शनिवार, 26 अगस्त 2017

सतुआ-नमक को भी मोहताज जिंदगी

मुजफ्फरपुर समेत उत्तर बिहार में बाढ़ और बांध टूटने से जो हालात बने हैं, उन्होंने आदमी और जानवर के बीच के फर्क को मिटा दिया है. सैकड़ों लोग अब तक अपनी जान परेशानी के पानी (कभी पानी को उत्सव माना जाता था) में गवां चुके हैं. रोज ये आकड़ा बढ़ता जा रहा है, जो लोग बचे हैं. उनका हाल भी ठीक नहीं है. हजारों घर दह गये हैं. लाखों जिंदगियां सड़क और बांध के सहारे जीने को मजूबर हैं, जब आप इनके बीच जाइयेगा, तो आपको इनके दर्द का एहसास होगा. सरकार की ओर से राहत और बचाव की बात होती है, लेकिन ये शब्द कैसे अर्थहीन हो जाते हैं. इनको देखना है, तो कभी रुन्नीसैदपुर के पास बागमती के तटबंध पर चले जाइयेगा या मन करे, तो मुजफ्फरपुर के बेला औद्योगिक क्षेत्र के बगल से गुजरनेवाली तिरहुत नहर के बांध पर जिंदगी बिता रहे लोगों से पूछ लीजियेगा. बहुत आसानी से पता चल जायेगा.
जो लोग त्रसदी का शिकार हो रहे हैं. इनका क्या कुसूर था. बस यही ना कि इनमें से कुछ लोग कभी बांध के अंदर के गांवों में रहते थे और बांध बना, तो उसके बाहर आ गये. अब गांव नदी के पास है, तो कहां जाएंगे, लेकिन उनसे सवाल नहीं हो रहा है, जिनके जिम्मे इन बांधों की मरम्मत का जिम्मा है, जिसके नाम पर हर साल करोड़ों का वारा - न्यारा होता है. वो लोग तो देखने तक नहीं आये, जिन्हें इसकी जिम्मेवारी दी गयी है. आखिर किस समाज में रह रहे हैं हम. कैसे हम खुद को विज्ञान के युग का होने का दंभ भरते हैं. बांध पर जिन लोगों को जिंदगी तबाह हो रही है. उनमें से ज्यादातर के पास कुछ नहीं बचा है. पन्नी के नीचे जिंदगी है. बच्चों को बचाने की जद्दोजहद है और टकटकी लगाये निगाहें. कोई मदद के लिए आयेगा, तो सुबह और रात का खाना होगा. खाना भी क्या, कभी चूड़ा-गुड़, तो कभी खिचड़ी. दाल, चावल, रोटी और सब्जी, तो नसीब नहीं है.
बच्चे दिनभर बांध पर खेलते रहते हैं. पास में नदी और छोटे-छोटे गड्ढों में भरा पानी. चिलचिलाती धूप में बच्चे परेशान होते हैं, तो नहाने के लिए चले जाते हैं. इस दौरान भी हादसे हो रहे हैं. 14 अगस्त की सुबह जब बागमती का बांध टूटा था, तो उसके पांच घंटे बाद भादाडीह की सोगारथ को एसडीआरएफ के लोग बचा कर लाये, तो वह खूब रो रही थी. कुछ बर्तन व बच्चों के साथ उसे बाहर लाया गया था. घर में मवेशियों को बचा कर रखा था, उन्हें नहीं ला सकी. इसीलिए परेशान थी, क्योंकि मवेशी उसकी कमाई का जरिया थे, जिनकी जलसमाधि हो गयी होगी. घर का और सामान भी बागमती की धारा ने लील लिया.
मुशहरी इलाके की रहनेवाली रंजन देवी का दर्द भी ऐसे ही है. पति कमाने के लिए महीने भर पहले पंजाब गये, तो तीन बच्चों के साथ रंजन घर में अकेली बचीं. उन्हीं पर बच्चों के पालन-पोषण की जिम्मेदारी. पानी आया, घर डूब गया, तो गांव के स्कूल में बच्चों के साथ शरण ली. छह दिन तक वहां रहीं. खाने को मोहताज हुईं, तो गांव के स्कूल से आरजू- मिन्नत कर नाव के सहारे मुशहरी पहुंची, जैसे ही नाव किनारे लगी, तो रंजन व उसके बच्चों की हालत देख कर लोग खुद को गमगीन होने से नहीं रोक सके. साढ़े तीन साल की शिवानी दूध के लिए तड़प रही थी, तो पांच और सात के बच्चे खाने की खातिर. रंजन के लिए यहां से शिविर का सफर आसान नहीं था, लेकिन वह किसी तरह तिरहुत नहर के बांध पर पहुंची, जहां रहने की जद्दोजहद शुरू हुई.
सोगारथ व रंजन जैसी कहानियां एक नहीं, अनेक हैं. बस, आप इन जगहों पर पहुंच जाइये. आप अपना दुख भूल जायेंगे. हां, अगर आप इन जगहों पर जा रहे हैं, तो अपनी क्षमता के मुताबिक राहत का कुछ सामान जरूर लेकर जायें. पता नहीं किस जरूरतमंद के काम आ जाये, जिससे उसकी जिंदगी की सांस कुछ और बढ़ जायें, क्योंकि इन कैंप व बाढ़ प्रभावित इलाकों से रोज जो मौत की सूचनाएं आती हैं. वह मन को झकझोरनेवाली हैं. मुजफ्फरपुर शहर से सटे धीरनपट्टी गया था. वहां के लोगों ने बताया कि एक बच्च गेंहू पिसवाने के लिए चक्की पर गया था. रास्ते में सांप ने डस लिया, जिससे उसकी मौत हो गयी. औराई से खबर आयी कि गर्भवती दुखनी की परेशानी बढ़ी, तो गांव के लोग नाव खोजने लगे. नाव नहीं मिली. इससे दुखनी, इस दुनिया से चल बसी.

2 टिप्‍पणियां: