रविवार, 13 नवंबर 2016

विकास, आपकी शहादत पर हमें गर्व है

मधुबनी के झंझारपुर अनुमंडल के रैयाम गांव के रहनेवाले विकास कुमार मिश्र की चर्चा आज हर जुबान पर है. मिथिलांचल के साथ पूरा देश उन पर गर्व कर रहा है. बीएसएफ में जवान विकास जब अक्तूबर महीने में दशहरा के समय में गांव आये थे, तब परिजनों समेत किसी ग्रामीण को इस बात का आभास तक नहीं था कि यह उनकी अंतिम छुट्टी साबित होगी. दिल्ली में रहनेवाले तीन भाइयों से मिले, तो चार भाइयों की सर्किल पूरी हो गयी. सभी ने साथ बैठ कर खाना खाया.
विकास अपने परिवार में सबसे छोटे थे. उनसे बड़ी दो बहने और तीन भाई थे. सबकी शादी हो चुकी है और सब अपने परिवार के साथ सेटल हैं. भाई दिल्ली में रह कर निजी कंपनियों में काम करते हैं, जबकि बहनें अपनी ससुराल में. पिता का स्वर्गवास हो चुका है, सो घर में केवल मां रहती हैं, जिनकी देखभाल के लिए अभी विकास की बहन आयी हुई थी, क्योंकि मां इंद्रा देवी को हृदय की बीमारी है. इसी की चिंता विकास को सबसे ज्यादा थी. अपनी अंतिम छुट्टी में वो मां को लेकर काफी चिंतित थे. वह छुट्टी से वापस जाने से पहले मां की दवाइयां ला कर गये थे और वादा किया था कि इस बार जब घर आऊंगा, तो घर का काम पूरा करा दूंगा, क्योंकि फूस का घर अच्छा नहीं लगता.
जम्मू-कश्मीर के पुंछ में पोस्टिंग के बाद भी रोज मां को फोन करते थे और उनका हाल लेते थे. बस एक ही ताकीद करते थे कि मां समय से खाना और दवाई खाना, ताकि ठीक रहे. बहन से भी कुछ दिन और घर में रहने की गुजारिश की थी, जिस पर बहन मान गयी थी. बीते बुधवार को सुबह मां का हाल लिया और बहन से बात की, तब भी घर बनाने की बात दोहरायी. बताया, कैसे सीमा पर तनाव ज्यादा और लगातार पाकिस्तान की ओर से गोलीबारी की जाती है, जिसका वो लोग माकूल जवाब देते हैं. ये बात हुये कुछ घंटे ही बीते थे कि दिन में लगभग चार बजे उनके जख्मी होने की खबर घर में आयी और थोड़ी देर बाद ही उनकी शहादत की बात भी कही गयी. सहसा किसी को विश्वास नहीं हो रहा था.
शाम तक ये बात झंझारपुर समेत पूरे जिले व देश में फैल चुकी थी. विकास के घर पर सैकड़ों लोग जमा थे. मां-बहन को विश्वास नहीं हो रहा था, जिस बेटे व भाई से कुछ घंटे पहले ही बात हुई थी. इतनी अच्छी बातें कर रहा था. वह अब इस दुनिया में नहीं है. दिल्ली में विकास के भाई ने कहा कि मेरा भाई इस दुनिया से नहीं जा सकता. छठ के दिन ही पांच बार उससे बात हुई थी. ऐसा कैसे हो सकता है, लेकिन ऐसा हो चुका था. विकास ने देश की रक्षा करते हुये शहादत दे दी थी. शनिवार की सुबह जब विकास का पार्थिव शरीर पहुंचा, तो हजारों की संख्या में आसपास के लोग जुटे. उन्हें राजकीय सम्मान से अंतिम विदाई दी गयी. रैय्याम गांव के मध्य विद्यालय के पास ही उनका अंतिम संस्कार हुआ, जिस जगह पर अंतिम संस्कार हुआ. वहां ख़ड़े होने तक की जगह नहीं थी. सब लोग विकास को याद कर रहे थे. उनकी बहादुरी की बाद कर रहे थे.
विकास के सम्मान में नारे लगा रहे थे. पाकिस्तान को कायराना हरकत पर लागत दे रहे थे. इन सबके बीच मां इंद्रा देवी की चीख सबको परेशान कर रही थी. बहनें भाई को याद कर रही थीं. बड़े भाइयों को अपने छोटे भाई की शहादत पर गम था, साथ में गर्व भी, क्योंकि विकास देश की सरहदों की रक्षा करते हुये शहीद हुये हैं. यही चर्चा गांव के हर बच्चे-बच्चे में है. रैयाम गांव पहले से भी सैनिकों का गांव रहा है. यहां के लगभग पचास परिवारों के लाल देश की सेवा कर रहे हैं. विकास हमें भी आपकी शहादत पर गर्व है. आपकी शहादत को देश हमेशा याद रखेगा.

गुरुवार, 3 नवंबर 2016

अखिर, ये राष्ट्रवाद कितना पुराना है?

(वरिष्ठ समाजवादी चिंतक सच्चिदानंद सिन्हा जी का सामयिक वार्ता में लेख. उसी से साभार.)

हैदराबाद में छात्र रोहित वेमुला की आत्महत्या को लेकर उठा विवाद और इसके तत्काल बाद जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय (जेएनयू) के कुछ छात्रों द्वारा कथित रूप से राष्ट्र विरोधी नारे लगाये गये. इस घटना पर उठे विवाद ने अचानक राष्ट्रप्रेम और राष्ट्रीय वफादारी के सवाल को व्यापक विवाद का मुद्दा बना दिया है. जेएनयू विवाद में पुलिस ने आनन-फानन में एक शिक्षक समेत कुछ छात्रों को हिरासत में लेकर उन पर राष्ट्रदोह का मुकदमा ठोक दिया और कुछ उत्साही वकीलों ने, जिन्हें संघ का समर्थक बताया जाता है, अदालत मामले को संज्ञान में ले, इसके पहले ही कोर्ट परिसर में ही अभियुक्तों को लप्पड़-थप्पड़ से उनके जुर्म की गंभीरता का एहसास करा दिया. इसके बाद कुछ जमातें लगातार जहां-तहां मार-पीट और दंगा-फसाद से अपनी राष्ट्रभक्ति का इजहार करने में संलग्न हैं. प्रशासन भी यथासंभव, राष्ट्रभक्ति के इस उफान में हस्तक्षेप से कतराता है. अगर राष्ट्रवाद के नाम पर होनेवाले फसाद में कानून-व्यवस्था पक्षाघात का शिकार हो रही हो और आम नागरिकों की अभिव्यक्ति की आजादी राष्ट्रभक्ति के उन्माद में निरस्त हो रही हो, तो इस राष्ट्रभक्ति के उत्स और औचित्य पर विचार करना लाजमी हो जाता है. इसलिए भी कि प्राय: युद्धों में राष्ट्रभक्ति के उत्स और औचित्य पर विचार होता है. इसलिए भी कि प्राय: राष्ट्रीय युद्धों में राष्ट्रभक्ति की ऐसी भवाना का उभार होता है, जिसे विवाद से परे माना जाता है.
प्रख्यात समाजशास्त्री इमिल दुरखाइम ने सामुदायिक व्यवहारों को दो श्रेणियों में बांटा था.
1- सैक्रेड (पवित्र)
2. प्रोफेन (लोकाचारी)
सैक्रेड से मतलब उन व्यवहारों से था, जो मानवेतर और उदात्त हैं. अत: उन्हें मानवीय कसौटियों पर आंका नहीं जा सकता. प्रोफेन हमारे दैनन्दिन के कार्यकलापों का क्षेत्र है, जिनका आकलन हम रोजना हानि-लाभ की कसौटियों से करते हैं. राष्ट्रवाद के अतिरेक का खतरा इस बात से पैदा होता है कि इसे भी सैक्रेड यानी मानवेतर धार्मिकता की कोटि में डाल दिया जाता है, जिससे हम इसे उसके सांसारिक परिणामों की कसौटी पर नहीं कस सकते, जैसे यह कथन..मेरा देश सही या गलत सर्वोच्च है. हम इसके सभी कार्यो में शरीक हैं, भले ही वह गलत भी हो. कार्लमार्क्‍स ने भी धर्म को लोगों के लिए अफीम कहा था. राष्ट्रीयता के पीछे यही भावना है, जिससे संसार राष्ट्रीय और अंतराष्ट्रीय युद्धों की भयावह त्रसदियों से गुजरता रहा है. अगर हम पिछले दो महायुद्धों पर गौर करें, जिनमें करोड़ों लोग मरे और इतने ही लोग अपंग हुए, तो इसकी सच्चई दिखेगी और इससे हासिल क्या हुआ, अंतहीन कटुता.
18वीं शताब्दी के पहले राष्ट्रीयता का यह भाव कहीं नहीं था. यूरोप में भी नहीं. भारत में तो राष्ट्र राज्य (नेशन-स्टेट) का यह भाव था ही नहीं. एक क्षेत्रीय भाव, तो दूसरी जगहों की तरह यहां भी व्याप्त था, जब हम क्षेत्रीय भाव की बात करते हैं, तो इस दिलचस्प हकीकत पर ध्यान रखना जरूरी है कि यह क्षेत्र भाव अधिकांश जीवों में यानी पक्षियों में, मछलियों में, कुत्ताें, बिल्लियों व भैसों आदि में पाया जाता है. कुत्ते, भैंस अदि मल-मूत्र से अधिकतर क्षेत्र का सीमांकन करते हैं. हम मनुष्य झंडे, पताका या बाड़े बनाकर, लेकिन इसके पीछे समान रूप से व्याप्त वह पशु प्रवृत्ति ही है, जिससे हम एक क्षेत्र पर अपना वर्चस्व प्रदर्शित करना चाहते हैं. इसमें कुछ भी उदात्त या विशिष्ट नहीं है, जिसमें हमारी मानवीयता की व्याप्ति हो. समग्रता में विचार करने पर हमारी गरिमा की दृष्टि से हमारे तोपों, बंदूकों, युद्धपोतों और युद्धक वायुयानों का कुत्ताें और भैसों के मलमूत्र से ज्यादा महत्व नहीं है, जिससे वो अपनी सीमा का दावा करते हैं. तटस्थ होकर विचार करने पर यही एहसास होता है कि ये सब तुच्छ पशु के बल के प्रदर्शन से ज्यादा कुछ भी नहीं है. पशुओं में कुछ पैंतरेबाजी और हल्के भिड़ंत से वर्चस्व कबूल कर लिया जाता है. इसके विपरीत मनुष्य अपनी दावेदारी के प्रदर्शन का ऐसा कैदी बन जाता है कि राष्ट्र के नाम पर विनाशकारी युद्धों में उलझ जाता है. अपनी हैसियत के हिसाब से भारत भी आजादी की अर्ध शताब्दी में ही तीन युद्ध में उलझ चुका है और सीमा पर की झड़पें तो रुटीन बन गयी हैं.
जारी..

बुधवार, 2 नवंबर 2016

क्या बात है, मुजफ्फरपुर में 7डी थियेटर!

आधुनिक सुख-सुविधाओं पर अपना ज्यादा विश्वास नहीं है, लेकिन जब बात होती है, तो जानने समझने की कोशिश जरूर करता हूं. पिछले छह साल से मैं दो बार ही सिनेमा हाल में गया हूं. वह भी एक बार पूरा सिनेमा देखा था, दूसरी बार बीच में वापस चला आया. सिनेमा हाल के मामले में कभी मुजफ्फरपुर का नाम हुआ करता था. इसे प्रदेश की सांस्कृतिक राजधानी के तौर पर प्रचारित किया जाता है. यहां कई सिनेमा हाल थे, जो अब भी देखने को मिल जाते हैं, लेकिन इनमें से ज्यादातर बंद हो चुके हैं. गिने-चुने हाल ही चालू हालत में हैं.
एक-दो सिनेमा हाल के बारे में बताते हैं कि हाल के महीनों में उनकी व्यवस्था ठीक हुई है, लेकिन कभी जाने का मौका नहीं मिला, न ही मन हुआ, लेकिन दो नवंबर को शाम के समय सड़क पर टहल रहा था. उसी दौरान एक बिल्डिंग के कुछ बच्चे 7डी थियेटर की बात कर रहे थे. कह रहे थे कि अपने शहर में नया सिनेमा हाल खुल गया है, जिसमें पिक्चर देखने का अनुभव बिल्कुल अलग है. बच्चे आपस में चर्चा कर रहे थे कि उनके परचित लोग वहां गये थे. वह सिनेमा देख कर आये हैं. हाल के अंदर उन्हें कई तरह के अनुभव हुये.
जैसे अगर पानी बरस रहा है, तो लगता है कि सिनेमा देखनेवाला भी भीग रहा है. अगर स्क्रीन पर सांप चल रहा है, तो लगेगा कि सांप आपके पास से होकर गुजर रहा है. अगर स्क्रीन पर बर्फ गिर रही है, तो आपको इस बात का एहसास होगा कि आप बर्फबारी के बीच में बैठे हुये हैं. ये बिल्कुल नये तरह के अनुभव के बारे में बच्चे बात कर रहे थे, तो मैं भी उनकी बातों का सुनने लगा. उनमें कुछ बच्चे कह रहे थे कि मैं भी हाल में पिक्चर देखने जाऊंगा. मैंने अपने पापा को इसके बारे में बताया है. वो हम लोगों को वहां ले जाने के लिए तैयार हैं.
7डी थियेटर क्या होता है? इससे अभी तक मैं भी अनजान हूं. सही कहूं, तो मुङो तो ये भी पता नहीं चल पाया था कि शहर में 7डी थियेटर खुल गया है. हां, ये जरूर सुनता था कि द ग्रैंड माल में जल्दी ही थियेटर खुलनेवाला है. दो बार वहां जाना हुआ, तो नोएडा, गाजियाबाद व दिल्ली के मालों की याद आयी. बस फूड कोर्ट व थियेटर की कमी खल रही थी. अगर थियेटर चालू हो गया है. वह भी 7डी, तो अच्छा है. मैं भी कोशिश करूंगा कि वहां जाकर सिनेमा देखूं, क्योंकि ये मेरे लिये भी नया अनुभव होगा.

चुनाव यात्रा - आठ- रास्ते से हट जाओ भारत के भविष्य

पिछले साल इन दिनों वोटिंग का दौर जारी था. उसी के साथ जारी थी मेरी चुनाव यात्र भी. उत्तर बिहार के विभिन्न जिलों में घूमने के बाद उस शहर के मिजाज को देखने और समझने की बारी थी, जिसमें मैं रहता हूं. इसके लिए मैं ऑफिस की गाड़ी छोड़ दी. रिक्शे व टेंपो का सहारा लिया. कुछ दूर टेंपो से यात्र की, तो उसमें मनमानी देखने को मिली. एक ही जगह जाने के एक टेंपो वाले पांच रुपये लिये, जबकि दूसरे ने दस रुपये, जब मैंने प्रतिवाद करने की कोशिश की, तो कहने लगा कि महंगाई का जमाना है, मैंने जो किराया बताया है, वो तो देना ही पड़ेगा. खैर, मैंने दस रुपये देकर किसी तरह से उससे मुक्ति पायी, लेकिन इसके साथ एक सबक भी. शहर में टेंपो को लेकर जो चर्चा होती है, वो अनायास नहीं है.
अब भी टेंपो वालों को देखता हूं, तो वह दिन याद आ जाता है, लेकिन उस यात्र के बाद मैंने तय किया और अब महीने में कम से दो-तीन बार टेंपो से जरूर चलता हूं. इसके अलावा पैदल चलना, तो मुङो खूब भाता है. कई किलोमीटर तक मैं चल सकता हूं. ये आदत मुङो बचपन से पड़ी, जब पढ़ने के लिए हम लोगों को पांच किलोमीटर पैदल जाना पड़ता था. खेत की मेड़ों से होते हुये. हम लोगों में ये होड़ रहती थी कि कौन एक घंटा से कम समय में स्कूल पहुंचता है, बच्चे थे. दौड़ते हुये जाते थे, तो 45 मिनट लगता था. कभी-कभी आराम से चलने पर एक घंटा पांच मिनट. खैर ये दूरी हम लोगों को रोज तय करनी होती थी. अगर किसी दिन साइकिल पर बैठ कर जाने को मिल जाता था, तो हम इसे अपना सौभाग्य मानते थे. इसकी बात फिर कभी. मुजफ्फरपुर शहर में भी मैं खूब पैदल चलने की कोशिश करता हूं. कई बार परचित लोग रास्ते में मिल जाते थे, तो वह अपनी गाड़ी से छोड़ देने की बात करते हैं, तो उन्हें विनम्रता से मना करने का मन होता है, लेकिन कई बार ऐसा नहीं कर पाता हूं.
चुनाव की फिजां का पता लगाने के लिए मैं कई किलोमीटर पैदल भी चला. एक जगह इच्छा हुई रिक्शे से चलता हूं. रिक्शेवाले से बिना किराया तय किये मैं बैठ गया और वो चलने लगा. कुछ ही दूर आगे बढ़ा था कि कुछ छात्र बीच सड़क से लेकर किनारे तक फैले हुये जा रहे थे. सब आपस में बात करने में मशगूल थे. पीछे से रिक्शेवाले ने दो तीन बार घंटी बजायी, जब इसका असर छात्रों पर नहीं हुआ, तो कहने लगा कि जरा किनारे हट जाओ भारत के भविष्य. रिक्शेवाले के मुंह से ऐसी बात सुन कर मुङो आश्चर्य हुआ. मुझसे नहीं रहा गया. मैंने उससे पूछा, तो कहने लगा कि और क्या कहूं. ये सब भविष्य ही तो हैं, जो हमारे आपके बाद देश को आगे बढ़ायेंगे. अगर इन्हें चोट लग जायेगी, तो मुङो अच्छा नहीं लगेगा. इसीलिए बोल दिया. आप जानते ही हैं कि अभी चुनाव का समय चल रहा है. पूरे शहर की स्थिति देख ही रहे होंगे. मैं अनजान बन कर उसकी बात सुन रहा था. अचानक रिक्शवाला पारंपरिक गीत गाने लगा, तभी हम अपने गंतव्य पर थे. हमने 20 का नोट उसे पकड़ाया, तो प्रसन्न हुआ और आगे बढ़ गया, लेकिन मेरी चुनावी तलाश अभी पूरी नहीं हुई थी.
जारी..