह से रामनवमी को लेकर शहर में लोग सड़कों पर उतरे. वह अलग नजारा पेश कर रहा था. शोभा यात्राओं पर जगह-जगह फूलों की बारिश की जा रही थी. कहीं, ठंडाई का इंतजाम था, तो कहीं पर लोगों को प्रसाद खिलाया जा रहा था. माइक से एनाउंसमेंट हो रहा था, जो भक्त प्रसाद घर ले जाना चाहते हैं, तो वह प्रसाद ले भी जा सकते हैं.

मंगलवार, 4 अप्रैल 2017

निहत्था पैगंबर थे राष्ट्रपिता महत्मा गांधी

वरिष्ठ समाजवादी सच्चिदानंद सिन्हा ने अपनी किताब निहत्था पैगंबर के बारे में एलएस कॉलेज में व्याख्यान दिया. राष्ट्रपिता महत्मा गांधी की विचारधारा पर आधारित ये पुस्तक जल्दी ही बाजार में आनेवाली है. किताब में बताया गया है कि कैसे महत्मा गांधी की अहिंसावादी नीति ने देश को बदला और आजादी दिलायी. हथियारों पर आधारित क्रांतियों का जिक्र भी पुस्तक में किया गया है. इसी व्याख्यान के कुछ अंश हम क्रमवार आपके सामने रख रहे हैं.
ईश्वर है भी, तो नैतिकता की जरूरत कैसे स्थापित होती है? ये कैसे मालूम होता है कि जो कुछ भी नैतिक माना जा रहा है. वास्तव में वो ईश्वर की आवाज है. ओल्ड टेस्टामेंट की एक कहानी है, जिसमें अब्राहम अपने पुत्र का बध करता है. आवाज आती है ईश्वर से कि तुम पुत्र का बध करो, लेकिन सवाल है कि तब तय उसको करना है, जो आवाज आ रहा ही, वो ईश्वर की आवाज है या शैतान की आवाज है. वो कहते हैं की अंतत: हमको तय करना है कि क्या सही है, क्या गलत है? तो एक बहुत बड़ा प्रश्न नैतिकता के बारे में किया था कि नैतिकता का आधार क्या है? अगर कोई आधार नहीं है, तो कुछ भी करना जायज है. कुछ ने कहा कि आप जो कुछ भी करना चाहते हैं, सब कुछ ठीक है. आप पर नैतिक दोष नहीं लगाया जा सकता है. एक तो ये विवाद था. मेरे दिमाग में ये था, जिस समय पुस्तक लिख रहा था. दूसरी बात, उस समय बहुत बड़ी-बड़ी क्रांतियां हो चुकी थीं. उनके परिणाम सामने आ रहे थे. वियतनाम में क्रांति हो गयी थी. क्यूबा में क्रांति हो चुकी थी, तो क्रांति के जो नतीजे थे. उनके बारे में भी दुनिया भर में विवाद शुरू हो गया था कि क्या क्रांति वहीं जा रही है कि क्या, जो उसका लक्ष्य था या कहीं, दूसरी दिशा में जा रही है. इसमें स्थायित्व है क्या? बहुत सारी बातें हो रही थीं और उसी संदर्भ था कि गांधी जी ने अहिंसा की बात की, तो ये संभव है क्या? एक राजनीतिक विचारक था मैकियावैली. उसकी लिखी किताब..द प्रिंस..उस समय सबसे बड़ी किताब मानी जाती थी, तो उसने एक स्थापना दी. दुनिया में जितने भी सश मसीहा हुये हैं, वो सफल हुये हैं और जो नि:श मसीहा थे, वो सब असफल हुये हैं, तो एक सवाल ये भी था. दोनों चीजों को लेकर मैंने इस पर किताब लिखी. इस किताब के बारे में ज्यादा कुछ कहना मेरे लिये मुश्किल है, लेकिन जो मैकियावैली ने कहा था कि उसको मैं बताना चाहता हूं.
मैकियावैली कहता है कि जो अपने विचार में स्थिर नहीं रहते हैं. पैगंबर आता है. दुनिया को कुछ रास्ते बतलाता है. एक स्थिति के बाद जब लोग कमजोर पड़ने लगते हैं, उसके विचारों को लागू करने से कतराते हैं, तो अगर पैगंबर में शक्ति होती है, तो जबरदस्ती उनके ऊपर विचार थोप करके काम करवा लेता है. अगर वो कमजोर होता है, तो वह उसे लागू नहीं कर पाते हैं. इसलिए वो पैगंबर को हटा देते हैं. इसलिए उसने कहा कि दुनिया में जितनी सश पैगंबर हुये, वो तो सफल हुये, जो नि:श पैगंबर हुये. वो पराजित हुये. इसका एक और संदर्भ था. वो भी रूसी क्रांति के बैकग्राउंड में. रूसी क्रांति के बड़े नायक थे ट्रॉवोस्की. उनकी जीवनी तीन खंडों में है. जारी..

बुधवार, 22 मार्च 2017

आजादी के बाद पहली बार इस गांव में गये डीएम!

अमर शहीद जुब्बा सहनी के नाम पर राजनीतिक रोटियां दशकों से सेंकी जा रही हैं. कितने लोग शहीद का नाम लेकर बड़े नेता हो गये, लेकिन नाम लेने और हकीकत में क्या सच्चई है. ये शहीद के गांव जाने पर पता चलता है. शहीद जुब्बा सहनी का गांव मीनापुर प्रखंड मुख्यालय से सात किलोमीटर दूर चैनपुर टोले में हैं. इस टोले की हालत ऐसी है, जहां सिर्फ झोपड़ियां ही झोपड़ियां दिखेंगी. उनकी भी हालत ठीक नहीं. बिजली यहां लगभग पांच साल पहले आयी थी. उसकी निशानी मीटर, झोपड़ियों के बाहर लगे दिखते हैं. टोले में दो-तीन खंभे भी लगे हैं, लेकिन पूछते ही यहां के लोग असलियत बयान करने लगते हैं. कहते हैं कि हाल में खंभे लगे हैं. पहले बांस पर बिजली थी. खेतों में अभी बांस ही लगे हैं. उन्हीं के सहारे 11 हजार की लाइन दौड़ती है.
टोले को गांव का दरजा देने का एलान 15 साल पहले 2002 में हुआ था, लेकिन सरकारी फाइलों में ये एलान अभी दम तोड़ रहा है. यहां सरकारी योजनाओं की आंच नहीं पहुंचती हैं. यहां कुछ लोगों का राशन कार्ड बना है. वृद्धवस्था पेंशन मिलती है, लेकिन दोनों ही चीजें महीनों के इंतजार के बाद नसीब होती हैं. यहां के लोग कहते हैं कि राशन तो कभी पूरा मिला ही नहीं. कुछ न कुछ काट कर ही राशन दिया जाता है, जब ये लोग विरोध करते हैं, तो डीलर की ओर से धमकी दी जाती है. यहां के कुछ युवकों ने डीलर की धमकी भरी आवाज मोबाइल में रिकार्ड भी कर ली है. वह कहते हैं कि हम हक मांगते हैं, तो हमें इस तरह से डराया जाता है.
चैनपुर गांव के जुब्बा सहनी रहनेवाले थे. इसके अलावा इसी गांव के बांगुर सहनी भी स्वतंत्रता आंदोलन में शहीद हुये थे, लेकिन अब उनके घर की निशानी तक नहीं बची है. जुब्बा सहनी के परिवार में उनकी पतोहू मुनिया बची है, जिसकी तबियत हाल के दिनों में बहुत खराब थी. इसी की खबर जब प्रभात खबर ने प्रमुखता से छापी, तब प्रशासन की नींद टूटी. राज्य सरकार के निर्देश पर पहली बार डीएम मुजफ्फरपुर चैनपुर पहुंचे, तो उन्हें वहां पर कमियां ही कमियां नजर आयीं. डीएम ने जुब्बा सहनी के परिजनों को कई तरह की सरकारी सुविधाएं देने का एलान किया. इनमें मुनिया को उत्तराधिकार पेंशन देने की बात भी शामिल है.
इससे इतर अगर बात करें, तो इस टोले में जुब्बा सहनी की मूर्ति क्या. एक पोस्टर तक नहीं हैं. गांव के बुजुर्ग कहते हैं कि हम लोगों की लंबी उम्र बीत चुकी है, लेकिन हम लोगों ने कभी सुख नहीं देखा है. हमेशा परेशानी में ही रहे हैं. कोई सुधि लेने भी नहीं आता है. ये बताते हैं कि गांव में सरकारी योजनाओं का हाल खराब है. अभी तक किसी की उज्जवला योजना के तहत टोले में गैस का सिलेंडर नहीं मिला है. बिहार सरकार ने रेडियो देने की शुरुआत की थी. वो रोडियो भी नहीं नसीब हुआ है. तमाम तरह के बीमा की बात होती है, लेकिन यहां किसी का बीमा भी नहीं है. बुजुर्ग बताते हैं कि वह रैलियों में ही भाग लेने पटना गये हैं. इसके अलावा कभी प्रदेश की राजधानी तक नहीं पहुंचे हैं.
गांव में अभी भी इतनी गरीबी है कि बच्चे के बड़े होते ही उसे मजदूरी में लगा दिया जाता है, ताकि घर की रोटी चल सके. पढ़ने के लिए स्कूल नहीं है. पांच साल पहले जमीन भी सरकार को दी गयी, लेकिन स्कूल नहीं बन सका. सबसे नजदीक जो उर्दू स्कूल है, उसमें हिंदी के शिक्षक नहीं हैं. यहां का कोई बच्च पढ़ना चाहता है, तो उसे एक किलोमीटर दूर जाना पड़ता है. अगर किसी की तबियत खराब हो गयी, तो सात किलोमीटर चल कर मीनापुर जाना होगा. आसपास में किसी तरह की व्यवस्था नहीं है. गांव में जिस स्वास्थ्य कार्यकर्ता की बहाली है, वो कभी आता ही नहीं है. यहां के मुखिया बताते हैं कि हमने फोन किया, उसके बाद भी स्वास्थ्य कार्यकर्ता ने आना शुरू नहीं किया.
शहीद के टोले का हाल ये है कि यहां आजादी के सत्तर साल बाद पहला सरकारी चापाकल विधायक फंड से हाल में ही लगा है, वो भी तब जब प्रभात खबर में खबर छपी. उसके बाद आनन-फानन में चापाकल लगवाया गया. अब इसी का पानी पूरे मोहल्ले के लोग पीते हैं. जिला प्रशासन की ओर से कई तरह की घोषणाएं की गयी हैं, लेकिन अभी किसी पर काम शुरू नहीं हुआ है. सात निश्चय योजना के तहत मोहल्ले का विकास करने की बात हो रही है. राज्यसभा सांसद अनिल सहनी ने इसे गोद ले लिया है, लेकिन अभी तक यहां का दौरा तक नहीं किया है. विधायक का कहना है कि इस गांव को आदर्श गांव बनाया जाना चाहिये. इसकी मांग उन्होंने विधानसभा में की है, लेकिन सरकार की ओर से कुछ आश्वासन अभी तक नहीं दिया गया है.
हाल में 11 मार्च को जुब्बा सहनी का शहादत दिवस मनाया गया. राजधानी पटना में बड़ा समारोह हुआ, जिसमें मुख्यमंत्री नीतीश कुमार भी शामिल हुये थे. वहां मुख्यमंत्री ने कहा कि हम पटना में जुब्बा सहनी के नाम पर स्मारक बनायेंगे, लेकिन इस गांव के लोगों का कहना है कि पटना में स्मारक बनने से पहले सरकार को हमारी स्थिति को देख लेना चाहिये. गांव के मुखिया कहते हैं कि यही त्रसदी है. जमीन पर काम नहीं हो रहा है. यहां के लोग परेशान हैं.

शनिवार, 18 मार्च 2017

ऐसा रिस्पांस समाज के अंतिम व्यक्ति तक मिले, तब मानें सरकार!

मित्र विकास ठाकुर का सुबह फेसबुक पोस्ट पढ़ा. बड़ा सुकून देनेवाला लगा. उन्होंने लिखा था कि रात में दिल्ली से गरीबरथ एक्सप्रेस से चले. बच्चे के लिए दूध लेकर चले थे, लेकिन खराब हो गया. रेल मंत्रलय को ट्वीट किया और अगले स्टेशन तक दूध की व्यवस्था हो गयी. भूख से रो रहे बच्चे को सुकून मिला. इस मामले में लगा कि व्यवस्था काम कर रही है. इसके लिए सरकार और रेल मंत्रलय को बधाई भी देना चाहिये, लेकिन इसके साथ ही सवाल ये भी है कि अगर ऐसी ही व्यवस्था समाज के अंतिम व्यक्ति तक को मिले, तब समङिाये कि सरकार काम कर रही है.
पंचायत से लेकर बीडीओ, सीओ व तमाम अन्य सरकारी कार्यालयों तक जरूरतमंद चक्कर लगाते रहते हैं, लेकिन उनका काम नहीं होता है. योजनाओं के नाम पर तो अपने यहां झड़ी लगी है. हर चीज के लिए एक नहीं कई योजनाएं हैं, लेकिन उनका लाभ लेने की बारी आती है, तो किस तरह से दौड़ाया जाता है. मेरा व्यक्तिगत अनुभव है कि प्राकृतिक आपदा के समय सरकार फसल क्षति देती है. मैं मुजफ्फरपुर के कई प्रखंडों में घूमा हूं. किसानों से बात की है. ज्यादातर का यही कहना होता है कि हम लोग सरकारी मदद नहीं लेते हैं. इसके लिए कौन लगातार बीडीओ कार्यालय के चक्कर लगाये, जिनती बार दौड़ना पड़ता है. उतने अगर हम खेत पर मेहनत करेंगे, तो अगली फसल अच्छी हो जायेगी. जब भी कोई किसान अनुदान या नुकसान की भरपाई के लिए संबंधित कार्यालय जाता है, तो कभी बैठक की बात कह कर वापस कर दिया जाता है. कभी बताया जाता है कि साहब क्षेत्र के दौरे पर हैं और कभी कह दिया जाता है कि डीएम साहब की बैठक में भाग लेने के लिए जिला मुख्यालय गये हैं.
ऐसे जवाब सुन कर क्या कोई सही किसान बीडीओ ऑफिस के चक्कर लगाता रहेगा. जवाब शायद नहीं में होगा, क्योंकि किसान के पास इतना समय नहीं होता है कि वो खेती का काम छोड़ कर बीडीओ ऑफिस के चक्कर लगाता रहे. अभी अपने यहां धान खरीद का काम चल रहा है. पैक्सों को इसका जिम्मा दिया गया है, लेकिन हालत क्या है. मुजफ्फरपुर जिले की बात करें, तो दस फीसदी किसानों का भी रजिस्ट्रेशन नहीं हो पाया है. ये हाल तब है, जब धान खरीद का समय पूरा होने में मात्र 12 दिन बाकी बचे हैं. एसे में अंदाजा लगाया जा सकता है कि धान खरीद से किसको लाभ मिलेगा? मुङो लगता है कि उन किसानों को तो नहीं, जिन्होंने खून-पसीना बहा कर फसल तैयार की, क्योंकि फसल तैयार करने के दौरान इतना खर्च हो जाता है कि कटाई के बाद उन पर उपज को बेचने का दबाव रहता है, ताकि और काम कर सकें.
सवाल ये है कि यह स्थिति कब बदलेगी? क्या इसकी ओर कोई संवेदनशील होकर सोच रहा है? क्या वो अधिकारी जिन्हें जनता की सेवा के लिए सरकार भारी भरकम वेतन देती है. वो खुद को इसके लिए तैयार कर पाये हैं कि समाज के अंतिम व्यक्ति तक को जब कोई परेशानी होगी, तो वह उसकी मदद को आयेंगे. उसे समय पर मदद मिलेगी. अगर गंभीरता से हम लोग विचार करेंगे, तो शायद इसका भी उत्तर नहीं में ही मिलेगा.
ऐसे में हम तो यही कह सकते हैं कि यात्री सुविधाओं को लेकर जिस तरह से रेल मंत्रलय की ओर से हाल के दिनों में पहल की जा रही है, उससे उम्मीद की किरण जरूर दिखायी देती है. अगर तमाम महकमे चाहें, तो परेशानी सामने आने पर उसका समाधान कर सकते हैं. मुङो लगता है कि इससे अन्य विभागों को भी नसीहत लेने की जरूरत है, तब एक काम के लिए लोगों को बीडीओ, सीओ व अन्य सरकारी ऑफिसों में बार-बार चक्कर नहीं लगाना पड़ेगा.

शुक्रवार, 17 मार्च 2017

चुनाव जीत लिया, तो मुख्यमंत्री भी चुन लेंगे, आप क्यों परेशान हैं?

विरोध भी अजीब चीज है. दिल है कि मानता नहीं..की तर्ज पर बढ़े ही जाता है? उत्तर प्रदेश में चुनाव का नतीजा आया और भाजपा की अगुवाई वाले एनडीए ने बंपर जीत दर्ज की. इसके बाद मुख्यमंत्री पद को लेकर कयासों का दौर शुरू हो गया. राजनीति है, सब लोग कयास लगाते हैं. होना भी चाहिये, लेकिन कुछ ऐसे भी बुद्धिजीवी हैं, जो तरह-तरह के तर्को का सहारा ले दिन भर कुछ न कुछ गढ़ते रहते हैं. गोवा और मणिपुर का हवाला दे रहे हैं. वहां बना लिया, यहां क्यों नहीं बना पा रहे हैं. ऐसे राय दे रहे हैं, जैसे सरकार बनाने में इनकी राय ही मानी जायेगी. अगर भाई, आपकी राय के बिना चुनाव जीत लिया है, तो मुख्यमंत्री भी चुन लेंगे. इसमें आप क्यों परेशान हैं?
यह आप खुद के साथ भी करते होंगे, जो काम अर्जेट होता है. उसे जल्दी कर लिया जाता है. जिसमें आप खुद को सक्षम पाते हैं, उसे अपने हिसाब से करते हैं. ऐसा तरह-तरह की सलाह देनेवाले भी करते होंगे, लेकिन विरोध करते समय इसे भूल जाते हैं. ऐसे में सवाल उठता है कि क्या हमारा विरोध इतना सतही होना चाहिये? अगर विरोध ही करना है, तो ऐसे मुद्दों को लेकर हो, जिससे समाज का भला हो? शायद हम लोगों की ऐसी आदत अब नहीं रह गयी है.

बुधवार, 15 मार्च 2017

अब किसका दरवाजा खटखटाएं यजुआर के युवा?

परेशानी तो चार दशक पुरानी है, लेकिन मैं लगभग पांच साल से जान रहा हूं. पिछले एक साल से नजदीक से देख रहा हूं. यजुआर के युवा जिस तरह से अपने गांव बिजली लाने के लिए अभियान चलाये हुये हैं. कड़ी से कड़ी जोड़ कर इसे आगे बढ़ा रहे हैं. वह प्रेरणा देनावाला है, लेकिन व्यवस्था पर सवाल भी खड़े करता है.  इलाके से लेकर दिल्ली तक में गांव के युवा अपनी मांग को लेकर अधिकारियों से लेकर नेताओं तक से गुहार लगा चुके हैं. हर दरवाजे से उन्हें आश्वासन मिल रहा है, लेकिन काम आगे नहीं बढ़ रहा है. हाल में दिल्ली के जंतर-मंतर पर बिजली के लिए धरना-प्रदर्शन हुआ, तो उसमें नेताओं ने भी भागीदारी की. इसके बाद भी यजुआर में बिजली आने की किरण नहीं दिखायी पड़ रही है. ऐसे में सवाल उठता है कि अब किसका दरवाजा खटखटाएं यजुआर के युवा?
2020 तक सब गांवों को बिजली देने का दावा करनेवाली सरकारें यह बताने को तैयार नहीं हैं, जिस गांव में सत्तर के दशक में बिजली के तार खिच चुके हैं. उस गांव में 2017 में भी बिजली क्यों नहीं जल रही है? अगर नहीं जल रही है, तो इसके पीछे कारण क्या हैं और इसके लिए जिम्मेवार कौन है? उनके खिलाफ किस तरह की कार्रवाई की गयी है. अगर सरकार गांववालों को दोषी मानती है, तो उसके बारे में भी बताना चाहिये, ताकि उसके आगे का काम हो सके, लेकिन अब सिर्फ आश्वासन से काम नहीं चलेगा. सिंगल विंडो सिस्टम के जमाने में अगर सरकारी मशीनरी इस तरह का व्यवहार करेगी, तो उसकी महत्ता क्या रह जायेगी? क्या लोगों का विश्वास उसके ऊपर से नहीं उठेगा?
यजुआर के बिजली संघर्ष के बारे में पहली बार विकास ठाकुर ने बताया, जो दिल्ली में रहते हैं, लेकिन गांव में बिजली नहीं होने की कसक उन्हें सालती है. वह लगातार  इस दिशा में काम कर रहे हैं, ताकि जल्दी से जल्दी उनके गांव में भी खिंचे बिजली के तारों से करंट दौड़े. हाल में दिल्ली से मुजफ्फरपुर आये, तो मिलना हुआ. कहने लगे कि बिना गांव को साथ लिये हमारा आंदोलन सफल नहीं होगा. इसी वजह से गांव आया हूं. दिल्ली के जंतर-मंतर पर प्रदर्शन करना है. गांव के लोगों से बात करूंगा, तो उससे हमें आंदोलन को सही दिशा में ले जाने की प्रेरणा मिलेगी.
सोशल मीडिया से लेकर विभिन्न माध्यमों से यजुआर की बिजली की आवाज सामने आयी है, लेकिन जिन लोगों को इसे सुनना है, वह चुप्पी साधे हुये हैं. स्थानीय विधायक भी ग्रामीणों की भाषा बोलते हैं. कहते हैं कि हमने विधानसभा में मामला उठाया है, लेकिन इसके आगे क्या हो रहा है. इसकी जानकारी नहीं दे पाते हैं. विकास ठाकुर जैसे यजुआर के दर्जनों युवा हैं, जो अलग-अलग महानगरों में नौकरी करते हैं, लेकिन सबकी चिंता एक है कि गांव में बिजली कैसे आये. अभियान में शामिल युवाओं में से ज्यादातर उम्र भी उतनी नहीं है, जितने समय से यजुआर के साथ ज्यादती हो रही है. सिके बावजूद इन युवाओं में विश्वास दिखता है कि हमारे गांव में बिजली आयेगी. अन्य गांवों की तरह यजुआर की गलियां भी दूधिया लाइट से रोशन होंगी. बंद पड़ी पानी की टंकी चलेगी और घरों को टैब वाटर मिलेगा, लेकिन कब तक? इसी पर आकर सारी बात रुक जा रही है.
केंद्रीय ऊर्जा मंत्री का पत्र इनके पास है, जो उन्होंने राज्य सरकार को लिखा था, लेकिन राज्य सरकार की ओर से पहल नहीं हुई. कुछ माह पहले मुख्यमंत्री नीतीश कुमार दिल्ली गये थे, तो वहां वरिष्ठ पत्रकार मनीष ठाकुर ने उनका ध्यान इसकी ओर खीचा था. उस समय युवाओं को लगा था कि मुख्यमंत्री की ओर से इसकी घोषणा की जायेगी, लेकिन ऐसा नहीं हुआ. मुख्यमंत्री ने गांव के युवाओं को मिलने के लिए बुलाया, लेकिन अभी तक बात नहीं बनी. अगर यजुआर की बात करें, तो यह सूबे के सबसे बड़े गांव के रूप में शुमार होता है, लेकिन यहां बिजली का नहीं होना पूरी कहानी कहता है.
गांव के लोग अतीत पर गर्व करते हैं, जब तत्कालीन केंद्रीय मंत्री  ललित नारायण मिश्र के प्रभाव से यहां बिजली के खंभे गड़े थे. ट्रांसफार्मर लगा था. गांव में टंकी बनी थी. सड़कों का निर्माण हुआ था. एपीएचसी खुल गया था. यह गांव आदर्श गांवों में शुमार हो गया था. गांव में बिजली का खंभा, पोल, तार व ट्रांसफार्मर लगने के बाद भी बिजली केवल टेस्टिंग के लिए आयी. उसके बाद से आज तक बिजली के दर्शन नहीं हुये. बिजली नहीं है, तो टंकी से पानी कैसे मिलेगा, लेकिन टंकी पर सरकारी कर्मचारी की नियुक्ति जरूर है, जो केवल टंकी की रखवाली का काम कर रहा है.
एपीएचसी बंद हो गयी, जिसके बाद से यहां के ग्रामीण फिर से झोलाछाप डॉक्टरों के हवाले हो गये हैं. गांव की आबादी लगभग 40 हजार के आसपास है. इसके बाद भी ये दुर्दशा है. यहां के ग्रामीण बताते हैं कि सात साल पहले अधिकारियों की बड़ी टीम गांव आयी थी, उस समय लगा था कि दिन बहुरनेवाले हैं. 40 बिंदुओं से ज्यादा की रिपोर्ट बनी थी, लेकिन काम किसी पर नहीं हुआ. रिपोर्ट कहीं सरकारी फाइलों की शोभा बढ़ा रही होगी. गांव के लोगों की बेहतरी की खुशी कुछ दिनों में काफूर हो गयी और वह फिर से खुद को ठगा महसूस करने लगे, जो स्थिति अभी तक जारी है. यहां सवाल फिर से वही है, सरकार ने तमाम योजनाएं बनायी हैं, लेकिन कोई योजना यजुआर जैसे गांव पर क्यों नहीं लागू होती, जिससे यहां पर बिजली आ जाये?

क्या हम इनसे प्रेरणा नहीं ले सकते!

बहुत पुराना प्रसंग नहीं है. 2014 की बात है, तब भी अमर शहीद जुब्बा सहनी के परिजनों का मामला सामने आया था. परिवार के इकलौते कमाऊ सदस्य मुनिया के बेटे ने आत्महत्या कर ली थी. वो घर बनाने का काम करता था, लेकिन उससे इतने पैसे नहीं मिलते थे कि परिवार की दो जून की रोटी के साथ बच्चों को पढ़ाये और उनकी जरूरतें पूरी कर सके. देखा बच्ची बड़ी हो रही है, लेकिन उसकी ऐसी सामथ्र्य नहीं थी कि वो उसके हाथ पीले कर सकता. बताते हैं कि लोकलाज के डर से उसने फांसी लगा ली.
बात मुनिया की पोती की शादी की आयी, तब भी प्रभात खबर में खबर छपी. समाज के लोग आगे आये. मदद की और मुनिया की पोती की शादी हुई. ये खबर आयी, तो मुङो भी लगा कि शहीद के परिजनों की मदद होनी चाहिये. खबर छपने के अगले दिन शहर में व्यवसाय करनेवाले कुछ युवा मेरे पास आये कहने लगे कि हम परिवार की मदद करना चाहते हैं. हम कुछ कपड़े और पैसे उन्हें देना चाहते हैं. साथ ही वो लोग जो कहेंगे, हम मदद करेंगे. हमने जानकारी लेने के बाद उन लोगों का फोन नंबर उन्हें उपलब्ध करा दिया, जो शादी की तैयारियां देख रहे थे. मुजफ्फरपुर से युवाओं ने उस नंबर पर संपर्क साधा, तो उन लोगों ने कहा कि शादी के लिए जितनी मदद की जरूरत थी. वो मिल गयी है. अब और मदद नहीं चाहिये. आप लोग मदद देना चाहते हैं. इसके लिए धन्यवाद!
क्या हम आप ये सोच सकते हैं. इतनी सरलता. जिस परिवार में दो जून खाने के लिए रोटी नहीं है. वो ऐसा कर सकता है. क्या उन्हें अच्छे कपड़े पहनने की चाह नहीं लगती होगी? लेकिन उन्होंने कितनी सरलता से ना कर दिया. इसके बारे में हमें हाल में तब पता चला, जब मुनिया की तबियत बिगड़ी और फिर उसकी खबर को हम लोगों ने छापा, तो फिर उन युवाओं में से एक ने संपर्क किया और कहा कि हम मदद करना चाहते हैं. हमने पूछा, आप लोगों ने पिछले बार भी मदद की थी, तो वो कहने लगा कि उन्होंने मदद ली कहां थी. उन्होंने तो इनकार कर दिया था.

मंगलवार, 14 मार्च 2017

Gali-Gali: इलाहाबाद और दो साथियों का अंग्रेजी ज्ञान

Gali-Gali: इलाहाबाद और दो साथियों का अंग्रेजी ज्ञान: इलाहाबाद यूनिवर्सिटी को पूर्व का ऑक्सफोर्ड कहा जाता है. अब तो सैकड़ों की संख्या में निजी विश्वविद्यालय और तमाम तरह के तकनीकी संस्थान खुल गय...

हमारे-आपके बीच हैं देवता समान लोग

बाबू बृजपाल सिंह का चेहरा ठीक से याद नहीं, बचपन के वो दिन थे, लेकिन हमारे गांव के सबसे प्रतिष्ठित व्यक्ति. रिटायरमेंट के बाद गांव में रहते थे. वैसे तो उन्होंने गांव में तीन पक्के मकान उस जमाने में बनवाये थे, लेकिन खुद एक मड़ही (छप्पर के नीचे) में रहते थे. दादी और घर के बुजुर्ग आपस में बात करते थे कि सुबह तीन घंटे पूजा करते हैं. हमेशा राम-नाम लेते हैं. उन्हीं लोगों से मैं ये बाते सुनता. बाबू साहब का घर ज्यादा दूर नहीं था, सो कभी-कभी खेलते-खेलते उनके दरवाजे तक भी चला जाता था. गांव के लोगों में उनका बड़ा सम्मान था. सब इज्जत देते थे, लेकिन बाबू साहब अपनी मड़ही से ज्यादा बाहर नहीं निकलते थे. कभी बहुत जरूरी होता था, तब ही बाहर जाते थे, जो लोग जाते, उनसे आत्मीयता और सरलता से बात करते.
गांव के लोग बताते कि वो बिना पढ़े हुये चीनी मिल की मशीनों के इंजीनियर थे. चंपारण से लेकर देहरादून तक चीनी मिल की मशीनों को बनाने के लिए जाते थे. गांव-जवार में जब कोई लड़का बड़ा होता, तो उसकी नौकरी के लिए अभिभावक बाबू साहब के पास जाते थे. बाबू साहब भी लोगों को निराश नहीं करते थे. यथा शक्ति, इलाके के दर्जनों लोगों को विभिन्न चीनी मिलों में काम पर लगवा दिया. ऐसे लोग हमारे बड़े होने तक काम कर रहे थे. अब वो लोग भी बूढ़े हो चले हैं. कई परिवार तो देहरादून में ही बस गये. पीढ़ियाँ बदलीं, लेकिन चीनी मिल में काम करने का सिलसिला अभी तक चल रहा है. इसे हम बाबू साहब का प्रताप ही कह सकते हैं.
वो फागुन का महीना ही था, लगभग 35 साल पहले. होली का त्योहार आनेवाला था. गांव में चर्चा हुई कि बाबू साहब की तबियत अब ज्यादा खराब है. उन्होंने बिस्तर पकड़ लिया था. बहुत कम बोल पाते थे. लोगों को देखते और इशारों में ही बात करते थे. बताते हैं कि होली के एक दिन पहले उनकी तबियत कुछ ठीक हुई, तो घर के लोगों को उम्मीद बंधी. होली का दिन अच्छे से बीता, लेकिन अगली सुबह उन्होंने अपने बेटे को बुलाया और कहा कि हमको कल ही जाना था, लेकिन हमने मना कर दिया कि हमारे बच्चों को त्योहार खराब हो जायेगा. इसलिए हम आज चले जायेंगे. ये सुनने के बाद उनके बेटे ने कहा कि कैसी बातें कर रहे हैं बाबू जी. हम लोग हैं, आप हमको छोड़ कर ऐसे नहीं जा सकते हैं, लेकिन बाबू साहब उस दिन उठे. नित्य क्रिया की. पूजा शुरू की और बिस्तर पर लेटे-लेटे ही राम-नाम लेने लगे. दिन का खाना खाया और उसके बाद सदा के लिए इस दुनिया से चले गये. बाबू साहब के अंतिम समय की चर्चा सालों गांव में होती रही. कैसे तपस्वी व्यक्ति थे वो. कैसे उन्होंने भगवान से साक्षात्कार किया होगा. कैसे उन्होंने अपनी मौत को एक दिन अपने तप के बल पर टाल दिया? ये बात, भले ही सुनने में असंभव जैसी लगती हो, लेकिन सत्य है. ऐसे थे, हमारे गांव के बाबू जी.
बाबू जी का प्रसंग इस वजह से याद आया कि हाल में अभिभावक तुल्य रामवृक्ष बेनीपुरी जी का अचानक निधन हुआ, तो तगड़ा सदमा लगा. उन्होंने अपने पिता व कलम के जादूगर रामवृक्ष बेनीपुरी जी की स्मृतियों को जिस तरह से संजोने का काम किया, वो कोई श्रवण कुमार ही कर सकता है, जिसमें देवतत्व हो. तीन-चार दिन पहले उनके भांजे महंत राजीव रंजन दास जी से बात होने लगी, तो वह बताने लगे कि जिस दिन बेनीपुरी जी का निधन हुआ, उससे एक दिन पहले उन्होंने अपने बेटे को बुला कर कैसे कहा कि तुम लोगों ने मेरी बहुत सेवा की, लेकिन अब मेरे जाने का समय आ गया है. उसके बाद वो 24 घंटे जीवित नहीं रहे. महंत राजीव रंजन दास इससे पहले 23 दिसंबर 2016 का प्रसंग भी बताते हैं, रामवृक्ष बेनीपुरी जी की जयंती थी. हम सब लोग जयंती समारोह में शामिल होने के लिए बेनीपुर गांव गये हुये थे. महेंद्र जी भी वहां थे, लेकिन महंत जी बांध पर पूर्व केंद्रीय मंत्री रघुवंश प्रसाद सिंह का इंतजार कर रहे थे. उनके आने में थोड़ा बिलंब हो रहा था, सो हम लोगों की वहां मुलाकात नहीं हो सकी थी, लेकिन जब रघुवंश बाबू बांध पर पहुंचे, तो बागमती पार करके महंथ जी उनके साथ बेनीपुर गांव पहुंचे थे. कहने लगे कि वहां बात हो रही थी. इसी बीच महेंद्र जी कहने लगे कि ये आखिरी बार हम बाबू जी (बेनीपुरी जी ) की जयंती में शामिल होने आये हैं. अगले साल हम नहीं होंगे.
महंत जी बताते हैं कि महेंद्र जी जो बात कह रहे थे वो इतनी जल्दी सत्य हो जायेगी, इसके बारे में हमने कभी सोचा नहीं था, लेकिन उन्हें इसका आभास रहा होगा. ये सुनने के बाद लगा कि हम लोग चाहे, जो सोंचे या कहें, लेकिन समाज में हम लोगों के बीच ऐसे लोग हैं, जो ऋषितुल्य हैं. सामाज में रहते हुये अपनी सरलता सो छाप छोड़ते रहते हैं. हम खुद को सौभाग्यशाली समझते हैं कि हमें ऐसे लोगों से मिलने और उन्हें देखने-सुनने का मौका मिला.