मंगलवार, 14 मार्च 2017

नहीं सुनायी देती..बाबा हरिहरनाथ, सोनपुर में रंग लूटे..की गूंज


पेशे से शिक्षक रहे ब्रह्मानंद ठाकुर जी सामाजिक कार्यकर्ता भी हैं, जो हर मुद्दे पर बेबाकी से अपनी राय रखते हैं. रिटायरमेंट के बाद गांव में रह कर समाजसेवा और पत्रकारिता को समर्पित हैं. अपने बचपन की होली की यादें, उन्होंने प्रभात खबर के साथ शेयर कीं. 

ऐन होली के मौके पर भी गांवों में उदासी छायी है. कहीं कोई चहल-पहल नहीं. एक सन्नाटा- सा पसरा हुआ है आसपास में. सोचता हूं, हमारे त्योहार पर कहीं ग्लोबलाइजेशन का असर तो नहीं. आखिरकार कहां गुम हो गयी होली की उमंग. कैसे फीके हुये इसके रंग! ये सब सोचते हुये लौट जाता हूं अतीत में. हां, अतीत में लौटना, थोड़ी देर के लिए सुकून तो देता ही है. यह जानते हुये भी कि बीता लौटकर वापस नहीं आता है. हमारी जैसी उमर के लोग अतीतजीवी हो ही जाते हैं और अकसमात मुंह से निकल पड़ता है..कितने अच्छे थे वो दिन. तो बात उन दिनों की है, जब हम 10-12 साल के थे. मतलब अभी से 50 साल पहले, तब होली की धमक वसंत पंचमी के साथ ही सुनायी देने लगती थी. डंप पर नया चाम मढ़ा लिया जाता था. बक्से में बंद झाल बाहर निकाल ली जाती और रात में होली गाने का सिलसिला हमारे गांव में शुरू हो जाता था. कमोबेश हर गांव में ऐसा होता था. इसकी पूर्णाहुति होली के दिन चैत प्रतिपदा की रात गांव की सीमा पर बूढ़ी गंडक के किनारे स्थापित महादेव मंदिर पर..बम-बम भोले हो लाल, कहवां रंगोले पगड़िया. बाबा हरिहरनाथ सोनपुर में रंग लूटे..जैसे होली गीतों के साथ होती थी.
उस समय हमारे गांव के ज्यादातर बुजुर्गो की होली के गीत और जोगीरा पर अद्भुत पकड़ होती थी. उनके पास गीतों, कथाओं का खजाना हुआ करता था. उन्हीं से चलकर ये परंपरा, तब की नयी पीढ़ी तक पहुंची, जो आज बुजुर्ग होकर हासिये पर आ गयी है. अब वो न पहले वाले लोग बचे और न उनकी परंपरा रही. वंसत पंचमी से ही होली गाने की परंपरा के पीछे, जैसा कि तब लोग कहते थे कि चूंकि साल भर बाद ये त्योहार आता है, इसलिए जिंदगी की जद्दोजहद में अधिकांश गीत लोग भूल चुके होते हैं. इसलिए ये समय उनके अभ्यास का समय माना जाता था. रात में होली गानेवाली मंडली का जुटान किसी एक के दरवाजे पर होता था. गांव के लोग उसमें जुटते. 10-11 बजे रात तक होली गायी जाती, उसी समय यह निर्णय भी हो जाता था कि कल किसके दरवाजे पर जुटान होना है. एक महीने तक चलनेवाले इस कार्यक्रम में बड़े उत्साह से लोग भाग लेते थे. असली मजा हम लोगों को संवत (होलिका दहन के दिन) और उसके कल होकर होली के दिन आता था, तब आज की तरह गांव में खाना बनाने के लिए एलपीजी नहीं थी. इसलिए जलावन की कमी नहीं थी. लोग सालभर के लिए जलावन का जुगाड़ रखते थे. खेती भी वैसी ही थी और बाग बगीचे भी, जहां से पर्याप्त जलावन मिल जाता था. होलिका दहन के लिए जलावन जुटाने की जिम्मेवारी लकड़ो की टोली की हुआ करती थी.
हमारा गांव उस समय लगभग 70 घरों का था. दो-चार घरों से कुछ लड़के निकलते. किसी एक दरवाजे पर संवत के लिए जलावन मांगते, तो उस घर का एक लड़का भी साथ हो लेता था. इसी तरह लड़कों की टोली आगे बढ़ती रहती और इस अभियान में 30-40 लड़के जमा हो जाते थे. सभी एक साथ घूमते हुये जलावन एकत्र करते. उसका जगह-जगह ढेर लगाते जाते. जमा करने का काम जब पूरा हो जाता, तब उसे ढो कर तय स्थान पर पहुंचा दिया जाता था. लड़क थे, सो बैलगाड़ी हांकने, तो आता नहीं था. किसी दरवाजे से बैलगाड़ी (बिना बैल) मांग लेते. कविवर हरिवंश राय बच्च की कविता..युग का जुआ..की तर्ज पर दो मजबूत कद-काठी वाले बच्चे बैलगाड़ी का जुआ कंधे पर रख कर खीचते हुये आगे बढ़ते जाते और इस तरह जलावन को निर्धारित जगह पर पहुंचा दिया जाता.
हम लड़कों में अनुशासन इतना था कि जलावन मांगने में कहीं भी और कभी भी जोर-जबरदस्ती नहीं की जाती थी. सभी गांव वाले चाचा-बाबा होते थे. गांव से इकट्ठा जलावन का ढेर इतना हो जाता था कि उसे सिर उठा कर देखना पड़ता था. होलिका दहन का समय अक्सर देर रात में पड़ता था. हम में से ज्यादातर बच्चे सोये रहते थे, जिसकी वजह से जलावन की ढेर को इकट्ठा करने के बाद भी हम उसे जलते हुये नहीं देख पाते थे. तब यह मान्यता थी जिसके मां-पिता दोनों की मौत हो चुकी हो, वही संवत को जलायेगा. सो हमारे गांव के बिंदा चाचा, पूरे जीवन संवत जलाते रहे. लोग अपने घरों से पतली कमाची में पांच बड़ी को गूथ कर ले जाते थे और उसको जलती हुयी संवत में डालते थे. आज तक नहीं जान सका कि ऐसा करने का क्या कारण रहा होगा. संवत जलते ही डंप-झाल पर होली गाने का सिलसिला शुरू हो जाता था. इस तरह होली गीत से आधी रात की निस्तब्धता भंग होती थी, लेकिन लगता बड़ा सुखद था.
होली का दिन बड़ा उत्साह लेकर आता था. दिन चढ़ते ही कादो-माटी खेलने के लिए होड़ लग जाती थी, जो देखते ही बनता था. कीचड़ से तब-बतर लड़कों को पहचानना मुश्किल होता था. उस माहौल में अनुशासन न जाने कहां गायब हो जाता. उसका पता ही नहीं चलता, जो भी मिल जाये, उसका स्वागत कीचड़ से होता. कीचड़ न मिले, तो सड़कों की धूल ही सही. उनकी को इस दिन सामत ही आ जाती, जो उस दिन ससुराल में होते. बड़े प्रेम से उन्हें पकड़ कर गोबर-माटी से नहलाया जाता था और गांव के लोग खूब मजा लेते थे. मुङो याद नहीं इस मौके पर कभी किसी से कोई झगड़ा हुआ हो. कैसा प्रेम, भाईचारा और सौहाद्र्र था तब!
दोपहर बाद अचानक ये खेल स्वेच्छा से बंद हो जाता था. दोपहर के बाद नहाने के लिए हम लोग बूढ़ी गंडक की ओर रुख करते थे. स्नान के बाद होली गायन और रंग गुलाल लगाने का सिलसिला फिर से शुरू होता था. गांव भर बड़े बुजुर्ग होली गाने के मास्टर होते थे. उनमें से अब एक-दो लोग ही जीवित हैं. उन पुराने दिनों की याद अपने जेहन में संजोये. गांव में होली गाने की शुरुआत महावीर स्थान से होती थी. इसके बाद बारी-बारी से सभी के दरवाजे पर जाते थे. होली गाने की शुरुआत किसी गीत से हो, लेकिन अंत मंगलकारी गीत से होता था. ये क्रम देर रात तक चलता था और रात में शिवमंदिर पर जाकर पूरा होता था.

68 फीसदी जनता खिलाफ थी, तब आप क्यों नहीं बोले?

उत्तर प्रदेश के अप्रत्याशित नतीजों ने उन राजनीतिक पंडितों को सोचने पर मजबूर कर दिया है, जो कह रहे थे कि त्रिशंकु विधानसभा होगी. जोड़तोड़ का दौर चलेगा. भाजपा को सत्ता से बाहर रखने के लिए सपा-बसपा और कांग्रेस साथ आ जायेंगे, लेकिन चुनाव परिणाम ऐसे आये कि उनके इन दावों की हवा निकल गयी. चुनाव परिणाम के दिन ऐसे लोग दिन भर ये सोचने में व्यस्त रहे कि अब क्या करें और क्या कहें?
शाम तक जब आकड़ों की तस्वीर साफ हुई, तो पता चला कि भाजपा को 41 फीसदी वोट मिले हैं, तो कहने लगे कि ये पूरा जनादेश नहीं है. भले ही सीटें मिल गयी हैं, लेकिन भाजपा को ये नहीं भूलना चाहिये कि उसके खिलाफ 59 फीसदी लोगों ने वोट दिया है, जो अपने आप में वोटों का बहुमत है. ऐसा सवाल करनेवालों ने इससे पहले ये कभी नहीं कहा कि अखिलेश यादव 31-32 फीसदी लोगों का वोट प्राप्त करके ही पांच साल तक सत्ता में रहे, तब यह सवाल उठानेवाले कहां थे, इनका पता नहीं था. अब जब कुछ नहीं मिला, तो प्रतिशत का खेल खेलने लगे.
चूंकि ऐसे लोगों का एक अलग वर्ग होता है. वह विरोध करेंगे ही, चाहे जो भी हो, लेकिन विरोध करने से पहले यह भी सोचना चाहिये कि हम जो कह रहे हैं. वो तो उन लोगों पर भी लागू होता है. विरोध के नाम पर हम जिनका साथ देने को तैयार दिखते हैं. लोकतंत्र में संख्या बल की प्रमुख रही है. संख्या के बल पर ही सरकारें बनती और बिगड़ती रही हैं. अपने देश में लोकतंत्र की लगभग सात दशकों की यात्र के दौरान ऐसे बहुत से मौके आये हैं, जब कुछ वोटों से ही फैसला हुआ है. ऐसे में किस बात को सही माना जाना चाहिये. ये तय कर लेना चाहिये? क्योंकि वोट चाहे जिनते भी मिलें, लेकिन जिसको सीटों में बहुमत मिलेगा, सरकार तो उसी की बनेगी. यह क्या सत्य नहीं है?
अगर मैं ऐसा लिख रहा हूं, तो ये मत समझ लीजियेगा कि मैं किसी पार्टी का समर्थक हूं. मैं किसी पार्टी का समर्थक नहीं हूं. मैं केवल लोकतंत्र की उस तासीर का समर्थक खुद को मानता हूं, जिसमें संख्या बल को सवरेपरि माना गया है. हां, अगर ये सिस्टम खराब है और इसकी जगह पर कुछ और अच्छा हो सकता है, तो हमें उसी को अपनाना चाहिये. क्योंकि अगर हम उत्तर प्रदेश से सटे हुये बिहार राज्य के चुनाव परिणामों की बात करें, तो यहां गठबंधन के सहारे बहुमत मिला, तीन पार्टियां जुट गयीं, तब 43 फीसदी वोट आया. यानी यहां के भी 57 फीसदी लोगों ने सरकार के खिलाफ मत दिया था, जैसा कि विरोध के लिए कहा जा रहा है, लेकिन मैं इस मत का समर्थक नहीं हूं. यहां सरकार को अच्छा बहुमत मिला है. वह राज्य कर रही है, लेकिन इन आलोचकों ने इस सरकार पर कभी सवाल नहीं उठाये? आखिर ये कैसा विश्लेषण है, इस पर भी गौर करना चाहिये. केवल विरोध के लिए विरोध अच्छा नहीं होता है, मेरा सिर्फ यही कहना है.

सोमवार, 13 मार्च 2017

बड़ी मुश्किल है यार?

बड़ी कंपनी में काम करनेवाले राजेश का हाल बेहाल है. होली में तीन दिन की छुट्टी हो जाती, लेकिन संडे की वजह से एक दिन की छुट्टी मारी गयी. वैसे राजेश संडे को छुट्टी पर रहते हुये भी कंपनी के कामों पर ध्यान रखते हैं. एक्सपोर्ट और इम्पोर्ट का काम होने की वजह से सामान कब आयेगा और कब जायेगा. इसकी पूरी चिंता करने पड़ती है. इसकी वजह से कोई समय नहीं राजेश की ड्युटी का. सामान्य ड्यूटी के समय तो ऑफिस में रहना ही पड़ता है, क्योंकि पता नहीं कब बड़े सर तलब कर लें वीडियो कांफ्रेंसिंग पर. साथ ही अगर समय पर ऑफिस नहीं जायें, तो नीचे के कर्मचारी काम में लापरवाही कर देते हैं. बॉस राजेश ऑफिस में रहते हैं, तो काम अच्छा होता है, अगर किसी दिन नहीं आये, तो क्या-क्या सुनने को मिलता है कि फलां ने काम नहीं किया. फलां ऑफिस से खुद को काम के लिए निकल गया.
ऐसे में राजेश के सामने परेशानी ये है कि वो डॉक्टर की सलाह माने या फिर अपनी मंजिल को पाने के लिए रात-दिन की नींद और चैन त्यागे. क्योंकि डॉक्टर कहते हैं कि अगर रात में ज्यादा जगे, तो परेशानी होगी. नींद पूरी लेना जरूरी है. पूरी नींद लेते हैं, तो सुबह नौ से दस बज जाते हैं, तब तक ऑफिस जाने का समय हो जाता है. ऐसे में रोज की एक्सरसाइज छूट जाती है. एक्सरसाइज छूटी, तो पेट निकलने का खतरा और एक्सरसाइज करता है, तो ऑफिस समय से नहीं पहुंच पायेगा. इसी कसमकश में पिछले छह माह से राजेश की एक्सरसाइज छूट रही है, जिसका असर उसके शरीर पर दिखने लगा है, जो देखता है. कहता है, पहले से आप मोटे हो गये हैं. ये सुनते ही राजेश की परेशानी और बढ़ जाती है.
नोटबंदी के बाद कंपनी के परफारमेंस को लेकर चिंता अलग से, नगदी की परेशानी अब धीरे-धीरे दूर हो रही है, लेकिन पहले तो जुगाड़ और चिंता में ही दिन गुजरता था. किस देश से सामान आना है और कहां जाना है. इसकी ट्रैकिंग और मॉनिटरिंग दोनों की चिंता राजेश के जिम्मे ही है. ऐसे में वो घर के सदस्यों को कम समय दे पाता है. माता-पिता को लगता है कि बेटा बड़ा अधिकारी हो गया है, लेकिन उनसे बात तक नहीं कर पाता. इसी के बारे में सबसे बात करके माता-पिता तो संतोष कर लेते हैं, लेकिन पत्नी और बच्चों को लगता है कि पापा उन्हें समय नहीं दे पाते हैं. पत्नी को लगता है कि ड्यूटी के बाद समय पर घर नहीं आना, राजेश का बहाना है. वो कहीं किसी और समय देते हैं. इसको लेकर अलग से टशन चलती रहती है. राजेश की पत्नी ने शादी के साल ही परिवार के साथ वैष्णों देवी जाने की मन्नत मांगी थी, लेकिन 14 साल बीत गये, नहीं जा सके. जब भी प्लान बनाते हैं, तो कोई न कोई अर्जेट काम आ जाता है. मां के धाम की यात्र कैंसिंल हो जाती है, तब परिवार में यही होता है कि मां का बुलावा नहीं आया है, इस वजह से यात्र रोकनी पड़ी.
पहले राजेश बच्चों के पैरेंट्स-टीचर मीटिंग में चले जाते थे, लेकिन पिछले तीन साल से उसमें भी नहीं जा सके हैं. हाल में ही बच्चे के स्कूल के प्रिंसपल ने बुलाया था. बताया था कि बेटा कैसे पढ़ने से बच रहा है. बहाना करता है. स्कूल भी कम आता है. घर पर ध्यान देने की ताकीद कर रहे थे. कह रहे थे कि जब तक आप ध्यान नहीं देंगे. बेटा पढ़ेगा नहीं, चाहे कितने भी ट्यूशन लगवा दीजिये. प्रिंसपल के सामने बेटे को भला-बुरा कहके राजेश घर वापस आया, तो पत्नी पर गुस्सा दिखाने लगा, लेकिन पत्नी ने टका सा उत्तर दिया. हम क्या कर सकते हैं, आपका बेटा बड़ा हो गया है. अब मेरा कहना नहीं मानता है. आपसे तो बार-बार कह रहे हैं, ध्यान दीजिये, लेकिन आपको ऑफिस के काम से फुर्सत मिलेगी, तब ना आप किसी पर ध्यान दीजियेगा. आप तो केवल घर सोने के लिए आते हैं, क्या संडे, क्या मंडे. हर दिन काम. जारी..

शुक्रवार, 10 मार्च 2017

वोटरों का मापने का पैमाना एक्जिट पोल हैं क्या?

पिछले लगभग दो दशक से एक्जिट पोल का खेल चल रहा है. शुरू में जब ये कांसेप्ट आया था, तो कुछ स्थिति ठीक थी, लेकिन जब चैनलों की भरमार हुई और तरह-तरह के एक्जिट पोल शुरू हुये. इनको लेकर स्टिंग ऑपरेशन का दौर भी शुरू हुआ. कई चेहरे किस तरह से बेनकाब हुये, तब से एक्जिट पोल को लेकर भरोसा उठ सा गया है. भरोसा उठने के लिए केवल आकड़ों का घालमेल करनेवालों के चेहरे नहीं हैं, बल्कि स्थिति ये भी है कि मान लिया जाये, जहां घालमेल नहीं होता, वहां के नतीजे क्या सही निकलते हैं. पिछले चार-पांच चुनाव का देखें, तो एक-दो जगह ही ऐसा मिलता है, जहां एक्टिज पोल के नतीजे कुछ सही देखने को मिले हैं, बाकि में स्थिति तीन-तेरह वाली ही रही है.
ऐसे में एक्जिट पोल को चाव लेकर देखने और पढ़ने का मन अब नहीं होता है. हां, एक उत्सुकता जरूर रहती है कि चैनल वाले टीआरपी के लिए किस तरफ का रुख कर रहे हैं. सबके नतीजे लगभग साथ ही घोषित होते हैं, ज्यादातर की सीटें आसपास रहती हैं, जबकि कुछ में बड़ा अंतर रहता है. अब इसे क्या कहेंगे, बिहार का चुनाव हुये ज्यादा दिन नहीं हुये. हम लोग ग्राउंड जीरो पर स्थिति देख रहे थे. रंगे-पुते चैनलवाले और वालियां नेताओं के साथ आ रहे थे और यहां से ग्राउंड रिपोर्ट बता रहे थे. वह भी उन लोगों के फीडबैक से जिनका जमीन से कोई सरोकार नहीं? ऐसे में एक्जिट पोल क्या सही होंगे.
हवा-हवाई, तो हवा-हवाई ही रहेंगे. एक्जिट पोल में क्या-क्या नतीजे घोषित किये गये थे बिहार को लेकर और हुआ क्या? एक्जिट पोल के आधार पर सरकार भी बनवाने का काम शुरू हो गया था. कौन-किसके साथ जायेगा, तो सरकार बनने का आकड़ा पूरा हो जायेगा. यही अब सबसे ज्यादा मायने रखनेवाले प्रदेश उत्तर प्रदेश को लेकर किया जा रहा है. चैनलवालों ने अपने हिसाब से सीटों का पिटारा खोल दिया है. अब एक्जिट पोल का नाम भी बदल रहा है. अभी तक कवरेज को लेकर ही महा जैसे शब्दों का इस्तेमाल हो रहा था. अब एक्जिट पोल को लेकर भी इस तरह की बात हो रही है. ऐसे में सवाल ये उठता है कि जिन लोगों के मत के आधार पर इन एक्जिट पोल बनाया गया है. उन्हें क्या सही जानकारी मिली होगी?
अपने यहां का मतदाता जल्दी पत्ते नहीं खोलता है. मतदान केंद्र में वो किस दल को वोट देकर आया है, ये बताने से कम से कम कैमरे पर तो परहेज करता ही है. हां, अगर आप उससे घुल-मिल कर बात करेंगे, तो शायद सच्चई बोल दे. ये सच्चई बिहार चुनाव के दौरान दिख रही थी. हम लोग बात करते थे. कहते थे कि हवा निकलनेवाली है, लेकिन तब हम लोगों को शक की निगाह से देखा जाता है. कथित बुद्धिजीवी कहते थे कि जनता का क्या रुख है और ये क्या बात कर रहे हैं. कई बार खास राजनीतिक दलों से प्रभावित होने के बात हम लोगों के बारे में कह दी जाती थी, लेकिन नतीजा आया, तो क्या हुआ?
हां, एक बात और. यही उत्तर प्रदेश जिसका कल नतीजा आनेवाला है. लोकसभा चुनाव में यहां के एक्जिट पोल में क्या आया था और नतीजों में क्या हुआ? ये सब लोगों ने देखा, तब क्या किसी ने सोचा था कि भाजपा को 72 सीटें मिलेंगी, लेकिन जो लोग जनता के बीच में रहते हैं. उन्हें इस बात का एहसास जरूर था, लेकिन वो स्क्रीन पर नहीं दिख रहा था.

सोमवार, 6 मार्च 2017

केबीसी विनर सुशील कुमार ने प्रभात खबर के लिए लिखी हीरालाल के संघर्ष की कहानी

हीरालाल शर्मा के बारे में जब जानकारी हुई, तो उनसे मिलने के लिए शहर के रघुनाथपुर मोहल्ले जा पहुंचा. बातचीत के दौरान लगा कि कुछ मदद करनी चाहिये, तो मैंने पूछ लिया, लेकिन हीरालाल बोले, भैया हमारी आंखें कमजोर हैं. हाथ नहीं. उनकी इसी बात ने मुङो प्रभावित किया. मेरे अंदर उनके बारे में और जानने की जिज्ञासा हुई.
पढ़ाई के प्रति हीरालाल (27) में गजब का जज्बा है. परिवार की स्थिति ऐसी नहीं है कि इन्हें पढ़ने का खर्च मिले. सो हीरालाल महीने में 23 दिन पढ़ाई करते हैं और सात दिन दिहाड़ी (मजदूरी) पर काम करते हैं. इसमें ज्यादातर इन्हें ईंट ढोने का काम मिलता है. इससे जो पैसा मिलता है. उससे पहले अपने बूढ़े माता-पिता के लिए महीने भर का राशन खरीदते हैं. उसके बाद कापी-किताब और फिर अपने व भाइयों के खाने का राशन. कमरे का किराया भी देना पड़ता है. इस संघर्ष के बाद भी हीरालाल खुश हैं.
एमए तक पढ़ाई कर चुके हीरालाल नौकरी के लिए तैयारी कर रहे हैं. इसके लिए रोज शाम को मोतिहारी जिला स्कूल मैदान में एकत्र होनेवाले प्रतियोगी छात्रों के बीच जाते हैं. वहां आपस में प्रश्नोत्तर करते हैं. मेधावी हीरालाल अन्य छात्रों के चहेते हैं. वह शहर में मैथ व रिजनिंग की तैयारी करवानेवाले शिक्षक सुबोध कुमार के यहां पढ़ने जाते हैं. सुबोध को जब हीरालाल के बारे में पता चला, तो उन्होंने इनकी फीस माफ कर दी और जरूरी किताबें भी ला कर दीं. वह कहते हैं कि हीरालाल जिस लगन से तैयारी कर रहे हैं. उनका सेलेक्शन जल्दी ही कहीं हो जायेगा.
वहीं, हीरालाल भी उस दिन का इंतजार कर रहे हैं, जब संघर्षो के बीच पढ़ कर आगे बढ़ने का परिणाम नौकरी के रूप में उन्हें मिले. मेरी कई बार हीरालाल से मुलाकात हुई, लेकिन मैंने कभी उन्हें निराश नहीं देखा. किराये के कमरे में तीन बाइ छह की चौकी पर तीनों भाई रहते हैं. इनका छोटे भाई सुनील कुमार भी प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी कर रहे हैं, जबकि सबसे छोटे भाई प्रदीप ने इस बार इंटर की परीक्षा दी है.
खुद के बल पर आगे बढ़ रहे हीरालाल की स्थिति ऐसी नहीं है कि रोज हरी सब्जी व दाल खा सकें. रात में अक्सर नमक-मिर्च के साथ रोटी खाते हैं और सुबह में आलू का चोखा व भात बनता है. उसी से तीनों भाइयों का पेट भरता है. सप्ताह में एक दिन सब्जी बनती है. यह बताते हुये हीरालाल निराश नहीं होते. कहते हैं कि हमारे हाथ ठीक हैं. इसलिए खर्चा चलाने के लिए दिहाड़ी करते हैं. भगवान ने आंखें में ही दोष दे दिया. इस वजह से ठीक से देख नहीं पाता हूं. अगर आंखें, ठीक होतीं, तो मैं बच्चों को ट्यूशन पढ़ा लेता.
हीरालाल इतने सरल और मृदुभाषी हैं कि हर बार इनसे कुछ नयी जानकारी मिलती है. इस दौरान कई बार लगता है कि हम सबको हीरालाल के बारे में क्यों जानना चाहिये? इसका उत्तर मैं कई बार खुद से ढूढने की कोशिश करता रहा. लगा कि हीरालाल के संघर्ष की कहानी अगर सबके सामने आये, तो इनके समाज में और जो स्वाभिमानी युवा हैं. उन्हें संघर्ष करने का बल मिलेगा.
हीरालाल मूलरूप से पश्चिम चंपारण में योगापट्टी के सिसवाकुटी गांव के रहनेवाले हैं, लेकिन 2001 में गंडक में आयी बाढ़ इनका घर बहा ले गयी. इसके बाद परिवार विस्थापित हो गया और शनिचरी में दूसरे के जमीन पर झोपड़पट्टी बना कर रहने लगा. विस्थापित परिवार की दो जून की रोटी मजदूरी से चलने लगी. इसी दौरान हीरालाल ने तय किया कि मजदूरी के साथ वह पढ़ाई भी करेंगे. मजदूरी के साथ पढ़ाई शुरू की. मैट्रिक, इंटर, राजनीति शा में स्नातक व स्नातकोत्तर किया. छोटे भाइयों को भी पढ़ा रहे हैं.

रविवार, 5 मार्च 2017

ईदगाह के हामिद की तरह लग रहा था वो

कलम के सिपाही प्रेमचंद्र की कहानी ईदगाह बचपन में पढ़ी थी. हामिद का किरदार मन में बस गया. मेरे क्या, जिसने भी कहानी पढ़ी होगी, उसे याद होगा. 2011 की ठंडक से हम लोगों ने शहर के लोगों के सहयोग से कंबल वितरण शुरू किया. सर्द रातों में शहर के विभिन्न मोहल्लों व प्रमुख स्थानों पर घूम-घूम कर देखना. कोई ऐसा तो नहीं है, जो सर्द रात में बिना बिना कंबल के सो रहा है. हम लोग लोगों को देखते और उन्हें कंबल ओढ़ा देते. ये सिलसिला अब तक चल रहा है, लेकिन 2012 में कंबल बांटने के दौरान दिसंबर महीने के आखिरी सप्ताह में एक ऐसा वाकया हुआ, जो पूरी तरह से मन-मष्तिस्क पर अंकित हो गया. बीच-बीच में वो प्रेरणा देता रहता है.
सर्द रात में उस दिन कंबल बांटने हम लोग थोड़ी देर से निकले और कई स्थानों पर गये. इससे काफी देर हो गयी. रात बारह बजे के बाद हम लोग मुजफ्फरपुर जंकशन पहुंचे और वहां प्लेटफार्म नंबर दो की ओर बढ़े. कुछ जरूरतमंद मिले. कंबल दिया गया. इसके बाद हम लोग वापस घर के लिए निकल रहे थे, तभी लगभग दस साल का बच्च दिखा, जिसके बदन पर शर्ट और शर्ट के अंदर कुछ गरम कपड़ा. एक हाथ में चाय का बर्तन और दूसरे में झोला, जिसमें शायद कुल्हड़ व प्लास्टिक के कप रहे होंगे. छोटे बच्चे को देखते ही मुङो लगा कि इसे भी कंबल देना चाहिये. साथ गये लोगों से कहा, तुरंत कंबल आ गया.
कंबल बांटने में साथ गये विमल छापड़िया ने उसकी ओर कंबल बढ़ाया, तो बच्चे ने कंबल लेने से मना कर दिया. कहने लगा कि मेरे घर में कई कंबल हैं, जो हमारे माता-पिता ओढ़ते हैं. हम तो चाय बेचने आये हैं. अभी थोड़ी देर में ट्रेन आयेगी वापस हाजीपुर चले जायेंगे और घर में जाकर सो जायेंगे. कंबल बांटने के दौरान का ये पहला वाकया था, जब किसी ने मदद लेने से इनकार किया था. बच्चे का हौसला देख कर अच्छा लगा. दमकता चेहरा. मुझसे नहीं रहा गया. मुङो ये लगा कि मैं कहूं तो शादय कंबल ले लेगा.
मैंने कहा, तो कहने लगा कि कंबल लूंगा, तो मेरे सामान का वजन बढ़ जायेगा. फिर हम सामान संभालेंगे कि कंबल. कंबल के साथ हम चाय कैसे बेच पायेंगे. हमको तो अपने पिता के इलाज के लिए पैसे कमाने हैं. हम चाय बेच कर पैसे ले जायेंगे, तब इलाज होगा ना. इस पर हम सब लोग ये जानने को उत्सुक हो गये, आखिर क्या परिस्थिति है, जो इतनी सर्द रात में इतना छोटा बच्च अपने घर से पचास से ज्यादा किलोमीटर दूर स्टेशन पर चाय बेचने के लिए आया है.
हम लोगों को बच्चे से बात करता देख, आसपास के कई और लोग भी आ गये. बच्च कहने लगा कि हम रोज यह काम करते हैं. रात में आते हैं और इधर से जो ट्रेन मिलती है. उससे वापस हाजीपुर चले जाते हैं. दिन में काम करने जाते हैं. शाम के समय घर से चाय लेकर चलते हैं और देर रात तक बेच कर वापस चले जाते हैं. मेरी मां घर में पिता की सेवा करती हैं, क्योंकि वह बीमारी के कारण उठ नहीं पाते हैं. पहले काम करते थे, लेकिन अचानक बीमारी ने घेरा और वह बेड पर पड़ गये. ऐसे में हम अपने परिवार को नहीं संभालेंगे, तो कौन दूसरा मदद करेगा.
दस साल का बच्च वह किसी से मदद भी लेने को तैयार नहीं दिख रहा था. कह रहा था कि मेरे पापा हैं. हम मेहनत करके उनका इलाज करायेंगे. हम पढ़ने के साथ काम करते हैं. चाय बेचते हैं और कड़ी मेहनत करनी पड़ेगी, तो करेंगे. उसकी बातें सुन कर लग रहा था कि आखिर परिस्थिति ने इसे समय से पहले कितना मेच्योर कर दिया है. कैसे इसे खुद के कर्म पर भरोसा है. क्या इस बच्चे की तरह हम सब लोग कर सकते हैं? विभिन्न क्षेत्रों में, जो जहां हैं और जिस काम में है. अगर ऐसा हो, तो अपना देश बदल जायेगा.

अमर शहीद के नाम पर सम्मान मिला, खाने को दो जून की रोटी नहीं!

अमर शहीद जुब्बा सहनी के नाम के सहारे राजनीतिक दल दशकों से चुनावी वैतरणी पार करते रहे हैं, लेकिन कभी किसी दल ने ये नहीं सोचा कि आखिर शहीद के परिजनों का क्या हाल है? जब काम पड़ता है, तो नेता हाजिर हो जाते हैं और हमदर्दी जताते हुये शहीद की पतोहू मुनिया देवी का सम्मान कर देते. महीनों से जुब्बा सहनी की पतोहू मुनिया देवी बीमार थी. हालत बिगड़ी तो 15 दिन पहले उसने खाना छोड़ दिया, लेकिन किसी नेता ने मुनिया की सुधि नहीं ली.
मुनिया के बीमार होने व खाना छोड़ देने संबंधी खबर जब प्रभात खबर में प्रमुखता से छपी, तब भी नेता नहीं जागे. निषाद विकास मोर्चा के सन ऑफ मल्लाह मुकेश सहनी आगे आये. उन्होंने मुनिया को मुजफ्फरपुर के निजी नर्सिग होम में भर्ती करवाया. इसके बाद बेहतर इलाज के लिए  पटना भिजवाया. अब मुनिया के इलाज की उम्मीद बंधी हैं. प्राथमिक इलाज के दौरान जो बात सामने आयी. उसमें मुनिया की हालत बिगड़ने के पीछे मुख्य वजह समय से खाना नहीं मिलने का रहा, जिसकी वजह से शरीर में खून की कमी हो गयी और उसने बिस्तर पकड़ लिया. लगभग 70 साल की मुनिया की देखभाल उसकी बहू गीता कुमारी करती है, जो गांव में लोगों के यहां मजदूरी करती. इससे जो पैसे मिलते. वो घर के सदस्यों के खाने में ही चले जाते. मुनिया का इलाज कैसे हो, परिवार के सामने यही संकट था.
पोता गया कुमार कमाने के लिए बनारस गया था, जहां उसे दिहाड़ी का काम मिला, लेकिन दादी की तबियत के बारे में सुना, तो वापस गांव चला आया. दादी की सेवा करने लगा. गीता देवी की चार बेटियां हैं. वह भी दादी की सेवा में लगी थीं, लेकिन घर की माली हालत ऐसी नहीं थी कि उन्हें इलाज के लिए अस्पताल तक जा सकें. घर में जो आता था, उससे केवल एक टाइम का खाना बनता था. अगर बचता था, तो दूसरे टाइम में खाना होता था, नहीं तो भूखे ही घर के सदस्यों को सोना पड़ता था.
मुनिया व उसके परिजनों का हाल सामने आने के बाद चार मार्च को डीएम धर्मेद्र सिंह चैनपुर पहुंचे. मुनिया के दरवाजे पहुंच कर ग्रामीणों से पूरी जानकारी ली. इसके बाद मुनिया की बहू गीता को फोन करके उसके इलाज के बारे में जानकारी ली. डीएम ने मुनिया को स्वतंत्रता सेनानी उत्तराधिकारी पेंशन दिलाने की बात कही. साथ ही गीता देवी को विधवा पेंशन और उनकी बच्चियों का दाखिला आवासीय विद्यालय में कराने का निर्देश दिया. डीएम ने गया कुमार को भी कौशल विकास के तहत ट्रेनिंग दिलाने की बात कही और उसे गांव में ही रोजगार देने का निर्देश अपने मातहत अधिकारियों को दिया.
डीएम ने कहा कि मुनिया के इलाज पर जो खर्च आयेगा, उसे भी प्रशासन उठाने के लिए तैयार है. डीएम पहुंचे, तो मुनिया के घर नेताओं के पहुंचने का सिलसिला भी शुरू हो गया. राजद से जुड़े शिवचंद्र राय पहुंचे. कहने लगे कि हम मुनिया के लिए मुख्यमंत्री नीतीश कुमार से मिलेंगे. विधायक रविवार को मुनिया के घर पर जायेंगे. वो कह रहे हैं, हम मुनिया के दरवाजे पर चापाकल लगवायेंगे. इन सब घोषणाओं के बीच चैनपुर के ग्रामीण प्रभात खबर का शुक्रिया कर रहे हैं. कह रहे हैं. अगर प्रभात खबर के जरिये सामाचार सामने नहीं आया होता, तो मुनिया का बचना मुश्किल था, क्योंकि वह खाना नहीं खाने की वजह से बिल्कुल सूख चुकी थी.
अमर शहीद जुब्बा सहनी की बात करें, तो उन्होंने आजादी की लड़ाई के दौरान जिस दिलेरी से साथियों को बचाने के लिए अपने सिर पर अंगरेज दारोगा की हत्या का इल्जाम लिया, वो साधारण नहीं था. क्योंकि हत्या के आरोपित को फांसी मिलनी तय थी और वही हुआ. 11 मार्च 1944 को जुब्बा सहनी को भागलपुर सेंट्रल जेल में फांसी की सजा दी गयी थी. उस परिवार की पतोहू मुनिया इस हाल में रहे? उसके पास खाने को दो जून की रोटी नहीं हो? वह भी तब देश में खाने की सुरक्षा का कानून पास है?

शुक्रवार, 3 मार्च 2017

साहित्य का श्रवण कुमार चला गया

कलम के जादूगर रामवृक्ष बेनीपुरी जी के सबसे छोटे बेटे डॉ महेंद्र बेनीपुरी नहीं रहे. सूचना मिली, तो सहसा विश्वास नहीं हुआ. 23 दिसंबर को बाबू जी (रामवृक्ष बेनीपुरी) की जयंती पर बेनीपुर में मुलाकात हुई थी. हंसता हुआ चेहरा. कहने लगे, इस बार तबियत की वजह से हमें आने से बच्चे रोक रहे थे, लेकिन हम चले आये. हमारी बाबू जी को लेकर प्रतिबद्धता है. पांच किताबें, जिनका फिर से प्रकाशन हुआ था, उनका लोकार्पण हुआ. हर साल की तरह जयंती समारोह में राजनीति से लेकर साहित्य जगत की हस्तियां जुटी थीं.
पूर्व केंद्रीय मंत्री रघुवंश प्रसाद सिंह विशेष तौर पर पहुंचे थे, जिनसे डॉ महेंद्र बेनीपुरी को विशेष उम्मीद थी कि वो बाबू जी के सपनों को साकार करने में राजनीति तौर पर आ रही परेशानियों को दूर करवायेंगे. रघुवंश बाबू ने ऐसा करना भी शुरू कर दिया है, लेकिन किसी पता था कि बाबू जी के प्रति समर्पित डॉ महेंद्र बेनीपुरी ऐसे चले जायेंगे. 2016 का जयंती समारोह उनके लिए आखिरी साबित होगा. इससे पहले बाबू जी की पुण्यतिथि पर वंशी पचड़ा (शिवहर) में कार्यक्रम हुआ था, जिसमें बेनीपुरी जी के नाम पर पुस्तकालय खुला था. इसकी शुरुआत करने के विशेष तौर पर गोवा की राज्यपाल डॉ मृदुला सिन्हा आयीं थीं. बड़ा समारोह हुआ. जाने का अवसर मिला था. डॉ महेंद्र बेनीपुरी बहुत प्रसन्न थे, लग रहा था, जैसे कोई बड़ा सपना साकार हो गया है.
बाबू जी की प्रकाशित व अप्रकाशित लगभग एक सौ कृतियों का फिर से प्रकाशन करवाया. उनका लोकार्पण भी हुआ. मुजफ्फरपुर से लेकर नागपुर और गोवा के राजभवन में. डॉ महेंद्र बेनीपुरी से जुड़े डॉ राजेश्वर कहते हैं कि वो साहित्य के श्रवण कुमार थे, जिन्होंने अपने बाबू जी के सपनों को साकार करने में कोई कोर कसर नहीं छोड़ी. वह दिन रात इसी काम में लगे रहते. कैसे बाबू जी ने जो सपने देखे थे, वो पूरा हो सकें. उनके नाम का स्मारक बांध के उस पार बने. बाबू जी बनायी घर रूपी आखिरी निशानी को कैसे संरक्षित किया जाये. रामवृक्ष पुरी की जीवनी लिख रहे डॉ संजय पंकज कहते हैं कि लगता है कि डॉ महेंद्र बेनीपुरी अभी किसी तरफ से आयेंगे और पूछने लगेंगे संजय भाई बाबू जी की जीवनी पर कितना काम हुआ.
बीती 15 फरवरी को डॉ महेंद्र बेनीपुरी ने डॉ संजय पंकज को आखिरी पत्र लिखा था, जिसमें उन्होंने बाबू जी की जीवनी लिखने के लिए 31 मार्च के डेटलाइन तय कर दी थी और इसके बाद फोन करके पूछते और कहते कि इस बीच आपको फेसबुक पर ज्यादा सक्रिय देख रहे हैं. फेसबुक पर कम सक्रिय रह कर काम पूरा कर दो, क्योंकि इसी साल पर 12 अगस्त को मेरे जन्मदिन पर बाबू जी की जीवनी का लोकापर्ण होना है. डॉ पंकज बताते हैं कि बाबू जी की जीवनी का लोकार्पण वो मेरे ही हाथों कराने की बात करते थे. कहते थे कि तुम ही इसके लिए सबसे उपयुक्त व्यक्ति हो.
डॉ महेंद्र बेनीपुरी जी से जुड़े रहे ब्रह्मानंद ठाकुर कहते हैं कि दस दिन पहले बात हुई थी, तब इस साल लोकार्पित रामवृक्ष बेनीपुरी जी की पुस्तकों को लेकर बात हुई थी. हमने कुछ पुस्तकों की मांग की थी, जिस पर डॉ महेंद्र बेनीपुरी जी ने हामी जतायी थी, लेकिन मुङो क्या पता था कि ये बात उनसे आखिरी होगी. उनका जाना बहुत दुख दे रहा है. वो अपने बाबू जी को लेकर जिस तरह से समर्पित रहे. वैसा कौन बेटा करेगा. उनके नाम पर कोई काम मुजफ्फरपुर के साथियों को जरूर करना चाहिये. इसके लिए प्लानिंग हो जानी चाहिये, ताकि काम की शुरुआत हो.
पांच साल पहले को वो दिन मुङो बहुत याद आ रहा है, जब डॉ महेंद्र बेनीपुरी जी से पहली बार बेनीपुर गांव में ही मुलाकात हुई थी. मौका रामवृक्ष बेनीपुरी के जयंती समारोह का था. पूरे परिवार के साथ आये थे. बहुत आत्मीयता से मिले थे. बाबू जी की स्मृतियों को लेकर अपनी चिंताएं जाहिर करने लगे. इसके बाद मुजफ्फ रपुर में मुलाकात हुई थी, तो उन्होंने बाबू जी की कई पुस्तकें पढ़ने को दी थी और कहा था कि इन्हें पढ़ोगे, तो बाबू जी को समझ जाओगे. इसके बाद जब भी आते, तब बात और मुलाकात होती थी. हर बार वो ऊर्जा व उत्साह से भरे दिखते. कोई कुछ कहता, तो कहते थे कि मुङो अभी बाबू जी के साहित्य पर काम करना है. कुछ दिन पहले फेसबुक पर भी लिखा था कि बाबू जी की जीवनी पर काम करना है. इस वजह से कुछ दिन फेसबुक से दूर रहूंगा.
सीतामढ़ी के सामाजिक कार्यकर्ता रामशरण अग्रवाल भी डॉ महेंद्र बेनीपुरी से जुड़े थे. हर साल बेनीपुर आते हैं. वो कहते हैं कि भले ही डॉ महेंद्र बेनीपुरी अब हमारे बीच में नहीं हैं, लेकिन उनकी जीवंतता हमेशा महसूस होती रहेगी. डॉ महेंद्र बेनीपुरी का जीवन देखा जाये, तो पूरी तरह से अपने बाबू जी के प्रति समर्पित थे. बाबू जी की इच्छा पर ही इन्होंने मेडिकल की पढ़ाई छोड़ कर जीव विज्ञान पढ़ा था और शहर के कॉलेज में ही प्रोफेसर बने. पहले एलएस और फिर आरडीएस, जहां से रिटायर हुये थे. अभी वह अपने बेटे के साथ फरीदाबाद में रह रहे थे. भले ही महानगर में रह रहे थे, लेकिन उनकी चिंता गांव को लेकर थी. जिससे भी बात होती थी. वह गांव के बारे में पूछते थे. बाबू जी के स्मारक की दिशा में क्या काम हो रहा है. इसका जिक्र करते थे.

सोमवार, 27 फ़रवरी 2017

जब गवाही देने के लिए कठघरे में खड़े हुये भगवान....और जज साहब बन गये बाबा

चपरासी बोला, वही बताओ.
मंदिर पर चपरासी पहुंचा, तो पुजारी बाहर बैठे थे. चापरासी ने पूछा, रघुनाथ जी का मंदिर यही है.
पुजारी ने कहा- हां.
चपरासी ने सम्मन आगे बढ़ा दिया, लो ये. पुजारी जी समझ गये. मन ही मन सोचने लगे कि जब भगवान ने मंगा ही लिया है, तो हम क्यों मना करें. हस्ताक्षर, पुजारी ने कर दिये.
चपरासी समझा, यही रघुनाथ जी होंगे.
पुजारी जी ने सम्मन रघुनाथ जी के चरणों में रख दिया और आंखों में आंसू भर कर बोले प्रभु. आपको पोशाक कई बार आयी होगी. भोग लगाने के लिए तरह-तरह के पदार्थ आये होंगे. अभूषण कई बार भक्त लेकर आये होंगे, लेकिन सम्मन पहली बार आया होगा. पर भक्त जो न करें, सो थोड़ा है.
प्रभु उस दीन का आपके अलावा और कोई नहीं है. वो आपके अलावा किसी को जानता ही नहीं है. उसकी लाज आपके हाथ में है.
पुजारी ने केवट से कहा- तुमने क्यों लिखा दिया, रघुनाथ जी का नाम? केवट बोला कोई झूठ लिखा दिया है. हमारे रघुनाथ जी सदा हमारे साथ थे.
केवट तो यही कहे..हरि बिन संकट कौन निवारे..साधन हीन मलीन, दीन मैं.
 जाऊं केहि के द्वारे. या अनाथ की लाज आज, रघुनाथ जी हाथ तुम्हारे.
हरि बिन संकट कौन निवारे.
दीन दयाल सुनी जब ते, तब ते मन में कछु ऐसी बसी है. देऊ कहां और जाऊं कहा, बस तेरी ही नाम की फेट कसी है. तेरो ही आसरो, बस एक मलूक. नहीं प्रभु सो कोई औरो जसी है.
ये हो मुरारी पुकारी कहौं, अब मेरी हंसी में, तेरी हंसी है. हरि बिन संकट कौन..हरि बिन संकट कौन निवारे.
कहीं नहीं गया केवट, किसी को जानता ही नहीं रामजी के अलावा. तारीख के एक दिन पहले ही केवट से बोले, तुम आ ही जाओ, ताकि समय से पहुंच जाओ.
रघुनाथ जी की, तो रघुनाथ जी ही जानें.
केवट रघुनाथ जी के चरणों प्रणाम करके चला गया.
दूसरे दिन पुजारी जी सुबह जल्दी जगे. भगवान की आरती पूजा की और नया व पहनाया. भोग लगाया. उनको लग रहा था कि आज भगवान पहली बार बाहर जा रहे हैं. कपड़े अच्छे पहनावें. रोन लगे पुजारी जी. भाव की तो बात है.
प्रभु आपको, जो पोशाक अच्छी लगे, वही पहनकर जाना, लेकिन जाना जरूर. उसका कोई नहीं आपके अलावा.
उधर, केवट पहुंचा, सेठ जी भी पहुंच गये.
जज साहब ने पूछा- केवट तुम्हारे गवाह रघुनाथ जी कहां हैं?
केवट ने कहा- साहब, यहीं कहीं होंगे. वह तो सब जगह रहते हैं.
जज साहब फिर केवट की बात समझ नहीं पाये.
चपरासी को आदेश दिया- आवाज लगाओ.
चपरासी ने आवाज लगाना शुरू किया- रघुनाथ हाजिर हों, रघुनाथ हाजिर हों..रघुनाथ हाजिर हों.
तीन बार चपरासी ने ऐसे जो आवाज लगायी, तो उसने देखा कि एक बूढ़ा आदमी हाथ में लकड़ी पकड़े, कमर झुकी हुई. हाथ से इशारा किया.
रघुनाथ हाजिर है, ऐसे तीन नारे जो लगाये हैं.
चाल लटपटी सी एक वृद्ध की झुकी सी देह.
दुपटी फटी सी शीश बांधे, धर धाये हैं.
हाथ माहे छड़ी पड़ी, तुलसी की हिये माल.
माथे पर रोली चारू, चंदन चढ़ाये हैं.
साहब के सामने विनीत चपरासी साथ.
आज रघुनाथ जी गवाह बन आये हैं.
भगवान गवाह बन कर आ गये. जज साहब ने देखा. सेठ जी देख कर चौक गये. ये कौन आ गया.
जज साहब ने पूछा- आप थे वहां.
रघुनाथ जी ने कहा- हां, केवट ने रुपया दिया है.
जज ने पूछा- इसका प्रमाण.
रघुनाथ जी बोले- हां, इन्होंने रसीद भी लिख ली थी. सेठ जी को यहीं रखा जाये. इनके मकान की सामनेवाली बैठक के सामनेवाली दीवार पर तीन आलमारियां हैं. उसकी बीच वाली अलमारी में बही रखी है, 32 नंबर की. उसी में रसीद अभी तक सुरक्षित रखी है.
सर्वातरयामी भगवान से क्या छुप सकता है? सिपाही भेजे गये. बही और रसीद मिल गयी. सेठ जी को दंडित होना पड़ा.
केवट, बाइज्जत बरी हुआ. रघुनाथ जी गायब हो गये, क्योंकि काम तो हो ही गया था.
अब जज साबह ने सोचा, इतने दिन हो गये फैसला सुनाते. पर ऐसा गवाह आज तक नहीं पहुंचा.
केवट से अकेले में पूछा- ये रघुनाथ जी कहां रहते हैं.
केवट बोला- जहां हम रहते हैं.
जज बोले- तुम कहां रहते हो.
केवट बोला- जहां रघुनाथ जी रहते हैं.
जज साहब बोले- हम समङो नहीं, तुम लोग एक ही जगह, एक ही गांव के रहनेवाले हो.
केवट बोला- हां, हुजूर, आपको कैसे समझायें. आप तो पढ़े-लिखे हो. पढ़े-लिखों को समझाना. बहुत कठिन है. भक्ति और भगवान की बात.
जज साहब बोले- ये हैं कौन?
केवट बोला- हुजूर ये वो हैं, जिनका मंदिर है.
जज साहब बोले- इन्होंने मंदिर बनवाया है. देखने से तो नहीं लग रहे थे कि कोई इतने बड़े संपन्न आदमी होंगे, जिन्होंने मंदिर बनवाया होगा. पुजारी भी नहीं लग रहे थे.
केवट बोला- हुजूर, ये वही हैं, जो मंदिर में बैठे हुये हैं.
अब तो जज साहब ने चपरासी को बुलाया- चपरासी कांपने लगा. कहने लगा- हुजूर ये वो आदमी नहीं था, जिसने हस्ताक्षर किये थे.
इसके बाद जज साहब ने गांव में पता लगाया, तो भाव विह्वल हो गये. अपने बंगले पर आये और रोने लगे.
लोगों ने रोने का कारण पूछा- तो जज साहब रोते हुये बोले-
शिव सारद, नारद, शेष गणोश, के नहीं ध्यान में आते रहे. सोइ आज विनीत अदालत में केवटा के गवाह कहाते रहे.
लोग बोले- अरे तो इसमें, रोने की क्या बात है. खुश होना चाहिये कि दर्शन हो गये. चले गये, तो वे, तो जाते ही.
जज साहब साहब बोले- सुख धो के उतर्स दिये को भयो. दुख नाहिंन, जो तज जाते रहे.
लोग बोले- तो, ये रो क्यों रहे हो?
तो जज साहब ने बड़ी भाव भरी बात कही. बोले- आज बड़ी गलती हो गयी.
कुरसी पर बना जज बैठा रहा. जगदीश खड़े समझाते रहे.
कुरसी पर जज बना बैठा रहा, जिनकी अदालत में सबको उपस्थित होना पड़ता है. वे भगवान खड़े-खड़े गवाही देते रहे. ऐसा वैराग्य हुआ. उसी दिन पद से इस्तीफा दे दिया. वृंदावन आ गये. साधु जीवन बिताया. अक्सर खड़े रहते. कहते, भगवान, खड़े रहे और मैं बैठा रहा. अब तो खड़े रहना ही अच्छा है. मंदिर में जाते, तो अंदर नहीं. बाहर से ही दरवाजे की धूल सिर पर चढ़ा लेते. कोई कहता - अंदर क्यों नहीं जाते, तो कहते, मैं उन्हें मुंह दिखाने लायक नहीं हूं. मुझसे जो अपराध हुआ.
केवट के कारण भगवान गवाह बने. क्या था केवट में?
सबकै ममता ताग बटोरी, मम पद मनहि बांध बर डोरी. अस सज्जन मम उर बस कैसे. लोभी हृदय बसै धन जैसे.
ये सज्जन की दूसरी परिभाषा है.
राजेश्वरानंद जी के प्रवचन से

 

जब गवाही देने के लिए कठघरे में खड़े हुये भगवान

भगवान हमारे हैं और हमारे का, हमें भरोसा है. राम जी हैं. एक बात सुनाऊं मैं, ममता की बात सुनाऊं.
वृंदावन में एक महत्मा घूमते थे, जिन्हें देख कर लोग कहते थे कि जज साहब आ रहे हैं. जज साहब आ रहे हैं. तीस साल पुरानी घटना है. एक संत से किसी पूछा कि इन्हें जज साहब क्यों कहते हैं?
तो संत ने कहा कि अब साधु हो गये हैं. पहले जज थे. पुराना नाम अभी भी चल रहा है.
उसने पूछा, साधु क्यों हुये?
संत ने कहा,दक्षिण भारत में एक छोटी सी जगह थी. लोक अदालत की तरह, वहां ये जज थे. वहां एक गांव में बड़ा सीधा सरल आदमी रहता था. नाम था भोला. भोला नाम तो लोगों ने रख दिया था, लेकिन वो था भी बिल्कुल भोला. वो राम जी के अलावा किसी को जानता ही नहीं था. गांव में रघुनाथ जी का मंदिर था. भोला केवट जाति का था. सामान्य परिस्थिति थी. गांव का कोई भी व्यक्ति उससे पूछता, भोले वो बात कैसी है, तो भोला बोलता था कि रघुनाथ जी जानें, मैं तो कुछ नहीं जानता.
भोला के दो बेटे और एक बेटी. बेटी विवाह के योग्य हुई, तो बेटों ने कहा कि पिता जी यहां के जो धनी सेठ हैं, उनसे रुपया ले लिया जाय. विवाह के बाद हम लोग कमा कर रुपया चुका देंगे.
केवट गया, सेठ जी ने ब्याज की सामान्य दर तय की. लिखा-पढ़ी हुई, रुपया ले आये. बेटी का विवाह हुआ. बेटी विदा हुई ससुराल को. केवट ने घर छोड़ दिया और गांव में ही रघुनाथ के मंदिर में रहने लगा. सबकै ममता ताग बटोरी. मम पद मनहि बांधि बर डोरी.
इधर, केवट के बेटों ने काम करना शुरू किया और रुपया कमाया. पिता को दिया. भोला रुपया लेकर सेठ जी को वापस करने पहुंच गया. सेठ ने रुपया ले लिया. रसीद बना दी कि पाइ-पाइ से पैसा मिला. केवट को रसीद दे दी और कहा कि केवट पढ़ो, क्या लिखा है?
केवट बोला, सेठ जी, रघुनाथ जी जाने मैं तो कुछ नहीं जानता. क्या लिखा है. इस पर सेठ जी के मन में पाप आया कि इससे दुबारा पैसा लिया जा सकता है. सेठ जी ने कहा कि ये कागज हमें दे दो और तुम जाकर पानी ले आओ.
केवट पानी लेने गया, तो सेठ जी ने वो रसीद अपने पास रख ली. फाड़ते तो शक होता. एक कागज पर कुछ ऐसे ही लिख कर केवट को दे दिया. केवट कागज लेकर मंदिर आ गया. उसने रसीद रघुनाथ जी चरणों में चढ़ाकर, अपने कमरे में रख दी.
इधर, सेठ जी ने मुकदमा कर दिया कि भोला ने रुपया लिया. वापस नहीं दे रहा है. मांगने पर कहता है कि मैंने रुपया चुका दिया है. अदालत में केवट को जाना पड़ा, वही जज जो महत्मा हो गये थे. उन्होंने सुनवाई शुरू की. केवट से पूछा, तुमने सेठ से रुपया लिया था?
केवट ने कहा- हां.
चुका दिया- हां.
इसका प्रमाण- केवट ने वही कागज जज साहब के आगे बढ़ा दिया, जो सेठ जी ने दिया था.
जज बोले- ये कोई सबूत नहीं है. इसमें कुछ लिखा ही नहीं.
केवट रोने लगा. दयालु हृदय जज साहब ने कहा कि रोओ मत. तुमने जब सेठ जी को रुपया रुपया दिया था, तो तुम्हारे और सेठ जी के बीच में कोई तीसरा था?
केवट की जो आदत थी. स्वभाव था. उसी भाव से बोला. सत्य कहता हूं जज साहब. मैंने जब सेठ जी को रुपया दिया था, तो मेरे और सेठ के बीच में रघुनाथ जी के अलावा और कोई तीसरा नहीं था.
केवट की बात सुन कर जज साहब बोले- ठीक है. तुम जाओ. अगली तारीख पर
आना.
जज साहब ने सोचा कि रघुनाथ कोई केवट के गांव का रहनेवाला आदमी होगा. उन्होंने अपने खर्चे से रघुनाथ के नाम पर सम्मन जारी कर दिया.
चपरासी पूरे गांव में सम्मन लिये घूमे. उस गांव में रघुनाथ नाम का कोई आदमी ही नहीं थी. चपरासी परेशान हो गया. इसी दौरान एक व्यक्ति ने कहा कि गांव में रघुनाथ नाम का कोई नहीं है, लेकिन रघुनाथ जी का एक मंदिर जरूर है. जारी.. 
(राजेश्वरानंद जी के प्रवचन से)

रविवार, 26 फ़रवरी 2017

सत्य ही शिव है

महाशिवरात्रि के पर्व पर देवाधिदेव महादेव की बारात निकली. उनकी बारात में कौन-कौन शामिल होता है, ये बताने की बात नहीं है. लोक जीवन में रह कर हम सब जानते हैं, लेकिन कई बार होता ये है कि लोग शिव भगवान के बारातियों की आड़ लेकर अपने दुगरुणों का बचाव करने की कोशिश करते हैं, इसको लेकर तरह-तरह के तर्क देते हैं, लेकिन यह भूल जाते हैं कि सत्य का दूसरा नाम ही शिव है. शिव तत्व की जरूरत हम लोगों को हमेशा होती है. रोजमर्रा से लेकर लोक जीवन तक में, लेकिन अभी समाज में जो स्थिति देखने को मिलती है. वह इसके ठीक विपरीत है.
हम शिव की पूजा करते हैं. उन्हें खुश करने के लिए लाख जतन करते हैं, लेकिन जिस सत्य को उनका रूप माना गया है. उसी का साथ छोड़ देते हैं. ऐसे में हमें समझना चाहिये कि शिव कैसे आपके साथ हो सकते हैं. आप शिव को कैसे अपने साथ होने की बात कर सकते हैं? क्यों जब सत्य की शिव है, तो असत्य का साथ तो शिव देंगे नहीं. यह सामान्य सी बात हमें समझ लेनी चाहिये और लोक जीवन में उसी के मुताबिक काम करना चाहिये. शिव को लेकर लिखना सरल नहीं है, क्योंकि उनका जितना व्यापाक रूप है और वह जितना सरल हैं. उनका विस्तार उनता ही अधिक है. ऐसे में उनके बारे में कुछ कहना या लिखना कम से कम हम जैसे लोगों की बात नहीं है.
इसके बाद भी हम उसी सरलता की बात कर रहे हैं, जो शिव को पसंद है. शिव तत्व में शामिल है. वह है सत्य. सत्य का साथ हमें हमेशा देना चाहिये. उसके साथ खड़े रहना चाहिये, तभी शिव के साथ हम रहेंगे, चाहे हम जो भी काम करते हों, लेकिन सत्य का साथ हमेशा बनाये रखना चाहिये. यही आज के दिन में सबसे जरूरी है. इसका विस्तार अगर आप देखना चाहते हैं, तो सत्य का साथ दीजिये. अपने आप में सब चीजें दिखने लगेंगी और फिर अपने बारे में भी जान जायेंगे. जय शिव.

सोमवार, 20 फ़रवरी 2017

उन घरों में शिक्षा की रोशनी फैला रहे केबीसी विनर सुशील कुमार, जहां अब तक अंधेरा था

कौन बनेगा करोड़पति में पांच करोड़ जीतनेवाले सुशील कुमार को आप देखेंगे, तो प्रभावित हुये बिना  नहीं रह पायेंगे. 2011 में केबीसी जीतने के बाद और अब के सुशील में आपको ज्यादा फर्क महसूस नहीं होगा. वो पहले से ज्यादा सरल हो गये हैं. बड़ी गर्मजोशी के साथ मिलते हैं. केबीसी में जीतने के बाद रातोंरात देश-दुनिया में नाम कमानेवाले सुशील लगातार अपने मिशन पर काम कर रहे हैं. वो जो काम करते हैं, उसके बारे में ज्यादा लोगों को नहीं बताते हैं, लेकिन लगातार उनका काम चलता रहता है. उनके सामाजिक कामों में एक काम यह भी है कि वो मुशहर समाज के एक सौ से ज्यादा बच्चों को पढ़ा रहे हैं. इसके लिए उन्होंने बाकायदा शिक्षक रख रखा है. खुद लगातार बच्चों की प्रगति पर नजर रखते हैं.
यह समाज के उस अंतिम पायदान के बच्चे हैं, जहां सरकारी शिक्षा की रोशनी भी नहीं पहुंची है, लेकिन सुशील के प्रयास से इन बच्चों को न सिर्फ अक्षर ज्ञान हुआ है, बल्कि बच्चे फर्राटे से पढ़ने लगे हैं और बेहतर भविष्य का सपना भी देख रहे हैं. बच्चों को पढ़ाने के अलावा समाज की बेहतरी के लिए कई और काम सुशील कर रहे हैं, लेकिन उनके बारे में ज्यादा शोर नहीं करते हैं कि जब समानता की बात होती है, तो सबको शिक्षा का अधिकार है, लेकिन दुर्भाग्य से ऐसा नहीं हो पाता है. समाज में एक तबका ऐसा भी है, जहां बच्चे बड़े होने के साथ काम में लगा दिये जाते हैं. वो मजदूरी आदि करके घर को चलाने में सहयोग करने लगते हैं. कई जगहों पर पढ़ाई का माहौल नहीं होने की वजह से भी बच्चे पढ़ने नहीं जाते हैं.
हाल में सुशील जी से मिलना हुआ, तो भविष्य की योजनाओं के बारे में चर्चा हुई, तो कहने लगे कि एक और बस्ती के बच्चों को हम पढ़ाना चाहते हैं. इसके लिए काम कर रहे हैं. साथ ही वह मुंबई में रह कर भी काम कर रहे हैं. उनकी भावी योजनाओं में कई चीजें हैं, जिनका खुलासा वो नहीं करते हैं, लेकिन कहते हैं कि जब कुछ हो जायेगा, तो बताना ज्यादा अच्छा रहेगा. अभी हम केवल तैयारी में जुटे हैं.

अंधकार है प्रकाश के अहमियत की वजह

हमारा जीवन उतार-चढ़ाव से भरा है. जैसे दिन और रात. अगर दिन में सूरज की चमक से हम प्रकाशित रहते हैं, तो रात में चंद्रमा प्रकाश के साथ शीतलता भी प्रदान करता है, लेकिन रात में अमाश्वया की रात ऐसी होती है, जब घुप्प अंधेरा रहता है. कहीं कुछ सूझता नहीं है, लेकिन इसी अंधकार में अगर दूर भी कहीं रोशनी टिमटिमा रही होती है, तो वह दिख जाती है. हम सब जानते हैं, रात के समय आकाश में तारे हमें कितनी दूर होने के बाद भी कितना स्पष्ट रूप से दिखायी पड़ते हैं. कई बार लगता है कि हम उनसे संवाद कर रहे हैं यानि अंधकार ही वह वजह है, जिससे हमें प्रकाश की अहमियत का पता चलता है.
ऐसे ही हमारा जीवन भी है. अगर हम अपने जीवन में देखें, तो जब भी कठिन समय आया है. उसी समय किसी न किसी बड़े काम की नीव पड़ी होती है, जो आपको जीवनभर का आनंद देता है. ऐसी  घटनाएं सबके साथ होती है, लेकिन हमें इन्हें समझना और महसूस करना चाहिये. हमें जीवन के अंधकार यानि खराब समय का भी वैसे ही स्वागत करना चाहिये, जैसे हम प्रकाश के आने का करते हैं. अगर हम इसे समझ ले जाते हैं और इस सिद्धांत पर काम करते हैं, तो कोई वजह नहीं है, जो हमें परेशान कर सकती है. 
जारी

शुक्रवार, 17 फ़रवरी 2017

आंदोलन की राह पर यजुआर के युवा

यजुआर के युवा फिर आंदोलन की राह पर हैं. वजह है, उनके गांव में बिजली जैसी मूलभूत सुविधा का नहीं होना. गांव में बिजली आये, इसके लिए यहां के युवा सालों से अपनी आवाज बुलंद कर रहे हैं. मुख्यमंत्री नीतीश कुमार तक अपनी बात पहुंचा चुके हैं. मुख्यमंत्री ने आश्वासन दिया है, लेकिन क्या इस पर काम होगा, ये बड़ा सवाल अभी बना हुआ है, क्योंकि सालों पहले गांव में विकास की पहल हुई थी, मुजफ्फरपुर से अधिकारियों का अमला यजुआर गांव पहुंचा था. तब भी बिजली का सवाल था, लेकिन उस पर कोई काम नहीं हुआ.
गौरवशाली अतीत वाले यजुआर गांव में 40 साल पहले पोल-तार लगे थे. शायद वही, इस गांव के वर्तमान के लिए अभिशाप बन गया. तार खिचे, ट्रांसफारमर लगे, तो सरकारी फाइलों में चढ़ गया कि गांव में बिजली है, लेकिन बिजली का दर्शन गांव के लोगों को हुआ नहीं. पोल-तार और ट्रांसफारमर अब भी लगा है, लेकिन किस काम का. ये बात नेता से लेकर अधिकारी तक सब मानते हैं. इसके बाद भी फाइल में चढ़ी बात कैसे नहीं बदली जा रही है. ये बड़ा सवाल है?
यह शायद उस कहावत का जीता-जागता उदाहरण है, जो जंगल में रहनेवाले जानवरों से जुड़ी हैं. जिसमें कहा जाता है कि जंगल में एक दिन जानवर तेजी से भाग रहे थे. उनके साथ ऊंट भी भागा चला जा रहा था. रास्ते में किसी ने पूछ लिया कि ऊंट भाई आप क्यों भाग रहे हैं, तो उसने कहा कि सरकारी कर्मचारियों की टोली जंगल में बिल्लियों को पकड़ने आयी है. हम इसलिए भाग रहे हैं. कहीं, बिल्ली समझ कर हमें भी पकड़ लिया, तो हमें दशकों ये साबित करने में लग जायेंगे कि मैं बिल्ली नहीं ऊंट हूं.
लगभग आठ माह पहले मेरा भी यजुआर जाना हुआ था. आने-जाने के दौरान चचरी पुल के साथ जिस तरह का सफर रहा, उससे पता चल गया कि कैसे वहां के लोग रह रहे हैं. प्रखंड कार्यालय जाने के लिए उन्हें किस तरह से जद्दोजहद करनी पड़ती है. गांव में टंकी बनी है. कर्मचारी की नियुक्ति है, लेकि बिजली के बिना पानी सप्लाई नहीं होती है. चालीस साल पहले जो पाइप लगी थी, उससे पानी सप्लाई हुये बिना ही जंग खा गया है. पहले गांव में अतिरिक्त स्वास्थ्य केंद्र था, जहां पर डॉक्टर रहते थे, लेकिन अब यह भी खंडहर हो गया है. 40 हजार से ज्यादा की आबादी वाले यजुआर की हालत सुनने और देखने के बाद सहसा विश्वास नहीं होता है, लेकिन हकीकत यही है.
एक क्लिक पर देश-दुनिया तक समाचार पहुंचने के जमाने में यजुआर जैसे जागरूक गांव की ऐसी स्थिति परेशान करती है. ये परेशानी नाहक नहीं है. यजुआर गांव से ही औराई के विधायक की जीत और हार का रास्ता निकलता है. जिसके पक्ष में यहां वोट पड़ता है, उसका विधानसभा पहुंचना तय माना जाता है. ऐसे ही लोकसभा चुनाव में भी यहां के वोटर अच्छा-खासा अंतर पैदा करते हैं. यही वजह है कि सांसद अजय निषाद ने यहां की एक पंचायत को गोद लिया है, लेकिन पंचायत के लोग कहते हैं कि जब घोषणा हुई थी, तब उम्मीद जगी थी, लेकिन अब हमारी उम्मीद टूट चुकी है.
पूर्व विधायक रामसूरत राय, जो इस समय भाजपा के जिलाध्यक्ष भी हैं. कहते हैं कि हमने गांव में बिजली लाने की बहुत कोशिश की, लेकिन कामयाब नहीं हो सका. ऐसे ही अन्य जन प्रतिनिधि भी दुहाई देते हैं, लेकिन इस सबका खामियाजा गांव के लोगों को ही भुगतना पड़ रहा है.



 

बुधवार, 1 फ़रवरी 2017

गंगेया के लोगों ने बागमती पर खुद बना लिया पीपा पुल

लगभग साल भर पहले गंगेया जाना हुआ था, तब बांस के पुल था, जिससे गुजरते समय अच्छे-अच्छे लोग हनुमान चलीसा का पाठ करने लग रहे थे. हम भी उन्हीं में शामिल थे. उस समय गांव में एक कार्यक्रम था. मुंबई से अभिभावक समान अनुराग चतुव्रेदी सर आये थे. उन्हीं के साथ गांव देखने का मौका मिला. आधा गांव बागमती इस पार और आधा, उस पार. बड़ी विकट स्थिति में रह रहे थे गांववाले.
चर्चा चली, तो वहां के लोगों ने बताया कि वर्तमान सांसद से लेकर अधिकारियों व विधायकों से हम लोगों ने कई बार गुहार लगायी, लेकिन आश्वासन ही देते रहे हैं. बाढ़ के समय पुल बह जाता है, तो गांव के लोगों की परेशानियां और बढ़ जाती हैं. गंगेया के लोग किस स्थिति भयावह हालत में रह रहे थे. ये वहां जाने के बाद ही महसूस होता है. बांस के चचरी पुल को पार करना किसी बड़ी जंग को जीतने जैसा लगता था. ऐसे में सोच सकते हैं, जो ग्रामीण रोज कई बार इस पुल से आते-जाते होंगे, उनका क्या होता होगा, जब हम पुल पार कर रहे थे, उसी दौरान एक मां अपने बच्चे के साथ जा रही थी, जो खुद से ज्यादा बच्चे को लेकर परेशान थी, क्योंकि बच्च छोटा था और मां के हाथ में राशन का झोला था, जिससे वह बच्चे को उठा नहीं सकती थी. ऐसे में वह लोगों से मिन्नतें कर रही थी कि किसी तरह उसके बच्चे को पार करवा दें.
खैर, गंगेया गांव के वापस आया, तो कई दिन तक वहां खास कर पुल से गुजरने की स्मृति कौंधती रही. लगा कि जब इतनी परेशानी है, तो इसका समाधान क्यों नहीं होता. कई लोगों से बात की, लेकिन किसी ने संतोषजनक जवाब नहीं दिया. इसी बीच गंगेया के रहनेवाले क्रांति प्रकाश जी का न्योता मिला. पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी को 1977 के चुनाव में हरानेवाले राजनारायण की जयंती मना रहे थे. मुलाकात हुई, तो गांव के चचरी पुल की चर्चा की. कहने लगे, जल्दी ही दुख दूर होनेवाला है. गांव के लोग ही आपस में मिल कर पीपा पुल बना रहे हैं. इसके लिए बैठक हो चुकी है और कुछ लाख रुपये भी एकत्र हो चुके हैं. सुन कर बड़ा सुकून मिला.
बीती 24 जनवरी को जानकारी मिली कि पुल तैयार है और लोगों का आवागमन शुरू हो गया है. गांव के लोगों ने 12 लाख रुपये इकट्ठा करके पुल का निर्माण कराया है, जब पुल से गुजरते लोगों की तस्वीरें देखीं, तो काफी सुकून मिला. अब गंगेया के लोगों को हिचकोले नहीं खाने होंगे. साथ ही गांव में आनेवाले लोगों को पहले जैसी त्रसदी नहीं ङोलनी पड़ेगी. गंगेया के लोगों को इस साहसपूर्ण काम के लिए बहुत बधाई!

इस बार फिर चौकायेगा उत्तर प्रदेश ?

यूपी समेत पांच राज्यों में विधानसभा चुनाव की धूम है. प्रचार चरम पर है. पहले चरण का चुनाव चार फरवरी को होना है, जिसके लिए दो फरवरी को चुनाव प्रचार बंद हो जायेगा. इससे पहले लंबे राजनीतिक ड्रामे से गुजरे यूपी के वोटर इस बार क्या करेंगे, ये सवाल सबके जेहन में घूम रहा है. प्रदेश में घूम-घूम कर सव्रेक्षण कर रहे विभिन्न मीडिया हाउस अलग-अलग तरह की हवा बना रहे हैं. कोई भाजपा की पूर्ण बहुमत की सरकार बना रहा है, तो कोई अखिलेश की फिर से ताजपोशी कर रहा है. ऐसे में ये देखना दिलचस्प होगा कि वोटर का मत क्या इस मीडिया हाउस के सव्रेक्षणों से मेल खाता है या फिर नहीं, क्योंकि इससे पहले 2007 व 2012 के यूपी चुनावों में ऐसे सव्रेक्षण करनेवालों को बुरी तरह से मुंह की खानी पड़ी थी. इस बार जो हालात दिख रहे हैं, वो तो कुछ और कहानी कह रहे हैं, लेकिन ऐसा लगता है कि जमीनी हकीकत को हम देखना नहीं चाहते हैं.
गठबंधन के शोर में भले ही किसी की आवाज कम सुनायी दे रही हो, लेकिन वोटर सब देख रहे हैं और उन्हें किधर जाना है. शायद उन्होंने मन बना लिया है और वो उस दिशा में आगे बढ़ चुके हैं. ऐसे में सवाल उठता है कि क्या सव्रेक्षण करनेवालों के सामने ये हकीकत नहीं है. साल से कुछ ज्यादा पहले बिहार चुनाव हुये थे. उस दौरान किस तरह का शोर था, लेकिन नतीजे कैसे आये, ये सबको पता है. यही नहीं मतगणनावाले दिन किस तरह से भाजपा के लोगों ने सुबह जश्न मनाना शुरू कर दिया था, लेकिन चंद मिनट में ही इनके पांवों की थिरकन रुक गयी थी, जो दावे कर रहे थे, उनके मुंह पर सील लग गयी और वह छुपते फिरने लगे.
अगर राजनीतिक हालात की बात करें, तो यूपी-बिहार बहुत ज्यादा अलग नहीं हैं. हां, वोटरों की संख्या के आधार पर भले ही कुछ भेद-विभेद किया जा सकता है, लेकिन ताशीर एक जैसी ही है. अब ऐसे में चुनाव बहुत रोचक बन गया है.

रविवार, 13 नवंबर 2016

विकास, आपकी शहादत पर हमें गर्व है

मधुबनी के झंझारपुर अनुमंडल के रैयाम गांव के रहनेवाले विकास कुमार मिश्र की चर्चा आज हर जुबान पर है. मिथिलांचल के साथ पूरा देश उन पर गर्व कर रहा है. बीएसएफ में जवान विकास जब अक्तूबर महीने में दशहरा के समय में गांव आये थे, तब परिजनों समेत किसी ग्रामीण को इस बात का आभास तक नहीं था कि यह उनकी अंतिम छुट्टी साबित होगी. दिल्ली में रहनेवाले तीन भाइयों से मिले, तो चार भाइयों की सर्किल पूरी हो गयी. सभी ने साथ बैठ कर खाना खाया.
विकास अपने परिवार में सबसे छोटे थे. उनसे बड़ी दो बहने और तीन भाई थे. सबकी शादी हो चुकी है और सब अपने परिवार के साथ सेटल हैं. भाई दिल्ली में रह कर निजी कंपनियों में काम करते हैं, जबकि बहनें अपनी ससुराल में. पिता का स्वर्गवास हो चुका है, सो घर में केवल मां रहती हैं, जिनकी देखभाल के लिए अभी विकास की बहन आयी हुई थी, क्योंकि मां इंद्रा देवी को हृदय की बीमारी है. इसी की चिंता विकास को सबसे ज्यादा थी. अपनी अंतिम छुट्टी में वो मां को लेकर काफी चिंतित थे. वह छुट्टी से वापस जाने से पहले मां की दवाइयां ला कर गये थे और वादा किया था कि इस बार जब घर आऊंगा, तो घर का काम पूरा करा दूंगा, क्योंकि फूस का घर अच्छा नहीं लगता.
जम्मू-कश्मीर के पुंछ में पोस्टिंग के बाद भी रोज मां को फोन करते थे और उनका हाल लेते थे. बस एक ही ताकीद करते थे कि मां समय से खाना और दवाई खाना, ताकि ठीक रहे. बहन से भी कुछ दिन और घर में रहने की गुजारिश की थी, जिस पर बहन मान गयी थी. बीते बुधवार को सुबह मां का हाल लिया और बहन से बात की, तब भी घर बनाने की बात दोहरायी. बताया, कैसे सीमा पर तनाव ज्यादा और लगातार पाकिस्तान की ओर से गोलीबारी की जाती है, जिसका वो लोग माकूल जवाब देते हैं. ये बात हुये कुछ घंटे ही बीते थे कि दिन में लगभग चार बजे उनके जख्मी होने की खबर घर में आयी और थोड़ी देर बाद ही उनकी शहादत की बात भी कही गयी. सहसा किसी को विश्वास नहीं हो रहा था.
शाम तक ये बात झंझारपुर समेत पूरे जिले व देश में फैल चुकी थी. विकास के घर पर सैकड़ों लोग जमा थे. मां-बहन को विश्वास नहीं हो रहा था, जिस बेटे व भाई से कुछ घंटे पहले ही बात हुई थी. इतनी अच्छी बातें कर रहा था. वह अब इस दुनिया में नहीं है. दिल्ली में विकास के भाई ने कहा कि मेरा भाई इस दुनिया से नहीं जा सकता. छठ के दिन ही पांच बार उससे बात हुई थी. ऐसा कैसे हो सकता है, लेकिन ऐसा हो चुका था. विकास ने देश की रक्षा करते हुये शहादत दे दी थी. शनिवार की सुबह जब विकास का पार्थिव शरीर पहुंचा, तो हजारों की संख्या में आसपास के लोग जुटे. उन्हें राजकीय सम्मान से अंतिम विदाई दी गयी. रैय्याम गांव के मध्य विद्यालय के पास ही उनका अंतिम संस्कार हुआ, जिस जगह पर अंतिम संस्कार हुआ. वहां ख़ड़े होने तक की जगह नहीं थी. सब लोग विकास को याद कर रहे थे. उनकी बहादुरी की बाद कर रहे थे.
विकास के सम्मान में नारे लगा रहे थे. पाकिस्तान को कायराना हरकत पर लागत दे रहे थे. इन सबके बीच मां इंद्रा देवी की चीख सबको परेशान कर रही थी. बहनें भाई को याद कर रही थीं. बड़े भाइयों को अपने छोटे भाई की शहादत पर गम था, साथ में गर्व भी, क्योंकि विकास देश की सरहदों की रक्षा करते हुये शहीद हुये हैं. यही चर्चा गांव के हर बच्चे-बच्चे में है. रैयाम गांव पहले से भी सैनिकों का गांव रहा है. यहां के लगभग पचास परिवारों के लाल देश की सेवा कर रहे हैं. विकास हमें भी आपकी शहादत पर गर्व है. आपकी शहादत को देश हमेशा याद रखेगा.

गुरुवार, 3 नवंबर 2016

अखिर, ये राष्ट्रवाद कितना पुराना है?

(वरिष्ठ समाजवादी चिंतक सच्चिदानंद सिन्हा जी का सामयिक वार्ता में लेख. उसी से साभार.)

हैदराबाद में छात्र रोहित वेमुला की आत्महत्या को लेकर उठा विवाद और इसके तत्काल बाद जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय (जेएनयू) के कुछ छात्रों द्वारा कथित रूप से राष्ट्र विरोधी नारे लगाये गये. इस घटना पर उठे विवाद ने अचानक राष्ट्रप्रेम और राष्ट्रीय वफादारी के सवाल को व्यापक विवाद का मुद्दा बना दिया है. जेएनयू विवाद में पुलिस ने आनन-फानन में एक शिक्षक समेत कुछ छात्रों को हिरासत में लेकर उन पर राष्ट्रदोह का मुकदमा ठोक दिया और कुछ उत्साही वकीलों ने, जिन्हें संघ का समर्थक बताया जाता है, अदालत मामले को संज्ञान में ले, इसके पहले ही कोर्ट परिसर में ही अभियुक्तों को लप्पड़-थप्पड़ से उनके जुर्म की गंभीरता का एहसास करा दिया. इसके बाद कुछ जमातें लगातार जहां-तहां मार-पीट और दंगा-फसाद से अपनी राष्ट्रभक्ति का इजहार करने में संलग्न हैं. प्रशासन भी यथासंभव, राष्ट्रभक्ति के इस उफान में हस्तक्षेप से कतराता है. अगर राष्ट्रवाद के नाम पर होनेवाले फसाद में कानून-व्यवस्था पक्षाघात का शिकार हो रही हो और आम नागरिकों की अभिव्यक्ति की आजादी राष्ट्रभक्ति के उन्माद में निरस्त हो रही हो, तो इस राष्ट्रभक्ति के उत्स और औचित्य पर विचार करना लाजमी हो जाता है. इसलिए भी कि प्राय: युद्धों में राष्ट्रभक्ति के उत्स और औचित्य पर विचार होता है. इसलिए भी कि प्राय: राष्ट्रीय युद्धों में राष्ट्रभक्ति की ऐसी भवाना का उभार होता है, जिसे विवाद से परे माना जाता है.
प्रख्यात समाजशास्त्री इमिल दुरखाइम ने सामुदायिक व्यवहारों को दो श्रेणियों में बांटा था.
1- सैक्रेड (पवित्र)
2. प्रोफेन (लोकाचारी)
सैक्रेड से मतलब उन व्यवहारों से था, जो मानवेतर और उदात्त हैं. अत: उन्हें मानवीय कसौटियों पर आंका नहीं जा सकता. प्रोफेन हमारे दैनन्दिन के कार्यकलापों का क्षेत्र है, जिनका आकलन हम रोजना हानि-लाभ की कसौटियों से करते हैं. राष्ट्रवाद के अतिरेक का खतरा इस बात से पैदा होता है कि इसे भी सैक्रेड यानी मानवेतर धार्मिकता की कोटि में डाल दिया जाता है, जिससे हम इसे उसके सांसारिक परिणामों की कसौटी पर नहीं कस सकते, जैसे यह कथन..मेरा देश सही या गलत सर्वोच्च है. हम इसके सभी कार्यो में शरीक हैं, भले ही वह गलत भी हो. कार्लमार्क्‍स ने भी धर्म को लोगों के लिए अफीम कहा था. राष्ट्रीयता के पीछे यही भावना है, जिससे संसार राष्ट्रीय और अंतराष्ट्रीय युद्धों की भयावह त्रसदियों से गुजरता रहा है. अगर हम पिछले दो महायुद्धों पर गौर करें, जिनमें करोड़ों लोग मरे और इतने ही लोग अपंग हुए, तो इसकी सच्चई दिखेगी और इससे हासिल क्या हुआ, अंतहीन कटुता.
18वीं शताब्दी के पहले राष्ट्रीयता का यह भाव कहीं नहीं था. यूरोप में भी नहीं. भारत में तो राष्ट्र राज्य (नेशन-स्टेट) का यह भाव था ही नहीं. एक क्षेत्रीय भाव, तो दूसरी जगहों की तरह यहां भी व्याप्त था, जब हम क्षेत्रीय भाव की बात करते हैं, तो इस दिलचस्प हकीकत पर ध्यान रखना जरूरी है कि यह क्षेत्र भाव अधिकांश जीवों में यानी पक्षियों में, मछलियों में, कुत्ताें, बिल्लियों व भैसों आदि में पाया जाता है. कुत्ते, भैंस अदि मल-मूत्र से अधिकतर क्षेत्र का सीमांकन करते हैं. हम मनुष्य झंडे, पताका या बाड़े बनाकर, लेकिन इसके पीछे समान रूप से व्याप्त वह पशु प्रवृत्ति ही है, जिससे हम एक क्षेत्र पर अपना वर्चस्व प्रदर्शित करना चाहते हैं. इसमें कुछ भी उदात्त या विशिष्ट नहीं है, जिसमें हमारी मानवीयता की व्याप्ति हो. समग्रता में विचार करने पर हमारी गरिमा की दृष्टि से हमारे तोपों, बंदूकों, युद्धपोतों और युद्धक वायुयानों का कुत्ताें और भैसों के मलमूत्र से ज्यादा महत्व नहीं है, जिससे वो अपनी सीमा का दावा करते हैं. तटस्थ होकर विचार करने पर यही एहसास होता है कि ये सब तुच्छ पशु के बल के प्रदर्शन से ज्यादा कुछ भी नहीं है. पशुओं में कुछ पैंतरेबाजी और हल्के भिड़ंत से वर्चस्व कबूल कर लिया जाता है. इसके विपरीत मनुष्य अपनी दावेदारी के प्रदर्शन का ऐसा कैदी बन जाता है कि राष्ट्र के नाम पर विनाशकारी युद्धों में उलझ जाता है. अपनी हैसियत के हिसाब से भारत भी आजादी की अर्ध शताब्दी में ही तीन युद्ध में उलझ चुका है और सीमा पर की झड़पें तो रुटीन बन गयी हैं.
जारी..

बुधवार, 2 नवंबर 2016

क्या बात है, मुजफ्फरपुर में 7डी थियेटर!

आधुनिक सुख-सुविधाओं पर अपना ज्यादा विश्वास नहीं है, लेकिन जब बात होती है, तो जानने समझने की कोशिश जरूर करता हूं. पिछले छह साल से मैं दो बार ही सिनेमा हाल में गया हूं. वह भी एक बार पूरा सिनेमा देखा था, दूसरी बार बीच में वापस चला आया. सिनेमा हाल के मामले में कभी मुजफ्फरपुर का नाम हुआ करता था. इसे प्रदेश की सांस्कृतिक राजधानी के तौर पर प्रचारित किया जाता है. यहां कई सिनेमा हाल थे, जो अब भी देखने को मिल जाते हैं, लेकिन इनमें से ज्यादातर बंद हो चुके हैं. गिने-चुने हाल ही चालू हालत में हैं.
एक-दो सिनेमा हाल के बारे में बताते हैं कि हाल के महीनों में उनकी व्यवस्था ठीक हुई है, लेकिन कभी जाने का मौका नहीं मिला, न ही मन हुआ, लेकिन दो नवंबर को शाम के समय सड़क पर टहल रहा था. उसी दौरान एक बिल्डिंग के कुछ बच्चे 7डी थियेटर की बात कर रहे थे. कह रहे थे कि अपने शहर में नया सिनेमा हाल खुल गया है, जिसमें पिक्चर देखने का अनुभव बिल्कुल अलग है. बच्चे आपस में चर्चा कर रहे थे कि उनके परचित लोग वहां गये थे. वह सिनेमा देख कर आये हैं. हाल के अंदर उन्हें कई तरह के अनुभव हुये.
जैसे अगर पानी बरस रहा है, तो लगता है कि सिनेमा देखनेवाला भी भीग रहा है. अगर स्क्रीन पर सांप चल रहा है, तो लगेगा कि सांप आपके पास से होकर गुजर रहा है. अगर स्क्रीन पर बर्फ गिर रही है, तो आपको इस बात का एहसास होगा कि आप बर्फबारी के बीच में बैठे हुये हैं. ये बिल्कुल नये तरह के अनुभव के बारे में बच्चे बात कर रहे थे, तो मैं भी उनकी बातों का सुनने लगा. उनमें कुछ बच्चे कह रहे थे कि मैं भी हाल में पिक्चर देखने जाऊंगा. मैंने अपने पापा को इसके बारे में बताया है. वो हम लोगों को वहां ले जाने के लिए तैयार हैं.
7डी थियेटर क्या होता है? इससे अभी तक मैं भी अनजान हूं. सही कहूं, तो मुङो तो ये भी पता नहीं चल पाया था कि शहर में 7डी थियेटर खुल गया है. हां, ये जरूर सुनता था कि द ग्रैंड माल में जल्दी ही थियेटर खुलनेवाला है. दो बार वहां जाना हुआ, तो नोएडा, गाजियाबाद व दिल्ली के मालों की याद आयी. बस फूड कोर्ट व थियेटर की कमी खल रही थी. अगर थियेटर चालू हो गया है. वह भी 7डी, तो अच्छा है. मैं भी कोशिश करूंगा कि वहां जाकर सिनेमा देखूं, क्योंकि ये मेरे लिये भी नया अनुभव होगा.

चुनाव यात्रा - आठ- रास्ते से हट जाओ भारत के भविष्य

पिछले साल इन दिनों वोटिंग का दौर जारी था. उसी के साथ जारी थी मेरी चुनाव यात्र भी. उत्तर बिहार के विभिन्न जिलों में घूमने के बाद उस शहर के मिजाज को देखने और समझने की बारी थी, जिसमें मैं रहता हूं. इसके लिए मैं ऑफिस की गाड़ी छोड़ दी. रिक्शे व टेंपो का सहारा लिया. कुछ दूर टेंपो से यात्र की, तो उसमें मनमानी देखने को मिली. एक ही जगह जाने के एक टेंपो वाले पांच रुपये लिये, जबकि दूसरे ने दस रुपये, जब मैंने प्रतिवाद करने की कोशिश की, तो कहने लगा कि महंगाई का जमाना है, मैंने जो किराया बताया है, वो तो देना ही पड़ेगा. खैर, मैंने दस रुपये देकर किसी तरह से उससे मुक्ति पायी, लेकिन इसके साथ एक सबक भी. शहर में टेंपो को लेकर जो चर्चा होती है, वो अनायास नहीं है.
अब भी टेंपो वालों को देखता हूं, तो वह दिन याद आ जाता है, लेकिन उस यात्र के बाद मैंने तय किया और अब महीने में कम से दो-तीन बार टेंपो से जरूर चलता हूं. इसके अलावा पैदल चलना, तो मुङो खूब भाता है. कई किलोमीटर तक मैं चल सकता हूं. ये आदत मुङो बचपन से पड़ी, जब पढ़ने के लिए हम लोगों को पांच किलोमीटर पैदल जाना पड़ता था. खेत की मेड़ों से होते हुये. हम लोगों में ये होड़ रहती थी कि कौन एक घंटा से कम समय में स्कूल पहुंचता है, बच्चे थे. दौड़ते हुये जाते थे, तो 45 मिनट लगता था. कभी-कभी आराम से चलने पर एक घंटा पांच मिनट. खैर ये दूरी हम लोगों को रोज तय करनी होती थी. अगर किसी दिन साइकिल पर बैठ कर जाने को मिल जाता था, तो हम इसे अपना सौभाग्य मानते थे. इसकी बात फिर कभी. मुजफ्फरपुर शहर में भी मैं खूब पैदल चलने की कोशिश करता हूं. कई बार परचित लोग रास्ते में मिल जाते थे, तो वह अपनी गाड़ी से छोड़ देने की बात करते हैं, तो उन्हें विनम्रता से मना करने का मन होता है, लेकिन कई बार ऐसा नहीं कर पाता हूं.
चुनाव की फिजां का पता लगाने के लिए मैं कई किलोमीटर पैदल भी चला. एक जगह इच्छा हुई रिक्शे से चलता हूं. रिक्शेवाले से बिना किराया तय किये मैं बैठ गया और वो चलने लगा. कुछ ही दूर आगे बढ़ा था कि कुछ छात्र बीच सड़क से लेकर किनारे तक फैले हुये जा रहे थे. सब आपस में बात करने में मशगूल थे. पीछे से रिक्शेवाले ने दो तीन बार घंटी बजायी, जब इसका असर छात्रों पर नहीं हुआ, तो कहने लगा कि जरा किनारे हट जाओ भारत के भविष्य. रिक्शेवाले के मुंह से ऐसी बात सुन कर मुङो आश्चर्य हुआ. मुझसे नहीं रहा गया. मैंने उससे पूछा, तो कहने लगा कि और क्या कहूं. ये सब भविष्य ही तो हैं, जो हमारे आपके बाद देश को आगे बढ़ायेंगे. अगर इन्हें चोट लग जायेगी, तो मुङो अच्छा नहीं लगेगा. इसीलिए बोल दिया. आप जानते ही हैं कि अभी चुनाव का समय चल रहा है. पूरे शहर की स्थिति देख ही रहे होंगे. मैं अनजान बन कर उसकी बात सुन रहा था. अचानक रिक्शवाला पारंपरिक गीत गाने लगा, तभी हम अपने गंतव्य पर थे. हमने 20 का नोट उसे पकड़ाया, तो प्रसन्न हुआ और आगे बढ़ गया, लेकिन मेरी चुनावी तलाश अभी पूरी नहीं हुई थी.
जारी..