गुरुवार, 20 अक्टूबर 2016

चुनाव यात्रा-7- पहाड़ी नदी के किनारे वोट की बात

मोतिहारी के बाद हम बेतिया में थे और हमने तय किया कि उन इलाकों में जाना चाहिये, जहां असली भारत बसता है. भारत-नेपाल सीमा पर बसे मंगुराहा हम इसी लोभ में पहुंचे, जहां एक ओर खुला आकाश और दूर-दूर तक फैली रेत, जिस पर उगी कुछ जंगली झाड़ियां और दूसरी ओर पहाड़, जिसका कुछ हिस्सा भारत और बाकी नेपाल में आता है. पहाड़ के साथ लगा घना जंगल, जिसमें बाघ समेत विभिन्न जंगली जानवरों के रहने की बात बतायी गयी. शाम ढलने के साथ मवेशियों के साथ ग्रामीण अपने घरों का रुख करने लगे. गोधूलि बेला के समय हम पहाड़ी नदी के किनारे खड़े थे. वहां इक्के-दुक्के लोग ही दिख रहे थे, लेकिन लोगों का आना-जाना जारी.
नदी के किनारे कुछ बच्चे खेल रहे थे, तो कुछ लोग पीने का पानी लेने के लिए आये हुये थे. इसी दौरान एक वृद्ध साइकिल से पहुंचे. उन्होंने साइकिल के हैंडिल में दो बड़ी बोतलें लटका रखीं थी. कहने लगे रात के पीने का पानी लेने के लिए नदी आये हुये हैं. पिछले पचास साल से ये नदी का पानी पी रहे हैं. इन्हें कोई बीमारी नहीं हुई. एक बेटा बाहर कमाता है, जबकि दूसरा सीआरपीएफ में जवान है. हम लोग मिले, तो चुनाव पर बात होने लगी. कहने लगे कि देखिये दोनों गंठबंधनों का जोर है. हर नेता की ओर से हमारे गांव में प्रचार किया जा रहा है. महागंठबंधनवाले का प्रचार ज्यादा है, लेकिन जीतेगा कौन, यह तो सब जानते हैं. प्रचार करने से क्या होगा?
मंगुराहा के आस-पास सभी राजनीतिक दलों के प्रत्याशियों ने अपना कार्यालय बना रखा था, जहां बजनेवाले लाउडस्पीकरों से चुनाव का एहसास हो रहा था. बाकी जगह पर शांति थी. हां, जब कभी प्रत्याशी या प्रत्याशी के समर्थक सड़क से जुगरते, तो लगता कि चुनाव प्रचार चल रहा है. वैसे लोगों में चुनाव को लेकर कोई खास उत्साह नहीं दिख रहा था. सब अपने काम में व्यस्त थे. यहां के लोगों की नेताओं से मांग भी नहीं है. जिनता है, उतने में संतुष्ट होनेवाले लोग. किसी की शिकायत भी नहीं करते. बस अपनी धुन में मस्त.
जारी..

बुधवार, 19 अक्टूबर 2016

चुनाव यात्रा-6- जिन्न नहीं निकलेगा, देख लीजियेगा

मोतिहारी में चाय पर चुनाव चर्चा के बाद बारी शहर के गणमान्य लोगों से मुलाकात की थी. पहले से तय था, सो सब लोग सुबह की सैर के बाद इकट्ठा हो गये थे. लगातार बुलावा आ रहा था. व्यापारी, डॉक्टर, इंजीनियर, सामाजिक संगठनों से जुड़े कुछ लोग और कुछ पूर्व अधिकारी थे. बातचीत का सिलसिला शुरू हुआ, तो ऐसी चर्चा की ओर हम लोग बढ़ने लगे, जो चाय की दुकान के ठीक उलट थी. ये शहर का ऐसा तबका था, जो जनमत की बात कर रहा था, लेकिन उसका आधार नहीं दिख रहा था. बातचीत के दौरान ही एक व्यापारी बोल पड़े, अभी चाहे जो विरोध हो, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की एक सभा होगी और माहौल बदल जायेगा. हम जानते हैं ना.
बातचीत के दौरान कहा गया कि कोई जिन्न इस बार ईवीएम से नहीं निकलनेवाला है. पहले से रिजल्ट तय है, वही सामने आयेगा. इस दौरान हमारे सवालों को विपक्षी करार दिया गया, जबकि ये ऐसे सवाल थे, जिन्हें चुनाव में दरकिनार नहीं किया जा सकता था. खैर बातचीत पूरी हुई और हम आगे बढ़ने को तैयार थे. हमारा अगला पड़ाव बेतिया का था, लेकिन हम कुछ और देर मोतिहारी की चुनावी फिजां को देखना चाहते थे. इसके लिए हम पैदल ही मोतीझील के किनारे टहलने लगे. इस समय तक झील के बीच की सड़क के दोनों किनारे दुकानें सज गयी थीं फुटपाथ पर. तमाम तरह की चीजें इन दुकानों पर मिल रही थीं. इसी बीच हमने एक दुकानदार से पूछ दिया कि चुनाव में वोट देना है. कहने लगा कि वोट तो देंगे, लेकिन अभी से काहे परेशान हों, जब आयेगा, तब देखेंगे, जबसे बड़े हुये हैं वोट देते आ रहे हैं, लेकिन हमारे जीवन में कोई बदलाव नहीं आया है. ऐसे वोट का मेरे लिए कोई मायने नहीं है, लेकिन कर्तव्य है, तो उसे निभाऊंगा जरूर.
खैर कर्तव्य निभाने के बीच चारों तरफ से अतिक्रमण की श्किार मोतीझील पर नजर पड़ी, तो हमारे साथी कहने लगे कि ये फिर चुनावी मुद्दा है. इसको सुंदर बनाने की बात अरसे से चल रही है, लेकिन अभी तक कोई काम नहीं हुआ है. हर बार लगता है कि हमारे शहर में ऐसा काम होगा, जिसे देखने के लिए देश-दुनिया से लोग आयेंगे, लेकिन हर बार हम लोग ठगे से रह जाते हैं. मोतीझील का इलाका बड़ा लंबा था, लेकिन लगातार सिकुड़ता जा रहा है. लोगों ने घर बना लिये हैं. सरकार की ओर से घोषणाएं होती हैं, लेकिन काम नहीं होता है. मोतीझील के पानी में जलकुंभी और किनारे पर डाला गया शहर का कूड़ा बहकर बीच में आ गये थे. दोनों आपस में मिल कर एक ऐसा माहौल तैयार कर रहे थे, जिसे देख कर भय लग रहा था.
बातचीत के दौरान हम फ्लैशबैक में चले गये, जब मार्च-अप्रैल के महीने में कवि सम्मेलन हुआ था, तब कवियों ने कहा था, शहर के लोगों के सामने. आपकी मोतीझील बहुत प्यारी है, लेकिन उसकी हालत बहुत खराब है. अगर कभी आप लोग स्वच्छता अभियान चलायें, तो हमें बुलाइयेगा, हम श्रमदान करने अपने खर्च से आयेंगे, क्योंकि हम चाहते हैं कि मोतीझील फिर से शहर की शान बनें. कवियों ने मोतीझील के पुराने किस्से सुने थे. इससे इतना प्रभावित थे, लेकिन चुनाव में मोतीझील मजह एक मुद्दा थी, जो अब भी मुद्दा ही बनी हुई है.
जारी..

मंगलवार, 18 अक्टूबर 2016

यूपी चुनाव- जितना कांग्रेस मजबूत होगी, उतना भाजपा को नुकसान

उत्तर प्रदेश में अगले साल चुनाव होने हैं, जिसको लेकर पिछले कुछ महीनों से गहमा-गहमी है. सत्ताधारी समाजवादी पार्टी में परिवार का मनमुटाव सड़क पर आ गया है, जिसके किस्से आम हैं. इसमें राजनीति भी देखी जा रही है, कैसे और किस पर सरकार की नकामी का दोष मढ़ें, ये भी बात हो रही है. कहा जा रहा है कि फेस सेविंग की तरकीब निकाली गयी है. अंदरखाने में सब ठीक है. क्या है, ये कह पाना मुश्किल लगता है, लेकिन जो बात मैं कहना चाहता हूं. वो साफ और स्पष्ट है, जिससे बहुत से लोग सहमत व असहमत हो सकते हैं, लेकिन ये मेरा मत है.
उत्तर प्रदेश की स्थितियों को देखते हुये मुङो लगता है कि भाजपा अभी तक मजबूत दिख रही है, लेकिन कांग्रेस की ओर से भी लगातार प्रयास किये जा रहे हैं. खाट सभा की भले ही आलोचना हुई हो, लेकिन इससे पार्टी चर्चा में आयी है. हालांकि गन्ने की फैक्ट्री लगाने के राहुल गांधी के बयान ने पार्टी की साख को बट्टा जरूर लगाया गया है, लेकिन इससे निगेटिव प्रचार पार्टी को मिला है. कांग्रेस लोगों के बीच में चर्चा का विषय बन रही है, जो दल उत्तर प्रदेश में लगभग तीन दशक से सत्ता से दूर है. उसके विधायकों की संख्या दहाई से शुरुआती अकड़ों तक ही पहुंच पाती हैं. वो चर्चा में रहे, तो ये उसके नेताओं को लिए अच्छी बात है, हालांकि उत्तर प्रदेश को लेकर क्या विजन कांग्रेस का है, इसको स्पष्ट तौर पर बताना होगा. पार्टी की ओर से संगठन में जिस तरह के बदलाव किये गये हैं और दिल्ली की मुख्यमंत्री शीला दीक्षित को जिस तरह से चेहरा बनाया गया है, वो वोट बैंक को मजबूत करने की दिशा में उठाया गया कदम भर लगता है, क्योंकि ये कांग्रेस के नीति निर्माता भी जानते हैं कि उन्हें अपने दम पर सत्ता नहीं मिलनेवाली है.
सवाल ये है कि अगर कांग्रेस मजबूत होगी, तो नुकसान किसको होगा. इसका सीधा और साफ उत्तर है कि इससे सबसे ज्यादा असर भाजपा पर पड़ेगा, जो लोकसभा वाली सफलता यूपी में दोहराने की चाहत रखती है, हालांकि ये होता नहीं दिख रहा है, लेकिन जो अभी से देखने को मिल रहा है, उससे साफ लगता है कि भाजपा अन्य दलों से आगे रहेगी. इसके संकेत हाल में आये सव्रे में मिले हैं, जिनमें भाजपा को सबसे बड़ी पार्टी के रूप में दिखाया गया है.
इसे इस तरह से कह सकते हैं कि 2014 में भाजपा को समाज के सभी वर्गो का वोट मिला था, जिससे उसने उम्मीद से भी ज्यादा सीटें हासिल की थीं. यूपी ने ही उसे केंद्र में स्पष्ट बहुमत दिलाया था. नहीं तो कहा जा रहा था कि बिना समर्थन भाजपा अपने दम पर सरकार नहीं बना पायेगी, लेकिन यूपी के नतीजों ने सभी सव्रे को फेल कर दिया था.
यूपी की सत्ता के और दो दावेदारों में सत्ताधारी समाजवादी पार्टी व बहुजन समाज पार्टी हैं. दोनों का अपना वोट बैंक है. इन्हें वो वोट मिलने ही हैं, लेकिन केवल अपने वोट बैंक से दोनों दलों का काम नहीं चलेगा. ऐसे में इन्हें किसी न किसी स्तर पर अपने वोट बैंक से हट कर भी वोट चाहिये होगा. उसका इंतजाम ये पार्टियां किस तरह से कर पाती हैं, यही सबसे दिलचस्प है, क्योंकि इन्हें मालूम है कि जिनके वोट इन्हें चाहिये, वो अब झांसे में आनेवाले नहीं हैं. दोनों ही दलों ने इन वोटों के सहारे पिछले दस सालों में सत्ता का सुख ले चुके हैं. समाजवादी पार्टी अभी सत्ता में है ही.
2007 के चुनाव की ओर आपको ले जाना चाहेंगे, तब बसपा को बहुमत मिला था. तत्कालीन मुख्यमंत्री मुलायम सिंह राजभवन में त्यागपत्र देकर निकले थे. राजभवन के बाहर पत्रकारों ने उनसे हार की वजह पूछी थी, तो उन्होंने कहा था कि हम कहां हारे हैं, हार तो भाजपा की हुई है. हमारे तो वोट बढ़ गये हैं. अगर भाजपा को उसके वोट मिल जाते, तो आज हम फिर से सत्ता में होते, तब मुलायम सिंह का संदेश बिल्कुल स्पष्ट था. उसी संदेश के सहारे 2012 के चुनाव में बसपा से भी बड़ा बहुमत समाजवादी पार्टी को अकेले मिला था, लेकिन 2014 आते-आते स्थिति ऐसी बदली कि प्रदेश की सत्ता से कोसों दूर रहनेवाली भाजपा केंद्र की सत्ता में यूपी के सहारे पूरे बहुमत के साथ आयी.
अब 2017 की तैयारी में कांग्रेस जितना आगे बढ़ेगी, भाजपा को उतना ही नुकसान होगा, क्योंकि दोनों का वोट बैंक एक है और अगर कांग्रेस वोट काटती है, तो भाजपा की सत्ता की सीढ़ी चढ़ने की लालसा पर ब्रेक लग सकता है.
 

चुनाव यात्रा-5- मोतिहारी, चाय दुकान और चुनाव चर्चा

चुनाव के दौरान ही दुर्गा पूजा और दशहरा त्योहार था. छुट्टी के बाद भी हम चुनाव यात्रा पर थे और गंतव्य था, राष्ट्रपिता महत्मा गांधी की कर्मभूमि चंपारण नवमी की शाम में हम मोतिहारी पहुंच चुके थे. सड़कों और पंडालों में मानो पूरा शहर उमड़ पड़ा था. देर-रात तक गहमा-गहमी जारी थी. पंडालों में नेताओं के चाहनेवाले सक्रिय थे, जो वहां आनेवाले श्रद्धालुओं को वोट बैंक के रूप में देख रहे थे. सेवा कर रहे थे. ये ध्यान रख रहे थे कि सबको प्रसाद मिले और सब पंडित जी से आशीर्वाद ले लें और जब लोग पंडाल के बाहर निकलते थे, तो हाथ जोड़ कर अभिभावदन जरूर करते थे. इसके आगे, तो वोटर अपने समझदार हैं ही. एक-दो स्थानों पर हम लोगों को ही ऐसा ही अनुभवन मिला.
एक स्थान पर तो लोग जान कर गये कि हम पत्रकार हैं, तो वह पीछे हो लिये कि किसी तरह की समस्या नहीं हो. सब ठीक से देख लें. बार-बार मना करने के बाद भी ये कह कर जाने को तैयार नहीं थे कि मेरा सौभाग्य है कि आप लोग मेरे शहर में आये हैं. खैर कुछ देर लगी, लेकिन उन लोगों को हम लोगों ने वापस जाने को राजी कर लिया और अपने साथियों से भी ये कहते हुये विदा ली कि सुबह जल्दी उठ कर शहर का माहौल देखना है. अखबार में देर रात तक काम होता है, सो सुबह देख से उठने की आदत है, लेकिन मोतिहारी शहर का चुनावी माहौल देखने के लिए सुबह पांच बजे ही उठ गया. जल्दी से तैयार होकर हम सड़क पर थे. हमारे होटल के पास ही वो चाय की दुकान थी, जहां पर चुनावी चर्चा सुबह के समय होती थी.
सुबह की सैर से लौटते हुये हम चाय की दुकान पर रुके थे. इसी बीच आसपास लोगों का जमावड़ा शुरू हो गया. सुबह के लगभग सवा छह बजे होंगे. चाय पर चर्चा को जुटे लोग एक दिन पहले नवमी की गहमा-गहमी की समीक्षा और नेताओं के भाषणों पर चर्चा कर रहे थे. इस समय तक राहुल गांधी की चंपारण में सभा हो चुकी थी, जिसमें खास भीड़ नहीं उमड़ी थी. अरेराज की सभा थी वह, जहां बमुश्किल दो-तीन हजार लोग रहे होंगे. अपने रटे-रटाये 15 मिनट के भाषण के बाद जब राहुल गांधी ने सभी प्रत्याशियों से मंच पर आने को कहा, तो केवल एक ही प्रत्याशी पहुंचा, क्योंकि वह भी उनके दल का, जो स्थानीय प्रत्याशी था. इसके अलावा अन्य प्रत्याशी सभा में पहुंचे ही नहीं थे. बाद में एक और प्रत्याशी के आने की चर्चा हुई थी. इसी के साथ सभा समन्न हो गयी थी. चाय की दुकान पर उसकी चर्चा हो रही थी.
चर्चा के बीच प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, मुख्यमंत्री नीतीश कुमार और राजद अध्यक्ष लालू प्रसाद यादव पर फोकस था. स्थानीय समस्याओं को भी लोग तरजीह दे रहे थे, लेकिन इनकी चर्चा का कोई राजनीतिक मायने मेरी समझ से निकलना ठीक नहीं था, क्योंकि इनमें से ज्यादातर किसी न किसी दल से जुड़े थे. जारी..

सोमवार, 17 अक्टूबर 2016

हम निगेटिव बात नहीं करते हैं

लगभग साढ़े पांच साल पहले जब मुजफ्फरपुर आया था, तो सबसे पहले किसी व्यक्ति के यहां जाना हुआ था, तो वो हैं डॉ गोपाल जी त्रिवेदी, पूर्व कुलपति पूसा विश्वविद्यालय. शहर के शोर-शराबे से दूर डॉ त्रिवेदी रिटायर होने के बाद अपने पैतृक गांव में रहते हैं. वहीं, पर उन्नत खेती करवाते हैं और 85 साल की उम्र में भी इतना सक्रिय रहते हैं, उतना शायद ही कोई युवा रह सके.
बंदरा प्रखंड के मतलूपुर गांव में डॉ त्रिवेदी का आवास है. पेड़-पौधों से घिरे उनके घर से चंद कदम की दूरी पर ही बाबा खगेश्वर नाथ का पुरातन मंदिर है, जिसके विकास के लिए डॉ त्रिवेदी लगातार काम कर रहे हैं. पहली बार मुलाकात हुई, तो रविवार का दिन था. सुबह ही युवा साथी अविनाश के साथ उनके आवास पर पहुंच गया. अविनाश ने ही डॉ त्रिवेदी के बारे में बताया था और कहा था कि आपको उनसे मिलना चाहिये. इसी के बाद हम इतनी बड़ी हस्ती के सामने थे. बड़े ही आत्मीय ढंग से  डॉ त्रिवेदी हम लोगों से मिले. इसके बाद गांव-समाज और खेती पर प्रमुख रूप से बात हुई.
डॉ त्रिवेदी ने बताया कि वह गांव में रहते हैं और यहीं पर लोगों को खेती के प्रति प्रोत्साहित करते हैं. पेड़ लगाने का अभियान भी वो बड़े पैमाने पर चला रहे हैं. बातचीत के दौरान उन्होंने कहा कि हम कभी निगेटिव बात नहीं करते हैं. गांव के कई लोग आते हैं, जो एक-दूसरे के बारे में बात करना चाहते हैं, लेकिन हम उन्हें शुरुआत में ही रोक देते हैं. कहते हैं कि अगर कोई अच्छी बात हो, तो करो, नहीं तो ये सुनने का समय मेरे पास नहीं है. पहली मुलाकात में ही डॉ त्रिवेदी की जो छाप मन पर बनी, वो समय के साथ और गहरी होती गयी. डॉ त्रिवेदी की जो बात मुङो सबसे अच्छी लगती है, उसमें उनका पॉजिटिव बात करना सबसे महत्वपूर्ण हैं. अभी डॉ त्रिवेदी मक्का का उत्पादन अपने यहां कैसे बढ़े और कैसे हम मक्का उत्पादन में अमेरिका को पीछें छोड़ दें, इस पर काम कर रहे हैं. वो मक्का की खेती करने के लिए लोगों को प्रोत्साहित करते हैं. गांव में रह कर वो खेती की मूक क्रांति को अंजाम दे रहे हैं.

चुनाव यात्रा-4-अंदाज से तय हो गया था अंजाम

आज (17 अक्तूबर) जिस अंदाज में केंद्रीय मंत्री नितिन गडकरी का हेलीकॉप्टर एलएस कॉलेज मैदान में तय समय से डेढ़ घंटे के बाद उतरता दिखायी दिया, तो सहसा पिछले साल के चुनाव की याद आ गयी. भाजपा की ओर से चुनाव यात्रा के लिए डेढ़ दर्जन से ज्यादा हेलीकॉप्टर शायद किराये पर लिये गये थे, जिनसे एनडीए के नेता विभिन्न इलाकों में प्रचार के लिए निकलते थे. अमूमन हवाई यात्र के मामले में शांत रहनेवाली मुजफ्फरपुर की फिजा में उस समय कोलाहल सुनायी देता था. नेताओं की सभाएं भी उनकी जाति के बाहुल्य वाले इलाके में लगायी जाती थीं, जहां वो जाति धर्म से ऊपर उठ कर वोट करने की मांग लोगों से करते थे.
मुख्यमंत्री नीतीश कुमार व राजद अध्यक्ष लालू प्रसाद की धुंआधार सभाएं हो रही थीं, जिसमें वो केंद्र सरकार को ललकारते थे. केंद्रीय नेता इनकी ओर से उठाये गये सवालों के जवाब देते थे, जबकि ये नेता प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की ओर से उठाये जानेवाले सवालों के जवाब अपनी सभाओं में दे रहे थे. इसी बीच प्रधानमंत्री की सीतामढ़ी में रैली हुई, रैली में पहली बार प्रधानमंत्री ने बिहार के विकास के लिए छह सूत्री फामरूले का एलान किया था, जिसमें बिजली, सड़क व स्वास्थ्य शामिल था. अपने अंदाज में प्रधानमंत्री लोगों से पूछते थे कि बिजली आयी या नहीं, जबकि जमीनी हकीकत ये थी कि बिजली लगातार रह रही थी. ऐसे ही सड़क के मामले में सवाल करते, तो नीचे खड़े लोग उनकी हां में हां मिलाते थे, लेकिन जमीनी हकीकत ये थी कि प्रधानमंत्री योजना से ही ज्यादातर गांवों में सड़कें बनी हैं. ऐसे में लोग सभा के दौरान ही विरोध करने लगते थे. सीतामढ़ी की सभा में ही एक चौकीदार ने प्रधानमंत्री के भाषण के दौरान इधर-उधर बोलना शुरू किया, तो हम लोग उससे पूछ बैठे, तो उसका कहना था कि हम नेपाल के सीमावर्ती इलाके से आये हैं. हमारे यहां सड़क भी है और बिजली भी, हाल के सालों में दोनों की स्थिति बेहतर हुई है, तो प्रधानमंत्री की ओर से ये कैसे बोला जा रहा है.
उसका कहना था कि प्रधानमंत्री उन मुद्दों पर बात क्यों नहीं करते हैं, जो उन्होंने लोकसभा चुनाव के दौरान उठाये थे. उसका कहना था कि उन मुद्दों को बीच में ही नहीं छोड़ा जा सकता है, जिन पर एक पार्टी चुनाव लड़ी और जीत कर सत्ता में आयी. चाहे किसानों की खेती पर लागत और उसमें होनेवाले फायदे का मुद्दा हो या फिर अच्छे दिनों के वादे का मुद्दा. प्रधानमंत्री के बताना चाहिये कि वो अपना वादा कब तक पूरा करेंगे. एक चौकीदार की ओर से उठाये जा रहे इन सवालों को सुन कर हम दंग थे, तभी मुङो चुनाव के अंजाम भी साफ दिखायी पड़ने लगा था, लेकिन जब भी मैं किसी से इसके बारे में बात करता था, तो उसका कहना होता था कि आप लोग सरकार के पक्ष की बात कर रहे हैं. ऐसा होने नहीं जा रहा है. जारी..

शराबबंदी को राष्ट्रीय मुद्दा बनायेंगे नीतीश, मोदी का विकल्प बनेंगे

रविवार को छुट्टी के दिन जब गोवा में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ब्रिक्स सम्मेलन में पड़ोसी देश पाकिस्तान को आतंकवाद से बाज आने की नसीहत दे रहे थे, लगभग उसी समय बिहार के राजगीर में जदयू की राष्ट्रीय कार्यकारिणी मुख्यमंत्री नीतीश कुमार को आधिकारिक तौर पर पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष का काम सौप रही थी. हालांकि इस पद पर नीतीश कुमार अब भी हैं, लेकिन ये कार्यकारिणी इसलिए भी महत्वपूर्ण थी, क्योंकि शराबबंदी पर चल रहे मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के अभियान के बीच इसे बुलाया गया है.
बैठक के दौरान 2019 में होनेवाले लोकसभा चुनाव की तैयारी पर चर्चा हुई और अब पार्टी ने मुख्यमंत्री नीतीश कुमार को खुल कर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के विकल्प के तौर पर 2019 में उतारने का फैसला कर लिया है. इसके लिए मुद्दा शराबबंदी को बनाया जायेगा. शराबबंदी के सहारे मुख्यमंत्री नीतीश कुमार, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को दो साल बाद होनेवाले चुनाव में चुनौती देते नजर आयेंगे. इसके लिए जदयू की ओर से एक राष्ट्रीय गंठबंधन की परिकल्पना की गयी है, जिसकी बागडोर नीतीश कुमार के हाथों में होगी. इसे बनाने की जिम्मेवारी भी मुख्यमंत्री नीतीश कुमार को ही सौंपी गयी है.
मुख्यमंत्री नीतीश कुमार अगले चुनाव में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के विकल्प के तौर पर सामने आयेंगे. इसकी बात अरसे से होती रही है, लेकिन अब वो खुल कर सामने आ गये हैं. पार्टी अध्यक्ष के रूप में फिर से ताजपोशी के बाद मुख्यमंत्री नीतीश कुमार किस तरह से आगे बढ़ते हैं और आनेवाले महीनों में सात निश्चय को लेकर कैसे प्रदेश में काम होता है, ये भी महत्वपूर्ण होगा, क्योंकि इस समय प्रदेश में विकास के कामों में शिथिलता की बात लगातार हो रही है. कहा जा रहा है कि विकास के काम पहले जैसे पटरी पर थे. अब उनकी स्पीड पर ब्रेक लगा है. इसके लिए लोग गंठबंधन में बदलाव का भी सवाल उठा रहे हैं, लेकिन मुख्यमंत्री ने फिर से पूरे प्रदेश के दौरे की योजना बनायी है, जिसमें सात निश्चयों पर बात होगी. ऐसे में इससे क्या निकलता है और अपनी इमेज को राष्ट्रीय बनाने के लिए वो किस तरह से आगे बढ़ते हैं, ये देखना भी दिलचस्प होगा.

फुटपाथ पर नयी दुकान और वो खिलखिलाते चेहरे


ठंड की आहट के साथ सूरज देवता अब थोड़ा पहले ही अस्त हो जाते हैं और साढ़े पांच बजे के बाद लगता है कि शाम ढल गयी. इसी ढली शाम के समय मैं घर से ऑफिस के लिए निकला, तो घर के पास मोड पर जो दृश्य दिखे, वो अपने आप में अद्भुत थे.
गाड़ी बाहर गयी थी, सो पैदल ही ऑफिस जाने का फैसला लिया. घर से लगभग सौ मीटर आगे बढ़ा था, तभी सड़क किनारे नयी झोपड़ी पर निगाह पड़ी. दो युवक झोपड़ी को सजाने में लगे थे. अंदर में नयी बेंच और पेंट की हुई टीन के जालीवाली छोटी अलमारी कहानी कह रही थी कि दुकान लगाने की तैयारी है. देखने से दोनों भाई लग रहे थे. एक भाई बांस की फट्टी से झोपड़ी का दरवाजा बनाने में लगा था, तो दूसरा हाथ पंखा से हवा कर रहा था, दोनों आपस में बात करते हुये प्रसन्न हो रहे थे, जैसे मुद्दतों से देखा हुआ, उनका सपना पूरा हुआ है.
दोनों की निश्छल हंसी देख कर बचपन के दिन याद आ गये. कैसे गांव में जब कोई मेहमान आता था, तो खुशियां फूट पड़ती थीं. गर्मी के दिनों में दो-तीन लोग हाथ पंखा लेकर सेवा में लग जाते थे. पंखा चलाने के साथ हाल-चाल होता था. मेहमान के बार-बार मना करने के बाद भी पंखा बंद नहीं होता था. कहते थे कि हम थकते नहीं हैं और मुस्कराते हुये पंखा झलने की स्पीड बढ़ जाती थी. ये था हमारे सत्कार का तरीका, लेकिन अब सबकुछ कितना बदल गया है.
सुविधाओं के साथ हमने अपनी खुशियों का तरीका भी बदल लिया है. उस तरह से खिलखिला के हंस भी नहीं पाते हैं, जैसे बचपन में होता था, लेकिन सड़क के किनारे झोपड़ी लगा कर आनेवाले जीवन के सपने बुन रहे दो भाई जिस तरह से आपस में बात करके हंस रहे थे. उसमें कई संदेश छुपे लगे. अगर हम लोग भी ऐसे प्रसन्न रहना फिर से सीख लें, तो शायद जो कष्ट हैं, वो छूमंतर हो जायेंगे, लेकिन सवाल ये भी उठता है कि आखिर बचपन का ये हुनर कैसे हमसे दूर हो गया? क्यों हम ऐसे हो गये? क्या हम फिर से पहले जैसे नहीं हो सकते? इन्हीं सवालों के उधेड़ बुन में ऑफिस के रास्ते आगे बढ़ने लगा. रास्ते में स्टेशन पड़ा, तो जीवन कैसे चलता है. इसका एहसास हुआ, क्योंकि एक साथ कई ट्रेनों के बारे में बताया जा रहा था कि कौन सी ट्रेन किस प्लेटफॉर्म नंबर पर आनेवाली है.
ट्रेन की एनाउंसमेंट व यात्रियों की चहल-पहल के बीच मन में वही सवाल घूम रहा था और उत्तर की तलाश कर रहा था. इसी बीच दो ऐसे व्यक्ति दिखायी दिये, जो ट्रेन पकड़ने के लिए स्टेशन पर आये हुये थे, इनके चेहरों पर परदेश जाने का दर्द दिख रहा था. ये आपस में परिवार व माता-पिता को लेकर बात रहे थे. कह रहे थे कि अगर मजबूरी नहीं होती, तो कौन घर छोड़ के बाहर जाता?

सोमवार, 10 अक्टूबर 2016

शहर में गांव को तलाशता मन

रोजी-रोटी के सिलसिले में बड़ी आबादी को अपनी जड़ से उखड़ (गांव से विस्थापित) कर बाहर रहना पड़ता है. महानगरों की चकाचौध में गंवई अंदाज के ऐसे से लोग आसानी से मिल जायेंगे. मुजफ्फरपुर शहर में गांव की खुशबू मिल जाती है, क्योंकि यहां रहनेवाली बड़ी आबादी आसपास के गांवों की है, जो अपने गांवों से जुड़ी है, लेकिन हम जैसे लोग, जो अपने गांव से सैकड़ों किलोमीटर दूर हैं, उन्हें गांव की याद आती है.
ये याद तब और बढ़ जाती है, जब किसी को गांव जाते हुये दिख जाता है. हमारे एक मित्र हैं, कहते हैं कि मेरी सुबह गांव में होती है, क्योंकि मैं किसान हूं. सुबह उठते ही गांव का रुख करता हूं. हां, शाम भले ही शहर में हो, क्योंकि गांव में पढ़ाई के साधन नहीं है, सो बच्चों को पढ़ाने के लिए शहर में घर बनाना पड़ा, क्योंकि धरती मां से जुड़े रहने के साथ हमें बदलते समय के साथ भी चलना है, ताकि आनेवाली पीढ़ियां हमें उलाहना नहीं दे सकें कि हमने अपने लिये उन्हें शहर में नहीं पढ़ाया.
गांव और शहर में जो बुनियादी फर्क दिखता है. मेरी समझ से वो ये है कि यहां लोगों का एक-दूसरे से मतलब नहीं होता है, लोग अपने बगलवाले तक को कई बार नहीं जानते है कि उसका नाम क्या है और वो क्या करता है, जबकि गांव में ऐसा नहीं है. वहां लोग एक-दूसरे के बारे में जानते ही नहीं, उनके सुख-दुख में भी शामिल भी होते हैं. मशहूर शायर मुनव्वर राना ने इसे शिद्दत से महसूस किया, उनका एक शेर है..
तुम्हारे शहर सब मय्यत का कांधा नहीं देते,
हमारे गांव में छप्पर भी सब मिलकर उठाते हैं.
गांव और शहर का यही बदलाव हमें सोचने पर मजबूर करता है और उस गांव की याद दिलाता है, जहां पर इतनी जद्दोजहद नहीं है, जहां आपस में फरेब नहीं है. मक्कारी नहीं है. सब आपस में मिल कर रहते हैं. गांव की आबोहवा भी इतनी दूषित नहीं है, जितनी शहरों की है, क्योंकि यहां गाड़ियों का अंबार है. वायु से लेकर ध्वनि प्रदूषण तक की मार है, लेकिन गांव में पेड़-पौधों के बीच शुद्ध हवा मिलती है, जो जीवनदायिनी है, लेकिन विकास के जिस मॉडल पर हमारा समाज चल रहा है, उसमें शहरों पर निर्भरता लगातार बढ़ती जा रही है, जो गांव के लिए ठीक नहीं है.

रविवार, 9 अक्टूबर 2016

मां की कृपा ऐसे ही बरसती रहे

महासप्तमी यानी शनिवार के दिन दोपहर बाद दो बजे जब बादल उमड़-घुमड़ कर आसमान में घिरे और बारिश शुरू हुई, तो लगा कि इस बार पूजा में श्रद्धालुओं को परेशानी होगी. शनिवार रात और शुक्रवार की सुबह से लेकर दोपहर बाद तक लगातार हल्की बारिश लोगों को निराश कर रही थी, लेकिन मां ने चमत्कार किया और तीन बजे के बाद मौसम खुलने लगा, चार बजे तक धूप खिल चुकी थी.
काम के सिलसिले में शहर से बाहर था, लौटते समय रास्ते में धूप के साथ छोटी-छोटी दुकानें सजती देखीं, तो मेरे साथी ने कहा कि अब देखिये, छोटे दुकानदारों के चेहरे खिलने लगे हैं. इन्होंने बड़ी तन्मयता से तैयारी कर रखी होगी मेले के, लेकिन जिस तरह की बारिश थोड़ी देर पहले तक हो रही थी, उससे इन लोगों के चेहरे मुरझाये रहे होंगे, लेकिन मां ने इनकी सुन ली और अब इनकी तैयारी का फल मिलेगा.
शाम पांच बजे तक शहर की सड़कों पर ज्यादा भीड़ नहीं थी, लेकिन सात बजते-बजते सड़कों पर जन सैलाब उमड़ पड़ा और पूरा शहर मेलामय हो गया. रंग-बिरंगी रोशनी की बीच सजी छोटी-छोटी दुकानें सुकून दिला रही थीं और बचपन की याद भी, लेकिन अब और तब में एक अंतर था. तब मेले में पेट्रोमैक्स से रोशनी की जाती थी. उसी की रोशनी के बीच देर रात तक मेला चलता था. अब तो बिजली रहती है और चीजें पहले से सरल हो गयी हैं. जय मां.

शनिवार, 8 अक्टूबर 2016

शराबबंदी का संदेश, ये तरीका भी अच्छा है

महासप्तमी में मां की पूजा के साथ पूजा पंडालों के पट खुल गये श्रद्धालु मां के दर्शन कर रहे हैं. अभी थोड़ी देर पहले एक तस्वीर देखने को मिली सीमांचल के इलाके पूर्णिया की, जिसकी चर्चा पहले से काफी रही है, लेकिन इस बात की चर्चा सुखद है. यहां के एक पूजा पंडाल में शराबबंदी का संदेश दिया गया था. कैसे शराब हमारे लिये नुकसानदायक है, इसके बारे में चित्रों के जरिये बताया गया है.
पूजा पंडाल के जरिये ऐसा संदेश दिये जाने के अपने मायने हैं, क्योंकि मेरा ये मानना है कि शराबबंदी का फैसला बिहार सरकार ने एक बड़ी आबादी को ध्यान में रखते हुये लिया है. बदली हुई परिस्थितियों में पूजा पंडाल के जरिये इस संदेश के अपने मायने हैं. याद करिये आज से छह माह पहले का समय जब प्रदेश में शराबबंदी लागू नहीं थी. शाम होते ही सड़कों से चलना मुश्किल होता था. सड़कों के किनारे ही मोटरसाइकिलों पर चलती-फिरती शराब की दुकानें सज जातीं. ठेलों के जरिये भी पीने-पिलाने का काम शुरू हो जाता था. इसके बाद लड़ाई-झगड़ा मारपीट और सड़क दुर्घटना आम बात थी.
शराब के नशे में लोग एक-दूसरे से लड़ते और देख लेने की बात करने लगते थे. अब कहेंगे कि इसको रोकने के लिए प्रशासन तो था, तो प्रशासन की भी एक सीमा थी. वह काम करता था, लेकिन सब जगह तो व्याप्त नहीं हो सकता, लेकिन शराबबंदी के बाद हालात बदल गये. अब उन स्थानों को देख कर अच्छा लगता है कि जहां पर पहले शराब बिकती थी. वहां कहीं दूध बिक रहा है, तो कहीं होटल खुल गया है. लोग परिवार के साथ खाना खाने आ रहे हैं.
बात पूर्णिया के पूजा पंडाल की हो रही थी. यहां पर पंडाल में शराबबंदी के साथ बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ का संदेश भी दिया जा रहा है. बेटियों को पढ़ाने और उनको आगे बढ़ाने को लेकर हम लोग कितने सजग हैं. ये कहने की जरूरत नहीं है, क्योंकि अगर ऐसा होता, तो इस श्लोगन की जरूरत सरकार को नहीं पड़ती. इसके अलावा यहां पर उड़ी हमले में शहीद देश के 18 वीर सपूतों को श्रद्धांजलि भी दी जा रही है.

जय मां


चुनाव यात्रा- 3: जोर है और जोर रहेगा

बस यात्रा भी चुनाव कवरेज में अहम रही. मुजफ्फरपुर से समस्तीपुर जाने के दौरान दो एक बस बदलनी पड़ी. मुजफ्फरपुर की सीमा तक एक बसे ने ले जाकर उतार दिया. बस में इतनी भीड़ कुछ कहते नहीं बन रहा था किसी तरह बोनट पर जगह मिली और यात्र शुरू हुई. बस के आगे बढ़ते ही चुनाव पर चर्चा शुरू समीकरण बनने और बिगड़ने की बात होने लगी. एक मास्टर साहब कहने लगे, आप लोग जितना गुड़ा-भाग लगा लीजिये. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का एक दौरा होगा, रुख बदल जायेगा. मास्टर साहब के इतना बोलते ही एक महिला शिक्षिका ने कहा, 2014 बीत गया है. ये लोकसभा नहीं विधानसभा का चुनाव है. कहां हैं आप. क्या हुआ है, पिछले 17 महीने में आप बतायेंगे. दाल का क्या दाम है? सब्जी किस भाव में मिल रही है? तेल का दाम कहां जा रहा है? किसान कैसे परेशान हो रहा है? कहां पर सुधार हुआ है?
सवालों की झड़ी के बीच बस में सवारियों का जोर भी बढ़ता जा रहा था. गेट पर तीन-चार लोग लटके हुये थे, जिनके बैग घूमते-फिरते हमारे पास आ गये और उन्हें संभालने के जिम्मेवारी हमको मिल गयी, क्योंकि हम बोनट के पास थे. खलासी ने कहा कि अभी धरिये, जब उतरने लगेंगे, तो बढ़ा दीजियेगा. बस में हम नये थे, बाकी लगभग सब लोग एक-दूसरे के परिचित थे, जिनका लगभग रोज इसी बस से आना जाना होता था, क्योंकि बस स्कूल टाइम से जा रही है. मुङो भी समस्तीपुर पहुंचने की जल्दी थी, क्योंकि तत्कालीन जल संसाधन मंत्री विजय चौधरी के क्षेत्र सरायरंजन को देखने की ललक थी, जहां को लेकर तमाम तरह के कयास लगाये जा रहे थे.
इधर, शिक्षिका के सवालों से तिलमिलाए मास्टर जी कहने लगे ऐसे थोड़े हो जाता है, समय लगता है. इतना पुराना रोग है. ऐसे ठीक हो जायेगा. काम हो रहा है, कुछ साल लगेंगे सुधार में, तब असर दिखेगा. एतना जल्दी नतीजा पर नहीं पहुंचना चाहिये. अभी कुछ समय दीजिये. बताइये ना कि जब से भाजपा से गंठबंधन टूटा है, बिहार का क्या हाल हुआ है? यहां की बात काहे नहीं करती हैं? यहां का भी तो देखना होगा, इसको ऐसे थोड़े छोड़ा जा सकता है. यह तो देखना पड़ेगा और जो आप कह रही हैं ना, देखियेगा, जोर रहा है और जोर रहेगा.
जारी..

शुक्रवार, 7 अक्टूबर 2016

सर, हम तो अपनों के साथ हैं..ये कुछ भी कहें

चुनाव यात्रा के दौरान गांव-गली, खेत-खलिहान में जाने का मौका मिला. इस दौरान मुजफ्फरपुर के सकरा इलाके में पहुंचा, तो वहां की सड़कों पर किसी तरह की हलचल नहीं दिख रही थी. प्रत्याशियों के चुनाव कार्यालय के पास लाउडस्पीकरों से ही चुनाव के माहौल का एहसास हो रहा था और कहीं पर कोई सुगबुगाहट नहीं दिख रही थी. खेतों में किसान काम कर रहे थे.
सकरा इलाके में बैगन चौक है. मैंने पहली बार किसी सब्जी के नाम पर किसी चौक का नाम सुना, तो सुखद आश्चर्य हुआ था. यहां मैं पहले भी आ चुका हूं, तब बताया गया था कि यहां बैगन एक-दो रुपये किलो मिलता है, जो बाजार में पहुंचते-पहुंचते दस रुपये तक पहुंच जाता है. यानी तीस किलोमीटर की यात्र तय करने पर जो सब्जी दो रुपये किलो थी, वो दस रुपये किलो हो गयी. यह अंतर आखिर किसकी जेब में जाता है, क्योंकि किसान को तो वही दो रुपये मिले, जिसमें उसने खेत से बैगन को बेचा, जाहिर बता है कि इसमें बिचौलियों को बड़ा हिस्सा मिलता है. इसी को कम करने की बात दशकों से हो रही है, लेकिन ये हो नहीं पा रहा है. अब भी बदस्तूर जारी है.
बैगन चौक के पास ही एक पिता-पुत्र खेत से सब्जी निकालने में जुटे थे. दस बोरे सब्जी इन्होंने तैयार कर रखी थी. गाड़ी का इंतजार हो रहा था कि वो आये और उसे शहर की बाजार भेज दिया जाये. इसी बीच दोनों से बात शुरू हुई, तो कहने लगे कि पास में एक स्वयं सेवी संगठन का ऑफिस है. वहां पर और लोग हैं, जिनसे हम बात कर सकते हैं. हम पिता-पुत्र के साथ हो लिये और स्वयं सेवी संगठन के दफ्तर में पहुंच गये, जहां पहले से पांच-सात लोग बैठे थे. चुनाव पर चर्चा शुरू हुई, तो किसान केंद्र से लेकर राज्य सरकार के कामकाज पर बात होने लगी. इसी बीच किसान की ओर से कहा गया कि हमारे लिए कौन है. कहा गया था कि लागत का डेढ़ गुना मिलेगा, लेकिन अभी कुछ हुआ है क्या? इस पर एनजीओ से जुड़े लोगों ने प्रतिवाद किया और कहने लगे कि समय देना चाहिये, ये कोई जादू की छड़ी नहीं, जो तुरंत हो जायेगा. इसमें समय लगेगा. सरकार सिस्टम को सुधारने में लगी है, आनेवाले कुछ सालों में इसका जमीन पर असर दिखेगा. इस पर बहस शुरू हुई, तो बात आगे बढ़ती जा रही थी. इसी बीच किसान के बेटे ने धीरे से कहा कि बात चाहे, जो हो हम तो अपनी जाति के साथ हैं. आप लोग कहते रहिये, हम तो वोट उसी को देंगे, जो हमारी जाति का है.
किसान के बेटे की ये बात चुनाव की बहस की उस तासीर से हट कर थी, जिस पर बात हो रही थी, क्योंकि लोग आदर्श स्थिति की बात कर रहे थे, लेकिन उस युवक ने मन की बात कह दी, जो कहीं तक सामाजिक ढाचे में फिट बैठती थी. मुङो भी इस समय तक इसका आभास हो चुका था कि चुनाव किस दिशा में जानेवाला है, क्योंकि इस तरह की बातें पहले भी सामने आती रही हैं और जमीनी हकीकत भी मुङो यही लगती है.
जारी 

हाइकोर्ट के फैसले पर सुप्रीम कोर्ट की रोक

बिहार में शराबबंदी कानून को लेकर पटना हाइकोर्ट ने जो फैसला दिया था. सुप्रीम कोर्ट ने उस पर रोक लगा दी है. हाइकोर्ट ने कानून को रद्द करने का फैसला सुनाया था, उसी दिन बिहार सरकार ने इसको सुप्रीम कोर्ट में चुनौती देने की बात कही थी. इसके बाद बिहार सरकार ने मामले पर सुप्रीम कोर्ट का रुख किया था.
आज सुनवाई करते हुये सुप्रीम कोर्ट ने हाइकोर्ट के फैसले पर रोक लगा दी है. इसे बिहार सरकार के लिए बड़ी राहत के रूप में देखा जा रहा है, क्योंकि मुख्यमंत्री नीतीश कुमार का कहना है कि वो हर हाल में शराबबंदी के पक्ष में हैं. इसको लेकर हर तरह का कदम उठाने को तैयार हैं. प्रदेश में शराबबंदी का नया कानून दो अक्तूबर से लागू हो गया है, जो पहले के कानून से ज्यादा कड़ा है. इस कानून को लेकर सवाल उठाये गये थे, जिस पर मुख्यमंत्री का कहना है कि वो विपक्ष की ओर से आनेवाले संसोधनों पर बात करने के लिए तैयार हैं. मुख्यमंत्री ने इसको लेकर कुछ सवाल भी उठाये थे, जिन पर विपक्ष से सुझाव मांगे थे. अब विपक्ष का काम है कि वो सरकार के सामने अपने सुझाव रखे, ताकि उसकी जो आशंकाएं हैं, उन्हें दूर करने की दिशा में काम हो सके.
पांच अप्रैल को जब प्रदेश में पूर्ण शराबबंदी लागू हुई थी. उस समय विपक्ष ने मुख्यमंत्री के कदम की सराहना की थी. उसने मुख्यमंत्री नीतीश कुमार को इसके लिए बधाई भी दी थी. प्रदेश में लगभग हर तरफ से शराबबंदी का स्वागत हुआ था. इसके नतीजे भी छह माह में आने लगे हैं. कितने परिवारों में खुशियां फिर से लौट आयी हैं.

गुरुवार, 6 अक्टूबर 2016

चुनाव यात्रा और छोटी लाइन का सफर

2015 में इन दिनों बिहार में विधानसभा चुनाव के प्रचार की धूम थी. कयासों का दौर जारी था. इस बीच ग्राउंड रिपोर्ट के लिए मैं भी जिलों का दौरा कर रहा था. कभी बस पर सवार होकर जाता, तो कभी लोकल ट्रेन का सफर. इस बीच सबसे यादगार सफर झंझारपुर से सकरी तक छोटी लाइन की ट्रेन का रहा. लगभग 17 किलोमीटर की दूरी छोटी लाइन की ट्रेन ने दो घंटे में तय किया. इस दौरान शाम हुई, तो ट्रेन में घुप्प अंधेरा छा गया, लेकिन ट्रेन में चहल-पहल कम नहीं थी. हमने जिन परिवारों से बात की थी, उनमें एक ऐसा परिवार था, जो गंगा स्नान के लिए जा रहा था. उसके घर में किसी का निधन हुआ था. द्वादसा के बाद पूरा परिवार गंगा स्नान के सफर पर था. उन लोगों ने जमीनी हकीकत बयान की थी.
झंझारपुर से ट्रेन खुलने के कुछ देर बाद ही वो पुल भी देखने को मिला, जिसको पहले तस्वीरों में देखता था, जहां पर रेल पुल पर वाहन भी दौड़ते हैं, लोग पैदल चलते हैं. जैसे ही ट्रेन आती वाहन रुक जाते. ऐसे ही मेरी भी ट्रेन ने इस पुल को पास किया. पुल के एक छोर से दूसरे छोर पर ट्रेन पहुंची, तो वहां पर वाहनों की लाइन लग गयी थी. पुल क्रास होते ही वाहन पुल पर दौड़ने लगे. मुङो इसका थोड़ा नजारा देखने को मिला, क्योंकि ट्रेन के डिब्बे से ज्यादा नहीं दिख रहा था. हमारे पास ही दो भाई बैठे थे, जो झंझारपुर में पढ़ाई करते थे. वहां हास्टल में रहते थे. गांव जा रहे थे. दोनों के पास कॉपी-किताबों से भरा बैग था. इनके पित झंझारपुर में ही एसडीओ ऑफिस में काम करते हैं, उन्होंने डेरा (घर) भी झंझारपुर में बना रखा था, लेकिन दोनों बच्चों को पढ़ने के लिए हॉस्टल में डाल रखा था, ताकि उनकी पढ़ाई बाधित नहीं हो.
झंझारपुर स्टेशन से सकरी की यात्र कई मामलों में अविस्मरणीय रही. झंझारपुर स्टेशन इस रेलखंड के प्रमुख स्टेशनों में है, लेकिन यहां ज्यादा भीड़भाड़ नहीं है. स्टेशन के बाहर परंपरागत रूप से नाई जमीन पर अपनी दुकान सजाये बैठे हैं, जहां ईंट पर बैठ कर बाल और दाढ़ी बनायी जाती है. पास में कुछ रिक्शे हैं. स्टेशन परिसर में सब्जी की कुछ दुकानें भी दिख जायेंगी. पूरा गंवई नजारा, लेकिन पास की बाजार में भीड़ रहती है. झंझारपुर को कोसी क्षेत्र का प्रवेश द्वार भी कहा जाता है, यहां की बाजार देखने से पुरानी लगती है. दूर-दूर से लोग यहां खरीदारी को आते हैं. आवागमन का ज्यादा साधन यहां नहीं है या तो अपनी सवारी या फिर छोटी लाइन की ट्रेन का सफर.
बाढ़ का असर भी इस इलाके पर बहुत जल्दी होता है. जल्दी कोसी और कमला बलान का पानी यहां तबाही मचाना शुरू कर देता है. ट्रेन परिचालन बंद हो जाता है. इस सबसे अलग पिछले विधानसभा चुनाव में माहौल की बात करें, तो मुङो यहीं पर रेल यात्र के दौरान ये लगा था कि माहगंठबंधन की सरकार बन जायेगी. एनडीए गंठबंधन की चर्चा भले ही हो, लेकिन उसकी सरकार बननेवाली नहीं है. इस बात की चर्चा जब मैंने अपने परचितों से की, तो उन्होंने परिहास किया, लेकिन जब परिणाम आया, तो सभी स्तब्ध थे. मुङो अपने अनुमान की पुष्टि होते देख कर अच्छा लग रहा था, क्योंकि जनता का जो मूड था, वो साफ तौर पर दिखायी दे रहा था, लेकिन उसे समझने के लिए कोई तैयार नहीं था.
..जारी.

बुधवार, 5 अक्टूबर 2016

ये भी कोई बात है महराज

देखो, आपके दल के एक-दो नेता जो बात कर रहे हैं. वो देश के लिए ठीक नहीं है. ये भी कोई बात है महराज, जो मन में अये, वो बोलने लगे. सेना की कार्रवाई का सबूत मांग रहे हैं. आखिर हो क्या गया है उनको? आप लोग भी है विरोध नहीं करते. शहर के नुक्कड़ पर ये कहते हुये सत्तापक्ष के एक नेता ने विपक्ष के साथी पर तंज कसा, तो विपक्षी दल का नेता उन्हें देखता रह गया. बिना कुछ बोले बातें सुनता रहा. कुछ देर के बाद जब नहीं रहा गया, तो कहने लगा कि हमारे नेता ने तो पहले ही कार्रवाई की सराहना की है. आप कहां की बात कर रहे हैं. हम तो सरकार के साथ हैं, देश के साथ हैं, जो होगा हम तो देश की ही बात करेंगे. हमारे जवानों ने ऐसा दर्द दिया है कि पड़ोसी को कुछ कहते नहीं बन रहा है. अब संयुक्त अधिवेशन बुला रहा है. अगर सजिर्कल स्ट्राइक नहीं हुआ है, तो पड़ोसी को इतनी मिर्ची क्यों लगी है. उसको चुप रहना चाहिये, दुनिया समझ जायेगी, लेकिन इस बार घाव गंभीर है, जो रह-रह कर दर्द दे रहा है. उससे रहा नहीं जा रहा है.
पक्ष के नेताओं के बीच ये बात चल ही रही थी, तभी आसपास कुछ लोग और जुट गये और कहने लगे कि अब तो चश्मदीदों तक के बयान अखबार में आ गये हैं. कैसे सजिर्कल स्ट्राइक हुआ है, वो आंखों देखी हाल बता रहे हैं. कह रहे हैं कि स्ट्राइक के अगले दिन सुबह के समय ट्रक से शव ढोये गये हैं. कैसे और किस जगह पर सेना ने कार्रवाई की है. इसके बारे में भी बता रहे हैं, अब क्या सबूत चाहिये? इससे भी बड़ी बात हो सकती है क्या? सब तो साफ हो गया है कि गाल बजाने से कुछ थोड़े होनेवाला है. हम लोग सही ट्रैक पर जा रहे हैं. ऐसे ही जवाब पहले भी दिया जाना चाहिये थे, तब इतनी हिम्मत नहीं पड़ती. नुक्कड़ की इस बात की तरह पूरे शहर में पड़ोसी देश के साथ रिश्तों में आयी तल्खी पर हर जगह बात हो रही है. सब जगह देश और देशभक्ति का जज्बा दिख रहा है. लोग देश को ऊपर बता कुछ भी कर गुजरने की बात कह रहे हैं. जय हिन्द. 

इतना अविश्वास ठीक नहीं

भारत की ओर से किये गये सजिर्कल स्ट्राइक को लेकर सरकार पर अविश्वास जताना और उससे सबूत मांगने की बात ऐसे हालात में क्या उचित है, जो अभी भारत-पाकिस्तान के बीच बने हुये हैं. उन बड़बोले नेताओं को इसके बारे में समझना चाहिये, देश क्या चाहता है. यहां के लोग क्या चाहते हैं, आखिर ये देश का सवाल है.
गांव में एक कहावत है, जिस पत्तल में खाना, उसी में छेद करना. क्या हमारे देश के कुछ माननीयों के लिए उचित है. भारत सरकार अगर कह रही है, कार्रवाई हुई है, तो भारतीय होने के नाते हमें उस पर विश्वास करना चाहिये. इस मामले में बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार का स्टैंड शुरू से साफ रहा है. उन्होंने पहले ही दिन स्पष्ट कर दिया था कि भले ही केंद्र सरकार के साथ उनके मतभेद हों, लेकिन देश के सवाल पर वह सरकार के साथ हैं और वो लगातार इस बात को दोहराते आ रहे हैं, लेकिन कुछ नेता ऐसे हैं, जो सरकार पर ही सवाल उठा रहे हैं. ऐसा करके वो क्या कहना चाह रहे हैं. अपने देश की सरकार पर सवाल उठा कर क्या वो प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से पाकिस्तान का पक्ष मजबूत करने का काम नहीं कर रहे हैं. इस पर विचार की जरूरत है.
एक शहरी होने के नाते भले ही हमे जानने का अधिकार है कि क्या हो रहा है, लेकिन किस परिस्थिति में हम ये जानने की कोशिश कर रहे हैं. इसके बारे में भी समझना होगा. भारत-पाकिस्तान पड़ोसी हैं. अब से कुछ दशकों पहले एक ही थे, लेकिन बंटवारे के बाद से स्थितियां अलग हो गयीं. हमें जमीनी हकीकत को समझ कर उस पर आगे बढ़ना चाहिये. सोशल साइट्स पर इसको लेकर तमाम तरह की बातें हो रही हैं, लेकिन मेरा भी प्रख्यात अभिनेता नाना पाटकर की तरह यही मानना है कि देश सवरेपरि है. उसके बाद ही कुछ और आता है. कौन क्या कह रहा है, अभी इस पर ध्यान नहीं देना चाहिये. शायद सरकार यही कर रही है. जय हिन्द!

साधना करो, व्यक्तित्व निखर जायेगा


नवरात्र का समय है. मां की साधना में पूरा देश जुटा है. कोई पूरे नवरात्र व्रत है, तो कोई रोज मंदिरों में मां की पूजा के लिए जा रहा है. मां की पूजा का तरीका अलग हो सकता है, लेकिन सभी मां की कृपा चाहते हैं. अपनी साधना से मां को प्रसन्न करना चाहते हैं, ताकि उनकी मनकामना पूरी हो. साधना में शक्ति होती है. ये उन सभी लोगों को पता है, जो मां में विश्वास रखते हैं. मुनव्वर राना का एक शेर है..
मुङो बस इसलिए बहार अच्छी लगती है,
कि ये भी मां की तरह खुशगवाह लगती है.
कहने को ये बात कही जाती है कि सब दिन भगवान के हैं, किसी विशेष दिन पूजा क्या करनी, लेकिन कुछ खास दिन होते हैं, जिन्हें हमारे पूर्वजों ने तय कर रखा है. ये हमे आनेवाले समय के लिए तैयार करते हैं. हाल में ही देश के एक महानगर में जाना हुआ, जहां कॉलेज के साथी से मुलाकात हुई. उनसे फोन पर लगातार बात होती रहती थी. लगभग साल भर पहले की बात है, तब मैंने उनसे साधना की बात की थी. विपश्यना के बारे में बताया था. मुङो एक विपश्यना केंद्र में जाने का मौका मिला था. वहां से शिक्षक से बात करने का मौका मिला था. उनसे काफी चीजें सीखने को मिली थीं. मन था कि दस दिन की विशेष साधना मैं भी करूं, लेकिन कर नहीं सका. इससे पहले विश्वयना के बारे में तब जाना था, जब दिल्ली में काम करता था. वहां हमारे चैनल में वरिष्ठ पद पर काम करनेवाले एक व्यक्ति की भतीजी का यूपीएससी में पहली बार में सेलेक्शन हुआ था.
यूपीएससी में चयनित छात्र से जब मिलने का मौका मिला, तो उन्होंने बताया कि मेरी सफलता का राज साधना में है. मैं विपश्यना करती हूं. यूपीएससी का साक्षात्कार देने के पहले मैं विपश्यना को गयी थी, तब से मन में था. मैं जब ज्यादा परेशान होता हूं, तो स्वामी सत्यानंद के योगनिद्रा का अभ्यास करता हूं. बहुत फायदा होता है, लेकिन बात मित्र की हो रही थी. उन्हें जब मैंने विपश्यना के बारे में बताया तो उन्होंने इंटरनेट पर सर्च करना शुरू किया और जल्द ही मुंबई में जाकर विपश्यना में शामिल हो गये. दस दिन बाद लौटे तो उनकी बोली-बानी बदली हुई थी. उनमें पहले से काफी बदलाव था. कहने लगे कि जीने का मकसद मिल गया है. अब जिंदगी पहले से आसान हो गयी है.
साल भर पूरा हुआ, तो वह फिर से विपश्यना में जाने को तैयार हैं, आज ही उन्होंने दोबारा साधना शुरू की. साधना में जाने से पहले फोन कर कहने लगे कि साधना में बड़ी शक्ति होती है. मुङो लगता है कि हर साल साधना का अभ्यास गुरु के जरिये करना चाहिये. इसी वजह से मैं फिर से साधना पर जा रहा हूं. मुङो लगता है कि इस बार मैं और अच्छा इंसान होकर बाहर निकलूंगा. मेरे मित्र ने जिस तरह से साधना पर विश्वास जताया और दिखाया. उससे मुङो भी लगता है कि उन्हें और बेहतर इंसान होने से कोई रोक नहीं सकता है. ओइम्.

सोमवार, 3 अक्टूबर 2016

हम अपने देखने का नजरिया क्यों नहीं बदलते?

इसे सोच कहें या खराबी. हमारी लोगों की हर चीज में मीन-मेख निकालने की आदत सी हो गयी है. राजनीति तो हम, हर चीज में देखने लगे हैं, लेकिन क्या ये भी सच नहीं है कि राजनीति ही देश को दिशा दे रही है. उसी के आधार पर देश चल रहा है. हम भले ही राजनीतिज्ञों से नफरत करें, लेकिन सच्चई को झुठला सकते हैं क्या?
राजनीति और राजनीतिज्ञों पर टिप्पणी करने से पहले ये सोच लेना जरूरी होगा कि इसमें हमारा योगदान कितना है? हमने कैसे लोगों को आगे बढ़ाया है, जिन पर टिप्पणी करने की जरूरत पड़ रही है. बिहार में शराबबंदी का ऐलान हुआ, तो ज्यादातर लोगों ने इसे ऐतिहासिक बताया. अब जब छह माह पूरे हो चुके हैं, तो इसका बदलाव समाज के उस तबके पर साफ दिख रहा है, जो इससे सबसे ज्यादा प्रभावित था. ये तबका है, समाज के अंतिम पायदान के लोगों का, जो रोज मेहनत मजदूरी करते हैं, तो उन्हें दो जून की रोटी मिलती है. बंदी के बीच हाइकोर्ट का फैसला आया, तो ऐसे लोग सक्रिय हो गये, जो शराबबंदी में राजनीति देख रहे हैं. उन्हें लगा कि अच्छा मौका है, सरकार को घेरा जा सकता है, लेकिन सरकार ने नया कानून दो अक्तूबर से लागू कर दिया है. मुख्यमंत्री नीतीश कुमार संकल्प शक्ति दिखा रहे हैं. वो हर हाल में शराबबंदी के पक्ष में हैं. हाइकोर्ट के फैसले के खिलाफ सरकार सुप्रीम कोर्ट में चली गयी है.
बात हो रही है कि किसी पर फैसला थोपना नहीं चाहिये. उसकी मर्जी पर छोड़ना चाहिये कि उसे पीना है या नहीं, लेकिन इससे आगे बढ़ कर हमें उन परिवारों के बारे में क्यों नहीं सोचते, जहां शराब की वजह से चूल्हा जलने तक पर संकट था. वहां क्या राजनीति हो सकती है. कोई व्यक्ति दिन भर काम करता है. शाम को घर आते समय दिन भर की कमाई को पीने में गवां देता है. घर आकर पत्नी से खाना मांगता है. पत्नी तो कमाने जाती नहीं है, जो खाना लेकर आयेगी. खाना नहीं मिला, तो वो मारपीट पर उतारू हो जाता है. उसके बच्चे किस हालत में हैं. उन्होंने खाना खाया या नहीं. इसकी चिंता उसे नहीं होती है. तर्क-कुतर्क करनेवालों या तो ये चीजें नहीं दिखती हैं या फिर ये जान कर भी अनजान बनने की कोशिशा कर रहे हैं. वो अगर अपने देखने का नजरिया बदल लें, तो बहुत चीजें बदल जायेंगी. तब वो शायद इस स्तर पर विरोध भी नहीं करें.
आंखों देखी
लगभग दो साल पहले शाम के समय टहलने के लिए निकला था. उस दिन मार्निग वॉक नहीं हो पाया था. सो शाम को उसकी भरपाई करने की सोची. शाम के लगभग आठ बजने वाले थे. बूढ़ी गंडक के किनारे बांध पर पहुंचा, तो वहां जोर-जोर से आवाज आ रही थी. लगभग 20 साल का युवक अपनी पत्नी पर गुस्सा उतार रहा था. पत्नी किसी तरह से अंगीठी जलाने की कोशिश कर रही थी, ताकि वो कुछ बना सके. युवक नशे में धुत था. उसे ये नहीं सूझ रहा था कि वो क्या कह रहा है. उसकी सब बातें सुनने के बाद भी पत्नी इस यत्न में लगी थी कि घर में कुछ खाना बन जाये. आसपास के लोग कुछ कहते, तो अजीव से तर्क देकर उन्हें चुप कराने की कोशिश करता और फिर गुस्सा होकर पत्नी को भला-बुरा कहता. शराब बंदी के बाद ऐसे घरों की स्थिति बदली है. अब वहां वो शोर नहीं सुनायी देता, जो पहले था.