बुधवार, 3 मई 2017

कुछ पढ़े-लिखों ने ही गांधी जी सीख की धज्जियां उड़ा दीं

यह एक वरिष्ठ प्रशासनिक पदाधिकारी के मन बैठे सत्याग्रह (सत्य के आग्रह) का ही फल था, जो  मंच मिलते ही सामने आ गया. तिरहुत प्रक्षेत्र के कमिश्नर अतुल प्रसाद को मैं ऐसा अधिकारी मानता हूं, जिनमें अपने काम के प्रति निष्ठा है और उसे बखूबी करना चाहते हैं. मुजफ्फरपुर में पोस्टिंग के काल से ही इनकी कार्यशैली अलग रही है. अब तक अनुभव में मैंने पहला पदाधिकारी देखा, जिसने सरकारी बेवसाइट पर ब्लॉग लिखा और उसमें अपनी खामियों को भी उजागर किया. ऐसा करनेवाले अधिकारी बिरले ही होते हैं.
चंपारण सत्याग्रह शताब्दी समारोह का साल चल रहा है. सौ साल पहले महत्मा गांधी 10 अप्रैल के दिन मुजफ्फरपुर पहुंचे थे, जहां से चंपारण सत्याग्रह की नीव पड़ी थी. सौ साल बाद मुजफ्फरपुर में यात्र को फिर से जीवंत किया गया. पांच दिन तक पूरा शहर गांधीमय रहा. सत्य और अहिंसा की बात हो रही थी. इसके 15 दिन भी नहीं बीते थे. शहर में दो ऐसी घटनाएं हुईं, जिन्होंने सबको सोचने पर मजबूर कर दिया. इन घटनाओं के पीछे कुछ पढ़े-लिखे लोग थे. सब नहीं. यहां मैं फिर से कह रहा हूं, सब नहीं, लेकिन कुछ लोगों ने ही ऐसा कृत्य किया, जो सब पर भारी पड़ा. बड़े पैमाने पर नुकसान हुआ. कई दिनों तक पुलिस और मजिस्ट्रेटों का बड़े पैमाने पर पहरा रहा, जो अब भी जारी है.
इनमें पहली घटना एसकेएमसीएच की है, जहां से लोगों को जीवन देनेवाले डॉक्टर पढ़ कर बाहर निकलते हैं. साथ ही यहां के अस्पताल में लोगों को नया जीवन दिया जाता है, लेकिन एक महिला के इलाज को लेकर ऐसा हुआ कि जीवन देनेवाले जीवन लेने पर उतारू हो गये और इसकी प्रतिक्रिया भी इससे कम नहीं थी, जो लोग इन डॉक्टरों को विरोध कर रहे थे. वह भी उन्हीं की भाषा में या उससे कहीं ज्यादा बड़े विध्वंसक अंदाज में. पांच एंबुलेंस फूंक दी गयीं. दर्जनों गाड़ियों को तोड़ दिया गया. दो दर्जन से ज्यादा लोग जख्मी हो गये. दिन भर पूरा इलाका रणक्षेत्र में तब्दील रहा.
दूसरी घटना एमआइटी के कुछ छात्रों ने की, जहां से निर्माण करनेवाले इंजीनियर निकलते हैं. इन लोगों ने पंप से पेट्रोल ले लिया, लेकिन पैसा मांगने पर मारपीट को उतारू हो गये. बीच-बचाव की कोशिश हुई, तो उन लोगों से भिड़ गये, लेकिन यहां संख्याबल भारी पड़ा, जब लोग एकत्र हुये, तो छात्र भागने लगे और भाग कर हॉस्टल में घुस गये.
इन दोनों घटनाओं में बुनियादी फर्क ये रहा कि एमआइटी का प्रबंधन सामने आया, जिसने घटना की निंदा की और दोषी छात्रों पर कार्रवाई की बात कही, लेकिन मेडिकल की घटना में ऐसा नहीं हुआ, वहां के प्रबंधन से छात्रों का पक्ष लिया. यहां तक कि डॉक्टरों ने उनका समर्थन किया और कहा कि जूनियर डॉक्टर जो करेंगे. वह उसमें उनका साथ देंगे. यही बुनियादी सवाल पूरी कहानी कहता है. हमारा सवाल यहां पर ये है कि अगर आप खुद को पढ़ा-लिखा और समाज को दिशा देनावाला मानते हैं, तो आपको खुद ट्रेंड सेट करना होगा. हम मानते हैं कि अगर किसी ने विरोध किया. या मारपीट किया, तो हमें उस समय धैर्य से काम लेना चाहिये. अगर ऐसा होगा, तो डॉक्टरों जैसे मामले में पुलिस पर कार्रवाई का दबाव होगा. अगर एक बार कार्रवाई हो गयी, तो आागे से घटना करने से पहले लोग सोचेंगे, लेकिन यहां ऐसा नहीं हो रहा. जैसे को तैसा की तर्ज पर तुरंत हिंसा का बदला हिंसा की बात होती है.
हमें लगता है कि यही कमिश्नर जैसे बड़े पद पर बैठे अधिकारी को अच्छा नहीं लगा. शताब्दी समारोह के संबंधित प्रभात खबर की व्याख्यानमाला में वह बोल पड़े कि हम लोगों ने भले ही गांधी जी के मूल्यों के माहौल को बनाने की कोशिाश की, लेकिन कुछ पढ़े-लिखे लोगों ने उसे तार-तार कर दिया. मुङो लगता है कि हम सबको इससे सबक लेने की जरूरत है, तभी इस तरह की हिंसा और प्रति हिंसा पर लगाम लग सकता है. क्या चंपारण शताब्दी समारोह की वर्षगांठ पर हम लोग ये नहीं कर सकते. हमारा उत्तर होगा, कर सकते हैं.

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