बुधवार, 3 मई 2017

खेत जोतने और भैंस चराने का मजा

का हो चाचा, का हाल है..10 साल गांव पहुंचे सव्रेश ने जब नरेंद्र चाचा से इस अंदाज में बात की, तो उसकी सारी अंगरेजियत कहीं जाती रही. महानगर में मल्टीनेशनल कंपनी की नौकरी और वहां के अंगरेजी दा लोग. यह सब अब उसके जीवन का हिस्सा बन गया है, लेकिन सव्रेश अपने बचपन के दिनों को सर्वश्रेष्ठ मानता रहा है. इनके बारे में जब भी मौका मिलता है, लोगों से जिक्र करता रहता है, लेकिन उन लम्हों को जीने की कसक 10 साल बाद पूरी होने जा रही है.
पढ़ाई के सिलसिले में जब वह दिल्ली और दिल्ली से इंग्लैंड गया था, तो उसे सब अजूबा लगता था. दुनिया कितनी बड़ी है, इसका एहसास हुआ था. पढ़ाई के बाद अच्छी नौकरी मिल गयी, लेकिन गांव छूट गया. लंबा अंतर हो गया. बीच में एक-दो दिन की छुट्टी मिली, तो दिल्ली में ही दोस्तों से मिल कर वापस चला गया. एक-दो बार मां-बाबू जी भी बेटे का दफ्तर और शहरी घर देख चुके थे, जो उसने किराये पर ले रखा है, लेकिन सव्रेश का मन तो गांव में ही बसता है. घर पहुंचने के बाद घर में सामान रखा और निकल गया गांव के छोर पर..नदी के किनारे, जहां बचपन में उसकी सुबह और शामें गुजरा करती थीं, लेकिन सव्रेश को वहां निराशा हाथ लगी. नदी के किनारे पहले जैसे हुजूम उमड़ता था. वह नदारद था, जो बच्चे उसके साथ खेलते थे. वो एक-एक कर काम के सिलसिले में दूसरे राज्यों का रुख कर चुके थे.
बचपन से बड़े हुये बच्चे किताबों और कॉपियों के बोझ तले दबे दिख रहे थे. बुजुर्गो को भी घर में ही टीवी नाम का नया सहारा मिल गया था. नदी का किनारा सुनसान था. पहले जहां घास होती थी. वहां अब जंगलनुमा झाड़ियां उग आयी हैं. निराशा के बीच सव्रेश पुरानी यादों में खो गया. उसे याद आने लगा कि स्कूल आने-जाने के बाद जो समय बचता था. कैसे वह और उसके दोस्त नदी के किनारे आते थे. सब एक साथ नहाने के लिए उतर जाते थे, तब घाटों की छटा देखते ही बनती थी, लेकिन अब घाट भी वीरान होने की कगार पर हैं, जिन पाटों पर धोबी (जुलाहे) कपड़े धोते थे. अब उन पर भी काई जम चुकी है. लगता है कि लंबे समय से इन पर कपड़े नहीं धोये गये.
गोधूलि बेला में पहले गाय-भैंसे जंगल से वापस घर आती थीं और उनके चलने से हल्की-हल्की धूल उड़ती थी. अब वह भी नहीं दिख रही थी. बैलों की जोड़ियां भी खेतों से घरों की ओर नहीं आ रही हैं. सब बदल गया है. गांव के बच्चे अब आपस में फिल्मी बातें कर रहे हैं. किस होरी का किस हिरोइन से संबंध बना और किसका टूटा इसकी बात हो रही है. लड़कियों को सीरियल के एपिसोड भा रहे हैं. बानी ने क्या कपड़े पहने और शांति ने कैसे सबक सिखाया..इसमें इंट्रेस्ट है. दस साल की उम्र में जब सव्रेश ने गाय और भैंस चरानी शुरू की थीं, तो गांव के बड़े बुजुर्ग भी जंगल में आते थे और कैसे रहना है. कैसे बड़ों से बर्ताव करना चाहिये, सब बताते थे. सिखाते थे. सब लोग एक-दूसरे का कहना मानते थे, लेकिन अब बच्चे खुलेआम पुड़िया खा रहे हैं. बड़े देख कर कुछ नहीं कह पा रहे हैं. यही पूरे गांव में दिख रहा है.
गांव को लेकर सव्रेश ने जो सपने संजोये थे. वो बारी-बारी से टूट रहे थे. वह निराश होकर वापस घर लौटने लगा. रास्ते में उसे याद आया कि कैसे आम के दिनों में पेड़ों से तोड़ने के बाद आमों को जंगल में छुपा देते थे और फिर तीन-चार दिन बाद वो आम पके मिलते थे. भैंस की गोबर के खाद में भी कई बार आम पकने के लिए डाल दिये जाते थे. उनका रंग बदल जाता था. हरे आम पीले हो जाते थे. क्या अच्छा समय था. खेत जोतनेवाले पहलादी (प्रहलाद) के लिए खाना लेकर जाता था, तो जब पहलादी खाने लगते थे, तो सव्रेश बैलों पर हाथ आजमा लिया करता था. खेत जोतने का सलीका इसी तरह से सीखा था. एक दिन को पांच कट्ठा जमीन जोत गया था.
यादों में डूबा सव्रेश जब घर पहुंचा, तो दरवाजे पर उसके पिता जी ने स्वागत किया. कहने लगे, मुङो पता था कि तुम नदी के किनारे गये होगे, लेकिन अब सब बदल गया है. गांव में लोग एक-दूसरे को देखना नहीं चाहते हैं. वह बताने लगते हैं कि सव्रेश को नौकरी मिलने के बाद कैसे पड़ोसियों ने उनसे दूरी बना ली थी और थोड़ी-छोड़ी सी बात में लड़ने को उतारू हो जाते थे.
सव्रेश को नौकरी से उन्हें बड़ा कष्ट पहुंचा था, लेकिन सव्रेश से ये बात उनके पिता ने पहले नहीं कही थी. अब जब सव्रेश ये बातें सुन रहा था, तो वह मन ही मन मुस्करा रहा था और उसे उसका उत्तर मिल गया था कि आखिर गांव से परंपरा रूपी चीजें कैसे खत्म हो गयीं.


 

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