बुधवार, 22 मार्च 2017

आजादी के बाद पहली बार इस गांव में गये डीएम!

अमर शहीद जुब्बा सहनी के नाम पर राजनीतिक रोटियां दशकों से सेंकी जा रही हैं. कितने लोग शहीद का नाम लेकर बड़े नेता हो गये, लेकिन नाम लेने और हकीकत में क्या सच्चई है. ये शहीद के गांव जाने पर पता चलता है. शहीद जुब्बा सहनी का गांव मीनापुर प्रखंड मुख्यालय से सात किलोमीटर दूर चैनपुर टोले में हैं. इस टोले की हालत ऐसी है, जहां सिर्फ झोपड़ियां ही झोपड़ियां दिखेंगी. उनकी भी हालत ठीक नहीं. बिजली यहां लगभग पांच साल पहले आयी थी. उसकी निशानी मीटर, झोपड़ियों के बाहर लगे दिखते हैं. टोले में दो-तीन खंभे भी लगे हैं, लेकिन पूछते ही यहां के लोग असलियत बयान करने लगते हैं. कहते हैं कि हाल में खंभे लगे हैं. पहले बांस पर बिजली थी. खेतों में अभी बांस ही लगे हैं. उन्हीं के सहारे 11 हजार की लाइन दौड़ती है.
टोले को गांव का दरजा देने का एलान 15 साल पहले 2002 में हुआ था, लेकिन सरकारी फाइलों में ये एलान अभी दम तोड़ रहा है. यहां सरकारी योजनाओं की आंच नहीं पहुंचती हैं. यहां कुछ लोगों का राशन कार्ड बना है. वृद्धवस्था पेंशन मिलती है, लेकिन दोनों ही चीजें महीनों के इंतजार के बाद नसीब होती हैं. यहां के लोग कहते हैं कि राशन तो कभी पूरा मिला ही नहीं. कुछ न कुछ काट कर ही राशन दिया जाता है, जब ये लोग विरोध करते हैं, तो डीलर की ओर से धमकी दी जाती है. यहां के कुछ युवकों ने डीलर की धमकी भरी आवाज मोबाइल में रिकार्ड भी कर ली है. वह कहते हैं कि हम हक मांगते हैं, तो हमें इस तरह से डराया जाता है.
चैनपुर गांव के जुब्बा सहनी रहनेवाले थे. इसके अलावा इसी गांव के बांगुर सहनी भी स्वतंत्रता आंदोलन में शहीद हुये थे, लेकिन अब उनके घर की निशानी तक नहीं बची है. जुब्बा सहनी के परिवार में उनकी पतोहू मुनिया बची है, जिसकी तबियत हाल के दिनों में बहुत खराब थी. इसी की खबर जब प्रभात खबर ने प्रमुखता से छापी, तब प्रशासन की नींद टूटी. राज्य सरकार के निर्देश पर पहली बार डीएम मुजफ्फरपुर चैनपुर पहुंचे, तो उन्हें वहां पर कमियां ही कमियां नजर आयीं. डीएम ने जुब्बा सहनी के परिजनों को कई तरह की सरकारी सुविधाएं देने का एलान किया. इनमें मुनिया को उत्तराधिकार पेंशन देने की बात भी शामिल है.
इससे इतर अगर बात करें, तो इस टोले में जुब्बा सहनी की मूर्ति क्या. एक पोस्टर तक नहीं हैं. गांव के बुजुर्ग कहते हैं कि हम लोगों की लंबी उम्र बीत चुकी है, लेकिन हम लोगों ने कभी सुख नहीं देखा है. हमेशा परेशानी में ही रहे हैं. कोई सुधि लेने भी नहीं आता है. ये बताते हैं कि गांव में सरकारी योजनाओं का हाल खराब है. अभी तक किसी की उज्जवला योजना के तहत टोले में गैस का सिलेंडर नहीं मिला है. बिहार सरकार ने रेडियो देने की शुरुआत की थी. वो रोडियो भी नहीं नसीब हुआ है. तमाम तरह के बीमा की बात होती है, लेकिन यहां किसी का बीमा भी नहीं है. बुजुर्ग बताते हैं कि वह रैलियों में ही भाग लेने पटना गये हैं. इसके अलावा कभी प्रदेश की राजधानी तक नहीं पहुंचे हैं.
गांव में अभी भी इतनी गरीबी है कि बच्चे के बड़े होते ही उसे मजदूरी में लगा दिया जाता है, ताकि घर की रोटी चल सके. पढ़ने के लिए स्कूल नहीं है. पांच साल पहले जमीन भी सरकार को दी गयी, लेकिन स्कूल नहीं बन सका. सबसे नजदीक जो उर्दू स्कूल है, उसमें हिंदी के शिक्षक नहीं हैं. यहां का कोई बच्च पढ़ना चाहता है, तो उसे एक किलोमीटर दूर जाना पड़ता है. अगर किसी की तबियत खराब हो गयी, तो सात किलोमीटर चल कर मीनापुर जाना होगा. आसपास में किसी तरह की व्यवस्था नहीं है. गांव में जिस स्वास्थ्य कार्यकर्ता की बहाली है, वो कभी आता ही नहीं है. यहां के मुखिया बताते हैं कि हमने फोन किया, उसके बाद भी स्वास्थ्य कार्यकर्ता ने आना शुरू नहीं किया.
शहीद के टोले का हाल ये है कि यहां आजादी के सत्तर साल बाद पहला सरकारी चापाकल विधायक फंड से हाल में ही लगा है, वो भी तब जब प्रभात खबर में खबर छपी. उसके बाद आनन-फानन में चापाकल लगवाया गया. अब इसी का पानी पूरे मोहल्ले के लोग पीते हैं. जिला प्रशासन की ओर से कई तरह की घोषणाएं की गयी हैं, लेकिन अभी किसी पर काम शुरू नहीं हुआ है. सात निश्चय योजना के तहत मोहल्ले का विकास करने की बात हो रही है. राज्यसभा सांसद अनिल सहनी ने इसे गोद ले लिया है, लेकिन अभी तक यहां का दौरा तक नहीं किया है. विधायक का कहना है कि इस गांव को आदर्श गांव बनाया जाना चाहिये. इसकी मांग उन्होंने विधानसभा में की है, लेकिन सरकार की ओर से कुछ आश्वासन अभी तक नहीं दिया गया है.
हाल में 11 मार्च को जुब्बा सहनी का शहादत दिवस मनाया गया. राजधानी पटना में बड़ा समारोह हुआ, जिसमें मुख्यमंत्री नीतीश कुमार भी शामिल हुये थे. वहां मुख्यमंत्री ने कहा कि हम पटना में जुब्बा सहनी के नाम पर स्मारक बनायेंगे, लेकिन इस गांव के लोगों का कहना है कि पटना में स्मारक बनने से पहले सरकार को हमारी स्थिति को देख लेना चाहिये. गांव के मुखिया कहते हैं कि यही त्रसदी है. जमीन पर काम नहीं हो रहा है. यहां के लोग परेशान हैं.

शनिवार, 18 मार्च 2017

ऐसा रिस्पांस समाज के अंतिम व्यक्ति तक मिले, तब मानें सरकार!

मित्र विकास ठाकुर का सुबह फेसबुक पोस्ट पढ़ा. बड़ा सुकून देनेवाला लगा. उन्होंने लिखा था कि रात में दिल्ली से गरीबरथ एक्सप्रेस से चले. बच्चे के लिए दूध लेकर चले थे, लेकिन खराब हो गया. रेल मंत्रलय को ट्वीट किया और अगले स्टेशन तक दूध की व्यवस्था हो गयी. भूख से रो रहे बच्चे को सुकून मिला. इस मामले में लगा कि व्यवस्था काम कर रही है. इसके लिए सरकार और रेल मंत्रलय को बधाई भी देना चाहिये, लेकिन इसके साथ ही सवाल ये भी है कि अगर ऐसी ही व्यवस्था समाज के अंतिम व्यक्ति तक को मिले, तब समङिाये कि सरकार काम कर रही है.
पंचायत से लेकर बीडीओ, सीओ व तमाम अन्य सरकारी कार्यालयों तक जरूरतमंद चक्कर लगाते रहते हैं, लेकिन उनका काम नहीं होता है. योजनाओं के नाम पर तो अपने यहां झड़ी लगी है. हर चीज के लिए एक नहीं कई योजनाएं हैं, लेकिन उनका लाभ लेने की बारी आती है, तो किस तरह से दौड़ाया जाता है. मेरा व्यक्तिगत अनुभव है कि प्राकृतिक आपदा के समय सरकार फसल क्षति देती है. मैं मुजफ्फरपुर के कई प्रखंडों में घूमा हूं. किसानों से बात की है. ज्यादातर का यही कहना होता है कि हम लोग सरकारी मदद नहीं लेते हैं. इसके लिए कौन लगातार बीडीओ कार्यालय के चक्कर लगाये, जिनती बार दौड़ना पड़ता है. उतने अगर हम खेत पर मेहनत करेंगे, तो अगली फसल अच्छी हो जायेगी. जब भी कोई किसान अनुदान या नुकसान की भरपाई के लिए संबंधित कार्यालय जाता है, तो कभी बैठक की बात कह कर वापस कर दिया जाता है. कभी बताया जाता है कि साहब क्षेत्र के दौरे पर हैं और कभी कह दिया जाता है कि डीएम साहब की बैठक में भाग लेने के लिए जिला मुख्यालय गये हैं.
ऐसे जवाब सुन कर क्या कोई सही किसान बीडीओ ऑफिस के चक्कर लगाता रहेगा. जवाब शायद नहीं में होगा, क्योंकि किसान के पास इतना समय नहीं होता है कि वो खेती का काम छोड़ कर बीडीओ ऑफिस के चक्कर लगाता रहे. अभी अपने यहां धान खरीद का काम चल रहा है. पैक्सों को इसका जिम्मा दिया गया है, लेकिन हालत क्या है. मुजफ्फरपुर जिले की बात करें, तो दस फीसदी किसानों का भी रजिस्ट्रेशन नहीं हो पाया है. ये हाल तब है, जब धान खरीद का समय पूरा होने में मात्र 12 दिन बाकी बचे हैं. एसे में अंदाजा लगाया जा सकता है कि धान खरीद से किसको लाभ मिलेगा? मुङो लगता है कि उन किसानों को तो नहीं, जिन्होंने खून-पसीना बहा कर फसल तैयार की, क्योंकि फसल तैयार करने के दौरान इतना खर्च हो जाता है कि कटाई के बाद उन पर उपज को बेचने का दबाव रहता है, ताकि और काम कर सकें.
सवाल ये है कि यह स्थिति कब बदलेगी? क्या इसकी ओर कोई संवेदनशील होकर सोच रहा है? क्या वो अधिकारी जिन्हें जनता की सेवा के लिए सरकार भारी भरकम वेतन देती है. वो खुद को इसके लिए तैयार कर पाये हैं कि समाज के अंतिम व्यक्ति तक को जब कोई परेशानी होगी, तो वह उसकी मदद को आयेंगे. उसे समय पर मदद मिलेगी. अगर गंभीरता से हम लोग विचार करेंगे, तो शायद इसका भी उत्तर नहीं में ही मिलेगा.
ऐसे में हम तो यही कह सकते हैं कि यात्री सुविधाओं को लेकर जिस तरह से रेल मंत्रलय की ओर से हाल के दिनों में पहल की जा रही है, उससे उम्मीद की किरण जरूर दिखायी देती है. अगर तमाम महकमे चाहें, तो परेशानी सामने आने पर उसका समाधान कर सकते हैं. मुङो लगता है कि इससे अन्य विभागों को भी नसीहत लेने की जरूरत है, तब एक काम के लिए लोगों को बीडीओ, सीओ व अन्य सरकारी ऑफिसों में बार-बार चक्कर नहीं लगाना पड़ेगा.

शुक्रवार, 17 मार्च 2017

चुनाव जीत लिया, तो मुख्यमंत्री भी चुन लेंगे, आप क्यों परेशान हैं?

विरोध भी अजीब चीज है. दिल है कि मानता नहीं..की तर्ज पर बढ़े ही जाता है? उत्तर प्रदेश में चुनाव का नतीजा आया और भाजपा की अगुवाई वाले एनडीए ने बंपर जीत दर्ज की. इसके बाद मुख्यमंत्री पद को लेकर कयासों का दौर शुरू हो गया. राजनीति है, सब लोग कयास लगाते हैं. होना भी चाहिये, लेकिन कुछ ऐसे भी बुद्धिजीवी हैं, जो तरह-तरह के तर्को का सहारा ले दिन भर कुछ न कुछ गढ़ते रहते हैं. गोवा और मणिपुर का हवाला दे रहे हैं. वहां बना लिया, यहां क्यों नहीं बना पा रहे हैं. ऐसे राय दे रहे हैं, जैसे सरकार बनाने में इनकी राय ही मानी जायेगी. अगर भाई, आपकी राय के बिना चुनाव जीत लिया है, तो मुख्यमंत्री भी चुन लेंगे. इसमें आप क्यों परेशान हैं?
यह आप खुद के साथ भी करते होंगे, जो काम अर्जेट होता है. उसे जल्दी कर लिया जाता है. जिसमें आप खुद को सक्षम पाते हैं, उसे अपने हिसाब से करते हैं. ऐसा तरह-तरह की सलाह देनेवाले भी करते होंगे, लेकिन विरोध करते समय इसे भूल जाते हैं. ऐसे में सवाल उठता है कि क्या हमारा विरोध इतना सतही होना चाहिये? अगर विरोध ही करना है, तो ऐसे मुद्दों को लेकर हो, जिससे समाज का भला हो? शायद हम लोगों की ऐसी आदत अब नहीं रह गयी है.

बुधवार, 15 मार्च 2017

अब किसका दरवाजा खटखटाएं यजुआर के युवा?

परेशानी तो चार दशक पुरानी है, लेकिन मैं लगभग पांच साल से जान रहा हूं. पिछले एक साल से नजदीक से देख रहा हूं. यजुआर के युवा जिस तरह से अपने गांव बिजली लाने के लिए अभियान चलाये हुये हैं. कड़ी से कड़ी जोड़ कर इसे आगे बढ़ा रहे हैं. वह प्रेरणा देनावाला है, लेकिन व्यवस्था पर सवाल भी खड़े करता है.  इलाके से लेकर दिल्ली तक में गांव के युवा अपनी मांग को लेकर अधिकारियों से लेकर नेताओं तक से गुहार लगा चुके हैं. हर दरवाजे से उन्हें आश्वासन मिल रहा है, लेकिन काम आगे नहीं बढ़ रहा है. हाल में दिल्ली के जंतर-मंतर पर बिजली के लिए धरना-प्रदर्शन हुआ, तो उसमें नेताओं ने भी भागीदारी की. इसके बाद भी यजुआर में बिजली आने की किरण नहीं दिखायी पड़ रही है. ऐसे में सवाल उठता है कि अब किसका दरवाजा खटखटाएं यजुआर के युवा?
2020 तक सब गांवों को बिजली देने का दावा करनेवाली सरकारें यह बताने को तैयार नहीं हैं, जिस गांव में सत्तर के दशक में बिजली के तार खिच चुके हैं. उस गांव में 2017 में भी बिजली क्यों नहीं जल रही है? अगर नहीं जल रही है, तो इसके पीछे कारण क्या हैं और इसके लिए जिम्मेवार कौन है? उनके खिलाफ किस तरह की कार्रवाई की गयी है. अगर सरकार गांववालों को दोषी मानती है, तो उसके बारे में भी बताना चाहिये, ताकि उसके आगे का काम हो सके, लेकिन अब सिर्फ आश्वासन से काम नहीं चलेगा. सिंगल विंडो सिस्टम के जमाने में अगर सरकारी मशीनरी इस तरह का व्यवहार करेगी, तो उसकी महत्ता क्या रह जायेगी? क्या लोगों का विश्वास उसके ऊपर से नहीं उठेगा?
यजुआर के बिजली संघर्ष के बारे में पहली बार विकास ठाकुर ने बताया, जो दिल्ली में रहते हैं, लेकिन गांव में बिजली नहीं होने की कसक उन्हें सालती है. वह लगातार  इस दिशा में काम कर रहे हैं, ताकि जल्दी से जल्दी उनके गांव में भी खिंचे बिजली के तारों से करंट दौड़े. हाल में दिल्ली से मुजफ्फरपुर आये, तो मिलना हुआ. कहने लगे कि बिना गांव को साथ लिये हमारा आंदोलन सफल नहीं होगा. इसी वजह से गांव आया हूं. दिल्ली के जंतर-मंतर पर प्रदर्शन करना है. गांव के लोगों से बात करूंगा, तो उससे हमें आंदोलन को सही दिशा में ले जाने की प्रेरणा मिलेगी.
सोशल मीडिया से लेकर विभिन्न माध्यमों से यजुआर की बिजली की आवाज सामने आयी है, लेकिन जिन लोगों को इसे सुनना है, वह चुप्पी साधे हुये हैं. स्थानीय विधायक भी ग्रामीणों की भाषा बोलते हैं. कहते हैं कि हमने विधानसभा में मामला उठाया है, लेकिन इसके आगे क्या हो रहा है. इसकी जानकारी नहीं दे पाते हैं. विकास ठाकुर जैसे यजुआर के दर्जनों युवा हैं, जो अलग-अलग महानगरों में नौकरी करते हैं, लेकिन सबकी चिंता एक है कि गांव में बिजली कैसे आये. अभियान में शामिल युवाओं में से ज्यादातर उम्र भी उतनी नहीं है, जितने समय से यजुआर के साथ ज्यादती हो रही है. सिके बावजूद इन युवाओं में विश्वास दिखता है कि हमारे गांव में बिजली आयेगी. अन्य गांवों की तरह यजुआर की गलियां भी दूधिया लाइट से रोशन होंगी. बंद पड़ी पानी की टंकी चलेगी और घरों को टैब वाटर मिलेगा, लेकिन कब तक? इसी पर आकर सारी बात रुक जा रही है.
केंद्रीय ऊर्जा मंत्री का पत्र इनके पास है, जो उन्होंने राज्य सरकार को लिखा था, लेकिन राज्य सरकार की ओर से पहल नहीं हुई. कुछ माह पहले मुख्यमंत्री नीतीश कुमार दिल्ली गये थे, तो वहां वरिष्ठ पत्रकार मनीष ठाकुर ने उनका ध्यान इसकी ओर खीचा था. उस समय युवाओं को लगा था कि मुख्यमंत्री की ओर से इसकी घोषणा की जायेगी, लेकिन ऐसा नहीं हुआ. मुख्यमंत्री ने गांव के युवाओं को मिलने के लिए बुलाया, लेकिन अभी तक बात नहीं बनी. अगर यजुआर की बात करें, तो यह सूबे के सबसे बड़े गांव के रूप में शुमार होता है, लेकिन यहां बिजली का नहीं होना पूरी कहानी कहता है.
गांव के लोग अतीत पर गर्व करते हैं, जब तत्कालीन केंद्रीय मंत्री  ललित नारायण मिश्र के प्रभाव से यहां बिजली के खंभे गड़े थे. ट्रांसफार्मर लगा था. गांव में टंकी बनी थी. सड़कों का निर्माण हुआ था. एपीएचसी खुल गया था. यह गांव आदर्श गांवों में शुमार हो गया था. गांव में बिजली का खंभा, पोल, तार व ट्रांसफार्मर लगने के बाद भी बिजली केवल टेस्टिंग के लिए आयी. उसके बाद से आज तक बिजली के दर्शन नहीं हुये. बिजली नहीं है, तो टंकी से पानी कैसे मिलेगा, लेकिन टंकी पर सरकारी कर्मचारी की नियुक्ति जरूर है, जो केवल टंकी की रखवाली का काम कर रहा है.
एपीएचसी बंद हो गयी, जिसके बाद से यहां के ग्रामीण फिर से झोलाछाप डॉक्टरों के हवाले हो गये हैं. गांव की आबादी लगभग 40 हजार के आसपास है. इसके बाद भी ये दुर्दशा है. यहां के ग्रामीण बताते हैं कि सात साल पहले अधिकारियों की बड़ी टीम गांव आयी थी, उस समय लगा था कि दिन बहुरनेवाले हैं. 40 बिंदुओं से ज्यादा की रिपोर्ट बनी थी, लेकिन काम किसी पर नहीं हुआ. रिपोर्ट कहीं सरकारी फाइलों की शोभा बढ़ा रही होगी. गांव के लोगों की बेहतरी की खुशी कुछ दिनों में काफूर हो गयी और वह फिर से खुद को ठगा महसूस करने लगे, जो स्थिति अभी तक जारी है. यहां सवाल फिर से वही है, सरकार ने तमाम योजनाएं बनायी हैं, लेकिन कोई योजना यजुआर जैसे गांव पर क्यों नहीं लागू होती, जिससे यहां पर बिजली आ जाये?

क्या हम इनसे प्रेरणा नहीं ले सकते!

बहुत पुराना प्रसंग नहीं है. 2014 की बात है, तब भी अमर शहीद जुब्बा सहनी के परिजनों का मामला सामने आया था. परिवार के इकलौते कमाऊ सदस्य मुनिया के बेटे ने आत्महत्या कर ली थी. वो घर बनाने का काम करता था, लेकिन उससे इतने पैसे नहीं मिलते थे कि परिवार की दो जून की रोटी के साथ बच्चों को पढ़ाये और उनकी जरूरतें पूरी कर सके. देखा बच्ची बड़ी हो रही है, लेकिन उसकी ऐसी सामथ्र्य नहीं थी कि वो उसके हाथ पीले कर सकता. बताते हैं कि लोकलाज के डर से उसने फांसी लगा ली.
बात मुनिया की पोती की शादी की आयी, तब भी प्रभात खबर में खबर छपी. समाज के लोग आगे आये. मदद की और मुनिया की पोती की शादी हुई. ये खबर आयी, तो मुङो भी लगा कि शहीद के परिजनों की मदद होनी चाहिये. खबर छपने के अगले दिन शहर में व्यवसाय करनेवाले कुछ युवा मेरे पास आये कहने लगे कि हम परिवार की मदद करना चाहते हैं. हम कुछ कपड़े और पैसे उन्हें देना चाहते हैं. साथ ही वो लोग जो कहेंगे, हम मदद करेंगे. हमने जानकारी लेने के बाद उन लोगों का फोन नंबर उन्हें उपलब्ध करा दिया, जो शादी की तैयारियां देख रहे थे. मुजफ्फरपुर से युवाओं ने उस नंबर पर संपर्क साधा, तो उन लोगों ने कहा कि शादी के लिए जितनी मदद की जरूरत थी. वो मिल गयी है. अब और मदद नहीं चाहिये. आप लोग मदद देना चाहते हैं. इसके लिए धन्यवाद!
क्या हम आप ये सोच सकते हैं. इतनी सरलता. जिस परिवार में दो जून खाने के लिए रोटी नहीं है. वो ऐसा कर सकता है. क्या उन्हें अच्छे कपड़े पहनने की चाह नहीं लगती होगी? लेकिन उन्होंने कितनी सरलता से ना कर दिया. इसके बारे में हमें हाल में तब पता चला, जब मुनिया की तबियत बिगड़ी और फिर उसकी खबर को हम लोगों ने छापा, तो फिर उन युवाओं में से एक ने संपर्क किया और कहा कि हम मदद करना चाहते हैं. हमने पूछा, आप लोगों ने पिछले बार भी मदद की थी, तो वो कहने लगा कि उन्होंने मदद ली कहां थी. उन्होंने तो इनकार कर दिया था.

मंगलवार, 14 मार्च 2017

Gali-Gali: इलाहाबाद और दो साथियों का अंग्रेजी ज्ञान

Gali-Gali: इलाहाबाद और दो साथियों का अंग्रेजी ज्ञान: इलाहाबाद यूनिवर्सिटी को पूर्व का ऑक्सफोर्ड कहा जाता है. अब तो सैकड़ों की संख्या में निजी विश्वविद्यालय और तमाम तरह के तकनीकी संस्थान खुल गय...

हमारे-आपके बीच हैं देवता समान लोग

बाबू बृजपाल सिंह का चेहरा ठीक से याद नहीं, बचपन के वो दिन थे, लेकिन हमारे गांव के सबसे प्रतिष्ठित व्यक्ति. रिटायरमेंट के बाद गांव में रहते थे. वैसे तो उन्होंने गांव में तीन पक्के मकान उस जमाने में बनवाये थे, लेकिन खुद एक मड़ही (छप्पर के नीचे) में रहते थे. दादी और घर के बुजुर्ग आपस में बात करते थे कि सुबह तीन घंटे पूजा करते हैं. हमेशा राम-नाम लेते हैं. उन्हीं लोगों से मैं ये बाते सुनता. बाबू साहब का घर ज्यादा दूर नहीं था, सो कभी-कभी खेलते-खेलते उनके दरवाजे तक भी चला जाता था. गांव के लोगों में उनका बड़ा सम्मान था. सब इज्जत देते थे, लेकिन बाबू साहब अपनी मड़ही से ज्यादा बाहर नहीं निकलते थे. कभी बहुत जरूरी होता था, तब ही बाहर जाते थे, जो लोग जाते, उनसे आत्मीयता और सरलता से बात करते.
गांव के लोग बताते कि वो बिना पढ़े हुये चीनी मिल की मशीनों के इंजीनियर थे. चंपारण से लेकर देहरादून तक चीनी मिल की मशीनों को बनाने के लिए जाते थे. गांव-जवार में जब कोई लड़का बड़ा होता, तो उसकी नौकरी के लिए अभिभावक बाबू साहब के पास जाते थे. बाबू साहब भी लोगों को निराश नहीं करते थे. यथा शक्ति, इलाके के दर्जनों लोगों को विभिन्न चीनी मिलों में काम पर लगवा दिया. ऐसे लोग हमारे बड़े होने तक काम कर रहे थे. अब वो लोग भी बूढ़े हो चले हैं. कई परिवार तो देहरादून में ही बस गये. पीढ़ियाँ बदलीं, लेकिन चीनी मिल में काम करने का सिलसिला अभी तक चल रहा है. इसे हम बाबू साहब का प्रताप ही कह सकते हैं.
वो फागुन का महीना ही था, लगभग 35 साल पहले. होली का त्योहार आनेवाला था. गांव में चर्चा हुई कि बाबू साहब की तबियत अब ज्यादा खराब है. उन्होंने बिस्तर पकड़ लिया था. बहुत कम बोल पाते थे. लोगों को देखते और इशारों में ही बात करते थे. बताते हैं कि होली के एक दिन पहले उनकी तबियत कुछ ठीक हुई, तो घर के लोगों को उम्मीद बंधी. होली का दिन अच्छे से बीता, लेकिन अगली सुबह उन्होंने अपने बेटे को बुलाया और कहा कि हमको कल ही जाना था, लेकिन हमने मना कर दिया कि हमारे बच्चों को त्योहार खराब हो जायेगा. इसलिए हम आज चले जायेंगे. ये सुनने के बाद उनके बेटे ने कहा कि कैसी बातें कर रहे हैं बाबू जी. हम लोग हैं, आप हमको छोड़ कर ऐसे नहीं जा सकते हैं, लेकिन बाबू साहब उस दिन उठे. नित्य क्रिया की. पूजा शुरू की और बिस्तर पर लेटे-लेटे ही राम-नाम लेने लगे. दिन का खाना खाया और उसके बाद सदा के लिए इस दुनिया से चले गये. बाबू साहब के अंतिम समय की चर्चा सालों गांव में होती रही. कैसे तपस्वी व्यक्ति थे वो. कैसे उन्होंने भगवान से साक्षात्कार किया होगा. कैसे उन्होंने अपनी मौत को एक दिन अपने तप के बल पर टाल दिया? ये बात, भले ही सुनने में असंभव जैसी लगती हो, लेकिन सत्य है. ऐसे थे, हमारे गांव के बाबू जी.
बाबू जी का प्रसंग इस वजह से याद आया कि हाल में अभिभावक तुल्य रामवृक्ष बेनीपुरी जी का अचानक निधन हुआ, तो तगड़ा सदमा लगा. उन्होंने अपने पिता व कलम के जादूगर रामवृक्ष बेनीपुरी जी की स्मृतियों को जिस तरह से संजोने का काम किया, वो कोई श्रवण कुमार ही कर सकता है, जिसमें देवतत्व हो. तीन-चार दिन पहले उनके भांजे महंत राजीव रंजन दास जी से बात होने लगी, तो वह बताने लगे कि जिस दिन बेनीपुरी जी का निधन हुआ, उससे एक दिन पहले उन्होंने अपने बेटे को बुला कर कैसे कहा कि तुम लोगों ने मेरी बहुत सेवा की, लेकिन अब मेरे जाने का समय आ गया है. उसके बाद वो 24 घंटे जीवित नहीं रहे. महंत राजीव रंजन दास इससे पहले 23 दिसंबर 2016 का प्रसंग भी बताते हैं, रामवृक्ष बेनीपुरी जी की जयंती थी. हम सब लोग जयंती समारोह में शामिल होने के लिए बेनीपुर गांव गये हुये थे. महेंद्र जी भी वहां थे, लेकिन महंत जी बांध पर पूर्व केंद्रीय मंत्री रघुवंश प्रसाद सिंह का इंतजार कर रहे थे. उनके आने में थोड़ा बिलंब हो रहा था, सो हम लोगों की वहां मुलाकात नहीं हो सकी थी, लेकिन जब रघुवंश बाबू बांध पर पहुंचे, तो बागमती पार करके महंथ जी उनके साथ बेनीपुर गांव पहुंचे थे. कहने लगे कि वहां बात हो रही थी. इसी बीच महेंद्र जी कहने लगे कि ये आखिरी बार हम बाबू जी (बेनीपुरी जी ) की जयंती में शामिल होने आये हैं. अगले साल हम नहीं होंगे.
महंत जी बताते हैं कि महेंद्र जी जो बात कह रहे थे वो इतनी जल्दी सत्य हो जायेगी, इसके बारे में हमने कभी सोचा नहीं था, लेकिन उन्हें इसका आभास रहा होगा. ये सुनने के बाद लगा कि हम लोग चाहे, जो सोंचे या कहें, लेकिन समाज में हम लोगों के बीच ऐसे लोग हैं, जो ऋषितुल्य हैं. सामाज में रहते हुये अपनी सरलता सो छाप छोड़ते रहते हैं. हम खुद को सौभाग्यशाली समझते हैं कि हमें ऐसे लोगों से मिलने और उन्हें देखने-सुनने का मौका मिला.

नहीं सुनायी देती..बाबा हरिहरनाथ, सोनपुर में रंग लूटे..की गूंज


पेशे से शिक्षक रहे ब्रह्मानंद ठाकुर जी सामाजिक कार्यकर्ता भी हैं, जो हर मुद्दे पर बेबाकी से अपनी राय रखते हैं. रिटायरमेंट के बाद गांव में रह कर समाजसेवा और पत्रकारिता को समर्पित हैं. अपने बचपन की होली की यादें, उन्होंने प्रभात खबर के साथ शेयर कीं. 

ऐन होली के मौके पर भी गांवों में उदासी छायी है. कहीं कोई चहल-पहल नहीं. एक सन्नाटा- सा पसरा हुआ है आसपास में. सोचता हूं, हमारे त्योहार पर कहीं ग्लोबलाइजेशन का असर तो नहीं. आखिरकार कहां गुम हो गयी होली की उमंग. कैसे फीके हुये इसके रंग! ये सब सोचते हुये लौट जाता हूं अतीत में. हां, अतीत में लौटना, थोड़ी देर के लिए सुकून तो देता ही है. यह जानते हुये भी कि बीता लौटकर वापस नहीं आता है. हमारी जैसी उमर के लोग अतीतजीवी हो ही जाते हैं और अकसमात मुंह से निकल पड़ता है..कितने अच्छे थे वो दिन. तो बात उन दिनों की है, जब हम 10-12 साल के थे. मतलब अभी से 50 साल पहले, तब होली की धमक वसंत पंचमी के साथ ही सुनायी देने लगती थी. डंप पर नया चाम मढ़ा लिया जाता था. बक्से में बंद झाल बाहर निकाल ली जाती और रात में होली गाने का सिलसिला हमारे गांव में शुरू हो जाता था. कमोबेश हर गांव में ऐसा होता था. इसकी पूर्णाहुति होली के दिन चैत प्रतिपदा की रात गांव की सीमा पर बूढ़ी गंडक के किनारे स्थापित महादेव मंदिर पर..बम-बम भोले हो लाल, कहवां रंगोले पगड़िया. बाबा हरिहरनाथ सोनपुर में रंग लूटे..जैसे होली गीतों के साथ होती थी.
उस समय हमारे गांव के ज्यादातर बुजुर्गो की होली के गीत और जोगीरा पर अद्भुत पकड़ होती थी. उनके पास गीतों, कथाओं का खजाना हुआ करता था. उन्हीं से चलकर ये परंपरा, तब की नयी पीढ़ी तक पहुंची, जो आज बुजुर्ग होकर हासिये पर आ गयी है. अब वो न पहले वाले लोग बचे और न उनकी परंपरा रही. वंसत पंचमी से ही होली गाने की परंपरा के पीछे, जैसा कि तब लोग कहते थे कि चूंकि साल भर बाद ये त्योहार आता है, इसलिए जिंदगी की जद्दोजहद में अधिकांश गीत लोग भूल चुके होते हैं. इसलिए ये समय उनके अभ्यास का समय माना जाता था. रात में होली गानेवाली मंडली का जुटान किसी एक के दरवाजे पर होता था. गांव के लोग उसमें जुटते. 10-11 बजे रात तक होली गायी जाती, उसी समय यह निर्णय भी हो जाता था कि कल किसके दरवाजे पर जुटान होना है. एक महीने तक चलनेवाले इस कार्यक्रम में बड़े उत्साह से लोग भाग लेते थे. असली मजा हम लोगों को संवत (होलिका दहन के दिन) और उसके कल होकर होली के दिन आता था, तब आज की तरह गांव में खाना बनाने के लिए एलपीजी नहीं थी. इसलिए जलावन की कमी नहीं थी. लोग सालभर के लिए जलावन का जुगाड़ रखते थे. खेती भी वैसी ही थी और बाग बगीचे भी, जहां से पर्याप्त जलावन मिल जाता था. होलिका दहन के लिए जलावन जुटाने की जिम्मेवारी लकड़ो की टोली की हुआ करती थी.
हमारा गांव उस समय लगभग 70 घरों का था. दो-चार घरों से कुछ लड़के निकलते. किसी एक दरवाजे पर संवत के लिए जलावन मांगते, तो उस घर का एक लड़का भी साथ हो लेता था. इसी तरह लड़कों की टोली आगे बढ़ती रहती और इस अभियान में 30-40 लड़के जमा हो जाते थे. सभी एक साथ घूमते हुये जलावन एकत्र करते. उसका जगह-जगह ढेर लगाते जाते. जमा करने का काम जब पूरा हो जाता, तब उसे ढो कर तय स्थान पर पहुंचा दिया जाता था. लड़क थे, सो बैलगाड़ी हांकने, तो आता नहीं था. किसी दरवाजे से बैलगाड़ी (बिना बैल) मांग लेते. कविवर हरिवंश राय बच्च की कविता..युग का जुआ..की तर्ज पर दो मजबूत कद-काठी वाले बच्चे बैलगाड़ी का जुआ कंधे पर रख कर खीचते हुये आगे बढ़ते जाते और इस तरह जलावन को निर्धारित जगह पर पहुंचा दिया जाता.
हम लड़कों में अनुशासन इतना था कि जलावन मांगने में कहीं भी और कभी भी जोर-जबरदस्ती नहीं की जाती थी. सभी गांव वाले चाचा-बाबा होते थे. गांव से इकट्ठा जलावन का ढेर इतना हो जाता था कि उसे सिर उठा कर देखना पड़ता था. होलिका दहन का समय अक्सर देर रात में पड़ता था. हम में से ज्यादातर बच्चे सोये रहते थे, जिसकी वजह से जलावन की ढेर को इकट्ठा करने के बाद भी हम उसे जलते हुये नहीं देख पाते थे. तब यह मान्यता थी जिसके मां-पिता दोनों की मौत हो चुकी हो, वही संवत को जलायेगा. सो हमारे गांव के बिंदा चाचा, पूरे जीवन संवत जलाते रहे. लोग अपने घरों से पतली कमाची में पांच बड़ी को गूथ कर ले जाते थे और उसको जलती हुयी संवत में डालते थे. आज तक नहीं जान सका कि ऐसा करने का क्या कारण रहा होगा. संवत जलते ही डंप-झाल पर होली गाने का सिलसिला शुरू हो जाता था. इस तरह होली गीत से आधी रात की निस्तब्धता भंग होती थी, लेकिन लगता बड़ा सुखद था.
होली का दिन बड़ा उत्साह लेकर आता था. दिन चढ़ते ही कादो-माटी खेलने के लिए होड़ लग जाती थी, जो देखते ही बनता था. कीचड़ से तब-बतर लड़कों को पहचानना मुश्किल होता था. उस माहौल में अनुशासन न जाने कहां गायब हो जाता. उसका पता ही नहीं चलता, जो भी मिल जाये, उसका स्वागत कीचड़ से होता. कीचड़ न मिले, तो सड़कों की धूल ही सही. उनकी को इस दिन सामत ही आ जाती, जो उस दिन ससुराल में होते. बड़े प्रेम से उन्हें पकड़ कर गोबर-माटी से नहलाया जाता था और गांव के लोग खूब मजा लेते थे. मुङो याद नहीं इस मौके पर कभी किसी से कोई झगड़ा हुआ हो. कैसा प्रेम, भाईचारा और सौहाद्र्र था तब!
दोपहर बाद अचानक ये खेल स्वेच्छा से बंद हो जाता था. दोपहर के बाद नहाने के लिए हम लोग बूढ़ी गंडक की ओर रुख करते थे. स्नान के बाद होली गायन और रंग गुलाल लगाने का सिलसिला फिर से शुरू होता था. गांव भर बड़े बुजुर्ग होली गाने के मास्टर होते थे. उनमें से अब एक-दो लोग ही जीवित हैं. उन पुराने दिनों की याद अपने जेहन में संजोये. गांव में होली गाने की शुरुआत महावीर स्थान से होती थी. इसके बाद बारी-बारी से सभी के दरवाजे पर जाते थे. होली गाने की शुरुआत किसी गीत से हो, लेकिन अंत मंगलकारी गीत से होता था. ये क्रम देर रात तक चलता था और रात में शिवमंदिर पर जाकर पूरा होता था.

68 फीसदी जनता खिलाफ थी, तब आप क्यों नहीं बोले?

उत्तर प्रदेश के अप्रत्याशित नतीजों ने उन राजनीतिक पंडितों को सोचने पर मजबूर कर दिया है, जो कह रहे थे कि त्रिशंकु विधानसभा होगी. जोड़तोड़ का दौर चलेगा. भाजपा को सत्ता से बाहर रखने के लिए सपा-बसपा और कांग्रेस साथ आ जायेंगे, लेकिन चुनाव परिणाम ऐसे आये कि उनके इन दावों की हवा निकल गयी. चुनाव परिणाम के दिन ऐसे लोग दिन भर ये सोचने में व्यस्त रहे कि अब क्या करें और क्या कहें?
शाम तक जब आकड़ों की तस्वीर साफ हुई, तो पता चला कि भाजपा को 41 फीसदी वोट मिले हैं, तो कहने लगे कि ये पूरा जनादेश नहीं है. भले ही सीटें मिल गयी हैं, लेकिन भाजपा को ये नहीं भूलना चाहिये कि उसके खिलाफ 59 फीसदी लोगों ने वोट दिया है, जो अपने आप में वोटों का बहुमत है. ऐसा सवाल करनेवालों ने इससे पहले ये कभी नहीं कहा कि अखिलेश यादव 31-32 फीसदी लोगों का वोट प्राप्त करके ही पांच साल तक सत्ता में रहे, तब यह सवाल उठानेवाले कहां थे, इनका पता नहीं था. अब जब कुछ नहीं मिला, तो प्रतिशत का खेल खेलने लगे.
चूंकि ऐसे लोगों का एक अलग वर्ग होता है. वह विरोध करेंगे ही, चाहे जो भी हो, लेकिन विरोध करने से पहले यह भी सोचना चाहिये कि हम जो कह रहे हैं. वो तो उन लोगों पर भी लागू होता है. विरोध के नाम पर हम जिनका साथ देने को तैयार दिखते हैं. लोकतंत्र में संख्या बल की प्रमुख रही है. संख्या के बल पर ही सरकारें बनती और बिगड़ती रही हैं. अपने देश में लोकतंत्र की लगभग सात दशकों की यात्र के दौरान ऐसे बहुत से मौके आये हैं, जब कुछ वोटों से ही फैसला हुआ है. ऐसे में किस बात को सही माना जाना चाहिये. ये तय कर लेना चाहिये? क्योंकि वोट चाहे जिनते भी मिलें, लेकिन जिसको सीटों में बहुमत मिलेगा, सरकार तो उसी की बनेगी. यह क्या सत्य नहीं है?
अगर मैं ऐसा लिख रहा हूं, तो ये मत समझ लीजियेगा कि मैं किसी पार्टी का समर्थक हूं. मैं किसी पार्टी का समर्थक नहीं हूं. मैं केवल लोकतंत्र की उस तासीर का समर्थक खुद को मानता हूं, जिसमें संख्या बल को सवरेपरि माना गया है. हां, अगर ये सिस्टम खराब है और इसकी जगह पर कुछ और अच्छा हो सकता है, तो हमें उसी को अपनाना चाहिये. क्योंकि अगर हम उत्तर प्रदेश से सटे हुये बिहार राज्य के चुनाव परिणामों की बात करें, तो यहां गठबंधन के सहारे बहुमत मिला, तीन पार्टियां जुट गयीं, तब 43 फीसदी वोट आया. यानी यहां के भी 57 फीसदी लोगों ने सरकार के खिलाफ मत दिया था, जैसा कि विरोध के लिए कहा जा रहा है, लेकिन मैं इस मत का समर्थक नहीं हूं. यहां सरकार को अच्छा बहुमत मिला है. वह राज्य कर रही है, लेकिन इन आलोचकों ने इस सरकार पर कभी सवाल नहीं उठाये? आखिर ये कैसा विश्लेषण है, इस पर भी गौर करना चाहिये. केवल विरोध के लिए विरोध अच्छा नहीं होता है, मेरा सिर्फ यही कहना है.

सोमवार, 13 मार्च 2017

बड़ी मुश्किल है यार?

बड़ी कंपनी में काम करनेवाले राजेश का हाल बेहाल है. होली में तीन दिन की छुट्टी हो जाती, लेकिन संडे की वजह से एक दिन की छुट्टी मारी गयी. वैसे राजेश संडे को छुट्टी पर रहते हुये भी कंपनी के कामों पर ध्यान रखते हैं. एक्सपोर्ट और इम्पोर्ट का काम होने की वजह से सामान कब आयेगा और कब जायेगा. इसकी पूरी चिंता करने पड़ती है. इसकी वजह से कोई समय नहीं राजेश की ड्युटी का. सामान्य ड्यूटी के समय तो ऑफिस में रहना ही पड़ता है, क्योंकि पता नहीं कब बड़े सर तलब कर लें वीडियो कांफ्रेंसिंग पर. साथ ही अगर समय पर ऑफिस नहीं जायें, तो नीचे के कर्मचारी काम में लापरवाही कर देते हैं. बॉस राजेश ऑफिस में रहते हैं, तो काम अच्छा होता है, अगर किसी दिन नहीं आये, तो क्या-क्या सुनने को मिलता है कि फलां ने काम नहीं किया. फलां ऑफिस से खुद को काम के लिए निकल गया.
ऐसे में राजेश के सामने परेशानी ये है कि वो डॉक्टर की सलाह माने या फिर अपनी मंजिल को पाने के लिए रात-दिन की नींद और चैन त्यागे. क्योंकि डॉक्टर कहते हैं कि अगर रात में ज्यादा जगे, तो परेशानी होगी. नींद पूरी लेना जरूरी है. पूरी नींद लेते हैं, तो सुबह नौ से दस बज जाते हैं, तब तक ऑफिस जाने का समय हो जाता है. ऐसे में रोज की एक्सरसाइज छूट जाती है. एक्सरसाइज छूटी, तो पेट निकलने का खतरा और एक्सरसाइज करता है, तो ऑफिस समय से नहीं पहुंच पायेगा. इसी कसमकश में पिछले छह माह से राजेश की एक्सरसाइज छूट रही है, जिसका असर उसके शरीर पर दिखने लगा है, जो देखता है. कहता है, पहले से आप मोटे हो गये हैं. ये सुनते ही राजेश की परेशानी और बढ़ जाती है.
नोटबंदी के बाद कंपनी के परफारमेंस को लेकर चिंता अलग से, नगदी की परेशानी अब धीरे-धीरे दूर हो रही है, लेकिन पहले तो जुगाड़ और चिंता में ही दिन गुजरता था. किस देश से सामान आना है और कहां जाना है. इसकी ट्रैकिंग और मॉनिटरिंग दोनों की चिंता राजेश के जिम्मे ही है. ऐसे में वो घर के सदस्यों को कम समय दे पाता है. माता-पिता को लगता है कि बेटा बड़ा अधिकारी हो गया है, लेकिन उनसे बात तक नहीं कर पाता. इसी के बारे में सबसे बात करके माता-पिता तो संतोष कर लेते हैं, लेकिन पत्नी और बच्चों को लगता है कि पापा उन्हें समय नहीं दे पाते हैं. पत्नी को लगता है कि ड्यूटी के बाद समय पर घर नहीं आना, राजेश का बहाना है. वो कहीं किसी और समय देते हैं. इसको लेकर अलग से टशन चलती रहती है. राजेश की पत्नी ने शादी के साल ही परिवार के साथ वैष्णों देवी जाने की मन्नत मांगी थी, लेकिन 14 साल बीत गये, नहीं जा सके. जब भी प्लान बनाते हैं, तो कोई न कोई अर्जेट काम आ जाता है. मां के धाम की यात्र कैंसिंल हो जाती है, तब परिवार में यही होता है कि मां का बुलावा नहीं आया है, इस वजह से यात्र रोकनी पड़ी.
पहले राजेश बच्चों के पैरेंट्स-टीचर मीटिंग में चले जाते थे, लेकिन पिछले तीन साल से उसमें भी नहीं जा सके हैं. हाल में ही बच्चे के स्कूल के प्रिंसपल ने बुलाया था. बताया था कि बेटा कैसे पढ़ने से बच रहा है. बहाना करता है. स्कूल भी कम आता है. घर पर ध्यान देने की ताकीद कर रहे थे. कह रहे थे कि जब तक आप ध्यान नहीं देंगे. बेटा पढ़ेगा नहीं, चाहे कितने भी ट्यूशन लगवा दीजिये. प्रिंसपल के सामने बेटे को भला-बुरा कहके राजेश घर वापस आया, तो पत्नी पर गुस्सा दिखाने लगा, लेकिन पत्नी ने टका सा उत्तर दिया. हम क्या कर सकते हैं, आपका बेटा बड़ा हो गया है. अब मेरा कहना नहीं मानता है. आपसे तो बार-बार कह रहे हैं, ध्यान दीजिये, लेकिन आपको ऑफिस के काम से फुर्सत मिलेगी, तब ना आप किसी पर ध्यान दीजियेगा. आप तो केवल घर सोने के लिए आते हैं, क्या संडे, क्या मंडे. हर दिन काम. जारी..

शुक्रवार, 10 मार्च 2017

वोटरों का मापने का पैमाना एक्जिट पोल हैं क्या?

पिछले लगभग दो दशक से एक्जिट पोल का खेल चल रहा है. शुरू में जब ये कांसेप्ट आया था, तो कुछ स्थिति ठीक थी, लेकिन जब चैनलों की भरमार हुई और तरह-तरह के एक्जिट पोल शुरू हुये. इनको लेकर स्टिंग ऑपरेशन का दौर भी शुरू हुआ. कई चेहरे किस तरह से बेनकाब हुये, तब से एक्जिट पोल को लेकर भरोसा उठ सा गया है. भरोसा उठने के लिए केवल आकड़ों का घालमेल करनेवालों के चेहरे नहीं हैं, बल्कि स्थिति ये भी है कि मान लिया जाये, जहां घालमेल नहीं होता, वहां के नतीजे क्या सही निकलते हैं. पिछले चार-पांच चुनाव का देखें, तो एक-दो जगह ही ऐसा मिलता है, जहां एक्टिज पोल के नतीजे कुछ सही देखने को मिले हैं, बाकि में स्थिति तीन-तेरह वाली ही रही है.
ऐसे में एक्जिट पोल को चाव लेकर देखने और पढ़ने का मन अब नहीं होता है. हां, एक उत्सुकता जरूर रहती है कि चैनल वाले टीआरपी के लिए किस तरफ का रुख कर रहे हैं. सबके नतीजे लगभग साथ ही घोषित होते हैं, ज्यादातर की सीटें आसपास रहती हैं, जबकि कुछ में बड़ा अंतर रहता है. अब इसे क्या कहेंगे, बिहार का चुनाव हुये ज्यादा दिन नहीं हुये. हम लोग ग्राउंड जीरो पर स्थिति देख रहे थे. रंगे-पुते चैनलवाले और वालियां नेताओं के साथ आ रहे थे और यहां से ग्राउंड रिपोर्ट बता रहे थे. वह भी उन लोगों के फीडबैक से जिनका जमीन से कोई सरोकार नहीं? ऐसे में एक्जिट पोल क्या सही होंगे.
हवा-हवाई, तो हवा-हवाई ही रहेंगे. एक्जिट पोल में क्या-क्या नतीजे घोषित किये गये थे बिहार को लेकर और हुआ क्या? एक्जिट पोल के आधार पर सरकार भी बनवाने का काम शुरू हो गया था. कौन-किसके साथ जायेगा, तो सरकार बनने का आकड़ा पूरा हो जायेगा. यही अब सबसे ज्यादा मायने रखनेवाले प्रदेश उत्तर प्रदेश को लेकर किया जा रहा है. चैनलवालों ने अपने हिसाब से सीटों का पिटारा खोल दिया है. अब एक्जिट पोल का नाम भी बदल रहा है. अभी तक कवरेज को लेकर ही महा जैसे शब्दों का इस्तेमाल हो रहा था. अब एक्जिट पोल को लेकर भी इस तरह की बात हो रही है. ऐसे में सवाल ये उठता है कि जिन लोगों के मत के आधार पर इन एक्जिट पोल बनाया गया है. उन्हें क्या सही जानकारी मिली होगी?
अपने यहां का मतदाता जल्दी पत्ते नहीं खोलता है. मतदान केंद्र में वो किस दल को वोट देकर आया है, ये बताने से कम से कम कैमरे पर तो परहेज करता ही है. हां, अगर आप उससे घुल-मिल कर बात करेंगे, तो शायद सच्चई बोल दे. ये सच्चई बिहार चुनाव के दौरान दिख रही थी. हम लोग बात करते थे. कहते थे कि हवा निकलनेवाली है, लेकिन तब हम लोगों को शक की निगाह से देखा जाता है. कथित बुद्धिजीवी कहते थे कि जनता का क्या रुख है और ये क्या बात कर रहे हैं. कई बार खास राजनीतिक दलों से प्रभावित होने के बात हम लोगों के बारे में कह दी जाती थी, लेकिन नतीजा आया, तो क्या हुआ?
हां, एक बात और. यही उत्तर प्रदेश जिसका कल नतीजा आनेवाला है. लोकसभा चुनाव में यहां के एक्जिट पोल में क्या आया था और नतीजों में क्या हुआ? ये सब लोगों ने देखा, तब क्या किसी ने सोचा था कि भाजपा को 72 सीटें मिलेंगी, लेकिन जो लोग जनता के बीच में रहते हैं. उन्हें इस बात का एहसास जरूर था, लेकिन वो स्क्रीन पर नहीं दिख रहा था.

सोमवार, 6 मार्च 2017

केबीसी विनर सुशील कुमार ने प्रभात खबर के लिए लिखी हीरालाल के संघर्ष की कहानी

हीरालाल शर्मा के बारे में जब जानकारी हुई, तो उनसे मिलने के लिए शहर के रघुनाथपुर मोहल्ले जा पहुंचा. बातचीत के दौरान लगा कि कुछ मदद करनी चाहिये, तो मैंने पूछ लिया, लेकिन हीरालाल बोले, भैया हमारी आंखें कमजोर हैं. हाथ नहीं. उनकी इसी बात ने मुङो प्रभावित किया. मेरे अंदर उनके बारे में और जानने की जिज्ञासा हुई.
पढ़ाई के प्रति हीरालाल (27) में गजब का जज्बा है. परिवार की स्थिति ऐसी नहीं है कि इन्हें पढ़ने का खर्च मिले. सो हीरालाल महीने में 23 दिन पढ़ाई करते हैं और सात दिन दिहाड़ी (मजदूरी) पर काम करते हैं. इसमें ज्यादातर इन्हें ईंट ढोने का काम मिलता है. इससे जो पैसा मिलता है. उससे पहले अपने बूढ़े माता-पिता के लिए महीने भर का राशन खरीदते हैं. उसके बाद कापी-किताब और फिर अपने व भाइयों के खाने का राशन. कमरे का किराया भी देना पड़ता है. इस संघर्ष के बाद भी हीरालाल खुश हैं.
एमए तक पढ़ाई कर चुके हीरालाल नौकरी के लिए तैयारी कर रहे हैं. इसके लिए रोज शाम को मोतिहारी जिला स्कूल मैदान में एकत्र होनेवाले प्रतियोगी छात्रों के बीच जाते हैं. वहां आपस में प्रश्नोत्तर करते हैं. मेधावी हीरालाल अन्य छात्रों के चहेते हैं. वह शहर में मैथ व रिजनिंग की तैयारी करवानेवाले शिक्षक सुबोध कुमार के यहां पढ़ने जाते हैं. सुबोध को जब हीरालाल के बारे में पता चला, तो उन्होंने इनकी फीस माफ कर दी और जरूरी किताबें भी ला कर दीं. वह कहते हैं कि हीरालाल जिस लगन से तैयारी कर रहे हैं. उनका सेलेक्शन जल्दी ही कहीं हो जायेगा.
वहीं, हीरालाल भी उस दिन का इंतजार कर रहे हैं, जब संघर्षो के बीच पढ़ कर आगे बढ़ने का परिणाम नौकरी के रूप में उन्हें मिले. मेरी कई बार हीरालाल से मुलाकात हुई, लेकिन मैंने कभी उन्हें निराश नहीं देखा. किराये के कमरे में तीन बाइ छह की चौकी पर तीनों भाई रहते हैं. इनका छोटे भाई सुनील कुमार भी प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी कर रहे हैं, जबकि सबसे छोटे भाई प्रदीप ने इस बार इंटर की परीक्षा दी है.
खुद के बल पर आगे बढ़ रहे हीरालाल की स्थिति ऐसी नहीं है कि रोज हरी सब्जी व दाल खा सकें. रात में अक्सर नमक-मिर्च के साथ रोटी खाते हैं और सुबह में आलू का चोखा व भात बनता है. उसी से तीनों भाइयों का पेट भरता है. सप्ताह में एक दिन सब्जी बनती है. यह बताते हुये हीरालाल निराश नहीं होते. कहते हैं कि हमारे हाथ ठीक हैं. इसलिए खर्चा चलाने के लिए दिहाड़ी करते हैं. भगवान ने आंखें में ही दोष दे दिया. इस वजह से ठीक से देख नहीं पाता हूं. अगर आंखें, ठीक होतीं, तो मैं बच्चों को ट्यूशन पढ़ा लेता.
हीरालाल इतने सरल और मृदुभाषी हैं कि हर बार इनसे कुछ नयी जानकारी मिलती है. इस दौरान कई बार लगता है कि हम सबको हीरालाल के बारे में क्यों जानना चाहिये? इसका उत्तर मैं कई बार खुद से ढूढने की कोशिश करता रहा. लगा कि हीरालाल के संघर्ष की कहानी अगर सबके सामने आये, तो इनके समाज में और जो स्वाभिमानी युवा हैं. उन्हें संघर्ष करने का बल मिलेगा.
हीरालाल मूलरूप से पश्चिम चंपारण में योगापट्टी के सिसवाकुटी गांव के रहनेवाले हैं, लेकिन 2001 में गंडक में आयी बाढ़ इनका घर बहा ले गयी. इसके बाद परिवार विस्थापित हो गया और शनिचरी में दूसरे के जमीन पर झोपड़पट्टी बना कर रहने लगा. विस्थापित परिवार की दो जून की रोटी मजदूरी से चलने लगी. इसी दौरान हीरालाल ने तय किया कि मजदूरी के साथ वह पढ़ाई भी करेंगे. मजदूरी के साथ पढ़ाई शुरू की. मैट्रिक, इंटर, राजनीति शा में स्नातक व स्नातकोत्तर किया. छोटे भाइयों को भी पढ़ा रहे हैं.

रविवार, 5 मार्च 2017

ईदगाह के हामिद की तरह लग रहा था वो

कलम के सिपाही प्रेमचंद्र की कहानी ईदगाह बचपन में पढ़ी थी. हामिद का किरदार मन में बस गया. मेरे क्या, जिसने भी कहानी पढ़ी होगी, उसे याद होगा. 2011 की ठंडक से हम लोगों ने शहर के लोगों के सहयोग से कंबल वितरण शुरू किया. सर्द रातों में शहर के विभिन्न मोहल्लों व प्रमुख स्थानों पर घूम-घूम कर देखना. कोई ऐसा तो नहीं है, जो सर्द रात में बिना बिना कंबल के सो रहा है. हम लोग लोगों को देखते और उन्हें कंबल ओढ़ा देते. ये सिलसिला अब तक चल रहा है, लेकिन 2012 में कंबल बांटने के दौरान दिसंबर महीने के आखिरी सप्ताह में एक ऐसा वाकया हुआ, जो पूरी तरह से मन-मष्तिस्क पर अंकित हो गया. बीच-बीच में वो प्रेरणा देता रहता है.
सर्द रात में उस दिन कंबल बांटने हम लोग थोड़ी देर से निकले और कई स्थानों पर गये. इससे काफी देर हो गयी. रात बारह बजे के बाद हम लोग मुजफ्फरपुर जंकशन पहुंचे और वहां प्लेटफार्म नंबर दो की ओर बढ़े. कुछ जरूरतमंद मिले. कंबल दिया गया. इसके बाद हम लोग वापस घर के लिए निकल रहे थे, तभी लगभग दस साल का बच्च दिखा, जिसके बदन पर शर्ट और शर्ट के अंदर कुछ गरम कपड़ा. एक हाथ में चाय का बर्तन और दूसरे में झोला, जिसमें शायद कुल्हड़ व प्लास्टिक के कप रहे होंगे. छोटे बच्चे को देखते ही मुङो लगा कि इसे भी कंबल देना चाहिये. साथ गये लोगों से कहा, तुरंत कंबल आ गया.
कंबल बांटने में साथ गये विमल छापड़िया ने उसकी ओर कंबल बढ़ाया, तो बच्चे ने कंबल लेने से मना कर दिया. कहने लगा कि मेरे घर में कई कंबल हैं, जो हमारे माता-पिता ओढ़ते हैं. हम तो चाय बेचने आये हैं. अभी थोड़ी देर में ट्रेन आयेगी वापस हाजीपुर चले जायेंगे और घर में जाकर सो जायेंगे. कंबल बांटने के दौरान का ये पहला वाकया था, जब किसी ने मदद लेने से इनकार किया था. बच्चे का हौसला देख कर अच्छा लगा. दमकता चेहरा. मुझसे नहीं रहा गया. मुङो ये लगा कि मैं कहूं तो शादय कंबल ले लेगा.
मैंने कहा, तो कहने लगा कि कंबल लूंगा, तो मेरे सामान का वजन बढ़ जायेगा. फिर हम सामान संभालेंगे कि कंबल. कंबल के साथ हम चाय कैसे बेच पायेंगे. हमको तो अपने पिता के इलाज के लिए पैसे कमाने हैं. हम चाय बेच कर पैसे ले जायेंगे, तब इलाज होगा ना. इस पर हम सब लोग ये जानने को उत्सुक हो गये, आखिर क्या परिस्थिति है, जो इतनी सर्द रात में इतना छोटा बच्च अपने घर से पचास से ज्यादा किलोमीटर दूर स्टेशन पर चाय बेचने के लिए आया है.
हम लोगों को बच्चे से बात करता देख, आसपास के कई और लोग भी आ गये. बच्च कहने लगा कि हम रोज यह काम करते हैं. रात में आते हैं और इधर से जो ट्रेन मिलती है. उससे वापस हाजीपुर चले जाते हैं. दिन में काम करने जाते हैं. शाम के समय घर से चाय लेकर चलते हैं और देर रात तक बेच कर वापस चले जाते हैं. मेरी मां घर में पिता की सेवा करती हैं, क्योंकि वह बीमारी के कारण उठ नहीं पाते हैं. पहले काम करते थे, लेकिन अचानक बीमारी ने घेरा और वह बेड पर पड़ गये. ऐसे में हम अपने परिवार को नहीं संभालेंगे, तो कौन दूसरा मदद करेगा.
दस साल का बच्च वह किसी से मदद भी लेने को तैयार नहीं दिख रहा था. कह रहा था कि मेरे पापा हैं. हम मेहनत करके उनका इलाज करायेंगे. हम पढ़ने के साथ काम करते हैं. चाय बेचते हैं और कड़ी मेहनत करनी पड़ेगी, तो करेंगे. उसकी बातें सुन कर लग रहा था कि आखिर परिस्थिति ने इसे समय से पहले कितना मेच्योर कर दिया है. कैसे इसे खुद के कर्म पर भरोसा है. क्या इस बच्चे की तरह हम सब लोग कर सकते हैं? विभिन्न क्षेत्रों में, जो जहां हैं और जिस काम में है. अगर ऐसा हो, तो अपना देश बदल जायेगा.

अमर शहीद के नाम पर सम्मान मिला, खाने को दो जून की रोटी नहीं!

अमर शहीद जुब्बा सहनी के नाम के सहारे राजनीतिक दल दशकों से चुनावी वैतरणी पार करते रहे हैं, लेकिन कभी किसी दल ने ये नहीं सोचा कि आखिर शहीद के परिजनों का क्या हाल है? जब काम पड़ता है, तो नेता हाजिर हो जाते हैं और हमदर्दी जताते हुये शहीद की पतोहू मुनिया देवी का सम्मान कर देते. महीनों से जुब्बा सहनी की पतोहू मुनिया देवी बीमार थी. हालत बिगड़ी तो 15 दिन पहले उसने खाना छोड़ दिया, लेकिन किसी नेता ने मुनिया की सुधि नहीं ली.
मुनिया के बीमार होने व खाना छोड़ देने संबंधी खबर जब प्रभात खबर में प्रमुखता से छपी, तब भी नेता नहीं जागे. निषाद विकास मोर्चा के सन ऑफ मल्लाह मुकेश सहनी आगे आये. उन्होंने मुनिया को मुजफ्फरपुर के निजी नर्सिग होम में भर्ती करवाया. इसके बाद बेहतर इलाज के लिए  पटना भिजवाया. अब मुनिया के इलाज की उम्मीद बंधी हैं. प्राथमिक इलाज के दौरान जो बात सामने आयी. उसमें मुनिया की हालत बिगड़ने के पीछे मुख्य वजह समय से खाना नहीं मिलने का रहा, जिसकी वजह से शरीर में खून की कमी हो गयी और उसने बिस्तर पकड़ लिया. लगभग 70 साल की मुनिया की देखभाल उसकी बहू गीता कुमारी करती है, जो गांव में लोगों के यहां मजदूरी करती. इससे जो पैसे मिलते. वो घर के सदस्यों के खाने में ही चले जाते. मुनिया का इलाज कैसे हो, परिवार के सामने यही संकट था.
पोता गया कुमार कमाने के लिए बनारस गया था, जहां उसे दिहाड़ी का काम मिला, लेकिन दादी की तबियत के बारे में सुना, तो वापस गांव चला आया. दादी की सेवा करने लगा. गीता देवी की चार बेटियां हैं. वह भी दादी की सेवा में लगी थीं, लेकिन घर की माली हालत ऐसी नहीं थी कि उन्हें इलाज के लिए अस्पताल तक जा सकें. घर में जो आता था, उससे केवल एक टाइम का खाना बनता था. अगर बचता था, तो दूसरे टाइम में खाना होता था, नहीं तो भूखे ही घर के सदस्यों को सोना पड़ता था.
मुनिया व उसके परिजनों का हाल सामने आने के बाद चार मार्च को डीएम धर्मेद्र सिंह चैनपुर पहुंचे. मुनिया के दरवाजे पहुंच कर ग्रामीणों से पूरी जानकारी ली. इसके बाद मुनिया की बहू गीता को फोन करके उसके इलाज के बारे में जानकारी ली. डीएम ने मुनिया को स्वतंत्रता सेनानी उत्तराधिकारी पेंशन दिलाने की बात कही. साथ ही गीता देवी को विधवा पेंशन और उनकी बच्चियों का दाखिला आवासीय विद्यालय में कराने का निर्देश दिया. डीएम ने गया कुमार को भी कौशल विकास के तहत ट्रेनिंग दिलाने की बात कही और उसे गांव में ही रोजगार देने का निर्देश अपने मातहत अधिकारियों को दिया.
डीएम ने कहा कि मुनिया के इलाज पर जो खर्च आयेगा, उसे भी प्रशासन उठाने के लिए तैयार है. डीएम पहुंचे, तो मुनिया के घर नेताओं के पहुंचने का सिलसिला भी शुरू हो गया. राजद से जुड़े शिवचंद्र राय पहुंचे. कहने लगे कि हम मुनिया के लिए मुख्यमंत्री नीतीश कुमार से मिलेंगे. विधायक रविवार को मुनिया के घर पर जायेंगे. वो कह रहे हैं, हम मुनिया के दरवाजे पर चापाकल लगवायेंगे. इन सब घोषणाओं के बीच चैनपुर के ग्रामीण प्रभात खबर का शुक्रिया कर रहे हैं. कह रहे हैं. अगर प्रभात खबर के जरिये सामाचार सामने नहीं आया होता, तो मुनिया का बचना मुश्किल था, क्योंकि वह खाना नहीं खाने की वजह से बिल्कुल सूख चुकी थी.
अमर शहीद जुब्बा सहनी की बात करें, तो उन्होंने आजादी की लड़ाई के दौरान जिस दिलेरी से साथियों को बचाने के लिए अपने सिर पर अंगरेज दारोगा की हत्या का इल्जाम लिया, वो साधारण नहीं था. क्योंकि हत्या के आरोपित को फांसी मिलनी तय थी और वही हुआ. 11 मार्च 1944 को जुब्बा सहनी को भागलपुर सेंट्रल जेल में फांसी की सजा दी गयी थी. उस परिवार की पतोहू मुनिया इस हाल में रहे? उसके पास खाने को दो जून की रोटी नहीं हो? वह भी तब देश में खाने की सुरक्षा का कानून पास है?

शुक्रवार, 3 मार्च 2017

साहित्य का श्रवण कुमार चला गया

कलम के जादूगर रामवृक्ष बेनीपुरी जी के सबसे छोटे बेटे डॉ महेंद्र बेनीपुरी नहीं रहे. सूचना मिली, तो सहसा विश्वास नहीं हुआ. 23 दिसंबर को बाबू जी (रामवृक्ष बेनीपुरी) की जयंती पर बेनीपुर में मुलाकात हुई थी. हंसता हुआ चेहरा. कहने लगे, इस बार तबियत की वजह से हमें आने से बच्चे रोक रहे थे, लेकिन हम चले आये. हमारी बाबू जी को लेकर प्रतिबद्धता है. पांच किताबें, जिनका फिर से प्रकाशन हुआ था, उनका लोकार्पण हुआ. हर साल की तरह जयंती समारोह में राजनीति से लेकर साहित्य जगत की हस्तियां जुटी थीं.
पूर्व केंद्रीय मंत्री रघुवंश प्रसाद सिंह विशेष तौर पर पहुंचे थे, जिनसे डॉ महेंद्र बेनीपुरी को विशेष उम्मीद थी कि वो बाबू जी के सपनों को साकार करने में राजनीति तौर पर आ रही परेशानियों को दूर करवायेंगे. रघुवंश बाबू ने ऐसा करना भी शुरू कर दिया है, लेकिन किसी पता था कि बाबू जी के प्रति समर्पित डॉ महेंद्र बेनीपुरी ऐसे चले जायेंगे. 2016 का जयंती समारोह उनके लिए आखिरी साबित होगा. इससे पहले बाबू जी की पुण्यतिथि पर वंशी पचड़ा (शिवहर) में कार्यक्रम हुआ था, जिसमें बेनीपुरी जी के नाम पर पुस्तकालय खुला था. इसकी शुरुआत करने के विशेष तौर पर गोवा की राज्यपाल डॉ मृदुला सिन्हा आयीं थीं. बड़ा समारोह हुआ. जाने का अवसर मिला था. डॉ महेंद्र बेनीपुरी बहुत प्रसन्न थे, लग रहा था, जैसे कोई बड़ा सपना साकार हो गया है.
बाबू जी की प्रकाशित व अप्रकाशित लगभग एक सौ कृतियों का फिर से प्रकाशन करवाया. उनका लोकार्पण भी हुआ. मुजफ्फरपुर से लेकर नागपुर और गोवा के राजभवन में. डॉ महेंद्र बेनीपुरी से जुड़े डॉ राजेश्वर कहते हैं कि वो साहित्य के श्रवण कुमार थे, जिन्होंने अपने बाबू जी के सपनों को साकार करने में कोई कोर कसर नहीं छोड़ी. वह दिन रात इसी काम में लगे रहते. कैसे बाबू जी ने जो सपने देखे थे, वो पूरा हो सकें. उनके नाम का स्मारक बांध के उस पार बने. बाबू जी बनायी घर रूपी आखिरी निशानी को कैसे संरक्षित किया जाये. रामवृक्ष पुरी की जीवनी लिख रहे डॉ संजय पंकज कहते हैं कि लगता है कि डॉ महेंद्र बेनीपुरी अभी किसी तरफ से आयेंगे और पूछने लगेंगे संजय भाई बाबू जी की जीवनी पर कितना काम हुआ.
बीती 15 फरवरी को डॉ महेंद्र बेनीपुरी ने डॉ संजय पंकज को आखिरी पत्र लिखा था, जिसमें उन्होंने बाबू जी की जीवनी लिखने के लिए 31 मार्च के डेटलाइन तय कर दी थी और इसके बाद फोन करके पूछते और कहते कि इस बीच आपको फेसबुक पर ज्यादा सक्रिय देख रहे हैं. फेसबुक पर कम सक्रिय रह कर काम पूरा कर दो, क्योंकि इसी साल पर 12 अगस्त को मेरे जन्मदिन पर बाबू जी की जीवनी का लोकापर्ण होना है. डॉ पंकज बताते हैं कि बाबू जी की जीवनी का लोकार्पण वो मेरे ही हाथों कराने की बात करते थे. कहते थे कि तुम ही इसके लिए सबसे उपयुक्त व्यक्ति हो.
डॉ महेंद्र बेनीपुरी जी से जुड़े रहे ब्रह्मानंद ठाकुर कहते हैं कि दस दिन पहले बात हुई थी, तब इस साल लोकार्पित रामवृक्ष बेनीपुरी जी की पुस्तकों को लेकर बात हुई थी. हमने कुछ पुस्तकों की मांग की थी, जिस पर डॉ महेंद्र बेनीपुरी जी ने हामी जतायी थी, लेकिन मुङो क्या पता था कि ये बात उनसे आखिरी होगी. उनका जाना बहुत दुख दे रहा है. वो अपने बाबू जी को लेकर जिस तरह से समर्पित रहे. वैसा कौन बेटा करेगा. उनके नाम पर कोई काम मुजफ्फरपुर के साथियों को जरूर करना चाहिये. इसके लिए प्लानिंग हो जानी चाहिये, ताकि काम की शुरुआत हो.
पांच साल पहले को वो दिन मुङो बहुत याद आ रहा है, जब डॉ महेंद्र बेनीपुरी जी से पहली बार बेनीपुर गांव में ही मुलाकात हुई थी. मौका रामवृक्ष बेनीपुरी के जयंती समारोह का था. पूरे परिवार के साथ आये थे. बहुत आत्मीयता से मिले थे. बाबू जी की स्मृतियों को लेकर अपनी चिंताएं जाहिर करने लगे. इसके बाद मुजफ्फ रपुर में मुलाकात हुई थी, तो उन्होंने बाबू जी की कई पुस्तकें पढ़ने को दी थी और कहा था कि इन्हें पढ़ोगे, तो बाबू जी को समझ जाओगे. इसके बाद जब भी आते, तब बात और मुलाकात होती थी. हर बार वो ऊर्जा व उत्साह से भरे दिखते. कोई कुछ कहता, तो कहते थे कि मुङो अभी बाबू जी के साहित्य पर काम करना है. कुछ दिन पहले फेसबुक पर भी लिखा था कि बाबू जी की जीवनी पर काम करना है. इस वजह से कुछ दिन फेसबुक से दूर रहूंगा.
सीतामढ़ी के सामाजिक कार्यकर्ता रामशरण अग्रवाल भी डॉ महेंद्र बेनीपुरी से जुड़े थे. हर साल बेनीपुर आते हैं. वो कहते हैं कि भले ही डॉ महेंद्र बेनीपुरी अब हमारे बीच में नहीं हैं, लेकिन उनकी जीवंतता हमेशा महसूस होती रहेगी. डॉ महेंद्र बेनीपुरी का जीवन देखा जाये, तो पूरी तरह से अपने बाबू जी के प्रति समर्पित थे. बाबू जी की इच्छा पर ही इन्होंने मेडिकल की पढ़ाई छोड़ कर जीव विज्ञान पढ़ा था और शहर के कॉलेज में ही प्रोफेसर बने. पहले एलएस और फिर आरडीएस, जहां से रिटायर हुये थे. अभी वह अपने बेटे के साथ फरीदाबाद में रह रहे थे. भले ही महानगर में रह रहे थे, लेकिन उनकी चिंता गांव को लेकर थी. जिससे भी बात होती थी. वह गांव के बारे में पूछते थे. बाबू जी के स्मारक की दिशा में क्या काम हो रहा है. इसका जिक्र करते थे.