अमर शहीद जुब्बा सहनी के नाम पर राजनीतिक रोटियां दशकों से सेंकी जा रही हैं. कितने लोग शहीद का नाम लेकर बड़े नेता हो गये, लेकिन नाम लेने और हकीकत में क्या सच्चई है. ये शहीद के गांव जाने पर पता चलता है. शहीद जुब्बा सहनी का गांव मीनापुर प्रखंड मुख्यालय से सात किलोमीटर दूर चैनपुर टोले में हैं. इस टोले की हालत ऐसी है, जहां सिर्फ झोपड़ियां ही झोपड़ियां दिखेंगी. उनकी भी हालत ठीक नहीं. बिजली यहां लगभग पांच साल पहले आयी थी. उसकी निशानी मीटर, झोपड़ियों के बाहर लगे दिखते हैं. टोले में दो-तीन खंभे भी लगे हैं, लेकिन पूछते ही यहां के लोग असलियत बयान करने लगते हैं. कहते हैं कि हाल में खंभे लगे हैं. पहले बांस पर बिजली थी. खेतों में अभी बांस ही लगे हैं. उन्हीं के सहारे 11 हजार की लाइन दौड़ती है.
टोले को गांव का दरजा देने का एलान 15 साल पहले 2002 में हुआ था, लेकिन सरकारी फाइलों में ये एलान अभी दम तोड़ रहा है. यहां सरकारी योजनाओं की आंच नहीं पहुंचती हैं. यहां कुछ लोगों का राशन कार्ड बना है. वृद्धवस्था पेंशन मिलती है, लेकिन दोनों ही चीजें महीनों के इंतजार के बाद नसीब होती हैं. यहां के लोग कहते हैं कि राशन तो कभी पूरा मिला ही नहीं. कुछ न कुछ काट कर ही राशन दिया जाता है, जब ये लोग विरोध करते हैं, तो डीलर की ओर से धमकी दी जाती है. यहां के कुछ युवकों ने डीलर की धमकी भरी आवाज मोबाइल में रिकार्ड भी कर ली है. वह कहते हैं कि हम हक मांगते हैं, तो हमें इस तरह से डराया जाता है.
चैनपुर गांव के जुब्बा सहनी रहनेवाले थे. इसके अलावा इसी गांव के बांगुर सहनी भी स्वतंत्रता आंदोलन में शहीद हुये थे, लेकिन अब उनके घर की निशानी तक नहीं बची है. जुब्बा सहनी के परिवार में उनकी पतोहू मुनिया बची है, जिसकी तबियत हाल के दिनों में बहुत खराब थी. इसी की खबर जब प्रभात खबर ने प्रमुखता से छापी, तब प्रशासन की नींद टूटी. राज्य सरकार के निर्देश पर पहली बार डीएम मुजफ्फरपुर चैनपुर पहुंचे, तो उन्हें वहां पर कमियां ही कमियां नजर आयीं. डीएम ने जुब्बा सहनी के परिजनों को कई तरह की सरकारी सुविधाएं देने का एलान किया. इनमें मुनिया को उत्तराधिकार पेंशन देने की बात भी शामिल है.
इससे इतर अगर बात करें, तो इस टोले में जुब्बा सहनी की मूर्ति क्या. एक पोस्टर तक नहीं हैं. गांव के बुजुर्ग कहते हैं कि हम लोगों की लंबी उम्र बीत चुकी है, लेकिन हम लोगों ने कभी सुख नहीं देखा है. हमेशा परेशानी में ही रहे हैं. कोई सुधि लेने भी नहीं आता है. ये बताते हैं कि गांव में सरकारी योजनाओं का हाल खराब है. अभी तक किसी की उज्जवला योजना के तहत टोले में गैस का सिलेंडर नहीं मिला है. बिहार सरकार ने रेडियो देने की शुरुआत की थी. वो रोडियो भी नहीं नसीब हुआ है. तमाम तरह के बीमा की बात होती है, लेकिन यहां किसी का बीमा भी नहीं है. बुजुर्ग बताते हैं कि वह रैलियों में ही भाग लेने पटना गये हैं. इसके अलावा कभी प्रदेश की राजधानी तक नहीं पहुंचे हैं.
गांव में अभी भी इतनी गरीबी है कि बच्चे के बड़े होते ही उसे मजदूरी में लगा दिया जाता है, ताकि घर की रोटी चल सके. पढ़ने के लिए स्कूल नहीं है. पांच साल पहले जमीन भी सरकार को दी गयी, लेकिन स्कूल नहीं बन सका. सबसे नजदीक जो उर्दू स्कूल है, उसमें हिंदी के शिक्षक नहीं हैं. यहां का कोई बच्च पढ़ना चाहता है, तो उसे एक किलोमीटर दूर जाना पड़ता है. अगर किसी की तबियत खराब हो गयी, तो सात किलोमीटर चल कर मीनापुर जाना होगा. आसपास में किसी तरह की व्यवस्था नहीं है. गांव में जिस स्वास्थ्य कार्यकर्ता की बहाली है, वो कभी आता ही नहीं है. यहां के मुखिया बताते हैं कि हमने फोन किया, उसके बाद भी स्वास्थ्य कार्यकर्ता ने आना शुरू नहीं किया.
शहीद के टोले का हाल ये है कि यहां आजादी के सत्तर साल बाद पहला सरकारी चापाकल विधायक फंड से हाल में ही लगा है, वो भी तब जब प्रभात खबर में खबर छपी. उसके बाद आनन-फानन में चापाकल लगवाया गया. अब इसी का पानी पूरे मोहल्ले के लोग पीते हैं. जिला प्रशासन की ओर से कई तरह की घोषणाएं की गयी हैं, लेकिन अभी किसी पर काम शुरू नहीं हुआ है. सात निश्चय योजना के तहत मोहल्ले का विकास करने की बात हो रही है. राज्यसभा सांसद अनिल सहनी ने इसे गोद ले लिया है, लेकिन अभी तक यहां का दौरा तक नहीं किया है. विधायक का कहना है कि इस गांव को आदर्श गांव बनाया जाना चाहिये. इसकी मांग उन्होंने विधानसभा में की है, लेकिन सरकार की ओर से कुछ आश्वासन अभी तक नहीं दिया गया है.
हाल में 11 मार्च को जुब्बा सहनी का शहादत दिवस मनाया गया. राजधानी पटना में बड़ा समारोह हुआ, जिसमें मुख्यमंत्री नीतीश कुमार भी शामिल हुये थे. वहां मुख्यमंत्री ने कहा कि हम पटना में जुब्बा सहनी के नाम पर स्मारक बनायेंगे, लेकिन इस गांव के लोगों का कहना है कि पटना में स्मारक बनने से पहले सरकार को हमारी स्थिति को देख लेना चाहिये. गांव के मुखिया कहते हैं कि यही त्रसदी है. जमीन पर काम नहीं हो रहा है. यहां के लोग परेशान हैं.
टोले को गांव का दरजा देने का एलान 15 साल पहले 2002 में हुआ था, लेकिन सरकारी फाइलों में ये एलान अभी दम तोड़ रहा है. यहां सरकारी योजनाओं की आंच नहीं पहुंचती हैं. यहां कुछ लोगों का राशन कार्ड बना है. वृद्धवस्था पेंशन मिलती है, लेकिन दोनों ही चीजें महीनों के इंतजार के बाद नसीब होती हैं. यहां के लोग कहते हैं कि राशन तो कभी पूरा मिला ही नहीं. कुछ न कुछ काट कर ही राशन दिया जाता है, जब ये लोग विरोध करते हैं, तो डीलर की ओर से धमकी दी जाती है. यहां के कुछ युवकों ने डीलर की धमकी भरी आवाज मोबाइल में रिकार्ड भी कर ली है. वह कहते हैं कि हम हक मांगते हैं, तो हमें इस तरह से डराया जाता है.
चैनपुर गांव के जुब्बा सहनी रहनेवाले थे. इसके अलावा इसी गांव के बांगुर सहनी भी स्वतंत्रता आंदोलन में शहीद हुये थे, लेकिन अब उनके घर की निशानी तक नहीं बची है. जुब्बा सहनी के परिवार में उनकी पतोहू मुनिया बची है, जिसकी तबियत हाल के दिनों में बहुत खराब थी. इसी की खबर जब प्रभात खबर ने प्रमुखता से छापी, तब प्रशासन की नींद टूटी. राज्य सरकार के निर्देश पर पहली बार डीएम मुजफ्फरपुर चैनपुर पहुंचे, तो उन्हें वहां पर कमियां ही कमियां नजर आयीं. डीएम ने जुब्बा सहनी के परिजनों को कई तरह की सरकारी सुविधाएं देने का एलान किया. इनमें मुनिया को उत्तराधिकार पेंशन देने की बात भी शामिल है.
इससे इतर अगर बात करें, तो इस टोले में जुब्बा सहनी की मूर्ति क्या. एक पोस्टर तक नहीं हैं. गांव के बुजुर्ग कहते हैं कि हम लोगों की लंबी उम्र बीत चुकी है, लेकिन हम लोगों ने कभी सुख नहीं देखा है. हमेशा परेशानी में ही रहे हैं. कोई सुधि लेने भी नहीं आता है. ये बताते हैं कि गांव में सरकारी योजनाओं का हाल खराब है. अभी तक किसी की उज्जवला योजना के तहत टोले में गैस का सिलेंडर नहीं मिला है. बिहार सरकार ने रेडियो देने की शुरुआत की थी. वो रोडियो भी नहीं नसीब हुआ है. तमाम तरह के बीमा की बात होती है, लेकिन यहां किसी का बीमा भी नहीं है. बुजुर्ग बताते हैं कि वह रैलियों में ही भाग लेने पटना गये हैं. इसके अलावा कभी प्रदेश की राजधानी तक नहीं पहुंचे हैं.
गांव में अभी भी इतनी गरीबी है कि बच्चे के बड़े होते ही उसे मजदूरी में लगा दिया जाता है, ताकि घर की रोटी चल सके. पढ़ने के लिए स्कूल नहीं है. पांच साल पहले जमीन भी सरकार को दी गयी, लेकिन स्कूल नहीं बन सका. सबसे नजदीक जो उर्दू स्कूल है, उसमें हिंदी के शिक्षक नहीं हैं. यहां का कोई बच्च पढ़ना चाहता है, तो उसे एक किलोमीटर दूर जाना पड़ता है. अगर किसी की तबियत खराब हो गयी, तो सात किलोमीटर चल कर मीनापुर जाना होगा. आसपास में किसी तरह की व्यवस्था नहीं है. गांव में जिस स्वास्थ्य कार्यकर्ता की बहाली है, वो कभी आता ही नहीं है. यहां के मुखिया बताते हैं कि हमने फोन किया, उसके बाद भी स्वास्थ्य कार्यकर्ता ने आना शुरू नहीं किया.
शहीद के टोले का हाल ये है कि यहां आजादी के सत्तर साल बाद पहला सरकारी चापाकल विधायक फंड से हाल में ही लगा है, वो भी तब जब प्रभात खबर में खबर छपी. उसके बाद आनन-फानन में चापाकल लगवाया गया. अब इसी का पानी पूरे मोहल्ले के लोग पीते हैं. जिला प्रशासन की ओर से कई तरह की घोषणाएं की गयी हैं, लेकिन अभी किसी पर काम शुरू नहीं हुआ है. सात निश्चय योजना के तहत मोहल्ले का विकास करने की बात हो रही है. राज्यसभा सांसद अनिल सहनी ने इसे गोद ले लिया है, लेकिन अभी तक यहां का दौरा तक नहीं किया है. विधायक का कहना है कि इस गांव को आदर्श गांव बनाया जाना चाहिये. इसकी मांग उन्होंने विधानसभा में की है, लेकिन सरकार की ओर से कुछ आश्वासन अभी तक नहीं दिया गया है.
हाल में 11 मार्च को जुब्बा सहनी का शहादत दिवस मनाया गया. राजधानी पटना में बड़ा समारोह हुआ, जिसमें मुख्यमंत्री नीतीश कुमार भी शामिल हुये थे. वहां मुख्यमंत्री ने कहा कि हम पटना में जुब्बा सहनी के नाम पर स्मारक बनायेंगे, लेकिन इस गांव के लोगों का कहना है कि पटना में स्मारक बनने से पहले सरकार को हमारी स्थिति को देख लेना चाहिये. गांव के मुखिया कहते हैं कि यही त्रसदी है. जमीन पर काम नहीं हो रहा है. यहां के लोग परेशान हैं.