सदियों से या यूं कहें पीढ़ी दर पीढ़ी, ये जद्दोजहद चल रही है, सब सुखी हों, संपन्न हों, ताकि सामाज रामराज्य की परिकल्पना की ओर आगे बढ़े, लेकिन जैसे हाथ की पांचों उंगलियां बराबर नहीं होती हैं, वैसे ही समाज में सबकी स्थिति एक जैसी नहीं रहती है. कभी कोई अभाव में, तो कोई प्रभाव में, तो कभी इसका उल्टा दिखता है. मुझे लगता है कि ये सिलसिला चलता जा रहा है और पीढ़ियां खपती जा रही हैं. रोशनी का महापर्व दीपावली में फिर से सारा जग रोशन है, लेकिन मुझे याद उस वृद्ध की आ रही है, जिनसे दो दिन पहले एक चौराहे पर भेंट हुई थी. अपने एक साथी के साथ पार्क में शाम की सैर करने के बाद लौट रहा था, तभी डिवाइटर पार करते समय एक आवाज आयी. प्लीज, इनकी मदद करिये, ताकि इनको सड़के के पार ले जाया जा सके.
नजरें, जैसे ही आवाज की ओर गयीं. पूरी शरीर सिहरन से कांप उठा. एक व्यक्ति पटना की व्यस्ततम सड़क पर घिसटता हुआ, चल रहा था. दो लोग उठाने की कोशिश कर रहे थे, लेकिन कामयाब नहीं हो सके. इसके बीच मोटर-गाड़ियों के गुजरने का सिलसिला बदरस्तूर जारी था, लेकिन किसी के पास इतना वक्त नहीं, जो ऐसे व्यक्ति के बारे में जाने, जो खुद चल नहीं सकता, लेकिन हांड़-मांस का बना, हम लोगों जैसा ही है. लगभग 5 मिनट की जद्दोजहद के बाद घिटते हुये वो व्यक्ति सड़क के किनारे आये, तो एक जिस युवती ने मदद की आवाज लगायी थी, उसने कुछ कहा और हाथ में कुछ दिया, जिसके बाद वो निकल गयी. इसके बाद उस व्यक्ति ने अपनी जेब से सुर्ती का पैकेट निकाला और मुंह में सुर्ती रखते हुये बगल में रखे बैग से प्लास्टिक का बोरा निकाला और उसे पैर से ओढ़ लिया और सिर के नीचे झोला रख कर लेट गये.
ये पूरी स्थिति देख कर मैं हथप्रभ था. मन में तरह-तरह के सवाल चल रहे थे. हमारे साथी का कहना था कि हम लोग आगे बढ़ते हैं, लेकिन हमारे कदम एक कदम आगे और दो कदम पीछे हो रहे थे. मैं समझ नहीं पा रहा था कि कैसे सड़क के किनारे इनकी रात कटेगी. इसी उधेड़ बुन में लगा हुआ था. तभी देवदूत की तरह एक युवक आया, जिसके हाथ में खाने के पैकेट और पानी की बोतल थी, जिसमें उस व्यक्ति को खाने का पैकेज पकड़ाया और पानी की बोतल थमा दी. मैं खुद को नहीं रोक पाया और उससे पूछ लिया, कैसे आपको इनके बारे में जानकारी है, तो उसने बताया, हम लंबे समय में इनके लिए रात का खाना लेकर आते हैं और ये घिसट कर चलते हैं. जिस स्थान पर हैं, इसी के आसपास ही रहते हैं.
युवक कहने लगा कि मरता, क्या न करता वाली स्थिति है. अगर कुछ व्यवस्था होती, तो ये ऐसे थोड़े ही रहते. सड़क के किनारे, अब तो दिनोंदिन इनकी स्थिति खराब हो रही है, लेकिन सबका मालिक एक ही है, भगवान, जिनकी कृपा बनी रहे. मुझे युवक की बातें देवदूत की तरह लग रही थीं. इसके साथ थोड़ा ढांढस भी मिला. कोई तो देखनेवाला है. अब जब दिवाली की तैयारी चल रही है, तो हमारे दिमाग में उस व्यक्ति की तस्वीर ही लगातार घूम रही है, उसका आज का दिन कैसे कट रहा होगा. रोशनी से नहाई सड़क के किनारे किस तरह से उसकी आवाज कोई सुन रहा होगा, या फिर वही फरिस्ता युवक उनके लिए रात का खाना लेकर आया होगा और पानी की बोतल- खाने का डिब्बा पकड़ा कर गया होगा. ये सब ऐसे सवाल हैं, जो दिमाग से निकल नहीं रहे हैं. मन बार-बार यही कह रहा है कि काश किसी के साथ ऐसा नहीं होता या फिर हम ऐसी स्थिति में पहुंच जाते, तो ऐसे लोगों के लिए कुछ कर सकते. ईश्वर ऐसा दिन लाये, जब इन जैसे लाचारों को सोचने की जरूरत नहीं पड़े. इनकी जिंदगी में रंग खुद- ब- खुद घुल जाएं. जिंदगी बदरंग नहीं रहे. अपनी बात मशहूर शायर मुनव्वर राना के एक शेर से खत्म करना चाहूंगा.
दुनिया तेरी रौनक से मैं ऊब रहा हूं.
तू चांद मुझे कहती थीं, मैं डूब रहा हूं.