किस्त-चार
वैशाली पर बात हो और बुद्ध की चर्चा नहीं हो, तो बात अधूरी लगेगी. बुद्ध और महावीर का इस धरती से गहरा नाता रहा है. अभी वैशाली में जो रौनक दिखती है. उसमें बुद्ध और महावीर को माननेवालों का बड़ा हाथ है. विभिन्न देशों के बौद्ध मठ और मंदिर यहां बने हैं और कुछ बन रहे हैं. महावीर की जन्मस्थली माने जानेवाले स्थान पर भव्य मंदिर का निर्माण भी हो चुका है. इससे इतर रामशरण अग्रवाल जी के साथ उन स्थानों पर जाने को मिलता है, जो बुद्ध से जुड़े रहे हैं. ऐसा ही एक स्थान बुद्ध स्तूप से लगभग एक किलोमीटर दूर है. गांव व खेतों के बीच यह टीला है, जहां से साफ तौर पर बुद्ध स्तूप दिखता है. इस स्थान पर पहुंच कर राम शरण जी ठिठक जाते हैं. कहते हैं कि कम लोगों को ज्ञात हैं कि अंतिम बार बुद्ध इसी रास्ते से वैशाली से प्रस्थान किये थे और इसी जगह पर रुक कर उन्होंने अपने सबसे प्रिय आनंद से कहा था कि अब तथागत दुबारा वैशाली नहीं देख पायेंगे. इसी के बाद उनका परिनिर्वाण हो गया. राम शरण जी के यह कहते ही पूरा दृश्य आंखों के सामने घूम जाता है. पास में गेंहू काट रही महिलाएं व पुरुष आतुर निगाहें से हम लोगों को देखते हैं. उन्हें लगता है कि जैसे हम कोई सरकारी अधिकारी हैं और सव्रे करने के लिए आये हैं, लेकिन वह कुछ कहते नहीं हैं, जब तक हम लोग वहां रहते हैं. वह लोग हमें देखते रहते हैं.
इसके बाद लगभग तीन किलोमीटर दूर हम एक दूसरे गांव में पहुंचते हैं, जहां पर हजारों साल पुराना कुआं है. इसके आसपास दो टीले हैं. जिनकी खुदाई की जानी है. ऐसा माना जाता है कि इनमें इतिहास की तमाम चीजें दफन हैं. कुछ साल पहले एक टीले की खुदाई शुरू की गयी थी, तो उसमें काफी चीजें मिली थीं, लेकिन बाद में खुदाई बंद हो गयी. बताते हैं कि इसकी जांच पुरातत्व विभाग की ओर से की गयी, लेकिन आगे की कार्रवाई नहीं हो सकी. हम कुएं की बात कर रहे थे. सामान्य तौर पर अभी जो कुएं बनाये जाते हैं, उनमें छोटी-छोटी ईंटें लगती हैं, लेकिन रामशरण जी बताते हैं कि बौद्ध काल में बड़ी ईंटें बनायी जाती हैं. कुएं की गोलाई केवल दो ईंटों से ही कवर हो जाती है. ऐसा कहा जाता है कि पानी का रिसाव कम हो और जोड़ कम दिखें. इस वजह से उस समय बड़ी ईंटें कुओं के लिए बनायी जाती थीं. कुआं अभी तक मौजूद है. इसके बारे में यहां के गांव के लोग कम जानते हैं, लेकिन ये लोग बताते हैं कि कुछ साल पहले तक इसका पानी पूरे गांव के लोग पीते थे. इसी के पानी से दाल बनती थी. गांव के लोग विशेष रूप से दाल पकाने के लिए इससे पानी ले जाते थे, लेकिन हैंडपंप लगने के बाद इसका उपयोग बंद हो गया. अब यह कुआं प्रयोग में नहीं है.
गांव के लोग बताते हैं कि ऐसे ही तीन कुएं आसपास थे. पास इनमें से दो समय के साथ खत्म हो गये. एक स्कूल की बाउंड्री पर पड़ा था, जिसमें आसपास के लोगों ने कचरा डालना शुरू किया और वह पूरी तरह से बंद हो गया. दूसरे कुएं के साथ भी कुछ ऐसा ही हुआ, लेकिन इन कुओं में अपना इतिहास दबा है. इसकी जानकारी इन लोगों को नहीं है. सैकड़ों साल पुराने इन कुओं का हमारे पूर्वजों ने किस तरह से बनाया होगा और किस तरह से इनका उपयोग होता रहा है. यह सब आज की पीढ़ी को बताया जाना चाहिये, ताकि उन्हें इतिहास का बोध रहे. हाल के सालों में जो कुएं बंद हुये हैं. उनका भी फिर से जीर्णोद्धार किये जाने की जरूररत है.
जारी..
वैशाली पर बात हो और बुद्ध की चर्चा नहीं हो, तो बात अधूरी लगेगी. बुद्ध और महावीर का इस धरती से गहरा नाता रहा है. अभी वैशाली में जो रौनक दिखती है. उसमें बुद्ध और महावीर को माननेवालों का बड़ा हाथ है. विभिन्न देशों के बौद्ध मठ और मंदिर यहां बने हैं और कुछ बन रहे हैं. महावीर की जन्मस्थली माने जानेवाले स्थान पर भव्य मंदिर का निर्माण भी हो चुका है. इससे इतर रामशरण अग्रवाल जी के साथ उन स्थानों पर जाने को मिलता है, जो बुद्ध से जुड़े रहे हैं. ऐसा ही एक स्थान बुद्ध स्तूप से लगभग एक किलोमीटर दूर है. गांव व खेतों के बीच यह टीला है, जहां से साफ तौर पर बुद्ध स्तूप दिखता है. इस स्थान पर पहुंच कर राम शरण जी ठिठक जाते हैं. कहते हैं कि कम लोगों को ज्ञात हैं कि अंतिम बार बुद्ध इसी रास्ते से वैशाली से प्रस्थान किये थे और इसी जगह पर रुक कर उन्होंने अपने सबसे प्रिय आनंद से कहा था कि अब तथागत दुबारा वैशाली नहीं देख पायेंगे. इसी के बाद उनका परिनिर्वाण हो गया. राम शरण जी के यह कहते ही पूरा दृश्य आंखों के सामने घूम जाता है. पास में गेंहू काट रही महिलाएं व पुरुष आतुर निगाहें से हम लोगों को देखते हैं. उन्हें लगता है कि जैसे हम कोई सरकारी अधिकारी हैं और सव्रे करने के लिए आये हैं, लेकिन वह कुछ कहते नहीं हैं, जब तक हम लोग वहां रहते हैं. वह लोग हमें देखते रहते हैं.
इसके बाद लगभग तीन किलोमीटर दूर हम एक दूसरे गांव में पहुंचते हैं, जहां पर हजारों साल पुराना कुआं है. इसके आसपास दो टीले हैं. जिनकी खुदाई की जानी है. ऐसा माना जाता है कि इनमें इतिहास की तमाम चीजें दफन हैं. कुछ साल पहले एक टीले की खुदाई शुरू की गयी थी, तो उसमें काफी चीजें मिली थीं, लेकिन बाद में खुदाई बंद हो गयी. बताते हैं कि इसकी जांच पुरातत्व विभाग की ओर से की गयी, लेकिन आगे की कार्रवाई नहीं हो सकी. हम कुएं की बात कर रहे थे. सामान्य तौर पर अभी जो कुएं बनाये जाते हैं, उनमें छोटी-छोटी ईंटें लगती हैं, लेकिन रामशरण जी बताते हैं कि बौद्ध काल में बड़ी ईंटें बनायी जाती हैं. कुएं की गोलाई केवल दो ईंटों से ही कवर हो जाती है. ऐसा कहा जाता है कि पानी का रिसाव कम हो और जोड़ कम दिखें. इस वजह से उस समय बड़ी ईंटें कुओं के लिए बनायी जाती थीं. कुआं अभी तक मौजूद है. इसके बारे में यहां के गांव के लोग कम जानते हैं, लेकिन ये लोग बताते हैं कि कुछ साल पहले तक इसका पानी पूरे गांव के लोग पीते थे. इसी के पानी से दाल बनती थी. गांव के लोग विशेष रूप से दाल पकाने के लिए इससे पानी ले जाते थे, लेकिन हैंडपंप लगने के बाद इसका उपयोग बंद हो गया. अब यह कुआं प्रयोग में नहीं है.
गांव के लोग बताते हैं कि ऐसे ही तीन कुएं आसपास थे. पास इनमें से दो समय के साथ खत्म हो गये. एक स्कूल की बाउंड्री पर पड़ा था, जिसमें आसपास के लोगों ने कचरा डालना शुरू किया और वह पूरी तरह से बंद हो गया. दूसरे कुएं के साथ भी कुछ ऐसा ही हुआ, लेकिन इन कुओं में अपना इतिहास दबा है. इसकी जानकारी इन लोगों को नहीं है. सैकड़ों साल पुराने इन कुओं का हमारे पूर्वजों ने किस तरह से बनाया होगा और किस तरह से इनका उपयोग होता रहा है. यह सब आज की पीढ़ी को बताया जाना चाहिये, ताकि उन्हें इतिहास का बोध रहे. हाल के सालों में जो कुएं बंद हुये हैं. उनका भी फिर से जीर्णोद्धार किये जाने की जरूररत है.
जारी..
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