वह आता, दो टूक कलेजे के करता पछताता, पथ पर आता.
पेट-पीठ दोनों मिल कर हैं एक, चल रहा लकुटिया टेक.
महाकवि सूर्यकांत त्रिपाठी निराला की ये पंक्तियां बरसों पहले स्कूल के दिनों में पढ़ीं, तब से मानस में रच-बस गयीं. समय-समय पर स्मरण आता रहता, कभी गांव की यात्र के दौरान, तो कभी शहर की शोर भरी भीड़ के बीच, जिसमें कोई किसी को सुनने को तैयार नहीं. लगभग एक दशक के बाद आयी बाढ़ की विभीषिका ने हम पत्रकारों का काम भी बढ़ा दिया. अहले सुबह से लेकर देर रात तक कहां क्या हुआ कि तलाश में. बीते शनिवार रात की रात लगभग दो बजे काम खत्म करके घर जाने को हुआ, तो साथियों ने कहा कि साथ में चाय पीये बहुत दिन हो गया. चलते हैं, सब मिल कर चाय पीयेंगे और फिर अपने घरों को जायेंगे. सब साथ रेलवे स्टेशन रोड पर पहुंचे. चाय का आर्डर हुआ और हम लोग आपस में बात करने लगे. इसी बीच रामअशीष महतो, उम्र सत्तर के पार रही होगी. हम लोगों के पास आये. कुछ देर तक खड़े रहे. उनको देखते ही निराला जी कविता शिद्दत के याद आने लगी. बात करने की हिम्मत नहीं जुटा सका. कुछ देर तक रुकने के बाद, वह सड़क के पार गये और एक रिक्शा का हैंडिल पकड़ कर खड़े हो गये.
कुछ देर तक एकटक रामअशीष को देखता रहा. नहीं रहा गया, तो एक साथी से कहा कि उन्हें बुला लें. स्वाभिमानी रामअशीष पहले तो आने को तैयार नहीं हुये, लेकिन जब साथी ने बताया कि हम लोगों को कुछ बात करनी है, तो पास आये. बात शुरू हुई, तो कहने लगे, बेटा मुंबई में कमाता है. मेरे पास पोता रहता है. घर बाढ़ के पानी में दह गया, तो मंदिर में शरण लिये हैं. रात में रिक्शा चलाते हैं, तो खाना होता है. पोता मंदिर में सोता है, तो हम किराये पर रिक्शा लेते हैं. 35 रुपये रिक्शा का देना होता है. बाकी, जो बचे वो मेरा.
रामअशीष की काया ऐसी, जो निराला जी की कविता को भी मात दे रही. पेट और पीठ ऐसे मिले हुये, देख कर खुद अफसोस हो रहा था. कैसे समाज में हम रहते हैं. कहने लगे, शाम को खाना हुआ. होटल में पूड़ी-सब्जी खाया. बहुत कहने पर चाय पीने को तैयार हुये. बिस्कुट भी खाया. मैं लगातार रामअशीष को देख रहा था. उनसे कुछ और कहने और बोलने की हिम्मत नहीं जुटा पा रहा था. हमारे साथियों के सवाल भी लगा कि खत्म हो चुके हैं. चाय पीने के बाद वह धीरे से सड़क के पार गये और रिक्शे का हैंडिल पकड़ कर खड़े हो गये. शरीर पर एक धोती और फटा हुआ चप्पल छोड़ कर कुछ भी नहीं. भारी मन से मैं और मेरे साथी अपने घरों के लिए निकल गये, लेकिन रामअशीष की याद स्मृति से नहीं जा रही. निराला जी की कविता बार-बार समाज की हकीकत का एहसास कराती है. क्या हम और हमारा समाज इतना बेबस है? आखिर इस तस्वीर को कैसे बदला जा सकेगा? ऐसे तमाम अनगिनत और अनुरत्तरित सवाल.
पेट-पीठ दोनों मिल कर हैं एक, चल रहा लकुटिया टेक.
महाकवि सूर्यकांत त्रिपाठी निराला की ये पंक्तियां बरसों पहले स्कूल के दिनों में पढ़ीं, तब से मानस में रच-बस गयीं. समय-समय पर स्मरण आता रहता, कभी गांव की यात्र के दौरान, तो कभी शहर की शोर भरी भीड़ के बीच, जिसमें कोई किसी को सुनने को तैयार नहीं. लगभग एक दशक के बाद आयी बाढ़ की विभीषिका ने हम पत्रकारों का काम भी बढ़ा दिया. अहले सुबह से लेकर देर रात तक कहां क्या हुआ कि तलाश में. बीते शनिवार रात की रात लगभग दो बजे काम खत्म करके घर जाने को हुआ, तो साथियों ने कहा कि साथ में चाय पीये बहुत दिन हो गया. चलते हैं, सब मिल कर चाय पीयेंगे और फिर अपने घरों को जायेंगे. सब साथ रेलवे स्टेशन रोड पर पहुंचे. चाय का आर्डर हुआ और हम लोग आपस में बात करने लगे. इसी बीच रामअशीष महतो, उम्र सत्तर के पार रही होगी. हम लोगों के पास आये. कुछ देर तक खड़े रहे. उनको देखते ही निराला जी कविता शिद्दत के याद आने लगी. बात करने की हिम्मत नहीं जुटा सका. कुछ देर तक रुकने के बाद, वह सड़क के पार गये और एक रिक्शा का हैंडिल पकड़ कर खड़े हो गये.
कुछ देर तक एकटक रामअशीष को देखता रहा. नहीं रहा गया, तो एक साथी से कहा कि उन्हें बुला लें. स्वाभिमानी रामअशीष पहले तो आने को तैयार नहीं हुये, लेकिन जब साथी ने बताया कि हम लोगों को कुछ बात करनी है, तो पास आये. बात शुरू हुई, तो कहने लगे, बेटा मुंबई में कमाता है. मेरे पास पोता रहता है. घर बाढ़ के पानी में दह गया, तो मंदिर में शरण लिये हैं. रात में रिक्शा चलाते हैं, तो खाना होता है. पोता मंदिर में सोता है, तो हम किराये पर रिक्शा लेते हैं. 35 रुपये रिक्शा का देना होता है. बाकी, जो बचे वो मेरा.
रामअशीष की काया ऐसी, जो निराला जी की कविता को भी मात दे रही. पेट और पीठ ऐसे मिले हुये, देख कर खुद अफसोस हो रहा था. कैसे समाज में हम रहते हैं. कहने लगे, शाम को खाना हुआ. होटल में पूड़ी-सब्जी खाया. बहुत कहने पर चाय पीने को तैयार हुये. बिस्कुट भी खाया. मैं लगातार रामअशीष को देख रहा था. उनसे कुछ और कहने और बोलने की हिम्मत नहीं जुटा पा रहा था. हमारे साथियों के सवाल भी लगा कि खत्म हो चुके हैं. चाय पीने के बाद वह धीरे से सड़क के पार गये और रिक्शे का हैंडिल पकड़ कर खड़े हो गये. शरीर पर एक धोती और फटा हुआ चप्पल छोड़ कर कुछ भी नहीं. भारी मन से मैं और मेरे साथी अपने घरों के लिए निकल गये, लेकिन रामअशीष की याद स्मृति से नहीं जा रही. निराला जी की कविता बार-बार समाज की हकीकत का एहसास कराती है. क्या हम और हमारा समाज इतना बेबस है? आखिर इस तस्वीर को कैसे बदला जा सकेगा? ऐसे तमाम अनगिनत और अनुरत्तरित सवाल.