बुधवार, 16 अगस्त 2017

टूटा बांध, आया सैलाब

नदियों को बांधने का प्लान जिसने भी बनाया होगा, उसने शायद इस तरह की विभीषिका के बारे में नहीं सोचा होगा, अगर बांध टूट जाये, तो क्या होता है. आप देख सकते हैं. सीतामढ़ी के रुन्नीसैदपुर में बागमती का बांध टूटा, तो क्या किस तरह से पानी उन इलाकों को फैलने लगा, जिन्हें सुरक्षित बता दिया गया था. बांध की मरम्मत के नाम पर खर्च होनेवाले करोड़ों रुपयों पर भी सवाल उठने लगा है.
https://www.youtube.com/watch?v=RujYScbZkOQ

रविवार, 13 अगस्त 2017

हाल की तीन घटनाओं से लें सबक

हाल के दिनों की तीन बड़ी घटनाएं, जिन्होंने समाज पर किसी न किसी रूप में असर डाला. सबसे लेटेस्ट घटना बक्सर के डीएम मुकेश पांडेय का आत्महत्या कर लेना. इसके जो कारण उन्होंने बताये हैं, उनके सामने आने के बाद जिस तरह से उनके ससुर का बयान आया है वो. मुकेश ने अपनी आत्महत्या की वजह पत्नी व माता-पिता के बीच संबंधों में कड़वाहट को बताया है. दूसरी घटना रेमंड कंपनी के मालिक का किराये के मकान में रहना. वजह बेटे की बेरुखी. तीसरी घटना अरबपति महिला का उसके पॉश इलाके के फ्लैट में कंकाल मिलना. उसकी मौत का पता तब चला, जब डॉलर कमा रहा बेटा, अमेरिका से सालभर बाद लौटा.
तीनों ही घटनाएं बजारबाद के बाद सामाजिक तानेबाने में आये बिखराव को बयान करती हैं. किस तरह से पद और प्रतिष्ठा होने के बाद भी लोग एकाकी हो जाते हैं. उनकी मदद को कोई नहीं होता है और कैसे उन्हें जीवन में परेशानियां उठानी पड़ती हैं. ऐसी तमाम घटनाएं समाज में हो रही होंगी. हो सकता है, जो इनसे भी भयावह हैं, लेकिन सामने नहीं आतीं. पिछले कई दिनों से लगातार ये घटनाएं जेहन में कहीं न कहीं घूम रही थीं. समाज की कड़वी हकीकत से रू-ब-रू करा रही थीं.
आखिर इस अंधी दौड़ में लोग किसके लिए यह सब कर रहे हैं, क्यों उन्हें समय पर होश आता है? क्या जीवन का असली उद्देश्य पैसा कमाना ही है? ऐसे अनगिनत सवाल? इसी क्रम में कुछ साल पहले की वरिष्ठ समाजवादी चिंतक सच्चिदा बाबू से हुई मुलाकात याद आयी. सच्चिदा बाबू वो व्यक्ति हैं, जो न्यूनतम जरूरतों में रहते हैं. ऐसा नहीं है कि वो आधुनिक सुख-सुविधाओं की चीजें नहीं रख सकते हैं, लेकिन वह इनका उपयोग नहीं करते हैं. बिजली कनेक्शन की जगह सोलर लाइट है. बिजली नहीं, तो पंखे का सवाल ही नहीं. गरमी की तपती दुपहरी में हम लोग पहुंचे थे, जिसमें वो बहुत की सुकून से थे. देश-समाज पर बताने लगे, तो इसी क्रम उन्होंने यूरोप से जुड़ी एक कहानी सुनायी, जिसमें विकास और उससे आयी समृद्धि से किस तरह से बेचैनी आती है, उसके बारे में बताया.
पॉश कालोनी में एक सपन्न परिवार रहता था, जिसके सभी सदस्यों के कमरे अलग थे. गाड़ियां अलग थीं. सबका घर आने-जाने का टाइम अलग था. सब अलग-अलग आते-जाते और अपने हिसाब से रहते थे. उस कोठी से कुछ ही दूर पर मजदूरों की एक झोपड़ी थी, जिसमें कई मजदूर रहते, जिनमें आपस में गजब का प्रेम. सुबह साथ में उठते, खाना बनाते, खाते और काम पर निकल जाते. शाम को वापस लौटते, तो मिल कर मनरंजन करते. खाना बनाते. खाते और सो जाते. किसी तरह का तनाव उनकी जिंदगी में नहीं था. इससे उलट संपन्न घर में तनाव ही तनाव. घर के सब सदस्य जब कभी भी मिलते, तो आपस में वाद-विवाद के और कुछ नहीं होता. झगड़े की वजह से कुछ ही देर में सब अलग हो जाते. घर के मुखिया को लगातार यह बात परेशान करती कि आखिर क्या वजह है, जो हमारे घर में लाख कोशिशों के बाद भी शांति नहीं है.
पड़ोस की झोपड़ी में मजदूरों के बीच प्रेम को देख कर वह प्रेरणा लेते. एक दिन उनसे नहीं रहा गया और वह झोपड़ी में पहुंच गये. वह सूत्र जानने के लिए जिससे मजदूर आपस में मिल कर खुश रह रहे थे. जीवन में कोई तनाव नहीं था. उनके बारे में सपन्न परिवार के मुखिया ने जाना और वापस अपने घर आ गये. उनके मन में लगातार उधेड़बुन चल रही थी. इसी बीच सोचने लगे. इतना अच्छे से झोपड़ी के लोग रहते हैं, क्यों न उनकी मदद की जाये, ताकि उनका जीवन स्तर भी कुछ ऊपर उठ सके. यही सोच कर उन्होंने कुछ सोना, मजदूरों को के दिया. इसके बाद मजदूरों की दिनचर्या बदल गयी. सोने के साथ झोपड़ी में समृद्धि आयी थी, लेकिन उनका सुकून और चैन धीरे-धीरे छिनने लगा. वजह वही सोना बना. सब मजदूर काम पर जाते, तो एक को झोपड़ी में रहना पड़ता. सोने की रखवाली के लिए. इसके बावजूद दूसरे मजदूरों में यह आशंका लगी रहती, कहीं, झोपड़ी में रुकनेवाला मजदूर बेइमानी नहीं कर ले. शाम का मनरंजन बंद हो गया, क्योंकि सब लौटते, तो एक-दूसरे को शक की निगाह से देखते. मजदूरों के बीच कभी-कभी किसी न किसी बात को लेकर झगड़ा भी होने लगा.
कहने का अर्थ यह कि समृद्धि अपने साथ किस तरह से एकाकीपन, आपस में विश्वास की कमी, एक-दूसरे को शक की निगाह से देखना, झगड़ा-लड़ाई, वह सब लेकर आयी, जिससे किसी व्यक्ति का सुकून छिन जाये. अभी हम लोग जिस समाज में रह रहे हैं. उसकी सच्चाई इससे अलग नहीं, बल्कि इससे भी ज्यादा कड़वी लगती है. कहते हैं कि हम मंगल गृह पर पहुंच गये, लेकिन अपने पड़ोस के फ्लैट में रहनेवाले व्यक्ति के बारे में नहीं जानते. हमने इस तरह से अपने को बना लिया है. सामाजिक सुरक्षा को ढाचा था, उस पर बड़ी चोट लगी है. प्राइवेसी के नाम पर. स्वतंत्रता के नाम पर और तमाम वजहे हैं, जिन पर समाज में बड़े पैमाने पर बहस की जरूरत है. मानव के विकास की यात्र की याद करें, तो शुरुआती दिनों से व्यक्ति समूह में रहते आये हैं, जिसमें हम सब एक-दूसरे से सुख-दुख के बारे में जानते रहे हैं, लेकिन विकास के बाद जब हम वर्तमान स्थिति में पहुंचे हैं, तो हमने खुद को अकेला बना लिया है. बच्चों को पिता पर विश्वास नहीं रह गया है. पति-पत्नी के रिश्तों की अहमियत नहीं रह गयी है. परिवार नाम की इकाई लगातार टूट रही है.
ऐसे में सवाल यह उठता है कि आखिर इसका हल क्या है? तो जानकार यही कहते हैं कि हमें फिर से अपनी जड़ों में लौटना होगा, तभी हम इन आधुनिक परेशानियों से बच सकते हैं. खुद को सेव कर सकते हैं. समाज को सेव कर सकते हैं.

शनिवार, 29 जुलाई 2017

मुजफ्फरपुर के पास विकास का अच्छा मौका

यह संयोग ही है कि 72 घंटे पहले प्रदेश में सत्ता बदली, तो नयी सरकार बनने की औपचारिकताएं पूरी होने लगीं. इसी बीच मुजफ्फरपुर से नगर से विधायक सुरेश शर्मा को मंत्री बनाने जाने की मांग भी जोर होने लगी. नीतीश कुमार ने मुख्यमंत्री पद की शपथ भी नहीं ली थी. इधर, सुरेश शर्मा को मंत्री बनाये जाने को लेकर सोशल मीडिया से लेकर राजनीतिक गलियारों में चर्चाओं ने जोर पकड़ लिया. जातीय समीकरण बैठाया जाने लगा, लेकिन शर्मा जी जिस तरह से के नेता हैं और बड़े नेताओं से उनके जैसे संबंध हैं. उसको लेकर उनकी दावेदारी लगभग तय मानी जा रही थी. मौजूदा समय में पर्यटन विभाग की समिति के सभापति तो हैं ही. अब मंत्री पद की शपथ लेने जा रहे हैं.
पूरा घटनाक्रम जिस तरह से चला. वह अपने आप में बिल्कुल अलग रहा. शुक्रवार की शाम को जब शर्मा जी पटना से दिल्ली के लिए रवाना हुये, तो यह माना जाने लगा कि वह मंत्री बनने जा रहे हैं, क्योंकि भाजपा के कोटे से मंत्री बननेवाले ज्यादातर विधायकों को दिल्ली तलब कर लिया गया था. शनिवार की सुबह से चर्चाएं हो रही थीं, लेकिन दोपहर आते-आते इस पर मुहर लग गयी. मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने खुद फोन किया और इसके बाद राजभवन से औपचारिक रूप से न्योता आ गया.
यह बात तो शर्मा जी के मंत्री बनने की रही, लेकिन मुजफ्फरपुर जिला खासकर शहर पिछले 12 सालों में जिन हालात में है. हम 2005 में राज्य में सत्ता परिवर्तन के बाद की बात कर रहे हैं. वह किसी से छुपा नहीं है. शहर का सही तरह से विकास नहीं हो रहा है. इसका मलाल शर्मा जी को भी रहा है. हालांकि वह साल में दो-तीन बार दिल्ली का चक्कर लगा कर केंद्रीय मंत्रियों से शहर के लिए गुहार लगाते रहे हैं, लेकिन अब खुद मंत्री बन गये हैं. ऐमे में शहर को उनसे विकास की उम्मीदे हैं, क्योंकि अपना शहर स्मार्ट सिटी में भी आ गया है. इस सबसे बड़ा यह है कि अब निगम में भी जदयू के प्रभाव वाले लोगों की नगर सरकार चल रही है. ऐसे में भाजपा-जदयू के साथ आने से एक अच्छा गठजोड़ भी बन गया है. केंद्र में भाजपा की सरकार है, तो प्रदेश में भाजपा की भागीदारीवाली सरकार. मुजफ्फरपुर नगर निगम में भाजपा की सहयोगी जदयू की प्रभुत्ववाली नगर सरकार. ऐसे में नगर का विकास होगा. यह आशा शहर के लोग लगाये बैठे हैं, क्योंकि अब विकास के रास्ते में कहीं भी बाधा नहीं दिखायी पड़ रही है.
शर्मा जी जब से विधायक हैं, तब से नगर निगम में उनके प्रभुत्ववाली सरकार नहीं रहने का मलाल भी उन्हें रहा है. वह लगातार इसके लिए प्रयास भी करते रहे हैं. इस बार के निगम चुनाव में भी उन्होंने खुल कर समर्थन किया था, लेकिन मेयर में उनके समर्थनवाले प्रत्याशी को जीत नहीं मिल सकी थी, लेकिन अब स्थिति बदल गयी है. ऐसे में शहर के लोग कह रहे हैं कि यहां पर मूलभूत सुविधाओं के दिशा में काम होगा. शहर में जाम, पार्किग, शौचालय जैसी समस्याओं का समाधान होगा. साथ ही स्मार्ट सिटी बनने की दिशा में अपना शहर आगे बढ़ेगा.

शुक्रवार, 28 जुलाई 2017

मैं बिहार की सबसे बड़ी पंचायत हूं

मैं बिहार विधानसभा हूं. आजादी के बाद से मैंने बहुत से मंजर देखे हैं. उन नेताओं को भी देखा, सुना और समझा है, जिनको आधार बना कर आज के नेता राजनीति करते हैं, लेकिन अभी जिस तरह का परिवर्तन दिख रहा है. उसे देख कर मैं भी हैरान हूं. हां, हैरान हूं, लेकिन उतना नहीं, जितना आप सोच-समझ रहे हैं, क्योंकि दो 2005 से पहले हमारा क्या हाल हो रहा था. वह तो आपने भी देखा होगा. खैर, कहां हम अतीत में जा रहे हैं. अभी हमारे यहां जो चल रहा है. उसी पर बात करते हैं.
वह सरकार जो दिन पहले तक अस्तित्व में थी. वह भूतकाल की हो गयी है. ऐेसा नहीं हुआ कि चुनाव हो गया है और उसमें कोई हारा और जीता है. यह तो सिद्धांतों की दुहाई देकर हार और जीत तय की गयी है. उन चुने हुये राजनेताओं के बीच में, जिन्हें लगभग दो साल पहले प्रदेश की जनता ने चुना था, जिसे हम लोकतांत्रिक प्रक्रिया कहते हैं, लेकिन इस समय मेरे अंदर मिक्स फीलिंग है, क्योंकि जब महागठबंधन बना था, तो इसे बेमेल कहा जा रहा था. उस दौरान इसी में शामिल कई नेता हमारे परिसर में आते थे और कहते थे कि नीतीश जी ने ये सही नहीं किया. भले ही वह सिद्धांत की बात कर रहे हैं, लेकिन हमारा साथ तो 17 साल पुराना था. हम उनसे मिले हैं, जिनके खिलाफ हमें जनता ने जिताया था और प्रचंड बहुमत दिया था. अब समय का चक्र घूम गया है. वही, लोग जो 17 साल तक साथ थे. लगभग दो साल बिछड़ने के बाद फिर से एक हो गये हैं. हालांकि इस दौरान दोनों ने एक-दूसरे की जमकर आलोचना की. डीएनए तक में दोष देखा था, लेकिन अब राज्यहित की दुहाई दी जा रही है.
राज्यहित की दुहाई के बीच हमारे प्रांगण में वह नजारा दिख रहा है, जो आनेवाले दिनों में स्वाभाविक हो जायेगा, लेकिन अभी हमारे लिये नया है. तेजस्वी और तेज प्रताप, जो कल तक वीआइपी रास्ते के जरिये हमारे यहां आया करते थे. आज उन्होंने वह आम रास्ता चुना है, जिससे होकर विधायक आते-जाते हैं. राजद के विधायक, जो कल तक गठबंधन को अटूट बता रहे थे. वही, अब नीतीश कुमार को मौकापरस्त बता रहे हैं. अपने आलाकमान की हां, में हां और उनकी बातों को दोहरा रहे हैं, लेकिन मेरे अंदर जो चल रहा है. वो इससे कहीं ज्यादा है. तोड़फोड़ की आवाज भी आ रही है. उसका क्या होता है, यह तो मैं नहीं कह सकता, लेकिन यह हो रहा है.
समय बढ़ने और बदलने के साथ का यह तालमेल भी देखना और सुनना है, क्योंकि मेरा निर्माण भी इसीलिए हुआ था कि बिहार की उस महान जनता का सम्मान हो, जो अपने बीच से लोगों को चुन कर हमारे यहां भेजती है. हां, ये बात और है कि चुनाव के बाद, वही लोग उस जनता के कम ही रह जाते हैं, जिन्होंने उन्हें चुनाव होता है. यह मैं कल भी देख रही थी और आज भी देख रही हूं. चुनाव से पहले वह सबके रहते हैं, लेकिन चुनाव के बाद केवल अपनों के रह जाते हैं. शायद आज जो नजारा बदला दिख रहा है. इसके मूल में भी यही है.

गुरुवार, 27 जुलाई 2017

जो आज साहिब-ए-मसनद हैं, कल नहीं होंगे, किरायेदार हैं..

प्रसिद्ध शायर राहत इंदौरी ने अपने एक शेर के जरिये राजनीति पर जबरदस्त टिप्पणी की है..
जो आज साहिब-ए-मसनद हैं, कल नहीं होंगे.
किरायेदार हैं, जाती मकान थोड़ी है.
सभी का खून है, शामिल यहां की मिट्टी में
किसी के बाप का हिन्दुस्तान थोड़ी है.
पिछले लगभग 24 घंटों में बिहार ने कुछ ऐसा ही मंजर देखा है, जो कल तक सत्ता में थे. आज नहीं हैं. राजद और कांग्रेस बिहार की सत्ता से बाहर हो चुके हैं. ये आज की कड़वी सच्चई है. 2015 के चुनाव से पहले जब यह महागठजोड़ बना था, तो कयास लगाये जा रहे थे कि मोदी की लहर में यह बह जायेगा, लेकिन बिहार ने भाजपा को ऐेसा सबक मिला, जो पार्टी को लगातार परेशान कर रहा था. राजनीति के माहिर खिलाड़ी लालू प्रसाद ने चुनाव के दौरान ही ऐसा दांव मारा कि भाजपा चारों खाने चित हो गयी.
चुनाव के बाद जो हालात बने और जिस तरह से नयी सरकार का गठन हुआ. उस समय से ही कयासों का दौर शुरू हो गया. राजद में शामिल कई नेताओं पर जिस तरह से राज्य सरकार की ओर से कार्रवाई शुरू हुई, तभी यह तय हो गया था कि सरकार चाहे जो हो, अपना कार्यकाल पूरा नहीं कर सकेगी. पहले से चारा घोटाले में कानूनी दांव-पेच में उलङो लालू यादव और उनके परिवार पर जब इन्कमटैक्स, इडी और सीबीआइ ने शिकंजा कसना शुरू किया, तो स्थितियां रातोंरात बदल गयीं. बिहार में अटूट कहे जानेवाले गठबंधन की चूलें हिलने लगीं.
लालू प्रसाद की कानूनी मजबूरी देखिये, जब सीबीआइ के आरोपों को लेकर नीतीश कुमार इस्तीफा देने राजभवन पहुंचे, तो वह रांची में चारा घोटाले के मामले में पेशी के लिए निकलने की तैयारी कर रहे थे. आनन-फानन में पत्रकारों से बात की और कुछ समय परिवार के साथ बिताने के बाद रांची के लिए सड़क के रास्ते निकल गये, लेकिन राजनीति में माहिर लालू ने समय का उपयोग किया. वो अपने साथ पत्रकारों को लेकर रांची के लिए निकले, जिनसे रास्ते में बात करते रहे और मुख्यमंत्री नीतीश कुमार पर निशाना साधते रहे. साथ ही केंद्र की भाजपा सरकार विशेष कर प्रधानमंत्री मोदी व भाजपा अध्यक्ष अमित शाह उनके निशाने पर रहे.
रांची के रास्ते में जाते समय लालू को हाव-भाव वैसे नहीं थे, जिनके लिए वो जाने जाते हैं. सभी सवालों का बड़ी ही विनम्रता व सधे ढंग से जवाब दे रहे थे. साथ ही लगातार घटनाक्रम पर भी नजर रखे हुये थे. पटना में क्या हो रहा है, इसकी पल-पल की जानकारी ले रहे थे. मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने आधी रात को सरकार बनाने का दावा पेश किया, तो उप मुख्यमंत्री रहे तेजस्वी यादव भी राजभवन पहुंच गये. वह लालू के अंदाज में ही नीतीश कुमार पर निशाना साध रहे थे. इससे पहले तेजस्वी ने कभी भी नीतीश कुमार के खिलाफ खुल कर नहीं बोला था. वह सधे हुये राजनेता के रूप में बोल रहे थे.
रांची में पेशी के बाद लालू प्रसाद ने पत्रकारों से बात की, तो उन्होंने महत्मा गांधी से लेकर जेपी, लोहिया, 74 का आंदोलन सब आया. लगभग सवा घंटे तक वह पत्रकारों से सामने अपनी बात रखते रहे. इस दौरान वह कई मौकों पर पुराने रंग में भी दिखे. अपने अंदाज में जदयू व भाजपा के नेताओं पर निशाना साधा. साथ ही बसपा की मुखिया बहन मायावती को फिर राज्यसभा में भेजने का न्योता दिया. लालू की राजनीति में यह जरूर देखने को मिला है. उन्होंने तमाम लोगों का भला किया है. याद कीजिये, रामविलास पासवान, जब कोई साथ नहीं था, तो राजद सुप्रीमो लालू प्रसाद ने ही साथ दिया था. 2014 के चुनाव में हार के बाद नीतीश के सामने जब कोई रास्ता नहीं था, तो लालू प्रसाद ने ही बढ़ कर हाथ थामा था. ऐसे तमाम उदाहरण हैं, जिनमें लालू यादव राजनीतिक तौर पर एहसान करते रहे हैं, लेकिन चारा घोटाले के आरोपों के बाद लालू जिस राजनीति का प्रतीक बने. वह उन्हें लगातार बेचैन करती रही है. अब सीबीआइ, इडी और इनकम टैक्स के शिकंजे ने उनके परिवार के लिए ऐसी मुश्किलें खड़ी की हैं, जो आनेवाले सालों में उनका पीछा नहीं छोड़ेगीं.

बुधवार, 26 जुलाई 2017

जो चर्चा हो रही थी, नीतीश ने वही किया

राजनीति को संभावनाओं को खेल कहा जाता है. क्रिकेट की तरह अंतिम समय तक क्या होगा, इसमें भी तय नहीं होता, लेकिन बुधवार को जब नीतीश कुमार ने महागठबंधन से अलग होने का फैसला लिया, तो यह उन कयासों को पुख्ता करनेवाला था, जो 2016 से ही लगाये जा रहे थे, लेकिन तब यह तय नहीं था कि तेजस्वी के मुद्दे पर सरकार चली जायेगी और गठबंधन टूट जायेगा. पिछले दिनों जब तेजस्वी पर आरोप लगे, तो मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने पहले चुप्पी साधे रखी, लेकिन अपनी पार्टी के विधायकों की बैठक के बाद यही कहा कि आरोपों का जवाब सार्वजनिक तौर पर दिया जाना चाहिये.
जदयू के स्टैंड के बाद लंबा अर्सा मुख्यमंत्री नीतीश कुमार को यह तय करने में लगा कि वह किस तरह से गठबंधन को तोड़ा जाये. इसे यूं भी कह सकते हैं कि भाजपा से बात करने और नया गठबंधन तय करने में मुख्यमंत्री ने जल्दीबाजी नहीं दिखायी. इसके उलट जदयू व भाजपा लगातार अपने स्टैंड पर कायम रहे. भाजपा तेजस्वी को मंत्रिमंडल से बर्खास्त करने की मांग करती रही, तो जदयू यह साफ करता रहा कि जिन लोगों पर आरोप लगे हैं, उन्हें सार्वजनिक तौर पर सफाई देनी होगी. इसके बीच जब कैबिनेट की बैठक के बाद उप मुख्यमंत्री तेजस्वी यादव ने मुख्यमंत्री नीतीश कुमार से मुलाकात की थी, तो यह लगा था कि बात बन गयी है, लेकिन इसके बाद भी जदयू की ओर से कहा गया कि पार्टी अपने स्टैंड पर कायम है और भ्रष्टाचार से समझौता नहीं कर सकती है.
राजनीतिक घटनाक्रम के बीच जदयू का थिंक टैंक लगातार यह भी जानने की कोशिश करता रहा कि अगर गठबंधन टूटता है, तो उसे किस तरह का नुकसान हो सकता है. उससे जुड़े लोग लगातार इस बात का आकलन कर रहे थे कि कौन लोग उसके साथ खड़े होंगे. अगर वह नये सिरे से भाजपा के साथ गठबंधन करता है तो. वहीं, भाजपा के साथ फिर से जाने पर उसको किस तरह का नफा-नुकसान हो सकता है. यह भी आकलन जदयू की ओर से किया जाता रहा. इस बीच कांग्रेस के उपाध्यक्ष राहुल गांधी से मिलने के लिए नीतीश कुमार दिल्ली गये, तो लगा कि बात बन सकती है, लेकिन राहुल गांधी से मुलाकात के बाद जो बयान आया, उससे साफ हो गया था कि अब गठबंधन का बचाना मुश्किल ही नहीं नामुमकिन जैसा है.
मुख्यमंत्री नीतीश कुमार शुरू से ही अपनी छवि को लेकर सतर्क रहे हैं. वह वसूलों की राजनीति करनेवाले नेता के तौर पर जाने जाते रहे हैं. समय-समय पर उन्होंने इसका प्रमाण भी दिया है. 2014 में केंद्र में भाजपा की सरकार बनने के बाद उन्होंने मुख्यमंत्री का पद छोड़ दिया था. हालांकि जीतनराम मांझी से रिश्ते बिगड़ने के बाद वह फिर मुख्यमंत्री बने थे. ऐसे ही अब जब भ्रष्टाचार का मामला सामने आया है, तो उन्होंने एक और उदाहरण पेश किया है.
अब यह तय हो चुका है कि वह भाजपा के साथ मिल कर फिर से नयी सरकार बनाने जा रहे हैं. ऐसे में नयी सरकार पर यह दबाव होगा कि वह प्रदेश के लोगों की उम्मीदों पर खरा उतरे, क्योंकि पिछले कुछ महीनों से पूरे प्रदेश में अपराध बढ़े हैं. विकास के काम भी ज्यादा तेजी से नहीं चल रहे हैं. हालांकि इन 20 महीनों की सबसे बड़ी उपलब्धि शराबबंदी रही है, जिससे प्रदेश के एक बड़े तबके को फायदा हुआ है. इसे ऐतिहासिक कदम भी कहा जा सकता है.

सोमवार, 24 जुलाई 2017

हमने मशीनों के सामने आत्मसमर्पण किया

बहुत संकीर्ण हो गये हैं हम. हमारे जीवन का मशीनीकरण हो गया है. हम स्विच दबाते हैं, तो बत्ती जल जाती है. सुबह से रात तक के जीवन में मशीन का प्रवेश है. कंप्यूटर है, गुगल है. इन विरोधाभासों को कैसे ठीक करें? हम मंगल पर पहुंच रहे हैं, लेकिन अपने पड़ोसी के बारे में नहीं जान रहे हैं. बहुत संकीर्ण हो गये हैं. हमको फिर से इस ढाचे को व्यवस्थित करना होगा. फिर से सोचना होगा. थोड़ा-सा मशीन और ज्ञान की जो भूमिका है, उसको घटाना होगा. और थोड़ा- सा हमारा जो अपना कंट्रोल है, उसे बढ़ाना होगा. हम मशीनों के सामने आत्मसमर्पण कर गये हैं. हमारे दिमाग को मैकेनाइज्ड कर दिया गया है.
वीडियो गेम में बच्चे इतना मशगूल हो गये, उन्हें होश- हवास नहीं रहा. एप्पल के संस्थापक स्टीव जॉब्स, वो अपने घर में बच्चों को 21 साल तक आइपैड का इस्तेमाल नहीं करने देते थे. उस आदमी ने एक इंटरव्यू में कहा कि नीम-करोली बाबा ने इस दुनिया को क्या दिया? हमने इस दुनिया को कुछ दिया है. मैं पूछता हूं स्टीव जॉब्स से कि तुम नीम करोली के चरणों की धूल के बराबर नहीं हो, क्योंकि तुम दोहरे मापदंड अपनाये हुए हो. उस चीज को घर में नहीं दे रहे हो, क्योंकि तुम समझते हो कि वह नुकसानदेह है, लेकिन उसी को बेच कर तुम करोड़पति-अरबपति हो गये. दूसरे के बच्चे का नुकसान हो, लेकिन तुम्हारे बच्चे का नुकसान ना हो, यह क्या है? इसलिए मैं कहता हूं कि नये सिरे से हमें देखना होगा कि मशीन की जीवन में कहां तक इजाजत है?
ये कंप्यूटर, टीवी हमारे जीवन में हमला है. विजुअल मीडिया ने त्रस्त कर रखा है. गंदी भाषा का इस्तेमाल किया जाता है. मनुष्य जरा चेते. जरा सावधान हो. कैसा राक्षस को हमने जन्म दिया है, जो हमको खा रहा है. ये भस्मासुर है. ये शिव का आशीर्वाद प्राप्त कर शिव को ही जलाने चला है. शिव भाग रहे हैं. इसलिए हमें निश्चित रूप से बैठना होगा. पुनर्मूल्यांकन करना होगा, पूछना होगा कि हमारा रिश्ता मशीन के साथ कैसा हो. 
- भाईश्री के साक्षात्कार का एक अंश. साक्षात्कार हरिवंश सर ने किया है.

रविवार, 23 जुलाई 2017

मिथिला का ऐेसा परिवार, जिसकी तीन पीढ़ियां बनीं वाइसचांसलर

मिथिला का एक परिवार, जिसमें दादा, पिता और बेटा, तीन जनरेशन इलाहाबाद विश्वविद्यालय के कुलपति हुए. लेट डॉ गंगानाथ झा, डॉ अमरनाथ झा और डॉ आदित्यनाथ झा. गंगानाथ झा की कहानी है कि जब वह कुलपति हुए, तो ज्वाइन करने के बाद अपने गांव मां को प्रणाम करने गये. बहुत भीड़ थी. मां को प्रणाम किया, तो मां ने पूछा- किं भेलों बच्च. मां को कैसे कहते. फिर भी कहे- वाइसचांसलर. मां ने कहा- मास्टर कहया ऐब. मास्टर का कितना स्टेटस था कि वो अपने बेटे से कह रहीं हैं कि आप मास्टर कब होइएगा? आप शिक्षक कब होइएगा? वो वाइसचांसलर का अर्थ नहीं समझ रहीं थीं, अपने बेटे से कह रहीं थी कि आप मास्टर कब होइएगा? आज भी यह तीनों नाम लीजेंड हैं. डॉ आदित्यनाथ झा, आइसीएस के बाद जब रिटायर कर रहे थे, तब जवाहर लाल नेहरू ने उन्हें बुलाया. कहा कि तुम तो अब रिटायर करोगे. बताओ, तुम्हारी कुछ इच्छा है, तो उन्होंने कहा कि इलाहाबाद विश्वविद्यालय का कुलपति बना दिया जाता. तब नेहरू ने कहा कि यह कौन-सी बड़ी बात है. तुम कुछ और कहो. उन्होंने कहा कि नहीं, यही मेरी अंतिम इच्छा है. मेरे पिता जी. मेरे दादाजी वाइसचांसलर रहे हैं. हम भी रहेंगे.

हर एक मैथिल और बिहारी के लिए ये गर्व की बात है. जिस यूनिवर्सिटी में दादा वाइसचांसलर हुए. उसे में पिता और बेटा भी. यह शायद इतिहास में बहुत कम हुआ होगा, लेकिन हमारे बिहार और मिथिला की यही थाती है. प्रभात खबर में छपे भाई श्री के साक्षात्कार का एक प्रसंग. यह अद्भुत साक्षात्कार हरिवंश सर ने किया है.

शनिवार, 22 जुलाई 2017

प्रकृति से प्यार सच्ची मानवता

भाई शेखर जी से पहली बार कब मिलना हुआ था. ठीक से याद नहीं, लेकिन 2013 में ठंड के मौसम में कंबल वितरण के दौरान हम कुछ घंटे साथ थे. उस समय शेखर जी रोटरी क्लब के सचिव थे और अध्यक्ष थे डॉ एचएन भरद्वाज. कंबल वितरण के दौरान शेखर जी के विचार जानने का मौका मिला. इसके बाद से ज्यादातर फेसबुक की आभासी दुनिया के जरिये शेखर जी को देखता रहा हूं. आज उनके विद्यालय की एक तस्वीर देखी, तो लगा कि कुछ लिखना चाहिये शेखर जी के बारे में. हमें ये मौका फेसबुक की दुनिया तो देती ही है.
तस्वीर के कुछ बच्चे गमलों में लगे प्लांट (पौधों) के प्रति अपना प्यार जता रहे हैं. इसका कैप्शन है, प्रकृति की देखरेख और उसके प्रति प्यार ही सच्ची मानवता है. इससे पहले मुङो याद नहीं किसी स्कूल के छोटे बच्चों की ऐसी तस्वीर मैंने देखी है. हो सकता है, अन्य स्कूलों में बच्चों को ऐेसा होता हो. अगर ऐसा है, तो मैं उसे सलाम करता हूं, क्योंकि ऐसे दौर में जब लगातार प्रकृति के दोहन की बात हो रही है, उसमें उसके प्रति लगाव बड़ी सोच का परिचायक है. मुङो लगता है कि यह सोच शेखर जी में है.
यह पहला मौका नहीं है, जब उनकी सकारात्मक सोच दिखी है. वह अपने स्कूलों में लगातार ऐसे आयोजन करते रहते हैं, जिससे बच्चों में अच्छे संस्कार पड़ें. यहां यह उल्लेख करना जरूरी है कि यह आदतें, उन बच्चों को सिखायी जा रही हैं, जो पांच से दस साल के बीच की है, जो आनेवाले समय में अपने देश व समाज का भविष्य हैं. अगर बच्चों में यह सीखते हैं, तो हम कैसे समाज का निर्माण करने जा रहे हैं. इसे कहने और सोचने में गर्व का एहसास होता है.
हाल में जब शेखर जी रोटरी क्लब से अध्यक्ष बने, तो मुलाकात हुई. इस दौरान सामाजिक मुद्दों पर देर तक चर्चा होती रही. वो कहने लगे कि हम अपने कार्यकाल के दौरान बच्चों में अच्छी आदतों को लेकर अभियान चलायेंगे. उनको छोटी-छोटी बातों के बारे में बतायेंगे. कुछ साल पहले सरकार ने खाने से पहले हाथ धोने की योजना शुरू की थी, जिसमें बच्चों को बताया जाता था कि हाथ धो कर खाना खाने से क्या फायदे होते हैं? हाथ, कैसे धोना चाहिये, ताकि सही असर हो? यह अभियान फिर से रोटरी के जरिये शेखर जी चलानेवाले हैं.
वह कहते हैं कि हम अपने स्कूलों में ज्यादा छात्रों की संख्या नहीं बढ़ाना चाहते हैं. यही वजह है कि जैसे तीन सौ के आसपास बच्चे होते हैं. हम दूसरी ब्रांच शुरू कर देते हैं. इससे होता ये है कि स्कूल में अनुशासन बना रहता है. साथ ही कुछ और लोगों को रोजगार भी मिल जाता है.

गुरुवार, 20 जुलाई 2017

राहुल की ब्रांड वैल्यू!

कांग्रेस के युवराज राहुल गांधी हर समय किसी न किसी बात को लेकर चर्चा में रहते हैं. उनका अंदाज भी जुदा है. वह संसद में खड़े होकर कहते हैं कि मैं गलतियां करता हूं, लेकिन ये कहने के बीच ही ऐसी गलती कर जाते हैं, जिस पर पूरी संसद में ठहाका लग जाता है. ठहाका लगानेवालों में उनके दल के सांसद भी होते हैं. राहुल की इस दशा को देख कर लगता है कि कांग्रेस जहां से चली थी, आज फिर उसी रास्ते पर आगे बढ़ रही है. ये अलग बात है कि सौ साल से ज्यादा के सफर में पार्टी ने गोल्डेन पीरियड भी देखा है, लेकिन मैं जिक्र 2015 का करना चाहता हूं, जब बिहार में विधानसभा चुनाव हुये थे.
अरेराज में राहुल गांधी की चुनावी सभा थी. राहुल कांग्रेस के कर्णधार हैं और देश की बड़ी पार्टी के नेता भी. इसी आशा के साथ कवरेज के लिए मैं भी अरेराज में था. राहुल गांधी आये और उन्होंने दाल के मुद्दे से ही अपना भाषण शुरू किया और लगभग 12 मिनट बोलने के बाद अपनी बात पूरी की. इन 12 मिनटों के दौरान उन्होंने कोई ऐसी बात नहीं कही, जो स्थानीय लोगों के दिलों से छुये. राष्ट्रीय मुद्दों पर अटके रहे. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का नाम लेकर कमियां गिनाते रहे और रैली में आये लोग राहुल गांधी को देख रहे थे. कई लोग कह रहे थे कि हम गलत जगह आ गये हैं. ऐसी रैली में आना ही नहीं चाहिये.
पहली बार राहुल गांधी को लाइव कवर करने का मौका मेरा भी था. मुङो भी निराशा हुई, एक पत्रकार और नागरिक दोनों के तौर पर. राहुल ने अपने भाषण के दौरान लोकल कनेक्ट की कोई बात नहीं की, इसके अलावा कि यह हमारे प्रत्याशी हैं, जिन्हें आप लोग वोट दें. अब भले ही बिहार सरकार में कांग्रेस शामिल है, लेकिन जिस सीट पर राहुल ने प्रचार किया था. वहां वह चुनाव हार गयी. सबसे चौकानेवाली बात ये थी कि मोतिहारी जिसमें अरेराज पड़ता है. वहां 12 विधानसभा सीटें हैं. कद्दावर नेता होने के नाते 12 प्रत्याशियों को राहुल की सभा में आना चाहिये था, लेकिन सभा में केवल दो प्रत्याशी आये थे. एक स्थानीय और एक किसी और विधानसभा सीट का.
रैली के बाद जब राहुल गांधी प्रत्याशियों का नाम लेकर जिताने और मंच पर आगे आने की बात करने लगे, तो तो केवल दो प्रत्याशी ही आये. पता चला कि और प्रत्याशी आये ही नहीं हैं. इनमें एक प्रत्याशी मंच से नीचे बैठे थे.
रैली में खुद की स्थिति देख राहुल को भी असहज लगा होगा शायद. यही वजह रही कि वह माइक से यह कहने लगे कि हो सकता है कि अन्य प्रत्याशियों को दूसरा काम रहा होगा. वह अपने प्रचार में व्यस्त रहे होंगे. इस वजह से रैली में नहीं आ सके. मैं आप सब लोगों से अपील करता हूं कि महागठबंधन के प्रत्याशियों को जितायें. राहुल की इस ब्रांड वैल्यू को देख कर मुङो भी कुछ समझ में आ रहा था. 

बुधवार, 19 जुलाई 2017

चौड़ी हुई सड़क तो मेरा गांव कट गया


जब भी मैं इन सड़कों से होकर गुजरता हूं, तो बचपन की कई कहानियां और किस्से याद आने लगते हैं. वह दिन भी याद आते हैं, जब रात में सात-आठ बजे अपने शहर रायबरेली से घर वापस लौटता था, तो साइकिल बीच सड़क से होकर चलाता था. बहुत कम ऐसा होता था, जब कोई ट्रक या बस आये और उसे रास्ता देना पड़े. रास्ता देने के मतलब था, पक्की सड़क से कच्ची पर उतरना. कोई साइकिल वाला तेज चलाते हुये आगे निकलता था, तो उससे कैसे आगे निकलना है. यह सोचने लगता था. पैडल पर पैर इतनी तेजी से अपने आप चलने लगते थे कि अगले एक-दो किलोमीटर में उससे आगे हो ही जाता था. मुङो याद नहीं कि गंगागंज से रायबरेली के बीच की सड़क पर कभी किसी साइकिल वाले ने मुङो पछाड़ा हो.
दोस्तों के साथ जब गुजरता था, तो गणित और विज्ञान के सूत्र दोहराना होता था. हां, लड़कपन की बातें तो होती ही थीं, तब सड़कों की अहमियत समझ में नहीं आती थी. उन पर चलना क्या होता है. शायद यह भी समझ में नहीं आता था, लेकिन उदारीकरण के बाद पूरी अवधारणा बदल गयी. प्रिय शायर मुनव्वर राना साहब से काफी बाद में मिलना हुआा, तो उन्होंने सड़कों को लेकर अपना दुख कुछ यों बयान किया..
मंजिल करीब आते ही एक पांव कट गया.
चौड़ी हुई सड़क तो मेरा गांव कट गया.
जब ये शेर सुना, तो सड़क होना क्या होता है और गांव कटना क्या होता है. यह भी समझ में आने लगा. अब वही गंगागंज और रायबरेली की सड़क फोरलेन हो गयी है, लेकिन जब भी गुजरता हूं, तो मन उदास हो जाता है. वजह वह एक लेन की सड़क जिसके किनारे हजारों की संख्या में पेड़ लगे थे. कहीं भी धूप नहीं लगती थी. उनके नीचे से गुजरते हुये सड़क हमसे बात करती थी. गर्मी में सुखद एहसास कराती थी. अब उस पर एक भी पेड़ नहीं रह गया है. निजर्न वीरान सड़क ही रह गयी है. जिस पर सौ और इससे ज्यादा की स्पीड में दौड़ती गाडियां ही गाड़ियां दिखती हैं.
मेरे चलने का तरीका भी बदल गया है. पहले साइकिल और तांगे से जाना होता था, लेकिन अब कम से कम मोटरसाइकिल तो होती ही है. छोटे भाई की जिद होती है कि ज्यादातर गाड़ी से चलूं, तो उसकी गाड़ी से ज्यादा गुजरना होता है. वह हमारे लिये छुट्टी भी ले लेता है. हम दोनों मिलकर दिन भर सड़कों पर चलते रहते हैं. इस गांव से उस गांव. इस ठांव से उस ठांव. हां, सड़कें दिन, तारीख, समय सब याद रखती और रखवाती भी हैं. यह इनकी खासियत है. 
उदारीकरण के बाद सड़कें तेजी से बनीं, तोजहां लोग घंटों में पहुंचते थे. वहां मिनटों में पहुंच रहे हैं. जिंदगी फास्ट हो गयी है, लेकिन बढ़ते वाहनों ने फिर हमें पीछे ढकेलना शुरू किया है. अब सड़कें चाहे जितनी बन रही हैं, लेकिन वाहन उन पर भारी पड़ रहे हैं. नतीजा जाम के रूप में सामने आ रहा है, जहां जाने में घंटे भर का समय लगता है. अगर जाम लग गया, तो कई घंटों में बदल जाता है. यह नये जमाने की परेशानी है, जो सड़कों ने नहीं पैदा की है. हमने पैदा की है और हमारी बनायी है. सड़कें तो हमें मंजिल तक पहुंचाती हैं. बिना भेदभाव.
सड़कों की बात चली, तो यह भी याद आता है, जैसे दिन और रात आता है. वैसे ही ये सड़कें भी हमारा साथ अच्छे में भी देती हैं और बुरे में भी. कभी हिसाब नहीं मांगती. हां, हमेशा हमारे हिसाब से खुद को एडजस्ट करती हैं और हमारे लिये रास्ता सुगम करती हैं. यह जिंदगी का तकाजा ही है कि अब हमारा जो कर्मक्षेत्र है. वहां कभी सड़कों को लेकर बहुत बातें होती थीं. बिहार में तब के मुखिया गांव के लोगों से कहते थे कि अगर सड़क बन जायेगी, तो चोर-डाकू गाड़ियों से आयेंगे. लूट कर चले जायेंगे, तुमको क्या मिलेगा. तुम ऐेसे ही ठीक हो. बिना सड़क के.
अब यहां की भी स्थिति बदल गयी है. गांव-गांव में सड़कें हैं और जिन्हें डराया जाता था. उन्हें ही सड़कों से सबसे ज्यादा फायदा हो रहा है. यह हम नहीं स्टडी कहती है. हालांकि सड़कों के रूप में हमने कंक्रीट को बढाया है, लेकिन इनसे राह कितनी आसान हुई है, यह भी देखना पड़ेगा. इसका मूल्याकंन फिर कभी. सड़कों पर और बात फिर. अभी के लिए बस इतना ही.

मंगलवार, 18 जुलाई 2017

इन बसों पर लगाम कौन लगायेगा?

बसवाले की मनमानी से वैशाली के सराय में फिर मौत का तांडव दिखा. 11 की जीवन लीला समाप्त हो गयी और आधा दर्जन लोग जख्मी में हो गये. ये पहली घटना नहीं है. छोटी घटनाएं तो रोज होती रहती हैं, लेकिन कुछ माह पहले मुजफ्फरपुर के झपहां में बड़ी दुर्घटना हुई थी, तब भी बस की चपेट में ऑटो ही आया था, जिसमें 12 लोगों की मौत हुई थी. दुर्घटनाग्रस्त होने के बाद बसवाले ने बेरहमी दिखाते हुये ऑटो को कुछ दूर तक घसीटता ले गया था, जब ऑटो उसमें फंस गया, तो उसने बस बैक की और फिर जख्मी होकर सड़क पर गिरे यात्रियों को रौंदता हुआ भाग निकला था. भयावह मंजर था वह. आज भी वैसा ही हुआ, लेकिन चालक बस को नहीं निकाल सका, तो मौके पर यात्रियों को छोड़ कर भाग गया.
हाल के दिनों की यह दोनों घटनाएं यह बताने के लिए काफी हैं. कैसे बस वाले किसी की भी जान की कीमत पर खुद को बचाना चाहते हैं और अगर आप हाइवे पर चल रहे हैं, तो बस से बचना आपका काम है. खुद को बचाव नहीं किया, तो बसवाले की जिम्मेवारी नहीं है. कई ऐसी घटनाएं होती हैं, जिसमें लोगों की जान चली जाती है. किस वाहन से एक्सीडेंट हुआ, पता तक नहीं चल पाता. हम लोग पता लगाते रहते हैं, लेकिन रटा-रटाया जवाब मिलता है कि अज्ञात वाहन ने ठोकर मारी है.
बस वालों की मनमानी का आलम यह है कि वह सड़क पर चलनेवाले अन्य वाहनों को कुछ समझने के लिए तैयार नहीं होते हैं. भीड़भाड़ वाले चौराहों पर भी कानफाड़ हार्न बजाते हुये ऐसे गुजरते हैं, जैसे उड़ने की तैयारी में हों. ऐेसा एक-दो बार देखने को नहीं मिलता. यह लगातार होता है. हाल में बिहार में बसों से जो घटनाएं हो रही हैं. वह दिल्ली में उन दिनों की याद दिलाती है, जब निजी बसें चलती थीं और सवारियां उठाने की होड़ में वह रोज कई लोगों की जान लेती थीं, लेकिन विरोध हुआ, तो उन बसों पर लगाम लगी, लेकिन बिहार में अभी ऐसा नहीं है. इन बसों पर लगाम कौन और कैसे लगायेगा, यह होना शेष हैं. लगाम लगना जरूरी है, क्योंकि अगर ऐसा नहीं होगा, तो लोग असमय काल के गाल में समाते रहेंगे.
इन सबके बीच सच्चई ये भी है कि बिहार में यातायात का सबसे बड़ा जरिया यहीं बसें हैं, जो लोगों को एक से दूसरी जगह ले जाती हैं. इनमें ज्यादा तर बसें निजी ऑपरेटरों की हैं. समय सीमा में चलना जिनकी मजबूरी होती है, लेकिन ऐसा समय भी क्या, जिसमें लोगों की जान तक महफूज नहीं रहे.

सोमवार, 17 जुलाई 2017

रुकी-रुकी जिंदगी, झट से चल पड़ी

सूचना क्रांति क्या हुई. चिट्ठी और तार के सहारे चलनेवाली जिंदगी फास्ट फारवर्ड मोड में आ गयी. अब लोग आदमी नहीं रोबोट की तरह नजर आते हैं. चिंटू- पिंटू, पप्पू- बिल्लू सब एक्शन में हैं. एक फोन से बात कर रहे हैं, तो दूसरे से मैसेज का उत्तर दे रहे हैं. सामने पानवाले को भी इशारा कर रहे हैं. कैसा पान लगाना है. ऐसे चिंटू-पिंटू हर गली मोहल्ले में आसानी से मिल जायेंगे, जो कुछ साल पहले तक बिस्तर पर पड़े चारपायी तोड़ते नजर आते थे. अब कामी पुरुषों में इनकी गिनती होने लगी है. काम क्या, यह तो यही बता सकते हैं, लेकिन मम्मी-पापा का सिरदर्द इन्होंने बढ़ा रखा है.
पांचवीं से आगे बढ़ते ही बच्चे खुद के लिए अलग से फोन की फरमाइश करने लगे हैं. फोन के लिए यह कोई भी जुगत लगाते हैं. मौका पड़ने पर अनशन करने (खाना छोड़ने) तक को तैयार हो जाते हैं. यह बदलाव का कौन सा दौर चल रहा है, इसे नाम देना मुश्किल हो रहा है. क्योंकि आकरुट से शुरू हुआ. ऑनलाइन मित्र बनाने का सिलसिला अब क्लासिफिकेशन तक पहुंच गया है. नौकरी चाहते तो इस साइट पर रहिये. मित्र बनाना है, तो फलाना साइट के सदस्य बन जाइये. चैटिंग करना है, तो इस साइट पर रह कर शोभा बढ़ाइये. रोज नयी-नयी साइट और एप लांच हो रहे हैं. अब आप खुद को एप बना कर भी धमाल मचा सकते हैं.
सब कुछ इतनी तेजी से बदल रहा है कि चिंटू-पिंटू के ऊपर से भी कई बातें निकल जा रही हैं. इस बदलाव ने क्या दिया. अभी इस पर चर्चा कम हो रही है, लेकिन दस बच्चे से लेकर अस्सी साल के दादा जी तक को बिजी रहने का मौको दे दिया है. अब घरों में साथ रहने पर भी बात नहीं होती है. दादा जी अपने फोन में लगे हैं, तो पोता अलग से आइपैड लेकर बैठा है. दोनों एक कमरे और एक सोफे पर होने के बाद भी आपस में बात नहीं करते हैं. स्क्रीन पर चलनेवाली गतिविधि से खुशी और गम में डूबते हैं, तो कभी जोर से सांस लेकर एक दूसरे को देख कर फिर स्क्रीन में डूब जाता है. मुङो लगता है कि ये सूचना क्रांति का स्क्रीन काल है, जिसमें उंगलियों के साथ सबसे ज्यादा आंख की एक्सरसाइज हो रही है, जिससे आंखें धोखा बी देने लगी हैं. छोटे-छोटे बच्चे आंख की बीमारियों का शिकार हो रहे हैं.
क्रांति के इस दौरान में सब फिंगर टिप्स पर आता जा रहा है, जिससे शारीरिक श्रम जाता रहा है. जैसे-जैसे यह आगे बढ़ रहा है, सोच का तरीका भी बदल रहा है. लोगों की सोचने की क्षमता कम हो गयी है. यह हम नहीं, वो लोग ही कह रहे हैं, जो इन सबके आदी हो चुके हैं. अब तो सोशल साइट्स से खुद को अलग करने का दौर भी शुरू हो गया है, लेकिन अभी इसकी स्पीड कम है और जो अलग होता है, वो जल्दी ही वापस भी आ जाता है, क्योंकि वह आभासी दुनिया से बाहर के माहौल में खुद को एडजस्ट नहीं कर पाता है और हार कर उसकी निगाह पास पड़े मोबाइल पर जाती है, जिसमें बिना इच्छा ही ये मैसेज टाइप और सेंड हो जाता है कि कुछ दिन आप लोगों से दूर रहा. क्षमा चाहता हूं. अब फिर से वापस आ गया हूं. अपने विचारों से आपको अवगत कराता रहूंगा.

उम्मीदों का आसमान

मिठनसराय गांव. भारत के उन पिछड़े गांवों में शुमार है, जो आजादी के 70 साल वाले जुमले पर फिट बैठता है. यहां भी विकास के नाम पर योजनाएं जरूर आयीं, लेकिन हुआ कुछ नहीं. प्रभात खबर ने जब इस गांव को गोद लेने का फैसला किया, तो गांव के लोगों में उम्मीद की लहर जागी. हम लोगों ने पहली ही बैठक में साफ कर दिया था, जिसमें गांव के चुनिंदा 25 लोग रहे होंगे. हम कोई चमत्कार करने नहीं आये हैं. हम यहां आपके सहयोग से आपके गांव को बदलने आये हैं, जिसमें समय लगेगा, क्योंकि सरकारी योजनाएं कैसे चलती हैं. इसकी चाल सब लोग जानते हैं. यह बात गांव वालों के लिए नयी थी, क्योंकि इससे पहले विधानसभा क्षेत्र (कांटी-बोचहां) के सीमावर्ती इस गांव में जब भी कोई गया, वह सपने दिखा गया, लेकिन वह हकीकत में तब्दील नहीं हुआ. इसका जीता उदाहरण गांव में बन रहे दो शौचालय हैं, जिनकी नीव सात साल पहले पड़ी थी, लेकिन पूरे अभी तक नहीं हो पाये हैं.
गांव के बाहर बांध है, इसे बूढ़ी गंडक पर बनाया गया, लेकिन सुविधा बढ़ी, तो बांध पर रोड बन गयी, जो अब इतनी जजर्र हो चुकी है कि चलना मुश्किल है, जब भी कोई जाता है, तो ग्रामीण कहते हैं कि बांध की रोड बन जायेगी, तो हम लोगों के सबसे ज्यादा राहत मिल जायेगी. इसका उदाहरण पांच जुलाई को भी देखने को मिला था, जब गांव गोद का उद्घाटन समारोह था. मंत्री से लेकर जिलाधिकारी तक गांव गये थे. सबने स्थिति देखी, तो दंग रह गये. मंत्री को स्कॉट कर रहे काफिले में शामिल सुरक्षा अधिकारियों ने कह दिया था कि गांव की रोड पर गाड़ी रुकेगी ही नहीं, लेकिन शुक्र मंत्री जी के ड्राइवर का रहा, जिसने उनकी बात को अनसुना कर दिया और गांव को गांव की पगडंडी में उतार दिया. इस तरह से मंत्री जी कार्यक्रम स्थल तक पहुंच गये. फोरलेन से महज डेढ़ किलोमीटर की दूरी पर बसे गांव में जाने में नाकों चने चबाने पड़ेंगे, यह मंत्री जी और उनकी सुरक्षा में लगे लोगों ने सोचा तक नहीं था. वह कलक्टर और अन्य अधिकारियों की दुहाई दे रहे थे, लेकिन जब कहा गया कि कलक्टर साहब कुछ देर पहले ही गांव से वापस गये हैं, तो शांत हो गये. यह तो बात रही मंत्री जी और कलक्टर साहब के दौरे की.
गांव को गोद लेने के बाद से अक्सर जाना होता जा रहा है, जब भी गांव में कुछ होता है, तो जाने के मन करता है. कभी गाड़ी से तो कभी मोटरसाइकिल से ही. चला जाता है. ऐसे ही रविवार की सुबह गांव से मिलने का प्लान बना और हम लोग पहुंच गये. गांव के लोगों की परेशानियों की बारे में जानना चाहा. साथ ही दो दिन पहले बिजली का सव्रे गांव में हुआ है. उसके बारे में जानकारी ली. सबने उत्साहित होकर अपनी बात रखी. इस बार बैठक में एक सौ से ज्यादा लोग पहुंचे. इनमें लगभग पचास महिलाएं रही होंगी, जिनमें दो वार्ड सदस्य भी. महिलाओं का सबसे बड़ी परेशानी पेंशन और रोजगार. गांव में जीविका का ग्रुप खुला है, जिसके जरिये महिलाओं को लोन मिला है, लेकिन इसके बाद भी इनकी आर्थिक हालत ठीक नहीं. सब काम चाहती हैं. घर में शौचालय बने. यह भी महिलाओं की प्राथमिकता में है.
मिठनसराय गांव की परेशानियां अन्य गांवों जैसी ही हैं. कार्ड होने के बाद भी राशन नहीं मिलता. डीलर, एक माह का राशन देता है, चढ़ाता दो माह का है. कन्या विवाह योजना का पैसा सालों से नहीं मिला है. इंदिरा आवास की एक किस्त मिली, दूसरी किस्त नहीं मिल रही है. गांव में ऐसे लोगों को जमीन मिल सकती है क्या, जिनके पास रहने को भी अपनी जमीन नहीं है. ऐसे तमाम सवाल एक के बाद एक आने लगे. इसी बीच ग्रामीणों ने प्राथमिक स्कूल में पढ़ाई का मुद्दा उठाया और कहने लगे कि खिचड़ी के बाद बच्चों को स्कूल में नहीं रोका जाता है. उन्हें घर भेज दिया जाता है, जबकि दो कमरे के स्कूल में सात शिक्षकों को नियुक्ति है. शिक्षक कुर्सी पर पैर रख कर बैठे रहते हैं. इन लोगों को बच्चों को देखने और पढ़ाने की फुरसत नहीं है. यह सुनते ही गांव के एक शिक्षक तल्ख होने लगे, लेकिन ग्रामीणों ने उन्हें अपने तर्को से चुप करा दिया.
गांव सुधार के लिए जोर-शोर से लगे शिक्षक महोदय को झटका लगा और वो ग्रामीणों से उलझने लगे, लेकिन ग्रामीण उन्हें बख्शने के मूड में नहीं थे. हालांकि बच्चे स्कूल में तय समय तक नहीं रहते, इसमें अभिभावकों की भी गलती है, क्योंकि खिचड़ी के बाद बच्च घर पहुंच जाता है, तो उन्हें पूछना चाहिये कि बिना छुट्टी के वो कैसे घर पहुंच गये, लेकिन अभिभावक ये नहीं करते. बात उठी, तो सोमवार से इसकी निगरानी पर सहमति बनी.
मिठन सराय की स्थिति बदलने की शुरुआत हो गयी है. अगर बच्चों को अच्छी शिक्षा मिलने लगेगी, तो तत्कालिक काम तो हो ही जायेंगे. इनमें गांव की सड़क का निर्माण, जो डेढ़ साल से अटका था. प्रभात खबर की पहल पर फिर से शुरू हो रहा है. सामान गांव में गिरने लगा है. गांव में बिजली का सव्रे हो चुका है. गांव में चापाकल के लिए जगह चिह्नित हो गयी है. गांव में पेड़ लगाने के लिए वन विभाग तैयार हो गया है. ग्रामीणों को लीची की खेती के बारे में अनुसंधान केंद्र के वैज्ञानिक जानकारी देंगे. साथ ही लीची के पेड़ भी ग्रामीणों को दिये जायेंगे. ऐसी और तमाम योजनाओं पर काम हो रहा है, जिनसे गांव की स्थिति बदले. अंत में एक बात और. गांव के पुस्तकालय को फिर से चालू कराने पर भी विचार हो रहा है. पुस्तकालय शुरू होगा, तो माहौल बदल जायेगा, जिससे गांव के आसपास होनेवाले अपराध में कमी आयेगी. ऐसा मेरा मानना है. बाकी, तो भगवान के हाथ में है.

रविवार, 16 जुलाई 2017

देखें और सब्सक्राइब करें.
















इसे मैं कोशिश भर कहूंगा, लेकिन अगर कोई बच्च करे, तो अच्छा ही है. आप उत्साह बढ़ायेंगे. इसे देखेंगे, चैनल को सब्सक्राइब करेंगे, तो और भी उत्साह बढ़ेगा.

शुक्रवार, 14 जुलाई 2017

यह तस्वीर दो साल पुरानी है, लेकिन महत्वपूर्ण है. बिना किसी ट्रेनिंग के केवल खेलने के दौरान आाठ साल का यह बच्च किस तरह के करतब कर लेता है. अगर इसे तराशा जाये, तो यह क्या कमाल कर सकता है. तस्वीर प्रभात खबर के सीनियर साथी माधव ने खीची थी, जिन्हें इसके लिए काफी सराहना मिली. यह तस्वीर आप भी देखें और अपने विचार दें.

गुरुवार, 13 जुलाई 2017

बैठो बताई का पुरवा

अब तो गांवों की स्थिति बदल गयी है. सब जगह स्मार्ट फोन हो गये हैं. अब गांव के लोग भी अपने में व्यवस्त हो गये हैं. दूसरों से बात करने का समय नहीं होता है, लेकिन आज से तीन-चार दशक पहले के बारे में सोचिये, तब स्मार्ट फोन की चर्चा तक नहीं थी. टीवी के बारे में कुछ बात होने लगी थी, लेकिन सब गांवों में टीवी थी नहीं. अगर किसी गांव में टीवी होती थी, तो शाम के समय दो घंटे का प्रसारण आता था दूरदर्शन पर, जिसे देखने के लिए कई गांव के लोग इकट्ठा होते थे. उस समय ग्रामीणों में के मनरंजन का साधन नाच, गान, तमाशा, नौटंकी जैसी चीजें होती थीं, लेकिन यह भी हर समय नहीं हो सकती थीं. किसी खास मौके पर ही इनका आयोजन होता था, लेकिन लोक जीवन में कुछ ऐसे प्रसंग होते थे, जिनसे हंसने का अवसर देते थे. आप कितना भी तवान में हों, ऐसे प्रसंग सुन लें, तो हंसने लगें.
आज ऐेसा प्रसंग याद आया, जो बचपन के दिनों में हर दो-चार दिन पर सुनने को मिल जाता था. हमारे पड़ोस में एक नाई रहता था, नाम था छोटू नाई. बाल बनाने का काम उसका बड़ा भाई करता था. वह उसकी मदद में रहता था. जीवन भर बाल बनाना नहीं सीख सका. खूब प्रसंग कहता था. इसी में एक पसंदीदा प्रसंग था. बैठो बताई का पुरवा. इसको लेकर बड़े चाव से सुनाता था. कहता था कि एक बार एक आदमी साइकिल से कहीं जा रहा था. रास्ते में नहर पड़ी, जिसके किनारे एक आदमी आराम कर रहा था. आराम करने की नीयत से वह वहां कुछ देर के लिए रुका. पास के नल में पानी पीने के बाद उसने पास के आदमी से पूछा, आागे कौन सा गांव है, तो वह आदमी बोल पड़ा. बैठो बताई का पुरवा. यह सुनते ही साइकिल वाला उसके पास बैठ गया और पूछने लगा कि आगे कौन सा गांव है, उसने फिर वही दोहराया. इस पर साइकिल वाले ने कहा कि बैठ तो गये हैं. अब कैसे बैठे. गांव का नाम बताओ, इस पर उस व्यक्ति ने फिर नाम दोहरा दिया. काफी देर तक इसी तरह से बात होती रही. साइकिलवाला आदमी समझ नहीं पा रहा था कि आखिर गांव का नाम क्या है, जबकि नहर के किनारे बैठा व्यक्ति उसे लगातार बता रहा था कि बैठो बताई का पुरवा.
यह प्रसंग सुनाते समय छोटू नाई खुद सीरियस हो जाता था, लेकिन जो लोग सुनते थे. वह हंसते-हंसते लोटपोट हो जाते थे. ऐसे ही कई और प्रसंग उसके मुंह से लगातार सुनने को मिलते थे. प्रसंग सुनाने के अलावा छोटू नाई कभी सीरियस नहीं रहते. बीमार होने पर भी. कम उम्र ही वह इस दुनिया को छोड़ कर चले गये. हुआ यूं कि छोटू के पेट में दर्द रहता था और वो रात में गरम पानी की कई बोतल लेकर सोते थे, जब दर्द होता था, तो पेट पर गर्म पानी की बोतल रख लेते थे, जिससे आराम मिलता था. ऐेसे ही एक दिन दर्द उठा, वो गरम पानी की बोतल लेकर सोये थे. राम में ऐसा दर्द हुआ, जो उन पानी की बोतलों से ठीक नहीं हुआ. वह बोतल पर बोतल पेट पर रखते गये, लेकिन उसी रात उनकी मौत हो गयी. मौत की सूचना लोगों को तब मिलीं, तब उनके पेट पर रखीं बोतले एक-एक करके चारपाई से नीचे गिरीं.

बाहर गंध, अंदर सुगंध

बाहर गंध, अंदर सुगंध, यह बात जैसे ही आनंद ने सुनी, नहले पे दहला मारते हुये बोले, बाहर से सेरवानी, अंदर से परेशानी. दरअसल, यह दो तस्वीरें उस जगह की हैं, जिन्हें हम अपने मुजफ्फरपुर की अच्छी जगहों में शुमार करते हैं. आनंद एक बड़े शो रूम में काम करते हैं. गुरुवार को चलते-चलते उनसे मुलाकात हो गयी. शो रूम के बाहर इतनी बदबू कि खड़ा होना मुश्किल. इसके बाद भी दर्जनों की संख्या में लोग खड़े थे, जबकि शो रूम के अंदर सेंट छिड़का गया था, जिससे महक बिखर रही थी. इससे वहां सामान खरीद रहे लोग अच्छा महसूस कर रहे थे. बात चली, तो आनंद कहने लगे कि ये सब देखने के लिए है. बारिश होती है, तो शो रूम में भी पानी आ जाता है. यहां की स्थिति अलग नहीं है. हमने सोख्ता बनाया हुआ है. यह चमक दमक..आगे कुछ बोलते हुये वह रुक जाते हैं.
मुजफ्फरपुर शहर के कुछ ऊंचे इलाकों को छोड़ दें, तो निचले इलाकों में अब दरुगध ने डेरा जमा लिया है. बारिश को चार दिन हो गये हैं, लेकिन अभी गली, मोहल्लों और घरों से पानी नहीं निकल पाया है. कहने को निगम की ओर से लगातार काम हो रहा है, लेकिन अभी तक सभी को राहत नहीं मिली है. कहीं, लोग ट्यूब के सहारे घर से बाहर निकल रहे हैं, तो कहीं हाफ पैंट के सहारे गुजारा कर रहे हैं. महिलाएं पानी में खड़ी होकर खाना बनाने व घर के काम करने को मजबूर हैं.
मुजफ्फरपुर ही क्या, उत्तर बिहार के सीतामढ़ी, दरभंगा और मधुबनी सब जगह यही स्थिति है. तस्वीरें वहां की हकीकत को बयान कर रही हैं. कैसे लोग रह रहे हैं. निजी क्या, सरकारी ऑफिसों तक में पानी भरा है. वहां कर्मचारियों व अधिकारियों का काम करना मुश्किल है, लेकिन इसी मुश्किल के बीच काम हो रहा है.
गांव और शहर को समझनेवाले विशेषज्ञ कहते हैं कि यह हम लोगों की बनायी स्थिति है. हम लाखों रुपये खर्च करके घर बनाते हैं, लेकिन यह नहीं सोचते कि नाली कहां निकलेगी. सड़क से लोग कैसे गुजरेंगे. घर के आसपास कुछ न कुछ अतिक्रमण की आदत हम में से ज्यादातर को पड़ गयी है. उसका परिणाम ही हमें इस रूप में देखने को मिल रहा है. यह ठीक होनेवाला नहीं. नगर निगम और नगर परिषद चाहे जितना कर लें, हालात हमीं आप मिल कर बदल सकते हैं. अतिक्रमण के साथ हम लोग कूड़े के रूप में इतनी पॉलीथीन सड़कों पर फेंक रहे हैं, जो नाले और नालियों में जाकर फंस रही हैं.
कहने और सुनने में भले ही यह उपदेश जैसा लगता है, लेकिन सच्चई यही है और इसी का खामियाजा हमारे शहर भुगत रहे हैं. हम स्मार्ट सिटी में तो शामिल होना चाहते हैं, लेकिन खुद स्मार्ट नहीं बनना चाहते हैं. ऐसे कैसे होगा, क्या स्मार्ट होने का यही नतीजा है कि लोग हफ्तों, महीनों बारिश के पानी में रहने को मजबूर हों.

मंगलवार, 11 जुलाई 2017

स्मार्ट सिटी क्या बोलेगी?

सौ साल से ज्यादा पुराना नगर भवन शर्म में डूबा जा रहा है. इसके चारों ओर ऐसी स्थिति बन गयी है, मोटरसाइकिल और गाड़ी क्या, पैदल भी निकलना मुश्किल है. अगर पैदल चलते समय आप संभले नहीं, तो गिरना तय है. साल भर पहले जब साफ-सफाई और रंग रोगन हुआ था, तो नगर भवन को लगा था कि मेरे दिन फिर जायेंगे. हाल में मुजफ्फरपुर स्मार्ट सिटी घोषित हो गया है, लेकिन नगर भवन के दिन फिर पहले जैसे होते जा रहे हैं. यही परेशानी उसे खाये जा रही है. आसपास में दो-दो पार्क, लेकिन में भी चहल-पहल नहीं. दोनों में ताला बंद. अगर कोई इस सड़क का रुख करता है, तो उसका अपना स्वार्थ होता है. स्वार्थ कैसा, यह इस सड़क से गुजर कर देखा जा सकता है. आपको मुंह पर रुमाल रखनी पड़ेगी.
नगर भवन की समझ में ये नहीं आ रहा है कि स्मार्ट सिटी घोषित होने के बाद उसकी दुर्दशा क्यों हो रही है? क्यों उसे गर्त में ढकेला जा रहा है, लेकिन उसे इस बात से शांति मिलती है कि शहर के जितने प्रतीक हैं, वो सब अपनी बदकिस्मती पर रो रहे हैं. कोई भी अपने पर इतरा नहीं सकता. कल्याणी चौक, 36 घंटे से पानी में डूबा है. स्टेशन रोड की नियति ही नाले का पानी हो गयी है. वहां से निकलना मुश्किल हो रहा है. मोतीझील में आप खोजते रह जायेंगे, मोती नहीं मिलेगा. अलबत्ता पानी से आपकी तबियत जरूर खराब हो जायेगी. संतोषी माता मंदिर के पास से गुजरना किसी जंग से कम नहीं है. यहीं से इस्लामपुर लहठी मंडी शुरू होती है, जहां से विश्व सुंदरी ऐश्वर्या राय की शादी में लहठी गयी थी, लेकिन बारिश ने इस सड़क को गंदा नाला बना दिया है.
गंदे पानी के बीच गुजरती कारें और मोटरसाइकिलें सड़क पर समुद्र आनेवाली लहरों जैसा अनुभव पैदा करती हैं. सदर अस्पताल के सामने घुटने भर पानी है. यहां से आप पैदल गुजरे, तो भीगना तय है, क्योंकि इस रोड पर वाहन बहुत चलते हैं. ये सब जगहें नगर भवन से कुछ सौ मीटर की दूरी पर ही हैं, जिन्हें वह बिना किसी परेशानी के देख सकता है. हाल के सालों में मोतीझील ओवरब्रिज बनने से दूर तक देख पाने में कुछ बाधा आयी है, लेकिन नगर भवन को इतिहास तो सबका मालूम ही है. वह सब देख रहा है. शहर पहले कैसा था, अब कैसे हो गया है.
दो दिन की बारिश ने शहर के निचले इलाकों को झील में बदल दिया है. हर गली मुहल्ले और घर में पानी है. पानी की परेशानी के बीच काम हो रहा है. 2016 से ही पूरे शहर में नालों की निर्माण तेजी से हो रहा था, तब इनकी गुणवत्ता पर सवाल उठाया गया, तो किसी ने ध्यान नहीं दिया. अब इनसे पानी नहीं निकल रहा, तो कोई कुछ बोलने को तैयार नहीं है. इस तरह से एक और योजना अपनी नियति की भेट चढ़ गयी. नालों पर कितने लाख खर्च हुये पता नहीं, लेकिन पानी निकालने के लिए बड़े-बड़े अधिकारी दिन रात एक किये हुये हैं, लेकिन पानी है कि निकलने का नाम ही नहीं ले रहा है. माड़ीपुर सड़क को ऊंचा इलाका माना जाता है, लेकिन यहां से चक्कर चौक की ओर बढ़िये, सच्चई सामने आ जायेगी. यही हाल है, जिसे देख कर नगर भवन की तल्खी भी कुछ कम होती है. कहता है, हम क्यों ज्यादा परेशान हों, सब तो वैसे ही हैं.
निचले बसे इलाकों के साथ नयी बसी कालोनियों पर भी हाल बेहाल है. वहां भी पानी भरा है. गांव से जो लोग शहर आ रहे हैं. वह भी कुछ ऐसी ही दास्तान सुना रहे हैं. नगर भवन के सामने से गुजरते समय फोन बज उठा. किसी तरह संभलते हुये फोन उठाने की कोशिश की, तो गंदे पानी में जाते-जाते बचा, रिसीव किया, तो सामने से एक नेता जी थी. कहने लगे गांव का हाल खराब है. सब्जी की खेती बर्बाद हो गयी. धान की रोपनी हो गयी थी, लेकिन पानी भर गया. बिचड़ा भी डूब गया है. जल्दी पानी नहीं निकला, तो सब नष्ट हो जायेगा. फिर धान लगाने में देरी होगी. इसे बारिश नहीं आपदा कहिये. दो दिन में गांव में जिधर देखो पानी ही नजर आ रहा है.
फेसबुकिये युवा वर्ग को अलग ही सूझ रही है. वह अपनी तरह से बारिश को देख रहा है. पैंट मोड़ कर कल्याणी से टावर चौक और देवी मंदिर की ओर चला जायेगा, लेकिन मोबाइल से कनेक्टेड होड फोन नहीं छूटेगा. अभी-अभी मैसेज आया, लिखा है, हैलो, इंद्र भगवान, मोटर बंद कर दो, पानी भर गया है. अब इसे क्या कहेंगे? यही मोबाइल का जमाना है और ये हम हैं, जो ऐसी बातों पर ध्यान देते हैं. इतना कहते, सुनते और पढ़ते-पढ़ते हम अब नगर भवन से इतना दूर निकल आये हैं कि वह दिखायी नहीं दे रहा है. इसलिए उसका दुख-दर्द भी महसूस नहीं हो रहा है. आगे फिर कभी. 

रविवार, 9 जुलाई 2017

वो बारिश का मौसम, बाढ़ का पानी

आज रविवार का दिन भले ही है. सावन की पहली सोमवारी से पहले का भी दिन है. दोपहर बाद से हो रही बारिश से आत्मिक आनंद तो जरूर मिला, लेकिन इसकी वजह वर्तमान नहीं, अतीत रहा. वो बचपन, जिसे हमने गांव में जिया. सामूहिकता के बीच बच्चों की होनेवाली परवरिश को देखा. वहां अपना-पराया कम देखा जाता था. उम्र बढ़ी, तो दायरा और सोच, दोनों सिमट गये. अब मैं सिमट कर दो बेडरूम के अपार्टमेंट में आ गया हूं. बारिश को खिड़कियों से देखना और महसूस करना मजबूरी बन गया है, जब बारिश आये, तो यह डर लगा रहता है कि कहीं भीग ना जायें. भीगे तो सर्दी जुकाम और बुखार आ जायेगा. इसी की वजह से दूर हो गया हूं. मन खुद को अकेला महसूस करता है.
कई सालों बाद इस बार अच्छी बारिश देखने को मिल रही है. इस बार पानी बरसता है, तो ऐसा नहीं लगता कि कुछ देर में बंद हो जायेगा. पता नहीं क्यों? मन कहता है कि इस बार अच्छी बारिश होगी. होगी या नहीं, ये तो भविष्य की गर्त में है, लेकिन अभी तो अच्छा ही हो रहा है. आज खिड़की के पास बैठा था, तो किसी चलचित्र की तरह बचपन की दिनों का बारिश की यादें सामने घूमने लगीं. क्या थे, वो बचपन के दिन. संसाधन कम थे, लेकिन सुकून ज्यादा. बारिश में लगभग हर साल बाढ़ आती थी. बाढ़ का पानी, एक तरफ से गांव के पास आ जाता था, तो दूसरी ओर से घर की कुछ दूरी पर. जंगली जानवर, सांप आदि, गांव की ओर रुख करते थे. रात में खतरे की बात होती थी, लेकिन हम बच्चे, किसी न किसी बहाने पानी तक पहुंच ही जाते थे. कागज की नाव और गांव के लोगों की जिंदगी को देखने के लिए.
गांव की खेती का बड़ा हिस्सा नदी के पार था, सो लोग कोई न कोई जतन करके नदी के पार जाने की व्यवस्था बना लेते थे. यही मौसम मूंगफली बोने का भी होता था और धान की रोपनी का भी. मूंगफली बोनेवाले बड़े-बड़े मिट्टी के घड़ों में सामान भर कर उसी के सहारे तैरते हुये नदी पार करते थे. कई कपड़े सिर में बांध लेते थे और जानवरों की पूछ पकड़ लेते थे और नदी पार कर जाते थे. नदी पार करने में भैंस पर भरोसा कम रहता था, क्योंकि वह पानी में कभी-कभी डुबकी भी मार देती थी, जिससे लोगों के सिर में बंधे कपड़े भीग जाते थे. कई बार धारा के साथ बहती जाती, तो गांव से काफी दूर पर जाकर निकलते थे.
सुबह-शाम नदी के पार जाने और आने का नजारा देखना अद्भुत होता था. अब जब भी गांव जाता हूं, तो पूछता हूं. बाढ़ आयी थी, जवाब नहीं में मिलता है. अब बाढ़ नहीं आती. नदी सूख कर तालाब बन गयी है. वह तो सूख जाती, लेकिन सरकारी योजना आयी, नदी में कुछ-कुछ दूर पर बांध बांध दिये गये, जिनकी वजह से सालों भर पानी बना रहता है. अब अगर हम गांव में भी रहते, तो बाढ़ और बारिश का वो नजारा नहीं ले पाते, जो बचपन में था, क्योंकि बाढ़ अब आती नहीं और बारिश को हमने उम्र बढ़ने के साथ बीमारी का कारण मान लिया है, तो इससे वह आनंद खत्म हो गया है, जो बचपन में आता है. अब बारिश आती है, तो बच्चे बंद कमरे की खिड़की खोल बारिश के साथ सेल्फी लेने का आनंद लेने लगे हैं, जिसे पलक झपकते ही फेसबुक और ट्विटर पर अपलोड करते हैं. उस पर आनेवाले कमेंट और लाइक अब आनंद का साधन बन गये हैं. मोबाइल पर अब बारिश की बूंदोंवाला स्क्रीन सेवर और वॉल पेपर लगा कर काम चलाया जा रहा है. बारिश तो वही है, लेकिन समय के साथ सब बदल गया है.