गुरुवार, 18 मई 2017

सच्चा और अच्छा चुनें, चैन से रहें

मुजफ्फरपुर नगर निगम के चुनाव में अब दो दिन शेष बचे हैं. 21 मई को चुनाव है, उसी दिन नयी नगर सरकार को चुन लिया जायेगा. इस सरकार में कौन लोग शामिल होंगे. कौन हमारे 49 वाडरे का प्रतिनिधित्व करेंगे. यह 23 मई को मतगणना के साथ पता चल जायेगा, लेकिन इससे पहले चुनाव में अपनी जीत को लेकर प्रत्याशी दिन-रात एक किये हैं. चुनाव प्रचार का मुख्य साधन टेंपो (ठेले) बने हुये हैं. मुजफ्फरपुर शहर (निगम क्षेत्र) कोई सौ मीटर ऐसा नहीं होगा, जहां आपको प्रचार का ठेला नहीं मिल जाये. ठेलों पर देशभक्ति के गीत से लेकर वार्ड को चमकाने तक की बात हो रही है. विरोधी पर निशाना भी साध रहे हैं. यह सिलसिला पिछले लगभग 15 दिनों से चल रहा है, जो 19 की शाम पांच बजे पूरा हो जायेगा. उसके बाद 20 को दिन भर प्रत्याशी लोगों से मिलकर अपने पक्ष में प्रचार करने को कहेंगे. यह आखिरी मौका होगा, जब वह वोट मांगेंगे. इसके बाद 21 को सुबह से मतदान शुरू हो जायेगा.
22 को एक तरह से प्रत्याशियों के लिए रेस्ट डे रहेगा, क्योंकि 23 को फिर वोटों की गिनती का दिन होगा. इससे इतर नगर निगम मुजफ्फरपुर की बात करें, तो मेरी समझ से यह शहर के लिए प्रतिनिधि संस्था अभी तक नहीं बन पायी है. इसको लेकर किंगमेकर से लेकर तरह-तरह की उपाधियां प्रचलित हैं. लोग कमरों में बैठ कर शहर की किस्मत लिखते हैं, लेकिन शहर में जो काम होता है, उसमें समन्वय का घोर अभाव दिखता है. अगर निगम क्षेत्र में किसी तरह का काम होता है, तो उसमें निगम को पूरी तरह से शामिल होना चाहिये, लेकिन ऐसा होता नहीं दिखता है. यह अभी की नहीं सालों से यही हालात हैं. मुजफ्फरपुर के प्रमुख चौराहों में शामिल सरैयागंज की बात करें, तो इसकी दुर्दशा किसी से छिपी नहीं है, लेकिन निगम चुनाव में यह मुद्दा नहीं है. हमारी आन-बान और शान का प्रतीक टावर अब अपनी खूबसूरती खो रहा है. टाइल्स उखड़ रही हैं. घड़ी सालों से बंद है. गांधी की प्रतिमा के चारों ओर लगे कांच टूट चुके हैं, लेकिन इनका क्या होगा, कभी कोई बात नहीं करता?
टावर की ओर आनेवाली सड़क की बात करें, तो यह लगभग दो साल पहले बनी है, लेकिन बनने के समय इसमें जो गड्ढे पड़े. वह अभी तक हैं ही, लेकिन कभी कोई विरोध नहीं हुआ. बच्चों के खेलने का पार्क शहर में अभी तक नहीं बन पाया. अपने शहर में शायद ही ऐसा मोहल्ला हो, जहां पार्क हो. नगर आयुक्त आवास के बगल में दो पार्क हैं, लेकिन कोई भी नागरिक उपयोग में नहीं है. ऐेसे में क्या कहा जा सकता है. यहां रजाई धुननेवालों को अड्डा है. उन्हीं के कब्जे में यह सड़क है. पार्किग स्थल को लेकर केवल बात होती है, लेकिन अभी तक किसी तरह का काम नहीं हो सका है. कोई कहता है कि यहां पार्किग बना देंगे. कोई कुछ और कहता है, लेकिन हो कुछ नहीं पाया.
सार्वजनिक शौचालय का अभाव है. पहले कभी जो व्यवस्था हुई. वह समाप्त हो गयी. नयी सुविधा पर बात नहीं होती है. अतिक्रमण का क्या हाल है. यह किसी से छुपा नहीं हुआ है. तीन से पांच फुट सड़क घेरना दुकानदारों का अधिकार जैसा हो गया है. शहर में हर जगह पर यह नजारा देखा जा सकता है. ऐसी तमाम समस्याएं हैं, जो निगम के कार्यक्षेत्र में आती हैं, जिनके समाधान की केवल बात होती है, लेकिन उन पर काम नहीं होता है, जो व्यवस्थाएं बनी हैं. वह भी सही तरीके से नहीं चल रही हैं. यही स्थिति निगम क्षेत्र की बनी हुई है. इन सबसे इतर एक बात और. मुजफ्फरपुर को प्रदेश की सांस्कृतिक राजधानी कहा जाता है, लेकिन यहां के निगम के पास एक भी अपना सांस्कृतिक आयोजन नहीं है और न ही इस तरह का कोई प्रस्ताव ही निगम के पास है, जो पिछले कुछ सालों में मैंने सुना व देखा है. क्या निगम के पास एक बड़ा आयोजन नहीं होना चाहिये. अपने शहर की प्रतिभाओं के लिए. स्मार्ट सिटी में किस तरह का हाल बना यह हम लोग देख चुके हैं. सफाई के सव्रे में हम कहां खड़े हैं. यह भी आइने की तरह साफ है.





अपनों पर विश्वास से वैशाली को मिला था वैभव

किस्त-तीन
वैशाली ऐेसे ही वैभवशालिनी नहीं थी. उसके पीछे सबसे खास वहज थी, जो वहां के लोगों में एकता थी, किसी भी समस्या का समाधान वो लोग मिलजुल कर करते थे. कहते हैं, कि एक मामले का समाधान जब तक सर्वसम्मति से नहीं हो जाता था, तब तक बैठक चलती रहती थी. इसी एका की वजह थी कि दूसरे राज्य इसकी तरफ आंख उठा कर बी देखने की हिम्मत नहीं करते थे. इसमें एक और अहम बात है, जो राम शरण अग्रवाल जी बताते हैं. कहते हैं कि वैशाली के तत्कालीन शासन करनेवालों को अपने लोगों पर बहुत विश्वास था. वह यह नहीं समझते थे कि वैशाली के लोग किसी तरह के अनैतिक काम में संलिप्त हो सकते हैं. इसीलिए अनैतिक कामों की जांच के लिए उस समय आठ स्तरीय व्यवस्था थी. अगर किसी के खिलाफ शिकायत आती थी, तो उसकी जांच आठ स्तर पर की जाती थी और सभी स्तर पर दोषी पाये जाने पर ही व्यक्ति को सजा होती थी. अगर किसी भी स्तर पर हुई जांच में वह निदरेष पाया जाता था, तो जांच वहीं बंद कर दी जाती थी. यानी विश्वास का स्तर क्या था? यह हम सहज की कल्पना कर सकते हैं.
क्या हम आज इस तरह की व्यवस्था नहीं बना सकते? राम शरण जी की बातों को सुनते हुये मेरे दिमाग में यह सवाल चलने लगा, तो लगा कि मेरा मन गलत समय में सही सवाल कर रहा है. इस समाज जिस तरह से समाज पर बजार हावी है. हम सब लोग बजार के हवाले हैं. वैसे में इस तरह के सही प्रश्नों का जबाव बेमानी ही होगा और जो होगा भी उसे हम आदर्शवादी कह सकते हैं. हम उस दौर में जी रहे हैं, जहां एक ऐसा वर्ग बनता जा रहा है, जो लोगों को चरित्र प्रमाण पत्र बांटता चलता है. खुद को नहीं देखता है. वह क्या है? अपने कृत्यों से कहां पहुंचता जा रहा है, लेकिन प्रमाण पत्र का बंडल लेकर घूम रहा है. फेसबुक से लेकर ट्विटर और जितने भी साधन हैं, सब पर सार्टिफिकेट देनेवालों की बाढ़ सी है. अगर कोई अच्छा काम कर रहा है, तो उसे भी बिना जाने-समङो कुछ भी कहे जा रहा है. इसमें ऐसे लोग भी शामिल हैं, जो खुद को तथाकथित बुद्धिजीवी कहते हैं. खैर, मैं किन बातों में लग गया, लेकिन यह सवाल वैशाली घूमते समय मन में आ रहे थे, सो लिख दिये.
वैशाली को लेकर जो बातें राम शरण जी कहते हैं, उन पर सहसा विश्वास होता चला जाता है, तो क्योंकि इनमें किसी तरह का लाग लपेट नहीं है और इतिहास के रूप में ही सही, जो दिखता है. वह अपने आप अद्भुत है. वैशाली स्तूप से लेकर अभिषेक पुस्करिणी तक कुछ जगहें ऐसी हैं, जहां देश-विदेश से आनेवाले पर्यटक जाते हैं. उन्हें देखते-समझते हैं, लेकिन राम शरण जी इनके आसपास बसे गांवों में ले जाते हैं और वहां के स्थलों को दिखाते और बताते हैं, तो लगता है कि अभी अपनी वैशाली के बारे में कितना जानना और समझना बाकी है. सरकार की ओर से इस काम को बड़े पैमाने पर और बेहतर तरीके से किया जाना चाहिये. गांवों के आसपास के जिन खेतों में गेहूं की फसल लहलहा रही है. वहीं, कभी तथागत (बुद्ध) घूमते रहे होंगे और उनसे जुड़ी जो जनश्रुतियां राम शरण जी सुनाते हैं, तो लगता है कि हमारी आंख के सामने घट रहा है.
खेतों-पगडंडियों के बीच बने छोटे-छोटे टीलों की थोड़ी सी मिट्टी भी हटायी जाती है, तो उससे ऐतिहासिक चीजें झांकने लगती हैं. वह अपने समृद्ध अतीत की गवाही देने लगती हैं. इन्हें देख कर ही संतोष होता है कि आखिर कितने समृद्धिशाली क्षेत्र में रहने को हमें मिला है. हम धन्य हैं. वैशाली में लोगों से बात होती है, तो उनकी बोली और भाषा अब भी अन्य जगहों से अलग और निराली लगती है. उन्हें इसका एहसास है कि वह कहां रह रहे हैं. उसके क्या मायने हैं.

सोमवार, 15 मई 2017

समृद्धि की प्रतीक भी है वैशाली

वैशाली के अतीत में केवल पानी की सुदृढ़ व्यवस्था नहीं मिलती है. अपनी व्यवस्थाओं के चलते वैशाली उस कहावत को भी पारिभाषित करती है, जिसमें भारत को सोने की चिड़िया कहा गया है. इतिहासविद् रामशरण अग्रवाल तालाब व कुओं की संरचना व इतिहास बताते हुये हमें अभिषेक पुष्करिणी के पास स्थित संग्रहालय में ले गये. इस संग्रहालय में इससे पहले मैं चार बार आ चुका था. तमाम चीजें देख चुका था. कैसे आज से ढाई हजार साल पहले शौचालय आदि की व्यवस्था थी. उस समय की जीवनशैली कैसी थी, लेकिन जीवन शैली की क्या विशेषता थी. इसे समझ नहीं सका था. संग्रहालय में घुसते ही अग्रवाल जी ने कहा कि खुदाई से प्राप्त ईंटों को बारीकी से देखने. इसमें कुछ जड़ा हुआ दिखेगा आपको. देखने पर पारदर्शी पत्थरनुमा कई चीजें पत्थरों में जड़ी हुईं दिखीं. इसे समझाते हुये अग्रवाल साहब ने बताया कि यही विशेषता है. उस समय लोग अपने घरों के पत्थरों में भी कुछ न कुछ जड़वा देते थे. इससे उस समय की समृद्धि का पता चलता है.
इसके बाद उन्होंने उन तमाम चीजों को दिखाया, जो खुदाई के दौरान मिली हैं. इनमें महिलाओं की कुछ मूर्तियां भी हैं. अग्रवाल साहब ने कहा कि आपको किसी भी महिला की मूर्ति में समानता नहीं मिलेगी. सबका केश विन्यास अलग है. सबका चेहरा एक-दूसरे से अलग है. उस समय महिलाओं को लेकर समाज में क्या सोच थी. किस तरह से उन्हें आजादी रही होगी, यह इन मूर्तियों से झलकता है. संग्रहालय में कई और बारीकियों को भी अग्रवाल साहब ने बताया और फिर वह वहां से निकल कर अभिषेक पुष्करिणी पर आ गये. उसके वैभवशाली इतिहास को बताने लगे, साथ ही वर्तमान में सूखते पानी और तरह -तरह की गंदगी पर अफसोस भी जता रहे थे. उन्होंने बताया कि यह पुष्करिणी लगभग साढ़े चार हजार साल पुरानी है. जैसा कि नाम से ही मालूम है. इसके पानी से राज परिवार में अभिषेक होता था.
अग्रवाल साहब कहने लगे कि यह सही है कि पुष्करिणी की व्यवस्था ऐसी थी कि इसमें परिंदा भी चोंच नहीं मार सकता था. इसके लिए इसे पूरी तरह से सोने व चांदी के तारों से घेरा गया था और जहां पर तारों का जोड़ था. वहां पर हीरे-जवाहरात लगे थे. ऐसा वैभव वैशाली और यहां के लोगों का था. अग्रवाल साहब राजा विशाल का किला भी दिखाते हैं. खुदाई में जो कुछ प्राप्त हुआ है. उसे ध्यान से देखने को कहते हैं. कहते हैं कि जो भी निर्माण उस समय हुआ था. उसमें अभी तक कोई दरार नहीं पड़ी है, जबकि कितने ही भूकंप अब तक आये होंगे. इसकी वजह क्या हो सकती है. वह बताते हैं कि उस समय चौड़ी दीवाल बनायी जाती थी, जिनकी चौड़ाई कम से कम दो फुट होती थी. इससे ईंट एक सीध में नहीं रहती थी, जो निर्माण को मजबूती प्रदान करती थी. इसी तरह से कई और चीजें वह वैशाली में दिखाते हैं, जो उस समय की दिव्य व्यवस्था की ओर इशारा करती हैं. जारी...

कुछ कहना चाहती है आपसे वैशाली

वैभव शालिनी वैशाली. ये वाक्य पिछले छह सालों में कई बार सुनने को मिला. वैशाली भी बीच-बीच में जाने का मौका मिला. वहां के ऐतिहासिक स्थलों पर भी कई बार गया. स्थानीय साथी ने कई चीजें बतायीं. कुछ पढ़ने को भी मिला, तो वैशाली में विभिन्न स्थलों पर होनेवाली खुदाई के दौरान मिलनेवाली मूर्तियां व सिक्कों के बारे में समाचारों से परचित होता रहा. कई बार खुद को वैशाली के इतिहास का विशेषज्ञ कहनेवाले लोगों से भी साक्षात्कार हुआ, लेकिन ऐसी अनुभूति कभी नहीं हुई, जैसी की सीता माता की भूमि में रहनेवाले रामशरण अग्रवाल जी के साथ वैशाली जाकर हुई. बहुत समय से सोच रहा था कि कुछ लिखूंगा, लेकिन लिख नहीं पा रहा था. पर आज लगा कि लिखना ही चाहिये.
नौ अप्रैल को सुबह सात बजे के आसपास जब हम मुजफ्फरपुर से वैशाली के लिए चले, तो अन्य दिनों की तरह यह भी वैशाली की सामान्य यात्र ही लग रही थी, लेकिन जैसे ही रामशरण जी ने वहां का इतिहास और उन स्थलों के बारे में बताना शुरू किया. मेरी धारणा बदलती चली गयी. वैशाली क्षेत्र में प्रवेश करते-करते मुङो ऐसा लगा कि अपने वैभव के कारण प्रसिद्ध वैशाली मुझसे भी कुछ कहना चाहती है. वहां की मिट्टी का कण-कण बात करना चाहता है. यह अद्भुद है कि वैशाली के कण-कण में अपना समृद्ध इतिहास छुपा हुआ है, जिसे आज की पीढ़ी के सामने लाये जाने की जरूरत है, लेकिन इस पर बहुत धीमी गति से काम हो रहा है.
नौ अप्रैल को महावीर जयंती थी, सो शुरुआत महावीर मंदिर से हुई. वहां की ऐतिहासिक मूर्ति के दर्शन पहली बार हुये. पुजारी जी ने मुङो पूजा करने की विधि बतायी और समझाया भी. इसके बाद लंगर में प्रसाद मिला. मंदिर के बगल में ही तालाब बना है. देखने में यह सामान्य लगता है, लेकिन इसका अपना ऐतिहासिक महत्व है. इसकी बनावट अभिषेक पुस्करणी के जैसी है. रामशरण जी ने बताया कि अब भले ही तालाब अतिक्रमित होकर अपना अस्तित्व खो रहा है, लेकिन इस इलाके को सिंचित करने में इनकी महत्वपूर्ण भूमिका रही है. वैशाली एक समय विदेह (राजा जनक) का क्षेत्र था और यह ऐतिहासिक तथ्य हम सबको मालूम है कि सीता जी का अवतरण तब हुआ था, जब राजा जनक हल चला रहे थे. उस समय सूखा पड़ा हुआ था, लेकिन उसके बाद इतिहास के किसी कालखंड में सूखे का जिक्र नहीं आता है. रामशरण जी बताते हैं कि उस समय के सूखे को लेकर बड़ा काम हुआ, ज्ञात इतिहास में केवल वैशाली में सात हजार से ज्यादा तालाब और इतने ही कुएं थे. जिनसे यहां रहनेवालों की पानी की जरूरत पूरी होती थी. उसकी निशानी अब भी बची हुई है. यानी पानी का संकट नहीं हो, इसके लिए फुल प्रूफ सिस्टम था. हालांकि उन तालाबों में अब हजारों तालाब का अस्तित्व नहीं रह गया है, जो कुछ तालाब बचे हैं वह भी अपना अस्तित्व खो रहे हैं. यह अपने आप में दुखद है. कई तालाबों का पानी गर्मी के दिनों में सूख जाता है. इस वजह से साल-दर-साल वैशाली भी पानी संकट की दिशा में आगे बढ़ती जा रही है. जरूरत इस बात की है कि हम अपने इतिहास से सबक लें और फिर से तालाबों को उनका रूप वापस लौटायें. पानी की संकट अपने आप खत्म हो जायेगा. बस इसके लिए ईमानदार पहल की जरूरत है. जारी..

गुरुवार, 11 मई 2017

सांसों पर भारी पड़ता गाड़ियों का धुंआ

मुस्कराइये की आप पटना में हैं, लेकिन यह मुस्कराहट उस समय परेशानी में तब्दील हो जाती है, जब ऑटो व अन्य वाहनों से निकलनेवाला धुंआ आपकी सांस और शरीर की क्षमता का परीक्षा लेने लगता है. सुबह ऑफिस जाने और शाम को ऑफिस छूटने के समय आप पटना की सड़कों पर पहुंचे, तो आपको सांस लेने में परेशानी होगी. डीजल और पेट्रोल की महक आपकी सांसों में घुलेगी और आप घर पहुंच कर जब मुंह-नाक धोयेंगे, तो धुंये के काले कण निकलेंगे. अगर आपने सफेद शर्ट पहनी है, तो उसकी बाहर व कॉलर काले हो चुके होंगे. यही आज के पटना की हकीकत है.
देश में जब सौर्य ऊर्जा से लेकर सीएनजी और एलपीजी जैसे स्वच्छ ईंधन का प्रयोग हो रहा है, तब पटना में इनका चलन नहीं होना संदेह पैदा करता है. आखिर कमी कहां हैं. किस स्तर पर इसके लिए काम हो रहा है, क्योंकि पटना में डीजलवाले ऑटो को चलाया जा रहा है. यह ऐसे सवाल हैं, जिनका उत्तर जवाबदेह लोगों को देना चाहिये. पटना में राज्य की सरकार के कर्ताधर्ता बैठते हैं, क्या उन्हें यह समस्या परेशान नहीं करती है. अगर लोगों की सांसों के साथ उनके शरीर में धुंआ और खतरनाक केमिकल जायेगा, तो वह कैसे स्वस्थ्य रह पायेंगे. क्यों स्वच्छ ईंधन की दिशा में पहल नहीं हो रही है. स्वच्छ ईंधन के नाम पर केवल कुछ ई-रिक्शा चलते हैं. इसके अलावा और कुछ नहीं.
अगर हम उत्तर भारत के राज्यों की बात करें, तो लखनऊ जैसे शहर में दशकों पहले डीजल से चलनेवाले ऑटो को बैन कर दिया गया. वहां बैट्री व सीएनजी के चलनेवाले ऑटो ही चलते हैं. इससे एक समय पर पर्यावरण का पर्याय बने लखनऊ को बड़ी राहत मिली थी, जो अब तक जारी है, लेकिन पटना में यह पहल क्यों नहीं हुई. मेट्रो की बात हो रही है. वह भी योजना जमीन पर उतरती नहीं दिखती है. ऐसे में हम कैसे बेहतरी की बात कर सकते हैं, जब हम लोगों की सांसों को ही खतरे में डाल रहे हैं.

गुरुवार, 4 मई 2017

कौन सुनेगा पीरमोहम्मदपुर की पीड़ा

बहुत ज्यादा दूर नहीं है मुजफ्फरपुर शहर से पीरमोहम्मदपुर गांव. शहर खत्म होते ही गांव की दुश्वारियां शुरू हो जाती हैं. गांव जाने के वैसे तो कई रास्ते हैं, लेकिन मुख्यत: दो रास्ते हैं, जिनसे होकर लोग आते-जाते हैं. दोनों ही रास्ते अभी तक कच्चे हैं. आप जायेंगे, तो मिट्टी नहाना पड़ेगा, क्योंकि कोई वाहन गुजरता है, तो धूल उड़ती है. बूढ़ी गंडक किनारे बसा ये गांव प्राकृतिक और उपज की दृष्टि से बहुत अच्छा है.
यहां बड़े पैमाने पर सब्जी व मक्का की खेती होती है. गांव का हर घर खेती से जुड़ा है. खूब उपजाते हैं और लोगों को पेट भरते हैं, लेकिन इनकी खुद की स्थिति सही नहीं है. गांव के बारे में नीतीश्वर कॉलेज के प्रमोद पांडेय से जाना और सुना, तो इच्छा हुई, जाना चाहिये. प्रमोद जी ने रास्ता बताया. सफर शुरू हुआ, लेकिन जैसे ही बीएमपी-छह के आगे बढ़ा. मन हुआ जानकारी ले ली जाये. साथी से कहा, पता कर लेते हैं. लोगों ने रास्ता बताया, लेकिन हिदायत दी, इधर से जाना ठीक नहीं रहेगा. लंबी दूरी वाले रास्ते से जायें, सो उसी रास्ते से आगे बढ़ चला. पूछते-पूछते एक लोहे के पुल पर पहुंचा. यहां तक को स्थिति ठीक थी, लेकिन पुल से आगे बढ़ते ही परेशानी शुरू हो गयी. बलुई मिट्टी की कच्ची सड़क पर गाड़ी का बढ़ना मुश्किल हो रहा था, लेकिन हम भी गांव जाने पर अडिग थे. साथी ने कहा, गांव के लोग कैसे आते-जाते होंगे. यही सवाल मेरे भी मन में था. बचपन में कमोबेश मेरे गांव का रास्ता भी ऐसा ही था, सो मुङो कुछ आश्चर्य नहीं लग रहा था, लेकिन अब से लगभग 30 साल पहले हमारे यहां सड़क बन गयी, जिससे आना-जाना आसान हो गया.
हर बड़े फोरम, जिस पर गांव की बात होती है. वहां कहा जाता है कि जब तक गांव का विकास नहीं होगा, तब तक देश आगे नहीं बढ़ेगा. पीरमोहम्मदपुर जाते समय ये हकीकत सामने आ रही थी. लगभग दो किलोमीटर का लंबा रास्ता जैसे-तैसे 15 मिनट में तय किया और गांव पहुंचा, तो सुखद अहसास हुआ. गांव में नीतीश्वर कॉलेज का एनएसएस कैंप चल रहा था. कैंप के आखिरी दिन कृषि वैज्ञानिकों को बुलाया गया था, जो गांव के लोगों को खेती के बारे में जानकारियां दे रहे थे. कृषि वैज्ञानिकों का कहना था कि हम आप लोगों को उपज के बारे में जानकारी नहीं देने आये हैं, क्योंकि उपज आप खूब करते हैं. उपज का संरक्षण कैसे करें. यह जानकारी देने के लिए हम आये हैं और इसी के आधार पर वह गांव के लोगों के सवालों के जवाब दे रहे थे.
गांव में जो खड़ंजे लगे हैं, उनका भी कोई खास अर्थ समझ में नहीं आया. लोगों से जानकारी ली, तो कहने लगे कि गर्मी है, इसलिए आप आ गये. बारिश के दिनों में गांव आाना-जाना दूभर होता है. गांव में चलने में समस्या होती है. बाढ़ पिछले दस साल से नहीं आयी है, लेकिन सड़क भी नहीं बन सकी है. हर बात और हर नेता हमें आश्वासन देते रहे हैं. रमई राम जी इलाके के लगभग तीस दशक विधायक और मंत्री रहे. हर बार आश्वासन दिया, लेकिन सड़क नहीं बनी. अब बेबी कुमारी हैं, वह भी कह रही हैं. सड़क बन पायेगी या नहीं, अभी कुछ भी साफ नहीं है. केवल प्रस्ताव भेजने की बात होती है. प्रस्ताव पर क्या हुआ, ये किसी को समझ नहीं आ रहा.
सड़क नहीं होने की वजह से गांव के लोगों की शादियां टूट जाती हैं. यहां ऐसे दर्जनों लोग मिलेंगे, जिनकी शादी सड़क नहीं होने की वजह से कट गयी. हाल में प्रतिभा नाम की लड़की की शादी कटी है, जो इस समय गांव में चर्चा का विषय है. प्रतिभा पहले कोलकाता में पढ़ी है. अब एमएसकेबी में पढ़ रही है. कहती है कि हम चाहते हैं कि गांव की सड़क बने, क्योंकि हमें कॉलेज आाने-जाने में परेशानी होती है.
गांव में लगभग दो घंटे तक रहने के बाद, जब हम वापस शहर आने लगे, तो हमें लगा कि दूसरा रास्ता भी देखना चाहिये, सो फैसला दूसरे रास्ते से जाने का किया. यह पगडंडी है, जिससे बमुश्किल से गाड़ी गुजरती है. अगर कहीं चूके, तो सीधे बूढ़ी गंडक नदी की खाई में गिरने का खतरा. पगडंडी के दोनों ओर सब्जी व मक्के की खेती सुखद एहसास कराती है, लेकिन रास्ता उतना ही परेशान करता है. लगभग डेढ़ किलोमीटर लंबा रास्ता भगवान का नाम लेते हुये पार किया और जब मुख्य सड़क पर आये, तो वहां भी ज्याद सुकून नहीं मिला. बताया गया कि दो साल पहले सड़क बनी थी, लेकिन अब सड़क में गड्ढा है या गड्ढे में सड़क यह खोजना चुनौती है.

बुधवार, 3 मई 2017

खेत जोतने और भैंस चराने का मजा

का हो चाचा, का हाल है..10 साल गांव पहुंचे सव्रेश ने जब नरेंद्र चाचा से इस अंदाज में बात की, तो उसकी सारी अंगरेजियत कहीं जाती रही. महानगर में मल्टीनेशनल कंपनी की नौकरी और वहां के अंगरेजी दा लोग. यह सब अब उसके जीवन का हिस्सा बन गया है, लेकिन सव्रेश अपने बचपन के दिनों को सर्वश्रेष्ठ मानता रहा है. इनके बारे में जब भी मौका मिलता है, लोगों से जिक्र करता रहता है, लेकिन उन लम्हों को जीने की कसक 10 साल बाद पूरी होने जा रही है.
पढ़ाई के सिलसिले में जब वह दिल्ली और दिल्ली से इंग्लैंड गया था, तो उसे सब अजूबा लगता था. दुनिया कितनी बड़ी है, इसका एहसास हुआ था. पढ़ाई के बाद अच्छी नौकरी मिल गयी, लेकिन गांव छूट गया. लंबा अंतर हो गया. बीच में एक-दो दिन की छुट्टी मिली, तो दिल्ली में ही दोस्तों से मिल कर वापस चला गया. एक-दो बार मां-बाबू जी भी बेटे का दफ्तर और शहरी घर देख चुके थे, जो उसने किराये पर ले रखा है, लेकिन सव्रेश का मन तो गांव में ही बसता है. घर पहुंचने के बाद घर में सामान रखा और निकल गया गांव के छोर पर..नदी के किनारे, जहां बचपन में उसकी सुबह और शामें गुजरा करती थीं, लेकिन सव्रेश को वहां निराशा हाथ लगी. नदी के किनारे पहले जैसे हुजूम उमड़ता था. वह नदारद था, जो बच्चे उसके साथ खेलते थे. वो एक-एक कर काम के सिलसिले में दूसरे राज्यों का रुख कर चुके थे.
बचपन से बड़े हुये बच्चे किताबों और कॉपियों के बोझ तले दबे दिख रहे थे. बुजुर्गो को भी घर में ही टीवी नाम का नया सहारा मिल गया था. नदी का किनारा सुनसान था. पहले जहां घास होती थी. वहां अब जंगलनुमा झाड़ियां उग आयी हैं. निराशा के बीच सव्रेश पुरानी यादों में खो गया. उसे याद आने लगा कि स्कूल आने-जाने के बाद जो समय बचता था. कैसे वह और उसके दोस्त नदी के किनारे आते थे. सब एक साथ नहाने के लिए उतर जाते थे, तब घाटों की छटा देखते ही बनती थी, लेकिन अब घाट भी वीरान होने की कगार पर हैं, जिन पाटों पर धोबी (जुलाहे) कपड़े धोते थे. अब उन पर भी काई जम चुकी है. लगता है कि लंबे समय से इन पर कपड़े नहीं धोये गये.
गोधूलि बेला में पहले गाय-भैंसे जंगल से वापस घर आती थीं और उनके चलने से हल्की-हल्की धूल उड़ती थी. अब वह भी नहीं दिख रही थी. बैलों की जोड़ियां भी खेतों से घरों की ओर नहीं आ रही हैं. सब बदल गया है. गांव के बच्चे अब आपस में फिल्मी बातें कर रहे हैं. किस होरी का किस हिरोइन से संबंध बना और किसका टूटा इसकी बात हो रही है. लड़कियों को सीरियल के एपिसोड भा रहे हैं. बानी ने क्या कपड़े पहने और शांति ने कैसे सबक सिखाया..इसमें इंट्रेस्ट है. दस साल की उम्र में जब सव्रेश ने गाय और भैंस चरानी शुरू की थीं, तो गांव के बड़े बुजुर्ग भी जंगल में आते थे और कैसे रहना है. कैसे बड़ों से बर्ताव करना चाहिये, सब बताते थे. सिखाते थे. सब लोग एक-दूसरे का कहना मानते थे, लेकिन अब बच्चे खुलेआम पुड़िया खा रहे हैं. बड़े देख कर कुछ नहीं कह पा रहे हैं. यही पूरे गांव में दिख रहा है.
गांव को लेकर सव्रेश ने जो सपने संजोये थे. वो बारी-बारी से टूट रहे थे. वह निराश होकर वापस घर लौटने लगा. रास्ते में उसे याद आया कि कैसे आम के दिनों में पेड़ों से तोड़ने के बाद आमों को जंगल में छुपा देते थे और फिर तीन-चार दिन बाद वो आम पके मिलते थे. भैंस की गोबर के खाद में भी कई बार आम पकने के लिए डाल दिये जाते थे. उनका रंग बदल जाता था. हरे आम पीले हो जाते थे. क्या अच्छा समय था. खेत जोतनेवाले पहलादी (प्रहलाद) के लिए खाना लेकर जाता था, तो जब पहलादी खाने लगते थे, तो सव्रेश बैलों पर हाथ आजमा लिया करता था. खेत जोतने का सलीका इसी तरह से सीखा था. एक दिन को पांच कट्ठा जमीन जोत गया था.
यादों में डूबा सव्रेश जब घर पहुंचा, तो दरवाजे पर उसके पिता जी ने स्वागत किया. कहने लगे, मुङो पता था कि तुम नदी के किनारे गये होगे, लेकिन अब सब बदल गया है. गांव में लोग एक-दूसरे को देखना नहीं चाहते हैं. वह बताने लगते हैं कि सव्रेश को नौकरी मिलने के बाद कैसे पड़ोसियों ने उनसे दूरी बना ली थी और थोड़ी-छोड़ी सी बात में लड़ने को उतारू हो जाते थे.
सव्रेश को नौकरी से उन्हें बड़ा कष्ट पहुंचा था, लेकिन सव्रेश से ये बात उनके पिता ने पहले नहीं कही थी. अब जब सव्रेश ये बातें सुन रहा था, तो वह मन ही मन मुस्करा रहा था और उसे उसका उत्तर मिल गया था कि आखिर गांव से परंपरा रूपी चीजें कैसे खत्म हो गयीं.


 

कुछ पढ़े-लिखों ने ही गांधी जी सीख की धज्जियां उड़ा दीं

यह एक वरिष्ठ प्रशासनिक पदाधिकारी के मन बैठे सत्याग्रह (सत्य के आग्रह) का ही फल था, जो  मंच मिलते ही सामने आ गया. तिरहुत प्रक्षेत्र के कमिश्नर अतुल प्रसाद को मैं ऐसा अधिकारी मानता हूं, जिनमें अपने काम के प्रति निष्ठा है और उसे बखूबी करना चाहते हैं. मुजफ्फरपुर में पोस्टिंग के काल से ही इनकी कार्यशैली अलग रही है. अब तक अनुभव में मैंने पहला पदाधिकारी देखा, जिसने सरकारी बेवसाइट पर ब्लॉग लिखा और उसमें अपनी खामियों को भी उजागर किया. ऐसा करनेवाले अधिकारी बिरले ही होते हैं.
चंपारण सत्याग्रह शताब्दी समारोह का साल चल रहा है. सौ साल पहले महत्मा गांधी 10 अप्रैल के दिन मुजफ्फरपुर पहुंचे थे, जहां से चंपारण सत्याग्रह की नीव पड़ी थी. सौ साल बाद मुजफ्फरपुर में यात्र को फिर से जीवंत किया गया. पांच दिन तक पूरा शहर गांधीमय रहा. सत्य और अहिंसा की बात हो रही थी. इसके 15 दिन भी नहीं बीते थे. शहर में दो ऐसी घटनाएं हुईं, जिन्होंने सबको सोचने पर मजबूर कर दिया. इन घटनाओं के पीछे कुछ पढ़े-लिखे लोग थे. सब नहीं. यहां मैं फिर से कह रहा हूं, सब नहीं, लेकिन कुछ लोगों ने ही ऐसा कृत्य किया, जो सब पर भारी पड़ा. बड़े पैमाने पर नुकसान हुआ. कई दिनों तक पुलिस और मजिस्ट्रेटों का बड़े पैमाने पर पहरा रहा, जो अब भी जारी है.
इनमें पहली घटना एसकेएमसीएच की है, जहां से लोगों को जीवन देनेवाले डॉक्टर पढ़ कर बाहर निकलते हैं. साथ ही यहां के अस्पताल में लोगों को नया जीवन दिया जाता है, लेकिन एक महिला के इलाज को लेकर ऐसा हुआ कि जीवन देनेवाले जीवन लेने पर उतारू हो गये और इसकी प्रतिक्रिया भी इससे कम नहीं थी, जो लोग इन डॉक्टरों को विरोध कर रहे थे. वह भी उन्हीं की भाषा में या उससे कहीं ज्यादा बड़े विध्वंसक अंदाज में. पांच एंबुलेंस फूंक दी गयीं. दर्जनों गाड़ियों को तोड़ दिया गया. दो दर्जन से ज्यादा लोग जख्मी हो गये. दिन भर पूरा इलाका रणक्षेत्र में तब्दील रहा.
दूसरी घटना एमआइटी के कुछ छात्रों ने की, जहां से निर्माण करनेवाले इंजीनियर निकलते हैं. इन लोगों ने पंप से पेट्रोल ले लिया, लेकिन पैसा मांगने पर मारपीट को उतारू हो गये. बीच-बचाव की कोशिश हुई, तो उन लोगों से भिड़ गये, लेकिन यहां संख्याबल भारी पड़ा, जब लोग एकत्र हुये, तो छात्र भागने लगे और भाग कर हॉस्टल में घुस गये.
इन दोनों घटनाओं में बुनियादी फर्क ये रहा कि एमआइटी का प्रबंधन सामने आया, जिसने घटना की निंदा की और दोषी छात्रों पर कार्रवाई की बात कही, लेकिन मेडिकल की घटना में ऐसा नहीं हुआ, वहां के प्रबंधन से छात्रों का पक्ष लिया. यहां तक कि डॉक्टरों ने उनका समर्थन किया और कहा कि जूनियर डॉक्टर जो करेंगे. वह उसमें उनका साथ देंगे. यही बुनियादी सवाल पूरी कहानी कहता है. हमारा सवाल यहां पर ये है कि अगर आप खुद को पढ़ा-लिखा और समाज को दिशा देनावाला मानते हैं, तो आपको खुद ट्रेंड सेट करना होगा. हम मानते हैं कि अगर किसी ने विरोध किया. या मारपीट किया, तो हमें उस समय धैर्य से काम लेना चाहिये. अगर ऐसा होगा, तो डॉक्टरों जैसे मामले में पुलिस पर कार्रवाई का दबाव होगा. अगर एक बार कार्रवाई हो गयी, तो आागे से घटना करने से पहले लोग सोचेंगे, लेकिन यहां ऐसा नहीं हो रहा. जैसे को तैसा की तर्ज पर तुरंत हिंसा का बदला हिंसा की बात होती है.
हमें लगता है कि यही कमिश्नर जैसे बड़े पद पर बैठे अधिकारी को अच्छा नहीं लगा. शताब्दी समारोह के संबंधित प्रभात खबर की व्याख्यानमाला में वह बोल पड़े कि हम लोगों ने भले ही गांधी जी के मूल्यों के माहौल को बनाने की कोशिाश की, लेकिन कुछ पढ़े-लिखे लोगों ने उसे तार-तार कर दिया. मुङो लगता है कि हम सबको इससे सबक लेने की जरूरत है, तभी इस तरह की हिंसा और प्रति हिंसा पर लगाम लग सकता है. क्या चंपारण शताब्दी समारोह की वर्षगांठ पर हम लोग ये नहीं कर सकते. हमारा उत्तर होगा, कर सकते हैं.

सरल होने का अपना मजा

फल आने पर वृक्ष झुक जाता है. ऐेसे ही जब कोई व्यक्ति सफलता की सीढ़ियां चढ़ता है, तो उसका व्यवहार और सरल होते जाना चाहिये. हमारे जितने भी महापुरुष हुये हैं, उनके जीवन को हम देखेंगे, तो यह पायेंगे. यही नहीं कोई भी व्यक्ति यदि सरलता से रहता है, तो उसे उसका मजा मिलता है, क्योंकि सरल होने का अपना अलग आनंद है. इसे वो लोग समझ नहीं सकते, जो थोड़ी-थोड़ी सी बात पर अकड़ने लगते हैं. अपने पद का रौब दिखाने लगते हैं. किसी को उसके पद और नाम से बुलाने लगते हैं. भला-बुरा कहने लगते हैं. अपनी पहुंच का हवाला देने लगते हैं या फिर अपना बल दिखाने लगते हैं.
यह चर्चा रामचरित मानस की कथा सुनने के बाद गांव के लोगों के बीच हो रही थी, तभी वहां से गुजर रहे घासी किसान को देख कर सब लोग उनकी ओर मुखातिब हो गये. घासी ऐसे व्यक्ति जिन्हें सिर्फ अपने काम से मतलब. कभी किसी का बुरा नहीं चाहा. अपने काम को ही अपना भगवान माना और उसी में दिन भर रमे रहते. गांव में कोई कुछ कहता, तो आसानी से सुन लेते. इससे कई बार उन्हें कष्ट भी उठाना पड़ता, लेकिन घासी कोई जवाब नहीं देते. वह अपने काम में लगे रहते. कई लोग उन्हें कायर समझते, तो कुछ लोग कहते, इतना चुप रहना भी ठीक नहीं. वह घासी को उकसाने की कोशिश करते, लेकिन वह कहता, हम क्या जानें मालिक. जिन्होंने ने कहा, वही जानें, क्यों कहा? हम इसमें क्या कहें, इतना कह कर घासी वहां से चला जाता और अपने काम में लग जाता.
घासी गांव के लोगों के सामने से गुजर गया, तो लोग आपस में चर्चा करने लगे. हम रामचरित मानस को सुन कर समझ रहे हैं, लेकिन उसमें जो कर्म का संदेश दिया गया है. उसे घासी सही मायनों में जी रहा है. वह अपने काम से काम रखता है. उसकी तरक्की भी हो रही है. खुद पढ़ा-लिखा नहीं है, लेकिन बच्चे पढ़ने में तेज हैं. वह भी पिता की तरह सिर्फ अपने काम पर ध्यान देते हैं. इधर-उधर नहीं करते, जब दूसरे बच्चे एक-दसूरे की निंदा में लगे रहते हैं, तो वह पढ़ रहे होते हैं. वह सही रूप में फलदार वृक्ष की भूमिका निभा रहे हैं, जो लगातार अपने कर्म में रमे रहते हैं. कभी अभिमान नहीं करते.

मंगलवार, 25 अप्रैल 2017

इन स्कूलों से सावधान, लेकिन जाएं कहां?

शर्मा जी की बेटी, पिछले चार दिनों से रोज सुबह उठते ही कहती, पापा मुङो इस स्कूल में नहीं पढ़ना है. वहां बहुत गलत पढ़ाया जाता है. मिस से कहते हैं, तो वह डांट देती हैं, लेकिन नेट पर चेक करते हैं, तो सही निकलता है. ऐसे में हम कैसे डॉक्टर बन पायेंगे. अगर हम ज्यादा दिन रहेंगे, तो मिस हमसे नाराज हो जायेंगी. पिछले साल, एक मिस कैसे नाराज हो गयी थीं, जिनको मैंने उनकी गलतियों को बारे में बता दिया था. उन्होंने इस साल भी मेरी सीट बदलवा दी है. परसों ही मेरी क्लास में आयी थीं और मेरी क्लास टीचर से कुछ देर बात की और फिर क्लास टीचर ने मेरी और मेरी सहेली गुड़िया की सीट बदल दी.
शर्मा जी, बेटी के इस सवालों से लगभग पक चुके थे. उन्हें समझ में नहीं आ रहा है कि वह बेटी को किस स्कूल में दाखिला दिलवा दें, क्योंकि जिस स्कूल में वह पढ़ती है. वह जिले का सबसे नामी स्कूल है. सालों से उसकी अलग पहचान है. वहां एडमिशन के लिए लोगों में मारामारी लगी रहती है. कितना अच्छा अनुशासन है स्कूल में. कोई भी बिना अनुशासन नहीं रह सकता है. पांच हजार से ज्यादा बच्चे स्कूल में पढ़ते हैं, लेकिन पास से गुजरने पर चूं तक नहीं सुनायी देती. वहां की मैडम शहर के बड़े-बड़े लोगों के बच्चों का एडमिशन लेने से मना कर देती है. अब ऐसे स्कूल से निकाल कर शर्मा जी अपनी बेटी को कहां डालें. यह बात उन्हें समझ में नहीं आ रही है. वह लगातार बेटी को समझा रहे हैं और कह रहे हैं कि हो सकता है कि एक मिस ने ऐसा कर दिया हो, लेकिन और मिस तो अच्छा पढ़ाती हैं. हम मिस से बात करेंगे, वह अपनी गलती सुधार लेंगी.
शर्मा जी ने जैसे ही मिस की बात की, बेटी कहने लगी, पापा आप उनसे बात भी मत करियेगा, नहीं तो मेरी शामत आ जायेगी. हमको वो फेल कर देंगी. पूरी क्लास के सामने बेइज्जती अलग से करेंगी. शर्मा जी की बेटी का तो यह केवल एक उदाहरण है. ऐसे सैकड़ों मामले रोज सामने आ रहे हैं. वह भी उन निजी स्कूलों के, जिनमें ज्यादातर अभिभावक अपने बच्चों को पढ़ाना चाहते हैं. सरकारी स्कूलों को छोड़ निजी स्कूलों का रुख करनेवाले अभिभावकों को यहां भी लगातार परेशानी ही ङोलनी पड़ रही है.
पिछले दिनों फेसबुक पर एक पोस्ट लिखी थी, जिसमें एक साथी ने कमेंट किया, निजी स्कूल कॉपी, किताब, ड्रेस और जूता-चप्पल बेचवाने के लिए हैं. अगर बच्चे को पढ़ाना है, तो घर में ट्यूशन लगवाइये. स्कूलों में पढ़ाई की अपेक्षा नहीं करें, वरना निराशा हाथ लगेगी.
एक और अभिभावक कहने लगे. सरकार डिजिटल इंडिया की बात कर रही है. निजी स्कूलों ने फीस वसूली में इसे लागू कर दिया है. वह डिजिटल माध्यम से फीस जमा हुई या नहीं. इसकी जानकारी लगातार अभिभावकों को देकर बेइज्जत करते रहते हैं, लेकिन उनका बच्च कैसा पढ़ रहा है. इसके बारे में अगर आप स्कूल में पता लगाने जायें, तब भी जानकारी नहीं मिलेगी.
निजी स्कूलों में नकेल कसने की बात सालों से हो रही है. हर साल एक बार शिक्षा विभाग के अधिकारी बैठक करते हैं, लेकिन इसके बाद हालात फिर पिछले साल जैसे ही रहते हैं. अभी तक किसी भी स्कूल में ड्रेस बिकनी बंद नहीं हुई. कॉपी-किताब का तो जैसे ठेका ले रखा है. एनसीइआरटी की जो किताब 50 से 100 रुपये में मिल जाती है, निजी प्रकाशन उसका दाम ही 400 से शुरू करते हैं. बुक की दुकान चलानेवाला कहता है कि इससे (एनसीइआरटी) कुछ नहीं होगा, स्कूल में तो ये किताब पढ़ाई जायेगी, लेकिन खरीदना आपको दोनों को है.
जारी..

मैं खुद को, खुद से बांट नहीं सकता.

मैं खुद को, खुद से बांट नहीं सकता.
ऐ मेरे मालिक, ऐ मेरे मौला.
जो कहता है, कहने दो.
मेरा कुछ होनेवाला है क्या?
मैं तो खुद जान नहीं सकता.

कल ही तो शरु हुआ, सफर अपना.
इतनी जल्दी, क्या खोना, क्या पाना?
कुछ अनुभव, तो कर लेने दो.
कुछ कड़वे घूट, तो पी लेने दो.

ऐसे क्या जल्दी, जाने-जाने की.
इतनी जल्दी उठ जाऊं मैं.
मैं वो खाट नहीं, हो सकता.
मैं खुद को, खुद से बांट नहीं सकता. 


शनिवार, 22 अप्रैल 2017

पढ़े-लिखों को ये क्या हो रहा है?

सत्य और अहिंसा के पुजारी बापू के चंपारण सत्याग्रह की 100वीं वर्षगांठ हम लोग मना रहे हैं. चंपारण इलाके का वासी होने की वजह से हमारी लोगों की जिम्मेवारी ज्यादा बनती है कि बापू के संदेशों को समङों और उन्हें आत्मसात करके अपने व्यवहार में लायें, लेकिन कुछ पढ़े-लिखे कहे जानेवाले लोगों को क्या हो गया है. बीते शुक्रवार को जैसे एसकेएमसीएच और एमआइटी में जैसी घटनाएं हुईं. वह हम सब पर सवाल खड़ें करती हैं. जाहिर सी बात है कि इसमें सब तो नहीं शामिल हैं, लेकिन जो चंद लोग इसमें हैं. वो भी डॉक्टर और इंजीनियर बनने की राह पर हैं. यह वह लोग हैं, जिन्हें समाज की सेवा करनी है. अगर आपके धैर्य और आत्मबल नहीं है, तो आप सेवा कैसे कर सकेंगे? आपको दूसरों को संभलना है और आपको संभालने के लिए पुलिस की जरूरत पड़े, तो इसे क्या कहेंगे? आपको तो ऐसा कर्म करना चाहिये कि पुलिस आपका सहयोग ले और समाज में जो गड़बड़ियां और हैं, उन्हें ठीक करे, लेकिन दोनों घटनाओं में हुआ, इसकी पूरा उल्टा.
एसकेएमसीएच को एम्स का दर्जा देने की मांग हो रही है. राजनेता से लेकर आम लोग जोर-शोर से ये आवाज उठा रहे हैं, लेकिन वहां हो क्या रहा है. कुछ डॉक्टर और एंबुलेंस चालकों की आपसी खीचतान में बात यहां तक पहुंच गयी. लोग एक-दूसरे के खून के प्यासे हो गये. एक-दूसरे पर टूट पड़े. डॉक्टरों ने जिस तरह से आम लोगों की पिटाई की, उसकी तस्वीर देख लग रहा था कि आखिर किस समाज में रह रहे हैं हम? क्या पढ़े-लिखे लोगों को ये शोभा देता है? अगर पढ़े-लिखे लोग ऐसा करेंगे, तो हम समाज को शिक्षित करने की बात क्यों करते हैं? इससे अच्छे तो अनपढ़ हैं, जिनके अंदर आपसी प्रेम होता है. अगर किसी ने कोई बात कह भी दी, तो वह उसे बड़ी अदब से टाल देते हैं? पर यहां को बिल्कुल इसका उल्टा हुआ? उन लोगों को पीटा गया, जिनका मूल घटना से कोई वास्ता नहीं था.
पांच एंबुलेंस फूंक दी गयीं. 20 गाड़ियों को तोड़ दिया गया. बाइक को जला दिया गया. कई बाइक व एसकेएमसीएच में तोड़फोड़ हुई. यह सब करके आखिर हम क्या संदेश देना चाहते हैं. क्या हम सत्य और अहिंसा के पुजारी को सौ साल बाद इस रूप में याद करेंगे? क्या उनके आदर्शो पर चलने की बात कहके हम ये करेंगे? यह नहीं चल सकता है, क्योंकि हिंसा से कोई हल नहीं निकलता है. हल तो बातचीत और आपसी सूझबूझ का ही नतीजा होता है. इस ओर हमें बढ़ना होगा, तभी बात बनेगी. हिंसा का जवाब हिंसा कभी नहीं हो सकता है?
दूसरी घटना एमआइटी के कुछ छात्रों से जुड़ी है. यहां सैकड़ों की संख्या में छात्र इंजीनियरिंग पढ़ते हैं. यहां के पढ़े छात्र देश में कई स्थानों पर बड़े पदों पर काम करते हैं. प्लेसमेंट एजेंसियां आती हैं, तो उन्हें यहां अच्छे काम करनेवाले मिलते हैं, लेकिन शहर के इस बड़े संस्थान की पहचान क्या बनी है? जब भी एमआइटी की बात होती है, तो हल्ला और हंगामा ही जेहन में आता है? यह अपने शहर के लोगों के मन में घर कर गया है? शुक्रवार को भी यहां ऐसा ही हुआ. कुछ छात्रों ने लक्ष्मी चौक के पंप पर पेट्रोल भरवाया और जब पैसे देने की बारी आयी, तो इनकार करने लगे. नोजलमैन आगे आया, तो उसको पीटना शुरू कर दिया. अपने कर्मचारी की रक्षा के लिए जब पंप मालिक पहुंचे, तो छात्रों ने बात सुने बिना उनको पीटना शुरू कर दिया.
एमआइटी के घटनाक्रम के दौरान ही आसपास के लोग इकट्ठा हो गये और पेट्रोल पंप पर पहुंचने लगे, लेकिन खुद को घिरता देख छात्र भाग गये. बाद में कॉलेज प्रबंधन को आगे आना पड़ा. आखिर जब किया कुछ छात्रों ने, तो कॉलेज प्रबंधन इसका खामियाजा क्यों भुगते? अब मामला जांच में है, जो भी छात्र दोषी पाये जायेंगे, उन पर कार्रवाई की बात कही जा रही है, लेकिन क्या कार्रवाई इस समस्या का हल है. हमें लगता है कि नहीं. कार्रवाई ऐसी होनी चाहिये, जिससे छात्रों की सोच बदल जाये और आगे से वो ऐसा करने की सोचें भी नहीं. यह हम उनका मन जीत कर कर सकते हैं. अगर हम उनके मन में सत्य और अहिंसा की बात भरने में कामयाब हो जायें, तो यह मंजर देखने को नहीं मिलेगा.

मंगलवार, 18 अप्रैल 2017

नीतीश कुमार की ये यात्रा कुछ अलग थी


18 अप्रैल 1917 को गांधी जी मोतिहारी की एसडीओ कोर्ट में पेश हुये थे, जहां उन्होंने अपना बचाव खुद किया था और चंपारण नहीं जाने के बारे में साफ तौर पर मजिस्ट्रेट को बताया था. जमानत लेने और जुर्माना भरने के इनकार कर दिया था, तब हार कर मजिस्ट्रेट को अपनी ओर से बांड भर कर बापू को छोड़ना पड़ा था और फैसले को 21 अप्रैल तक टाल दिया गया था. मंगलवार को 18 अप्रैल 2017 था. ठीक एक सौ साल बाद का दिन. मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने पहले से घोषणा कर रखी थी कि वह चंपारण शताब्दी वर्ष की याद में पदयात्रा करेंगे. चंद्रहिया से मोतिहारी शहर के गांधी मैदान तक की यात्रा होनी थी.
सुबह 7.25 बजे मुख्यमंत्री की गाड़ी चंद्रहिया के गांधी स्मृति उद्यान में पहुंची, जहां सुरक्षा के इंतजामों के बीच मुख्यमंत्री ने सर्वधर्म प्रार्थना सभा में भाग लिया. बापू की प्रतिमा पर माल्यार्पण किया. चंपा का पौधा लगाया और पदयात्रा पर रवाना हो गये. मुख्यमंत्री ने गांधी स्मृति उद्यान के बाहर जैसे ही कदम रखा. इतिहास में एक और अध्याय लिख गया प्रतीकों पर कब्जे व दावों की राजनीति के जमाने में क्या कोई राजनेता ऐसा करेगा? अप्रैल में जब सूरज का ताप दिन चढ़ने के साथ चढ़ता है. धूम में चलेगा. धूप में चलने के बाद भी उसके चेहरे पर शिकन नहीं होगी, क्या ऐसा होगा? ऐसे तमाम सवालों के साथ मैं भी पदयात्रा  में शामिल हुआ. मन में जो सवाल उठ रहे थे. उन्हें कसौटी पर परखने के लिए मुख्यमंत्री की पदयात्रा के आसपास होकर ही चलने लगा. एक-दो नहीं हजारों की संख्या में लोग साथ में चल दिये. सब के कदम गांधी मैदान की ओर आगे बढ़ रहे थे, लेकिन जैसे-जैसे रास्ता तय हो रहा था. लोग परेशान होते दिख रहे थे. कुछ विधायक व पूर्व विधायक सड़क के किनारे छांव की तलाश करने लगे. कुछ बैठ गये. पूछा गया, तो कहने लगे थक गये, तो बैठ गये. क्या करें?
मुख्यमंत्री नीतीश कुमार बिल्कुल सधे कदमों से लगातार आगे बढ़ रहे थे. उनके समर्थन में नारेबाजी होने लगी, तो उन्होंने तुरंत मना किया और नारेबाजी बंद करने की बात कही. मुख्यमंत्री ऐसे चल रहे थे, जैसे उनके मन में विचारों का सैलाब चल रहा हो. रास्ते में मिलनेवाले हर व्यक्ति का अभिभावन स्वीकार कर रहे थे. मुस्करा रहे थे. रास्ते में फूल की बारिश व अन्य किसी तरह का इंतजाम नहीं किया गया था. न ही किसी तरह की अन्य कोई व्यवस्था की गयी थी. कुछ स्थानों पर स्वास्थ्य विभाग की ओर से कैंप लगाये गये थे, जिनमें लोगों को मुफ्त इलाज हो रहा था. कुछ स्टॉल पानी व नीबू-पानी के लगे थे. इसके अलावा और कुछ नहीं था. हां, एक बात थी. सड़क के किनारे दोनों ओर लोग खड़े थे. बड़ी संख्या में. इनमें महिलाएं, बच्चे, बूढ़े-जवान सभी शामिल थे.
महिलाओं के हाथ में तख्ती थी, जिस पर शराबबंदी को सराहा गया था. लिखा था कि गांधी के सपने को बिहार ने शराबबंदी करके पूरा किया. ऐसे ही और स्लोगन लगाये लोग रास्ते में खड़े दिखे. इनसे लगा कि मुख्यमंत्री शराबबंदी के बाद नशाबंदी की जो बात कर रहे हैं, उनका संकल्प कुछ और मजबूत हुआ होगा. सुबह आठ बजे शुरू हुई यात्रा 9.20 बजे गांधी मैदान में लगी बापू की प्रतिमा पर आकर पूरी हुई, तो मुख्यमंत्री नीतीश कुमार एक बड़ी लकीर खीच चुके थे, जो उन्हें अन्य राजनेताओं से अलग करती है. यह पहली बार नहीं है, जो मुख्यमंत्री ने ऐसा करके खुद को और नेताओं से अलग साबित किया है. वो इससे पहले भी विभिन्न यात्राओं के जरिये लोगों के बीच जाते रहे हैं, जिनका व्यापक असर पूरे प्रदेश पर पड़ा है. इसकी चर्चा भी चाहे मुख्यमंत्री के प्रशंसक हों या विरोधी सब करते रहे हैं.

सोमवार, 17 अप्रैल 2017

मैथिली ठाकुर राइजिंग स्टार के फाइनल में पहुंची

मिथिला का इलाका हमेशा से उर्वर रहा है. यहां की प्रतिभाएं लगातार लोहा मनवाती आयी हैं. मधुबनी की बेटी मैथिली ठाकुर भी इसी कड़ी में हैं. 16 साल की मैथिली ठाकुर ने कलर्स चैनल के लाइव रियलिटी शो राइजिंग स्टार के फाइनल में अपनी जगह पक्की कर ली है. रविवार को हुये मुकाबले में मैथिली ने पहले पांच सेमीफाइनलिस्ट में अपनी गायकी से टॉप किया, तो इसके बाद उनका मुताबला आइटीबीपी में काम करनेवाले विक्रमजीत सिंह से हुआ, जिसमें विक्रमजीत को जनता से 61 फीसदी, जबकि मैथिली को 60 फीसदी वोट मिले, लेकिन शो के जजेज ने मैथिली को फाइलन का टिकट देने की घोषणा की, क्योंकि उनके पास किसी भी खिलाड़ी को परफार्मेस के आधार पर 21 फीसदी वोट देने का अधिकार है.
फाइनलिस्ट की घोषणा में जजो को दो में से किसी एक प्रतिभागी को ही वोट देने की बात कही गयी थी. इसी वजह से दोनों सेमीफाइनल में सबसे ज्यादा वोट पानेवाले खिलाड़ियों का मुकाबला हुअ, तो जजों ने मैथिली की गायकी पर मुहर लगायी. अब मैथिली का मुकाबला, अगले शनिवार को पांच सेमिफाइनलिस्ट में से सबसे ज्यादा मत पानेवाले के साथ होगा. रियलिटी शो का फाइनल अगले रविवार को होगा.
मधुबनी की रहनेवाली मैथिली ठाकुर का बैकग्राउंड क्लासिकल म्युजिक है. मैथिली के करियर को बनाने के लिए उनका परिवार दिल्ली शिफ्ट कर गया है. मैथिली के पिता उसका साथ देने के लिए मुंबई में ही हैं. उनका कारवां जिस तरह से बढ़ रहा है, उससे वह राइजिंग स्टार बनने की दौड़ में सबसे आगे नजर आती हैं.

आगे बढ़ने की जगह पीछे चला गया किसान, ठोस उपाय से होगा भला

नील किसानों की समस्या को लेकर सौ साल पहले बापू का चंपारण सत्याग्रह हुआ, जो अंगरेजों के दमनकारी नीतियों के खिलाफ ऐसा कारगर हुआ कि ब्रिटिश राज की नींव हिल गयी. आंदोलन के तीस साल के अंदर ही अंगरेजों ने भारत छोड़ दिया. स्वतंत्र भारत में नयी सरकार बनी. उसे देश को आगे बढ़ाने का रास्ता चुनना था. सरकार ने बड़ी परियोजनाओं के सहारे आगे बढ़ने का फैसला लिया और कई बड़े उद्योगों की स्थापना हुई, लेकिन इस सब कवायद में अपने देश की रीढ़ समझी जानेवाली कृषि कहीं पीछे छूट गयी.
कृषि पर आधारित चीनी मिलें बंद होने लगीं. चंपारण के गांधीवादी विनय कुमार सिंह कहते हैं कि पहले बिहार में 28 चीनी मिलें थीं. देश आजाद हुआ, तो इनकी संख्या 32 हो गयी, लेकिन अब ज्यादातर मिलें बंद हैं, जो चल रही हैं. वह भी घाटे में. ऐसे में हम आगे कहां बढ़े हैं. गन्ने की खेती चौपट हो गयी है. गेंहू-धान की स्थिति के बारे में सबको पता ही है. सरकार की ओर से क्रय केंद्र खोले जाने की बात होती है, लेकिन असली किसानों का इनका लाभ नहीं मिलता है. किसानों को बिचौलियों के हाथों ही अपना अनाज बेचना पड़ता है. रही बात सब्जी की खेती की, तो इसमें फायदा है, लेकिन किसान पूरे खेत में सब्जी ही नहीं बो सकता है. उसे अन्य फसलें भी तो चाहिये.
15 अप्रैल से गेंहू खरीद का समय शुरू हो गया है, लेकिन तय समय पर कहीं भी क्रय केंद्र खुलने का सामाचार नहीं आया है. यह पहली बार नहीं हो रहा है. ऐसा पहले भी होता रहा है. अमूनन क्रय केंद्र तब काम करना शुरू करते हैं, जब किसान अपने उत्पाद का सौदा बिचौलियों से कर चुका होता है. हमारी व्यवस्था की बड़ी खामियों में एक यह भी है. सरकार समर्थन मूल्य 14 सौ तय करती है, तो किसान को बिचौलिये 800-900 में ही उत्पाद बेचने को मजबूर करते हैं. मरता क्या न करता की तर्ज पर किसान जान-बूझ कर इनके चंगुल में फंसता है, क्योंकि उसके पास इसके अलावा कोई और चारा नहीं होता है.
चंपारण शताब्दी वर्ष पर यह सवाल उठाना इसलिए भी लाजमी हो जाता है, क्योंकि गांधी जी ने किसानों की लड़ाई ही लड़ी थी और उसमें जीत हासिल की थी, लेकिन आज किसान यही लड़ाई आजाद देश में व्यवस्था के खिलाफ लड़ रहे हैं. वह पानी, खाद से लेकर समर्थन मूल्य तक से जूझ रहे हैं. उन्हें इसका विकल्प सरकार की ओर से की बनायी जानेवाली पॉलिसी में दिखता है. किसान कहते हैं कि शताब्दी समारोह पर केंद्र व राज्य सरकार को मिल कर एक ऐसी स्कीम चलानी चाहिये, जिसकी पहुंच आम किसानों तक हो, ताकि उन्हें उसका सीधा लाभ मिल सके. चंपारण का किसान कहते हैं कि हम अब भी खुद को ठगा महसूस कर रहे हैं, क्योंकि सरकारों की ओर से शताब्दी वर्ष पर केवल कार्यक्रमों का आयोजन हो रहा है. हम लोगों के लिए कोई रोडमैप नहीं दिया जा रहा है, जिससे कि हमारी फायदा हो. अगर सरकार इसको अभी नहीं कर सकती है, तो उसे इस पर खुल कर बोलना चाहिये.

रविवार, 16 अप्रैल 2017

सोचने को मजबूर कर रही ये घटनाएं

हाल के दिनों में मुजफ्फरपुर व आसपास के इलाके में जो घटनाएं हो रही हैं, जो सोचने को मजबूर कर रही हैं. यह वही समय है, जब हम चंपारण सत्याग्रह की सौवीं वर्षगांठ मना रहे हैं, जिसमें सत्य और अहिंसा के बल पर बापू ने अंगरेजों को झुकने पर मजबूर कर दिया था, लेकिन बापू की प्रतीकात्मक यात्र के बीच हिंसा की कई घटनाएं हुईं, जो मन को दुखाती हैं.
15 अप्रैल की बात करें, तो पारू में ऐसी घटना हुई, तो लोगों के कम हो रहे सब्र का परिचय देती हैं. यहां एक बाइक से बकरी के बच्च कुचल गया. इसका परिणाम ये हुआ कि लोगों ने बाइक सवार की पीट-पीट कर जान ले ली. इसके बाद गुस्साये लोगों ने आरोपितों समेत दर्जनों की संख्या में झोपड़ियों को जला दिया. ये घटना बदले की कार्रवाई की वजह से बढ़ती चली गयी, जिसे काबू में करने के लिए कई थानों की पुलिस को मौके पर जाना पड़ा, तब जाकर हालत नियंत्रण में आयी.
ऐसे ही कुछ दिन पहले एके-47 से सरेआम दिन-दहाड़े एक ठेकेदार की हत्या कर दी गयी. वह भी उस इलाके में जहां कुछ ही देर में गोवा की राज्यपाल का कार्यक्रम होनेवाला था. राज्यपाल उसमें आनेवाली थीं, लेकिन इससे पहले ही घटना घट गयी. तब वहां की सुरक्षा व्यवस्था को लेकर सवाल उठाये गये थे. कहा गया था कि राज्यपाल जैसा वीआइपी होने के बाद भी इलाके की सुरक्षा के नाम पर खिलवाड़ हुआ.
इसके बाद की एक घटना का जिक्र करना चाहूंगा, जिसमें पुलिस ने रात के समय स्वचालित हथियार लेकर बिना प्लेट की गाड़ी से घूम रहे तीन अपराधियों को चिह्नित किया. उनका पीछा किया गया. एक जगह पर अपराधी पुलिस की गश्ती टीम से घिर गये, लेकिन उन्होंने स्वाचालित हथियार दिखाया, तो गश्ती टीम में शामिल एक पुलिसवाला जमीन पर गिर गया. इसके बाद बदमाश फरार होने में सफल हो गये. इस घटना के बाद आला पुलिस अधिकारी हरकत में आये और सभी अधिकारियों को ये संदेश भेजा गया कि ऐसी स्थिति नहीं चलेगी. पुलिस को धता बताकर अपराधी भाग रहे हैं. ऐसे में पुलिस व्यवस्था पर सवाल उठने लाजमी हैं. हमें मेहनत से काम करना होगा.
आला अधिकारियों की ओर से सख्ती के बाद पुलिस भी जागी है. अब एके-47 से लैश होकर जवान रात के समय गश्ती करने लगे हैं. गश्ती के लिए बड़े पुलिस अधिकारियों की ड्यूटी लगा दी गयी है. वह बारी के हिसाब से ड्यूटी पर रहेंगे.
पुलिस की इस कवायद का क्या फायदा होता है. ये तो आनेवाला समय बतायेगा, लेकिन जिस तरह से अपराध व अपराधियों के हौसले बुलंद हुये हैं. वह समाज के लिए अच्छा संकेत नहीं है. क्योंकि अभी एक घटना पर काबू नहीं पाया जाता कि दूसरी घटना हो जा रही हैं.

गांधी के नाम पर ये कुछ जमा नहीं?

मेरे मन में गांधी जी व उनके विचारों को लेकर अपार श्रद्धा है, जिसे मैं शब्दों में व्यक्त नहीं कर सकता, लेकिन गांधी जी के नाम पर शनिवार को मुजफ्फरपुर में जो हुआ, वो परेशान करनेवाला है. 10 अप्रैल से सौ साल पहले की गांधी जी की यात्र का सफल मंचन किया जा रहा था. इस मंचन में एक सोच दिख रही थी, समाज की बेहतरी की. लोगों का मानस बदलने की, लेकिन 15 अप्रैल को चंपारण के लिए रवाना होने से पहले ऐसा हुआ कि जो सबको स्तब्ध कर गया. पता चला कि अब नये गांधी विशेष ट्रेन से चंपारण जायेंगे. उन्हें मोतिहारी से भेजा गया है. अच्छा है भेजा गया, लेकिन इसमें एक समन्वय होता, तो ज्यादा अच्छा होता, ताकि किसी को खराब नहीं लगता, लेकिन आनन-फानन में ऐसा हुआ, जो गांधी जी के किरदार को सफलता पूर्वक निभा रहे थे. उन्हें दरकिनार करने की कोशिश थी ये, लेकिन उन्होंने कहा कि जो हुआ, उसका उन्हें तनिक भी अफसोस नहीं है.
वहीं, मुजफ्फरपुर से जो गांधी चंपारण के लिए विशेष ट्रेन से चले. उनका ड्रेस अलग था. वह लाठी के सहारे चल रहे थे. हाथ में गुजराती में अनुवाद की हुई गीता लिये चल रहे थे. गांधी दर्शन के बारे में पूछने पर जवाब कुछ अलग होते थे. साथ में बैठे व्यक्ति की ओर से समझाया जा रहा था. इसके उलट मोतिहारी के रास्ते में पड़नेवाले स्टेशनों पर लोगों की भीड़ बहुत ज्यादा था, जिनकी आंखों में एक उम्मीद थी. वह गांधी को देखना और मिलना चाहते थे. यह चाहत पूरे रास्ते में पड़नेवाले गांवों व कस्बों के लोगों में दिखी. सभी अपना काम छोड़ कर स्पेशल ट्रेन का इंतजार कर रहे थे. ट्रेन लगभग समय से चल रही थी और समय से कुछ ही मिनट लेट मोतिहारी पहुंची.
मोतिहारी स्टेशन पर ही रेलवे की प्रदर्शनी गांधी जी ने देखी और इसके बाद रेलवे के कार्यक्रम में शरीक हुये. इसके बाद खुली जीप में तिरंगा यात्र व गोरखबाबू के घर गये. यह मुजफ्फरपुर के उलट था, क्योंकि वहां पिछले पांच दिनों से गांधी जी बग्घी पर सवार होकर चल रहे थे. यह अंतर बहुत कुछ कह रहा था. हालांकि गांधी जी को लेकर नेताओं के अपने तर्क थे, लेकिन इनमें से कुछ ऐसे थे, जिन पर विश्वास नहीं हो रहा था.

मंगलवार, 11 अप्रैल 2017

आज जाकर इतिहास बोध हुआ?

पिछले पांच-छह साल में कितनी बार एलएस कॉलेज होकर गुजरा होउंगा, लेकिन ऐसा इतिहास बोध इससे पहले कभी नहीं हुआ. कई बार कार्यक्रमों में भी शामिल होने का मौका भी मिला. बाबू लंगट सिंह, राजेंद्र बाबू व महत्मा गांधी की प्रतिमाओं पर माल्र्याण का मौका भी मिला, लेकिन ऐसा कभी नहीं हुआ, जो 10 अप्रैल 2017 को हुआ. इतिहास जब अपने एक सौ साल पूरे होने पर खुद को दोहरा रहा था. जैसे ही गांधी का वेश धरे डॉ भोजनंदन व जेबी कृपलानी बने डॉ अरुण कुमार सिंह की बग्घी लंगट सिंह कॉलेज के परिसर में घुसी. पूरी तस्वीर सामने नाचने लगी.
सौ साल पहले जब गांधी एलएस कॉलेज पहुंचे थे, तब की तस्वीर अभी तक मैंने नहीं देखी, लेकिन आज की तस्वीर देख रहा हूं. उसे महसूस कर रहा हूं, जो लोग महापुरुषों के किरदार में हैं, उनके बारे में कुछ जानता हूं. उनका स्नेह मिलता रहा है. ऐसे में मुङो देखने और समझने की नयी दृष्टि मिलती है.
लंगट कॉलेज की एक-एक चीज से साक्षात्कार हो रहा है. वही, गांधी जी की प्रतिमा जिस पर माल्र्यापण करके कई बार मैं वापस आ चुका हूं, लेकिन अब अलग लग रही है. रोशनी से नहायी इस प्रतिमा को देखने से ऐसा लगता है, मानों इतिहास फिर से जीवंत हो उठा है. गांधी कूप, जिसे संरक्षित करने की कोशिश हुई है, उसे देख कर भी तरह-तरह के सवाल उठ रहे हैं. ऐसे ही कई और स्थान जो गांधी जी से जुड़े हैं. सब में अलग सी अनुभूति दिखती है. काश! ये जज्जा बना रहता है और अपनी विरासत से ऐसे ही मेरा साक्षात्कार होता रहता.

बापू, आपका सामना भी तो इन सड़कों से हुआ होगा!

सोमवार को मुजफ्फरपुर शहर में चंपारण सत्याग्रह के सौ साल पूरे होने पर इतिहास बना. हैरिटेज वॉक के बहाने गांधी जी की यात्र का सजीव चित्रण फिर से किया गया. गांधी बने डॉ भोजनंदन प्रसाद ट्रेन से मुजफ्फरपुर जंकशन पहुंचे. इसके बाद बग्घी के सहारे उन्हें शहर में लगभग पांच किलोमीटर जुलूस की शक्ल में घुमाया गया. इस बग्घी को घोड़ों की जगह एलएस कॉलेज के छात्र खीच रहे थे, जैसा कि सौ साल पहले भी किया गया था, लेकिन तब और अब की परिस्थिति बदली है. अब शहर को स्मार्ट सिटी में शामिल कराने की बात हो रही है, लेकिन शहर में सड़के ऐसी हैं कि कहीं भी दो-चार फुट समतल सड़क नहीं दिखती है.
सड़क पर उतरते ही परीक्षा शुरू हो जाती है. ऐसे में गांधी का काफिला लगभग पांच किलोमीटर दूर तक चला. इस दौरान कई जगहों पर जाम की वजह से काफिले को रोकना भी पड़ा, जबकि इसकी अगुवाई प्रशासन के जिम्मे थी, जिसके कारिंदे लोगों को सड़क के दोनों तरफ रोक रहे थे. बड़े पैमाने पर अधिकारी से लेकर कर्मचारी तक लगाये गये थे, जो ड्युटी बजा रहे थे. इसके बाद भी बापू को जाम में फंसने से नहीं रोक सके.
मैं कल्याणी चौक के पास काफिले में शामिल हुआ, तो लगा कि गांधी जी की बग्घी हिचकोले खा रही है, लेकिन इतिहास खुद को दोहरा रहा था. सो उस ओर ज्यादा ध्यान नहीं गया. पूरी ऊर्जा तो इतिहास का हिस्सा बनने में लगी थी, लेकिन एक आम शहरी होने की वजह से सड़क से गुजर रहे लोगों के बारे में सवाल भी उठ रहे थे. सवाल, वही बिजली, पानी और सड़क से संबंधित.

रविवार, 9 अप्रैल 2017

मैं उस मुजफ्फरपुर में रहता हूं..

मैं उस मुजफ्फरपुर में रहता हूं, जहां चंपारण यात्र के क्रम में मोहनदास करमचंद गांधी पहुंचे थे. तारीख 10 अप्रैल 1917 थी. अब कैलेंडर पूरा एक सौ साल आगे निकल चुका है. गांधी जी तो नहीं हैं, लेकिन उनके बताये रास्ते हैं. जिन पर चलने की बात हमारे बुजुर्ग करते हैं. बहुत ऐसे हैं, जो अभी उस रास्ते पर चल भी रहे हैं.
कल फिर से बघ्घी सजेगी. गांधी जी जिस बेला में मुजफ्फरपुर शहर पहुंचे थे. उसी बेला में उस यात्र को फिर से जिया जायेगा. तैयारियां चल रही हैं. प्रशासन से लेकर आम लोगों में उत्साह है, वो देखना और जानना चाहते हैं कि इतिहास का वह महत्वपूर्ण क्षण कैसे रहा होगा, जिसमें देश को आजाद कराने की नींव पड़ी थी. हमें भी इंतजार है. हम भी गवाह बनना चाहते हैं, उस पल के, जब गांधी जी आयेंगे और हमारे देश की तकदीर और तस्वीर बदलने की बात कहेंगे, लेकिन हम अब इससे कहीं आगे बढ़ चुके हैं.
हमारी तमन्ना है कि गांधी जी के जरिये यह भी बताया जाये कि आज हम जिस रास्ते पर चल रहे हैं. वह हमें कहां ले जायेगा. क्यों ये सवाल उन लोगों से सुनने को मिलता है कि समाज में गिरावट आयी है, जो गांधी जी को अपना सब कुछ मानते हैं. इससे तो साफ लगता है कि सौ सालों में हम बहुत बदल गये हैं? हम एक-दूसरे को देख और सुहा नहीं रहे हैं. भाईचारे में कमी की बात हो रही है. गांधी जी ने तब जिस शिक्षा में समाज के उन्नति की राह देखी थी. वह तो अब बड़े पैमाने पर मिल रही है. इसके बाद भी हम इतने छोटे क्यों होते जा रहे हैं. यह सवाल हमें सालता है, जब भी किसी से बात करता हूं, तो कहता है कि हम गांधी जी के रास्ते पर नहीं चल रहे हैं.
सौ सालों में भले ही बुनियादी सवाल बदल गये हैं, लेकिन मुद्दा अब भी शिक्षा बनी हुई है. अब गुणवत्तापूर्ण शिक्षा की बात हो रही है, तो क्या हमने अपनी शिक्षा के मूल्यों को इतना गिरा लिया है, जो अब उसमें गुणवत्ता डाले जाने की बात की जा रही है. ऐसे में उन किताब लिखनेवालों और उन शिक्षकों का क्या होगा? जिनसे समाज बदलाव की आस लगाये हुये है और वो खुद को समाज के बदलाव का वाहक भी बताते हैं? क्या हमें जो किताबें पढ़ाई जा रही हैं, उनमें कहीं कुछ कमी है या फिर उन्हें पढ़ानेवालों में? इसका जवाब जिनती जल्दी देश और समाज को मिल सके, मुङो लगता है कि उतना ही अच्छा होगा.
खैर, मैं कहां ऐसे सवालों में उलझ गया. अभी शुभ अवसर है. सौ साल बाद उन क्षणों को जीने का, जिन्हें हमारे पूर्वजों ने अविस्मणीय बना दिया. शायद, उन्हीं की बदौलत मैं आज यह लिख पाने की हिम्मत भी जुटा पा रहा हूं. जय हिंद!