सोमवार, 17 जुलाई 2017

उम्मीदों का आसमान

मिठनसराय गांव. भारत के उन पिछड़े गांवों में शुमार है, जो आजादी के 70 साल वाले जुमले पर फिट बैठता है. यहां भी विकास के नाम पर योजनाएं जरूर आयीं, लेकिन हुआ कुछ नहीं. प्रभात खबर ने जब इस गांव को गोद लेने का फैसला किया, तो गांव के लोगों में उम्मीद की लहर जागी. हम लोगों ने पहली ही बैठक में साफ कर दिया था, जिसमें गांव के चुनिंदा 25 लोग रहे होंगे. हम कोई चमत्कार करने नहीं आये हैं. हम यहां आपके सहयोग से आपके गांव को बदलने आये हैं, जिसमें समय लगेगा, क्योंकि सरकारी योजनाएं कैसे चलती हैं. इसकी चाल सब लोग जानते हैं. यह बात गांव वालों के लिए नयी थी, क्योंकि इससे पहले विधानसभा क्षेत्र (कांटी-बोचहां) के सीमावर्ती इस गांव में जब भी कोई गया, वह सपने दिखा गया, लेकिन वह हकीकत में तब्दील नहीं हुआ. इसका जीता उदाहरण गांव में बन रहे दो शौचालय हैं, जिनकी नीव सात साल पहले पड़ी थी, लेकिन पूरे अभी तक नहीं हो पाये हैं.
गांव के बाहर बांध है, इसे बूढ़ी गंडक पर बनाया गया, लेकिन सुविधा बढ़ी, तो बांध पर रोड बन गयी, जो अब इतनी जजर्र हो चुकी है कि चलना मुश्किल है, जब भी कोई जाता है, तो ग्रामीण कहते हैं कि बांध की रोड बन जायेगी, तो हम लोगों के सबसे ज्यादा राहत मिल जायेगी. इसका उदाहरण पांच जुलाई को भी देखने को मिला था, जब गांव गोद का उद्घाटन समारोह था. मंत्री से लेकर जिलाधिकारी तक गांव गये थे. सबने स्थिति देखी, तो दंग रह गये. मंत्री को स्कॉट कर रहे काफिले में शामिल सुरक्षा अधिकारियों ने कह दिया था कि गांव की रोड पर गाड़ी रुकेगी ही नहीं, लेकिन शुक्र मंत्री जी के ड्राइवर का रहा, जिसने उनकी बात को अनसुना कर दिया और गांव को गांव की पगडंडी में उतार दिया. इस तरह से मंत्री जी कार्यक्रम स्थल तक पहुंच गये. फोरलेन से महज डेढ़ किलोमीटर की दूरी पर बसे गांव में जाने में नाकों चने चबाने पड़ेंगे, यह मंत्री जी और उनकी सुरक्षा में लगे लोगों ने सोचा तक नहीं था. वह कलक्टर और अन्य अधिकारियों की दुहाई दे रहे थे, लेकिन जब कहा गया कि कलक्टर साहब कुछ देर पहले ही गांव से वापस गये हैं, तो शांत हो गये. यह तो बात रही मंत्री जी और कलक्टर साहब के दौरे की.
गांव को गोद लेने के बाद से अक्सर जाना होता जा रहा है, जब भी गांव में कुछ होता है, तो जाने के मन करता है. कभी गाड़ी से तो कभी मोटरसाइकिल से ही. चला जाता है. ऐसे ही रविवार की सुबह गांव से मिलने का प्लान बना और हम लोग पहुंच गये. गांव के लोगों की परेशानियों की बारे में जानना चाहा. साथ ही दो दिन पहले बिजली का सव्रे गांव में हुआ है. उसके बारे में जानकारी ली. सबने उत्साहित होकर अपनी बात रखी. इस बार बैठक में एक सौ से ज्यादा लोग पहुंचे. इनमें लगभग पचास महिलाएं रही होंगी, जिनमें दो वार्ड सदस्य भी. महिलाओं का सबसे बड़ी परेशानी पेंशन और रोजगार. गांव में जीविका का ग्रुप खुला है, जिसके जरिये महिलाओं को लोन मिला है, लेकिन इसके बाद भी इनकी आर्थिक हालत ठीक नहीं. सब काम चाहती हैं. घर में शौचालय बने. यह भी महिलाओं की प्राथमिकता में है.
मिठनसराय गांव की परेशानियां अन्य गांवों जैसी ही हैं. कार्ड होने के बाद भी राशन नहीं मिलता. डीलर, एक माह का राशन देता है, चढ़ाता दो माह का है. कन्या विवाह योजना का पैसा सालों से नहीं मिला है. इंदिरा आवास की एक किस्त मिली, दूसरी किस्त नहीं मिल रही है. गांव में ऐसे लोगों को जमीन मिल सकती है क्या, जिनके पास रहने को भी अपनी जमीन नहीं है. ऐसे तमाम सवाल एक के बाद एक आने लगे. इसी बीच ग्रामीणों ने प्राथमिक स्कूल में पढ़ाई का मुद्दा उठाया और कहने लगे कि खिचड़ी के बाद बच्चों को स्कूल में नहीं रोका जाता है. उन्हें घर भेज दिया जाता है, जबकि दो कमरे के स्कूल में सात शिक्षकों को नियुक्ति है. शिक्षक कुर्सी पर पैर रख कर बैठे रहते हैं. इन लोगों को बच्चों को देखने और पढ़ाने की फुरसत नहीं है. यह सुनते ही गांव के एक शिक्षक तल्ख होने लगे, लेकिन ग्रामीणों ने उन्हें अपने तर्को से चुप करा दिया.
गांव सुधार के लिए जोर-शोर से लगे शिक्षक महोदय को झटका लगा और वो ग्रामीणों से उलझने लगे, लेकिन ग्रामीण उन्हें बख्शने के मूड में नहीं थे. हालांकि बच्चे स्कूल में तय समय तक नहीं रहते, इसमें अभिभावकों की भी गलती है, क्योंकि खिचड़ी के बाद बच्च घर पहुंच जाता है, तो उन्हें पूछना चाहिये कि बिना छुट्टी के वो कैसे घर पहुंच गये, लेकिन अभिभावक ये नहीं करते. बात उठी, तो सोमवार से इसकी निगरानी पर सहमति बनी.
मिठन सराय की स्थिति बदलने की शुरुआत हो गयी है. अगर बच्चों को अच्छी शिक्षा मिलने लगेगी, तो तत्कालिक काम तो हो ही जायेंगे. इनमें गांव की सड़क का निर्माण, जो डेढ़ साल से अटका था. प्रभात खबर की पहल पर फिर से शुरू हो रहा है. सामान गांव में गिरने लगा है. गांव में बिजली का सव्रे हो चुका है. गांव में चापाकल के लिए जगह चिह्नित हो गयी है. गांव में पेड़ लगाने के लिए वन विभाग तैयार हो गया है. ग्रामीणों को लीची की खेती के बारे में अनुसंधान केंद्र के वैज्ञानिक जानकारी देंगे. साथ ही लीची के पेड़ भी ग्रामीणों को दिये जायेंगे. ऐसी और तमाम योजनाओं पर काम हो रहा है, जिनसे गांव की स्थिति बदले. अंत में एक बात और. गांव के पुस्तकालय को फिर से चालू कराने पर भी विचार हो रहा है. पुस्तकालय शुरू होगा, तो माहौल बदल जायेगा, जिससे गांव के आसपास होनेवाले अपराध में कमी आयेगी. ऐसा मेरा मानना है. बाकी, तो भगवान के हाथ में है.

रविवार, 16 जुलाई 2017

देखें और सब्सक्राइब करें.
















इसे मैं कोशिश भर कहूंगा, लेकिन अगर कोई बच्च करे, तो अच्छा ही है. आप उत्साह बढ़ायेंगे. इसे देखेंगे, चैनल को सब्सक्राइब करेंगे, तो और भी उत्साह बढ़ेगा.

शुक्रवार, 14 जुलाई 2017

यह तस्वीर दो साल पुरानी है, लेकिन महत्वपूर्ण है. बिना किसी ट्रेनिंग के केवल खेलने के दौरान आाठ साल का यह बच्च किस तरह के करतब कर लेता है. अगर इसे तराशा जाये, तो यह क्या कमाल कर सकता है. तस्वीर प्रभात खबर के सीनियर साथी माधव ने खीची थी, जिन्हें इसके लिए काफी सराहना मिली. यह तस्वीर आप भी देखें और अपने विचार दें.

गुरुवार, 13 जुलाई 2017

बैठो बताई का पुरवा

अब तो गांवों की स्थिति बदल गयी है. सब जगह स्मार्ट फोन हो गये हैं. अब गांव के लोग भी अपने में व्यवस्त हो गये हैं. दूसरों से बात करने का समय नहीं होता है, लेकिन आज से तीन-चार दशक पहले के बारे में सोचिये, तब स्मार्ट फोन की चर्चा तक नहीं थी. टीवी के बारे में कुछ बात होने लगी थी, लेकिन सब गांवों में टीवी थी नहीं. अगर किसी गांव में टीवी होती थी, तो शाम के समय दो घंटे का प्रसारण आता था दूरदर्शन पर, जिसे देखने के लिए कई गांव के लोग इकट्ठा होते थे. उस समय ग्रामीणों में के मनरंजन का साधन नाच, गान, तमाशा, नौटंकी जैसी चीजें होती थीं, लेकिन यह भी हर समय नहीं हो सकती थीं. किसी खास मौके पर ही इनका आयोजन होता था, लेकिन लोक जीवन में कुछ ऐसे प्रसंग होते थे, जिनसे हंसने का अवसर देते थे. आप कितना भी तवान में हों, ऐसे प्रसंग सुन लें, तो हंसने लगें.
आज ऐेसा प्रसंग याद आया, जो बचपन के दिनों में हर दो-चार दिन पर सुनने को मिल जाता था. हमारे पड़ोस में एक नाई रहता था, नाम था छोटू नाई. बाल बनाने का काम उसका बड़ा भाई करता था. वह उसकी मदद में रहता था. जीवन भर बाल बनाना नहीं सीख सका. खूब प्रसंग कहता था. इसी में एक पसंदीदा प्रसंग था. बैठो बताई का पुरवा. इसको लेकर बड़े चाव से सुनाता था. कहता था कि एक बार एक आदमी साइकिल से कहीं जा रहा था. रास्ते में नहर पड़ी, जिसके किनारे एक आदमी आराम कर रहा था. आराम करने की नीयत से वह वहां कुछ देर के लिए रुका. पास के नल में पानी पीने के बाद उसने पास के आदमी से पूछा, आागे कौन सा गांव है, तो वह आदमी बोल पड़ा. बैठो बताई का पुरवा. यह सुनते ही साइकिल वाला उसके पास बैठ गया और पूछने लगा कि आगे कौन सा गांव है, उसने फिर वही दोहराया. इस पर साइकिल वाले ने कहा कि बैठ तो गये हैं. अब कैसे बैठे. गांव का नाम बताओ, इस पर उस व्यक्ति ने फिर नाम दोहरा दिया. काफी देर तक इसी तरह से बात होती रही. साइकिलवाला आदमी समझ नहीं पा रहा था कि आखिर गांव का नाम क्या है, जबकि नहर के किनारे बैठा व्यक्ति उसे लगातार बता रहा था कि बैठो बताई का पुरवा.
यह प्रसंग सुनाते समय छोटू नाई खुद सीरियस हो जाता था, लेकिन जो लोग सुनते थे. वह हंसते-हंसते लोटपोट हो जाते थे. ऐसे ही कई और प्रसंग उसके मुंह से लगातार सुनने को मिलते थे. प्रसंग सुनाने के अलावा छोटू नाई कभी सीरियस नहीं रहते. बीमार होने पर भी. कम उम्र ही वह इस दुनिया को छोड़ कर चले गये. हुआ यूं कि छोटू के पेट में दर्द रहता था और वो रात में गरम पानी की कई बोतल लेकर सोते थे, जब दर्द होता था, तो पेट पर गर्म पानी की बोतल रख लेते थे, जिससे आराम मिलता था. ऐेसे ही एक दिन दर्द उठा, वो गरम पानी की बोतल लेकर सोये थे. राम में ऐसा दर्द हुआ, जो उन पानी की बोतलों से ठीक नहीं हुआ. वह बोतल पर बोतल पेट पर रखते गये, लेकिन उसी रात उनकी मौत हो गयी. मौत की सूचना लोगों को तब मिलीं, तब उनके पेट पर रखीं बोतले एक-एक करके चारपाई से नीचे गिरीं.

बाहर गंध, अंदर सुगंध

बाहर गंध, अंदर सुगंध, यह बात जैसे ही आनंद ने सुनी, नहले पे दहला मारते हुये बोले, बाहर से सेरवानी, अंदर से परेशानी. दरअसल, यह दो तस्वीरें उस जगह की हैं, जिन्हें हम अपने मुजफ्फरपुर की अच्छी जगहों में शुमार करते हैं. आनंद एक बड़े शो रूम में काम करते हैं. गुरुवार को चलते-चलते उनसे मुलाकात हो गयी. शो रूम के बाहर इतनी बदबू कि खड़ा होना मुश्किल. इसके बाद भी दर्जनों की संख्या में लोग खड़े थे, जबकि शो रूम के अंदर सेंट छिड़का गया था, जिससे महक बिखर रही थी. इससे वहां सामान खरीद रहे लोग अच्छा महसूस कर रहे थे. बात चली, तो आनंद कहने लगे कि ये सब देखने के लिए है. बारिश होती है, तो शो रूम में भी पानी आ जाता है. यहां की स्थिति अलग नहीं है. हमने सोख्ता बनाया हुआ है. यह चमक दमक..आगे कुछ बोलते हुये वह रुक जाते हैं.
मुजफ्फरपुर शहर के कुछ ऊंचे इलाकों को छोड़ दें, तो निचले इलाकों में अब दरुगध ने डेरा जमा लिया है. बारिश को चार दिन हो गये हैं, लेकिन अभी गली, मोहल्लों और घरों से पानी नहीं निकल पाया है. कहने को निगम की ओर से लगातार काम हो रहा है, लेकिन अभी तक सभी को राहत नहीं मिली है. कहीं, लोग ट्यूब के सहारे घर से बाहर निकल रहे हैं, तो कहीं हाफ पैंट के सहारे गुजारा कर रहे हैं. महिलाएं पानी में खड़ी होकर खाना बनाने व घर के काम करने को मजबूर हैं.
मुजफ्फरपुर ही क्या, उत्तर बिहार के सीतामढ़ी, दरभंगा और मधुबनी सब जगह यही स्थिति है. तस्वीरें वहां की हकीकत को बयान कर रही हैं. कैसे लोग रह रहे हैं. निजी क्या, सरकारी ऑफिसों तक में पानी भरा है. वहां कर्मचारियों व अधिकारियों का काम करना मुश्किल है, लेकिन इसी मुश्किल के बीच काम हो रहा है.
गांव और शहर को समझनेवाले विशेषज्ञ कहते हैं कि यह हम लोगों की बनायी स्थिति है. हम लाखों रुपये खर्च करके घर बनाते हैं, लेकिन यह नहीं सोचते कि नाली कहां निकलेगी. सड़क से लोग कैसे गुजरेंगे. घर के आसपास कुछ न कुछ अतिक्रमण की आदत हम में से ज्यादातर को पड़ गयी है. उसका परिणाम ही हमें इस रूप में देखने को मिल रहा है. यह ठीक होनेवाला नहीं. नगर निगम और नगर परिषद चाहे जितना कर लें, हालात हमीं आप मिल कर बदल सकते हैं. अतिक्रमण के साथ हम लोग कूड़े के रूप में इतनी पॉलीथीन सड़कों पर फेंक रहे हैं, जो नाले और नालियों में जाकर फंस रही हैं.
कहने और सुनने में भले ही यह उपदेश जैसा लगता है, लेकिन सच्चई यही है और इसी का खामियाजा हमारे शहर भुगत रहे हैं. हम स्मार्ट सिटी में तो शामिल होना चाहते हैं, लेकिन खुद स्मार्ट नहीं बनना चाहते हैं. ऐसे कैसे होगा, क्या स्मार्ट होने का यही नतीजा है कि लोग हफ्तों, महीनों बारिश के पानी में रहने को मजबूर हों.

मंगलवार, 11 जुलाई 2017

स्मार्ट सिटी क्या बोलेगी?

सौ साल से ज्यादा पुराना नगर भवन शर्म में डूबा जा रहा है. इसके चारों ओर ऐसी स्थिति बन गयी है, मोटरसाइकिल और गाड़ी क्या, पैदल भी निकलना मुश्किल है. अगर पैदल चलते समय आप संभले नहीं, तो गिरना तय है. साल भर पहले जब साफ-सफाई और रंग रोगन हुआ था, तो नगर भवन को लगा था कि मेरे दिन फिर जायेंगे. हाल में मुजफ्फरपुर स्मार्ट सिटी घोषित हो गया है, लेकिन नगर भवन के दिन फिर पहले जैसे होते जा रहे हैं. यही परेशानी उसे खाये जा रही है. आसपास में दो-दो पार्क, लेकिन में भी चहल-पहल नहीं. दोनों में ताला बंद. अगर कोई इस सड़क का रुख करता है, तो उसका अपना स्वार्थ होता है. स्वार्थ कैसा, यह इस सड़क से गुजर कर देखा जा सकता है. आपको मुंह पर रुमाल रखनी पड़ेगी.
नगर भवन की समझ में ये नहीं आ रहा है कि स्मार्ट सिटी घोषित होने के बाद उसकी दुर्दशा क्यों हो रही है? क्यों उसे गर्त में ढकेला जा रहा है, लेकिन उसे इस बात से शांति मिलती है कि शहर के जितने प्रतीक हैं, वो सब अपनी बदकिस्मती पर रो रहे हैं. कोई भी अपने पर इतरा नहीं सकता. कल्याणी चौक, 36 घंटे से पानी में डूबा है. स्टेशन रोड की नियति ही नाले का पानी हो गयी है. वहां से निकलना मुश्किल हो रहा है. मोतीझील में आप खोजते रह जायेंगे, मोती नहीं मिलेगा. अलबत्ता पानी से आपकी तबियत जरूर खराब हो जायेगी. संतोषी माता मंदिर के पास से गुजरना किसी जंग से कम नहीं है. यहीं से इस्लामपुर लहठी मंडी शुरू होती है, जहां से विश्व सुंदरी ऐश्वर्या राय की शादी में लहठी गयी थी, लेकिन बारिश ने इस सड़क को गंदा नाला बना दिया है.
गंदे पानी के बीच गुजरती कारें और मोटरसाइकिलें सड़क पर समुद्र आनेवाली लहरों जैसा अनुभव पैदा करती हैं. सदर अस्पताल के सामने घुटने भर पानी है. यहां से आप पैदल गुजरे, तो भीगना तय है, क्योंकि इस रोड पर वाहन बहुत चलते हैं. ये सब जगहें नगर भवन से कुछ सौ मीटर की दूरी पर ही हैं, जिन्हें वह बिना किसी परेशानी के देख सकता है. हाल के सालों में मोतीझील ओवरब्रिज बनने से दूर तक देख पाने में कुछ बाधा आयी है, लेकिन नगर भवन को इतिहास तो सबका मालूम ही है. वह सब देख रहा है. शहर पहले कैसा था, अब कैसे हो गया है.
दो दिन की बारिश ने शहर के निचले इलाकों को झील में बदल दिया है. हर गली मुहल्ले और घर में पानी है. पानी की परेशानी के बीच काम हो रहा है. 2016 से ही पूरे शहर में नालों की निर्माण तेजी से हो रहा था, तब इनकी गुणवत्ता पर सवाल उठाया गया, तो किसी ने ध्यान नहीं दिया. अब इनसे पानी नहीं निकल रहा, तो कोई कुछ बोलने को तैयार नहीं है. इस तरह से एक और योजना अपनी नियति की भेट चढ़ गयी. नालों पर कितने लाख खर्च हुये पता नहीं, लेकिन पानी निकालने के लिए बड़े-बड़े अधिकारी दिन रात एक किये हुये हैं, लेकिन पानी है कि निकलने का नाम ही नहीं ले रहा है. माड़ीपुर सड़क को ऊंचा इलाका माना जाता है, लेकिन यहां से चक्कर चौक की ओर बढ़िये, सच्चई सामने आ जायेगी. यही हाल है, जिसे देख कर नगर भवन की तल्खी भी कुछ कम होती है. कहता है, हम क्यों ज्यादा परेशान हों, सब तो वैसे ही हैं.
निचले बसे इलाकों के साथ नयी बसी कालोनियों पर भी हाल बेहाल है. वहां भी पानी भरा है. गांव से जो लोग शहर आ रहे हैं. वह भी कुछ ऐसी ही दास्तान सुना रहे हैं. नगर भवन के सामने से गुजरते समय फोन बज उठा. किसी तरह संभलते हुये फोन उठाने की कोशिश की, तो गंदे पानी में जाते-जाते बचा, रिसीव किया, तो सामने से एक नेता जी थी. कहने लगे गांव का हाल खराब है. सब्जी की खेती बर्बाद हो गयी. धान की रोपनी हो गयी थी, लेकिन पानी भर गया. बिचड़ा भी डूब गया है. जल्दी पानी नहीं निकला, तो सब नष्ट हो जायेगा. फिर धान लगाने में देरी होगी. इसे बारिश नहीं आपदा कहिये. दो दिन में गांव में जिधर देखो पानी ही नजर आ रहा है.
फेसबुकिये युवा वर्ग को अलग ही सूझ रही है. वह अपनी तरह से बारिश को देख रहा है. पैंट मोड़ कर कल्याणी से टावर चौक और देवी मंदिर की ओर चला जायेगा, लेकिन मोबाइल से कनेक्टेड होड फोन नहीं छूटेगा. अभी-अभी मैसेज आया, लिखा है, हैलो, इंद्र भगवान, मोटर बंद कर दो, पानी भर गया है. अब इसे क्या कहेंगे? यही मोबाइल का जमाना है और ये हम हैं, जो ऐसी बातों पर ध्यान देते हैं. इतना कहते, सुनते और पढ़ते-पढ़ते हम अब नगर भवन से इतना दूर निकल आये हैं कि वह दिखायी नहीं दे रहा है. इसलिए उसका दुख-दर्द भी महसूस नहीं हो रहा है. आगे फिर कभी. 

रविवार, 9 जुलाई 2017

वो बारिश का मौसम, बाढ़ का पानी

आज रविवार का दिन भले ही है. सावन की पहली सोमवारी से पहले का भी दिन है. दोपहर बाद से हो रही बारिश से आत्मिक आनंद तो जरूर मिला, लेकिन इसकी वजह वर्तमान नहीं, अतीत रहा. वो बचपन, जिसे हमने गांव में जिया. सामूहिकता के बीच बच्चों की होनेवाली परवरिश को देखा. वहां अपना-पराया कम देखा जाता था. उम्र बढ़ी, तो दायरा और सोच, दोनों सिमट गये. अब मैं सिमट कर दो बेडरूम के अपार्टमेंट में आ गया हूं. बारिश को खिड़कियों से देखना और महसूस करना मजबूरी बन गया है, जब बारिश आये, तो यह डर लगा रहता है कि कहीं भीग ना जायें. भीगे तो सर्दी जुकाम और बुखार आ जायेगा. इसी की वजह से दूर हो गया हूं. मन खुद को अकेला महसूस करता है.
कई सालों बाद इस बार अच्छी बारिश देखने को मिल रही है. इस बार पानी बरसता है, तो ऐसा नहीं लगता कि कुछ देर में बंद हो जायेगा. पता नहीं क्यों? मन कहता है कि इस बार अच्छी बारिश होगी. होगी या नहीं, ये तो भविष्य की गर्त में है, लेकिन अभी तो अच्छा ही हो रहा है. आज खिड़की के पास बैठा था, तो किसी चलचित्र की तरह बचपन की दिनों का बारिश की यादें सामने घूमने लगीं. क्या थे, वो बचपन के दिन. संसाधन कम थे, लेकिन सुकून ज्यादा. बारिश में लगभग हर साल बाढ़ आती थी. बाढ़ का पानी, एक तरफ से गांव के पास आ जाता था, तो दूसरी ओर से घर की कुछ दूरी पर. जंगली जानवर, सांप आदि, गांव की ओर रुख करते थे. रात में खतरे की बात होती थी, लेकिन हम बच्चे, किसी न किसी बहाने पानी तक पहुंच ही जाते थे. कागज की नाव और गांव के लोगों की जिंदगी को देखने के लिए.
गांव की खेती का बड़ा हिस्सा नदी के पार था, सो लोग कोई न कोई जतन करके नदी के पार जाने की व्यवस्था बना लेते थे. यही मौसम मूंगफली बोने का भी होता था और धान की रोपनी का भी. मूंगफली बोनेवाले बड़े-बड़े मिट्टी के घड़ों में सामान भर कर उसी के सहारे तैरते हुये नदी पार करते थे. कई कपड़े सिर में बांध लेते थे और जानवरों की पूछ पकड़ लेते थे और नदी पार कर जाते थे. नदी पार करने में भैंस पर भरोसा कम रहता था, क्योंकि वह पानी में कभी-कभी डुबकी भी मार देती थी, जिससे लोगों के सिर में बंधे कपड़े भीग जाते थे. कई बार धारा के साथ बहती जाती, तो गांव से काफी दूर पर जाकर निकलते थे.
सुबह-शाम नदी के पार जाने और आने का नजारा देखना अद्भुत होता था. अब जब भी गांव जाता हूं, तो पूछता हूं. बाढ़ आयी थी, जवाब नहीं में मिलता है. अब बाढ़ नहीं आती. नदी सूख कर तालाब बन गयी है. वह तो सूख जाती, लेकिन सरकारी योजना आयी, नदी में कुछ-कुछ दूर पर बांध बांध दिये गये, जिनकी वजह से सालों भर पानी बना रहता है. अब अगर हम गांव में भी रहते, तो बाढ़ और बारिश का वो नजारा नहीं ले पाते, जो बचपन में था, क्योंकि बाढ़ अब आती नहीं और बारिश को हमने उम्र बढ़ने के साथ बीमारी का कारण मान लिया है, तो इससे वह आनंद खत्म हो गया है, जो बचपन में आता है. अब बारिश आती है, तो बच्चे बंद कमरे की खिड़की खोल बारिश के साथ सेल्फी लेने का आनंद लेने लगे हैं, जिसे पलक झपकते ही फेसबुक और ट्विटर पर अपलोड करते हैं. उस पर आनेवाले कमेंट और लाइक अब आनंद का साधन बन गये हैं. मोबाइल पर अब बारिश की बूंदोंवाला स्क्रीन सेवर और वॉल पेपर लगा कर काम चलाया जा रहा है. बारिश तो वही है, लेकिन समय के साथ सब बदल गया है.

शुक्रवार, 7 जुलाई 2017

व्यवस्था ने मुझे मारा, किससे कहूं


हाल के दिनों में बिहार की सड़कों को लेकर बहस सी चल पड़ी है. ये उसी तर्ज है कि हमारी कमीज, तुम्हारी से ज्यादा साफ है. इसमें बहस में सूबे के सरकार के मंत्री तक शामिल हो गये और कहने लगे कि बिहार को बदनाम नहीं होने देंगे, जैसे बिहार की बदनामी सड़कों में ही समाहित है. उसके अलावा सभी जगह ऑल इज वेल है, लेकिन जब इसको लेकर मंत्री जी को आइना दिखाया गया, तो बात होने लगी कि ये केंद्र सरकार की सड़क है. रख-रखाव की जिम्मेवारी उसी की है, लेकिन सवाल ये है कि सड़क तो बिहार में बनी है. चल यहां के लोग रहे हैं और बाहर से जो लोग आ रहे हैं. वह भी परेशान हो रहे हैं. इस माहौल में बातें करना बेमानी जैसा है. हर साल जब बारिश का मौसम आता है, तो विरोध के रूप में सड़कों पर धान रोपने की घटनाएं आम सी हो जाती हैं. इस बार भी बारिश शुरू हो गयी है. सड़कों की बदहाली के मुद्दे पर विरोध शुरू हो गया है. बेतिया हो या बक्सर, तस्वीर ज्यादा अलग नहीं है. केवल सोचने और समझने का नजरिया है. हां, सड़कों की बदहाली को बिहार की बदनामी से न ही जोड़ा जेया, तो अच्छा होगा.
हम भी बात एक सड़क की ही करना चाहते हैं. कमोबेश सभी ग्रामीण सड़कों की स्थिति ऐसी ही है, लेकिन जिस सड़क से पिछले दिनों बार-बार गुजरना पड़ा. उसकी बात करता हूं. यह सड़क दरभंगा फोरलेन पर संगम घाट पुल से बूढ़ी गंडक नदी के बांध पर बनी है. बताते हैं कि दो साल पहले लंबे संघर्ष के बाद सड़क बनी. लगभग सात किलोमीटर लंबी सड़क का निर्माण हुआ, तो शिवहर व मीनापुर की दूरी 12 किलोमीटर घट गयी. इलाके के लोगों में हर्ष की लहर दौड़ गयी. सड़क से रोज लाखों का आना-जाना है. सैकड़ों की संख्या में ऑटो चलते हैं, लेकिन दो साल पूरा होते-होते सड़क में गड्ढे कि गड्ढे में सड़क की कहावत चरितार्थ होने लगी. यह सड़क पर पूरी तरह से टूट कर बिखर रही है. कई स्थानों पर ऐसा कि सड़क रह ही नहीं गयी है. स्थानीय लोगों ने मिट्टी डाल कर भरा है, ताकि वहां से गुजरा जा सके.
बारिश होते ही यह सड़क मौत का कुंआ नजर आने लगती है, क्योंकि सड़क पर पड़ी मिट्टी पानी की वजह से फिसलने लगती है और इस पर चलनेवाली गाड़ियों का नियंत्रण ड्राइवर के हाथ में नहीं रह जाता है. वह नियंत्रण सरकनेवाली मिट्टी के हाथों होता है. पानी के हिसाब से गाड़ियों से न्याय होता है. अगर पानी ज्यादा बरस गया, तो गाड़ियों की शामत, नहीं तो किसी तरह से पार होने की इजाजत. यही कहानी पूरी बारिश इस रोड पर रहती है. इस रोड पर कई गांव पड़ते हैं. इनमें कोठिया, मिठनसराय जैसे गांव प्रमुख हैं.
इस सड़क से एक बार जो गुजरता है. दूसरा गुजरने में उसे जान का खतरा लगने लगता है. पिछलवे दिनों लगभग आाधा दर्जन बार इस सड़क से जाना हुआ, लेकिन गांव का होने की वजह से मुङो कम डर लगा, जब गाड़ी डगमगाती थी, तो लगता था कि अब खाई में चले जायेंगे, लेकिन भगवान की कृपा रही. ऐसा नहीं हुआ. अपने एक साथी के साथ गया था, जब वापस आने की बारी आयी, तो कहने लगे कि कोई दूसरा रास्ता हो, तो उससे चलें. अब इस सड़क से जाने पर डर लगता है. मुङो हार कर उनकी बात माननी पड़ी और कई किलोमीटर का चक्कर काटते हुये जमालाबाद व झपहां के रास्ते शहर वापस आना पड़ा.
रास्ते में आते समय मैं यह सोच रहा था कि आखिर किस दौर में हम जी रहे हैं. सरकार रोड एंबुलेंस की बात करती है. रोड मेंटिनेंस पॉलिसी का ऐलान होता है, लेकिन कुछ भी काम नहीं आती है, जब सड़क बनाने का करार होता है, तो ठेकेदार को पांच साल तक सड़क की मरम्मत की जिम्मेवारी दी जाती है, लेकिन सड़क बनने के बाद कोई देखनेवाला नहीं होता है. रास्ते में बात करने लगा, तो मिठनसराय व कोठिया के ग्रामीण कहने लगे कि हम लोग भगवान भरोसे हैं. रोज किसी न किसी के दुर्घटनाग्रस्त होने का समाचार आता है, जिसकी अब आदत सी हो गयी है. हम लोगों के लिए इसके अलावा और रास्ता भी नहीं है. ऐसे में हम क्या कर सकते हैं. हमें, तो इससे चलना ही होगा?


बुधवार, 5 जुलाई 2017

मैं मुजफ्फरपुर टावर चौक की घड़ी बोल रही हूं

मैं मुजफ्फरपुर टावर चौक की घड़ी. मेरा हाल आप लोग देख रहे हैं. अगर नहीं, तो यह मेरी नहीं, आपकी बदकिस्मती है, क्योंकि मैं उनमें हूं, जिन्हें आप अपना पूर्वज कहते हैं, जिनके नाम पर दंभ भरते हैं. उन्हें समय बताती थी, जिससे वो अपनी राह तय करते थे. हाल के सालों में शहर की चाल क्या बदली. मेरा भी समय बदल गया. मैं भी खराब रहने लगी. समय के साथ किसी ने मेरा साथ नहीं दिया. ठीक वैसे ही, जैसे शहर का. सब कहते हैं ना कि पहले बड़ा भाईचारा था, कल्याणी पर शहर के लोग इकट्ठा होते थे. वहीं, पर बातें होती थीं, देश से लेकर दुनिया तक की, लेकिन अब वहां की रवायत खत्म हो गयी है. अंडा पराठा और मोमो जैसे फास्ट फूड उस चौक की पहचान बन गये हैं, जिनके साथ युवा वर्ग ट्विटर, फेसबुक और इंस्टाग्राम पर अपनी तस्वीरें शेयर करता है और कहता है कि ये है हमारा शहर मुजफ्फरपुर.
क्या मुजफ्फरपुर यही है? ये सवाल मैं खुद से करती हूं और फिर चारों ओर नजर दौड़ाती हूं, तो कल्याणी चौक पर अभी भी वो चीजें मौजूद हैं, जिनकी चर्चा नहीं होती. हां, तो मैं अपनी बात कह रही थी. कैसे हमें उपेक्षा की गर्त में ढकेल दिया गया है. इस उपेक्षा के बाद भी मैं दिन में दो बार कम से कम सही समय बताती हूं, लेकिन मुङो देखने और मुङो पर गर्व करनेवालों को दिनों, महीनों और सालों में भी मेरे लिए एक भी सही शब्द नहीं आते. अगर ऐसा होता, तो आज मेरी हालत यह नहीं होती. मैं, महाभारत के संजय की तरह आपकों सब चीजें, दिन, तारीख व समय के हिसाब से बता सकती हूं, जो मेरे आसपास घटा है, लेकिन क्या करूं मजबूर हूं. अपनों ने ही मेरे साथ ऐसा व्यवहार किया है कि अब मैं खुद पर इतरा नहीं सकती. किसी छात्र से यह नहीं कह सकती कि अभी तुम लेट नहीं हुये हो, क्योंकि मुङो बंद कर दिया गया है?
अपने अतीत पर गर्व करनेवाले क्या नहीं करते. सैकड़ों साल पुरानी गाड़ियां नहीं चलतीं? हैरिटेज के नाम पर? उनके कलपुज्रे कहां से आाते हैं, तो फिर मेरे कलपुजरे के बारे में ये क्यों कहा जा रहा है कि मिल नहीं रहे हैं? अरे, कोई ठीक से खोजना नहीं चाहता. ऐसा कहनेवाले झूठ बोल रहे हैं. मेरे ही साथ की कई घडियां आज भी विभिन्न शहरों के चौक-चौराहों पर चल रही हैं. अगर मैं इतनी ही परेशानी का सबब बन गयी हूं, तो मुङो बदला भी तो जा सकता है, लेकिन क्या किसी ने इसकी ओर ध्यान दिया. ऐेसा मेरे ही साथ क्यों हो रहा है?
मैंने बहुत से ऐसे लोगों को इसी शहर में जीरो से हीरो बनते देखा है. मुझमे समय समय देख-देख कर उन्होंने अपना तो समय बना लिया, लेकिन शहर को क्या दिया? हमें क्या दिया? यह सवाल उन लोगों से जरूर है और रहेगा? यह सवाल शहर के उन लोगों को भी पूछना चाहिये, जो तथस्ट हैं? क्योंकि समय उन्हें भी नहीं छोड़ेगा, जवाब देना होगा? हां, मैं इसी आशा में हूं कि मुङो मेरा जवाब मिले और मेरे नीचे समय की शिला पर ऐसी रेखा खीचनेवाले बापू तो बैठे ही हैं, जो सदियां बीतने के साथ और चमकीली होती जायेगी. बाकी बातें फिर कभी, आज के लिए इतना ही. सावन का महीना आनेवाला है. मैं फिर से बाबा गरीबनाथ की महिमा के कयाल भक्तों को देखना चाहती हूं, जय गरीबनाथ.

सोमवार, 3 जुलाई 2017

मैं सरैयागंज टावर- कोई मेरी भी सुने

सूचना क्रांति के इस आधुनिक काल में मैं जब भी किसी शहर के मुख्य चौराहे से गुजरता हूं, जिसे ज्यादातर घंटा घर चौराहे के नाम से जाना जाता रहा है, जिन चौराहों के नाम अलग भी हैं. उन पर भी अंगरेजों के जमाने की घड़ी जरूर लगी है, लेकिन अब इन चौराहों की ज्यादातर शहरों में हालत पतली है. कम से कम घड़ी तो बंद ही पड़ी है. कोई पूछनेवाला नहीं. ये घंटाघर घर के उस बुजुर्ग की तरह हो गये हैं, जिनका नाम तो सब भुनाना चाहते हैं, लेकिन उसके लिए करना कोई नहीं चाहता है. हम जिस शहर मुजफ्फरपुर में रहते हैं. यहां के घंटाघर चौराहे का नाम टावर चौक है. यहां भी घड़ी लगी है. सालों से बंद है.
टावर चौक की दुर्दशा मुजफ्फरपुर में रहनेवालों और यहां आने-जानेवालों से छुपी नहीं है. नेता से लेकर अधिकारी तक सब जानते हैं, लेकिन कहीं से कुछ होता नहीं दिख रहा. साबरमती के संत राष्ट्रपिता बापू की मूर्ति लगी है, लेकिन बेहाल है. मूर्ति के चारों ओर लगा शीशा टूट चुका है. शहर के एक नेता जी ने कहा था कि हम शीशा बदलवा देंगे, लेकिन नेता जी का वादा, तो वादा ही रह गया. वो देखने तक नहीं आये.
टावर पर लगी घड़ी भी बेहाल है, लेकिन उसे अपनी बेहाली से ज्यादा उन वादों पर तरस आता है, जो टावर चौक को लेकर किये जाते रहे हैं. बंद होने के बाद भी घड़ी दिन में कम से कम दो बार सही समय बताती है, लेकिन इसका उद्धार जिनके कंधों पर है, वो वादों पर वादे कर रहे हैं, लेकिन दिन क्या, महीनों औ साल बीत रहे हैं, लेकिन उनका वादा सही साबित नहीं हो पा रहा है. यही टावर की पीड़ा है, क्योंकि इसे अपने हिसाब से सब लोग यूज करते हैं. गुगल पर सरैयागंज टावर, मुजफ्फरपुर सर्च करने पर पिन कोड के साथ पता आने लगा. पिन कोड और पता तो याद है, लेकिन हालत कैसी है, ये याद नहीं.
यह कैसी बिडंबना है, जब किसी की कोई मांग होती है, तो वह पुतला दहन से लेकर रोड जाम करने तक के लिए टावर चौक पर पहुंचता है, जब किसी को बड़ी उपलब्धि मिलती है, तो उसे जताने के लिए भी टावर चौक ही सहारा बनता है. याद है, जब पिछले बार भारत विश्वकप जीता था, चारों ओर से किस तरह से गाड़ियों पर हुड़दंग मचाते हुये लोग टावर चौक पर जमा हुये थे. आतिशबाजी हो रही थी. घंटों तक यह सिलसिला चलता रहा, लेकिन टावर चौक की अपनी चमक का क्या हुआ? क्या कोई याद करता है, उन वीर सपूतों को जिनके नाम इस पर खुद हैं, जिन्होंने युद्ध में अपने प्राण न्योछावर कर दिये. क्या हमारे पुरखों को याद करने का यही तरीका है.
जारी..अगली कड़ी में टावर चौक की घड़ी की जुबानी, उसकी कहानी.

रविवार, 2 जुलाई 2017

मैं मुजफ्फरपुर का चक्कर मैदान हूं- अंतिम भाग


प्रधानमंत्री की सभा खत्म होने के बाद ही हमको लेकर कलह बढ़ने लगी थी, तब हमारे आसपास रहनेवाले लोगों ने साउथ चक्कर की सड़क बनने को अपनी जीत समझ लिया था. आनन-फानन में नरेंद्र मोदी पथ का बोर्ड लगा दिया था, जिसे जश्न के तौर पर देखा गया और परेशानी का दौर शुरू हो गया. हालांकि इससे पहले भी इक्का-दुक्का चीजें होती रहती थीं, लेकिन इसके बाद कटुता बढ़ती गयी. कुछ दिन में उस रास्ते को ट्रैक्टर से जोत दिया गया, जिससे होकर लोग अपने बच्चों को स्कूल छोड़ने और लाने जाते थे, लेकिन तब हमारे आंगन में घूमनेवालों पर पाबंदी नहीं लगी थी, लेकिन लोगों में यह खौफ रहता था कि चक्कर रोड से गुजरेंगे, तो कभी भी चेकिंग हो सकती है, हालांकि इससे आसपास के लोग खुद को महफूज महसूस करते थे.
लोग उन जगहों पर घूमने लगे और अड्डा जमाने लगे, जो प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के हेलीकॉप्टर उतारने के लिए बनाये गये थे. तीन हेलीकॉप्टर उतरे थे उस दिन, जब मोदी जी आये थे. तीनों हैलीपैड पर लोग सुबह होते ही जुटते और कसरत करते. दौड़ते. बैठ कर बातें करते. आसपास हरियाली होने की वजह से शुद्ध हवा उन्हें मिलती थी. आसपास में कई पगडंडी, जिनसे सुबह से शाम तक लोगों का आना-जाना होता था. कितना अच्छा लगता था. सब कुछ सामान्य चल रहा था. छुट्टी के दिन खूब लोग जुटते थे.
हां, एक बात का जिक्र करना मैं भूल ही गया. हमें 2015 का वो दिन भी याद है, जब मिलिट्री में भर्ती के दौरान हमारे आंगन में नंगे बदन युवाओं को बैठा कर परीक्षा ली गयी थी. उन्हें कपड़े उतारने के लिए सिर्फ इसलिए कहा गया था, ताकि वह नकल नहीं कर सकें. यही दलील दी गयी थी, इसके जिम्मेवार अधिकारियों की ओर से. वह अच्छा दिन नहीं था, क्योंकि ऐसा होना नहीं चाहिये थे. हालांकि उसी के बाद यह परंपरा बंद भी हो गयी. अब परीक्षा के समय युवाओं के कपड़े नहीं उतरवाये जाते. यह अच्छा हुआ.
अब तो हमारे आंगन में आने-जाने पर रोक है, लेकिन मैंने सुना है कि हमारे विकास के लिए खाका तैयार किया गया है, जिसमें तमाम तरह के काम होने हैं. पार्क बनना है. लोगों के चलने के लिए पाथ-वे बनना है, जिस पर मार्निग वाक करने की छूट होगी, लेकिन उस छूट का क्या मतलब, जब लोगों की आदत ही बदल जायेगी. कितने लोग हमारे आसपास की सड़क पर टहलते हुये मेरे बारे में चर्चा करते हैं. वह मुङो अच्छा नहीं लगता है. कई बार तो लगता है कि काश मैं कुछ कर सकता, तो अपनी बाहें फैला कर उन लोगों ने अपने आंगन में समेट लेता और खूब मार्निग वाक करने को कहता, ताकि वो सेहतमंद रहें और देश-समाज, अपने परिवार के काम आ सकें. अच्छी सेहत को ही सफलता की कुंजी माना जाता है, जो हमारे आंगन में थी, लेकिन अब वह कुंजी छीन ली गयी है.
यहां हम एक और बात का जिक्र करना चाहता हूं. कुछ आसाजिक तत्व भी छूट का फायदा उठा रहे थे, जो अनैतिक गतिविधियां हमारे आंगन में करते थे. उन्हें रोकने की जरूरत थी. अब तो शराबबंदी है, लेकिन इससे पहले वो नशा पान व मादक पादर्थ हमारे आंगन में आकर लेते थे. यह बिल्कुल अच्छा नहीं था. इसकी भी चर्चा मैं लगातार सुनता था. वह भी मुङो अच्छा नहीं लगता था, लेकिन अब तो मजबूर हूं और उस दिन की राह देख रहा हूं, जब हमारा कायाकल्प होगा और मैं फिर से लोगों के काम आ सकूंगा, उसी दिन मैं खुल कर हंसूगा और खिलखिलाऊंगा. ये हमारे जीवन का स्वर्णिम दिन होगा. तब तक के लिए नमस्कार!

शनिवार, 1 जुलाई 2017

मैं मुजफ्फरपुर का चक्कर मैदान हूं

मैं मुजफ्फरपुर का चक्कर मैदान हूं. ज्यादा पुरानी बात करने का आज मूड नहीं है. फिर कभी लगेगा, तो बताऊंगा, मैं क्या था और कैसे-कैसे क्या होता गया. अभी पिछले दो-तीन साल के दौरान मेरे साथ क्या-क्या हुआ, यह बताने का मूड है. आज मुङो चाक-चौबंद कर दिया गया. गेट लगा दिये गये हैं. कटीले तारों से घेर दिया गया है. इससे भी दिल नहीं भरा, तो पहरे पर संगीनधारी जवानों को लगा दिया गया है. कोई भी मुझसे मिलने आना चाहता है, तो उसे सड़क से ही वापस कर दिया जाता है. हालत तो यह हो गयी है कि अब लोग मेरे आसपास से बनी सड़क से गुजरने से भी कतराने लगे हैं. उन्हें लगता है कि पता नहीं कब संगीनधारी जवान उन्हें रोक लें और सुरक्षा के नाम पर जांच शुरू कर दें. जांच तक तो ठीक है, लेकिन जवानों की ओर से कई बार व्यवहार को लेकर शिकायतें आयीं. आवाज उठी, लेकिन कोई असर नहीं हुआ.
हालत ये हो गयी है, जहां पर कुछ महीने पहले छोटे-छोटे नौनिहाल घूमते थे, खेलते थे, किलकारियां लेते थे. उनके अभिभावक उन्हें देख कर प्रसन्न होते थे और खुद का बीपी, सुगर ठीक करने के लिए मेरे आंगन में तेजी से चलते और दौड़ लगाते थे. उन सब जगहों पर खर-पतवार उग गया है. ग्वाले दूध लेकर झूमते हुये मेरे आंगन से गुजरते थे, ताकि वह माड़ीपुर से चक्कर मैदान रोड पर जल्दी से जल्दी पहुंच जायें. सुबह तो मुङो सबसे पहले उठ जाना पड़ता था, क्योंकि तीन बजे के बाद ही खुद की सेहन चाहनेवाले लोग मेरे आंगन में आकर टहलने लगते थे. यह कुछ महीनों पहले तक होता था, लेकिन उसके बाद अचानक क्या हुआ, कुछ समझ में नहीं आया और अचानक सबकुछ बंद कर दिया गया. सुरक्षा के नाम पर.
अब मेरी हाल के सालों की कहानी सुन लीजिये. जुलाई 2015 की बात है. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की मुजफ्फरपुर यात्र तय हो गयी थी. इस बात पर चर्चा हो रही थी कि उनकी रैली चक्कर मैदान या फिर सहारा मैदान में होगी, लेकिन जल्दी ही साफ हो गया कि रैली चक्कर मैदान में होगी. इसके बाद साफ-सफाई, हैलीपैड और मंच बनने का दौर शुरू हुआ. बड़ी तैयारी की गयी. उस समय साउथ चक्कर रोड की सालों से टूटी सड़क भी रातोंरात प्रधानमंत्री के नाम पर बन गयी. रैली में जिस तरह से भीड़ उमड़ी, उसको लेकर मिसालें दी जाने लगीं. लोग अनुमान लगा रहे थे कि क्या इससे ज्यादा भीड़ कभी चक्कर मैदान में उमड़ी होगी? उस समय मेरा सीना फूल कर गदगद हो गया था. मुङो इस बात का गर्व हो रहा था कि मैं जिस देश और क्षेत्र की धरोहर हूं. वहां के लोग हमारे आंगन में आये हैं. मुङो बड़ा अच्छा लग रहा था, मैं मगन था.
जारी..

शुक्रवार, 16 जून 2017

अब भी अच्छे के लिए खड़े होते हैं लोग

रामू और श्याम काका गांव (कोई भी नाम रख सकते हैं गांव का) में पहुंचे, तो स्कूल पर पहले से लोग जमा थे. सब यह जानने को उत्सुक थे कि आखिर उन्हें क्यों बुलाया गया है. कहीं, सरकार ने दोनों के हाथ से कोई अनुदान तो नहीं भेजा है, जो हम गांव के लोगों के लिए हो. गांव के मुखिया ने सिर्फ इतना कहा था कि विकास के लिए कुछ लोग आयेंगे और बात करेंगे. वह हम लोगों को सुनना है, जैसा कहेंगे, उसके हिसाब से करना है. इससे लोगों को लगा कि जब हमारा विकास होगा, तभी गांव का विकास होगा ना? यही समझ के उन्हें लगा कि जो लोग बाहर से आ रहे हैं. वह कोई ग्रांट लेकर आायेंगे. इसी उम्मीद में बड़ी संख्या में गांव के लोग जमा हुये थे. कुर्सियां लगी थीं. कुछ महिलाएं स्कूल में जमा थीं. कुछ गांव के कई दरवाजों पर झुंड बनाकर आपस में बातें कर रही थीं. सबकी बात के केंद्र में गांव में आनेवाले लोग ही थे.
उम्मीदों के बीच ग्रामीणों के बीच जब रामू और श्याम काका पहुंचे, तो जल्दी से जल्दी बैठक शुरू करने का उतावलापन सबमें दिखने लगा. कुर्सियों पर विराजमान होते ही गांव के मुखिया कहने लगे कि क्या एजेंडा है? हम लोगों को क्या काम करना है? कैसे विकास करना है? क्या प्रोजेक्ट है, आप लोगों का? क्या करना है आप लोगों को? हम सब जानना चाहते हैं. मुखिया का उतावलापन देख कर रामू व श्याम काका को पूरा माजरा समझने में देर नहीं लगी. दोनों पसोपेश में थे, लेकिन जल्दी ही रामू ने तरकीब निकाली. वह नहीं चाहता था कि ग्रामीणों को उसकी बातों से किसी तरह का झटका लगे. उसने नीति व नियम की बातें करनी शुरू कर दीं. त्रेता से लेकर महाभारतकाल और आधुनिककाल तक. सब बताने लगा और कहने लगा कि सब जब मिल कर काम करते हैं, तभी हम सफल होते हैं. आप सफल क्यों नहीं हैं? आपके गांव में सुविधाएं आजादी के इतने सालों के बाद भी क्यों नहीं पहुंची हैं? बिजली नहीं आयी है? रोड पास होने के बाद भी नहीं बन पायी है, क्या कभी इस पर विचार किया है?
रामू की बातों से कुछ ही देर में गांव का माहौल पूरी तरह से बदल गया. सब लोगों को एहसास होने लगा कि हम सब अबतक ऐसे क्यों हैं? क्यों हमने मिल कर प्रयास नहीं किया गांव को बदलने का? चुनाव से लेकर हर समय हम लोग जनप्रतिनिधियों के भरोसे क्यों रहते हैं? जिन जनप्रतिनिधियों (सबको नहीं) को हम कोसते हैं? उन्हीं से विकास की उम्मीद क्यों लगाते हैं? क्यों नहीं हम लोग खुद मिल कर अपने गांव की तस्वीर बदलने की दिशा में काम करें. यह बातें गांव के मुखिया के साथ विभिन्न लोगों के मन में चल रही थीं. इसी बीच रामू का भाषण भी शुरू हुआ और उसने शुरू में ही साफ कर दिया कि हम यहां कोई चमत्कार करने नहीं आये हैं. हम आप लोगों के सहयोग से काम करने के लिए आये हैं. आप जानते हैं कि बनने में समय लगता है, लेकिन बिगाड़ कुछ ही देर में हो जाता है.
रामू जिस तरह से अपनी बातें रख रहा था. गांव वालों को उसकी बात खुद के करीब लग रही थी. वह समझ रहे थे कि गलती कहां हुई है और वह शहर के पास का गांव होने के बाद भी पिछड़े हैं. क्यों उनके गांव में अभी तक बिजली-बत्ती नहीं लग पायी है, जब रामू ने अपनी बात शुरू की थी, तो उस समय लोगों के कई सवाल थे, जो उनसे पूछना चाहते थे. शुरुआत भी हुई, लेकिन रामू ने बड़ी नम्रता से अपनी बात पूरी होने तक इंतजार करने को कहा, जब उसकी बात पूरी हुई, तो किसी के मन में कोई सवाल नहीं था. सवालों की जगह एक संकल्प ने ले ली थी कि अब अपने गांव का विकास किसी भी कीमत पर करना है. इसके लिए हम सबको एक होकर खड़े होना है. आपस का भेद मिटाकर सब एक हो गये हैं. अब रामू और श्याम चाचा के सपने को साकार होने से कोई रोक सकेगा क्या?

शनिवार, 10 जून 2017

मुजफ्फरपुर नगर निगम- जिम्मेवारी निभाने की बारी

मुजफ्फरपुर के नये मेयर और डिप्टी मेयर का चुनाव हो चुका है. पूरी प्रक्रिया के तहत दोनों प्रतिनिधियों को चुनाव हुआ है, जिसमें ये उम्मीद शामिल है कि शहर का विकास होगा. यहां के लोगों की कठिनाइयां कम होंगी. जीवन सरल और सुगम होगा. नगर में सरकार का एहसास होगा, चंद लोगों की मनमानी की जगह सबकी सुनी जायेगी. वक्त भी यही कह रहा है. चुनाव के बाद पहला जिस तरह के बीता है. वह बहुत आशाओं और उमंगों से भरा है शहर के लोगों के लिए. मैं तो शहर से दूर हूं, लेकिन वहां की धड़कनों को महसूस करने की कोशिश कर रहा हूं.
मेरा ये शुरू से मानना रहा है कि आलोचना बहुत आसान काम है. हम लोग जिस पेशे में हैं, अगर उसमें किसी की तारीफ लिखी जाती है, तो आरोपों का दौर शुरू हो जाता है. लोग शंका की निगाह से देखने लगते हैं, लेकिन बात अपने शहर की है, तो लोग चाहे जिस निगाह से देखें, हम उम्मीद तो लगा ही सकते हैं. अच्छा होने का. मैं ये देखता हूं कि पिछले पांच साल के दौरान काम हुये हैं, लेकिन उनमें तालमेल का अभाव रहा है, जैसे शहर में बननेवाले नालों को लेकर, अगर नये बने नालों से शहर के पानी का प्रवाह रुकता है, तो उंगली, तो नगर निगम पर ही उठेगी ना. नालों के स्लैब जिस तरह से बनने के साथ टूटने लगे हैं, वह भी संदेह खड़ा करते हैं. यह शहर के विकास की मुख्य चीजें हैं, जिन पर ध्यान देने की जरूरत है.
ट्रैफिक सिस्टम में सुधार और पार्किग की व्यवस्था, शहर की मुख्य परेशानियों में हैं. इनको लेकर प्लान की बात सुनते हुये दशकों बीत गये हैं. काम करने की जरूरत है, ताकि पार्किग बन सके और सड़कों के किनारे अतिक्रमण की वजह से लगनेवाले जाम को काबू में किया जा सके. यह काम कठिन है, लेकिन असंभव नहीं. मुङो लगता है कि नगर सरकार इस काम को करेगी. ऐसे ही बदलते समय के साथ तमाम तरह की सुविधाओं का ऑनलाइन होना. यह भी सबसे जरूरी कदमों में एक है, क्योंकि इससे लोगों को घर बैठे सुविधाएं मिलेंगी और निगम की आय में भी इजाफा होगा. स्मार्ट सिटी को लेकर बहुत सी बातें होती रही हैं. इसलिए इस पर ज्यादा कुछ नहीं कहना, केवल काम हो, यह मेरा मानना है. शहर अपने आप स्मार्ट सिटी में आ जायेगा. केवल स्मार्ट सिटी में शामिल होने के लिए खुद को बदलना हमें संभव नहीं लगता है, लेकिन बदलाव को अगर हम आदत में शुमार कर लेंगे, तो अपने आप चीजें बदल जायेंगी.
उमंगो, आशाएं और उम्मीदों के साथ नयी नगर सरकार इन सब कामों को करेगी. कचड़ा निस्तारण का काम तेजी से होगा, ताकि शहर के आसपास के इलाकों में कूड़ा डंपिंग नहीं करनी पड़े और इससे भी ज्यादा डंप कूड़े को फूंकना नहीं पड़े, तो अच्छा रहेगा. पॉलीथीन मुक्त समाज का निर्माण भी हमारी नयी नगर सरकार की प्राथमिकता में होना चाहिये. इससे पहले की नगर सरकार ने शहर में पॉलीथीन को बैन किया था, लेकिन उसे लागू नहीं कराया जा सका. सिर्फ कागजों तक यह पहल सीमित रह गयी, लेकिन अब इसे सरजमीं पर उतारे जाने की जरूरत है. शहर के अंदर जितने भी तालाब हैं, उनका जीर्णोद्धार हो, जिससे मवेशियों व पक्षियों को पीने का पानी मिल सके.
अंत में एक और उम्मीद. शहर की जान सिंकदरपुर मन का स्वरूप बरकरार रहे. यह भी हम लोगों की प्राथमिकता में होना चाहिये. मैं पिछले पांच साल में लगातार इसका स्वरूप बदलता देख रहा हूं, जिससे दुख होता है. प्रशासनिक अधिकारी कागजों पर योजना बनाते हैं, लेकिन जमीन पर लगातार निर्माण हो रहे हैं, जिससे मन का रूप विद्रूप हो रहा है. इसको देखे जाने की जरूरत है. यह कैसे होगा, यह तो प्रशासन और निगम को तय करना है. मुङो लगता है कि यह सब ऐसे मुद्दे हैं, जिनको हम हल कर सकते हैं. इसके लिए अपने शहर और उसकी चीजों के प्रति लोगों में लगाव का भाव पैदा करना होगा. उन चीजों पर लोगों को गर्व करना सीखाना होगा. जैसे मुजफ्फरपुर का नाम आते ही हम शाही लीची की बात करने लगते हैं. वैसे ही शहर की अन्य प्रमुख चीजों को अपनी पहचान से जोड़ना होगा, तब जाकर शहर का भला हो पायेगा. ऐसा मेरा मानना है. इसके लिए अभियान की जरूरत है, क्योंकि मन बदलेगा, तो सब चीजें बदल जायेंगी.

बुधवार, 31 मई 2017

पार्षदों की तीर्थयात्रा का मतलब?

मुजफ्फरपुर नगर निगम में जीते दो दर्जन वार्ड पार्षद मेयर चुनाव से पहले तीर्थयात्रा पर चले गये हैं. इनकी यात्र का नाम तीर्थ है, लेकिन सुनने में आया है कि हिल स्टेशन की सैर पर हैं. यह पहली बार नहीं है, जब चुनाव जीतने के बाद वार्ड पार्षद तीर्थयात्रा पर गये हैं. पहले भी जाते रहे हैं और जिस तरह से मिजाज दिख रहा है. उससे लगता है अगर कोई बड़ा और कड़ा सुधार नहीं हुआ, तो आगे के चुनावों में भी ऐेसा होता रहेगा.
चुनाव की अधिसूचना जारी होने से पहले ही संभावित प्रत्याशी लोगों से संपर्क में जुट गये थे. चुनाव की घोषणा के बाद यह और बढ़ गया, जब मतदान की तारीख नजदीक आयी, तो कैसेट के जरिये हमदर्दी जुटाने लगे. आठ सौ ठेलों के जरिये पूरे शहर को मथ दिया गया. कहा जाता था कि हम ही सबसे हितैषी हैं, जो चुनाव जीतने के बाद आपके काम आयेंगे. आपके मुहल्ले की सड़क बनवायेंगे. नाली साफ करायेंगे. आपके सुख-दुख में खड़े रहेंगे. आपके बीच में रहेंगे. यह सिलसिला मतदान के दिन तक परवान पर रहा, लेकिन मतदान पूरा होते हैं. गुजरा गवाही और लौटा बराती..वाली कहावत सही साबित होने लगी, जो प्रत्याशी मोबाइल के जरिये अपनी खूबियों के लेकर प्रकट हो रहे थे. उनमें से ज्यादातर ने मुंह मोड़ लिया. रिजल्ट के दिन समर्थकों के साथ गये. काउंटिंग सेंटर पर फोटो खिचाई और फिर अंतरध्यान हो गये. यह स्थिति सभी पार्षदों की नहीं है, लेकिन ज्यादातर के मामले में यही सामने आया. रिजल्ट निकलने के अगले दिन से ही तरह-तरह की अफवाहें जोर पकड़ने लगीं.
कोई कहने लगा कि वहां काउंटर खुला है, तो किसी का कहना था कि नये लोग निगम की सरकार बनायेंगे. इन्हीं के बीच तीन दिन के अंदर ही बहुमत का दावा होने लगा. एक-दूसरे की जासूसी का भी लुत्फ कथित किंगमेकर उठाने लगे. कहने लगे कि हमें जानकारी है, विरोधी खेमे में क्या मंथन चल रहा है. हमने उसकी काट निकाल ली है. हम किसी भी कीमत पर अपने प्रत्याशी को जिता कर रहेंगे. इन दावों के बीच शहर में ऐसी बारिश हुई कि चुनाव प्रचार के दौरान प्रत्याशियों के किये गये सब दावे धुलते दिखे, लेकिन दावे करनेवाले ज्यादातर प्रत्याशी लोगों के बीच से गायब थे. अब वो समर्थक भी नहीं दिख रहे थे, जो चुनाव के दौरान अपने नेता की दुहाई दे रहे थे. मौसम के मुताबिक ये लोग फिर से अपने स्थिति में आ गये हैं. शायद अगला कोई चुनाव आये, तो ये समर्थक भी फिर से सक्रिय हों. अभी फिलहाल शहर में जिन लोगों को सक्रिय नहीं होना चाहिये. उन्हीं की चर्चा हो रही है, जिन लोगों के लिए सक्रिय हैं. वह तीर्थयात्र पर हैं. गहमा-गहमी तो चलती रहेगी, लेकिन नौ जून को ज्यादा बढ़ जायेगी, क्योंकि उस दिन किसी एक का दावा गलत निकलेगा, क्योंकि होना एक ही मेयर है. अगर तीन-तीन मेयर का चयन किया जाना होता, तो शायद सबको रेवड़ी मिल जाती, लेकिन ऐेसा नहीं हैं. हालांकि रिजल्ट आने के बाद से समय खूब है चुनाव के बीच. इसका लुत्फ जीते हुये कई वार्ड पार्षद उठा रहे हैं, जो नहीं उठा पा रहे, उनमें से कई बाहर जाने की इच्छा रखते हैं. ऐसा सुन रहा हूं. 

सोमवार, 29 मई 2017

रिजल्ट पड़ाव है, जिंदगी नहीं

दो दिन पहले से ही सीबीएसइ 12वीं के रिजल्ट की चर्चा चल रही थी. रविवार की सुबह रिजल्ट आया. पता चला कि बिहार का रिजल्ट ज्यादा अच्छा नहीं है. झारखंड से हम पीछे हैं. इस पर मन में उथल-पुथल चल ही रही थी. इसी बीच फोन बजा और दूसरी तरफ ऑफिस के साथी थे. कहने लगे कि मोतिहारी से दुखद खबर आयी है. तुरकौलिया के प्रखंड प्रमुख से पोते सचिन ने खुद को गोली मार ली है. वह 12वीं में फेल हो गया था. पिता के लाइसेंसी रिवाल्वर से खुद को गोली मारी. गंभीर हालत में पटना रेफर किया गया, जहां इलाज के दौरान उसकी मौत हो गयी.
17 साल का सचिन दो साल से कोटा में इंजीनियरिंग की तैयारी कर रहा था. मन में ये बात बात आने लगी कि सचिन ने आखिर जान क्यों दी? उसके अंदर कोई न कोई विशेषता तो रही होगी, जिस दिशा में वह आगे बढ़ सकता है, क्योंकि रिजल्ट महज एक पड़ाव है. वह जिंदगी नहीं है, लेकिन हम लोग रिजल्ट को ही सब कुछ समझ बैठते हैं. इसमें फर्क किये जाने की जरूरत है. अभिभावक अब समझने भी लगे हैं, लेकिन शायद हमारे-आपके समझने और समझाने में कोई कमी रही होगी, जिससे ऐसी घटना घटी है.
ऐसी घटनाएं पहले भी घटी हैं, जिनके बाद ही इस तरह के सवाल पैदा हुये और उन पर काम होना शुरू हुआ, लेकिन अभी शायद पूरा काम नहीं हो सका. इसी वजह से हमारे-आपके आंगन के फूल खिलने से पहले ही मुरझा रहे हैं. इस पर गंभीरता से ध्यान देने की जरूरत है. हमें खुद और आसपास के लोगों को समझने-समझाने की जरूरत है. जिंदगी एक बार मिलती है. इम्तिहान और उसका रिजल्ट, तो बार-बार आता है. हर सुबह के साथ नया दिन इम्तिहान के ही समान है. इसलिए रिजल्ट से बहुत ज्यादा फर्क नहीं पड़ता है.
कुछ साल पहले कोटा में एक बच्ची ने आत्महत्या कर ली थी. उसने पांच पेज का सुसाइड नोट लिखा था. बहुत ही मार्मिक नोट था वह, जिसमें उसने लिखा था कि वह उम्मीदों को पूरा नहीं कर पा रही है. इस वजह से ऐसा कदम उठा रही है. इस घटना ने पूरे देश को सोचने पर मजबूर किया था. इसके बाद कोटा के डीएम ने एक पत्र लिखा था. उसमें अभिभावकों व छात्रों से अपील की थी. पत्र में उन्होंने बच्ची के सुसाइड नोट का जिक्र किया था. लिखा था कि पांच पेज के नोट में इतनी अच्छी अंगरेजी उस बच्ची ने लिखी थी, जैसी बड़े प्रोफेशनल्स लिखते हैं. कहीं, कोई गलती नहीं थी. यह उस बच्ची के अध्ययन की विशेषता थी. वह अंगरेजी लेखन के क्षेत्र में आगे बढ़ सकती थी.
सचिन की आत्महत्या के बाद से कई तरह से सवाल मन में उठ रहे हैं. रिजल्ट को लेकर आखिर इतनी चिंता क्यों? अगर एक बार में सफल नहीं हुये, तो दुबारा ट्राइ कीजिये और जो आपके मन के करीब हो, उसी क्षेत्र में जाइये, ताकि आप जो काम करते हैं. वह बोझ नहीं लगे. हमारे आसपास जितने भी अभिभावक व बच्चे हैं. उन्हें यह समझने और समझाने की जरूरत है कि उम्मीद का बोझ न बच्चों पर डालें और बच्चे भी उम्मीदों के बोझ के नीचे दबे नहीं. अपनी बात अपने अभिभावकों के सामने रखें, जिससे उसका समाधान निकल सके, ताकि फिर किसी के आंगन का फूल खिलने से पहले ही नहीं मुरझाये.

शुक्रवार, 26 मई 2017

आखिर क्यूं सक्रिय हो जाते हैं किंगमेकर?

अपने प्रदेश में नगर निकाय के चुनाव ज्यादातर स्थानों पर हो चुके हैं, प्रतिनिधियों को जनता ने वोट देकर चुन लिया है, लेकिन इसका सबसे दुखद पहलू यह देखने में आ रहा है, जिन प्रतिनिधियों का चुनाव हुआ है, वह तो मेयर-डिप्टी मेयर बनाने में सक्रिय नहीं हैं, लेकिन ऐसे आका जरूर सक्रिय हो गये हैं, जिन्हें चुनाव के दौरान इससे कोई मतलब नहीं था. अब उन्हीं के इर्द-गिर्द पूरी राजनीति घूम रही है. जनता ने जिन्हें बड़े विश्वास के साथ चुना, उनकी बोलियां लगाये जाने की बातें भी सामने आने लगी हैं. खुफिया विभाग से लेकर प्रशासन तक अलर्ट होने की बात कह रहा है, लेकिन पिछले दो चुनाव से देख रहा हूं. कभी किसी तरह की कार्रवाई नहीं हुई. केवल बयानबाजी तक मामला रह जाता है. वहीं, बोलियां लगानेवालों की बात करें, तो वह खुल कर इसकी बात करते हैं, जिसका असर शहर के विकास के कामों पर भी पड़ता है.
पिछले 72 घंटे से जिस तरह का माहौल मुजफ्फरपुर शहर का बना हुआ है. अगर उसे एक वार्ड पार्षद की जुबानी कहें, तो फोन से फुरसत नहीं है. कभी कोई मेयर पद के लिए ऑफर देने आ जाता है, तो कभी कोई डिप्टी मेयर बनने के लिए समर्थन मांगने पहुंच जाता है. सब लालच दे रहे हैं. यह ऑफर हजारों नहीं, लाखों का है. ईमान का सौदा करने को बोलियां लग रही हैं. दो साल बाद आनेवाले अविश्वास प्रस्ताव की भी दुहाई दी जा रही है, क्या इसी के लिए चुनाव का इतना बड़ा तामझाम किया जाता है कि जीतनेवाले लोगों पर बोलियां लगें. अगर यह सब सही है, तो क्यों नहीं कार्रवाई की जा रही है.
मेयर-डिप्टी मेयर का चुनाव सीधे जनता से कराने की मांग उठी थी. हालांकि उसकी अपनी परेशानियां हैं, लेकिन मुङो लगता है कि अभी जो हालात बने हैं. उसमें वह बेहतर विकल्प हो सकता है. इस तरह की खरीद-फरोख्त तो कम से कम सामने नहीं आती. जनता सीधे मेयर चुन लेती, तो उसकी जवाबदेही भी बढ़ जाती, लेकिन व्यवस्था का दोष ही इसमें ज्यादा नजर आता है. यह स्थिति कैसे बदले. उस पर काम करने का समय है. हालांकि इस हालात के बीच कुछ चुने हुये लोग ऐसे भी हैं, जिन्हें खुद पर भरोसा है और वह पूरे खेल से दूरी बनाये हुये हैं, लेकिन इनकी संख्या इतनी नहीं है कि वह निर्णायक कदम उठा सकें.

सोमवार, 22 मई 2017

जन प्रतिनिधियों से हम क्यों लगायें विकास की उम्मीद?

मुजफ्फरपुर का नाम आने पर तरह-तरह की उपमायें दी जाती हैं. कोई इसे मच्छरपुर कह देता है, तो कोई जाम व अतिक्रमण वाले शहर के नाम से पुकारता है. कोई कहता है कि वहां कोई काम ढंग का नही है. ऐसी बातें सालों से सुनता रहा हूं. यहां के लोग जब भी किसी विकास के काम की बात आती है, तो जन प्रतिनिधियों को दोषी ठहरा देते हैं, लेकिन पांच साल बाद नगर निगम चुनाव में वोट का मौका आया, तो 55 फीसदी लोग ही घरों से निकले. 45 फीसदी लोगों ने वोट नहीं डाला. इससे यह साफ है कि वोटिंग को लेकर 45 फीसदी लोग उदासीन बने रहे. ऐसे में शहर के विकास और यहां की व्यवस्थाओं के बदलने की बात कैसे हो सकती है.
कई बार शहर में जब निगम की राजनीति की चर्चा होती है, तो एक व्यक्ति के वर्चस्व की बात भी सामने आती है. अगले चुनाव में उसे बदलने की बात भी कही जाती है, लेकिन इस चुनाव में जो हुआ, उसने फिर से साबित कर दिया कि लोगों की चुनाव में कोई दिलचस्पी नहीं है? ऐसे में सवाल यह उठता है कि बदलाव कैसे आयेगा? अच्छे प्रत्याशी चुन कर निगम में कैसे पहुंचेंगे. अगर अच्छे प्रत्याशी फिर से हमारा प्रतिनिधित्व नहीं करेंगे, तो हम विकास की उम्मीद कैसे कर सकते हैं? शहर में जिस तरह का बदलाव चाहते हैं, वह कैसे होगा? यह ऐसे सवाल हैं, जिनसे आनेवाले दिनों में दो-चार होना पड़ सकता है. हम फिर से वहीं पर खड़े हैं, जहां पर पहले से थे. ऐसे में शहर को स्मार्ट बनाने की बात हो सकती है क्या?
स्मार्ट सिटी से याद आया. तीन बार इसके लिए प्रपोजल गया, लेकिन एक बार भी अपना शहर इसमें पास नहीं हो पाया. हर बार हम लोगों की भागीदारी में कमी रही. ऐेसा ही हाल अब चुनाव में दिखा. इससे उन शक्तियों को भी झटका लगा है, जो चाहती थीं कि शहर के लोग बड़े पैमाने पर वोट के लिए निकलें और अपने मताधिकार का प्रयोग करें. इसके लिए लगातार अभियान चलाया जा रहा था. उनमें शहर के लोग शामिल भी हो रहे थे और अपनी समस्याएं रख रहे थे. वोट देने की बात भी कर रहे थे, लेकिन जब वोट देने की बात आयी, तो बूथ तक नहीं पहुंचे.

रविवार, 21 मई 2017

फेसबुक-ह्वाट्सएप से नहीं, पढ़ने से आयेगी शायरी

विश्व प्रसिद्ध शायर व गजलकार डॉ नवाज देवबंदी मुजफ्फरपुर आये थे. इस दौरान उन्होंने साहित्य, समाज व राजनीति को लेकर बात की. उन्होंने कहा कि अंतरआत्मा की आवाज पर जो शायरी होती है, वो दीर्घायु होती है. डॉ नवाज देवबंदी से हुई विस्तृत बातचीत के कुछ अंश.
प्रश्न. आज के समाज और साहित्य को कैसे देखते हैं?
उत्तर. राजनीति के रास्ते से साहित्यकार कभी बड़ा नहीं हो सकता. साहित्य का पथ राजनीति के पथ से बहुत बड़ा है. मैं समझता हू साहित्य साधना से बड़ा बना जा सकता है. मैं एक बात कहता हूं, इनकार करने का अपना मजा है, जो इसके मजे को जान जाते हैं, जिंदगी वही जीते हैं. पद के लालच में अत्मसम्मान को दांव पर नहीं लगाना चाहिये, क्योंकि पद हमेशा आदमी को सम्मानित नहीं करते हैं. जिसको सम्मान और आत्मसम्मान कहा जाता है, वो समाज से मिलता है, जो लोग लालची होते हैं. उनके लिए इतिहास के पन्ने कभी सुरक्षित नहीं होते हैं. इतिहास उन्हें ही याद करता है, जिन्होंने बगैर किसी लालच के समाज और देश की सेवा की है.  मेरा एक शेर है.
बादशाहों का इंतजार करें.
इतनी फुरसत कहां फकीरों को.
प्रश्न. आज के दौर में शायरी के क्या मायने हैं?
उत्तर. शायरी एक साधना है और वो मनन चाहती है. जब भी इसमें स्वार्थ की एक भी बूंद पड़ जायेगी, तो ये साधना भंग हो जायेगी. शायरी को इस नजरिये से करता है कि फलां समाज व फला मंच पर पसंद की जायेगी, तो मैं उसे बेइमान मानता हूं. अंतरआत्मा की आवाज पर जो शायरी होती है. उसकी उम्र बहुत बड़ी होती है. दूसरी बात ये है कि शायरी का कमाल ये है कि वो हर धर्म और जाति, हर इलाके व देश के लोगों को प्रभावित करती है. हमारी बदनसीबी है कि कुछ लोग ऐसे हैं, जो किसी खास इलाके में जा रहे हैं, तो वहां के लिए कुछ अलग शेर कहते हैं. किसी देश में जा रहे हैं, तो कुछ और कहते हैं. वो किसी खास धर्म या संप्रदाय के मुशायरे में जा रहे हैं, तो कुछ और शेर सुनाते हैं. हम मानते हैं कि जहां, अलग-अलग शेर कहने पड़ें, उसको शायरी नहीं कहते. शायरी तो ऐसी है कि धार्मिक ग्रंथों की वाणी जैसी होती है, जिसे सब लोग पसंद करते हैं.
प्रश्न. बड़े पैमाने पर नयी शायरी करनेवाले आ रहे हैं?
उत्तर. हम एक उदारण से अपनी बात कहना चाहते हैं, ये जो ताजमहल है, जिसे सारी दुनिया देखने आती है. ये इमारत का कमाल नहीं है. ये शाहजहां और मुमताज के बीच जो मोहब्बत थी, उसका कमाल है. शायरी का भी ऐसा ही है. लोग नयी-नयी इमारतें बना कर ये चाहते हैं कि वो शाहजहां बन जाये, लेकिन वो ऐसा कभी नहीं कर पायेंगे. आप तो अभी पेड़ों की बात कर रहे थे. ये लोग जो भावनाओं को उत्तेजित करनेवाली शायरी सुनाते हैं. ये बिल्कुल यूकेलिस्पटस और पापुलर के पेड़ जैसे हैं. अगर शीशम बनना है, तो इसके लिए एक उम्र चाहिये. अभ्यास चाहिये. इसके लिए भावना और साधना चाहिये. फिर देखिये कैसी शायरी होती है. उसकी क्या कीमत होती है. नयी पीढ़ी यूकेलिस्पटस की तरह बहुत जल्दी अपने आप को ऊंचा उठाना चाहती है, लेकिन ये भूल जाती है कि जमीन में उसकी जड़ नहीं है. हल्की सी हवा और पानी उसे उखाड़ देती है. हमारी नयी नस्ल को शायरी करनी है, तो साधना और इबादत की तरह करनी होगी.
प्रश्न. बजारवाद के दौर में शायरी के सामने क्या कोई संकट देखते हैं?
उत्तर. देखिये, शायरी और कविता समाज का आइना है. जो कुछ समाज में घट रहा है. उसे ये आइना देख रहा है. आपको एक बात बताता हूं, आज के मौजूदा समाज में इतना खराब घट रहा है. कभी-कभी ये शीशा खुद-ब-खुद चटक जाता है. इसमें दरारें पड़ जाती हैं. मैं समझता हूं कि शीशे और आइने की अपनी जिम्मेवारी है. अगर उसे रचनाकार महसूस करे, तो उसकी बहुत जिम्मेवारी है. यही काफी नहीं है कि हम सिर्फ इश्क और मोहब्बत की बात करें. हालांकि गजल का मतलब अपने महबूब से बात करना है. ये अलग बात है कि इस पैग के अंदर ही कोई अच्छी बात की जाये, लेकिन गजल ने अपनी भौगोलिक सीमाएं बहुत बढ़ायी है. आज आप देखते होंगे, सिर्फ प्यार, मोहब्बत व इश्क, इनसे हट कर भी टूटते-बिखरते रिश्तों पर बहुत शायरी हो रही है. भूख-प्यास, नाइंसाफी, सामाकि और राजनीतिक मुद्दों पर बहुत शायरी हो रही है, लेकिन इसके लिए जिस संयम की जरूरत है, वो बहुत कम लोगों के पास है. शायरी विरोध तो हो सकती है, लेकिन गाली नहीं. आज स्टेज पर लोग संयम नहीं रख पाते हैं. मेरा एक शेर है-
देने को तो मैं भी उसे दे सकता हूं गाली.
लेकिन मेरी तहजीब इजाजत नहीं देती.
प्रश्न. आनेवाले वक्त में शायरी को लेकर क्या कोई चिंता है?
उत्तर. देखिये, सबसे बड़ा बदलाव ये आ रहा है कि जो हमारी नयी पीढ़ी, मुशायरे, कवि सम्मेलन, कविता व शायरी में आ रही है. वो बोनलेस है. इससे हमारा मकसद , ये पढ़ कर नहीं आ रही है. ये ह्वाट्सएप और इंटरनेट से आ रही है. अगर शायरी करनी है, तो उसे मीर, गालिब, जिगर, फिराक, हाफिज और नासिर को पढ़ना पड़ेगा, जो लोग पढ़ कर आयेंगे, उनकी बुनियाद मजबूत होगी, लेकिन अभी बैगर नींव की इमारत बनायी जा रही है. सभ्यता और तहजीब अब मंचों से रुकसत हो रही है. हम एक वाकया बताना चाहते हैं, आपके आयोजन में शामिल होने के लिए जब मैं दिल्ली से आ रहा था, तो एयरपोर्ट पर आलोक से मुलाकात हुई, जो आनेवाली पीढ़ी के प्रतिनिधि शायर हैं. हवाई अड्डे पर बड़ी भीड़ थी. वहां जब आलोक श्रीवास्तव हमारे पैर छूने के लिए झुक रहे थे, तो मैं समझ रहा था कि हिन्दुस्तान बड़ा हो रहा है. हमारी परंपरा बड़ी हो रही है. हमारी सभ्यता और कल्चर बड़ा हो रही है.






तथागत अभी कभी नहीं देख पायेंगे वैशाली

किस्त-चार
वैशाली पर बात हो और बुद्ध की चर्चा नहीं हो, तो बात अधूरी लगेगी. बुद्ध और महावीर का इस धरती से गहरा नाता रहा है. अभी वैशाली में जो रौनक दिखती है. उसमें बुद्ध और महावीर को माननेवालों का बड़ा हाथ है. विभिन्न देशों के बौद्ध मठ और मंदिर यहां बने हैं और कुछ बन रहे हैं. महावीर की जन्मस्थली माने जानेवाले स्थान पर भव्य मंदिर का निर्माण भी हो चुका है. इससे इतर रामशरण अग्रवाल जी के साथ उन स्थानों पर जाने को मिलता है, जो बुद्ध से जुड़े रहे हैं. ऐसा ही एक स्थान बुद्ध स्तूप से लगभग एक किलोमीटर दूर है. गांव व खेतों के बीच यह टीला है, जहां से साफ तौर पर बुद्ध स्तूप दिखता है. इस स्थान पर पहुंच कर राम शरण जी ठिठक जाते हैं. कहते हैं कि कम लोगों को ज्ञात हैं कि अंतिम बार बुद्ध इसी रास्ते से वैशाली से प्रस्थान किये थे और इसी जगह पर रुक कर उन्होंने अपने सबसे प्रिय आनंद से कहा था कि अब तथागत दुबारा वैशाली नहीं देख पायेंगे. इसी के बाद उनका परिनिर्वाण हो गया. राम शरण जी के यह कहते ही पूरा दृश्य आंखों के सामने घूम जाता है. पास में गेंहू काट रही महिलाएं व पुरुष आतुर निगाहें से हम लोगों को देखते हैं. उन्हें लगता है कि जैसे हम कोई सरकारी अधिकारी हैं और सव्रे करने के लिए आये हैं, लेकिन वह कुछ कहते नहीं हैं, जब तक हम लोग वहां रहते हैं. वह लोग हमें देखते रहते हैं.
इसके बाद लगभग तीन किलोमीटर दूर हम एक दूसरे गांव में पहुंचते हैं, जहां पर हजारों साल पुराना कुआं है. इसके आसपास दो टीले हैं. जिनकी खुदाई की जानी है. ऐसा माना जाता है कि इनमें इतिहास की तमाम चीजें दफन हैं. कुछ साल पहले एक टीले की खुदाई शुरू की गयी थी, तो उसमें काफी चीजें मिली थीं, लेकिन बाद में खुदाई बंद हो गयी. बताते हैं कि इसकी जांच पुरातत्व विभाग की ओर से की गयी, लेकिन आगे की कार्रवाई नहीं हो सकी. हम कुएं की बात कर रहे थे. सामान्य तौर पर अभी जो कुएं बनाये जाते हैं, उनमें छोटी-छोटी ईंटें लगती हैं, लेकिन रामशरण जी बताते हैं कि बौद्ध काल में बड़ी ईंटें बनायी जाती हैं. कुएं की गोलाई केवल दो ईंटों से ही कवर हो जाती है. ऐसा कहा जाता है कि पानी का रिसाव कम हो और जोड़ कम दिखें. इस वजह से उस समय बड़ी ईंटें कुओं के लिए बनायी जाती थीं. कुआं अभी तक मौजूद है. इसके बारे में यहां के गांव के लोग कम जानते हैं, लेकिन ये लोग बताते हैं कि कुछ साल पहले तक इसका पानी पूरे गांव के लोग पीते थे. इसी के पानी से दाल बनती थी. गांव के लोग विशेष रूप से दाल पकाने के लिए इससे पानी ले जाते थे, लेकिन हैंडपंप लगने के बाद इसका उपयोग बंद हो गया. अब यह कुआं प्रयोग में नहीं है.
गांव के लोग बताते हैं कि ऐसे ही तीन कुएं आसपास थे. पास इनमें से दो समय के साथ खत्म हो गये. एक स्कूल की बाउंड्री पर पड़ा था, जिसमें आसपास के लोगों ने कचरा डालना शुरू किया और वह पूरी तरह से बंद हो गया. दूसरे कुएं के साथ भी कुछ ऐसा ही हुआ, लेकिन इन कुओं में अपना इतिहास दबा है. इसकी जानकारी इन लोगों को नहीं है. सैकड़ों साल पुराने इन कुओं का हमारे पूर्वजों ने किस तरह से बनाया होगा और किस तरह से इनका उपयोग होता रहा है. यह सब आज की पीढ़ी को बताया जाना चाहिये, ताकि उन्हें इतिहास का बोध रहे. हाल के सालों में जो कुएं बंद हुये हैं. उनका भी फिर से जीर्णोद्धार किये जाने की जरूररत है.
जारी..