बुधवार, 26 जुलाई 2017

जो चर्चा हो रही थी, नीतीश ने वही किया

राजनीति को संभावनाओं को खेल कहा जाता है. क्रिकेट की तरह अंतिम समय तक क्या होगा, इसमें भी तय नहीं होता, लेकिन बुधवार को जब नीतीश कुमार ने महागठबंधन से अलग होने का फैसला लिया, तो यह उन कयासों को पुख्ता करनेवाला था, जो 2016 से ही लगाये जा रहे थे, लेकिन तब यह तय नहीं था कि तेजस्वी के मुद्दे पर सरकार चली जायेगी और गठबंधन टूट जायेगा. पिछले दिनों जब तेजस्वी पर आरोप लगे, तो मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने पहले चुप्पी साधे रखी, लेकिन अपनी पार्टी के विधायकों की बैठक के बाद यही कहा कि आरोपों का जवाब सार्वजनिक तौर पर दिया जाना चाहिये.
जदयू के स्टैंड के बाद लंबा अर्सा मुख्यमंत्री नीतीश कुमार को यह तय करने में लगा कि वह किस तरह से गठबंधन को तोड़ा जाये. इसे यूं भी कह सकते हैं कि भाजपा से बात करने और नया गठबंधन तय करने में मुख्यमंत्री ने जल्दीबाजी नहीं दिखायी. इसके उलट जदयू व भाजपा लगातार अपने स्टैंड पर कायम रहे. भाजपा तेजस्वी को मंत्रिमंडल से बर्खास्त करने की मांग करती रही, तो जदयू यह साफ करता रहा कि जिन लोगों पर आरोप लगे हैं, उन्हें सार्वजनिक तौर पर सफाई देनी होगी. इसके बीच जब कैबिनेट की बैठक के बाद उप मुख्यमंत्री तेजस्वी यादव ने मुख्यमंत्री नीतीश कुमार से मुलाकात की थी, तो यह लगा था कि बात बन गयी है, लेकिन इसके बाद भी जदयू की ओर से कहा गया कि पार्टी अपने स्टैंड पर कायम है और भ्रष्टाचार से समझौता नहीं कर सकती है.
राजनीतिक घटनाक्रम के बीच जदयू का थिंक टैंक लगातार यह भी जानने की कोशिश करता रहा कि अगर गठबंधन टूटता है, तो उसे किस तरह का नुकसान हो सकता है. उससे जुड़े लोग लगातार इस बात का आकलन कर रहे थे कि कौन लोग उसके साथ खड़े होंगे. अगर वह नये सिरे से भाजपा के साथ गठबंधन करता है तो. वहीं, भाजपा के साथ फिर से जाने पर उसको किस तरह का नफा-नुकसान हो सकता है. यह भी आकलन जदयू की ओर से किया जाता रहा. इस बीच कांग्रेस के उपाध्यक्ष राहुल गांधी से मिलने के लिए नीतीश कुमार दिल्ली गये, तो लगा कि बात बन सकती है, लेकिन राहुल गांधी से मुलाकात के बाद जो बयान आया, उससे साफ हो गया था कि अब गठबंधन का बचाना मुश्किल ही नहीं नामुमकिन जैसा है.
मुख्यमंत्री नीतीश कुमार शुरू से ही अपनी छवि को लेकर सतर्क रहे हैं. वह वसूलों की राजनीति करनेवाले नेता के तौर पर जाने जाते रहे हैं. समय-समय पर उन्होंने इसका प्रमाण भी दिया है. 2014 में केंद्र में भाजपा की सरकार बनने के बाद उन्होंने मुख्यमंत्री का पद छोड़ दिया था. हालांकि जीतनराम मांझी से रिश्ते बिगड़ने के बाद वह फिर मुख्यमंत्री बने थे. ऐसे ही अब जब भ्रष्टाचार का मामला सामने आया है, तो उन्होंने एक और उदाहरण पेश किया है.
अब यह तय हो चुका है कि वह भाजपा के साथ मिल कर फिर से नयी सरकार बनाने जा रहे हैं. ऐसे में नयी सरकार पर यह दबाव होगा कि वह प्रदेश के लोगों की उम्मीदों पर खरा उतरे, क्योंकि पिछले कुछ महीनों से पूरे प्रदेश में अपराध बढ़े हैं. विकास के काम भी ज्यादा तेजी से नहीं चल रहे हैं. हालांकि इन 20 महीनों की सबसे बड़ी उपलब्धि शराबबंदी रही है, जिससे प्रदेश के एक बड़े तबके को फायदा हुआ है. इसे ऐतिहासिक कदम भी कहा जा सकता है.

सोमवार, 24 जुलाई 2017

हमने मशीनों के सामने आत्मसमर्पण किया

बहुत संकीर्ण हो गये हैं हम. हमारे जीवन का मशीनीकरण हो गया है. हम स्विच दबाते हैं, तो बत्ती जल जाती है. सुबह से रात तक के जीवन में मशीन का प्रवेश है. कंप्यूटर है, गुगल है. इन विरोधाभासों को कैसे ठीक करें? हम मंगल पर पहुंच रहे हैं, लेकिन अपने पड़ोसी के बारे में नहीं जान रहे हैं. बहुत संकीर्ण हो गये हैं. हमको फिर से इस ढाचे को व्यवस्थित करना होगा. फिर से सोचना होगा. थोड़ा-सा मशीन और ज्ञान की जो भूमिका है, उसको घटाना होगा. और थोड़ा- सा हमारा जो अपना कंट्रोल है, उसे बढ़ाना होगा. हम मशीनों के सामने आत्मसमर्पण कर गये हैं. हमारे दिमाग को मैकेनाइज्ड कर दिया गया है.
वीडियो गेम में बच्चे इतना मशगूल हो गये, उन्हें होश- हवास नहीं रहा. एप्पल के संस्थापक स्टीव जॉब्स, वो अपने घर में बच्चों को 21 साल तक आइपैड का इस्तेमाल नहीं करने देते थे. उस आदमी ने एक इंटरव्यू में कहा कि नीम-करोली बाबा ने इस दुनिया को क्या दिया? हमने इस दुनिया को कुछ दिया है. मैं पूछता हूं स्टीव जॉब्स से कि तुम नीम करोली के चरणों की धूल के बराबर नहीं हो, क्योंकि तुम दोहरे मापदंड अपनाये हुए हो. उस चीज को घर में नहीं दे रहे हो, क्योंकि तुम समझते हो कि वह नुकसानदेह है, लेकिन उसी को बेच कर तुम करोड़पति-अरबपति हो गये. दूसरे के बच्चे का नुकसान हो, लेकिन तुम्हारे बच्चे का नुकसान ना हो, यह क्या है? इसलिए मैं कहता हूं कि नये सिरे से हमें देखना होगा कि मशीन की जीवन में कहां तक इजाजत है?
ये कंप्यूटर, टीवी हमारे जीवन में हमला है. विजुअल मीडिया ने त्रस्त कर रखा है. गंदी भाषा का इस्तेमाल किया जाता है. मनुष्य जरा चेते. जरा सावधान हो. कैसा राक्षस को हमने जन्म दिया है, जो हमको खा रहा है. ये भस्मासुर है. ये शिव का आशीर्वाद प्राप्त कर शिव को ही जलाने चला है. शिव भाग रहे हैं. इसलिए हमें निश्चित रूप से बैठना होगा. पुनर्मूल्यांकन करना होगा, पूछना होगा कि हमारा रिश्ता मशीन के साथ कैसा हो. 
- भाईश्री के साक्षात्कार का एक अंश. साक्षात्कार हरिवंश सर ने किया है.

रविवार, 23 जुलाई 2017

मिथिला का ऐेसा परिवार, जिसकी तीन पीढ़ियां बनीं वाइसचांसलर

मिथिला का एक परिवार, जिसमें दादा, पिता और बेटा, तीन जनरेशन इलाहाबाद विश्वविद्यालय के कुलपति हुए. लेट डॉ गंगानाथ झा, डॉ अमरनाथ झा और डॉ आदित्यनाथ झा. गंगानाथ झा की कहानी है कि जब वह कुलपति हुए, तो ज्वाइन करने के बाद अपने गांव मां को प्रणाम करने गये. बहुत भीड़ थी. मां को प्रणाम किया, तो मां ने पूछा- किं भेलों बच्च. मां को कैसे कहते. फिर भी कहे- वाइसचांसलर. मां ने कहा- मास्टर कहया ऐब. मास्टर का कितना स्टेटस था कि वो अपने बेटे से कह रहीं हैं कि आप मास्टर कब होइएगा? आप शिक्षक कब होइएगा? वो वाइसचांसलर का अर्थ नहीं समझ रहीं थीं, अपने बेटे से कह रहीं थी कि आप मास्टर कब होइएगा? आज भी यह तीनों नाम लीजेंड हैं. डॉ आदित्यनाथ झा, आइसीएस के बाद जब रिटायर कर रहे थे, तब जवाहर लाल नेहरू ने उन्हें बुलाया. कहा कि तुम तो अब रिटायर करोगे. बताओ, तुम्हारी कुछ इच्छा है, तो उन्होंने कहा कि इलाहाबाद विश्वविद्यालय का कुलपति बना दिया जाता. तब नेहरू ने कहा कि यह कौन-सी बड़ी बात है. तुम कुछ और कहो. उन्होंने कहा कि नहीं, यही मेरी अंतिम इच्छा है. मेरे पिता जी. मेरे दादाजी वाइसचांसलर रहे हैं. हम भी रहेंगे.

हर एक मैथिल और बिहारी के लिए ये गर्व की बात है. जिस यूनिवर्सिटी में दादा वाइसचांसलर हुए. उसे में पिता और बेटा भी. यह शायद इतिहास में बहुत कम हुआ होगा, लेकिन हमारे बिहार और मिथिला की यही थाती है. प्रभात खबर में छपे भाई श्री के साक्षात्कार का एक प्रसंग. यह अद्भुत साक्षात्कार हरिवंश सर ने किया है.

शनिवार, 22 जुलाई 2017

प्रकृति से प्यार सच्ची मानवता

भाई शेखर जी से पहली बार कब मिलना हुआ था. ठीक से याद नहीं, लेकिन 2013 में ठंड के मौसम में कंबल वितरण के दौरान हम कुछ घंटे साथ थे. उस समय शेखर जी रोटरी क्लब के सचिव थे और अध्यक्ष थे डॉ एचएन भरद्वाज. कंबल वितरण के दौरान शेखर जी के विचार जानने का मौका मिला. इसके बाद से ज्यादातर फेसबुक की आभासी दुनिया के जरिये शेखर जी को देखता रहा हूं. आज उनके विद्यालय की एक तस्वीर देखी, तो लगा कि कुछ लिखना चाहिये शेखर जी के बारे में. हमें ये मौका फेसबुक की दुनिया तो देती ही है.
तस्वीर के कुछ बच्चे गमलों में लगे प्लांट (पौधों) के प्रति अपना प्यार जता रहे हैं. इसका कैप्शन है, प्रकृति की देखरेख और उसके प्रति प्यार ही सच्ची मानवता है. इससे पहले मुङो याद नहीं किसी स्कूल के छोटे बच्चों की ऐसी तस्वीर मैंने देखी है. हो सकता है, अन्य स्कूलों में बच्चों को ऐेसा होता हो. अगर ऐसा है, तो मैं उसे सलाम करता हूं, क्योंकि ऐसे दौर में जब लगातार प्रकृति के दोहन की बात हो रही है, उसमें उसके प्रति लगाव बड़ी सोच का परिचायक है. मुङो लगता है कि यह सोच शेखर जी में है.
यह पहला मौका नहीं है, जब उनकी सकारात्मक सोच दिखी है. वह अपने स्कूलों में लगातार ऐसे आयोजन करते रहते हैं, जिससे बच्चों में अच्छे संस्कार पड़ें. यहां यह उल्लेख करना जरूरी है कि यह आदतें, उन बच्चों को सिखायी जा रही हैं, जो पांच से दस साल के बीच की है, जो आनेवाले समय में अपने देश व समाज का भविष्य हैं. अगर बच्चों में यह सीखते हैं, तो हम कैसे समाज का निर्माण करने जा रहे हैं. इसे कहने और सोचने में गर्व का एहसास होता है.
हाल में जब शेखर जी रोटरी क्लब से अध्यक्ष बने, तो मुलाकात हुई. इस दौरान सामाजिक मुद्दों पर देर तक चर्चा होती रही. वो कहने लगे कि हम अपने कार्यकाल के दौरान बच्चों में अच्छी आदतों को लेकर अभियान चलायेंगे. उनको छोटी-छोटी बातों के बारे में बतायेंगे. कुछ साल पहले सरकार ने खाने से पहले हाथ धोने की योजना शुरू की थी, जिसमें बच्चों को बताया जाता था कि हाथ धो कर खाना खाने से क्या फायदे होते हैं? हाथ, कैसे धोना चाहिये, ताकि सही असर हो? यह अभियान फिर से रोटरी के जरिये शेखर जी चलानेवाले हैं.
वह कहते हैं कि हम अपने स्कूलों में ज्यादा छात्रों की संख्या नहीं बढ़ाना चाहते हैं. यही वजह है कि जैसे तीन सौ के आसपास बच्चे होते हैं. हम दूसरी ब्रांच शुरू कर देते हैं. इससे होता ये है कि स्कूल में अनुशासन बना रहता है. साथ ही कुछ और लोगों को रोजगार भी मिल जाता है.

गुरुवार, 20 जुलाई 2017

राहुल की ब्रांड वैल्यू!

कांग्रेस के युवराज राहुल गांधी हर समय किसी न किसी बात को लेकर चर्चा में रहते हैं. उनका अंदाज भी जुदा है. वह संसद में खड़े होकर कहते हैं कि मैं गलतियां करता हूं, लेकिन ये कहने के बीच ही ऐसी गलती कर जाते हैं, जिस पर पूरी संसद में ठहाका लग जाता है. ठहाका लगानेवालों में उनके दल के सांसद भी होते हैं. राहुल की इस दशा को देख कर लगता है कि कांग्रेस जहां से चली थी, आज फिर उसी रास्ते पर आगे बढ़ रही है. ये अलग बात है कि सौ साल से ज्यादा के सफर में पार्टी ने गोल्डेन पीरियड भी देखा है, लेकिन मैं जिक्र 2015 का करना चाहता हूं, जब बिहार में विधानसभा चुनाव हुये थे.
अरेराज में राहुल गांधी की चुनावी सभा थी. राहुल कांग्रेस के कर्णधार हैं और देश की बड़ी पार्टी के नेता भी. इसी आशा के साथ कवरेज के लिए मैं भी अरेराज में था. राहुल गांधी आये और उन्होंने दाल के मुद्दे से ही अपना भाषण शुरू किया और लगभग 12 मिनट बोलने के बाद अपनी बात पूरी की. इन 12 मिनटों के दौरान उन्होंने कोई ऐसी बात नहीं कही, जो स्थानीय लोगों के दिलों से छुये. राष्ट्रीय मुद्दों पर अटके रहे. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का नाम लेकर कमियां गिनाते रहे और रैली में आये लोग राहुल गांधी को देख रहे थे. कई लोग कह रहे थे कि हम गलत जगह आ गये हैं. ऐसी रैली में आना ही नहीं चाहिये.
पहली बार राहुल गांधी को लाइव कवर करने का मौका मेरा भी था. मुङो भी निराशा हुई, एक पत्रकार और नागरिक दोनों के तौर पर. राहुल ने अपने भाषण के दौरान लोकल कनेक्ट की कोई बात नहीं की, इसके अलावा कि यह हमारे प्रत्याशी हैं, जिन्हें आप लोग वोट दें. अब भले ही बिहार सरकार में कांग्रेस शामिल है, लेकिन जिस सीट पर राहुल ने प्रचार किया था. वहां वह चुनाव हार गयी. सबसे चौकानेवाली बात ये थी कि मोतिहारी जिसमें अरेराज पड़ता है. वहां 12 विधानसभा सीटें हैं. कद्दावर नेता होने के नाते 12 प्रत्याशियों को राहुल की सभा में आना चाहिये था, लेकिन सभा में केवल दो प्रत्याशी आये थे. एक स्थानीय और एक किसी और विधानसभा सीट का.
रैली के बाद जब राहुल गांधी प्रत्याशियों का नाम लेकर जिताने और मंच पर आगे आने की बात करने लगे, तो तो केवल दो प्रत्याशी ही आये. पता चला कि और प्रत्याशी आये ही नहीं हैं. इनमें एक प्रत्याशी मंच से नीचे बैठे थे.
रैली में खुद की स्थिति देख राहुल को भी असहज लगा होगा शायद. यही वजह रही कि वह माइक से यह कहने लगे कि हो सकता है कि अन्य प्रत्याशियों को दूसरा काम रहा होगा. वह अपने प्रचार में व्यस्त रहे होंगे. इस वजह से रैली में नहीं आ सके. मैं आप सब लोगों से अपील करता हूं कि महागठबंधन के प्रत्याशियों को जितायें. राहुल की इस ब्रांड वैल्यू को देख कर मुङो भी कुछ समझ में आ रहा था. 

बुधवार, 19 जुलाई 2017

चौड़ी हुई सड़क तो मेरा गांव कट गया


जब भी मैं इन सड़कों से होकर गुजरता हूं, तो बचपन की कई कहानियां और किस्से याद आने लगते हैं. वह दिन भी याद आते हैं, जब रात में सात-आठ बजे अपने शहर रायबरेली से घर वापस लौटता था, तो साइकिल बीच सड़क से होकर चलाता था. बहुत कम ऐसा होता था, जब कोई ट्रक या बस आये और उसे रास्ता देना पड़े. रास्ता देने के मतलब था, पक्की सड़क से कच्ची पर उतरना. कोई साइकिल वाला तेज चलाते हुये आगे निकलता था, तो उससे कैसे आगे निकलना है. यह सोचने लगता था. पैडल पर पैर इतनी तेजी से अपने आप चलने लगते थे कि अगले एक-दो किलोमीटर में उससे आगे हो ही जाता था. मुङो याद नहीं कि गंगागंज से रायबरेली के बीच की सड़क पर कभी किसी साइकिल वाले ने मुङो पछाड़ा हो.
दोस्तों के साथ जब गुजरता था, तो गणित और विज्ञान के सूत्र दोहराना होता था. हां, लड़कपन की बातें तो होती ही थीं, तब सड़कों की अहमियत समझ में नहीं आती थी. उन पर चलना क्या होता है. शायद यह भी समझ में नहीं आता था, लेकिन उदारीकरण के बाद पूरी अवधारणा बदल गयी. प्रिय शायर मुनव्वर राना साहब से काफी बाद में मिलना हुआा, तो उन्होंने सड़कों को लेकर अपना दुख कुछ यों बयान किया..
मंजिल करीब आते ही एक पांव कट गया.
चौड़ी हुई सड़क तो मेरा गांव कट गया.
जब ये शेर सुना, तो सड़क होना क्या होता है और गांव कटना क्या होता है. यह भी समझ में आने लगा. अब वही गंगागंज और रायबरेली की सड़क फोरलेन हो गयी है, लेकिन जब भी गुजरता हूं, तो मन उदास हो जाता है. वजह वह एक लेन की सड़क जिसके किनारे हजारों की संख्या में पेड़ लगे थे. कहीं भी धूप नहीं लगती थी. उनके नीचे से गुजरते हुये सड़क हमसे बात करती थी. गर्मी में सुखद एहसास कराती थी. अब उस पर एक भी पेड़ नहीं रह गया है. निजर्न वीरान सड़क ही रह गयी है. जिस पर सौ और इससे ज्यादा की स्पीड में दौड़ती गाडियां ही गाड़ियां दिखती हैं.
मेरे चलने का तरीका भी बदल गया है. पहले साइकिल और तांगे से जाना होता था, लेकिन अब कम से कम मोटरसाइकिल तो होती ही है. छोटे भाई की जिद होती है कि ज्यादातर गाड़ी से चलूं, तो उसकी गाड़ी से ज्यादा गुजरना होता है. वह हमारे लिये छुट्टी भी ले लेता है. हम दोनों मिलकर दिन भर सड़कों पर चलते रहते हैं. इस गांव से उस गांव. इस ठांव से उस ठांव. हां, सड़कें दिन, तारीख, समय सब याद रखती और रखवाती भी हैं. यह इनकी खासियत है. 
उदारीकरण के बाद सड़कें तेजी से बनीं, तोजहां लोग घंटों में पहुंचते थे. वहां मिनटों में पहुंच रहे हैं. जिंदगी फास्ट हो गयी है, लेकिन बढ़ते वाहनों ने फिर हमें पीछे ढकेलना शुरू किया है. अब सड़कें चाहे जितनी बन रही हैं, लेकिन वाहन उन पर भारी पड़ रहे हैं. नतीजा जाम के रूप में सामने आ रहा है, जहां जाने में घंटे भर का समय लगता है. अगर जाम लग गया, तो कई घंटों में बदल जाता है. यह नये जमाने की परेशानी है, जो सड़कों ने नहीं पैदा की है. हमने पैदा की है और हमारी बनायी है. सड़कें तो हमें मंजिल तक पहुंचाती हैं. बिना भेदभाव.
सड़कों की बात चली, तो यह भी याद आता है, जैसे दिन और रात आता है. वैसे ही ये सड़कें भी हमारा साथ अच्छे में भी देती हैं और बुरे में भी. कभी हिसाब नहीं मांगती. हां, हमेशा हमारे हिसाब से खुद को एडजस्ट करती हैं और हमारे लिये रास्ता सुगम करती हैं. यह जिंदगी का तकाजा ही है कि अब हमारा जो कर्मक्षेत्र है. वहां कभी सड़कों को लेकर बहुत बातें होती थीं. बिहार में तब के मुखिया गांव के लोगों से कहते थे कि अगर सड़क बन जायेगी, तो चोर-डाकू गाड़ियों से आयेंगे. लूट कर चले जायेंगे, तुमको क्या मिलेगा. तुम ऐेसे ही ठीक हो. बिना सड़क के.
अब यहां की भी स्थिति बदल गयी है. गांव-गांव में सड़कें हैं और जिन्हें डराया जाता था. उन्हें ही सड़कों से सबसे ज्यादा फायदा हो रहा है. यह हम नहीं स्टडी कहती है. हालांकि सड़कों के रूप में हमने कंक्रीट को बढाया है, लेकिन इनसे राह कितनी आसान हुई है, यह भी देखना पड़ेगा. इसका मूल्याकंन फिर कभी. सड़कों पर और बात फिर. अभी के लिए बस इतना ही.

मंगलवार, 18 जुलाई 2017

इन बसों पर लगाम कौन लगायेगा?

बसवाले की मनमानी से वैशाली के सराय में फिर मौत का तांडव दिखा. 11 की जीवन लीला समाप्त हो गयी और आधा दर्जन लोग जख्मी में हो गये. ये पहली घटना नहीं है. छोटी घटनाएं तो रोज होती रहती हैं, लेकिन कुछ माह पहले मुजफ्फरपुर के झपहां में बड़ी दुर्घटना हुई थी, तब भी बस की चपेट में ऑटो ही आया था, जिसमें 12 लोगों की मौत हुई थी. दुर्घटनाग्रस्त होने के बाद बसवाले ने बेरहमी दिखाते हुये ऑटो को कुछ दूर तक घसीटता ले गया था, जब ऑटो उसमें फंस गया, तो उसने बस बैक की और फिर जख्मी होकर सड़क पर गिरे यात्रियों को रौंदता हुआ भाग निकला था. भयावह मंजर था वह. आज भी वैसा ही हुआ, लेकिन चालक बस को नहीं निकाल सका, तो मौके पर यात्रियों को छोड़ कर भाग गया.
हाल के दिनों की यह दोनों घटनाएं यह बताने के लिए काफी हैं. कैसे बस वाले किसी की भी जान की कीमत पर खुद को बचाना चाहते हैं और अगर आप हाइवे पर चल रहे हैं, तो बस से बचना आपका काम है. खुद को बचाव नहीं किया, तो बसवाले की जिम्मेवारी नहीं है. कई ऐसी घटनाएं होती हैं, जिसमें लोगों की जान चली जाती है. किस वाहन से एक्सीडेंट हुआ, पता तक नहीं चल पाता. हम लोग पता लगाते रहते हैं, लेकिन रटा-रटाया जवाब मिलता है कि अज्ञात वाहन ने ठोकर मारी है.
बस वालों की मनमानी का आलम यह है कि वह सड़क पर चलनेवाले अन्य वाहनों को कुछ समझने के लिए तैयार नहीं होते हैं. भीड़भाड़ वाले चौराहों पर भी कानफाड़ हार्न बजाते हुये ऐसे गुजरते हैं, जैसे उड़ने की तैयारी में हों. ऐेसा एक-दो बार देखने को नहीं मिलता. यह लगातार होता है. हाल में बिहार में बसों से जो घटनाएं हो रही हैं. वह दिल्ली में उन दिनों की याद दिलाती है, जब निजी बसें चलती थीं और सवारियां उठाने की होड़ में वह रोज कई लोगों की जान लेती थीं, लेकिन विरोध हुआ, तो उन बसों पर लगाम लगी, लेकिन बिहार में अभी ऐसा नहीं है. इन बसों पर लगाम कौन और कैसे लगायेगा, यह होना शेष हैं. लगाम लगना जरूरी है, क्योंकि अगर ऐसा नहीं होगा, तो लोग असमय काल के गाल में समाते रहेंगे.
इन सबके बीच सच्चई ये भी है कि बिहार में यातायात का सबसे बड़ा जरिया यहीं बसें हैं, जो लोगों को एक से दूसरी जगह ले जाती हैं. इनमें ज्यादा तर बसें निजी ऑपरेटरों की हैं. समय सीमा में चलना जिनकी मजबूरी होती है, लेकिन ऐसा समय भी क्या, जिसमें लोगों की जान तक महफूज नहीं रहे.

सोमवार, 17 जुलाई 2017

रुकी-रुकी जिंदगी, झट से चल पड़ी

सूचना क्रांति क्या हुई. चिट्ठी और तार के सहारे चलनेवाली जिंदगी फास्ट फारवर्ड मोड में आ गयी. अब लोग आदमी नहीं रोबोट की तरह नजर आते हैं. चिंटू- पिंटू, पप्पू- बिल्लू सब एक्शन में हैं. एक फोन से बात कर रहे हैं, तो दूसरे से मैसेज का उत्तर दे रहे हैं. सामने पानवाले को भी इशारा कर रहे हैं. कैसा पान लगाना है. ऐसे चिंटू-पिंटू हर गली मोहल्ले में आसानी से मिल जायेंगे, जो कुछ साल पहले तक बिस्तर पर पड़े चारपायी तोड़ते नजर आते थे. अब कामी पुरुषों में इनकी गिनती होने लगी है. काम क्या, यह तो यही बता सकते हैं, लेकिन मम्मी-पापा का सिरदर्द इन्होंने बढ़ा रखा है.
पांचवीं से आगे बढ़ते ही बच्चे खुद के लिए अलग से फोन की फरमाइश करने लगे हैं. फोन के लिए यह कोई भी जुगत लगाते हैं. मौका पड़ने पर अनशन करने (खाना छोड़ने) तक को तैयार हो जाते हैं. यह बदलाव का कौन सा दौर चल रहा है, इसे नाम देना मुश्किल हो रहा है. क्योंकि आकरुट से शुरू हुआ. ऑनलाइन मित्र बनाने का सिलसिला अब क्लासिफिकेशन तक पहुंच गया है. नौकरी चाहते तो इस साइट पर रहिये. मित्र बनाना है, तो फलाना साइट के सदस्य बन जाइये. चैटिंग करना है, तो इस साइट पर रह कर शोभा बढ़ाइये. रोज नयी-नयी साइट और एप लांच हो रहे हैं. अब आप खुद को एप बना कर भी धमाल मचा सकते हैं.
सब कुछ इतनी तेजी से बदल रहा है कि चिंटू-पिंटू के ऊपर से भी कई बातें निकल जा रही हैं. इस बदलाव ने क्या दिया. अभी इस पर चर्चा कम हो रही है, लेकिन दस बच्चे से लेकर अस्सी साल के दादा जी तक को बिजी रहने का मौको दे दिया है. अब घरों में साथ रहने पर भी बात नहीं होती है. दादा जी अपने फोन में लगे हैं, तो पोता अलग से आइपैड लेकर बैठा है. दोनों एक कमरे और एक सोफे पर होने के बाद भी आपस में बात नहीं करते हैं. स्क्रीन पर चलनेवाली गतिविधि से खुशी और गम में डूबते हैं, तो कभी जोर से सांस लेकर एक दूसरे को देख कर फिर स्क्रीन में डूब जाता है. मुङो लगता है कि ये सूचना क्रांति का स्क्रीन काल है, जिसमें उंगलियों के साथ सबसे ज्यादा आंख की एक्सरसाइज हो रही है, जिससे आंखें धोखा बी देने लगी हैं. छोटे-छोटे बच्चे आंख की बीमारियों का शिकार हो रहे हैं.
क्रांति के इस दौरान में सब फिंगर टिप्स पर आता जा रहा है, जिससे शारीरिक श्रम जाता रहा है. जैसे-जैसे यह आगे बढ़ रहा है, सोच का तरीका भी बदल रहा है. लोगों की सोचने की क्षमता कम हो गयी है. यह हम नहीं, वो लोग ही कह रहे हैं, जो इन सबके आदी हो चुके हैं. अब तो सोशल साइट्स से खुद को अलग करने का दौर भी शुरू हो गया है, लेकिन अभी इसकी स्पीड कम है और जो अलग होता है, वो जल्दी ही वापस भी आ जाता है, क्योंकि वह आभासी दुनिया से बाहर के माहौल में खुद को एडजस्ट नहीं कर पाता है और हार कर उसकी निगाह पास पड़े मोबाइल पर जाती है, जिसमें बिना इच्छा ही ये मैसेज टाइप और सेंड हो जाता है कि कुछ दिन आप लोगों से दूर रहा. क्षमा चाहता हूं. अब फिर से वापस आ गया हूं. अपने विचारों से आपको अवगत कराता रहूंगा.

उम्मीदों का आसमान

मिठनसराय गांव. भारत के उन पिछड़े गांवों में शुमार है, जो आजादी के 70 साल वाले जुमले पर फिट बैठता है. यहां भी विकास के नाम पर योजनाएं जरूर आयीं, लेकिन हुआ कुछ नहीं. प्रभात खबर ने जब इस गांव को गोद लेने का फैसला किया, तो गांव के लोगों में उम्मीद की लहर जागी. हम लोगों ने पहली ही बैठक में साफ कर दिया था, जिसमें गांव के चुनिंदा 25 लोग रहे होंगे. हम कोई चमत्कार करने नहीं आये हैं. हम यहां आपके सहयोग से आपके गांव को बदलने आये हैं, जिसमें समय लगेगा, क्योंकि सरकारी योजनाएं कैसे चलती हैं. इसकी चाल सब लोग जानते हैं. यह बात गांव वालों के लिए नयी थी, क्योंकि इससे पहले विधानसभा क्षेत्र (कांटी-बोचहां) के सीमावर्ती इस गांव में जब भी कोई गया, वह सपने दिखा गया, लेकिन वह हकीकत में तब्दील नहीं हुआ. इसका जीता उदाहरण गांव में बन रहे दो शौचालय हैं, जिनकी नीव सात साल पहले पड़ी थी, लेकिन पूरे अभी तक नहीं हो पाये हैं.
गांव के बाहर बांध है, इसे बूढ़ी गंडक पर बनाया गया, लेकिन सुविधा बढ़ी, तो बांध पर रोड बन गयी, जो अब इतनी जजर्र हो चुकी है कि चलना मुश्किल है, जब भी कोई जाता है, तो ग्रामीण कहते हैं कि बांध की रोड बन जायेगी, तो हम लोगों के सबसे ज्यादा राहत मिल जायेगी. इसका उदाहरण पांच जुलाई को भी देखने को मिला था, जब गांव गोद का उद्घाटन समारोह था. मंत्री से लेकर जिलाधिकारी तक गांव गये थे. सबने स्थिति देखी, तो दंग रह गये. मंत्री को स्कॉट कर रहे काफिले में शामिल सुरक्षा अधिकारियों ने कह दिया था कि गांव की रोड पर गाड़ी रुकेगी ही नहीं, लेकिन शुक्र मंत्री जी के ड्राइवर का रहा, जिसने उनकी बात को अनसुना कर दिया और गांव को गांव की पगडंडी में उतार दिया. इस तरह से मंत्री जी कार्यक्रम स्थल तक पहुंच गये. फोरलेन से महज डेढ़ किलोमीटर की दूरी पर बसे गांव में जाने में नाकों चने चबाने पड़ेंगे, यह मंत्री जी और उनकी सुरक्षा में लगे लोगों ने सोचा तक नहीं था. वह कलक्टर और अन्य अधिकारियों की दुहाई दे रहे थे, लेकिन जब कहा गया कि कलक्टर साहब कुछ देर पहले ही गांव से वापस गये हैं, तो शांत हो गये. यह तो बात रही मंत्री जी और कलक्टर साहब के दौरे की.
गांव को गोद लेने के बाद से अक्सर जाना होता जा रहा है, जब भी गांव में कुछ होता है, तो जाने के मन करता है. कभी गाड़ी से तो कभी मोटरसाइकिल से ही. चला जाता है. ऐसे ही रविवार की सुबह गांव से मिलने का प्लान बना और हम लोग पहुंच गये. गांव के लोगों की परेशानियों की बारे में जानना चाहा. साथ ही दो दिन पहले बिजली का सव्रे गांव में हुआ है. उसके बारे में जानकारी ली. सबने उत्साहित होकर अपनी बात रखी. इस बार बैठक में एक सौ से ज्यादा लोग पहुंचे. इनमें लगभग पचास महिलाएं रही होंगी, जिनमें दो वार्ड सदस्य भी. महिलाओं का सबसे बड़ी परेशानी पेंशन और रोजगार. गांव में जीविका का ग्रुप खुला है, जिसके जरिये महिलाओं को लोन मिला है, लेकिन इसके बाद भी इनकी आर्थिक हालत ठीक नहीं. सब काम चाहती हैं. घर में शौचालय बने. यह भी महिलाओं की प्राथमिकता में है.
मिठनसराय गांव की परेशानियां अन्य गांवों जैसी ही हैं. कार्ड होने के बाद भी राशन नहीं मिलता. डीलर, एक माह का राशन देता है, चढ़ाता दो माह का है. कन्या विवाह योजना का पैसा सालों से नहीं मिला है. इंदिरा आवास की एक किस्त मिली, दूसरी किस्त नहीं मिल रही है. गांव में ऐसे लोगों को जमीन मिल सकती है क्या, जिनके पास रहने को भी अपनी जमीन नहीं है. ऐसे तमाम सवाल एक के बाद एक आने लगे. इसी बीच ग्रामीणों ने प्राथमिक स्कूल में पढ़ाई का मुद्दा उठाया और कहने लगे कि खिचड़ी के बाद बच्चों को स्कूल में नहीं रोका जाता है. उन्हें घर भेज दिया जाता है, जबकि दो कमरे के स्कूल में सात शिक्षकों को नियुक्ति है. शिक्षक कुर्सी पर पैर रख कर बैठे रहते हैं. इन लोगों को बच्चों को देखने और पढ़ाने की फुरसत नहीं है. यह सुनते ही गांव के एक शिक्षक तल्ख होने लगे, लेकिन ग्रामीणों ने उन्हें अपने तर्को से चुप करा दिया.
गांव सुधार के लिए जोर-शोर से लगे शिक्षक महोदय को झटका लगा और वो ग्रामीणों से उलझने लगे, लेकिन ग्रामीण उन्हें बख्शने के मूड में नहीं थे. हालांकि बच्चे स्कूल में तय समय तक नहीं रहते, इसमें अभिभावकों की भी गलती है, क्योंकि खिचड़ी के बाद बच्च घर पहुंच जाता है, तो उन्हें पूछना चाहिये कि बिना छुट्टी के वो कैसे घर पहुंच गये, लेकिन अभिभावक ये नहीं करते. बात उठी, तो सोमवार से इसकी निगरानी पर सहमति बनी.
मिठन सराय की स्थिति बदलने की शुरुआत हो गयी है. अगर बच्चों को अच्छी शिक्षा मिलने लगेगी, तो तत्कालिक काम तो हो ही जायेंगे. इनमें गांव की सड़क का निर्माण, जो डेढ़ साल से अटका था. प्रभात खबर की पहल पर फिर से शुरू हो रहा है. सामान गांव में गिरने लगा है. गांव में बिजली का सव्रे हो चुका है. गांव में चापाकल के लिए जगह चिह्नित हो गयी है. गांव में पेड़ लगाने के लिए वन विभाग तैयार हो गया है. ग्रामीणों को लीची की खेती के बारे में अनुसंधान केंद्र के वैज्ञानिक जानकारी देंगे. साथ ही लीची के पेड़ भी ग्रामीणों को दिये जायेंगे. ऐसी और तमाम योजनाओं पर काम हो रहा है, जिनसे गांव की स्थिति बदले. अंत में एक बात और. गांव के पुस्तकालय को फिर से चालू कराने पर भी विचार हो रहा है. पुस्तकालय शुरू होगा, तो माहौल बदल जायेगा, जिससे गांव के आसपास होनेवाले अपराध में कमी आयेगी. ऐसा मेरा मानना है. बाकी, तो भगवान के हाथ में है.

रविवार, 16 जुलाई 2017

देखें और सब्सक्राइब करें.
















इसे मैं कोशिश भर कहूंगा, लेकिन अगर कोई बच्च करे, तो अच्छा ही है. आप उत्साह बढ़ायेंगे. इसे देखेंगे, चैनल को सब्सक्राइब करेंगे, तो और भी उत्साह बढ़ेगा.

शुक्रवार, 14 जुलाई 2017

यह तस्वीर दो साल पुरानी है, लेकिन महत्वपूर्ण है. बिना किसी ट्रेनिंग के केवल खेलने के दौरान आाठ साल का यह बच्च किस तरह के करतब कर लेता है. अगर इसे तराशा जाये, तो यह क्या कमाल कर सकता है. तस्वीर प्रभात खबर के सीनियर साथी माधव ने खीची थी, जिन्हें इसके लिए काफी सराहना मिली. यह तस्वीर आप भी देखें और अपने विचार दें.

गुरुवार, 13 जुलाई 2017

बैठो बताई का पुरवा

अब तो गांवों की स्थिति बदल गयी है. सब जगह स्मार्ट फोन हो गये हैं. अब गांव के लोग भी अपने में व्यवस्त हो गये हैं. दूसरों से बात करने का समय नहीं होता है, लेकिन आज से तीन-चार दशक पहले के बारे में सोचिये, तब स्मार्ट फोन की चर्चा तक नहीं थी. टीवी के बारे में कुछ बात होने लगी थी, लेकिन सब गांवों में टीवी थी नहीं. अगर किसी गांव में टीवी होती थी, तो शाम के समय दो घंटे का प्रसारण आता था दूरदर्शन पर, जिसे देखने के लिए कई गांव के लोग इकट्ठा होते थे. उस समय ग्रामीणों में के मनरंजन का साधन नाच, गान, तमाशा, नौटंकी जैसी चीजें होती थीं, लेकिन यह भी हर समय नहीं हो सकती थीं. किसी खास मौके पर ही इनका आयोजन होता था, लेकिन लोक जीवन में कुछ ऐसे प्रसंग होते थे, जिनसे हंसने का अवसर देते थे. आप कितना भी तवान में हों, ऐसे प्रसंग सुन लें, तो हंसने लगें.
आज ऐेसा प्रसंग याद आया, जो बचपन के दिनों में हर दो-चार दिन पर सुनने को मिल जाता था. हमारे पड़ोस में एक नाई रहता था, नाम था छोटू नाई. बाल बनाने का काम उसका बड़ा भाई करता था. वह उसकी मदद में रहता था. जीवन भर बाल बनाना नहीं सीख सका. खूब प्रसंग कहता था. इसी में एक पसंदीदा प्रसंग था. बैठो बताई का पुरवा. इसको लेकर बड़े चाव से सुनाता था. कहता था कि एक बार एक आदमी साइकिल से कहीं जा रहा था. रास्ते में नहर पड़ी, जिसके किनारे एक आदमी आराम कर रहा था. आराम करने की नीयत से वह वहां कुछ देर के लिए रुका. पास के नल में पानी पीने के बाद उसने पास के आदमी से पूछा, आागे कौन सा गांव है, तो वह आदमी बोल पड़ा. बैठो बताई का पुरवा. यह सुनते ही साइकिल वाला उसके पास बैठ गया और पूछने लगा कि आगे कौन सा गांव है, उसने फिर वही दोहराया. इस पर साइकिल वाले ने कहा कि बैठ तो गये हैं. अब कैसे बैठे. गांव का नाम बताओ, इस पर उस व्यक्ति ने फिर नाम दोहरा दिया. काफी देर तक इसी तरह से बात होती रही. साइकिलवाला आदमी समझ नहीं पा रहा था कि आखिर गांव का नाम क्या है, जबकि नहर के किनारे बैठा व्यक्ति उसे लगातार बता रहा था कि बैठो बताई का पुरवा.
यह प्रसंग सुनाते समय छोटू नाई खुद सीरियस हो जाता था, लेकिन जो लोग सुनते थे. वह हंसते-हंसते लोटपोट हो जाते थे. ऐसे ही कई और प्रसंग उसके मुंह से लगातार सुनने को मिलते थे. प्रसंग सुनाने के अलावा छोटू नाई कभी सीरियस नहीं रहते. बीमार होने पर भी. कम उम्र ही वह इस दुनिया को छोड़ कर चले गये. हुआ यूं कि छोटू के पेट में दर्द रहता था और वो रात में गरम पानी की कई बोतल लेकर सोते थे, जब दर्द होता था, तो पेट पर गर्म पानी की बोतल रख लेते थे, जिससे आराम मिलता था. ऐेसे ही एक दिन दर्द उठा, वो गरम पानी की बोतल लेकर सोये थे. राम में ऐसा दर्द हुआ, जो उन पानी की बोतलों से ठीक नहीं हुआ. वह बोतल पर बोतल पेट पर रखते गये, लेकिन उसी रात उनकी मौत हो गयी. मौत की सूचना लोगों को तब मिलीं, तब उनके पेट पर रखीं बोतले एक-एक करके चारपाई से नीचे गिरीं.

बाहर गंध, अंदर सुगंध

बाहर गंध, अंदर सुगंध, यह बात जैसे ही आनंद ने सुनी, नहले पे दहला मारते हुये बोले, बाहर से सेरवानी, अंदर से परेशानी. दरअसल, यह दो तस्वीरें उस जगह की हैं, जिन्हें हम अपने मुजफ्फरपुर की अच्छी जगहों में शुमार करते हैं. आनंद एक बड़े शो रूम में काम करते हैं. गुरुवार को चलते-चलते उनसे मुलाकात हो गयी. शो रूम के बाहर इतनी बदबू कि खड़ा होना मुश्किल. इसके बाद भी दर्जनों की संख्या में लोग खड़े थे, जबकि शो रूम के अंदर सेंट छिड़का गया था, जिससे महक बिखर रही थी. इससे वहां सामान खरीद रहे लोग अच्छा महसूस कर रहे थे. बात चली, तो आनंद कहने लगे कि ये सब देखने के लिए है. बारिश होती है, तो शो रूम में भी पानी आ जाता है. यहां की स्थिति अलग नहीं है. हमने सोख्ता बनाया हुआ है. यह चमक दमक..आगे कुछ बोलते हुये वह रुक जाते हैं.
मुजफ्फरपुर शहर के कुछ ऊंचे इलाकों को छोड़ दें, तो निचले इलाकों में अब दरुगध ने डेरा जमा लिया है. बारिश को चार दिन हो गये हैं, लेकिन अभी गली, मोहल्लों और घरों से पानी नहीं निकल पाया है. कहने को निगम की ओर से लगातार काम हो रहा है, लेकिन अभी तक सभी को राहत नहीं मिली है. कहीं, लोग ट्यूब के सहारे घर से बाहर निकल रहे हैं, तो कहीं हाफ पैंट के सहारे गुजारा कर रहे हैं. महिलाएं पानी में खड़ी होकर खाना बनाने व घर के काम करने को मजबूर हैं.
मुजफ्फरपुर ही क्या, उत्तर बिहार के सीतामढ़ी, दरभंगा और मधुबनी सब जगह यही स्थिति है. तस्वीरें वहां की हकीकत को बयान कर रही हैं. कैसे लोग रह रहे हैं. निजी क्या, सरकारी ऑफिसों तक में पानी भरा है. वहां कर्मचारियों व अधिकारियों का काम करना मुश्किल है, लेकिन इसी मुश्किल के बीच काम हो रहा है.
गांव और शहर को समझनेवाले विशेषज्ञ कहते हैं कि यह हम लोगों की बनायी स्थिति है. हम लाखों रुपये खर्च करके घर बनाते हैं, लेकिन यह नहीं सोचते कि नाली कहां निकलेगी. सड़क से लोग कैसे गुजरेंगे. घर के आसपास कुछ न कुछ अतिक्रमण की आदत हम में से ज्यादातर को पड़ गयी है. उसका परिणाम ही हमें इस रूप में देखने को मिल रहा है. यह ठीक होनेवाला नहीं. नगर निगम और नगर परिषद चाहे जितना कर लें, हालात हमीं आप मिल कर बदल सकते हैं. अतिक्रमण के साथ हम लोग कूड़े के रूप में इतनी पॉलीथीन सड़कों पर फेंक रहे हैं, जो नाले और नालियों में जाकर फंस रही हैं.
कहने और सुनने में भले ही यह उपदेश जैसा लगता है, लेकिन सच्चई यही है और इसी का खामियाजा हमारे शहर भुगत रहे हैं. हम स्मार्ट सिटी में तो शामिल होना चाहते हैं, लेकिन खुद स्मार्ट नहीं बनना चाहते हैं. ऐसे कैसे होगा, क्या स्मार्ट होने का यही नतीजा है कि लोग हफ्तों, महीनों बारिश के पानी में रहने को मजबूर हों.

मंगलवार, 11 जुलाई 2017

स्मार्ट सिटी क्या बोलेगी?

सौ साल से ज्यादा पुराना नगर भवन शर्म में डूबा जा रहा है. इसके चारों ओर ऐसी स्थिति बन गयी है, मोटरसाइकिल और गाड़ी क्या, पैदल भी निकलना मुश्किल है. अगर पैदल चलते समय आप संभले नहीं, तो गिरना तय है. साल भर पहले जब साफ-सफाई और रंग रोगन हुआ था, तो नगर भवन को लगा था कि मेरे दिन फिर जायेंगे. हाल में मुजफ्फरपुर स्मार्ट सिटी घोषित हो गया है, लेकिन नगर भवन के दिन फिर पहले जैसे होते जा रहे हैं. यही परेशानी उसे खाये जा रही है. आसपास में दो-दो पार्क, लेकिन में भी चहल-पहल नहीं. दोनों में ताला बंद. अगर कोई इस सड़क का रुख करता है, तो उसका अपना स्वार्थ होता है. स्वार्थ कैसा, यह इस सड़क से गुजर कर देखा जा सकता है. आपको मुंह पर रुमाल रखनी पड़ेगी.
नगर भवन की समझ में ये नहीं आ रहा है कि स्मार्ट सिटी घोषित होने के बाद उसकी दुर्दशा क्यों हो रही है? क्यों उसे गर्त में ढकेला जा रहा है, लेकिन उसे इस बात से शांति मिलती है कि शहर के जितने प्रतीक हैं, वो सब अपनी बदकिस्मती पर रो रहे हैं. कोई भी अपने पर इतरा नहीं सकता. कल्याणी चौक, 36 घंटे से पानी में डूबा है. स्टेशन रोड की नियति ही नाले का पानी हो गयी है. वहां से निकलना मुश्किल हो रहा है. मोतीझील में आप खोजते रह जायेंगे, मोती नहीं मिलेगा. अलबत्ता पानी से आपकी तबियत जरूर खराब हो जायेगी. संतोषी माता मंदिर के पास से गुजरना किसी जंग से कम नहीं है. यहीं से इस्लामपुर लहठी मंडी शुरू होती है, जहां से विश्व सुंदरी ऐश्वर्या राय की शादी में लहठी गयी थी, लेकिन बारिश ने इस सड़क को गंदा नाला बना दिया है.
गंदे पानी के बीच गुजरती कारें और मोटरसाइकिलें सड़क पर समुद्र आनेवाली लहरों जैसा अनुभव पैदा करती हैं. सदर अस्पताल के सामने घुटने भर पानी है. यहां से आप पैदल गुजरे, तो भीगना तय है, क्योंकि इस रोड पर वाहन बहुत चलते हैं. ये सब जगहें नगर भवन से कुछ सौ मीटर की दूरी पर ही हैं, जिन्हें वह बिना किसी परेशानी के देख सकता है. हाल के सालों में मोतीझील ओवरब्रिज बनने से दूर तक देख पाने में कुछ बाधा आयी है, लेकिन नगर भवन को इतिहास तो सबका मालूम ही है. वह सब देख रहा है. शहर पहले कैसा था, अब कैसे हो गया है.
दो दिन की बारिश ने शहर के निचले इलाकों को झील में बदल दिया है. हर गली मुहल्ले और घर में पानी है. पानी की परेशानी के बीच काम हो रहा है. 2016 से ही पूरे शहर में नालों की निर्माण तेजी से हो रहा था, तब इनकी गुणवत्ता पर सवाल उठाया गया, तो किसी ने ध्यान नहीं दिया. अब इनसे पानी नहीं निकल रहा, तो कोई कुछ बोलने को तैयार नहीं है. इस तरह से एक और योजना अपनी नियति की भेट चढ़ गयी. नालों पर कितने लाख खर्च हुये पता नहीं, लेकिन पानी निकालने के लिए बड़े-बड़े अधिकारी दिन रात एक किये हुये हैं, लेकिन पानी है कि निकलने का नाम ही नहीं ले रहा है. माड़ीपुर सड़क को ऊंचा इलाका माना जाता है, लेकिन यहां से चक्कर चौक की ओर बढ़िये, सच्चई सामने आ जायेगी. यही हाल है, जिसे देख कर नगर भवन की तल्खी भी कुछ कम होती है. कहता है, हम क्यों ज्यादा परेशान हों, सब तो वैसे ही हैं.
निचले बसे इलाकों के साथ नयी बसी कालोनियों पर भी हाल बेहाल है. वहां भी पानी भरा है. गांव से जो लोग शहर आ रहे हैं. वह भी कुछ ऐसी ही दास्तान सुना रहे हैं. नगर भवन के सामने से गुजरते समय फोन बज उठा. किसी तरह संभलते हुये फोन उठाने की कोशिश की, तो गंदे पानी में जाते-जाते बचा, रिसीव किया, तो सामने से एक नेता जी थी. कहने लगे गांव का हाल खराब है. सब्जी की खेती बर्बाद हो गयी. धान की रोपनी हो गयी थी, लेकिन पानी भर गया. बिचड़ा भी डूब गया है. जल्दी पानी नहीं निकला, तो सब नष्ट हो जायेगा. फिर धान लगाने में देरी होगी. इसे बारिश नहीं आपदा कहिये. दो दिन में गांव में जिधर देखो पानी ही नजर आ रहा है.
फेसबुकिये युवा वर्ग को अलग ही सूझ रही है. वह अपनी तरह से बारिश को देख रहा है. पैंट मोड़ कर कल्याणी से टावर चौक और देवी मंदिर की ओर चला जायेगा, लेकिन मोबाइल से कनेक्टेड होड फोन नहीं छूटेगा. अभी-अभी मैसेज आया, लिखा है, हैलो, इंद्र भगवान, मोटर बंद कर दो, पानी भर गया है. अब इसे क्या कहेंगे? यही मोबाइल का जमाना है और ये हम हैं, जो ऐसी बातों पर ध्यान देते हैं. इतना कहते, सुनते और पढ़ते-पढ़ते हम अब नगर भवन से इतना दूर निकल आये हैं कि वह दिखायी नहीं दे रहा है. इसलिए उसका दुख-दर्द भी महसूस नहीं हो रहा है. आगे फिर कभी. 

रविवार, 9 जुलाई 2017

वो बारिश का मौसम, बाढ़ का पानी

आज रविवार का दिन भले ही है. सावन की पहली सोमवारी से पहले का भी दिन है. दोपहर बाद से हो रही बारिश से आत्मिक आनंद तो जरूर मिला, लेकिन इसकी वजह वर्तमान नहीं, अतीत रहा. वो बचपन, जिसे हमने गांव में जिया. सामूहिकता के बीच बच्चों की होनेवाली परवरिश को देखा. वहां अपना-पराया कम देखा जाता था. उम्र बढ़ी, तो दायरा और सोच, दोनों सिमट गये. अब मैं सिमट कर दो बेडरूम के अपार्टमेंट में आ गया हूं. बारिश को खिड़कियों से देखना और महसूस करना मजबूरी बन गया है, जब बारिश आये, तो यह डर लगा रहता है कि कहीं भीग ना जायें. भीगे तो सर्दी जुकाम और बुखार आ जायेगा. इसी की वजह से दूर हो गया हूं. मन खुद को अकेला महसूस करता है.
कई सालों बाद इस बार अच्छी बारिश देखने को मिल रही है. इस बार पानी बरसता है, तो ऐसा नहीं लगता कि कुछ देर में बंद हो जायेगा. पता नहीं क्यों? मन कहता है कि इस बार अच्छी बारिश होगी. होगी या नहीं, ये तो भविष्य की गर्त में है, लेकिन अभी तो अच्छा ही हो रहा है. आज खिड़की के पास बैठा था, तो किसी चलचित्र की तरह बचपन की दिनों का बारिश की यादें सामने घूमने लगीं. क्या थे, वो बचपन के दिन. संसाधन कम थे, लेकिन सुकून ज्यादा. बारिश में लगभग हर साल बाढ़ आती थी. बाढ़ का पानी, एक तरफ से गांव के पास आ जाता था, तो दूसरी ओर से घर की कुछ दूरी पर. जंगली जानवर, सांप आदि, गांव की ओर रुख करते थे. रात में खतरे की बात होती थी, लेकिन हम बच्चे, किसी न किसी बहाने पानी तक पहुंच ही जाते थे. कागज की नाव और गांव के लोगों की जिंदगी को देखने के लिए.
गांव की खेती का बड़ा हिस्सा नदी के पार था, सो लोग कोई न कोई जतन करके नदी के पार जाने की व्यवस्था बना लेते थे. यही मौसम मूंगफली बोने का भी होता था और धान की रोपनी का भी. मूंगफली बोनेवाले बड़े-बड़े मिट्टी के घड़ों में सामान भर कर उसी के सहारे तैरते हुये नदी पार करते थे. कई कपड़े सिर में बांध लेते थे और जानवरों की पूछ पकड़ लेते थे और नदी पार कर जाते थे. नदी पार करने में भैंस पर भरोसा कम रहता था, क्योंकि वह पानी में कभी-कभी डुबकी भी मार देती थी, जिससे लोगों के सिर में बंधे कपड़े भीग जाते थे. कई बार धारा के साथ बहती जाती, तो गांव से काफी दूर पर जाकर निकलते थे.
सुबह-शाम नदी के पार जाने और आने का नजारा देखना अद्भुत होता था. अब जब भी गांव जाता हूं, तो पूछता हूं. बाढ़ आयी थी, जवाब नहीं में मिलता है. अब बाढ़ नहीं आती. नदी सूख कर तालाब बन गयी है. वह तो सूख जाती, लेकिन सरकारी योजना आयी, नदी में कुछ-कुछ दूर पर बांध बांध दिये गये, जिनकी वजह से सालों भर पानी बना रहता है. अब अगर हम गांव में भी रहते, तो बाढ़ और बारिश का वो नजारा नहीं ले पाते, जो बचपन में था, क्योंकि बाढ़ अब आती नहीं और बारिश को हमने उम्र बढ़ने के साथ बीमारी का कारण मान लिया है, तो इससे वह आनंद खत्म हो गया है, जो बचपन में आता है. अब बारिश आती है, तो बच्चे बंद कमरे की खिड़की खोल बारिश के साथ सेल्फी लेने का आनंद लेने लगे हैं, जिसे पलक झपकते ही फेसबुक और ट्विटर पर अपलोड करते हैं. उस पर आनेवाले कमेंट और लाइक अब आनंद का साधन बन गये हैं. मोबाइल पर अब बारिश की बूंदोंवाला स्क्रीन सेवर और वॉल पेपर लगा कर काम चलाया जा रहा है. बारिश तो वही है, लेकिन समय के साथ सब बदल गया है.

शुक्रवार, 7 जुलाई 2017

व्यवस्था ने मुझे मारा, किससे कहूं


हाल के दिनों में बिहार की सड़कों को लेकर बहस सी चल पड़ी है. ये उसी तर्ज है कि हमारी कमीज, तुम्हारी से ज्यादा साफ है. इसमें बहस में सूबे के सरकार के मंत्री तक शामिल हो गये और कहने लगे कि बिहार को बदनाम नहीं होने देंगे, जैसे बिहार की बदनामी सड़कों में ही समाहित है. उसके अलावा सभी जगह ऑल इज वेल है, लेकिन जब इसको लेकर मंत्री जी को आइना दिखाया गया, तो बात होने लगी कि ये केंद्र सरकार की सड़क है. रख-रखाव की जिम्मेवारी उसी की है, लेकिन सवाल ये है कि सड़क तो बिहार में बनी है. चल यहां के लोग रहे हैं और बाहर से जो लोग आ रहे हैं. वह भी परेशान हो रहे हैं. इस माहौल में बातें करना बेमानी जैसा है. हर साल जब बारिश का मौसम आता है, तो विरोध के रूप में सड़कों पर धान रोपने की घटनाएं आम सी हो जाती हैं. इस बार भी बारिश शुरू हो गयी है. सड़कों की बदहाली के मुद्दे पर विरोध शुरू हो गया है. बेतिया हो या बक्सर, तस्वीर ज्यादा अलग नहीं है. केवल सोचने और समझने का नजरिया है. हां, सड़कों की बदहाली को बिहार की बदनामी से न ही जोड़ा जेया, तो अच्छा होगा.
हम भी बात एक सड़क की ही करना चाहते हैं. कमोबेश सभी ग्रामीण सड़कों की स्थिति ऐसी ही है, लेकिन जिस सड़क से पिछले दिनों बार-बार गुजरना पड़ा. उसकी बात करता हूं. यह सड़क दरभंगा फोरलेन पर संगम घाट पुल से बूढ़ी गंडक नदी के बांध पर बनी है. बताते हैं कि दो साल पहले लंबे संघर्ष के बाद सड़क बनी. लगभग सात किलोमीटर लंबी सड़क का निर्माण हुआ, तो शिवहर व मीनापुर की दूरी 12 किलोमीटर घट गयी. इलाके के लोगों में हर्ष की लहर दौड़ गयी. सड़क से रोज लाखों का आना-जाना है. सैकड़ों की संख्या में ऑटो चलते हैं, लेकिन दो साल पूरा होते-होते सड़क में गड्ढे कि गड्ढे में सड़क की कहावत चरितार्थ होने लगी. यह सड़क पर पूरी तरह से टूट कर बिखर रही है. कई स्थानों पर ऐसा कि सड़क रह ही नहीं गयी है. स्थानीय लोगों ने मिट्टी डाल कर भरा है, ताकि वहां से गुजरा जा सके.
बारिश होते ही यह सड़क मौत का कुंआ नजर आने लगती है, क्योंकि सड़क पर पड़ी मिट्टी पानी की वजह से फिसलने लगती है और इस पर चलनेवाली गाड़ियों का नियंत्रण ड्राइवर के हाथ में नहीं रह जाता है. वह नियंत्रण सरकनेवाली मिट्टी के हाथों होता है. पानी के हिसाब से गाड़ियों से न्याय होता है. अगर पानी ज्यादा बरस गया, तो गाड़ियों की शामत, नहीं तो किसी तरह से पार होने की इजाजत. यही कहानी पूरी बारिश इस रोड पर रहती है. इस रोड पर कई गांव पड़ते हैं. इनमें कोठिया, मिठनसराय जैसे गांव प्रमुख हैं.
इस सड़क से एक बार जो गुजरता है. दूसरा गुजरने में उसे जान का खतरा लगने लगता है. पिछलवे दिनों लगभग आाधा दर्जन बार इस सड़क से जाना हुआ, लेकिन गांव का होने की वजह से मुङो कम डर लगा, जब गाड़ी डगमगाती थी, तो लगता था कि अब खाई में चले जायेंगे, लेकिन भगवान की कृपा रही. ऐसा नहीं हुआ. अपने एक साथी के साथ गया था, जब वापस आने की बारी आयी, तो कहने लगे कि कोई दूसरा रास्ता हो, तो उससे चलें. अब इस सड़क से जाने पर डर लगता है. मुङो हार कर उनकी बात माननी पड़ी और कई किलोमीटर का चक्कर काटते हुये जमालाबाद व झपहां के रास्ते शहर वापस आना पड़ा.
रास्ते में आते समय मैं यह सोच रहा था कि आखिर किस दौर में हम जी रहे हैं. सरकार रोड एंबुलेंस की बात करती है. रोड मेंटिनेंस पॉलिसी का ऐलान होता है, लेकिन कुछ भी काम नहीं आती है, जब सड़क बनाने का करार होता है, तो ठेकेदार को पांच साल तक सड़क की मरम्मत की जिम्मेवारी दी जाती है, लेकिन सड़क बनने के बाद कोई देखनेवाला नहीं होता है. रास्ते में बात करने लगा, तो मिठनसराय व कोठिया के ग्रामीण कहने लगे कि हम लोग भगवान भरोसे हैं. रोज किसी न किसी के दुर्घटनाग्रस्त होने का समाचार आता है, जिसकी अब आदत सी हो गयी है. हम लोगों के लिए इसके अलावा और रास्ता भी नहीं है. ऐसे में हम क्या कर सकते हैं. हमें, तो इससे चलना ही होगा?


बुधवार, 5 जुलाई 2017

मैं मुजफ्फरपुर टावर चौक की घड़ी बोल रही हूं

मैं मुजफ्फरपुर टावर चौक की घड़ी. मेरा हाल आप लोग देख रहे हैं. अगर नहीं, तो यह मेरी नहीं, आपकी बदकिस्मती है, क्योंकि मैं उनमें हूं, जिन्हें आप अपना पूर्वज कहते हैं, जिनके नाम पर दंभ भरते हैं. उन्हें समय बताती थी, जिससे वो अपनी राह तय करते थे. हाल के सालों में शहर की चाल क्या बदली. मेरा भी समय बदल गया. मैं भी खराब रहने लगी. समय के साथ किसी ने मेरा साथ नहीं दिया. ठीक वैसे ही, जैसे शहर का. सब कहते हैं ना कि पहले बड़ा भाईचारा था, कल्याणी पर शहर के लोग इकट्ठा होते थे. वहीं, पर बातें होती थीं, देश से लेकर दुनिया तक की, लेकिन अब वहां की रवायत खत्म हो गयी है. अंडा पराठा और मोमो जैसे फास्ट फूड उस चौक की पहचान बन गये हैं, जिनके साथ युवा वर्ग ट्विटर, फेसबुक और इंस्टाग्राम पर अपनी तस्वीरें शेयर करता है और कहता है कि ये है हमारा शहर मुजफ्फरपुर.
क्या मुजफ्फरपुर यही है? ये सवाल मैं खुद से करती हूं और फिर चारों ओर नजर दौड़ाती हूं, तो कल्याणी चौक पर अभी भी वो चीजें मौजूद हैं, जिनकी चर्चा नहीं होती. हां, तो मैं अपनी बात कह रही थी. कैसे हमें उपेक्षा की गर्त में ढकेल दिया गया है. इस उपेक्षा के बाद भी मैं दिन में दो बार कम से कम सही समय बताती हूं, लेकिन मुङो देखने और मुङो पर गर्व करनेवालों को दिनों, महीनों और सालों में भी मेरे लिए एक भी सही शब्द नहीं आते. अगर ऐसा होता, तो आज मेरी हालत यह नहीं होती. मैं, महाभारत के संजय की तरह आपकों सब चीजें, दिन, तारीख व समय के हिसाब से बता सकती हूं, जो मेरे आसपास घटा है, लेकिन क्या करूं मजबूर हूं. अपनों ने ही मेरे साथ ऐसा व्यवहार किया है कि अब मैं खुद पर इतरा नहीं सकती. किसी छात्र से यह नहीं कह सकती कि अभी तुम लेट नहीं हुये हो, क्योंकि मुङो बंद कर दिया गया है?
अपने अतीत पर गर्व करनेवाले क्या नहीं करते. सैकड़ों साल पुरानी गाड़ियां नहीं चलतीं? हैरिटेज के नाम पर? उनके कलपुज्रे कहां से आाते हैं, तो फिर मेरे कलपुजरे के बारे में ये क्यों कहा जा रहा है कि मिल नहीं रहे हैं? अरे, कोई ठीक से खोजना नहीं चाहता. ऐसा कहनेवाले झूठ बोल रहे हैं. मेरे ही साथ की कई घडियां आज भी विभिन्न शहरों के चौक-चौराहों पर चल रही हैं. अगर मैं इतनी ही परेशानी का सबब बन गयी हूं, तो मुङो बदला भी तो जा सकता है, लेकिन क्या किसी ने इसकी ओर ध्यान दिया. ऐेसा मेरे ही साथ क्यों हो रहा है?
मैंने बहुत से ऐसे लोगों को इसी शहर में जीरो से हीरो बनते देखा है. मुझमे समय समय देख-देख कर उन्होंने अपना तो समय बना लिया, लेकिन शहर को क्या दिया? हमें क्या दिया? यह सवाल उन लोगों से जरूर है और रहेगा? यह सवाल शहर के उन लोगों को भी पूछना चाहिये, जो तथस्ट हैं? क्योंकि समय उन्हें भी नहीं छोड़ेगा, जवाब देना होगा? हां, मैं इसी आशा में हूं कि मुङो मेरा जवाब मिले और मेरे नीचे समय की शिला पर ऐसी रेखा खीचनेवाले बापू तो बैठे ही हैं, जो सदियां बीतने के साथ और चमकीली होती जायेगी. बाकी बातें फिर कभी, आज के लिए इतना ही. सावन का महीना आनेवाला है. मैं फिर से बाबा गरीबनाथ की महिमा के कयाल भक्तों को देखना चाहती हूं, जय गरीबनाथ.

सोमवार, 3 जुलाई 2017

मैं सरैयागंज टावर- कोई मेरी भी सुने

सूचना क्रांति के इस आधुनिक काल में मैं जब भी किसी शहर के मुख्य चौराहे से गुजरता हूं, जिसे ज्यादातर घंटा घर चौराहे के नाम से जाना जाता रहा है, जिन चौराहों के नाम अलग भी हैं. उन पर भी अंगरेजों के जमाने की घड़ी जरूर लगी है, लेकिन अब इन चौराहों की ज्यादातर शहरों में हालत पतली है. कम से कम घड़ी तो बंद ही पड़ी है. कोई पूछनेवाला नहीं. ये घंटाघर घर के उस बुजुर्ग की तरह हो गये हैं, जिनका नाम तो सब भुनाना चाहते हैं, लेकिन उसके लिए करना कोई नहीं चाहता है. हम जिस शहर मुजफ्फरपुर में रहते हैं. यहां के घंटाघर चौराहे का नाम टावर चौक है. यहां भी घड़ी लगी है. सालों से बंद है.
टावर चौक की दुर्दशा मुजफ्फरपुर में रहनेवालों और यहां आने-जानेवालों से छुपी नहीं है. नेता से लेकर अधिकारी तक सब जानते हैं, लेकिन कहीं से कुछ होता नहीं दिख रहा. साबरमती के संत राष्ट्रपिता बापू की मूर्ति लगी है, लेकिन बेहाल है. मूर्ति के चारों ओर लगा शीशा टूट चुका है. शहर के एक नेता जी ने कहा था कि हम शीशा बदलवा देंगे, लेकिन नेता जी का वादा, तो वादा ही रह गया. वो देखने तक नहीं आये.
टावर पर लगी घड़ी भी बेहाल है, लेकिन उसे अपनी बेहाली से ज्यादा उन वादों पर तरस आता है, जो टावर चौक को लेकर किये जाते रहे हैं. बंद होने के बाद भी घड़ी दिन में कम से कम दो बार सही समय बताती है, लेकिन इसका उद्धार जिनके कंधों पर है, वो वादों पर वादे कर रहे हैं, लेकिन दिन क्या, महीनों औ साल बीत रहे हैं, लेकिन उनका वादा सही साबित नहीं हो पा रहा है. यही टावर की पीड़ा है, क्योंकि इसे अपने हिसाब से सब लोग यूज करते हैं. गुगल पर सरैयागंज टावर, मुजफ्फरपुर सर्च करने पर पिन कोड के साथ पता आने लगा. पिन कोड और पता तो याद है, लेकिन हालत कैसी है, ये याद नहीं.
यह कैसी बिडंबना है, जब किसी की कोई मांग होती है, तो वह पुतला दहन से लेकर रोड जाम करने तक के लिए टावर चौक पर पहुंचता है, जब किसी को बड़ी उपलब्धि मिलती है, तो उसे जताने के लिए भी टावर चौक ही सहारा बनता है. याद है, जब पिछले बार भारत विश्वकप जीता था, चारों ओर से किस तरह से गाड़ियों पर हुड़दंग मचाते हुये लोग टावर चौक पर जमा हुये थे. आतिशबाजी हो रही थी. घंटों तक यह सिलसिला चलता रहा, लेकिन टावर चौक की अपनी चमक का क्या हुआ? क्या कोई याद करता है, उन वीर सपूतों को जिनके नाम इस पर खुद हैं, जिन्होंने युद्ध में अपने प्राण न्योछावर कर दिये. क्या हमारे पुरखों को याद करने का यही तरीका है.
जारी..अगली कड़ी में टावर चौक की घड़ी की जुबानी, उसकी कहानी.

रविवार, 2 जुलाई 2017

मैं मुजफ्फरपुर का चक्कर मैदान हूं- अंतिम भाग


प्रधानमंत्री की सभा खत्म होने के बाद ही हमको लेकर कलह बढ़ने लगी थी, तब हमारे आसपास रहनेवाले लोगों ने साउथ चक्कर की सड़क बनने को अपनी जीत समझ लिया था. आनन-फानन में नरेंद्र मोदी पथ का बोर्ड लगा दिया था, जिसे जश्न के तौर पर देखा गया और परेशानी का दौर शुरू हो गया. हालांकि इससे पहले भी इक्का-दुक्का चीजें होती रहती थीं, लेकिन इसके बाद कटुता बढ़ती गयी. कुछ दिन में उस रास्ते को ट्रैक्टर से जोत दिया गया, जिससे होकर लोग अपने बच्चों को स्कूल छोड़ने और लाने जाते थे, लेकिन तब हमारे आंगन में घूमनेवालों पर पाबंदी नहीं लगी थी, लेकिन लोगों में यह खौफ रहता था कि चक्कर रोड से गुजरेंगे, तो कभी भी चेकिंग हो सकती है, हालांकि इससे आसपास के लोग खुद को महफूज महसूस करते थे.
लोग उन जगहों पर घूमने लगे और अड्डा जमाने लगे, जो प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के हेलीकॉप्टर उतारने के लिए बनाये गये थे. तीन हेलीकॉप्टर उतरे थे उस दिन, जब मोदी जी आये थे. तीनों हैलीपैड पर लोग सुबह होते ही जुटते और कसरत करते. दौड़ते. बैठ कर बातें करते. आसपास हरियाली होने की वजह से शुद्ध हवा उन्हें मिलती थी. आसपास में कई पगडंडी, जिनसे सुबह से शाम तक लोगों का आना-जाना होता था. कितना अच्छा लगता था. सब कुछ सामान्य चल रहा था. छुट्टी के दिन खूब लोग जुटते थे.
हां, एक बात का जिक्र करना मैं भूल ही गया. हमें 2015 का वो दिन भी याद है, जब मिलिट्री में भर्ती के दौरान हमारे आंगन में नंगे बदन युवाओं को बैठा कर परीक्षा ली गयी थी. उन्हें कपड़े उतारने के लिए सिर्फ इसलिए कहा गया था, ताकि वह नकल नहीं कर सकें. यही दलील दी गयी थी, इसके जिम्मेवार अधिकारियों की ओर से. वह अच्छा दिन नहीं था, क्योंकि ऐसा होना नहीं चाहिये थे. हालांकि उसी के बाद यह परंपरा बंद भी हो गयी. अब परीक्षा के समय युवाओं के कपड़े नहीं उतरवाये जाते. यह अच्छा हुआ.
अब तो हमारे आंगन में आने-जाने पर रोक है, लेकिन मैंने सुना है कि हमारे विकास के लिए खाका तैयार किया गया है, जिसमें तमाम तरह के काम होने हैं. पार्क बनना है. लोगों के चलने के लिए पाथ-वे बनना है, जिस पर मार्निग वाक करने की छूट होगी, लेकिन उस छूट का क्या मतलब, जब लोगों की आदत ही बदल जायेगी. कितने लोग हमारे आसपास की सड़क पर टहलते हुये मेरे बारे में चर्चा करते हैं. वह मुङो अच्छा नहीं लगता है. कई बार तो लगता है कि काश मैं कुछ कर सकता, तो अपनी बाहें फैला कर उन लोगों ने अपने आंगन में समेट लेता और खूब मार्निग वाक करने को कहता, ताकि वो सेहतमंद रहें और देश-समाज, अपने परिवार के काम आ सकें. अच्छी सेहत को ही सफलता की कुंजी माना जाता है, जो हमारे आंगन में थी, लेकिन अब वह कुंजी छीन ली गयी है.
यहां हम एक और बात का जिक्र करना चाहता हूं. कुछ आसाजिक तत्व भी छूट का फायदा उठा रहे थे, जो अनैतिक गतिविधियां हमारे आंगन में करते थे. उन्हें रोकने की जरूरत थी. अब तो शराबबंदी है, लेकिन इससे पहले वो नशा पान व मादक पादर्थ हमारे आंगन में आकर लेते थे. यह बिल्कुल अच्छा नहीं था. इसकी भी चर्चा मैं लगातार सुनता था. वह भी मुङो अच्छा नहीं लगता था, लेकिन अब तो मजबूर हूं और उस दिन की राह देख रहा हूं, जब हमारा कायाकल्प होगा और मैं फिर से लोगों के काम आ सकूंगा, उसी दिन मैं खुल कर हंसूगा और खिलखिलाऊंगा. ये हमारे जीवन का स्वर्णिम दिन होगा. तब तक के लिए नमस्कार!

शनिवार, 1 जुलाई 2017

मैं मुजफ्फरपुर का चक्कर मैदान हूं

मैं मुजफ्फरपुर का चक्कर मैदान हूं. ज्यादा पुरानी बात करने का आज मूड नहीं है. फिर कभी लगेगा, तो बताऊंगा, मैं क्या था और कैसे-कैसे क्या होता गया. अभी पिछले दो-तीन साल के दौरान मेरे साथ क्या-क्या हुआ, यह बताने का मूड है. आज मुङो चाक-चौबंद कर दिया गया. गेट लगा दिये गये हैं. कटीले तारों से घेर दिया गया है. इससे भी दिल नहीं भरा, तो पहरे पर संगीनधारी जवानों को लगा दिया गया है. कोई भी मुझसे मिलने आना चाहता है, तो उसे सड़क से ही वापस कर दिया जाता है. हालत तो यह हो गयी है कि अब लोग मेरे आसपास से बनी सड़क से गुजरने से भी कतराने लगे हैं. उन्हें लगता है कि पता नहीं कब संगीनधारी जवान उन्हें रोक लें और सुरक्षा के नाम पर जांच शुरू कर दें. जांच तक तो ठीक है, लेकिन जवानों की ओर से कई बार व्यवहार को लेकर शिकायतें आयीं. आवाज उठी, लेकिन कोई असर नहीं हुआ.
हालत ये हो गयी है, जहां पर कुछ महीने पहले छोटे-छोटे नौनिहाल घूमते थे, खेलते थे, किलकारियां लेते थे. उनके अभिभावक उन्हें देख कर प्रसन्न होते थे और खुद का बीपी, सुगर ठीक करने के लिए मेरे आंगन में तेजी से चलते और दौड़ लगाते थे. उन सब जगहों पर खर-पतवार उग गया है. ग्वाले दूध लेकर झूमते हुये मेरे आंगन से गुजरते थे, ताकि वह माड़ीपुर से चक्कर मैदान रोड पर जल्दी से जल्दी पहुंच जायें. सुबह तो मुङो सबसे पहले उठ जाना पड़ता था, क्योंकि तीन बजे के बाद ही खुद की सेहन चाहनेवाले लोग मेरे आंगन में आकर टहलने लगते थे. यह कुछ महीनों पहले तक होता था, लेकिन उसके बाद अचानक क्या हुआ, कुछ समझ में नहीं आया और अचानक सबकुछ बंद कर दिया गया. सुरक्षा के नाम पर.
अब मेरी हाल के सालों की कहानी सुन लीजिये. जुलाई 2015 की बात है. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की मुजफ्फरपुर यात्र तय हो गयी थी. इस बात पर चर्चा हो रही थी कि उनकी रैली चक्कर मैदान या फिर सहारा मैदान में होगी, लेकिन जल्दी ही साफ हो गया कि रैली चक्कर मैदान में होगी. इसके बाद साफ-सफाई, हैलीपैड और मंच बनने का दौर शुरू हुआ. बड़ी तैयारी की गयी. उस समय साउथ चक्कर रोड की सालों से टूटी सड़क भी रातोंरात प्रधानमंत्री के नाम पर बन गयी. रैली में जिस तरह से भीड़ उमड़ी, उसको लेकर मिसालें दी जाने लगीं. लोग अनुमान लगा रहे थे कि क्या इससे ज्यादा भीड़ कभी चक्कर मैदान में उमड़ी होगी? उस समय मेरा सीना फूल कर गदगद हो गया था. मुङो इस बात का गर्व हो रहा था कि मैं जिस देश और क्षेत्र की धरोहर हूं. वहां के लोग हमारे आंगन में आये हैं. मुङो बड़ा अच्छा लग रहा था, मैं मगन था.
जारी..