गुरुवार, 8 फ़रवरी 2018

डिजिटल इंडिया की महाबस यात्रा

इंडिया में जब सब कुछ डिजिटल हुआ जा रहा है। सरकार से लेकर आम आदमी तक। चारों तरफ हरियाली ही हरियाली है। 12 करोड़ आबादी में 6.50 करोड़ मोबाइल। दुहाई पर दुहाई। बलिहारी पर बलिहारी। मोबाइल से पंखा, बिजली और एसी चलाने और बुझाने की तकनीकि का गुणगान। बलिहारी जा रहे हैं। तरक्की हो रही है। पकौड़ा छानने की तकनीकि पर भी बहस जारी है। ई पकौड़ा वाले कभी पटना से मुजफ्फरपुर तक बिहार सरकार की बस का सफर कर लें। सब भूत उतर जायेगा। सड़क फोर लेन और बस बिना लेनवाली। चढ़ते ही लगेगा कहां आ गये। डिजिटल का भूत, स्वच्छता की सौगंध, न्यू इंडिया का सपना बसवा की हालत तोड़ के रख देती है। धूल में सनी फ़टी हुई गद्दी। खिड़कियों को मात देते शीशे। ठंडी में शीशों के बीच बदन को चीरनेवाली हवा। सबका आंनद मन को मदमस्त कर देता है। टिकट का नंबर आयेगा, तो सुविधा के मुताबिक रिचार्ज करनेवाला मामला आ जाता है। 70 रुपये सरकारी किराया है। सो बात उससे शुरू हो और जितने में पट जाये। रोज जानेवालों का काम 30 में भी चल जाता है। कोई 50, कोई 40 और कोई 60 देकर इस बात में मगन रहता है कि हमने 30, हमने 40 रुपये बचा लिये। प्राइवेट में जाते तो 90 रुपये लग जाते। कुछ लोग ऐसे भी रहते हैं, जो पूरा टिकट का दाम इस आशा में देते हैं कि सरकार के पास पैसा जायेगा, तो बस का दिन सुधरेगा, वो रास्ते भर टिकट मांगते रह जाते हैं। जैसे पैसा लेनेवाला दिखता है टिकट की गुहार लगाते है। वो आश्वासन देकर ओझल हो जाता है। कहता है कि पैसा लिये हैं, तो टिकट जरूर देंगे। ओरिजनल टिकट मिलेगा। बस कुछ देर इंतजार करिये। यह इंतजार यात्रा खत्म होने तक का होता है, जो लोग जिद करके टिकट मांगते हैं, उनको उतरते समय पुरानी तारीख का टिकट पकड़ा कर जल्दी उतरने को कह दिया जाता है। ऐसा डिजिटल प्रयोग कि आप दिनभर सोचते रहिये। यह आज से नहीं सालों से जारी है।
एक सच्ची घटना बताते हैं। 2013 की बात है। रांची से एक गुरु जी आये और अपनी बहन से मिलने सीतामढ़ी चले गये। लौटने लगे, यो सरकारी बस दिखी। उसी में बैठ लिये। वामपंथी गुरु जी ने सोचा कि सरकार का कुछ फायदा करा देते हैं। पैसा दिया और टिकट की जिद पर अड़ गये। बार-बार टिकट की जिद, लेकिन टिकट नहीं मिला। मुजफ्फरपुर में उतरे, तो वही पुरानी डेटवाला टिकट थमा दिया गया। कहा गया ले लीजिये टिकट, रास्ते भर जान खा लिया। गुरुजी भी ज़िद्दी, तारीख पढ़ते ही फिर पलट कर लौटे शिकायत करने लगे, पुराना डेट है। सरकार को नुकसान पहुंचाया जा रहा है। नया टिकट दो, लेकिन इस बार गुरुजी को सरिया के उत्तर मिल गया, तो वह तिलमिला गये। इसी बीच मे अगवानी के लिए हम बस स्टैंड पहुंचे, तो गुरुजी ने बड़े कूल अंदाज में कहा कि एरिया मैनेजर का ऑफिस जानते हो। मैंने कहा कि हां। कहने लगे, चलो मिलना है, जरूरी बात करनी है। मुझको लगा कि गुरुजी के पुराने परिचित होंगे, लेकिन एरिया मैनेजर के सामने जाते ही गुरुजी फट पड़े। मैनेजर साहब हंस रहे थे, लेकिन गुरुजी का दर्द सुनकर सीरियस होने का नाटक करने लगे। घंटी बजी, आदेशपाल आया। कुछ देर बस का स्टॉप सामने था। देखते ही गुरुजी ने पहचान लिया। गुरुजी कुछ कहते, उससे पहले ही वो दुखड़ा रोने लगा। मौका ही नहीं मिलता टिकट काटने का। बस चलायें की टिकट काटें। मैनेजर साहब ने बात सुनी और सजा के रूप में एक के बदले पांच टिकट गुरुजी को खुश करने के लिए कटवा दिये। हम चुपचाप पूरी कहानी देख रहे थे। टिकट काटने के बाद स्टाप ने कहा कि अब तो ठीक है, हम जाएं। वो फ़टे हुए टिकट लेकर वापस जाने लगा, तो गुरुजी जोर से चिल्लाये, अरे ये फिर यही टिकट सवारियों को दे देगा। एरिया मैनेजर ने टिकट लेकर फाड़ दिया, तो बस कर्मचारी पूरे फार्म में आ गया। चाबी फेंक दी और चिल्लाते हुए बाहर निकल गया। मैनेजर साहब मनाने की मुद्रा में आ गये, लेकिन सामने गुरुजी थे, सो कहने लगे कि गलती पर मैं किसी को माफ नहीं करता। मुझे लगा कि एपिसोड पूरा हो चुका है अब चलना चाहिए। गुरुजी को लेकर वहां से डिजिटल सोच की तरह आगे बढ़ गया।