शनिवार, 30 सितंबर 2017

वो अस्सी के हैं, तो आप भी...

पूर्व वित्त मंत्री यशवंत सिन्हा ने सरकार की अर्थनीत को लेकर सवाल उठाये और केंद्रीय वित्त मंत्री अरुण जेटली को निशाने पर लिया, तो भाजपा के अंदर ही बड़ी बहस शुरू हो गयी. हालांकि ये सवाल पहले से विपक्ष व व्यापारिक प्रतिष्ठानों की ओर से उठाये जाते रहे हैं, लेकिन तब सरकार अपने बचाव में अलग-अलग तर्क पेश करती रही है. अब जब अपने घर के अंदर से ही आवाज आयी, तो सामने आये देश के गृहमंत्री राजनाथ सिंह, जिन्होंने ऑल इज वेल कह कर चीजों को संभालने की कोशिश की, लेकिन तीर कमान से निकल चुका था, सो अरुण जेटली ने नाम तो नहीं लिया, लेकिन पूर्व वित्त मंत्री यशवंत सिन्हा पर निशाना साध डाला. कहने लगे कि अस्सी साल की उम्र में काम ढूंढ रहे हैं. और तमाम बातें वित्त मंत्री ने कहीं. वित्त मंत्री जब यह बातें कह रहे थे, तब शायद उन्हें इस बात का एहसास नहीं था कि वह अभी भले की किसी उम्र के हों, लेकिन बढ़ तो अस्सी की ओर ही रहे हैं. एक न एक दिन वह भी अस्सी के होंगे और अस्सी के उम्र के काम मांगना क्या गुनाह है क्या? इससे पहले पेट्रोल-डीजल के दाम बढ़ने को लेकर जो बयान वित्त मंत्री का आया था, वो भी आपने सुना ही होगा.
भाजपा के घर के अंदर से उठी इस आावाज के शांत होने की जगह बढ़ते जाने की आशंका है, क्योंकि वित्त मंत्री अरुण जेटली के सवाल का जबाव बड़े जोरदार ढंग से यशवंत सिन्हा ने दे दिया है. कहा है कि अगर हम काम मांगते, तो आप वहां नहीं होते. भाजपा के पूर्व और वर्तमान वित्त मंत्री के बीच इस तल्खी का क्या देश के लोगों को फायदा हो रहा है? व्यक्तिगत तौर पर सवाल उठाने से क्या समस्याओं को समाधान हो जायेगा? क्या जीएसटी का रिटर्न भरने के लिए परेशान रहनेवाले व्यापारियों की समस्या सुलझ जायेगी? क्या पेट्रोल-डीजल के दामों में इन बयानों का असर पड़ेगा? शायद नहीं, तो फिर इस बयानबाजी के क्या मायने निकालने चाहिये. आज कुछ लोगों से बात हो रही थी, तो उनका कहना था कि हर सेक्टर से निराशा का माहौल है. इसका असर अपने लोक उत्सवों तक पर पड़ रहा है. इस बार की पूजा में वैसी भीड़ नहीं देखने को मिली, जो पिछले सालों में होती रही है.
सोशल मीडिया पर जीएसटी को ब्लू ह्वेल गेम का भारतीय वजर्न कहा जा रहा है. ऐसे भी मैसेज देखने को मिल रहे हैं, जिसमें हाल-चाल की जगह लोग जीएसटी रिटर्न की बात करते दिखते हैं. अभी दुर्गा पूजा में एक मैसेज आया, जिसमें मां से जीएसटी रिटर्न दाखिल करने की बुद्धि देने की बात कही गयी है. अगर ऐसे मैसेज और बातें आम लोगों के बीच हो रही हैं, तो संकेत अच्छे नहीं हैं.

सोमवार, 25 सितंबर 2017

समाज को बनानेवाली खबरें

बेतिया व बेगूसराय से समाज को राह दिखानेवाली ऐसी दो खबरें पांच दिनों में आयी हैं, जिनकी इस समय समाज को बड़ी जरूरत है. 20 सितंबर को बेतिया के साठी प्रखंड के धमौरा गांव से समाचार आया कि  वहां की पूजा कमेटी में 10 सदस्य हिंदू हैं, तो दस मुस्लिम भी शामिल हैं. यही नहीं एक तारीख को मोहर्रम के दौरान निकलनेवाली जुलूस की तैयारियों में हिंदू समाज के लोग जुड़े हैं. यानी मुस्लिम दुर्गापूजा का इंतजाम कर रहे हैं. कैसे पूजा होगी, कहां पंडाल बनेगा. मां को क्या भोग लगेगा. पूजा के बाद कितने लोगों को प्रसाद खिलाया जायेगा भंडारा में, तो हिंदू समाज के लिए मोहर्रम में मातम मनाते नजर आयेंगे. यह गंगा जमुनी तहजीब का ऐसा नमूना है, जिसे हमारी पीढ़ियां सीचती आयी हैं और इसे अब हमारी पीढ़ी आागे बढ़ा रही है.
यहां सुबह होते ही धमौरा पंचायत के पूर्व मुखिया जाकिर गुलाब यह चिंता करना शुरू कर देते हैं कि माईस्थान की सफाई कैसे होगी. पंडाल कब तैयार हो जायेगा. वहीं, पूजा समिति के अध्यक्ष देवेंद्र कुमार झा की चिंता इस बात की है कि मोहर्रम के दौरान निकलनेवाले जुलूस में किसी तरह की कोर-कसर नहीं रह जाये.
हाल के सालों में जिस तरह से धार्मिक असहिष्णुता की बात होती रही है. वैसे में धमौरा के लोगों का प्रयास भले ही छोटा हो, लेकिन इसका संदेश बहुत बड़ा है. धमौरा की तरह ही बेगूसराय की किरोड़ीमल गजानंद दुर्गा पूजा समिति के 24 सदस्यों में 17 मुस्लिम समुदाय के लोग हैं यानी समिति में इन लोगों का बहुमत है. किरोड़ीमल में बीते 97 साल से पूजा हो रही है. यहां मंदिर से पचास मीटर की दूरी पर मस्जिद है, जहां पांचों वक्त की नमाज होती है, जब नवाज का समय होता है, तो मंदिर में होनेवाली पूजा का लाउडस्पीकर बंद कर दिया जाता है. यह भाईचारे और आपसी एकता की मिसाल है. इसके लिए किसी सरकारी या प्रशासनिक आदेश की जरूरत नहीं है. यह यहां के लोग खुद कर रहे हैं.

जब जिसे चाहिये बुरा कहिये, इससे आसान कोई काम नहीं

आज जब चारों ओर सच और झूठ को लेकर ऐसी हवा बनी हुई है कि इसमें अंतर कर पाना मुश्किल हो रहा है. आप किसी चीज को समझने की कोशिश करते हैं, तब तक उसके पक्ष में दो-चार ऐसी बातें आ जाती हैं, जो आपको परेशान करने लगती हैं. सोशल मीडिया के इस जमाने में जब एक-दूसरे को बुरा साबित करने की होड़ लगी हुई है. ऐसे में असलम साबरी को सुनना सुहाना लगता है. वह कहते हैं, जब जिसे चाहिये बुरा कहिये, इससे आसान कोई काम नहीं. सचमुच, किसी को बुरा कहने से आसान कोई काम नहीं है. ऐसा उन लोगों के लिए है, जो झूठ की खेती करते हैं. उसी को जीते हैं. आज हमारे आसपास ये आम हो चला है.
हर सक्षम हाथ में स्मार्ट फोन है. न्यू मीडिया का जमाना है. फेसबुक, ट्विटर, इंस्टाग्राम जैसी सोशल साइट्स हैं, जो आपके संदेश को देश-दुनिया तक पलक झपकते ही पहुंचाती हैं. अब हर आदमी पत्रकार है. अपनी मनमर्जी का पत्रकार, जो चाहे वो कहे और जो चाहे वो लिखे. हां, सोशल साइट्स के कुछ पाबंदियां लगानी जरूर शुरू की हैं, लेकिन हम जिस चीज की बात कर रहे हैं, अभी शायद वह उनके दायरे में नहीं आयी है और लगता है कि आयेगी भी नहीं.
बचपन में एक कहावत सुनता था कि दूसरे के बारे में उतना ही बोलना चाहिये, जितना आप सुन सकें, लेकिन यहां मामला उसका पूरा उल्टा है. यहां आप दूसरे के बारे में चाहे जितना बोल दें. मनगढंत चीजें ही तो कहनी हैं. आपकी कल्पना की उड़ान जितनी ज्यादा है, आप उतना सामनेवाले को धिक्कार सकते हैं. उसकी बुराई कर सकते हैं. यह हो रहा है, ऐसा करने में हम सब ये भूल जाते हैं कि हम कहां खड़े हैं. अगर मान लीजिये कि कोई गलत कह रहा है और कर रहा है, तो हमारा क्या काम है, क्या हम भी वैसे ही बन जायें या फिर हम अपने आपको उससे दूर रखें.
अगर मान लीजिये, किसी ने आपको भला-बुरा कहा, तो आप भी उसके बारे में वही कहेंगे, तो ऐसे में आपमें और उसमें अंतर क्या रह जायेगा. अगर हम ऐसी बातों में पड़ेंगे, तो शायद वह लक्ष्य हमसे दूर हो जायेगा, जिसके लिए हम काम कर रहे हैं. हमें पिछले एक-डेढ़ दशक पहले की महान क्रिकेटर भारत रत्न सचिन तेंदुलकर के बयान याद आते हैं, जब भी उनके खेल को लेकर आलोचना की जाती थी, तो वह उसका जबाव अपने कर्म (बल्ले) से देते थे, जब शतक जड़ देते थे, तो आलोचक अपने आप उनके फैन हो जाते थे. मुङो लगता है कि हमको किसी को बुरा कहने से अच्छा होगा कि हम अपने कर्म से यह साबित करें कि हमारी स्थिति क्या है? इससे माकूल और कोई जबाव नहीं होगा.

रविवार, 24 सितंबर 2017

स्वच्छता का अपमान नहीं करें जनाब!

प्रधानमंत्री बनने के बाद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने स्वच्छता को अभियान और जीवनचर्या में ढालने की मुहिम शुरू की, लेकिन यह मुहिम चंद ऐसे लोगों के कारण कभी-कभी हास्यास्पद बन जाती है, जो स्वच्छता के नाम पर दिखावा करने लगते हैं. भले ही यह फोटो खिचवाने के लिए किया जाता हो, लेकिन इसका संदेश सही नहीं जाता है. यह क्यों होता है, इस पर विचार किये जाने की जरूरत है, क्योंकि स्वच्छता का अपमान नहीं होना चाहिये.
हाल में एक तस्वीर देखने को मिली, जिसमें स्वच्छता अभियान चला रहे 25 से 30 में से पांच लोगों के हाथ में झाड़ थी और साफ करने के लिए फर्श पर केवल दो पत्तियां थीं, लेकिन लग रहा था कि सभी लोग कठिन परिश्रम कर रहे हैं, क्योंकि ऐसा पोज उन्होंने बना रखा था. यह करके समाज को आखिर हम क्या संदेश देना चाहते हैं? अगर आपको सही में स्वच्छता अभियान चलाना है, तो ऐसी जगहों का चुनाव करना चाहिये, जहां सही में गंदगी है. वहां अगर काम हो, तो लोगों को फायदा होगा और अगर कूड़े की वजह से कोई सार्वजनिक स्थान गंदा हो गया था, तो वह साफ हो जायेगा. इससे होगा ये कि लोग वहां पर गंदगी करने से पहले सोचेंगे.
दूसरी बात. सुबह के समय जब शहर में निकलिये, तो सफाई कर्मचारी कई स्थानों पर झाडू़ लगाते मिलते हैं. इनमें से कई लोग ऐसे होते हैं, जो कूड़ा उठाने के डर से झाड़ से सफाई तो करते हैं, लेकिन सड़क का कूड़ा धीरे से नाली में गिरा देते हैं और यह करते हुये आगे बढ़ते जाते हैं. सवाल है, क्या ऐसे सफाई कर्मी स्वच्छता को मुहिम के रूप में आगे बढ़ा रहे हैं.
हम उत्तर बिहार में रहते हैं. यहां के ज्यादातर जिलों में कूड़ा डंपिंग का स्थान नहीं है. शहरों से जो कूड़ा निकलता है. वह जैसे-तैसे सड़कों के किनारे डाला जाता है, जहां पर स्थान चयनित है. वहां पर कूड़ा पहुंच नहीं पाता है. ऐसे में हो क्या रहा है. इस पर विचार होना चाहिये. हम एक जगह के कूड़े से दूसरी जगह पर गंदगी कर रहे हैं. ऐसे और तमाम उदाहरण हैं, जिनके बारे में हम बात कर सकते हैं, लेकिन इस सबके के बीच महत्वपूर्ण ये है कि अगर हम स्वच्छता की बात करते हैं, तो हमको इसका भागीदार होना होगा. अपने घर से ही सही स्वच्छता को बढ़ाना होगा. अगर यह हम करते हैं, तो हम स्वच्छता के सपने को साकार कर सकेंगे, क्योंकि कोई भी सरकार बिना जन सहयोग के ऐसा नहीं कर सकती है.

शुक्रवार, 22 सितंबर 2017

केबीसी विनर सुशील बनेंगे शिक्षक!

केबीसी-पांच में पांच करोड़ का जैकपॉट जीत कर देश ही नहीं दुनिया में नाम करनेवाले सुशील कुमार ऐसे संवेदनशील इंसान हैं, जो दूसरे के दर्द को नहीं देख सकते. वह बिना बताये कितने लोगों की मदद करते रहते हैं. इसका अंदाजा शायद हम और आप नहीं लगा सकते हैं. इसके बारे में वह ज्यादा बात भी नहीं करना चाहते, जब कोई बात होती है, तो अपनी तारीफ पर वह चुप्पी साध लेते हैं और फिर बात बदल देते हैं. इससे वह कैसे इंसान हैं, इसका अंदाजा लग जाता है. सुशील भाई को टीइटी में सफलता मिली है. इसकी बधाई संबंधी पोस्ट मैं सुबह ही सोशल मीडिया पर लिख चुका हूं, लेकिन मुङो लगा कि उनकी इस सफलता पर इससे इतर भी कुछ लिखना चाहिये, क्योंकि वह जिस तरह से इंसान हैं. वैसा होना साधरण बात नहीं है. कहा जाता है कि साधरण बने रहना बहुत मुश्किल है, लेकिन सुशील भाई ने साधरण को साध रखा है. वह लगातार साधारण बने हुये हैं.
टीइटी में सफलता पर उन्हें चारों ओर से बधाई मिल रही है. ज्यादातर लोग उनसे शिक्षक बनने की बात कह रहे हैं. ऐसा इसलिए है, क्योंकि सुशील भाई ने अभी तक तय नहीं किया है कि वह नौकरी ज्वाइन करेंगे या नहीं, लेकिन मुङो लगता है कि लोगों के आग्रह पर वह जरूर विचार कर रहे होंगे और कोई बेहतर फैसला लेंगे.
मेरा जब भी मोतिहारी जाना होता है. अक्सर सुशील भाई से मुलाकात होती है. इस दौरान वह जिस आत्मीयता से मिलते हैं और बात करते हैं. वह अपने आप में अलग होती है. कुछ माह पहले मैं एक बैठक के सिलसिले में मोतिहारी गया था, तब उनसे मुलाकात हुई थी. काफी देर तक बातें होती रहीं. हम चाहते थे वह हमारे साथ थोड़ी देर और रहें, लेकिन उन्होंने विनम्र अनुरोध किया कि हमें जाना है. कुछ जरूरी काम है. मैंने पूछा, तो कहने लगे कि पत्नी ने कहा है, इसलिए मैंने टीइटी परीक्षा देने का फैसला लिया है. उसी की तैयारी कर रहा हूं. अब परीक्षा देना है, तो पढ़ना होगा. उन्होंने जिस सलीके से यह बात कही, मैं उन्हें रोक नहीं सका. उसके बाद दो बार और मुलाकात हुई. एक दिन मैं उनकी सितार क्लास में भी गया था, उनके गुरु के घर जहां, वह सीखते हैं. वह बेहतर सितार बजाने की चाहत भी रखते हैं. हालांकि मेरे हिसाब से वह अभी भी बेहतर प्रस्तुति देने लगे हैं.
सामाजिक बदलाव के लिए तो वह लगातार काम करते रहते हैं, जहां भी जरूरत होती है. वहां मौजूद रहते हैं. हाल में बाढ़ आयी, तो प्रभावितों की मदद में वह आगे आये. खुद प्रभावित इलाके में जाकर लोगों की मदद की. ऐसे कितने ही उदाहरण हैं, जिन्हें गिनाने में लंबा समय लगेगा. हां, एक बात और. सुशील कुमार ने समाज के आर्थिक रूप से कमजोर परिवार के एक सौ से ज्यादा बच्चों की पढ़ाई का जिम्मा उठा रखा है, जिनकी पढ़ाई का पूरा इंतजाम वह कर रहे हैं. 

गुरुवार, 21 सितंबर 2017

बात साधारण, लेकिन नतीजा असाधारण

बचपन में गांव में रामायण की कथा होती थी. एक महराज जी आते थे. लकदक कपड़े पहनते और बड़े नियम और संयम से रहते थे. पूरे नवरात्र कथा होती थी. दशहरा के दिन कथा का समापन होता था. बड़ी भीड़ उमड़ती थी. कथा सुननेवालों में महिलाओं व बच्चों की संख्या ज्यादा होती थी. मां की वजह से मुङो भी जाना पड़ता, क्योंकि तब तक मुझमे रामायण पढ़ने और कथा सुनने की ललक जग चुकी थी. गांव में कहीं भी रामायण का पाठ होता, तो वहां मैं जरूर जाता. अपने नंबर का इंतजार करता और रामायण का पाठ करने के बाद ही घर लौटता था. कई बार देर-रात हो जाती थी, जिसकी वजह से घर में डांट भी पड़ती, लेकिन वह मंजूर था.
हां, तो बात पंडित जी और रामयण की कथा की हो रही थी. रामायण के प्रसंग सुनाने के साथ वह हारमोनियम के साथ सुंदर भक्ति गीत भी सुनाते थे और किस्से-कहानियां भी बीच-बीच में कहते थे. उनके किस्से कहानियां कहने का अंदाज निराला था. एकता में शक्ति की कहानी, जो हम लोगों को स्कूल में पढ़ाई गयी, वह पंडित जी से भी सुनने को मिलती. वह बताते कि कैसे एक गांव में बड़ा व्यापारी रहता था, जिसने पूरे जीवन भर मेहनत करके बड़ा व्यापार करना शुरू किया, लेकिन इसी बीच वह बूढ़ा हो गया. उसका पूरा जीवन व्यापार को बढ़ाने में लग गया, लेकिन व्यापारी इस बात से परेशान था कि उसके पांच पुत्रों में से किसी की आपस में नहीं बनती थी. सब एक-दूसरे की खिलाफत करते. इससे व्यापारी की चिंता बढ़ती गयी, उसे यह लगता कि हमारी मृत्यु के बाद इतने बड़े व्यापार का क्या होगा?
व्यापारी लगातार परेशान रहने लगा, जिससे बीमार हो गया. उसे लगा कि वह अब नहीं बचेगा, तो उसने अपने पांचों बच्चों को एक दिन अपने पास बुलाया. पांचों बच्चे आये, लेकिन किसी की एक-दूसरे से बात नहीं हुई. बीमारी व्यापारी की चिंता और बढ़ गयी. इसी बीच उसने अपने पलंग (बेड) के पास से एक मोटी रस्सी निकाली और पांचों बच्चों की ओर बढ़ाते हुये कहा कि इस रस्सी को तोड़ सकते हो. इस पर उसके बच्चों ने कहा कि इसमें क्या है? अभी तोड़ देते हैं. एक-एक कर पांचों बच्चों ने प्रयास किया. पूरी ताकत लगायी, लेकिन रस्सी नहीं टूटी. इसके बाद व्यापारी ने कहा कि अब पांचों लोग मिल कर रस्सी को तोड़ दो. इसके बाद मन न होने के बाद भी पांचों ने मिल कर रस्सी को तोड़ने का प्रयास किया, लेकिन सफल नहीं हुये.
बच्चों की हालत देख, व्यापारी ने कहा कि रुक जाओ, तुम लोग इसे तोड़ नहीं सकते हो. इसके बाद उसने रस्सी ली और उसकी पांच लड़ियां अलग कर दीं और हर बेटे को एक-एक लड़ी दे दी. फिर क्या था. सभी बेटों ने कुछ ही सेकेंड में रस्सी को कई जगहों से तोड़ दिया. यह देखते ही व्यापारी ने कहा कि तुम लोगों को यहां बुलाने का मकसद पूरा हो गया. अब मेरी बात ध्यान से सुनो. जैसे रस्सी की पांचों लड़ियां एक में पिरोई हुई थीं, तो तुम में से पांचों लोग मिल कर उसे नहीं तोड़ सके, लेकिन उन्हें अलग कर दिया गया, तो तुम सबने कुछ ही देर में उन्हें तोड़ दिया. ऐसे ही अपना परिवार भी है. अगर तुम लोग मिल कर रहोगे, तो तुम्हें कोई पराजित नहीं कर सकता. तुम्हे आगे बढ़ने से नहीं रोक सकता. तुम अडिग लगातार आगे बढ़ते जाओगे, लेकिन फूट पड़ी, तो सब लोग कमजोर हो जाओगे.
पिता की बात सुन कर व्यापारी के पांचों बेटों को अपने किये पर पछतावा हुआ और उन्होंने उसी समय से साथ रहने का फैसला कर लिया, ताकि पिता के व्यापार को नयी उचाइंयों तक ले जा सकें. इस कहानी का मकसद ये है कि अगर हम किसी परिवार या संस्थान में एकता के साथ रहते हैं, तो हमें कोई भी डिगा नहीं सकता, लेकिन एकता में अगर दरार पड़ने लगी, तो फिर परेशानी से कोई बचा नहीं सकता. इस कहानी को सुनने के बहुत दिनों के बाद जब उच्च शिक्षा को प्राप्त कर रहा था, तो वैशाली का का इतिहास पढ़ने को मिला, जिसमें यह था कि किस तरह से यहां के लोग एकमत होकर फैसले करते थे. यही वजह थी कि वैशाली उस समय अजेय राज्य बन गया था, लेकिन जैसे ही एकता में ददार पड़ी, स्थितियां बदल गयीं.

सोमवार, 18 सितंबर 2017

ऐसी कोशिश बदल सकती हैं गांवों की तस्वीर

दरभंगा जिला मुख्यालय से बेनीपट्टी जानेवाली रोड लगभग 15 किलोमीटर दूर पिंचारूच गांव हैं. देश के अन्य गांवों की तरह यह भी है, लेकिन यहां जो मुहिम चल रही है. वह इसे अन्य गांवों से अलग करती है. गांव में प्राथमिक विद्यालय में पढ़नेवाले छात्रों को हिंदी और अंगरेजी बोलना सिखाया जाता है. इसके उत्साहजनक परिणाम सामने आ रहे हैं. वह बच्चे जो पहले मिड-डे मील के लिए स्कूल आते थे. अब पढ़ने के लिए स्कूल में आते हैं. छोटे-छोटे बच्चे हिंदी और अंगरेजी में फर्राटे से बोलते हैं. कविताएं सुनाते हैं, कहानियां पढ़ते हैं. गीत गाते हैं. यह बच्चे समाज के उस वर्ग से आते हैं, जिसे हम पिछड़ा के नाम से जानते हैं. गांव में यह प्रयोग शुरू हुआ मद्रास आइआइटी में प्रोफेसर रहे श्रीश चौधरी की पहल पर, जो सेवानिवृत्ति के बाद मथुरा की जीएलए यूनिवर्सिटी में सलाहकार के पद पर काम कर रहे हैं, लेकिन गांव से उनका संपर्क लगातार बना हुआ है.
श्रीश चौधरी की पहल पर गांव में अस्पताल बनाने का काम चल रहा है. वह कहते हैं कि जब मैं गांव आता था, तो यहां की पढ़ाई की स्थिति देख कर सोच में पड़ जाता था. इस दौरान मेरे मन में लगातार यह चलता रहता था कि क्या किया जाये, ताकि बच्चों में कम से कम हिंदी और अंगरेजी बोलने की क्षमता आए. इसी दौरान मेरे मन में यह विचार आया, जिसके बारे में मैंने गांव के बड़े-बुजुर्गो से बात की. इसके बाद प्लान तैयार हुआ.
प्लान बनने के बाद ग्रामीणों ने जिला प्रशासन के अधिकारियों के मुलाकात की. ग्रामीणों ने जब अपनी बात जिलाधिकारी के सामने रखी, तो उन्होंने सहर्ष गांव के स्कूल में छुट्टी के बाद एक घंटे और पढ़ाई का आदेश् दे दिया. इसी एक घंटे में प्राइमरी के बच्चों को हिंदी और अंगरेजी सिखाने का काम शुरू हुआ, वह भी बिना किसी फीस के. इसमें मदद गांव के लोगों और मद्रास आाइआइटी ने की.
बच्चों को पढ़ाने का जिम्मा गांव के सेवानिवृत्त बुजुर्गो, उच्च शिक्षा प्राप्त कर रहे छात्र-छात्रओं और ऐसी बहुओं को दिया गया, जो उच्च शिक्षा प्राप्त हैं. इन्हें पढ़ाने की एवज में एक घंटे का सौ रुपये दिया जाता है. इससे पढ़ाई करनेवाले छात्रों की आर्थिक मदद भी हो जाती है. साथ ही पढ़ाने से उनका ज्ञान भी बढ़ रहा है.
24 अक्तूबर 2016 को इस प्रयोग के दस महीने पूरे होने पर एक समारोह का आयोजन हुआ, जिसमें कई नामचीन हस्तियां आयीं. इनमें दरभंगा के तत्कालीन कमिश्नर, एसडीओ व पटना से कई अधिकारी शामिल हुए. 70 मिनट के समारोह के दौरान प्राइमरी के इन बच्चों ने ऐसे कार्यक्रम पेश किये, जिसने देखा, वह देखता रह गया. हिंदी, अंगरेजी और संस्कृत में ड्रामा से लेकर कविता व कहानी पाठ तक शामिल था. गांव में इस प्रयोग के डेढ़ साल हो गये हैं. पिंडारूच के लोग आसपास के गांवों के स्कूलों में भी यह प्रयोग करना चाहते हैं.
पिंचारूड में जो प्रयोग हो रहा है. आनेवाले दिनों में इसका असर देखने को मिलेगा, जब यह बच्चे प्राइमरी के बाद उच्च कक्षाओं में जायेंगे. ऐेसे ही प्रयोग अन्य स्कूलों में हों, तो इससे गांव में शिक्षा की स्थिति बदल सकती है, हिंदी और अंगरेजी में बोलनेवाले से बच्चों की ङिाझक खुलेगी और उनके लिए सफलता की राह खुलेगी. 

गुरुवार, 14 सितंबर 2017

केबीसी-नौ- गांधी जी से जुड़ा था एक करोड़ का सवाल

जेडी (यू) के यू का मतलब नहीं जाननेवाले बीरेश चौधरी केबीसी-नौ के पहले 50 लाख रुपये जीतनेवाले खिलाड़ी बन गये हैं. शुरुआती दौर में ही ऑडियंस पोल के जरिये जेडी (यू) के यूनाटेड का उत्तर देनेवाले बीरेश चौधरी के सामने एक करोड़ का सवाल भी आसान नहीं था. यह सवाल सत्य और अहिंसा के पुजारी महत्मा गांधी से संबंधित था. सवाल था, मेरे सत्य के प्रयोग के मुताबिक कृष्ण शंकर पांडया ने गांधी जी को क्या पढ़ने को कहा, इसका सही जवाब था, संस्कृत. यह जबाव बीरेश को नहीं मालूम था. इस समय उनके पास कोई लाइफ लाइन भी नहीं थी. ऐसे में उन्होंने गेम छोड़ने का फैसला लिया.
इससे पहले 50 लाख का सवाल भी आसान नहीं था. यह सवाल था 1951 के पहले आम चुनाव में किस कंपनी ने बैलेट बॉक्स बनाये थे. इसका सही जवाब था गोदरेज. इसका जवाब देने के साथ बीरेश 50 लाख रुपये जीत गये. इसके बाद वह रोमांचक दौर आया, जब उनसे 15वां सवाल किया गया और वो एक करोड़ की राशि जीतने के करीब थे, लेकिन ऐसा नहीं कर पाये. पेशे से शिक्षक बीरेश के माता-पिता साथ में आये थे, जब उनके हॉट सीट पर बैठने का मौका मिला, तो केवल वही एक ऐसे प्रतिभागी थे, जिनसे फास्टेस्ट फिंगर फस्ट का सही जवाब दिया था. इसके अलावा और कोई प्रतिभागी इसका सही जवाब नहीं दे सका था. यह जबाव देने में उन्हें आाठ सेकेंड का समय लगा था.

रविवार, 10 सितंबर 2017

स्वामी विवेकानंद का ऐतिहासिक भाषण, जिसके 125 साल पूरे

अमेरिका के शिकागो में विश्व धर्म सम्मेलन में स्वामी विवेकानंद का ऐतिहासिक भाषण, जिसके 11 सितंबर 2017 को 125 साल पूरे हो रहे हैं.
अमेरिका के बहनों और भाइयों
आपके इस स्नेहपूर्ण और जोरदार स्वागत से मेरा हृदय प्रसन्नता से भर गया है. मैं आपको दुनिया की सबसे प्रचीन संत परंपरा की ओर से धन्यवाद देता हूं. मैं आपको सभी धर्मो की जननी की तरफ से धन्यवाद कहूंगा और सभी जाति, संप्रदाय के लाखों-करोड़ों हिन्दुओं की तरफ के आपके प्रति कृतज्ञता व्यक्त करता हूं.
मेरा धन्यवाद उन वक्ताओं के लिए भी है, जिन्होंने इस मंच से यह कहा कि दुनिया में सहनशीलता का विचार सुदूर पूरब के देशों से फैला है. मुङो गर्व है कि मैं एक ऐसे धर्म से हूं, जिसने दुनिया को सहनशीलता और सार्वभौमिकता ग्रहण करने का पाठ पढ़ाया है. हम सिर्फ सार्वभौमिक सहनशीलता में विश्वास नहीं रखते, बल्कि हम विश्व के सभी धर्मो को सत्य के रूप में स्वीकार करते हैं. मुङो बेहद गर्व है कि मैं एक ऐसे देश से हूं, जिसने इस धरती के सभी देशों और धर्मो के अस्वस्थ और अत्याचारित लोगों को शरण दी है.
मुङो यह बताते हुये बहुत गर्व हो रहा है कि हमने अपने हृदय से उन इजराइलियों की स्मृतियां संभाल कर रखी हैं, जिनके धर्म स्थलों को रोमन हमलावरों ने तोड़ कर नष्ट कर दिया था और तब उन्होंने दक्षिण भारत में शरण ली थी. मुङो गर्व इस बात का है कि मैं एक ऐसे धर्म से हूं, जिसने महान पारसी धर्म के लोगों को शरण दी और अभी भी उन्हें प्यार से पाल-पोस रहा है.
भाइयों, मैं आपको एक श्लोक की कुछ पंक्तियां सुनाना चाहूंगा, जिसे मैंने बचपन से स्मरण किया और दोहराया है और जो करोड़ों लोगों द्वारा हर दिन दोहराया जाता है.
रुचीनां वैचित्र्याटृजुकुटिलनानापथजुषाम्
नृणामेको गम्यस्त्वमसि पयसामवर्ण इव.
(जैसे विभिन्न नदियां अलग-अलग �ोतों से निकल कर समुद्र में मिल जाती हैं. ठीक उसी प्रकार अलग-अलग रुचि के अनुसार विभिन्न टेढ़-मेढ़ अथवा सीधे रास्ते जानेवाले लोग अंत में भगवान में ही आकर मिल जाते हैं)
यह सभी जो अभी तक के सर्वश्रेष्ठ पवित्र सम्मेलनों में से एक है. स्वत: ही गीता के इस अद्भुत उपदेश का प्रतिपादन एवं जगत के प्रति उसकी घोषणा करती है.
ये यथा मां प्रपद्यन्ते तांस्तथैव भजाम्यहम्
मम वत्र्मानुवर्तन्ते मनुष्या: पार्थ सर्वश:
(जो कोई मेरी ओर आता है, वह चाहे किसी प्रकार का हो. मैं उसको प्राप्त होता हूं. लोग अलग-अलग रास्तों द्वारा प्रयत्न करते हुए अंत में मेरी ओर आते हैं.)
सांप्रदायिकता, हठधर्मिता और इसके भयानक वंशज लंबे समय से पृथ्वी को अपने शिकंजे में जकड़े हुये हैं. इन्होंने पृथ्वी को हिंसा से भर दिया है. कितनी ही बार यह भूमि खून से लाल हुई है. कितनी ही सभ्यताओं को विनाश हुआ है और न जाने कितने देश नष्ट हुये हैं. अगर ये भयानक दैत्य नहीं होते, तो आज मानव सभ्यता कहीं ज्यादा उन्नत होती, लेकिन अब समय पूरा हो चुका है.
मुङो पूरी उम्मीद है कि आज इस सम्मेलन का शंखनाद सभी हठधर्मिताओं, हर तरह के क्लेश, चाहे वो तलवार से हों या कलम से. सभी मनुष्यों के बीच की दुर्भावनाओं का विनाश करेगा.

मंगलवार, 5 सितंबर 2017

पुड़िया फाड़ कर देते हुये छात्र बोला, हमारा- गुरुजी का चलता है

मैं निराशावादी कभी नहीं रहा और भगवान से प्रार्थना करता हूं, आगे के जीवन में भी ऐसा मौका कभी नहीं आये, लेकिन जीवन में कुछ ऐसे पल आते हैं, जो लंबी समय तक सोचने को मजबूर करते हैं. आज शिक्षक दिवस है. हम सब शिक्षकों का सम्मान कर रहे हैं. अपनी तरह से आदर दे रहे हैं. अपने गुरुओं के बारे में सोशल साइट्स से लेकर बधाई संदेशों तक में बता रहे हैं. गुरु को गोविंद (भगवान) से बड़ा कह रहे हैं. यह सही भी है, हम लोग जिस राह पर हैं और जो भी हैं, वो उन गुरुओं की वजह से ही जिन्होंने हमें इस लायक बनाया है, लेकिन समाज की कड़वी हकीकत ये भी है कि पिछले तीन दशकों में समाज में बहुत चीजें बदली भी हैं. उनसे गुरु-शिष्य का रिश्ता भी अछूता नहीं रहा है. आगे मैं जिस वाकये का जिक्र करने जा रहा हूं, वो सभी गुरुओं के लिए नहीं है. बड़ी संख्या में ऐसे शिक्षक आज भी हैं, जो अपने वसूलों पर चलते हैं. उन्हीं की थाती की दुहाई हम देते हैं.
तीन साल पहले की घटना है. मैं गांव, एक पारिवारिक आयोजन में गया हुआ था, जहां मुङो प्राइमरी में शिक्षा देनेवाले कई शिक्षक मौजूद थे. परंपरा और स्वभाव के मुताबिक सभी शिक्षकों का पैर छूकर आशीर्वाद ले रहा था. इसी दौरान एक शिक्षक से बात होने लगी. पूछने लगे, कब आये? क्या कर रहे हो? शिक्षक के साथ बात चल ही रही थी. इसी बीच एक युवा छात्र, जो हमसे लगभग 15 साल छोटा होगा, पास में आया, उसने जेब से पान मसाले की पुड़िया निकाली, फाड़ी और शिक्षक की ओर बढ़ा दिया. गुरु-शिष्य परंपरा में मैं पहली बार ऐेसा नजारा देख रहा था. मुङो तो अपनी आखों पर विश्वास नहीं हो रहा था. शिक्षक भी हमें देख रहे थे. वह भी कुछ बोलने की स्थिति में नहीं थे. लगभग 30 सेकेंड तक हम सब एक-दूसरे को देखते रहे.
खामौशी के बीच हम में से पहली आवाज उसी छात्र की गूंजी, जिसने पुड़िया फाड़ कर शिक्षक की ओर बढ़ायी थी. कहने लगा, भैया, हमारा-गुरुजी का चलता है. यह सुनते ही गुरुजी भी थोड़ा सहज हुये और उन्होंने पुड़िया अपने हाथ में ले ली. हम तीनों की आपस में कोई बात होती, इसी बीच किसी ने मुङो आवाज दी, मैं उसकी ओर मुखातिब हो गया, लेकिन मन में कई सवाल उठ रहे थे, जिनके जवाब मुङो नहीं सूझ रहे थे.
 हां, एक बार-बार मन में जरूर आ रही थी. वह यह कि जब हमने स्कूल में पढ़ना शुरू किया था, तो वह स्कूल प्राइवेट (निजी) था. ईंट की छोटी-छोटी दीवारें और उस पर छप्पर रखा था. हमारे शिक्षक निजी नौकरी कर रहे थे. समय से स्कूल आते-जाते और पढ़ाते थे, लेकिन जब उन्हें पुड़िया फाड़ कर दी जा रही थी, तो स्कूल को मान्यता मिल चुकी थी. वहां छप्पर की जगह कंक्रीट की छतें थीं. हमारे समय में तीन छप्पर थे, लेकिन अब वहां दो मंजिला भवन में लगभग पचास क्लास रूम होंगे.
शिक्षक को सैकड़ों नहीं, हजारों रुपये का वेतन मिल रहा होगा. मुङो लगता है कि जितना समय यह परिवर्तन होने में लगा, उतने ही समय में गुरु-शिष्य के रिश्तों में भी बदलाव भी आया. हम लोग पढ़ते थे, तो पुड़िया नाम की चीज नहीं थी, लेकिन उदारीकरण के बाद बड़े पैमाने पर बदलाव हुये. हम सब बजार के हवाले हो गये. किसी विद्वान ने कहा है कि बजार में मानवीय रिश्तों, दया, करुणा और संवेदना की जगह नहीं है. वह टारगेट ओरियंटेड होता है, जिसमें मूल्य (दाम) ही सबकुछ तय करता है. हमारे गुरु-शिष्य परंपरा को भी शायद बाजार की ही नजर लगी है.