मंगलवार, 29 अगस्त 2017

वह आता, दो टूक कलेजे के करता पछताता

वह आता, दो टूक कलेजे के करता पछताता, पथ पर आता.
पेट-पीठ दोनों मिल कर हैं एक, चल रहा लकुटिया टेक.

महाकवि सूर्यकांत त्रिपाठी निराला की ये पंक्तियां बरसों पहले स्कूल के दिनों में पढ़ीं, तब से मानस में रच-बस गयीं. समय-समय पर स्मरण आता रहता, कभी गांव की यात्र के दौरान, तो कभी शहर की शोर भरी भीड़ के बीच, जिसमें कोई किसी को सुनने को तैयार नहीं. लगभग एक दशक के बाद आयी बाढ़ की विभीषिका ने हम पत्रकारों का काम भी बढ़ा दिया. अहले सुबह से लेकर देर रात तक कहां क्या हुआ कि तलाश में. बीते शनिवार रात की रात लगभग दो बजे काम खत्म करके घर जाने को हुआ, तो साथियों ने कहा कि साथ में चाय पीये बहुत दिन हो गया. चलते हैं, सब मिल कर चाय पीयेंगे और फिर अपने घरों को जायेंगे. सब साथ रेलवे स्टेशन रोड पर पहुंचे. चाय का आर्डर हुआ और हम लोग आपस में बात करने लगे. इसी बीच रामअशीष महतो, उम्र सत्तर के पार रही होगी. हम लोगों के पास आये. कुछ देर तक खड़े रहे. उनको देखते ही निराला जी कविता शिद्दत के याद आने लगी. बात करने की हिम्मत नहीं जुटा सका. कुछ देर तक रुकने के बाद, वह सड़क के पार गये और एक रिक्शा का हैंडिल पकड़ कर खड़े हो गये.
कुछ देर तक एकटक रामअशीष को देखता रहा. नहीं रहा गया, तो एक साथी से कहा कि उन्हें बुला लें. स्वाभिमानी रामअशीष पहले तो आने को तैयार नहीं हुये, लेकिन जब साथी ने बताया कि हम लोगों को कुछ बात करनी है, तो पास आये. बात शुरू हुई, तो कहने लगे, बेटा मुंबई में कमाता है. मेरे पास पोता रहता है. घर बाढ़ के पानी में दह गया, तो मंदिर में शरण लिये हैं. रात में रिक्शा चलाते हैं, तो खाना होता है. पोता मंदिर में सोता है, तो हम किराये पर रिक्शा लेते हैं. 35 रुपये रिक्शा का देना होता है. बाकी, जो बचे वो मेरा.
रामअशीष की काया ऐसी, जो निराला जी की कविता को भी मात दे रही. पेट और पीठ ऐसे मिले हुये, देख कर खुद अफसोस हो रहा था. कैसे समाज में हम रहते हैं. कहने लगे, शाम को खाना हुआ. होटल में पूड़ी-सब्जी खाया. बहुत कहने पर चाय पीने को तैयार हुये. बिस्कुट भी खाया. मैं लगातार रामअशीष को देख रहा था. उनसे कुछ और कहने और बोलने की हिम्मत नहीं जुटा पा रहा था. हमारे साथियों के सवाल भी लगा कि खत्म हो चुके हैं. चाय पीने के बाद वह धीरे से सड़क के पार गये और रिक्शे का हैंडिल पकड़ कर खड़े हो गये. शरीर पर एक धोती और फटा हुआ चप्पल छोड़ कर कुछ भी नहीं. भारी मन से मैं और मेरे साथी अपने घरों के लिए निकल गये, लेकिन रामअशीष की याद स्मृति से नहीं जा रही. निराला जी की कविता बार-बार समाज की हकीकत का एहसास कराती है. क्या हम और हमारा समाज इतना बेबस है? आखिर इस तस्वीर को कैसे बदला जा सकेगा? ऐसे तमाम अनगिनत और अनुरत्तरित सवाल.

शनिवार, 26 अगस्त 2017

सतुआ-नमक को भी मोहताज जिंदगी

मुजफ्फरपुर समेत उत्तर बिहार में बाढ़ और बांध टूटने से जो हालात बने हैं, उन्होंने आदमी और जानवर के बीच के फर्क को मिटा दिया है. सैकड़ों लोग अब तक अपनी जान परेशानी के पानी (कभी पानी को उत्सव माना जाता था) में गवां चुके हैं. रोज ये आकड़ा बढ़ता जा रहा है, जो लोग बचे हैं. उनका हाल भी ठीक नहीं है. हजारों घर दह गये हैं. लाखों जिंदगियां सड़क और बांध के सहारे जीने को मजूबर हैं, जब आप इनके बीच जाइयेगा, तो आपको इनके दर्द का एहसास होगा. सरकार की ओर से राहत और बचाव की बात होती है, लेकिन ये शब्द कैसे अर्थहीन हो जाते हैं. इनको देखना है, तो कभी रुन्नीसैदपुर के पास बागमती के तटबंध पर चले जाइयेगा या मन करे, तो मुजफ्फरपुर के बेला औद्योगिक क्षेत्र के बगल से गुजरनेवाली तिरहुत नहर के बांध पर जिंदगी बिता रहे लोगों से पूछ लीजियेगा. बहुत आसानी से पता चल जायेगा.
जो लोग त्रसदी का शिकार हो रहे हैं. इनका क्या कुसूर था. बस यही ना कि इनमें से कुछ लोग कभी बांध के अंदर के गांवों में रहते थे और बांध बना, तो उसके बाहर आ गये. अब गांव नदी के पास है, तो कहां जाएंगे, लेकिन उनसे सवाल नहीं हो रहा है, जिनके जिम्मे इन बांधों की मरम्मत का जिम्मा है, जिसके नाम पर हर साल करोड़ों का वारा - न्यारा होता है. वो लोग तो देखने तक नहीं आये, जिन्हें इसकी जिम्मेवारी दी गयी है. आखिर किस समाज में रह रहे हैं हम. कैसे हम खुद को विज्ञान के युग का होने का दंभ भरते हैं. बांध पर जिन लोगों को जिंदगी तबाह हो रही है. उनमें से ज्यादातर के पास कुछ नहीं बचा है. पन्नी के नीचे जिंदगी है. बच्चों को बचाने की जद्दोजहद है और टकटकी लगाये निगाहें. कोई मदद के लिए आयेगा, तो सुबह और रात का खाना होगा. खाना भी क्या, कभी चूड़ा-गुड़, तो कभी खिचड़ी. दाल, चावल, रोटी और सब्जी, तो नसीब नहीं है.
बच्चे दिनभर बांध पर खेलते रहते हैं. पास में नदी और छोटे-छोटे गड्ढों में भरा पानी. चिलचिलाती धूप में बच्चे परेशान होते हैं, तो नहाने के लिए चले जाते हैं. इस दौरान भी हादसे हो रहे हैं. 14 अगस्त की सुबह जब बागमती का बांध टूटा था, तो उसके पांच घंटे बाद भादाडीह की सोगारथ को एसडीआरएफ के लोग बचा कर लाये, तो वह खूब रो रही थी. कुछ बर्तन व बच्चों के साथ उसे बाहर लाया गया था. घर में मवेशियों को बचा कर रखा था, उन्हें नहीं ला सकी. इसीलिए परेशान थी, क्योंकि मवेशी उसकी कमाई का जरिया थे, जिनकी जलसमाधि हो गयी होगी. घर का और सामान भी बागमती की धारा ने लील लिया.
मुशहरी इलाके की रहनेवाली रंजन देवी का दर्द भी ऐसे ही है. पति कमाने के लिए महीने भर पहले पंजाब गये, तो तीन बच्चों के साथ रंजन घर में अकेली बचीं. उन्हीं पर बच्चों के पालन-पोषण की जिम्मेदारी. पानी आया, घर डूब गया, तो गांव के स्कूल में बच्चों के साथ शरण ली. छह दिन तक वहां रहीं. खाने को मोहताज हुईं, तो गांव के स्कूल से आरजू- मिन्नत कर नाव के सहारे मुशहरी पहुंची, जैसे ही नाव किनारे लगी, तो रंजन व उसके बच्चों की हालत देख कर लोग खुद को गमगीन होने से नहीं रोक सके. साढ़े तीन साल की शिवानी दूध के लिए तड़प रही थी, तो पांच और सात के बच्चे खाने की खातिर. रंजन के लिए यहां से शिविर का सफर आसान नहीं था, लेकिन वह किसी तरह तिरहुत नहर के बांध पर पहुंची, जहां रहने की जद्दोजहद शुरू हुई.
सोगारथ व रंजन जैसी कहानियां एक नहीं, अनेक हैं. बस, आप इन जगहों पर पहुंच जाइये. आप अपना दुख भूल जायेंगे. हां, अगर आप इन जगहों पर जा रहे हैं, तो अपनी क्षमता के मुताबिक राहत का कुछ सामान जरूर लेकर जायें. पता नहीं किस जरूरतमंद के काम आ जाये, जिससे उसकी जिंदगी की सांस कुछ और बढ़ जायें, क्योंकि इन कैंप व बाढ़ प्रभावित इलाकों से रोज जो मौत की सूचनाएं आती हैं. वह मन को झकझोरनेवाली हैं. मुजफ्फरपुर शहर से सटे धीरनपट्टी गया था. वहां के लोगों ने बताया कि एक बच्च गेंहू पिसवाने के लिए चक्की पर गया था. रास्ते में सांप ने डस लिया, जिससे उसकी मौत हो गयी. औराई से खबर आयी कि गर्भवती दुखनी की परेशानी बढ़ी, तो गांव के लोग नाव खोजने लगे. नाव नहीं मिली. इससे दुखनी, इस दुनिया से चल बसी.

गुरुवार, 24 अगस्त 2017

मादापुर में चलती है जेपी की ग्रामसभा

चंपारण सत्याग्रह के शताब्दी वर्ष में गांव- ग्रामसभाओं को और सशक्त बनाने पर बात हो रही है. ऐसे में गांधी जी के सपने को मादापुर की ग्रामसभा साकार कर रही है. इसकी स्थापना लोकनायक जय प्रकाश नारायण (जेपी) ने अस्सी के दशक में की थी, जब वो नक्सल उन्मूलन अभियान के तहत मुजफ्फरपुर प्रवास पर आये थे. मुशहरी अंचल के विभिन्न गांव में रहते हुये जेपी ने छह और ग्रामसभाएं स्थापित की थीं. अगर बिहार की बात करें, तो ऐसी कुल 52 ग्रामसभाओं की स्थापना लोकनायक की ओर से की गयी थीं. अन्य ग्रामस्पभाओं ने काम करना बंद कर दिया, लेकिन मादापुर में लगातार काम हो रहा है. यह ग्रामसभा पंचायती ग्राम व्यवस्था से अलग काम करते हुये मादापुर के लोगों को सस्ते दर पर सामान उपलब्ध करा रही है. जनकल्याण के काम कर रही है.
मुजफ्फरपुर से सरैया रोड पर मादापुर गांव छह किलोमीटर दूर है. पांच किलोमीटर मुख्य सड़क पर और एक किलोमीटर संपर्क पथ पर चलना पड़ता है. गांव तक अच्छी सड़क है. गांव में पक्के और साफ सुथरे मकान दिखते हैं, जो यहां के संपन्न होने का संकेत देते हैं. कुछ ही दूर आगे जाने पर बड़ा तालाब है, जो ग्रामसभा का है. इससे सटा हुआ मंदिर भी है. ग्रामसभा की तीन बार से अध्यक्ष  बन रहीं बंदना शर्मा कहती हैं कि मुख्यत: तालाब की आय से हमारी ग्रामसभा चलती है. तालाब के एक ओर बंदना शर्मा का घर है, तो दूसरी ओर कोषाध्यक्ष उमेश पांडेय का मकान. उमेश पांडेय टेलीफोन विभाग के कर्मचारी रहे हैं.
उमेश पांडेय के दरवाजे पर बड़ी दलान है. इससे जुड़े कमरे में ग्रामसभा का सामान है. इनके पास कड़ाही, भगोना, दरी, जाजिम. पंखा से लेकर शामियाना और 150 कुर्सियां भी हैं. दरी का किराया दस रुपये हैं, तो शामियाना सौ रुपये में मिलता है. मासांहारी खाने का सेट अलग है. ग्रामसभा का अपना बैंक एकाउंट है, जिसमें बर्तनों के किराये व तालाब में मछली पालन से मिलनेवाला पैसा जमा किया जाता है. इसका बैलेंस लाखों में है. गर्व से यह बात कोषाध्यक्ष उमेश पांडेय बताते हैं.
ग्रामसभा से जुड़े लोग कहते हैं कि समझदारी से ही हम लोग इसको चला रहे हैं, नहीं तो पूरे प्रदेश में दूसरी ग्रामसभा नहीं चल रही है. यह पूछने पर गांव के मुखिया और सरपंच का विरोध नहीं होता है, तो यह लोग बोल पड़ते हैं. हम उनके सहयोग के लिए हैं, विरोध के लिए नहीं. 2001 में पंचायत चुनाव से पहले हमारी ग्रामसभा को सरकारी मदद भी मिलती थी और भी अधिकार थे, लेकिन चुनाव के बाद हमारे अधिकार समाप्त कर दिये गये, जिसके लिए हाइकोर्ट में केस चल रहा है. ग्रामसभा के मंत्री पीर मोहम्मद हैं, जो सिंचाई विभाग में काम करते थे. रिटायर होने के बाद गांव में रहने लगे. पीर मोहम्मद कहते हैं कि यह अलग चीज है. इससे लोगों को फायदा है.
जेपी की ओर से स्थापित ग्रामसभा के पास पंचायतों जैसे संवैधानिक अधिकार नहीं है, लेकिन यह काम के बल पर अपनी पहचान बनाये हुये है. मादापुर गांव की मुख्य सड़क दो साल में ही टूट गयी है. इसको लेकर ग्रामसभा के सदस्यों में आक्रोश है. इनका कहना है कि हम लोगों ने निर्माण के समय ही इसका काम रुकवा दिया था. शिक्षक रहे नागेश्वर बैठा कहते हैं कि शिक्षा का स्तर लगातार गिरता जा रहा है. यह केवल मेरे गांव की बात नहीं है. पूरे प्रदेश की यही हालत है.
ग्रामसभा की अध्यक्ष बंदना शर्मा व कोषाध्यक्ष उमेश पांडेय गांव दिखाते हैं. कहते हैं कि ग्रामसभा केवल किराये पर ही देने का काम नहीं करती है. गांव के लोगों की मदद भी करते हैं. अगर कोई बीमार होता है या फिर कोई अन्य जरूरत पड़ती है, तब भी हम आर्थिक मदद देते हैं. समय-समय पर होनेवाली ग्रामसभा में पंचायत के चुने हुये प्रतिनिधि भी शामिल होते हैं, जो ग्रामसभा के फैसलों को लागू कराने में मदद करते हैं.
दो साल पर होनेवाला ग्रामसभा का चुनाव हाथ उठा कर होता है. इसके लिए राज्य स्तर से भूदान कमेटी के सदस्य पर्यवेक्षक के तौर पर आते हैं. बैठक में सदस्यों का नाम पुकारा जाता है, सब लोग हाथ उठाते हैं, तो उसे शामिल कर लिया जाता है. अगर हाथ नहीं उठते हैं, तो फिर उस पर विचार नहीं किया जाता है. कोषाध्यक्ष उमेश पांडेय कहते हैं कि गांव में होनेवाली छोटी घटनाओं को हम लोग ग्रामसभा के जरिये ही सुलझा लेते हैं, जब भी कोई घटना होती है, तो हम लोग बैठते हैं और फैसला करते हैं, जिसे सब लोग मानते हैं. अगर किसी मामले में गांव में पुलिस आ भी जाती है, तो वह हम लोगों से संपर्क करती है. हमारी कोशिश होती है कि गांव का मामला आपसी सहमति से ही सुलझ जाये. 2009 से गांव का मामला  दर्ज नहीं हुआ है.
स्किल डेवलपमेंट की चर्चा अभी जोरों पर है, लेकिन मादापुर गांव में ग्रासभा की ओर से इसका प्रयोग लगभग दस साल पहले किया गया था, जब ग्रामीणों को आर्थिक मदद दी गयी थी और उन्हें अपनी पसंद का काम करने की छूट दी गयी थी, ताकि वह आत्मनिर्भर बन सकें, लेकिन यह प्रयोग पूरी तरह से सफल नहीं हो पाया था.

शुक्रवार, 18 अगस्त 2017

बाढ़ नियंत्रण का कांसेप्ट ही गलत

बाढ़ नियंत्रण का कांसेप्ट ही गलत है. इसकी जगह बाढ़ प्रबंधन का काम होना चाहिये. नदियों को अविरल बहने देना चाहिये और जहां अवरोध हो, उसे हटाना चाहिये. यह बेसिक कांसेप्ट अपनाया जाना चाहिये. नदियों पर तटबंध बनाना कहीं से भी उचित नहीं है. यह सुरक्षा का भ्रम पैदा करते हैं. एक बात और जो मैं कहना चाहता हूं. दरअसल, हम लोग जिस इलाके में रहते हैं. वहां हिमालय से आनेवाली नदियां बहती हैं. यह पूरा इलाका इन्हीं नदियों की मिट्टी से बना है. पहले यहां समुद्र था. इसको समझना होगा कि हिमाचल दुनिया का सबसे नया पहाड़ है, जो बनने की प्रक्रिया में है. इसकी ऊंचाई हर साल कुछ सेंटीमीटर बढ़ जाती है, जिससे हिमालय क्षेत्र में हलचल होती रहती है. इसकी वजह से साल में सैकड़ों भूकंप भी आते हैं, इनमें कुछ बड़े भूकंप होते हैं, जो हमें पता चलते हैं, जबकि कई भूकंप ऐसे होते हैं, जिनके बारे में हम जान नहीं पाते हैं, लेकिन इन्हें संबंधित विभाग रिकार्ड करते हैं.
भूकंप की वजह से हिमालय में भूस्खलन (लैंडस्लाइड) होता है, जिसकी मिट्टी नदियों के जरिये मैदान तक आती है. मैं कह रहा था कि हिमालय की मिट्टी से अपने इलाके का निर्माण हुआ है. इसको समझना जरूरी है. भूगर्भ शाी निर्माण की इस प्रक्रिया को पैंजिया कहते हैं. आपको पता होगा कि धरती 12 बड़े टुकड़ों में बंटी है. इसके बीच समुद्र है. एक बात और आप सुनते और देखते होंगे कि कहीं खुदाई की जाती है, तो दो-ढाई हजार साल पुरानी बुद्ध की मूर्तियां व बुद्ध काल के अवशेष मिलते हैं. ऐसा इसलिए होता है कि क्योंकि तब से अब तक में मिट्टी की परत इतनी चढ़ गयी है. यह निर्माण की प्रक्रिया लगभग 12 लाख साल से जारी है, जो लाखों साल और जारी रहेगी.
हिमालय से आनेवाली मिट्टी को सबसे दुनिया में सबसे उपजाऊ माना गया है. इसके अलावा अमेरिका के मिसिसिपी घाटी की मिट्टी को भी सबसे उपजाऊ की श्रेणी में रखा गया है. आप सोचिये, इस साल बागमती का तटबंध चार जगह टूटा है. इससे पहले भी यह 58 बार टूट चुका है. बीत्ी 26 जुलाई को पटना में जल संसाधन विभाग की बैठक हुई थी, जिसमें बांधों को लेकर चर्चा की गयी थी, तब इंजीनियरों ने कहा था कि रख-रखाव के अभाव में तटबंध टूटते हैं, लेकिन हम लोग काम कर रहे हैं, जिसकी वजह से 2009 के बाद तटबंध नहीं टूटे हैं, तब मैंने कहा था कि 2009 के बाद ज्यादा बाढ़ ही नहीं आयी, तो बांध कैसे टूटता. इस बार बाढ़ आयी, तो देखिये कैसे बांध टूटे.
हम केवल बागमती की बात करें, तो यह अपने साथ हर साल लगभग एक करोड़ टन उपजाऊ मिट्टी लेकर आती है. पहले ये मिट्टी बाढ़ के साथ पूरे इलाके में फैल जाती थी, जिससे खेतों की उर्वरा शक्ति बढ़ जाती थी, लेकिन बांध बनने के बाद ये मिट्टी नदी के पेट में ही रह जाती है, जिससे वो ऊंचा होता जा रहा है. कई स्थानों पर नदी का पेट काफी उथला हो गया है. यही वजह है कि जब पानी आता है, तो बांध पर दबाव बढ़ जाता है और वह टूट जाता है. शुक्र मनाइये इस बार गंगा नदी में पानी ज्यादा नहीं है, क्योंकि यूपी, उत्तराखंड के इलाके में ज्यादा बारिश नहीं हुई है. अगर बारिश हुई होती, तो क्या होता. गंगा में जब पानी बढ़ता है, तो वह बिहार की नदियों पर दबाव बनाता है. भगवान की कृपा थी कि इस बार ऐसा नहीं है, नहीं तो स्थिति और भयावह होती.
हमारा साफ तौर पर कहना और मानना है कि बाढ़ नियंत्रण नहीं, बाढ़ प्रबंधन का इंतजाम किया जाना चाहिये, क्योंकि बाढ़ नियंत्रण एक भ्रम से ज्यादा कुछ नहीं है. हमारी हजारों साल की परंपरा रही है. नदी की धार खुद अपना रास्ता तय कर लेती है. तमाम किंवदंतियां, लोक कथाएं हैं, जो बाढ़ से संबंधित हैं. हमारे पूर्वज बाढ़ आने पर उत्सव मनाते थे. नाचते थे, झूमते थे, गाते थे. रेणु अब से कुछ दशक पहले रिपोर्टिग कर रहे थे. उस दौरान वह बाढ़ की कवरेज करने के लिए मुसहरों के इलाके में गये, तो वहां नृत्य हो रहा था. पास में जल रही आग पर भुट्टे भूने जा रहे थे. मुसहर समाज बाढ़ आने का जश्न मना रहा था. गांव में कहावत थी, बाढ़े जीली, सुखाड़े मरलीं. मिथिलांचल में कहावत है, आयल बलान, तो बनल दलान. गयल बलान, तो टूटल दलान. हमें इन कहावतों से सबक लेना होगा. नदियों को अविरल बहने देना होगा, तभी हम सुरक्षित रह पायेंगे.
हां, एक बात और बाढ़ के दौरान कई जगहों पर सड़क बह जाती है और जब बाढ़ का पानी उतरता है, तो सड़क को फिर से बना दिया जाता है. मेरा कहना है कि जब इंजीनियरों को यह पता है कि वहां पर बाढ़ से कटाव हुआ है. सड़क बही है, तो उन्हें वहां सड़क की जगह पुल का निर्माण करना चाहिये, ताकि अगली बार जब बाढ़ आये, तो वहां सड़क पर दबाव नहीं पड़े. इसके साथ हमें बड़े तालाब बनाने की प्रक्रिया फिर शुरू करनी चाहिये. पहले अपने इलाके में बड़े तालाब थे, अब तालाबों के लिए जो काम हो रहा है. वो किस तरह से कागजी है, ये किसी से छुपा नहीं है.
(अनिल प्रकाश, राष्ट्रीय संयोजक, गंगा मुक्ति आंदोलन ने शैलेंद्र से बातचीत में बताया)

बुधवार, 16 अगस्त 2017

टूटा बांध, आया सैलाब

नदियों को बांधने का प्लान जिसने भी बनाया होगा, उसने शायद इस तरह की विभीषिका के बारे में नहीं सोचा होगा, अगर बांध टूट जाये, तो क्या होता है. आप देख सकते हैं. सीतामढ़ी के रुन्नीसैदपुर में बागमती का बांध टूटा, तो क्या किस तरह से पानी उन इलाकों को फैलने लगा, जिन्हें सुरक्षित बता दिया गया था. बांध की मरम्मत के नाम पर खर्च होनेवाले करोड़ों रुपयों पर भी सवाल उठने लगा है.
https://www.youtube.com/watch?v=RujYScbZkOQ

रविवार, 13 अगस्त 2017

हाल की तीन घटनाओं से लें सबक

हाल के दिनों की तीन बड़ी घटनाएं, जिन्होंने समाज पर किसी न किसी रूप में असर डाला. सबसे लेटेस्ट घटना बक्सर के डीएम मुकेश पांडेय का आत्महत्या कर लेना. इसके जो कारण उन्होंने बताये हैं, उनके सामने आने के बाद जिस तरह से उनके ससुर का बयान आया है वो. मुकेश ने अपनी आत्महत्या की वजह पत्नी व माता-पिता के बीच संबंधों में कड़वाहट को बताया है. दूसरी घटना रेमंड कंपनी के मालिक का किराये के मकान में रहना. वजह बेटे की बेरुखी. तीसरी घटना अरबपति महिला का उसके पॉश इलाके के फ्लैट में कंकाल मिलना. उसकी मौत का पता तब चला, जब डॉलर कमा रहा बेटा, अमेरिका से सालभर बाद लौटा.
तीनों ही घटनाएं बजारबाद के बाद सामाजिक तानेबाने में आये बिखराव को बयान करती हैं. किस तरह से पद और प्रतिष्ठा होने के बाद भी लोग एकाकी हो जाते हैं. उनकी मदद को कोई नहीं होता है और कैसे उन्हें जीवन में परेशानियां उठानी पड़ती हैं. ऐसी तमाम घटनाएं समाज में हो रही होंगी. हो सकता है, जो इनसे भी भयावह हैं, लेकिन सामने नहीं आतीं. पिछले कई दिनों से लगातार ये घटनाएं जेहन में कहीं न कहीं घूम रही थीं. समाज की कड़वी हकीकत से रू-ब-रू करा रही थीं.
आखिर इस अंधी दौड़ में लोग किसके लिए यह सब कर रहे हैं, क्यों उन्हें समय पर होश आता है? क्या जीवन का असली उद्देश्य पैसा कमाना ही है? ऐसे अनगिनत सवाल? इसी क्रम में कुछ साल पहले की वरिष्ठ समाजवादी चिंतक सच्चिदा बाबू से हुई मुलाकात याद आयी. सच्चिदा बाबू वो व्यक्ति हैं, जो न्यूनतम जरूरतों में रहते हैं. ऐसा नहीं है कि वो आधुनिक सुख-सुविधाओं की चीजें नहीं रख सकते हैं, लेकिन वह इनका उपयोग नहीं करते हैं. बिजली कनेक्शन की जगह सोलर लाइट है. बिजली नहीं, तो पंखे का सवाल ही नहीं. गरमी की तपती दुपहरी में हम लोग पहुंचे थे, जिसमें वो बहुत की सुकून से थे. देश-समाज पर बताने लगे, तो इसी क्रम उन्होंने यूरोप से जुड़ी एक कहानी सुनायी, जिसमें विकास और उससे आयी समृद्धि से किस तरह से बेचैनी आती है, उसके बारे में बताया.
पॉश कालोनी में एक सपन्न परिवार रहता था, जिसके सभी सदस्यों के कमरे अलग थे. गाड़ियां अलग थीं. सबका घर आने-जाने का टाइम अलग था. सब अलग-अलग आते-जाते और अपने हिसाब से रहते थे. उस कोठी से कुछ ही दूर पर मजदूरों की एक झोपड़ी थी, जिसमें कई मजदूर रहते, जिनमें आपस में गजब का प्रेम. सुबह साथ में उठते, खाना बनाते, खाते और काम पर निकल जाते. शाम को वापस लौटते, तो मिल कर मनरंजन करते. खाना बनाते. खाते और सो जाते. किसी तरह का तनाव उनकी जिंदगी में नहीं था. इससे उलट संपन्न घर में तनाव ही तनाव. घर के सब सदस्य जब कभी भी मिलते, तो आपस में वाद-विवाद के और कुछ नहीं होता. झगड़े की वजह से कुछ ही देर में सब अलग हो जाते. घर के मुखिया को लगातार यह बात परेशान करती कि आखिर क्या वजह है, जो हमारे घर में लाख कोशिशों के बाद भी शांति नहीं है.
पड़ोस की झोपड़ी में मजदूरों के बीच प्रेम को देख कर वह प्रेरणा लेते. एक दिन उनसे नहीं रहा गया और वह झोपड़ी में पहुंच गये. वह सूत्र जानने के लिए जिससे मजदूर आपस में मिल कर खुश रह रहे थे. जीवन में कोई तनाव नहीं था. उनके बारे में सपन्न परिवार के मुखिया ने जाना और वापस अपने घर आ गये. उनके मन में लगातार उधेड़बुन चल रही थी. इसी बीच सोचने लगे. इतना अच्छे से झोपड़ी के लोग रहते हैं, क्यों न उनकी मदद की जाये, ताकि उनका जीवन स्तर भी कुछ ऊपर उठ सके. यही सोच कर उन्होंने कुछ सोना, मजदूरों को के दिया. इसके बाद मजदूरों की दिनचर्या बदल गयी. सोने के साथ झोपड़ी में समृद्धि आयी थी, लेकिन उनका सुकून और चैन धीरे-धीरे छिनने लगा. वजह वही सोना बना. सब मजदूर काम पर जाते, तो एक को झोपड़ी में रहना पड़ता. सोने की रखवाली के लिए. इसके बावजूद दूसरे मजदूरों में यह आशंका लगी रहती, कहीं, झोपड़ी में रुकनेवाला मजदूर बेइमानी नहीं कर ले. शाम का मनरंजन बंद हो गया, क्योंकि सब लौटते, तो एक-दूसरे को शक की निगाह से देखते. मजदूरों के बीच कभी-कभी किसी न किसी बात को लेकर झगड़ा भी होने लगा.
कहने का अर्थ यह कि समृद्धि अपने साथ किस तरह से एकाकीपन, आपस में विश्वास की कमी, एक-दूसरे को शक की निगाह से देखना, झगड़ा-लड़ाई, वह सब लेकर आयी, जिससे किसी व्यक्ति का सुकून छिन जाये. अभी हम लोग जिस समाज में रह रहे हैं. उसकी सच्चाई इससे अलग नहीं, बल्कि इससे भी ज्यादा कड़वी लगती है. कहते हैं कि हम मंगल गृह पर पहुंच गये, लेकिन अपने पड़ोस के फ्लैट में रहनेवाले व्यक्ति के बारे में नहीं जानते. हमने इस तरह से अपने को बना लिया है. सामाजिक सुरक्षा को ढाचा था, उस पर बड़ी चोट लगी है. प्राइवेसी के नाम पर. स्वतंत्रता के नाम पर और तमाम वजहे हैं, जिन पर समाज में बड़े पैमाने पर बहस की जरूरत है. मानव के विकास की यात्र की याद करें, तो शुरुआती दिनों से व्यक्ति समूह में रहते आये हैं, जिसमें हम सब एक-दूसरे से सुख-दुख के बारे में जानते रहे हैं, लेकिन विकास के बाद जब हम वर्तमान स्थिति में पहुंचे हैं, तो हमने खुद को अकेला बना लिया है. बच्चों को पिता पर विश्वास नहीं रह गया है. पति-पत्नी के रिश्तों की अहमियत नहीं रह गयी है. परिवार नाम की इकाई लगातार टूट रही है.
ऐसे में सवाल यह उठता है कि आखिर इसका हल क्या है? तो जानकार यही कहते हैं कि हमें फिर से अपनी जड़ों में लौटना होगा, तभी हम इन आधुनिक परेशानियों से बच सकते हैं. खुद को सेव कर सकते हैं. समाज को सेव कर सकते हैं.