शुक्रवार, 16 जून 2017

अब भी अच्छे के लिए खड़े होते हैं लोग

रामू और श्याम काका गांव (कोई भी नाम रख सकते हैं गांव का) में पहुंचे, तो स्कूल पर पहले से लोग जमा थे. सब यह जानने को उत्सुक थे कि आखिर उन्हें क्यों बुलाया गया है. कहीं, सरकार ने दोनों के हाथ से कोई अनुदान तो नहीं भेजा है, जो हम गांव के लोगों के लिए हो. गांव के मुखिया ने सिर्फ इतना कहा था कि विकास के लिए कुछ लोग आयेंगे और बात करेंगे. वह हम लोगों को सुनना है, जैसा कहेंगे, उसके हिसाब से करना है. इससे लोगों को लगा कि जब हमारा विकास होगा, तभी गांव का विकास होगा ना? यही समझ के उन्हें लगा कि जो लोग बाहर से आ रहे हैं. वह कोई ग्रांट लेकर आायेंगे. इसी उम्मीद में बड़ी संख्या में गांव के लोग जमा हुये थे. कुर्सियां लगी थीं. कुछ महिलाएं स्कूल में जमा थीं. कुछ गांव के कई दरवाजों पर झुंड बनाकर आपस में बातें कर रही थीं. सबकी बात के केंद्र में गांव में आनेवाले लोग ही थे.
उम्मीदों के बीच ग्रामीणों के बीच जब रामू और श्याम काका पहुंचे, तो जल्दी से जल्दी बैठक शुरू करने का उतावलापन सबमें दिखने लगा. कुर्सियों पर विराजमान होते ही गांव के मुखिया कहने लगे कि क्या एजेंडा है? हम लोगों को क्या काम करना है? कैसे विकास करना है? क्या प्रोजेक्ट है, आप लोगों का? क्या करना है आप लोगों को? हम सब जानना चाहते हैं. मुखिया का उतावलापन देख कर रामू व श्याम काका को पूरा माजरा समझने में देर नहीं लगी. दोनों पसोपेश में थे, लेकिन जल्दी ही रामू ने तरकीब निकाली. वह नहीं चाहता था कि ग्रामीणों को उसकी बातों से किसी तरह का झटका लगे. उसने नीति व नियम की बातें करनी शुरू कर दीं. त्रेता से लेकर महाभारतकाल और आधुनिककाल तक. सब बताने लगा और कहने लगा कि सब जब मिल कर काम करते हैं, तभी हम सफल होते हैं. आप सफल क्यों नहीं हैं? आपके गांव में सुविधाएं आजादी के इतने सालों के बाद भी क्यों नहीं पहुंची हैं? बिजली नहीं आयी है? रोड पास होने के बाद भी नहीं बन पायी है, क्या कभी इस पर विचार किया है?
रामू की बातों से कुछ ही देर में गांव का माहौल पूरी तरह से बदल गया. सब लोगों को एहसास होने लगा कि हम सब अबतक ऐसे क्यों हैं? क्यों हमने मिल कर प्रयास नहीं किया गांव को बदलने का? चुनाव से लेकर हर समय हम लोग जनप्रतिनिधियों के भरोसे क्यों रहते हैं? जिन जनप्रतिनिधियों (सबको नहीं) को हम कोसते हैं? उन्हीं से विकास की उम्मीद क्यों लगाते हैं? क्यों नहीं हम लोग खुद मिल कर अपने गांव की तस्वीर बदलने की दिशा में काम करें. यह बातें गांव के मुखिया के साथ विभिन्न लोगों के मन में चल रही थीं. इसी बीच रामू का भाषण भी शुरू हुआ और उसने शुरू में ही साफ कर दिया कि हम यहां कोई चमत्कार करने नहीं आये हैं. हम आप लोगों के सहयोग से काम करने के लिए आये हैं. आप जानते हैं कि बनने में समय लगता है, लेकिन बिगाड़ कुछ ही देर में हो जाता है.
रामू जिस तरह से अपनी बातें रख रहा था. गांव वालों को उसकी बात खुद के करीब लग रही थी. वह समझ रहे थे कि गलती कहां हुई है और वह शहर के पास का गांव होने के बाद भी पिछड़े हैं. क्यों उनके गांव में अभी तक बिजली-बत्ती नहीं लग पायी है, जब रामू ने अपनी बात शुरू की थी, तो उस समय लोगों के कई सवाल थे, जो उनसे पूछना चाहते थे. शुरुआत भी हुई, लेकिन रामू ने बड़ी नम्रता से अपनी बात पूरी होने तक इंतजार करने को कहा, जब उसकी बात पूरी हुई, तो किसी के मन में कोई सवाल नहीं था. सवालों की जगह एक संकल्प ने ले ली थी कि अब अपने गांव का विकास किसी भी कीमत पर करना है. इसके लिए हम सबको एक होकर खड़े होना है. आपस का भेद मिटाकर सब एक हो गये हैं. अब रामू और श्याम चाचा के सपने को साकार होने से कोई रोक सकेगा क्या?

शनिवार, 10 जून 2017

मुजफ्फरपुर नगर निगम- जिम्मेवारी निभाने की बारी

मुजफ्फरपुर के नये मेयर और डिप्टी मेयर का चुनाव हो चुका है. पूरी प्रक्रिया के तहत दोनों प्रतिनिधियों को चुनाव हुआ है, जिसमें ये उम्मीद शामिल है कि शहर का विकास होगा. यहां के लोगों की कठिनाइयां कम होंगी. जीवन सरल और सुगम होगा. नगर में सरकार का एहसास होगा, चंद लोगों की मनमानी की जगह सबकी सुनी जायेगी. वक्त भी यही कह रहा है. चुनाव के बाद पहला जिस तरह के बीता है. वह बहुत आशाओं और उमंगों से भरा है शहर के लोगों के लिए. मैं तो शहर से दूर हूं, लेकिन वहां की धड़कनों को महसूस करने की कोशिश कर रहा हूं.
मेरा ये शुरू से मानना रहा है कि आलोचना बहुत आसान काम है. हम लोग जिस पेशे में हैं, अगर उसमें किसी की तारीफ लिखी जाती है, तो आरोपों का दौर शुरू हो जाता है. लोग शंका की निगाह से देखने लगते हैं, लेकिन बात अपने शहर की है, तो लोग चाहे जिस निगाह से देखें, हम उम्मीद तो लगा ही सकते हैं. अच्छा होने का. मैं ये देखता हूं कि पिछले पांच साल के दौरान काम हुये हैं, लेकिन उनमें तालमेल का अभाव रहा है, जैसे शहर में बननेवाले नालों को लेकर, अगर नये बने नालों से शहर के पानी का प्रवाह रुकता है, तो उंगली, तो नगर निगम पर ही उठेगी ना. नालों के स्लैब जिस तरह से बनने के साथ टूटने लगे हैं, वह भी संदेह खड़ा करते हैं. यह शहर के विकास की मुख्य चीजें हैं, जिन पर ध्यान देने की जरूरत है.
ट्रैफिक सिस्टम में सुधार और पार्किग की व्यवस्था, शहर की मुख्य परेशानियों में हैं. इनको लेकर प्लान की बात सुनते हुये दशकों बीत गये हैं. काम करने की जरूरत है, ताकि पार्किग बन सके और सड़कों के किनारे अतिक्रमण की वजह से लगनेवाले जाम को काबू में किया जा सके. यह काम कठिन है, लेकिन असंभव नहीं. मुङो लगता है कि नगर सरकार इस काम को करेगी. ऐसे ही बदलते समय के साथ तमाम तरह की सुविधाओं का ऑनलाइन होना. यह भी सबसे जरूरी कदमों में एक है, क्योंकि इससे लोगों को घर बैठे सुविधाएं मिलेंगी और निगम की आय में भी इजाफा होगा. स्मार्ट सिटी को लेकर बहुत सी बातें होती रही हैं. इसलिए इस पर ज्यादा कुछ नहीं कहना, केवल काम हो, यह मेरा मानना है. शहर अपने आप स्मार्ट सिटी में आ जायेगा. केवल स्मार्ट सिटी में शामिल होने के लिए खुद को बदलना हमें संभव नहीं लगता है, लेकिन बदलाव को अगर हम आदत में शुमार कर लेंगे, तो अपने आप चीजें बदल जायेंगी.
उमंगो, आशाएं और उम्मीदों के साथ नयी नगर सरकार इन सब कामों को करेगी. कचड़ा निस्तारण का काम तेजी से होगा, ताकि शहर के आसपास के इलाकों में कूड़ा डंपिंग नहीं करनी पड़े और इससे भी ज्यादा डंप कूड़े को फूंकना नहीं पड़े, तो अच्छा रहेगा. पॉलीथीन मुक्त समाज का निर्माण भी हमारी नयी नगर सरकार की प्राथमिकता में होना चाहिये. इससे पहले की नगर सरकार ने शहर में पॉलीथीन को बैन किया था, लेकिन उसे लागू नहीं कराया जा सका. सिर्फ कागजों तक यह पहल सीमित रह गयी, लेकिन अब इसे सरजमीं पर उतारे जाने की जरूरत है. शहर के अंदर जितने भी तालाब हैं, उनका जीर्णोद्धार हो, जिससे मवेशियों व पक्षियों को पीने का पानी मिल सके.
अंत में एक और उम्मीद. शहर की जान सिंकदरपुर मन का स्वरूप बरकरार रहे. यह भी हम लोगों की प्राथमिकता में होना चाहिये. मैं पिछले पांच साल में लगातार इसका स्वरूप बदलता देख रहा हूं, जिससे दुख होता है. प्रशासनिक अधिकारी कागजों पर योजना बनाते हैं, लेकिन जमीन पर लगातार निर्माण हो रहे हैं, जिससे मन का रूप विद्रूप हो रहा है. इसको देखे जाने की जरूरत है. यह कैसे होगा, यह तो प्रशासन और निगम को तय करना है. मुङो लगता है कि यह सब ऐसे मुद्दे हैं, जिनको हम हल कर सकते हैं. इसके लिए अपने शहर और उसकी चीजों के प्रति लोगों में लगाव का भाव पैदा करना होगा. उन चीजों पर लोगों को गर्व करना सीखाना होगा. जैसे मुजफ्फरपुर का नाम आते ही हम शाही लीची की बात करने लगते हैं. वैसे ही शहर की अन्य प्रमुख चीजों को अपनी पहचान से जोड़ना होगा, तब जाकर शहर का भला हो पायेगा. ऐसा मेरा मानना है. इसके लिए अभियान की जरूरत है, क्योंकि मन बदलेगा, तो सब चीजें बदल जायेंगी.

बुधवार, 31 मई 2017

पार्षदों की तीर्थयात्रा का मतलब?

मुजफ्फरपुर नगर निगम में जीते दो दर्जन वार्ड पार्षद मेयर चुनाव से पहले तीर्थयात्रा पर चले गये हैं. इनकी यात्र का नाम तीर्थ है, लेकिन सुनने में आया है कि हिल स्टेशन की सैर पर हैं. यह पहली बार नहीं है, जब चुनाव जीतने के बाद वार्ड पार्षद तीर्थयात्रा पर गये हैं. पहले भी जाते रहे हैं और जिस तरह से मिजाज दिख रहा है. उससे लगता है अगर कोई बड़ा और कड़ा सुधार नहीं हुआ, तो आगे के चुनावों में भी ऐेसा होता रहेगा.
चुनाव की अधिसूचना जारी होने से पहले ही संभावित प्रत्याशी लोगों से संपर्क में जुट गये थे. चुनाव की घोषणा के बाद यह और बढ़ गया, जब मतदान की तारीख नजदीक आयी, तो कैसेट के जरिये हमदर्दी जुटाने लगे. आठ सौ ठेलों के जरिये पूरे शहर को मथ दिया गया. कहा जाता था कि हम ही सबसे हितैषी हैं, जो चुनाव जीतने के बाद आपके काम आयेंगे. आपके मुहल्ले की सड़क बनवायेंगे. नाली साफ करायेंगे. आपके सुख-दुख में खड़े रहेंगे. आपके बीच में रहेंगे. यह सिलसिला मतदान के दिन तक परवान पर रहा, लेकिन मतदान पूरा होते हैं. गुजरा गवाही और लौटा बराती..वाली कहावत सही साबित होने लगी, जो प्रत्याशी मोबाइल के जरिये अपनी खूबियों के लेकर प्रकट हो रहे थे. उनमें से ज्यादातर ने मुंह मोड़ लिया. रिजल्ट के दिन समर्थकों के साथ गये. काउंटिंग सेंटर पर फोटो खिचाई और फिर अंतरध्यान हो गये. यह स्थिति सभी पार्षदों की नहीं है, लेकिन ज्यादातर के मामले में यही सामने आया. रिजल्ट निकलने के अगले दिन से ही तरह-तरह की अफवाहें जोर पकड़ने लगीं.
कोई कहने लगा कि वहां काउंटर खुला है, तो किसी का कहना था कि नये लोग निगम की सरकार बनायेंगे. इन्हीं के बीच तीन दिन के अंदर ही बहुमत का दावा होने लगा. एक-दूसरे की जासूसी का भी लुत्फ कथित किंगमेकर उठाने लगे. कहने लगे कि हमें जानकारी है, विरोधी खेमे में क्या मंथन चल रहा है. हमने उसकी काट निकाल ली है. हम किसी भी कीमत पर अपने प्रत्याशी को जिता कर रहेंगे. इन दावों के बीच शहर में ऐसी बारिश हुई कि चुनाव प्रचार के दौरान प्रत्याशियों के किये गये सब दावे धुलते दिखे, लेकिन दावे करनेवाले ज्यादातर प्रत्याशी लोगों के बीच से गायब थे. अब वो समर्थक भी नहीं दिख रहे थे, जो चुनाव के दौरान अपने नेता की दुहाई दे रहे थे. मौसम के मुताबिक ये लोग फिर से अपने स्थिति में आ गये हैं. शायद अगला कोई चुनाव आये, तो ये समर्थक भी फिर से सक्रिय हों. अभी फिलहाल शहर में जिन लोगों को सक्रिय नहीं होना चाहिये. उन्हीं की चर्चा हो रही है, जिन लोगों के लिए सक्रिय हैं. वह तीर्थयात्र पर हैं. गहमा-गहमी तो चलती रहेगी, लेकिन नौ जून को ज्यादा बढ़ जायेगी, क्योंकि उस दिन किसी एक का दावा गलत निकलेगा, क्योंकि होना एक ही मेयर है. अगर तीन-तीन मेयर का चयन किया जाना होता, तो शायद सबको रेवड़ी मिल जाती, लेकिन ऐेसा नहीं हैं. हालांकि रिजल्ट आने के बाद से समय खूब है चुनाव के बीच. इसका लुत्फ जीते हुये कई वार्ड पार्षद उठा रहे हैं, जो नहीं उठा पा रहे, उनमें से कई बाहर जाने की इच्छा रखते हैं. ऐसा सुन रहा हूं. 

सोमवार, 29 मई 2017

रिजल्ट पड़ाव है, जिंदगी नहीं

दो दिन पहले से ही सीबीएसइ 12वीं के रिजल्ट की चर्चा चल रही थी. रविवार की सुबह रिजल्ट आया. पता चला कि बिहार का रिजल्ट ज्यादा अच्छा नहीं है. झारखंड से हम पीछे हैं. इस पर मन में उथल-पुथल चल ही रही थी. इसी बीच फोन बजा और दूसरी तरफ ऑफिस के साथी थे. कहने लगे कि मोतिहारी से दुखद खबर आयी है. तुरकौलिया के प्रखंड प्रमुख से पोते सचिन ने खुद को गोली मार ली है. वह 12वीं में फेल हो गया था. पिता के लाइसेंसी रिवाल्वर से खुद को गोली मारी. गंभीर हालत में पटना रेफर किया गया, जहां इलाज के दौरान उसकी मौत हो गयी.
17 साल का सचिन दो साल से कोटा में इंजीनियरिंग की तैयारी कर रहा था. मन में ये बात बात आने लगी कि सचिन ने आखिर जान क्यों दी? उसके अंदर कोई न कोई विशेषता तो रही होगी, जिस दिशा में वह आगे बढ़ सकता है, क्योंकि रिजल्ट महज एक पड़ाव है. वह जिंदगी नहीं है, लेकिन हम लोग रिजल्ट को ही सब कुछ समझ बैठते हैं. इसमें फर्क किये जाने की जरूरत है. अभिभावक अब समझने भी लगे हैं, लेकिन शायद हमारे-आपके समझने और समझाने में कोई कमी रही होगी, जिससे ऐसी घटना घटी है.
ऐसी घटनाएं पहले भी घटी हैं, जिनके बाद ही इस तरह के सवाल पैदा हुये और उन पर काम होना शुरू हुआ, लेकिन अभी शायद पूरा काम नहीं हो सका. इसी वजह से हमारे-आपके आंगन के फूल खिलने से पहले ही मुरझा रहे हैं. इस पर गंभीरता से ध्यान देने की जरूरत है. हमें खुद और आसपास के लोगों को समझने-समझाने की जरूरत है. जिंदगी एक बार मिलती है. इम्तिहान और उसका रिजल्ट, तो बार-बार आता है. हर सुबह के साथ नया दिन इम्तिहान के ही समान है. इसलिए रिजल्ट से बहुत ज्यादा फर्क नहीं पड़ता है.
कुछ साल पहले कोटा में एक बच्ची ने आत्महत्या कर ली थी. उसने पांच पेज का सुसाइड नोट लिखा था. बहुत ही मार्मिक नोट था वह, जिसमें उसने लिखा था कि वह उम्मीदों को पूरा नहीं कर पा रही है. इस वजह से ऐसा कदम उठा रही है. इस घटना ने पूरे देश को सोचने पर मजबूर किया था. इसके बाद कोटा के डीएम ने एक पत्र लिखा था. उसमें अभिभावकों व छात्रों से अपील की थी. पत्र में उन्होंने बच्ची के सुसाइड नोट का जिक्र किया था. लिखा था कि पांच पेज के नोट में इतनी अच्छी अंगरेजी उस बच्ची ने लिखी थी, जैसी बड़े प्रोफेशनल्स लिखते हैं. कहीं, कोई गलती नहीं थी. यह उस बच्ची के अध्ययन की विशेषता थी. वह अंगरेजी लेखन के क्षेत्र में आगे बढ़ सकती थी.
सचिन की आत्महत्या के बाद से कई तरह से सवाल मन में उठ रहे हैं. रिजल्ट को लेकर आखिर इतनी चिंता क्यों? अगर एक बार में सफल नहीं हुये, तो दुबारा ट्राइ कीजिये और जो आपके मन के करीब हो, उसी क्षेत्र में जाइये, ताकि आप जो काम करते हैं. वह बोझ नहीं लगे. हमारे आसपास जितने भी अभिभावक व बच्चे हैं. उन्हें यह समझने और समझाने की जरूरत है कि उम्मीद का बोझ न बच्चों पर डालें और बच्चे भी उम्मीदों के बोझ के नीचे दबे नहीं. अपनी बात अपने अभिभावकों के सामने रखें, जिससे उसका समाधान निकल सके, ताकि फिर किसी के आंगन का फूल खिलने से पहले ही नहीं मुरझाये.

शुक्रवार, 26 मई 2017

आखिर क्यूं सक्रिय हो जाते हैं किंगमेकर?

अपने प्रदेश में नगर निकाय के चुनाव ज्यादातर स्थानों पर हो चुके हैं, प्रतिनिधियों को जनता ने वोट देकर चुन लिया है, लेकिन इसका सबसे दुखद पहलू यह देखने में आ रहा है, जिन प्रतिनिधियों का चुनाव हुआ है, वह तो मेयर-डिप्टी मेयर बनाने में सक्रिय नहीं हैं, लेकिन ऐसे आका जरूर सक्रिय हो गये हैं, जिन्हें चुनाव के दौरान इससे कोई मतलब नहीं था. अब उन्हीं के इर्द-गिर्द पूरी राजनीति घूम रही है. जनता ने जिन्हें बड़े विश्वास के साथ चुना, उनकी बोलियां लगाये जाने की बातें भी सामने आने लगी हैं. खुफिया विभाग से लेकर प्रशासन तक अलर्ट होने की बात कह रहा है, लेकिन पिछले दो चुनाव से देख रहा हूं. कभी किसी तरह की कार्रवाई नहीं हुई. केवल बयानबाजी तक मामला रह जाता है. वहीं, बोलियां लगानेवालों की बात करें, तो वह खुल कर इसकी बात करते हैं, जिसका असर शहर के विकास के कामों पर भी पड़ता है.
पिछले 72 घंटे से जिस तरह का माहौल मुजफ्फरपुर शहर का बना हुआ है. अगर उसे एक वार्ड पार्षद की जुबानी कहें, तो फोन से फुरसत नहीं है. कभी कोई मेयर पद के लिए ऑफर देने आ जाता है, तो कभी कोई डिप्टी मेयर बनने के लिए समर्थन मांगने पहुंच जाता है. सब लालच दे रहे हैं. यह ऑफर हजारों नहीं, लाखों का है. ईमान का सौदा करने को बोलियां लग रही हैं. दो साल बाद आनेवाले अविश्वास प्रस्ताव की भी दुहाई दी जा रही है, क्या इसी के लिए चुनाव का इतना बड़ा तामझाम किया जाता है कि जीतनेवाले लोगों पर बोलियां लगें. अगर यह सब सही है, तो क्यों नहीं कार्रवाई की जा रही है.
मेयर-डिप्टी मेयर का चुनाव सीधे जनता से कराने की मांग उठी थी. हालांकि उसकी अपनी परेशानियां हैं, लेकिन मुङो लगता है कि अभी जो हालात बने हैं. उसमें वह बेहतर विकल्प हो सकता है. इस तरह की खरीद-फरोख्त तो कम से कम सामने नहीं आती. जनता सीधे मेयर चुन लेती, तो उसकी जवाबदेही भी बढ़ जाती, लेकिन व्यवस्था का दोष ही इसमें ज्यादा नजर आता है. यह स्थिति कैसे बदले. उस पर काम करने का समय है. हालांकि इस हालात के बीच कुछ चुने हुये लोग ऐसे भी हैं, जिन्हें खुद पर भरोसा है और वह पूरे खेल से दूरी बनाये हुये हैं, लेकिन इनकी संख्या इतनी नहीं है कि वह निर्णायक कदम उठा सकें.

सोमवार, 22 मई 2017

जन प्रतिनिधियों से हम क्यों लगायें विकास की उम्मीद?

मुजफ्फरपुर का नाम आने पर तरह-तरह की उपमायें दी जाती हैं. कोई इसे मच्छरपुर कह देता है, तो कोई जाम व अतिक्रमण वाले शहर के नाम से पुकारता है. कोई कहता है कि वहां कोई काम ढंग का नही है. ऐसी बातें सालों से सुनता रहा हूं. यहां के लोग जब भी किसी विकास के काम की बात आती है, तो जन प्रतिनिधियों को दोषी ठहरा देते हैं, लेकिन पांच साल बाद नगर निगम चुनाव में वोट का मौका आया, तो 55 फीसदी लोग ही घरों से निकले. 45 फीसदी लोगों ने वोट नहीं डाला. इससे यह साफ है कि वोटिंग को लेकर 45 फीसदी लोग उदासीन बने रहे. ऐसे में शहर के विकास और यहां की व्यवस्थाओं के बदलने की बात कैसे हो सकती है.
कई बार शहर में जब निगम की राजनीति की चर्चा होती है, तो एक व्यक्ति के वर्चस्व की बात भी सामने आती है. अगले चुनाव में उसे बदलने की बात भी कही जाती है, लेकिन इस चुनाव में जो हुआ, उसने फिर से साबित कर दिया कि लोगों की चुनाव में कोई दिलचस्पी नहीं है? ऐसे में सवाल यह उठता है कि बदलाव कैसे आयेगा? अच्छे प्रत्याशी चुन कर निगम में कैसे पहुंचेंगे. अगर अच्छे प्रत्याशी फिर से हमारा प्रतिनिधित्व नहीं करेंगे, तो हम विकास की उम्मीद कैसे कर सकते हैं? शहर में जिस तरह का बदलाव चाहते हैं, वह कैसे होगा? यह ऐसे सवाल हैं, जिनसे आनेवाले दिनों में दो-चार होना पड़ सकता है. हम फिर से वहीं पर खड़े हैं, जहां पर पहले से थे. ऐसे में शहर को स्मार्ट बनाने की बात हो सकती है क्या?
स्मार्ट सिटी से याद आया. तीन बार इसके लिए प्रपोजल गया, लेकिन एक बार भी अपना शहर इसमें पास नहीं हो पाया. हर बार हम लोगों की भागीदारी में कमी रही. ऐेसा ही हाल अब चुनाव में दिखा. इससे उन शक्तियों को भी झटका लगा है, जो चाहती थीं कि शहर के लोग बड़े पैमाने पर वोट के लिए निकलें और अपने मताधिकार का प्रयोग करें. इसके लिए लगातार अभियान चलाया जा रहा था. उनमें शहर के लोग शामिल भी हो रहे थे और अपनी समस्याएं रख रहे थे. वोट देने की बात भी कर रहे थे, लेकिन जब वोट देने की बात आयी, तो बूथ तक नहीं पहुंचे.

रविवार, 21 मई 2017

फेसबुक-ह्वाट्सएप से नहीं, पढ़ने से आयेगी शायरी

विश्व प्रसिद्ध शायर व गजलकार डॉ नवाज देवबंदी मुजफ्फरपुर आये थे. इस दौरान उन्होंने साहित्य, समाज व राजनीति को लेकर बात की. उन्होंने कहा कि अंतरआत्मा की आवाज पर जो शायरी होती है, वो दीर्घायु होती है. डॉ नवाज देवबंदी से हुई विस्तृत बातचीत के कुछ अंश.
प्रश्न. आज के समाज और साहित्य को कैसे देखते हैं?
उत्तर. राजनीति के रास्ते से साहित्यकार कभी बड़ा नहीं हो सकता. साहित्य का पथ राजनीति के पथ से बहुत बड़ा है. मैं समझता हू साहित्य साधना से बड़ा बना जा सकता है. मैं एक बात कहता हूं, इनकार करने का अपना मजा है, जो इसके मजे को जान जाते हैं, जिंदगी वही जीते हैं. पद के लालच में अत्मसम्मान को दांव पर नहीं लगाना चाहिये, क्योंकि पद हमेशा आदमी को सम्मानित नहीं करते हैं. जिसको सम्मान और आत्मसम्मान कहा जाता है, वो समाज से मिलता है, जो लोग लालची होते हैं. उनके लिए इतिहास के पन्ने कभी सुरक्षित नहीं होते हैं. इतिहास उन्हें ही याद करता है, जिन्होंने बगैर किसी लालच के समाज और देश की सेवा की है.  मेरा एक शेर है.
बादशाहों का इंतजार करें.
इतनी फुरसत कहां फकीरों को.
प्रश्न. आज के दौर में शायरी के क्या मायने हैं?
उत्तर. शायरी एक साधना है और वो मनन चाहती है. जब भी इसमें स्वार्थ की एक भी बूंद पड़ जायेगी, तो ये साधना भंग हो जायेगी. शायरी को इस नजरिये से करता है कि फलां समाज व फला मंच पर पसंद की जायेगी, तो मैं उसे बेइमान मानता हूं. अंतरआत्मा की आवाज पर जो शायरी होती है. उसकी उम्र बहुत बड़ी होती है. दूसरी बात ये है कि शायरी का कमाल ये है कि वो हर धर्म और जाति, हर इलाके व देश के लोगों को प्रभावित करती है. हमारी बदनसीबी है कि कुछ लोग ऐसे हैं, जो किसी खास इलाके में जा रहे हैं, तो वहां के लिए कुछ अलग शेर कहते हैं. किसी देश में जा रहे हैं, तो कुछ और कहते हैं. वो किसी खास धर्म या संप्रदाय के मुशायरे में जा रहे हैं, तो कुछ और शेर सुनाते हैं. हम मानते हैं कि जहां, अलग-अलग शेर कहने पड़ें, उसको शायरी नहीं कहते. शायरी तो ऐसी है कि धार्मिक ग्रंथों की वाणी जैसी होती है, जिसे सब लोग पसंद करते हैं.
प्रश्न. बड़े पैमाने पर नयी शायरी करनेवाले आ रहे हैं?
उत्तर. हम एक उदारण से अपनी बात कहना चाहते हैं, ये जो ताजमहल है, जिसे सारी दुनिया देखने आती है. ये इमारत का कमाल नहीं है. ये शाहजहां और मुमताज के बीच जो मोहब्बत थी, उसका कमाल है. शायरी का भी ऐसा ही है. लोग नयी-नयी इमारतें बना कर ये चाहते हैं कि वो शाहजहां बन जाये, लेकिन वो ऐसा कभी नहीं कर पायेंगे. आप तो अभी पेड़ों की बात कर रहे थे. ये लोग जो भावनाओं को उत्तेजित करनेवाली शायरी सुनाते हैं. ये बिल्कुल यूकेलिस्पटस और पापुलर के पेड़ जैसे हैं. अगर शीशम बनना है, तो इसके लिए एक उम्र चाहिये. अभ्यास चाहिये. इसके लिए भावना और साधना चाहिये. फिर देखिये कैसी शायरी होती है. उसकी क्या कीमत होती है. नयी पीढ़ी यूकेलिस्पटस की तरह बहुत जल्दी अपने आप को ऊंचा उठाना चाहती है, लेकिन ये भूल जाती है कि जमीन में उसकी जड़ नहीं है. हल्की सी हवा और पानी उसे उखाड़ देती है. हमारी नयी नस्ल को शायरी करनी है, तो साधना और इबादत की तरह करनी होगी.
प्रश्न. बजारवाद के दौर में शायरी के सामने क्या कोई संकट देखते हैं?
उत्तर. देखिये, शायरी और कविता समाज का आइना है. जो कुछ समाज में घट रहा है. उसे ये आइना देख रहा है. आपको एक बात बताता हूं, आज के मौजूदा समाज में इतना खराब घट रहा है. कभी-कभी ये शीशा खुद-ब-खुद चटक जाता है. इसमें दरारें पड़ जाती हैं. मैं समझता हूं कि शीशे और आइने की अपनी जिम्मेवारी है. अगर उसे रचनाकार महसूस करे, तो उसकी बहुत जिम्मेवारी है. यही काफी नहीं है कि हम सिर्फ इश्क और मोहब्बत की बात करें. हालांकि गजल का मतलब अपने महबूब से बात करना है. ये अलग बात है कि इस पैग के अंदर ही कोई अच्छी बात की जाये, लेकिन गजल ने अपनी भौगोलिक सीमाएं बहुत बढ़ायी है. आज आप देखते होंगे, सिर्फ प्यार, मोहब्बत व इश्क, इनसे हट कर भी टूटते-बिखरते रिश्तों पर बहुत शायरी हो रही है. भूख-प्यास, नाइंसाफी, सामाकि और राजनीतिक मुद्दों पर बहुत शायरी हो रही है, लेकिन इसके लिए जिस संयम की जरूरत है, वो बहुत कम लोगों के पास है. शायरी विरोध तो हो सकती है, लेकिन गाली नहीं. आज स्टेज पर लोग संयम नहीं रख पाते हैं. मेरा एक शेर है-
देने को तो मैं भी उसे दे सकता हूं गाली.
लेकिन मेरी तहजीब इजाजत नहीं देती.
प्रश्न. आनेवाले वक्त में शायरी को लेकर क्या कोई चिंता है?
उत्तर. देखिये, सबसे बड़ा बदलाव ये आ रहा है कि जो हमारी नयी पीढ़ी, मुशायरे, कवि सम्मेलन, कविता व शायरी में आ रही है. वो बोनलेस है. इससे हमारा मकसद , ये पढ़ कर नहीं आ रही है. ये ह्वाट्सएप और इंटरनेट से आ रही है. अगर शायरी करनी है, तो उसे मीर, गालिब, जिगर, फिराक, हाफिज और नासिर को पढ़ना पड़ेगा, जो लोग पढ़ कर आयेंगे, उनकी बुनियाद मजबूत होगी, लेकिन अभी बैगर नींव की इमारत बनायी जा रही है. सभ्यता और तहजीब अब मंचों से रुकसत हो रही है. हम एक वाकया बताना चाहते हैं, आपके आयोजन में शामिल होने के लिए जब मैं दिल्ली से आ रहा था, तो एयरपोर्ट पर आलोक से मुलाकात हुई, जो आनेवाली पीढ़ी के प्रतिनिधि शायर हैं. हवाई अड्डे पर बड़ी भीड़ थी. वहां जब आलोक श्रीवास्तव हमारे पैर छूने के लिए झुक रहे थे, तो मैं समझ रहा था कि हिन्दुस्तान बड़ा हो रहा है. हमारी परंपरा बड़ी हो रही है. हमारी सभ्यता और कल्चर बड़ा हो रही है.






तथागत अभी कभी नहीं देख पायेंगे वैशाली

किस्त-चार
वैशाली पर बात हो और बुद्ध की चर्चा नहीं हो, तो बात अधूरी लगेगी. बुद्ध और महावीर का इस धरती से गहरा नाता रहा है. अभी वैशाली में जो रौनक दिखती है. उसमें बुद्ध और महावीर को माननेवालों का बड़ा हाथ है. विभिन्न देशों के बौद्ध मठ और मंदिर यहां बने हैं और कुछ बन रहे हैं. महावीर की जन्मस्थली माने जानेवाले स्थान पर भव्य मंदिर का निर्माण भी हो चुका है. इससे इतर रामशरण अग्रवाल जी के साथ उन स्थानों पर जाने को मिलता है, जो बुद्ध से जुड़े रहे हैं. ऐसा ही एक स्थान बुद्ध स्तूप से लगभग एक किलोमीटर दूर है. गांव व खेतों के बीच यह टीला है, जहां से साफ तौर पर बुद्ध स्तूप दिखता है. इस स्थान पर पहुंच कर राम शरण जी ठिठक जाते हैं. कहते हैं कि कम लोगों को ज्ञात हैं कि अंतिम बार बुद्ध इसी रास्ते से वैशाली से प्रस्थान किये थे और इसी जगह पर रुक कर उन्होंने अपने सबसे प्रिय आनंद से कहा था कि अब तथागत दुबारा वैशाली नहीं देख पायेंगे. इसी के बाद उनका परिनिर्वाण हो गया. राम शरण जी के यह कहते ही पूरा दृश्य आंखों के सामने घूम जाता है. पास में गेंहू काट रही महिलाएं व पुरुष आतुर निगाहें से हम लोगों को देखते हैं. उन्हें लगता है कि जैसे हम कोई सरकारी अधिकारी हैं और सव्रे करने के लिए आये हैं, लेकिन वह कुछ कहते नहीं हैं, जब तक हम लोग वहां रहते हैं. वह लोग हमें देखते रहते हैं.
इसके बाद लगभग तीन किलोमीटर दूर हम एक दूसरे गांव में पहुंचते हैं, जहां पर हजारों साल पुराना कुआं है. इसके आसपास दो टीले हैं. जिनकी खुदाई की जानी है. ऐसा माना जाता है कि इनमें इतिहास की तमाम चीजें दफन हैं. कुछ साल पहले एक टीले की खुदाई शुरू की गयी थी, तो उसमें काफी चीजें मिली थीं, लेकिन बाद में खुदाई बंद हो गयी. बताते हैं कि इसकी जांच पुरातत्व विभाग की ओर से की गयी, लेकिन आगे की कार्रवाई नहीं हो सकी. हम कुएं की बात कर रहे थे. सामान्य तौर पर अभी जो कुएं बनाये जाते हैं, उनमें छोटी-छोटी ईंटें लगती हैं, लेकिन रामशरण जी बताते हैं कि बौद्ध काल में बड़ी ईंटें बनायी जाती हैं. कुएं की गोलाई केवल दो ईंटों से ही कवर हो जाती है. ऐसा कहा जाता है कि पानी का रिसाव कम हो और जोड़ कम दिखें. इस वजह से उस समय बड़ी ईंटें कुओं के लिए बनायी जाती थीं. कुआं अभी तक मौजूद है. इसके बारे में यहां के गांव के लोग कम जानते हैं, लेकिन ये लोग बताते हैं कि कुछ साल पहले तक इसका पानी पूरे गांव के लोग पीते थे. इसी के पानी से दाल बनती थी. गांव के लोग विशेष रूप से दाल पकाने के लिए इससे पानी ले जाते थे, लेकिन हैंडपंप लगने के बाद इसका उपयोग बंद हो गया. अब यह कुआं प्रयोग में नहीं है.
गांव के लोग बताते हैं कि ऐसे ही तीन कुएं आसपास थे. पास इनमें से दो समय के साथ खत्म हो गये. एक स्कूल की बाउंड्री पर पड़ा था, जिसमें आसपास के लोगों ने कचरा डालना शुरू किया और वह पूरी तरह से बंद हो गया. दूसरे कुएं के साथ भी कुछ ऐसा ही हुआ, लेकिन इन कुओं में अपना इतिहास दबा है. इसकी जानकारी इन लोगों को नहीं है. सैकड़ों साल पुराने इन कुओं का हमारे पूर्वजों ने किस तरह से बनाया होगा और किस तरह से इनका उपयोग होता रहा है. यह सब आज की पीढ़ी को बताया जाना चाहिये, ताकि उन्हें इतिहास का बोध रहे. हाल के सालों में जो कुएं बंद हुये हैं. उनका भी फिर से जीर्णोद्धार किये जाने की जरूररत है.
जारी..

गुरुवार, 18 मई 2017

सच्चा और अच्छा चुनें, चैन से रहें

मुजफ्फरपुर नगर निगम के चुनाव में अब दो दिन शेष बचे हैं. 21 मई को चुनाव है, उसी दिन नयी नगर सरकार को चुन लिया जायेगा. इस सरकार में कौन लोग शामिल होंगे. कौन हमारे 49 वाडरे का प्रतिनिधित्व करेंगे. यह 23 मई को मतगणना के साथ पता चल जायेगा, लेकिन इससे पहले चुनाव में अपनी जीत को लेकर प्रत्याशी दिन-रात एक किये हैं. चुनाव प्रचार का मुख्य साधन टेंपो (ठेले) बने हुये हैं. मुजफ्फरपुर शहर (निगम क्षेत्र) कोई सौ मीटर ऐसा नहीं होगा, जहां आपको प्रचार का ठेला नहीं मिल जाये. ठेलों पर देशभक्ति के गीत से लेकर वार्ड को चमकाने तक की बात हो रही है. विरोधी पर निशाना भी साध रहे हैं. यह सिलसिला पिछले लगभग 15 दिनों से चल रहा है, जो 19 की शाम पांच बजे पूरा हो जायेगा. उसके बाद 20 को दिन भर प्रत्याशी लोगों से मिलकर अपने पक्ष में प्रचार करने को कहेंगे. यह आखिरी मौका होगा, जब वह वोट मांगेंगे. इसके बाद 21 को सुबह से मतदान शुरू हो जायेगा.
22 को एक तरह से प्रत्याशियों के लिए रेस्ट डे रहेगा, क्योंकि 23 को फिर वोटों की गिनती का दिन होगा. इससे इतर नगर निगम मुजफ्फरपुर की बात करें, तो मेरी समझ से यह शहर के लिए प्रतिनिधि संस्था अभी तक नहीं बन पायी है. इसको लेकर किंगमेकर से लेकर तरह-तरह की उपाधियां प्रचलित हैं. लोग कमरों में बैठ कर शहर की किस्मत लिखते हैं, लेकिन शहर में जो काम होता है, उसमें समन्वय का घोर अभाव दिखता है. अगर निगम क्षेत्र में किसी तरह का काम होता है, तो उसमें निगम को पूरी तरह से शामिल होना चाहिये, लेकिन ऐसा होता नहीं दिखता है. यह अभी की नहीं सालों से यही हालात हैं. मुजफ्फरपुर के प्रमुख चौराहों में शामिल सरैयागंज की बात करें, तो इसकी दुर्दशा किसी से छिपी नहीं है, लेकिन निगम चुनाव में यह मुद्दा नहीं है. हमारी आन-बान और शान का प्रतीक टावर अब अपनी खूबसूरती खो रहा है. टाइल्स उखड़ रही हैं. घड़ी सालों से बंद है. गांधी की प्रतिमा के चारों ओर लगे कांच टूट चुके हैं, लेकिन इनका क्या होगा, कभी कोई बात नहीं करता?
टावर की ओर आनेवाली सड़क की बात करें, तो यह लगभग दो साल पहले बनी है, लेकिन बनने के समय इसमें जो गड्ढे पड़े. वह अभी तक हैं ही, लेकिन कभी कोई विरोध नहीं हुआ. बच्चों के खेलने का पार्क शहर में अभी तक नहीं बन पाया. अपने शहर में शायद ही ऐसा मोहल्ला हो, जहां पार्क हो. नगर आयुक्त आवास के बगल में दो पार्क हैं, लेकिन कोई भी नागरिक उपयोग में नहीं है. ऐेसे में क्या कहा जा सकता है. यहां रजाई धुननेवालों को अड्डा है. उन्हीं के कब्जे में यह सड़क है. पार्किग स्थल को लेकर केवल बात होती है, लेकिन अभी तक किसी तरह का काम नहीं हो सका है. कोई कहता है कि यहां पार्किग बना देंगे. कोई कुछ और कहता है, लेकिन हो कुछ नहीं पाया.
सार्वजनिक शौचालय का अभाव है. पहले कभी जो व्यवस्था हुई. वह समाप्त हो गयी. नयी सुविधा पर बात नहीं होती है. अतिक्रमण का क्या हाल है. यह किसी से छुपा नहीं हुआ है. तीन से पांच फुट सड़क घेरना दुकानदारों का अधिकार जैसा हो गया है. शहर में हर जगह पर यह नजारा देखा जा सकता है. ऐसी तमाम समस्याएं हैं, जो निगम के कार्यक्षेत्र में आती हैं, जिनके समाधान की केवल बात होती है, लेकिन उन पर काम नहीं होता है, जो व्यवस्थाएं बनी हैं. वह भी सही तरीके से नहीं चल रही हैं. यही स्थिति निगम क्षेत्र की बनी हुई है. इन सबसे इतर एक बात और. मुजफ्फरपुर को प्रदेश की सांस्कृतिक राजधानी कहा जाता है, लेकिन यहां के निगम के पास एक भी अपना सांस्कृतिक आयोजन नहीं है और न ही इस तरह का कोई प्रस्ताव ही निगम के पास है, जो पिछले कुछ सालों में मैंने सुना व देखा है. क्या निगम के पास एक बड़ा आयोजन नहीं होना चाहिये. अपने शहर की प्रतिभाओं के लिए. स्मार्ट सिटी में किस तरह का हाल बना यह हम लोग देख चुके हैं. सफाई के सव्रे में हम कहां खड़े हैं. यह भी आइने की तरह साफ है.





अपनों पर विश्वास से वैशाली को मिला था वैभव

किस्त-तीन
वैशाली ऐेसे ही वैभवशालिनी नहीं थी. उसके पीछे सबसे खास वहज थी, जो वहां के लोगों में एकता थी, किसी भी समस्या का समाधान वो लोग मिलजुल कर करते थे. कहते हैं, कि एक मामले का समाधान जब तक सर्वसम्मति से नहीं हो जाता था, तब तक बैठक चलती रहती थी. इसी एका की वजह थी कि दूसरे राज्य इसकी तरफ आंख उठा कर बी देखने की हिम्मत नहीं करते थे. इसमें एक और अहम बात है, जो राम शरण अग्रवाल जी बताते हैं. कहते हैं कि वैशाली के तत्कालीन शासन करनेवालों को अपने लोगों पर बहुत विश्वास था. वह यह नहीं समझते थे कि वैशाली के लोग किसी तरह के अनैतिक काम में संलिप्त हो सकते हैं. इसीलिए अनैतिक कामों की जांच के लिए उस समय आठ स्तरीय व्यवस्था थी. अगर किसी के खिलाफ शिकायत आती थी, तो उसकी जांच आठ स्तर पर की जाती थी और सभी स्तर पर दोषी पाये जाने पर ही व्यक्ति को सजा होती थी. अगर किसी भी स्तर पर हुई जांच में वह निदरेष पाया जाता था, तो जांच वहीं बंद कर दी जाती थी. यानी विश्वास का स्तर क्या था? यह हम सहज की कल्पना कर सकते हैं.
क्या हम आज इस तरह की व्यवस्था नहीं बना सकते? राम शरण जी की बातों को सुनते हुये मेरे दिमाग में यह सवाल चलने लगा, तो लगा कि मेरा मन गलत समय में सही सवाल कर रहा है. इस समाज जिस तरह से समाज पर बजार हावी है. हम सब लोग बजार के हवाले हैं. वैसे में इस तरह के सही प्रश्नों का जबाव बेमानी ही होगा और जो होगा भी उसे हम आदर्शवादी कह सकते हैं. हम उस दौर में जी रहे हैं, जहां एक ऐसा वर्ग बनता जा रहा है, जो लोगों को चरित्र प्रमाण पत्र बांटता चलता है. खुद को नहीं देखता है. वह क्या है? अपने कृत्यों से कहां पहुंचता जा रहा है, लेकिन प्रमाण पत्र का बंडल लेकर घूम रहा है. फेसबुक से लेकर ट्विटर और जितने भी साधन हैं, सब पर सार्टिफिकेट देनेवालों की बाढ़ सी है. अगर कोई अच्छा काम कर रहा है, तो उसे भी बिना जाने-समङो कुछ भी कहे जा रहा है. इसमें ऐसे लोग भी शामिल हैं, जो खुद को तथाकथित बुद्धिजीवी कहते हैं. खैर, मैं किन बातों में लग गया, लेकिन यह सवाल वैशाली घूमते समय मन में आ रहे थे, सो लिख दिये.
वैशाली को लेकर जो बातें राम शरण जी कहते हैं, उन पर सहसा विश्वास होता चला जाता है, तो क्योंकि इनमें किसी तरह का लाग लपेट नहीं है और इतिहास के रूप में ही सही, जो दिखता है. वह अपने आप अद्भुत है. वैशाली स्तूप से लेकर अभिषेक पुस्करिणी तक कुछ जगहें ऐसी हैं, जहां देश-विदेश से आनेवाले पर्यटक जाते हैं. उन्हें देखते-समझते हैं, लेकिन राम शरण जी इनके आसपास बसे गांवों में ले जाते हैं और वहां के स्थलों को दिखाते और बताते हैं, तो लगता है कि अभी अपनी वैशाली के बारे में कितना जानना और समझना बाकी है. सरकार की ओर से इस काम को बड़े पैमाने पर और बेहतर तरीके से किया जाना चाहिये. गांवों के आसपास के जिन खेतों में गेहूं की फसल लहलहा रही है. वहीं, कभी तथागत (बुद्ध) घूमते रहे होंगे और उनसे जुड़ी जो जनश्रुतियां राम शरण जी सुनाते हैं, तो लगता है कि हमारी आंख के सामने घट रहा है.
खेतों-पगडंडियों के बीच बने छोटे-छोटे टीलों की थोड़ी सी मिट्टी भी हटायी जाती है, तो उससे ऐतिहासिक चीजें झांकने लगती हैं. वह अपने समृद्ध अतीत की गवाही देने लगती हैं. इन्हें देख कर ही संतोष होता है कि आखिर कितने समृद्धिशाली क्षेत्र में रहने को हमें मिला है. हम धन्य हैं. वैशाली में लोगों से बात होती है, तो उनकी बोली और भाषा अब भी अन्य जगहों से अलग और निराली लगती है. उन्हें इसका एहसास है कि वह कहां रह रहे हैं. उसके क्या मायने हैं.

सोमवार, 15 मई 2017

समृद्धि की प्रतीक भी है वैशाली

वैशाली के अतीत में केवल पानी की सुदृढ़ व्यवस्था नहीं मिलती है. अपनी व्यवस्थाओं के चलते वैशाली उस कहावत को भी पारिभाषित करती है, जिसमें भारत को सोने की चिड़िया कहा गया है. इतिहासविद् रामशरण अग्रवाल तालाब व कुओं की संरचना व इतिहास बताते हुये हमें अभिषेक पुष्करिणी के पास स्थित संग्रहालय में ले गये. इस संग्रहालय में इससे पहले मैं चार बार आ चुका था. तमाम चीजें देख चुका था. कैसे आज से ढाई हजार साल पहले शौचालय आदि की व्यवस्था थी. उस समय की जीवनशैली कैसी थी, लेकिन जीवन शैली की क्या विशेषता थी. इसे समझ नहीं सका था. संग्रहालय में घुसते ही अग्रवाल जी ने कहा कि खुदाई से प्राप्त ईंटों को बारीकी से देखने. इसमें कुछ जड़ा हुआ दिखेगा आपको. देखने पर पारदर्शी पत्थरनुमा कई चीजें पत्थरों में जड़ी हुईं दिखीं. इसे समझाते हुये अग्रवाल साहब ने बताया कि यही विशेषता है. उस समय लोग अपने घरों के पत्थरों में भी कुछ न कुछ जड़वा देते थे. इससे उस समय की समृद्धि का पता चलता है.
इसके बाद उन्होंने उन तमाम चीजों को दिखाया, जो खुदाई के दौरान मिली हैं. इनमें महिलाओं की कुछ मूर्तियां भी हैं. अग्रवाल साहब ने कहा कि आपको किसी भी महिला की मूर्ति में समानता नहीं मिलेगी. सबका केश विन्यास अलग है. सबका चेहरा एक-दूसरे से अलग है. उस समय महिलाओं को लेकर समाज में क्या सोच थी. किस तरह से उन्हें आजादी रही होगी, यह इन मूर्तियों से झलकता है. संग्रहालय में कई और बारीकियों को भी अग्रवाल साहब ने बताया और फिर वह वहां से निकल कर अभिषेक पुष्करिणी पर आ गये. उसके वैभवशाली इतिहास को बताने लगे, साथ ही वर्तमान में सूखते पानी और तरह -तरह की गंदगी पर अफसोस भी जता रहे थे. उन्होंने बताया कि यह पुष्करिणी लगभग साढ़े चार हजार साल पुरानी है. जैसा कि नाम से ही मालूम है. इसके पानी से राज परिवार में अभिषेक होता था.
अग्रवाल साहब कहने लगे कि यह सही है कि पुष्करिणी की व्यवस्था ऐसी थी कि इसमें परिंदा भी चोंच नहीं मार सकता था. इसके लिए इसे पूरी तरह से सोने व चांदी के तारों से घेरा गया था और जहां पर तारों का जोड़ था. वहां पर हीरे-जवाहरात लगे थे. ऐसा वैभव वैशाली और यहां के लोगों का था. अग्रवाल साहब राजा विशाल का किला भी दिखाते हैं. खुदाई में जो कुछ प्राप्त हुआ है. उसे ध्यान से देखने को कहते हैं. कहते हैं कि जो भी निर्माण उस समय हुआ था. उसमें अभी तक कोई दरार नहीं पड़ी है, जबकि कितने ही भूकंप अब तक आये होंगे. इसकी वजह क्या हो सकती है. वह बताते हैं कि उस समय चौड़ी दीवाल बनायी जाती थी, जिनकी चौड़ाई कम से कम दो फुट होती थी. इससे ईंट एक सीध में नहीं रहती थी, जो निर्माण को मजबूती प्रदान करती थी. इसी तरह से कई और चीजें वह वैशाली में दिखाते हैं, जो उस समय की दिव्य व्यवस्था की ओर इशारा करती हैं. जारी...

कुछ कहना चाहती है आपसे वैशाली

वैभव शालिनी वैशाली. ये वाक्य पिछले छह सालों में कई बार सुनने को मिला. वैशाली भी बीच-बीच में जाने का मौका मिला. वहां के ऐतिहासिक स्थलों पर भी कई बार गया. स्थानीय साथी ने कई चीजें बतायीं. कुछ पढ़ने को भी मिला, तो वैशाली में विभिन्न स्थलों पर होनेवाली खुदाई के दौरान मिलनेवाली मूर्तियां व सिक्कों के बारे में समाचारों से परचित होता रहा. कई बार खुद को वैशाली के इतिहास का विशेषज्ञ कहनेवाले लोगों से भी साक्षात्कार हुआ, लेकिन ऐसी अनुभूति कभी नहीं हुई, जैसी की सीता माता की भूमि में रहनेवाले रामशरण अग्रवाल जी के साथ वैशाली जाकर हुई. बहुत समय से सोच रहा था कि कुछ लिखूंगा, लेकिन लिख नहीं पा रहा था. पर आज लगा कि लिखना ही चाहिये.
नौ अप्रैल को सुबह सात बजे के आसपास जब हम मुजफ्फरपुर से वैशाली के लिए चले, तो अन्य दिनों की तरह यह भी वैशाली की सामान्य यात्र ही लग रही थी, लेकिन जैसे ही रामशरण जी ने वहां का इतिहास और उन स्थलों के बारे में बताना शुरू किया. मेरी धारणा बदलती चली गयी. वैशाली क्षेत्र में प्रवेश करते-करते मुङो ऐसा लगा कि अपने वैभव के कारण प्रसिद्ध वैशाली मुझसे भी कुछ कहना चाहती है. वहां की मिट्टी का कण-कण बात करना चाहता है. यह अद्भुद है कि वैशाली के कण-कण में अपना समृद्ध इतिहास छुपा हुआ है, जिसे आज की पीढ़ी के सामने लाये जाने की जरूरत है, लेकिन इस पर बहुत धीमी गति से काम हो रहा है.
नौ अप्रैल को महावीर जयंती थी, सो शुरुआत महावीर मंदिर से हुई. वहां की ऐतिहासिक मूर्ति के दर्शन पहली बार हुये. पुजारी जी ने मुङो पूजा करने की विधि बतायी और समझाया भी. इसके बाद लंगर में प्रसाद मिला. मंदिर के बगल में ही तालाब बना है. देखने में यह सामान्य लगता है, लेकिन इसका अपना ऐतिहासिक महत्व है. इसकी बनावट अभिषेक पुस्करणी के जैसी है. रामशरण जी ने बताया कि अब भले ही तालाब अतिक्रमित होकर अपना अस्तित्व खो रहा है, लेकिन इस इलाके को सिंचित करने में इनकी महत्वपूर्ण भूमिका रही है. वैशाली एक समय विदेह (राजा जनक) का क्षेत्र था और यह ऐतिहासिक तथ्य हम सबको मालूम है कि सीता जी का अवतरण तब हुआ था, जब राजा जनक हल चला रहे थे. उस समय सूखा पड़ा हुआ था, लेकिन उसके बाद इतिहास के किसी कालखंड में सूखे का जिक्र नहीं आता है. रामशरण जी बताते हैं कि उस समय के सूखे को लेकर बड़ा काम हुआ, ज्ञात इतिहास में केवल वैशाली में सात हजार से ज्यादा तालाब और इतने ही कुएं थे. जिनसे यहां रहनेवालों की पानी की जरूरत पूरी होती थी. उसकी निशानी अब भी बची हुई है. यानी पानी का संकट नहीं हो, इसके लिए फुल प्रूफ सिस्टम था. हालांकि उन तालाबों में अब हजारों तालाब का अस्तित्व नहीं रह गया है, जो कुछ तालाब बचे हैं वह भी अपना अस्तित्व खो रहे हैं. यह अपने आप में दुखद है. कई तालाबों का पानी गर्मी के दिनों में सूख जाता है. इस वजह से साल-दर-साल वैशाली भी पानी संकट की दिशा में आगे बढ़ती जा रही है. जरूरत इस बात की है कि हम अपने इतिहास से सबक लें और फिर से तालाबों को उनका रूप वापस लौटायें. पानी की संकट अपने आप खत्म हो जायेगा. बस इसके लिए ईमानदार पहल की जरूरत है. जारी..

गुरुवार, 11 मई 2017

सांसों पर भारी पड़ता गाड़ियों का धुंआ

मुस्कराइये की आप पटना में हैं, लेकिन यह मुस्कराहट उस समय परेशानी में तब्दील हो जाती है, जब ऑटो व अन्य वाहनों से निकलनेवाला धुंआ आपकी सांस और शरीर की क्षमता का परीक्षा लेने लगता है. सुबह ऑफिस जाने और शाम को ऑफिस छूटने के समय आप पटना की सड़कों पर पहुंचे, तो आपको सांस लेने में परेशानी होगी. डीजल और पेट्रोल की महक आपकी सांसों में घुलेगी और आप घर पहुंच कर जब मुंह-नाक धोयेंगे, तो धुंये के काले कण निकलेंगे. अगर आपने सफेद शर्ट पहनी है, तो उसकी बाहर व कॉलर काले हो चुके होंगे. यही आज के पटना की हकीकत है.
देश में जब सौर्य ऊर्जा से लेकर सीएनजी और एलपीजी जैसे स्वच्छ ईंधन का प्रयोग हो रहा है, तब पटना में इनका चलन नहीं होना संदेह पैदा करता है. आखिर कमी कहां हैं. किस स्तर पर इसके लिए काम हो रहा है, क्योंकि पटना में डीजलवाले ऑटो को चलाया जा रहा है. यह ऐसे सवाल हैं, जिनका उत्तर जवाबदेह लोगों को देना चाहिये. पटना में राज्य की सरकार के कर्ताधर्ता बैठते हैं, क्या उन्हें यह समस्या परेशान नहीं करती है. अगर लोगों की सांसों के साथ उनके शरीर में धुंआ और खतरनाक केमिकल जायेगा, तो वह कैसे स्वस्थ्य रह पायेंगे. क्यों स्वच्छ ईंधन की दिशा में पहल नहीं हो रही है. स्वच्छ ईंधन के नाम पर केवल कुछ ई-रिक्शा चलते हैं. इसके अलावा और कुछ नहीं.
अगर हम उत्तर भारत के राज्यों की बात करें, तो लखनऊ जैसे शहर में दशकों पहले डीजल से चलनेवाले ऑटो को बैन कर दिया गया. वहां बैट्री व सीएनजी के चलनेवाले ऑटो ही चलते हैं. इससे एक समय पर पर्यावरण का पर्याय बने लखनऊ को बड़ी राहत मिली थी, जो अब तक जारी है, लेकिन पटना में यह पहल क्यों नहीं हुई. मेट्रो की बात हो रही है. वह भी योजना जमीन पर उतरती नहीं दिखती है. ऐसे में हम कैसे बेहतरी की बात कर सकते हैं, जब हम लोगों की सांसों को ही खतरे में डाल रहे हैं.

गुरुवार, 4 मई 2017

कौन सुनेगा पीरमोहम्मदपुर की पीड़ा

बहुत ज्यादा दूर नहीं है मुजफ्फरपुर शहर से पीरमोहम्मदपुर गांव. शहर खत्म होते ही गांव की दुश्वारियां शुरू हो जाती हैं. गांव जाने के वैसे तो कई रास्ते हैं, लेकिन मुख्यत: दो रास्ते हैं, जिनसे होकर लोग आते-जाते हैं. दोनों ही रास्ते अभी तक कच्चे हैं. आप जायेंगे, तो मिट्टी नहाना पड़ेगा, क्योंकि कोई वाहन गुजरता है, तो धूल उड़ती है. बूढ़ी गंडक किनारे बसा ये गांव प्राकृतिक और उपज की दृष्टि से बहुत अच्छा है.
यहां बड़े पैमाने पर सब्जी व मक्का की खेती होती है. गांव का हर घर खेती से जुड़ा है. खूब उपजाते हैं और लोगों को पेट भरते हैं, लेकिन इनकी खुद की स्थिति सही नहीं है. गांव के बारे में नीतीश्वर कॉलेज के प्रमोद पांडेय से जाना और सुना, तो इच्छा हुई, जाना चाहिये. प्रमोद जी ने रास्ता बताया. सफर शुरू हुआ, लेकिन जैसे ही बीएमपी-छह के आगे बढ़ा. मन हुआ जानकारी ले ली जाये. साथी से कहा, पता कर लेते हैं. लोगों ने रास्ता बताया, लेकिन हिदायत दी, इधर से जाना ठीक नहीं रहेगा. लंबी दूरी वाले रास्ते से जायें, सो उसी रास्ते से आगे बढ़ चला. पूछते-पूछते एक लोहे के पुल पर पहुंचा. यहां तक को स्थिति ठीक थी, लेकिन पुल से आगे बढ़ते ही परेशानी शुरू हो गयी. बलुई मिट्टी की कच्ची सड़क पर गाड़ी का बढ़ना मुश्किल हो रहा था, लेकिन हम भी गांव जाने पर अडिग थे. साथी ने कहा, गांव के लोग कैसे आते-जाते होंगे. यही सवाल मेरे भी मन में था. बचपन में कमोबेश मेरे गांव का रास्ता भी ऐसा ही था, सो मुङो कुछ आश्चर्य नहीं लग रहा था, लेकिन अब से लगभग 30 साल पहले हमारे यहां सड़क बन गयी, जिससे आना-जाना आसान हो गया.
हर बड़े फोरम, जिस पर गांव की बात होती है. वहां कहा जाता है कि जब तक गांव का विकास नहीं होगा, तब तक देश आगे नहीं बढ़ेगा. पीरमोहम्मदपुर जाते समय ये हकीकत सामने आ रही थी. लगभग दो किलोमीटर का लंबा रास्ता जैसे-तैसे 15 मिनट में तय किया और गांव पहुंचा, तो सुखद अहसास हुआ. गांव में नीतीश्वर कॉलेज का एनएसएस कैंप चल रहा था. कैंप के आखिरी दिन कृषि वैज्ञानिकों को बुलाया गया था, जो गांव के लोगों को खेती के बारे में जानकारियां दे रहे थे. कृषि वैज्ञानिकों का कहना था कि हम आप लोगों को उपज के बारे में जानकारी नहीं देने आये हैं, क्योंकि उपज आप खूब करते हैं. उपज का संरक्षण कैसे करें. यह जानकारी देने के लिए हम आये हैं और इसी के आधार पर वह गांव के लोगों के सवालों के जवाब दे रहे थे.
गांव में जो खड़ंजे लगे हैं, उनका भी कोई खास अर्थ समझ में नहीं आया. लोगों से जानकारी ली, तो कहने लगे कि गर्मी है, इसलिए आप आ गये. बारिश के दिनों में गांव आाना-जाना दूभर होता है. गांव में चलने में समस्या होती है. बाढ़ पिछले दस साल से नहीं आयी है, लेकिन सड़क भी नहीं बन सकी है. हर बात और हर नेता हमें आश्वासन देते रहे हैं. रमई राम जी इलाके के लगभग तीस दशक विधायक और मंत्री रहे. हर बार आश्वासन दिया, लेकिन सड़क नहीं बनी. अब बेबी कुमारी हैं, वह भी कह रही हैं. सड़क बन पायेगी या नहीं, अभी कुछ भी साफ नहीं है. केवल प्रस्ताव भेजने की बात होती है. प्रस्ताव पर क्या हुआ, ये किसी को समझ नहीं आ रहा.
सड़क नहीं होने की वजह से गांव के लोगों की शादियां टूट जाती हैं. यहां ऐसे दर्जनों लोग मिलेंगे, जिनकी शादी सड़क नहीं होने की वजह से कट गयी. हाल में प्रतिभा नाम की लड़की की शादी कटी है, जो इस समय गांव में चर्चा का विषय है. प्रतिभा पहले कोलकाता में पढ़ी है. अब एमएसकेबी में पढ़ रही है. कहती है कि हम चाहते हैं कि गांव की सड़क बने, क्योंकि हमें कॉलेज आाने-जाने में परेशानी होती है.
गांव में लगभग दो घंटे तक रहने के बाद, जब हम वापस शहर आने लगे, तो हमें लगा कि दूसरा रास्ता भी देखना चाहिये, सो फैसला दूसरे रास्ते से जाने का किया. यह पगडंडी है, जिससे बमुश्किल से गाड़ी गुजरती है. अगर कहीं चूके, तो सीधे बूढ़ी गंडक नदी की खाई में गिरने का खतरा. पगडंडी के दोनों ओर सब्जी व मक्के की खेती सुखद एहसास कराती है, लेकिन रास्ता उतना ही परेशान करता है. लगभग डेढ़ किलोमीटर लंबा रास्ता भगवान का नाम लेते हुये पार किया और जब मुख्य सड़क पर आये, तो वहां भी ज्याद सुकून नहीं मिला. बताया गया कि दो साल पहले सड़क बनी थी, लेकिन अब सड़क में गड्ढा है या गड्ढे में सड़क यह खोजना चुनौती है.

बुधवार, 3 मई 2017

खेत जोतने और भैंस चराने का मजा

का हो चाचा, का हाल है..10 साल गांव पहुंचे सव्रेश ने जब नरेंद्र चाचा से इस अंदाज में बात की, तो उसकी सारी अंगरेजियत कहीं जाती रही. महानगर में मल्टीनेशनल कंपनी की नौकरी और वहां के अंगरेजी दा लोग. यह सब अब उसके जीवन का हिस्सा बन गया है, लेकिन सव्रेश अपने बचपन के दिनों को सर्वश्रेष्ठ मानता रहा है. इनके बारे में जब भी मौका मिलता है, लोगों से जिक्र करता रहता है, लेकिन उन लम्हों को जीने की कसक 10 साल बाद पूरी होने जा रही है.
पढ़ाई के सिलसिले में जब वह दिल्ली और दिल्ली से इंग्लैंड गया था, तो उसे सब अजूबा लगता था. दुनिया कितनी बड़ी है, इसका एहसास हुआ था. पढ़ाई के बाद अच्छी नौकरी मिल गयी, लेकिन गांव छूट गया. लंबा अंतर हो गया. बीच में एक-दो दिन की छुट्टी मिली, तो दिल्ली में ही दोस्तों से मिल कर वापस चला गया. एक-दो बार मां-बाबू जी भी बेटे का दफ्तर और शहरी घर देख चुके थे, जो उसने किराये पर ले रखा है, लेकिन सव्रेश का मन तो गांव में ही बसता है. घर पहुंचने के बाद घर में सामान रखा और निकल गया गांव के छोर पर..नदी के किनारे, जहां बचपन में उसकी सुबह और शामें गुजरा करती थीं, लेकिन सव्रेश को वहां निराशा हाथ लगी. नदी के किनारे पहले जैसे हुजूम उमड़ता था. वह नदारद था, जो बच्चे उसके साथ खेलते थे. वो एक-एक कर काम के सिलसिले में दूसरे राज्यों का रुख कर चुके थे.
बचपन से बड़े हुये बच्चे किताबों और कॉपियों के बोझ तले दबे दिख रहे थे. बुजुर्गो को भी घर में ही टीवी नाम का नया सहारा मिल गया था. नदी का किनारा सुनसान था. पहले जहां घास होती थी. वहां अब जंगलनुमा झाड़ियां उग आयी हैं. निराशा के बीच सव्रेश पुरानी यादों में खो गया. उसे याद आने लगा कि स्कूल आने-जाने के बाद जो समय बचता था. कैसे वह और उसके दोस्त नदी के किनारे आते थे. सब एक साथ नहाने के लिए उतर जाते थे, तब घाटों की छटा देखते ही बनती थी, लेकिन अब घाट भी वीरान होने की कगार पर हैं, जिन पाटों पर धोबी (जुलाहे) कपड़े धोते थे. अब उन पर भी काई जम चुकी है. लगता है कि लंबे समय से इन पर कपड़े नहीं धोये गये.
गोधूलि बेला में पहले गाय-भैंसे जंगल से वापस घर आती थीं और उनके चलने से हल्की-हल्की धूल उड़ती थी. अब वह भी नहीं दिख रही थी. बैलों की जोड़ियां भी खेतों से घरों की ओर नहीं आ रही हैं. सब बदल गया है. गांव के बच्चे अब आपस में फिल्मी बातें कर रहे हैं. किस होरी का किस हिरोइन से संबंध बना और किसका टूटा इसकी बात हो रही है. लड़कियों को सीरियल के एपिसोड भा रहे हैं. बानी ने क्या कपड़े पहने और शांति ने कैसे सबक सिखाया..इसमें इंट्रेस्ट है. दस साल की उम्र में जब सव्रेश ने गाय और भैंस चरानी शुरू की थीं, तो गांव के बड़े बुजुर्ग भी जंगल में आते थे और कैसे रहना है. कैसे बड़ों से बर्ताव करना चाहिये, सब बताते थे. सिखाते थे. सब लोग एक-दूसरे का कहना मानते थे, लेकिन अब बच्चे खुलेआम पुड़िया खा रहे हैं. बड़े देख कर कुछ नहीं कह पा रहे हैं. यही पूरे गांव में दिख रहा है.
गांव को लेकर सव्रेश ने जो सपने संजोये थे. वो बारी-बारी से टूट रहे थे. वह निराश होकर वापस घर लौटने लगा. रास्ते में उसे याद आया कि कैसे आम के दिनों में पेड़ों से तोड़ने के बाद आमों को जंगल में छुपा देते थे और फिर तीन-चार दिन बाद वो आम पके मिलते थे. भैंस की गोबर के खाद में भी कई बार आम पकने के लिए डाल दिये जाते थे. उनका रंग बदल जाता था. हरे आम पीले हो जाते थे. क्या अच्छा समय था. खेत जोतनेवाले पहलादी (प्रहलाद) के लिए खाना लेकर जाता था, तो जब पहलादी खाने लगते थे, तो सव्रेश बैलों पर हाथ आजमा लिया करता था. खेत जोतने का सलीका इसी तरह से सीखा था. एक दिन को पांच कट्ठा जमीन जोत गया था.
यादों में डूबा सव्रेश जब घर पहुंचा, तो दरवाजे पर उसके पिता जी ने स्वागत किया. कहने लगे, मुङो पता था कि तुम नदी के किनारे गये होगे, लेकिन अब सब बदल गया है. गांव में लोग एक-दूसरे को देखना नहीं चाहते हैं. वह बताने लगते हैं कि सव्रेश को नौकरी मिलने के बाद कैसे पड़ोसियों ने उनसे दूरी बना ली थी और थोड़ी-छोड़ी सी बात में लड़ने को उतारू हो जाते थे.
सव्रेश को नौकरी से उन्हें बड़ा कष्ट पहुंचा था, लेकिन सव्रेश से ये बात उनके पिता ने पहले नहीं कही थी. अब जब सव्रेश ये बातें सुन रहा था, तो वह मन ही मन मुस्करा रहा था और उसे उसका उत्तर मिल गया था कि आखिर गांव से परंपरा रूपी चीजें कैसे खत्म हो गयीं.


 

कुछ पढ़े-लिखों ने ही गांधी जी सीख की धज्जियां उड़ा दीं

यह एक वरिष्ठ प्रशासनिक पदाधिकारी के मन बैठे सत्याग्रह (सत्य के आग्रह) का ही फल था, जो  मंच मिलते ही सामने आ गया. तिरहुत प्रक्षेत्र के कमिश्नर अतुल प्रसाद को मैं ऐसा अधिकारी मानता हूं, जिनमें अपने काम के प्रति निष्ठा है और उसे बखूबी करना चाहते हैं. मुजफ्फरपुर में पोस्टिंग के काल से ही इनकी कार्यशैली अलग रही है. अब तक अनुभव में मैंने पहला पदाधिकारी देखा, जिसने सरकारी बेवसाइट पर ब्लॉग लिखा और उसमें अपनी खामियों को भी उजागर किया. ऐसा करनेवाले अधिकारी बिरले ही होते हैं.
चंपारण सत्याग्रह शताब्दी समारोह का साल चल रहा है. सौ साल पहले महत्मा गांधी 10 अप्रैल के दिन मुजफ्फरपुर पहुंचे थे, जहां से चंपारण सत्याग्रह की नीव पड़ी थी. सौ साल बाद मुजफ्फरपुर में यात्र को फिर से जीवंत किया गया. पांच दिन तक पूरा शहर गांधीमय रहा. सत्य और अहिंसा की बात हो रही थी. इसके 15 दिन भी नहीं बीते थे. शहर में दो ऐसी घटनाएं हुईं, जिन्होंने सबको सोचने पर मजबूर कर दिया. इन घटनाओं के पीछे कुछ पढ़े-लिखे लोग थे. सब नहीं. यहां मैं फिर से कह रहा हूं, सब नहीं, लेकिन कुछ लोगों ने ही ऐसा कृत्य किया, जो सब पर भारी पड़ा. बड़े पैमाने पर नुकसान हुआ. कई दिनों तक पुलिस और मजिस्ट्रेटों का बड़े पैमाने पर पहरा रहा, जो अब भी जारी है.
इनमें पहली घटना एसकेएमसीएच की है, जहां से लोगों को जीवन देनेवाले डॉक्टर पढ़ कर बाहर निकलते हैं. साथ ही यहां के अस्पताल में लोगों को नया जीवन दिया जाता है, लेकिन एक महिला के इलाज को लेकर ऐसा हुआ कि जीवन देनेवाले जीवन लेने पर उतारू हो गये और इसकी प्रतिक्रिया भी इससे कम नहीं थी, जो लोग इन डॉक्टरों को विरोध कर रहे थे. वह भी उन्हीं की भाषा में या उससे कहीं ज्यादा बड़े विध्वंसक अंदाज में. पांच एंबुलेंस फूंक दी गयीं. दर्जनों गाड़ियों को तोड़ दिया गया. दो दर्जन से ज्यादा लोग जख्मी हो गये. दिन भर पूरा इलाका रणक्षेत्र में तब्दील रहा.
दूसरी घटना एमआइटी के कुछ छात्रों ने की, जहां से निर्माण करनेवाले इंजीनियर निकलते हैं. इन लोगों ने पंप से पेट्रोल ले लिया, लेकिन पैसा मांगने पर मारपीट को उतारू हो गये. बीच-बचाव की कोशिश हुई, तो उन लोगों से भिड़ गये, लेकिन यहां संख्याबल भारी पड़ा, जब लोग एकत्र हुये, तो छात्र भागने लगे और भाग कर हॉस्टल में घुस गये.
इन दोनों घटनाओं में बुनियादी फर्क ये रहा कि एमआइटी का प्रबंधन सामने आया, जिसने घटना की निंदा की और दोषी छात्रों पर कार्रवाई की बात कही, लेकिन मेडिकल की घटना में ऐसा नहीं हुआ, वहां के प्रबंधन से छात्रों का पक्ष लिया. यहां तक कि डॉक्टरों ने उनका समर्थन किया और कहा कि जूनियर डॉक्टर जो करेंगे. वह उसमें उनका साथ देंगे. यही बुनियादी सवाल पूरी कहानी कहता है. हमारा सवाल यहां पर ये है कि अगर आप खुद को पढ़ा-लिखा और समाज को दिशा देनावाला मानते हैं, तो आपको खुद ट्रेंड सेट करना होगा. हम मानते हैं कि अगर किसी ने विरोध किया. या मारपीट किया, तो हमें उस समय धैर्य से काम लेना चाहिये. अगर ऐसा होगा, तो डॉक्टरों जैसे मामले में पुलिस पर कार्रवाई का दबाव होगा. अगर एक बार कार्रवाई हो गयी, तो आागे से घटना करने से पहले लोग सोचेंगे, लेकिन यहां ऐसा नहीं हो रहा. जैसे को तैसा की तर्ज पर तुरंत हिंसा का बदला हिंसा की बात होती है.
हमें लगता है कि यही कमिश्नर जैसे बड़े पद पर बैठे अधिकारी को अच्छा नहीं लगा. शताब्दी समारोह के संबंधित प्रभात खबर की व्याख्यानमाला में वह बोल पड़े कि हम लोगों ने भले ही गांधी जी के मूल्यों के माहौल को बनाने की कोशिाश की, लेकिन कुछ पढ़े-लिखे लोगों ने उसे तार-तार कर दिया. मुङो लगता है कि हम सबको इससे सबक लेने की जरूरत है, तभी इस तरह की हिंसा और प्रति हिंसा पर लगाम लग सकता है. क्या चंपारण शताब्दी समारोह की वर्षगांठ पर हम लोग ये नहीं कर सकते. हमारा उत्तर होगा, कर सकते हैं.

सरल होने का अपना मजा

फल आने पर वृक्ष झुक जाता है. ऐेसे ही जब कोई व्यक्ति सफलता की सीढ़ियां चढ़ता है, तो उसका व्यवहार और सरल होते जाना चाहिये. हमारे जितने भी महापुरुष हुये हैं, उनके जीवन को हम देखेंगे, तो यह पायेंगे. यही नहीं कोई भी व्यक्ति यदि सरलता से रहता है, तो उसे उसका मजा मिलता है, क्योंकि सरल होने का अपना अलग आनंद है. इसे वो लोग समझ नहीं सकते, जो थोड़ी-थोड़ी सी बात पर अकड़ने लगते हैं. अपने पद का रौब दिखाने लगते हैं. किसी को उसके पद और नाम से बुलाने लगते हैं. भला-बुरा कहने लगते हैं. अपनी पहुंच का हवाला देने लगते हैं या फिर अपना बल दिखाने लगते हैं.
यह चर्चा रामचरित मानस की कथा सुनने के बाद गांव के लोगों के बीच हो रही थी, तभी वहां से गुजर रहे घासी किसान को देख कर सब लोग उनकी ओर मुखातिब हो गये. घासी ऐसे व्यक्ति जिन्हें सिर्फ अपने काम से मतलब. कभी किसी का बुरा नहीं चाहा. अपने काम को ही अपना भगवान माना और उसी में दिन भर रमे रहते. गांव में कोई कुछ कहता, तो आसानी से सुन लेते. इससे कई बार उन्हें कष्ट भी उठाना पड़ता, लेकिन घासी कोई जवाब नहीं देते. वह अपने काम में लगे रहते. कई लोग उन्हें कायर समझते, तो कुछ लोग कहते, इतना चुप रहना भी ठीक नहीं. वह घासी को उकसाने की कोशिश करते, लेकिन वह कहता, हम क्या जानें मालिक. जिन्होंने ने कहा, वही जानें, क्यों कहा? हम इसमें क्या कहें, इतना कह कर घासी वहां से चला जाता और अपने काम में लग जाता.
घासी गांव के लोगों के सामने से गुजर गया, तो लोग आपस में चर्चा करने लगे. हम रामचरित मानस को सुन कर समझ रहे हैं, लेकिन उसमें जो कर्म का संदेश दिया गया है. उसे घासी सही मायनों में जी रहा है. वह अपने काम से काम रखता है. उसकी तरक्की भी हो रही है. खुद पढ़ा-लिखा नहीं है, लेकिन बच्चे पढ़ने में तेज हैं. वह भी पिता की तरह सिर्फ अपने काम पर ध्यान देते हैं. इधर-उधर नहीं करते, जब दूसरे बच्चे एक-दसूरे की निंदा में लगे रहते हैं, तो वह पढ़ रहे होते हैं. वह सही रूप में फलदार वृक्ष की भूमिका निभा रहे हैं, जो लगातार अपने कर्म में रमे रहते हैं. कभी अभिमान नहीं करते.

मंगलवार, 25 अप्रैल 2017

इन स्कूलों से सावधान, लेकिन जाएं कहां?

शर्मा जी की बेटी, पिछले चार दिनों से रोज सुबह उठते ही कहती, पापा मुङो इस स्कूल में नहीं पढ़ना है. वहां बहुत गलत पढ़ाया जाता है. मिस से कहते हैं, तो वह डांट देती हैं, लेकिन नेट पर चेक करते हैं, तो सही निकलता है. ऐसे में हम कैसे डॉक्टर बन पायेंगे. अगर हम ज्यादा दिन रहेंगे, तो मिस हमसे नाराज हो जायेंगी. पिछले साल, एक मिस कैसे नाराज हो गयी थीं, जिनको मैंने उनकी गलतियों को बारे में बता दिया था. उन्होंने इस साल भी मेरी सीट बदलवा दी है. परसों ही मेरी क्लास में आयी थीं और मेरी क्लास टीचर से कुछ देर बात की और फिर क्लास टीचर ने मेरी और मेरी सहेली गुड़िया की सीट बदल दी.
शर्मा जी, बेटी के इस सवालों से लगभग पक चुके थे. उन्हें समझ में नहीं आ रहा है कि वह बेटी को किस स्कूल में दाखिला दिलवा दें, क्योंकि जिस स्कूल में वह पढ़ती है. वह जिले का सबसे नामी स्कूल है. सालों से उसकी अलग पहचान है. वहां एडमिशन के लिए लोगों में मारामारी लगी रहती है. कितना अच्छा अनुशासन है स्कूल में. कोई भी बिना अनुशासन नहीं रह सकता है. पांच हजार से ज्यादा बच्चे स्कूल में पढ़ते हैं, लेकिन पास से गुजरने पर चूं तक नहीं सुनायी देती. वहां की मैडम शहर के बड़े-बड़े लोगों के बच्चों का एडमिशन लेने से मना कर देती है. अब ऐसे स्कूल से निकाल कर शर्मा जी अपनी बेटी को कहां डालें. यह बात उन्हें समझ में नहीं आ रही है. वह लगातार बेटी को समझा रहे हैं और कह रहे हैं कि हो सकता है कि एक मिस ने ऐसा कर दिया हो, लेकिन और मिस तो अच्छा पढ़ाती हैं. हम मिस से बात करेंगे, वह अपनी गलती सुधार लेंगी.
शर्मा जी ने जैसे ही मिस की बात की, बेटी कहने लगी, पापा आप उनसे बात भी मत करियेगा, नहीं तो मेरी शामत आ जायेगी. हमको वो फेल कर देंगी. पूरी क्लास के सामने बेइज्जती अलग से करेंगी. शर्मा जी की बेटी का तो यह केवल एक उदाहरण है. ऐसे सैकड़ों मामले रोज सामने आ रहे हैं. वह भी उन निजी स्कूलों के, जिनमें ज्यादातर अभिभावक अपने बच्चों को पढ़ाना चाहते हैं. सरकारी स्कूलों को छोड़ निजी स्कूलों का रुख करनेवाले अभिभावकों को यहां भी लगातार परेशानी ही ङोलनी पड़ रही है.
पिछले दिनों फेसबुक पर एक पोस्ट लिखी थी, जिसमें एक साथी ने कमेंट किया, निजी स्कूल कॉपी, किताब, ड्रेस और जूता-चप्पल बेचवाने के लिए हैं. अगर बच्चे को पढ़ाना है, तो घर में ट्यूशन लगवाइये. स्कूलों में पढ़ाई की अपेक्षा नहीं करें, वरना निराशा हाथ लगेगी.
एक और अभिभावक कहने लगे. सरकार डिजिटल इंडिया की बात कर रही है. निजी स्कूलों ने फीस वसूली में इसे लागू कर दिया है. वह डिजिटल माध्यम से फीस जमा हुई या नहीं. इसकी जानकारी लगातार अभिभावकों को देकर बेइज्जत करते रहते हैं, लेकिन उनका बच्च कैसा पढ़ रहा है. इसके बारे में अगर आप स्कूल में पता लगाने जायें, तब भी जानकारी नहीं मिलेगी.
निजी स्कूलों में नकेल कसने की बात सालों से हो रही है. हर साल एक बार शिक्षा विभाग के अधिकारी बैठक करते हैं, लेकिन इसके बाद हालात फिर पिछले साल जैसे ही रहते हैं. अभी तक किसी भी स्कूल में ड्रेस बिकनी बंद नहीं हुई. कॉपी-किताब का तो जैसे ठेका ले रखा है. एनसीइआरटी की जो किताब 50 से 100 रुपये में मिल जाती है, निजी प्रकाशन उसका दाम ही 400 से शुरू करते हैं. बुक की दुकान चलानेवाला कहता है कि इससे (एनसीइआरटी) कुछ नहीं होगा, स्कूल में तो ये किताब पढ़ाई जायेगी, लेकिन खरीदना आपको दोनों को है.
जारी..

मैं खुद को, खुद से बांट नहीं सकता.

मैं खुद को, खुद से बांट नहीं सकता.
ऐ मेरे मालिक, ऐ मेरे मौला.
जो कहता है, कहने दो.
मेरा कुछ होनेवाला है क्या?
मैं तो खुद जान नहीं सकता.

कल ही तो शरु हुआ, सफर अपना.
इतनी जल्दी, क्या खोना, क्या पाना?
कुछ अनुभव, तो कर लेने दो.
कुछ कड़वे घूट, तो पी लेने दो.

ऐसे क्या जल्दी, जाने-जाने की.
इतनी जल्दी उठ जाऊं मैं.
मैं वो खाट नहीं, हो सकता.
मैं खुद को, खुद से बांट नहीं सकता. 


शनिवार, 22 अप्रैल 2017

पढ़े-लिखों को ये क्या हो रहा है?

सत्य और अहिंसा के पुजारी बापू के चंपारण सत्याग्रह की 100वीं वर्षगांठ हम लोग मना रहे हैं. चंपारण इलाके का वासी होने की वजह से हमारी लोगों की जिम्मेवारी ज्यादा बनती है कि बापू के संदेशों को समङों और उन्हें आत्मसात करके अपने व्यवहार में लायें, लेकिन कुछ पढ़े-लिखे कहे जानेवाले लोगों को क्या हो गया है. बीते शुक्रवार को जैसे एसकेएमसीएच और एमआइटी में जैसी घटनाएं हुईं. वह हम सब पर सवाल खड़ें करती हैं. जाहिर सी बात है कि इसमें सब तो नहीं शामिल हैं, लेकिन जो चंद लोग इसमें हैं. वो भी डॉक्टर और इंजीनियर बनने की राह पर हैं. यह वह लोग हैं, जिन्हें समाज की सेवा करनी है. अगर आपके धैर्य और आत्मबल नहीं है, तो आप सेवा कैसे कर सकेंगे? आपको दूसरों को संभलना है और आपको संभालने के लिए पुलिस की जरूरत पड़े, तो इसे क्या कहेंगे? आपको तो ऐसा कर्म करना चाहिये कि पुलिस आपका सहयोग ले और समाज में जो गड़बड़ियां और हैं, उन्हें ठीक करे, लेकिन दोनों घटनाओं में हुआ, इसकी पूरा उल्टा.
एसकेएमसीएच को एम्स का दर्जा देने की मांग हो रही है. राजनेता से लेकर आम लोग जोर-शोर से ये आवाज उठा रहे हैं, लेकिन वहां हो क्या रहा है. कुछ डॉक्टर और एंबुलेंस चालकों की आपसी खीचतान में बात यहां तक पहुंच गयी. लोग एक-दूसरे के खून के प्यासे हो गये. एक-दूसरे पर टूट पड़े. डॉक्टरों ने जिस तरह से आम लोगों की पिटाई की, उसकी तस्वीर देख लग रहा था कि आखिर किस समाज में रह रहे हैं हम? क्या पढ़े-लिखे लोगों को ये शोभा देता है? अगर पढ़े-लिखे लोग ऐसा करेंगे, तो हम समाज को शिक्षित करने की बात क्यों करते हैं? इससे अच्छे तो अनपढ़ हैं, जिनके अंदर आपसी प्रेम होता है. अगर किसी ने कोई बात कह भी दी, तो वह उसे बड़ी अदब से टाल देते हैं? पर यहां को बिल्कुल इसका उल्टा हुआ? उन लोगों को पीटा गया, जिनका मूल घटना से कोई वास्ता नहीं था.
पांच एंबुलेंस फूंक दी गयीं. 20 गाड़ियों को तोड़ दिया गया. बाइक को जला दिया गया. कई बाइक व एसकेएमसीएच में तोड़फोड़ हुई. यह सब करके आखिर हम क्या संदेश देना चाहते हैं. क्या हम सत्य और अहिंसा के पुजारी को सौ साल बाद इस रूप में याद करेंगे? क्या उनके आदर्शो पर चलने की बात कहके हम ये करेंगे? यह नहीं चल सकता है, क्योंकि हिंसा से कोई हल नहीं निकलता है. हल तो बातचीत और आपसी सूझबूझ का ही नतीजा होता है. इस ओर हमें बढ़ना होगा, तभी बात बनेगी. हिंसा का जवाब हिंसा कभी नहीं हो सकता है?
दूसरी घटना एमआइटी के कुछ छात्रों से जुड़ी है. यहां सैकड़ों की संख्या में छात्र इंजीनियरिंग पढ़ते हैं. यहां के पढ़े छात्र देश में कई स्थानों पर बड़े पदों पर काम करते हैं. प्लेसमेंट एजेंसियां आती हैं, तो उन्हें यहां अच्छे काम करनेवाले मिलते हैं, लेकिन शहर के इस बड़े संस्थान की पहचान क्या बनी है? जब भी एमआइटी की बात होती है, तो हल्ला और हंगामा ही जेहन में आता है? यह अपने शहर के लोगों के मन में घर कर गया है? शुक्रवार को भी यहां ऐसा ही हुआ. कुछ छात्रों ने लक्ष्मी चौक के पंप पर पेट्रोल भरवाया और जब पैसे देने की बारी आयी, तो इनकार करने लगे. नोजलमैन आगे आया, तो उसको पीटना शुरू कर दिया. अपने कर्मचारी की रक्षा के लिए जब पंप मालिक पहुंचे, तो छात्रों ने बात सुने बिना उनको पीटना शुरू कर दिया.
एमआइटी के घटनाक्रम के दौरान ही आसपास के लोग इकट्ठा हो गये और पेट्रोल पंप पर पहुंचने लगे, लेकिन खुद को घिरता देख छात्र भाग गये. बाद में कॉलेज प्रबंधन को आगे आना पड़ा. आखिर जब किया कुछ छात्रों ने, तो कॉलेज प्रबंधन इसका खामियाजा क्यों भुगते? अब मामला जांच में है, जो भी छात्र दोषी पाये जायेंगे, उन पर कार्रवाई की बात कही जा रही है, लेकिन क्या कार्रवाई इस समस्या का हल है. हमें लगता है कि नहीं. कार्रवाई ऐसी होनी चाहिये, जिससे छात्रों की सोच बदल जाये और आगे से वो ऐसा करने की सोचें भी नहीं. यह हम उनका मन जीत कर कर सकते हैं. अगर हम उनके मन में सत्य और अहिंसा की बात भरने में कामयाब हो जायें, तो यह मंजर देखने को नहीं मिलेगा.